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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन हम सोचते हैं कि ये भी कोई भगवान हो सकते हैं क्या? भगवान तो वे हैं, जिनकी पूजा की जाती है, भक्ति की जाती है । सच बात तो यह है कि हमारा मन ही कुछ ऐसा बन गया है कि उसे यह स्वीकार नहीं कि कोई दीन-हीन जन भगवान बन जाये। अपने आराध्य को दीन-हीन दशा में देखना भी हमें अच्छा नहीं लगता। भाई, भगवान भी दो तरह के होते हैं-एक तो वे अरहंत और सिद्ध परमात्मा जिनकी मूर्तियाँ मन्दिरों में विराजमान हैं और उन मूर्तियों के माध्यम से हम उन मूर्तिमान परमात्मा की उपासना करते हैं, पूजन-भक्ति करते हैं, जिस पथ पर वे चले, उस पथ पर चलने का संकल्प करते हैं, भावना भाते हैं। ये अरहंत और सिद्ध कार्यपरमात्मा कहलाते हैं । • दूसरे देहदेवल में विराजमान निज-भगवान आत्मा भी परमात्मा हैं, भगवान हैं, इन्हें कारणपरमात्मा कहा जाता है। जो भगवान मूर्तियों के रूप में मन्दिरों में विराजमान हैं, वे हमारे पूज्य हैं, परमपूज्य हैं, अतः हम उनकी पूजा करते हैं, भक्ति करते हैं, गुणानुवाद करते हैं; किन्तु देहदेवल में विराजमान निज-भगवान आत्मा श्रद्धेय है ध्येय है, परमज्ञेय है, अतः निज भगवान को जानना, पहचानना और उसका ध्यान करना ही उसकी आराधना है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति इस निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही होती है, क्योंकि निश्चय से निज-भगवान आत्मा को निज जानना ही सम्यग्ज्ञान है, उसे ही निज मानना, 'यही मैं हूँ'-ऐसी प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है और उसका ही ध्यान करना, उसी में जम जाना, रम जाना, लीन हो जाना सम्यकचारित्र है। अष्टद्रव्य से पूजन मन्दिर में विराजमान ‘परभगवान' की की जाती है और ध्यान शरीररूपी मन्दिर में विराजमान 'निजभगवान' आत्मा का किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति निज आत्मा को भगवान मानकर मन्दिर में विराजमान भगवान के समान स्वयं की भी अष्ट द्रव्य से पूजन करने लगे तो उसे व्यवहार-विहीन ही माना जायेगा, वह व्यवहारकुशल नहीं, अपितु व्यवहारमूढ़ ही है । इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति आत्मोपलब्धि के लिए ध्यान भी मन्दिर में विराजमान भगवान का ही करता रहे तो उसे भी विकल्पों की ही उत्पत्ति होती रहेगी, निर्विकल्प आत्मानुभूति कभी नहीं होगी, क्योंकि निर्विकल्प आत्मानुभूति निजभगवान आत्मा के आश्रय से ही होती है । निर्विकल्प आत्मानुभूति के बिना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति भी नहीं होगी। इस प्रकार उसे सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र की एकतारूप मोक्ष मार्ग का आरम्भ ही नहीं होगा। जिस प्रकार वह रिक्शा वाला बालक रिक्शा चलाते हुए भी करोड़पति है, उसी प्रकार दीनहीन हालत में होने पर भी हम सभी स्वभाव से ज्ञानानन्द स्वभावी भगवान हैं, कारण-परमात्मा हैंयह जानना-मानना उचित ही है। इस सन्दर्भ में मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि भारत में अभी किसका राज है ? क्या कहा, कांग्रेस का? __ नहीं भाई ! यह ठीक नहीं है, कांग्रेस तो एक पार्टी है, भारत में राज तो जनता-जर्नादन का है, क्योंकि जनता जिसे चुनती है, वही भारत का शासन चलाता है। अतः राज जनता-जर्नादन का ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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