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सज्जन सौरभ :
स्वात्म-उद्बोधन
१. मैं सच्चिदानन्द स्वरूपी आत्मा हूँ। मैं जड़ अर्थात् पुद्गल रूप नहीं अपितु चैतन्यमय हूँ । मैं स्वयं कर्म करता हूँ और उसका फल भी स्वयं ही भोगता हूँ। आत्मा का स्वभाव जन्म-मरण करना नहीं, वह तो अजर, अमर, अखण्ड, अमल, अविचल, अविनाशी है । अपने इसी स्वरूप को प्राप्त करने हेतु मुझे प्रयत्न करना है, उसी की साधना करनी है । जागरण संकल्प :
२. मैं अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र रूप रत्नत्रय का स्वामी हूँ, जिसे काम-क्रोधादि लुटेरे लूट रहे हैं चूंकि आज तक मैं मोह की नींद में सो रहा था पर वीर-वाणी की उदात्त अमृतवर्षी, अलार्म सुनकर जागृत हो गया हूँ, अतः शम-क्षमादि खड्ग हाथ में ले पूर्ण रूप से इनका सामना करूंगा। जिन दर्शन महत्व :
३. देवाधिदेव जिनेश्वर प्रभु के दर्शन, वन्दन, पूजन एवं स्मरण जन्म-जन्मान्तरों के सम्पूर्ण पापों का नाश करता है। जिस प्रकार मानसरोवर की शीतल लहरों से ग्रीष्म का ताप शान्त होता है, बावना चन्दन के लेप से शरीर का दाह शमन होता है उसी प्रकार वीतराग देव के दर्शन-वन्दन-पूजन से आत्मा का भव-भव का ताप शान्त हो जाता है । दृढ़ संकल्प :
४. इस देव दुर्लभ अमूल्य मानव तन से, आत्मा को परमात्मा बनाने का जो अपूर्व अवसर मुझे सम्प्राप्त हुआ है, उसे कदापि न खोऊँगा और निरन्तर समभाव में विचरण करता हुआ, जप, तप, त्याग, संयम, प्रभु-भक्ति परोपकार आदि के द्वारा इसे पूर्णतः सफल बनाऊँगा । मेरा यही लक्ष्य है।
५. बहुत कठिनता से प्राप्त बहुमूल्य मानव-शरीर की सुरक्षा करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इस अमूल्य रत्न के द्वारा आत्मा जन्म-मरण से मुक्त हो परमात्म पद को प्राप्त कर सकता है।
अतः अनैतिक आचरण द्वारा बहुमूल्य शरीर-रत्न को नष्ट करना भारी मूर्खता है।
६. जैन भागवती दीक्षा एक ऐसा आध्यात्मिक अनुष्ठान है जिसे स्वीकार कर आत्मा बन्धन से मुक्ति की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, राग से वीतरागता की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर गमन करता है और स्वयं परमात्मा बनने की साधना करता है।
(पूज्य प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी महाराज के प्रवचनांशों से)
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