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जैन हिन्दी काव्य में 'सामायिक'
डा0 (श्रीमती) अलका प्रचण्डिया 'दीति' (एम. ए. (संस्कृत), एम. ए. (हिन्दी), पी. एच. डी.)
सुप्रसिद्ध विदुषी
मोक्षमार्ग के साधन-ज्ञान, दर्शन, चारित्र-सम कहलाते हैं उनमें अयन यानि प्रवृत्ति करना सामायिक है। 'सम' उपसर्गपूर्वक 'आय' धातु में इक प्रत्यय के योग से सामायिक शब्द निष्पन्न हुआ जिसका अर्थ है-आत्मस्वरूप में लीन होना । वस्तुतः समभाव ही सामायिक है । सब जीवों पर समता-समभाव रखना. पाँच इन्द्रियों का संयम-नियन्त्रण करना, अन्तर्हदय में शुभ भावना, शुभ संकल्प रखना, आर्तरौद्र दुानों का त्याग करके धर्मध्यान का चिन्तन करना 'सामायिक' है। 'योगसार' में आतध्यान और रौद्रध्यान का त्याग करके तथा पापमय कर्मों का त्याग करके मुहूर्त-पर्यन्त समभाव में रहना 'सामायिक व्रत' का उल्लेख द्रष्टव्य हैयथा
त्यक्तार्त-रौद्रध्यानस्य, त्यक्त सावद्यकर्मणः । मुहूर्त समता या तां, विदुः सामायिकंव्रतम् ।।
-योगसार ३/७२ 'आवश्यक अवचूरि' में सामायिक को सावध अर्थात् पापजनक कर्मों का त्याग करना और निरवद्य अर्थात् पापरहित कार्यों को स्वीकारना माना है-यथा-'सामाइयं नाम सावज्ज जोग परिवज्जणं निरवज्ज जोग पडिसेवणं च ।' 'भगवती' के अनुसार आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थफल हैयथाआया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठे ।
-भगवती १/४ सामायिक व्रत भलीभाँति ग्रहण कर लेने पर श्रावक भी साधु जैसा हो जाता है, आध्यात्मिक उच्चदशा को पहुँच जाता है । अतः श्रावक का कर्तव्य है कि वह अधिक से अधिक सामायिक करेयथा
सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ।।।
-आवश्यक नियुक्ति ८००/१ चाहे कोई कितना तीव्र तप तपे, जप जपे अथवा मुनि-वेष धारण कर स्थूल क्रियाकाण्ड रूप चारित्र पाले, परन्तु समता भाव रूप सामायिक के बिना किसी को मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है। सब द्रव्यों में राग-द्वेष का अभाव तथा आत्मस्वरूप में लीनता ही सामायिक है
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