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________________ 998 . खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन जैसे जन्तु भी उनके शरीर पर निर्विघ्न बने रहे । इस कठिन साधना के कारण ही जैन धर्म में उन्हें आगे चलकर तीर्थंकर जैसा महत्व दिया गया जो देवगढ़ एवं खजुराहो की मूर्तियों से पूरी तरह स्पष्ट है। भारत की विशालतम धार्मिक प्रतिमा (१०वीं शती ई०) के रूप में श्रवणबेलगोल (कर्नाटक) में गोम्मटेश्वर बाहबली की ५७ फुट ऊँची प्रतिमा का निर्माण हुआ जो बाहुबली के प्रबल वीतरागी स्वरूप का प्रतिफल था। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन धर्म में सारे परिवर्तनों के बावजूद तीर्थंकरों के वीतरागी स्वरूप को पूरी तरह बरकरार रखा गया । यही कारण है कि तीर्थंकर मूर्तियाँ केवल योग और ध्यान की मुद्राओं -ध्यान एवं कायोत्सर्ग में ही बनीं । यह विशेषता जैन धर्म की मौलिक विशेषता रही है। सन्दर्भ : १. जायसवाल के० पी० "जैन इमेज आफ मौर्य पीरियड" जर्नल आफ बिहार, उड़ीसा रिसर्चसोसायटी, खण्ड २३, भाग १, १६३७ पृ १३०-३२. शाह यू० पी०, अकोटा बोन्जेज बम्बई, १६५६, पृ० २८-२६. विदिशा से चौथी शती ई० की चन्द्रप्रभु और पुष्पदन्त के नामों वाली महाराजाधिराज रामगुप्त के काल की मूर्तियाँ मिली हैं। बदामी एवं अयहोल से पार्श्वनाथ, महावीर तथा बाहुबली गोम्मटेश्वर की छटीसातवीं शती ई० की मूर्तियां मिली हैं। हरिवंश पुराण-२६-१-५. मोती पाने के लिए तो समुद्र की गहराई में उतरना ही पड़ता है। लहरों के साथ सतही तौर पर कलाबाजियाँ खाने या गोते लगाने से मोती नहीं मिल जाते । अन्दर डुबकी लगानी पड़ती है तब कहीं जाकर मोती हाथ लगते हैं । हमें आत्मा के अक्षय खजाने को, आत्मा की स्वच्छ छवि को पाने के लिए तो गहराई में उतरना होगा । जिस क्षण हम वासना और चाह से ऊपर उठ जायेंगे उसी दिन से सत्य का साक्षात्कार प्रारम्भ हो जायेगा। - आचार्यश्री जिनकान्तिसागर जी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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