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खण्ड १ | जीवन ज्योति यही प्रार्थना करती हूँ कि आपकी कृपा दिनानुदिन बढ़ती जाये। आपका वरदहस्त मेरे मानस को सदा उजागर करता रहे व दीर्घ समय तक आपकी शीतल छाया, सम्यक्निश्रा हमें प्राप्त होती रहे।
0 श्री सोहनराज भंसाली, जोधपुर श्री सज्जनश्री जी महाराज का जैसा नाम है, वैसी ही वे गुणनिधान हैं । “यथा नाम तथा गुण" यह लोकोक्ति आपके जीवन में यथार्थ चरितार्थ होती है । सचमुच में आप सरलता, शालीनता, सौजन्यता एवं सेवापरायणता की जीवन्त मूर्ति ही हैं।
कठोर श्रम, निरंतर अध्ययन, कुशाग्रबुद्धि एवं सीखने और जानने की दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण आपने जैनसाध्वी समुदाय में आगमज्ञाता के रूप में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया । आपके आगमज्ञान से प्रभावित होकर जैन समाज ने आपको "आगम ज्योति" की उपाधि से अलंकृत किया जो सर्वथा योग्य ही है। वर्तमान में खरतरगच्छ में ही क्या समग्र जैन समाज के साध्वी मंडल में आपके समान आगम साहित्य की ज्ञाता शायद ही कोई साध्वी होगी ऐसा कह दूं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यों तो वर्तमान में नई पीढ़ी की साध्वी समुदाय में अनेक, एम. ए., पी.-एच. डी. (डॉक्टरेट) आदि विश्वविद्यालयों की उच्च डिग्रियाँ प्राप्त विदुषी साध्वियाँ हैं। परन्तु जैन आगम साहित्य जैसा उच्च और गहन अध्ययन आपका है वैसा इन डिग्रीधारी साध्वियों में नहीं है, यह एक तथ्य है। ज्ञान और चरित्र का संगम
महाराजश्री एक उच्च कोटि की आगमज्ञा होते हुए भी आपके जीवन व्यवहार में संयम धर्म की मर्यादाओं की पालना एवं धर्म क्रियाओं के आचरण में कोई कमी या ढिलाई नहीं है। इसका अर्थ आप यह भी न लगायें कि आप एक दकियानूसी, कट्टर रुढिवादी हैं और आँख मूदकर पुराने विचारों का समर्थन या पोषण करती हैं । यद्यपि आप पुरानी पीढ़ी की आर्या हैं तथापि आपके विचार आधुनिक हैं। यही कारण है कि आप अपने प्रवचनों में "माइक" का प्रयोग कई दशकों पूर्व से ही करती आ रही हैं जो आपकी प्रगतिशीलता का द्योतक है।
मुझे यहाँ परम अध्यात्मयोगी द्रव्यानुयोग के महान ज्ञाता श्रीमद् देवचन्द्र जी की वे पंक्तियाँ स्मरण आती हैं जो उन्होंने अपने शिष्यों को उद्बोधन या सिखावन देते हुए कही थी।
"पग प्रमाण सोडि ताणज्यो, श्री संघनी हो तमे धरज्यो आन ।
बहिज्यो सूरिजीनी आज्ञा, सूत्र शास्त्र हो तुमे धरज्यो ज्ञान ।। इन पंक्तियों में श्रीमद् ने कहा, गुरु की आज्ञा में वफादार रहते हुए भी, श्री संघ की आज्ञा को मानते हुए भी, सूत्र शास्त्र में बताये मार्ग का अनुसरण करते हुए भी "पग प्रमाण सोडि ताणज्यो" अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को सामने रखना, उस पर चिन्तन मनन करना, उस पर ध्यान देना।
महाराजश्री श्रीमद् की इन पंक्तियों का मर्म और गूढ़ रहस्य को समझ कर उसी के अनुरूप चलने का प्रयास करती हैं जो सर्वथा अनुकरणीय एवं अभिनन्दनीय है । निसन्देह आप में नए और पुराने विचारों का संगम है, आप नूतन और पुरातन आयाम के सामंजस्य एवं समन्वय की एक जोड़ने वाली कड़ी है, सेतु है।
____ सन् १९८२ में जोधपुर चातुर्मास के बाद विहार कर आपका जयपुर की ओर आने का निश्चय हुआ। उस समय आपके रुग्ण एवं वृद्धावस्था के कारण आपके समक्ष यह प्रस्ताव रखा गया कि आप से
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