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________________ खण्ड ५ : नारी - त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि १७७ जाति को उसका उचित स्थान देने पर ही हो सकती है । स्वस्थ समाज की रचना से सर्वाधिक हानि निहित स्वार्थी वाले नियन्त्रक समुदाय की ही होगी । अपने ही स्वार्थों के विरोध में स्वयं ही कौन कदम उठायेगा । और यों ये गुत्थी सुलझने की जगह उलझती चली जाती है। इसका सारा उत्तरदायित्व है उस वर्ग का जो कहीं शासन की बागडोर थामे है तो कहीं धर्म की, कहीं शिक्षा की नीति निर्धारक बना बैठा है तो कहीं सामाजिक रीति-रिवाजों का । सचमुच यदि नारी की स्थिति सुधारनी है तो समर्थ तत्वों को स्वार्थ त्याग करना होगा और सामान्य तत्वों को अपनी कुंठित मानसिकता को दूर करना होगा । इस कुंठा से पुरुष और स्त्री दोनों ही पीड़ित हैं । कोई भी एकांगी उपाय समस्या को जटिल ही करेगा । नारी मुक्ति का अर्थ यदि उसे मानवीय समाज में उसके अपने स्वाभाविक स्थान पर पुइर्स्थापित करना है तब तो उसकी दिशा स्वस्थ है । किन्तु यदि उसका अर्थ मात्र घर से निकलकर सड़क पर आ जाना है तो वह एक कुंठा से निकल कर दूसरी कुंठा में फंस जाने से अधिक कुछ नहीं है । मातृत्व स्त्री की प्राकृतिक क्रिया है । पुरुष ने उसके इस प्राकृतिक गुण को उसकी निर्बलता के रूप में स्थापित कर दिया और वह आज भी उस मानसिकता से उबर नहीं पा रही है । इसका समाधान खोजने के लिये यदि वह मातृत्व से घृणा कर उससे परे हटेगी अथवा उसे गौण करेगी तो मात्र उसकी ही नहीं समस्त मानवता की हानि होगी । उसे यह समझना होगा कि जिसे वह अपनी सबसे बड़ी निर्बलता का स्रोत समझ बैठी है वह है उसकी सबसे बड़ी शक्ति जो प्रकृति ने उसे दी है । प्रजनन की प्रक्रिया में नारी का अंश अत्यधिक महत्वपूर्ण है । सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो भविष्य के समाज का भार अधिकांशतः नारी पर है । सर्जनात्मक प्रक्रियाओं के अन्त के साथ समाज के भविष्य का अन्त होना निश्चित है । माँ के बिना संतान नहीं, संतान के बिना वंश नहीं और वंश के बिना भविष्य का समाज नहीं । इस सर्जन का उत्तरदायित्व मात्र भौतिक क्रिया-कलाप तक ही सीमित नहीं है । माँ सन्तान को जन्म ही नहीं देती, उसकी सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिक्षिका भी होती है । इतिहास उठाकर देखें और निराग्रह विश्लेषण करें तो प्रतीत होगा कि नारी के अपने नैसर्गिक स्थान से धकेल दिये जाने के साथ-साथ आरम्भ हुआ है, मानव जाति में मानवीयता के ह्रास का इतिवृत्त । मानवता को निरन्तर जटिल होती आतंकवाद, नशीली दवाओं के सेवन, पर्यावरण आदि की समस्याओं से यदि कोई उबार सकता है तो वह है नारी । आज का समाज तो अपने विकृत आग्रहों से मुक्त हो सकेगा यह कठिन लगता है । कल के नागरिकों से ही आशा की जा सकती है कि वे विश्व को विकास की सम्यक दिशा दें । और कल के नागरिक का निर्माण करने वाली है केवल स्वस्थ मानसिकता व आत्म-विश्वास लिये सुशिक्षित, सुसंस्कारी व साहसिक नारी । वह नारी जो न तो अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व का बलिदान व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिए करती है और न परिवार के लिये अपनी महत्वाकांक्षाओं का गला घोंटती है । वह नारी जिसके नारीत्व में तो कोई कमी नहीं है किन्तु जो निर्बल नहीं है । बह नारी जो स्वाभिमानिनी है किन्तु हीन भावना से प्रेरित मिथ्याभिमान के आग्रह से ग्रसित नहीं हैं । वह नारी जो न तो पुरुष की दासी है न उसे अंगुलियों पर नचाने वाली नायिका अपितु है कंधे ने कंधा मिला मानवीय विकास के पथ पर बराबर के कदम उठा चलने वाली सहधर्मा । जैनागमों के मूल प्रतिपादन इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, क्योंकि वे उन कतिपय विचारधाराओं के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने नारी को सहज समानता की दृष्टि से देखा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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