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________________ १७६ नारी : मानवता का भविष्य : सुरेन्द्र बोथरा स्त्री शरीर की संरचना में चर्बी की मात्रा अधिक होती है । इस चर्बी का सर्वाधिक अंश उसके नितम्बों में केन्द्रित होता है । इससे उसका शारीरिक सन्तुलन पुरुष की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है । स्त्री की मांसपेशियाँ दीर्घ सहनशक्ति की क्षमता लिये होती है तथा शक्ति के लिए वात-कायाग्नि पर निर्भर करती है । उसकी मांसपेशियों के तंतु पतले होते हैं जिससे पोषक तत्त्वों तथा ऑक्सीजन की रक्त तथा कोशिकाओं के बीच रचनान्तर की गति तीव्र होती है । अपेक्षाकृत कम शारीरिक वजन तथा कम ऑक्सीजन को आवश्यकता के कारण उसमें दीर्घकालीन क्रियाशीलता की क्षमता होती है । मांसपेशियों के जोड़ वाले तंतुओं में अधिक लचीलापन होने के कारण उसको चोटग्रस्त होने के प्रति अधिक प्रतिरोधकता होती है। पुरुष की तुलना में स्त्री अभ्यास के दौरान कम थकती है तथा अधिक एकाग्रता बनाये रखती है। ये सब गुण उसे शारीरिक खेलों के क्षेत्र में अधिक संतुलित प्रगति की ओर ले जा रहे हैं। हाँ पुरुष के मुकाबले उनमें विस्फोटक शक्ति की कमी अवश्य होती है । जिससे कम समय व दूरी तथा विशुद्ध शारीरिक शक्ति वाले खेलों में वह पुरुष से पीछे रह सकती है। मानसिक व बौद्धिक क्षेत्रों में भी अनेक स्थानों पर स्त्री पुरुष से अधिक सक्षम पाई गई है। विपरीत परिस्थितियों में संतुलन बनाये रखने की क्षमता स्त्री में पुरुष से अधिक होती है। मानसिक तनाव के जिस बिन्दु पर पुरुष टूट जाता है, स्त्री सहजता से पार कर लेती है। तकनीकी कार्यों में भी वे सभी क्षेत्र जिनमें सूक्ष्म, कलात्मक तथा संवेदनशील कार्य प्रणालियाँ होती हैं, स्त्री पुरुष से अधिक कुशलता प्राप्त कर लेती है । किसी भी क्षेत्र का अध्ययन करें तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्रकृति ने स्त्री को क्षमता में पुरुष से किसी भी भाँति निर्बल या हेय नहीं बनाया है। सामाजिक विकृतियों तथा पुरुष की दुरभिसंधियों ने उसे निर्बल बना दिया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले पचास वर्षों से नारी की स्थिति में निरन्तर सुधार हुआ है। किन्तु यह सुधार अपेक्षानुसार व्यापक और स्वस्थ है या नहीं इसमें सन्देह है । आज भी स्त्री पर पुरुष की अपेक्षा अत्यधिक अत्याचार होते हैं । आज भी वह अपने आपको असुरक्षित पाती है। आज भी उसे हर कदम पर अपने आपको तैयार करना पड़ता है पुरुष द्वारा नियन्त्रित समाज के विरोध का सामना करने को । आज भी दहेज का दाह और वैधव्य की विडम्बना उसका पीछा नहीं छोड़ते । और ऐसे ही अनेकों कारणों से आज भी उसके जन्म को कोसा जाता है । इतनी भी प्रगति हो गई है कि यह सब खुलेआम कम होता है चुपके-चुपके अधिक । और वह भी इसलिए नहीं कि नारी का वर्चस्व किसी मात्रा में स्थापित हो गया है अपितु इसलिए कि पुरुष की संभ्रान्तता की परिभाषा कुछ बदल गई है ।। नारी विकास की इस मंथरगति के पीछे है हमारी सामूहिक कुण्ठित मानसिकता । पराधीनता के सैकड़ों वर्षों ने हमारी संस्कृति के अनेक स्वस्थ अंशों को नष्टप्राय कर दिया था। स्वाधीनता के बाद हम उन्हें पुनः जीवन्त कर पाने की ओर एक कदम भी नहीं बढ़ पाये । कारण है कि आज भी शासन, समाज, शिक्षा आदि सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर नियन्त्रण उसी समुदाय या उसके उत्तराधिकारियों का है जिसकी रचना विदेशी शासन ने शासित समुदाय के शोषण के लिये की थी। इस समुदाय में स्त्री और पुरुष दोनों ही शामिल हैं। तनिक गहराई में उतरें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि हमारे सर्वांगीण विकास में बाधारूपी यह समर्थ समुदाय अन्य सभी क्षेत्रों के समान नारी वर्ग को भी पूर्णतया अपने नियन्त्रण से रखने की चेष्टा में निरन्तर जुटा रहता है । यह चतुर सनुदाय भलीभाँति समझता है कि स्वस्थ समाज की रचना स्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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