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________________ १४० खण्ड १ | जीवन ज्योति मेरा परिचय पू. गुरुवर्या श्री से आज का नहीं है । जब मैं आठ-नौ वर्ष की थी तब से ही आपश्री की सान्निध्यता का सुअवसर प्राप्त हुआ था, आपश्री के साथ रहने से मुझे भी कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ। पदयात्रा में आपश्री के साथ खूब रही। वे दिन मुझे याद आ रहे हैं । मुझमें इतनी समझ नहीं थी, नादान बालिका थी। मुझसे कोई गलती भी हो जाती लेकिन गुरुवर्याश्री वात्सल्यपूर्वक मुझे समझाते और उस गलती को कभी गलती नहीं समझते थे। आपश्री का उज्ज्वल, संयमी जीवन जन-जन को आकर्षित करता है । सरलता, सहजता और विद्वत्ता से प्रभावित होकर अनेक मुमुक्षु व बालिकाओं ने अपने आपको धन्य माना है। पू. गुरुवर्याश्री दीर्घायु होकर समाज की एवं स्वयं की उन्नति करती रहें और हमें सदा सन्मार्ग बताती रहें इन्हीं शुभकामना एवं भावनाओं के साथ हार्दिक अभिनन्दन । 0 डा० विजयचन्द जैन लखनऊ ये बात सन् १९७२-७३ की है जब मेरे आठ वर्षीय पुत्र संजय उर्फ गुड्डू को कुत्ते ने काट लिया था । उन दिनों महाराज जी लखनऊ चौमासा करने आई हुई थीं। उन्हें मैंने अपने पुत्र को कुत्ते काटने वाली बात बताई जिस पर उन्होंने मेरे पुत्र को धर्म आदि सुनाया और असीम स्नेह व आशीर्वाद दिया। तदुपरान्त वो कलकला चली गयीं। तभी मैंने बच्चे को कुत्ते काटने का असर खत्म करने वाली चौदह सुइयाँ * लगवाई तथा उसकी बूस्टर भी दी। इसके दो साल बाद मैं कलकत्ते गया वहाँ जाकर मैंने महाराज जी का पता लगाया। इसी बीच मेरे पुत्र गुड्डू की हालत अचानक खराब हो गई। उसमें कुत्ता काटने के उपरान्त हुए लक्षण दिखाई देने लगे । मैं फौरन महाराजजी के पास गया और बच्चे का हाल बताया। वो तुरन्त ही दस किलोमीटर चलकर मेरे बच्चे के पास आई और उसे धर्म सुनाया। उसके बाद दूसरे दिन पुनः आने को कहकर चली गयीं। इस बीच उसी रात बच्चे की हालत ज्यादा खराब हो गई और दूसरे दिन सबेरे पाँच बजे मेरे पुत्र का देहान्त हो गया। उधर उसका देहान्त हुआ और उसी समय महाराज जी का फोन आया । इससे पहले कि मैं उन्हें गुड्डू के देहान्त की बात बताता उन्होंने स्वयं ही पूछा कि अब हमारी वहाँ आने की आवश्यकता है क्या? ये सुनकर मुझे अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि उन्हें स्वतः ही कैसे आभास हो गया कि अब उनके आने की आवश्यकता नहीं रही। इस घटना से मुझे महसूस हुभा कि उनका दिव्यज्ञान कितना प्रबल है और यह घटना महाराज जी के प्रबल आत्मज्ञान को प्रमाणित करतो है जिसे मैं आज तक नहीं भूल सका। - श्रीमती लक्ष्मी भन्साली संसार में ऐसे कम ही महाव्यक्तित्व होते हैं, जिनके दर्शन से स्व-दर्शन की प्रेरणा मिलती है। मुझे याद है कि आगमज्योति, आशुकवयित्री परम श्रद्ध या गुरुवर्याश्री अपनी शिष्या मण्डली के साथ वि० सं० २०३७ में सिवाना चातुर्मास हेतु पधारी । तब मुझे प्रथम बार आपके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ, साथ ही उनके वैराग्य से परिपूर्ण मृदु, ओजस्वी प्रवचनामृत का पान करने का भी अद्वितीय संयोग सम्प्राप्त हुआ, फलस्वरूप संसार से उद्विग्नता जागृत हो गई और मानस-भू में वैराग्य अंकुर का उद्भव हो गया। और तत्क्षण मैंने मन में संकल्प कर लिया कि मुझे यावज्जीवन के लिए इन समतामूर्ति गुरुवर्याश्री के चरणों में आश्रय लेना है, क्योंकि सच्ची आत्मिक शान्ति इनके चरणों में प्राप्त होगी। शान्ति वही दे सकता है जिसने शान्ति प्राप्त कर ली हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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