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________________ खण्ड १ ! व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण १४१ पू० गुरुवर्याश्री को जब भी मैंने देखा, जिस समय में देखा, जहाँ भी देखा, उन्हें समता की भावनाओं से ओतप्रोत ही देखा। क्रोध के प्रसंग में भी समतामूर्ति गुरुवर्याधी को कभी उत्तेजित होते नहीं देखा, इतनी समता, शान्ति शायद ही कहीं देखने को मिलती है, जैसे गुरुवर्याश्री में। हर समय शान्त, सरल, सौम्य गुरुवर्या श्री के निश्रा की शरण भव-भव में प्राप्त हो। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व से ग्रंथित यह अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है । अत्यधिक प्रसन्नता है, किन्तु मैं अकिंचन, अल्पज्ञ, तुच्छ बालिका किन शब्द के द्वारा आपके महान गुणों को अभिव्यक्त करूं। क्योंकि महान व्यक्ति के जीवन चरित्र को पूर्ण रूप में तो केवल"श्रद्धा, सभक्ति, सविनय आपके सद्गुणों का अभिनन्दन एवं दीर्घायु की शुभकामना करती हुई चरणों में शतः-शतः कोटि-कोटि वन्दन। 0 श्रीमती शान्ता गोलेच्छा __ इस धरातल पर कुछेक विभूतियाँ ऐसी हैं, जो स्वयं का उद्धार करने के साथ-साथ अन्यों का उद्धार करने में भी समर्थ हैं। कुछेक ऐसी विभूतियाँ होती हैं जो अपने पुरुषार्थ से संयमी जीवन के सम्पर्क में आने वाले प्राणियों का उद्धार करने में सशक्त होती हैं । ऐसी त्याग, तप, चारित्रमय आत्माओं का जीवन विराट, व्यापक और विशाल होता है। उनके हृदय में प्रत्येक व्यक्ति के प्रति करुणा की भावना भरी होती है। ऐसी ही एक विभूति है “यथानाम तथागुण" धारिका प्रवर्तिनी गुरुवर्या श्री सज्जनश्रीजी महाराज साहब ।। आपश्री से मेरा परिचय ३० वर्ष से है। जब मैं छोटी थी, जब से माता-पिता के धर्मनिष्ठ संस्कारों से संस्कारित होने के कारण मुझे भी धर्म सीखने की प्रेरणा मिलती रही। अतः एक दिन मैं उनकी प्रेरणा से प्रेरित होकर जयपुर में विराजित प्रवर्तिनी महोदयाश्री प. ज्ञानश्रीजी म. सा. की विदुषी शिष्या पूज्यवर्या श्री सज्जनश्रीजी म. सा. के पास धर्म सीखने गई। जैसे ही महाराज की सरल सौम्याकृति देखी कि मैं उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सकी। वैसे मुझे महाराज के पास आना-जाना कम ही पसन्द था, किन्तु महाराजश्री के वात्सल्यमय मृदु-मधुर व्यवहार से मन सहज उनकी ओर आकर्षित हो गया । और आने-जाने का क्रम प्रतिदिन प्रारम्भ हो गया। जब मैं गुरुवर्याश्री को धार्मिक पाठ सुनाती तो कई बार उच्चारण की अशुद्धता करने पर भी बड़े प्रेम से समझाती थीं। पुनः फिर उसे बड़े प्रेम से शुद्ध करवाती थी। इस अर्से में मैंने कभी उनको क्रोध करते हुए नहीं देखा। और न कभी उन्होंने ऐसा ही कहा कि “कितनी बार तुमको शुद्ध बताया फिर भी अशुद्ध बोलती हो।" ऐसी समतामूर्ति के संयोग से मेरी भी धर्म में रुचि जागृत हो गई। उनके इस वात्सल्यमय व्यवहार के कारण मेरा आकर्षण गुरुवर्याश्री की ओर दिनानुदिन बढ़ता गया और अल्प समय में ही मैंने पंचप्रतिक्रमण आदि अनेक वीजें सीख लीं। इस प्रकार मुझ जैसी अज्ञानबाला को धर्म में जोड़ने का श्रेय-श्रद्ध या गरुवर्याश्री को ही है। अतः उनका मुझ पर अनन्त-अनन्त उपकार है। उस उपकार से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती। गुरुवर्या श्री की कृपा मुझ पर सदा से है और सदा रहेगी, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। तथा मैं अपने इष्ट देव से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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