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________________ το आत्म- केन्द्रित एवं ईश्वर केन्द्रित धर्म दर्शन : डॉ० मांगीमल कोठारी आत्म- केन्द्रित धर्म और दर्शन भारत के प्राचीनतम धर्मों में जैन धर्म ने ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार किया और हर जीव को अपने कर्म का कर्ता और भोक्ता होने के विचार को मान्यता दी । अपने पुरुषार्थ से कर्मों के क्षय द्वारा आत्म-विकास करके मोक्ष प्राप्त करने की क्षमता में पूर्ण विश्वास ने इसे ईश्वर केन्द्रित न होकर आत्म-केन्द्रित बनाया । कर्म का क्या स्वरूप है, और सभी कर्मों का क्षय किस प्रकार हो, यह जैन दर्शन का मुख्य विषय बन गया । आत्मज्ञान की प्राप्ति कर्मों के क्षय होने से ही हो सकती है। कर्म का क्षय कर्म से नहीं हो सकता । ह्र कर्म से नया कर्म ही बनता है, चाहे शुभ हो या अशुभ | जब निर्जरा के द्वारा बुरे कर्मों का क्षय होने लगा या लगता है तो बचे हुए शुभ कर्मों की शक्ति जीव को ज्ञान के विकास की ओर अग्रसर करती है । अन्त में ज्ञान द्वारा बचे हुए कर्मों का नाश उसी प्रकार हो जाता है जिस प्रकार घास के ढेर का एक चिनगारी द्वारा। इस प्रकार मोक्ष - पाप्ति के लिए निर्जरा का महत्व बतलाकर जैन दर्शन ने शुरू से ही एक ऐसी भावना को प्रेरणा दी जिसे लोगों ने कर्म-संन्यास नाम से प्रचलित किया । मोटे तौर पर इसी तरह का समाधान बुद्ध ने भी प्रस्तुत किया । महावीर और बुद्ध के समय में देश में एक ऐसा दार्शनिक वातावरण बन गया जब उपनिषद, जैन और बौद्ध दर्शनों ने पूर्णतः ज्ञानमार्ग को बढ़ावा दिया । परन्तु वेदों से प्रेरणा वाले कुछ उपनिषदों ने इस धारणा की ईश्वर केन्द्रित दर्शनों से समन्वय करने की चेष्टा की । पूर्वमीमांसा ने वैदिक धर्म को अपनाया, जबकि उत्तर-मीमांसा ने एकतत्ववादी उपनिषदों को आधार बनाया । वेदों की खुलकर निन्दा न करते हुए भी उपनिषदों में वैदिक मूल्यों का अवमूल्यन किया गया । शंकराचार्य मौटे तौर पर आत्म- केन्द्रित रहे । परन्तु वेदान्त की अन्य सभी शाखाओं के आचार्यों ने ईश्वर- केन्द्रित दर्शनों का प्रतिपादन किया जिसके फलस्वरूप दार्शनिक जगत में एक ऐसा अन्तर्विरोध बढ़ गया जिसका समाधान करने का हर प्रयास विफल रहा । यह विरोध केवल सिद्धान्त की दृष्टि तक ही सीमित नहीं रहा। इसके बहुत महत्वपूर्ण व्यावहारिक परिणाम निकले । वेदान्त के आचार्यों ने एकेश्वरवाद और एकतत्ववाद का मिश्रण कर दिया । इसने दर्शनशास्त्र को एक अमिट उलझन में डाल दिया । वेदान्त के आचार्य उस उलझन में खो गये । जबकि सेमेटिक धर्म पूर्णरूप से ईश्वर - केन्द्रित रहे । वेदान्त पर आधारित सभी धर्म और दर्शन न तो पूर्णरूप से ईश्वर - केन्द्रित रहे, न पूर्णरूप से आत्म- केन्द्रित रहे । उन्होंने कर्म के सिद्धान्त में कर्मफल की अनिवार्यता को मानते हुए भी ईश्वर को कर्मफल पर वीटो (Veto) की शक्ति प्रदान की । प्रारब्ध, विधि, कर्मगति में सब को बाँधकर भी पुरुषार्थ के लिए उचित स्थान बनाये रखा और ईश्वर की सर्वशक्तिमानता में कमी नहीं आने दी । वेदान्त के अनुयायी व्यावहारिक जीवन में वैदिक कर्मकाण्ड और उस पर आधारित स्मृतियों से प्रेरणा लेते रहे । इस प्रकार भारतीय जीवन में एक तरफ वैदिक कर्मकाण्ड और दूसरी तरफ जैन प्रेरित निर्जरा के प्रभाव से अधिक से अधिक बचने का विचार, जो जैन और वैदिक धर्म दर्शनों में निरन्तर विवाद का विषय बना हुआ था, वह अब वेद-वेदान्त के भीतर भी विवाद का विषय बन गया । गीता ने स्पष्ट रूप से उस समय के विचार-द्वन्द्व को "कर्मयोग बनाम कर्म संन्यास " के द्वन्द्व के रूप में प्रस्तुत किया । कर्म द्वारा मोक्ष की प्राप्ति या कर्मसंन्यास द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के विषय पर बहुत लम्बे समय तक विवाद चलता रहा । गीता ने अपने दर्शन को ईश्वर केन्द्रित बनाकर कर्म के साथ ज्ञान और भक्ति का इस तरह मिश्रण किया कि उससे उलझन बढ़ती ही गई । शंकराचार्य ने व्यवहार में सभी तरह के विरोधा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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