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________________ खण्ड १ | जीवन ज्योति जितेन्द्रश्री जी म. सा. तपस्विनीजी की सेवा में संलग्न हो गईं। वे दिन में तपस्विनी जी की सेवा करती और रात्रि में अपनी पूज्याश्री व चरितनायिकाजी की सेवा करतीं। उनकी सेवा भावना से सभी साध्वियाँ अभिभूत थीं। दुखद प्रसंग यह बना कि शशिप्रभाजी की तपस्या के दौरान ही फलोदी के अग्रगण्य श्रावक श्रीमान गुलाबचन्दजी गोलेच्छा का अकस्मात ही हार्ट फेल हो गया। इस घटना से तप की पूर्णाहुति पर हर्ष तो कम हो गया पर कार्य सभी किये गये । पंचरंगी तप १५-१६ अठाइयाँ, शंखेश्वर के अट्ठम आदि तथा अठाई महोत्सव, वरघोड़ा, रात्रि जागरण, स्वामि-वात्सल्य के साथ मासक्षमण तप सानन्द सम्पन्न हुआ। पारणा एवं स्वामिवात्सल्य का सम्पूर्ण लाभ पू. शशिप्रभाजी म सा. के संसारपक्षीय भ्राता श्रीमान मूलचन्दजी सा. गोलेच्छा ने लिया। इसी समय बीकानेर में श्री शशिप्रभाजी द्वारा शास्त्री परीक्षा के दो खण्डों के परिणाम निकले, उनमें आप सैकण्ड डिवीजन में उत्तीर्ण हुईं। वात्सल्यनिधि पूज्या श्री चम्पाश्री जी म. सा. अपने जीवन के ८० वर्ष और संयमी पर्याय के ६० वर्ष पूर्ण कर चुकी थीं। उनका संयमी जीवन कोरी चादर के समान निर्दोष था । अतः सर्व ज्येष्ठ होने के कारण चरितनायिकाजी ने उन्हें 'समुदायाध्यक्षा' के पद पर प्रतिष्ठित किया तथा चरितनायिकाजी के द्वारा रचित गीतिका चरितनायिका और उनकी शिष्याओं ने गाया। सुनकर जनता भाव विभोर हो गई। इस प्रकार नित्य नये कार्यक्रमों के साथ फलोदी चातुर्मास पूर्ण सफल हुआ। यद्यपि चातुर्मास के पश्चात् फलोदी संघ ने मौन एकादशी तक रुकने का आग्रह किया किन्तु आपको जैसलमेर लौद्रवपुर आदि की यात्रा करनी थी, आपकी भावना से पूज्येश्वरी परिचित थी अतः वे तटस्थ रहीं । आपने फलोदी रुकना स्वीकार नहीं किया और पूज्येश्वरी की आज्ञा तथा संघ की सहमति से विहार कर दिया। ___ विदाई वेला भावविह्वल कर देने वाली थी। पूज्याओं को छोड़ते हुए आपका मन विकल था, जनता के नेत्र तो अध पूरित थे ही। विदा लेकर व देकर आप आगे बढ़ रहे थे, कुछ लोग अब भी साथ चल रहे थे। जितेन्द्रश्री जी म. आदि दो-तीन साध्वियाँ एक मंजिल तक एक साथ आई थीं। वहाँ से जनता तथा साध्वीजी म. वापिस लौट गये । मात्र शशिप्रभाजी म. सा. की बहन तेजाबाई आदि २-३ व्यक्ति मार्ग-सेवा के लिए साथ रहे। विहार करते हुए आपश्री जैसलमेर की पावन भूमि में पहुँचे और महावीर भवन में विश्राम लिया। दूसरे दिन आप किले पर पधारी । वहाँ शिखरबद्ध जिन-मन्दिरों के दर्शन से ही हृदय आनन्द विभोर हो गया। शिल्पियों ने अद्भुत कला दिखाई है। अन्दर विराजमान प्रतिमाएँ तो इतनी विशाल और आकर्षक हैं कि उनकी छवि निरखते हुए न मन थकता है, न नेत्र तृप्त होते हैं, वाणी मूक हो जाती है, बस देखते ही रहो, देखते ही रहो-ऐसी दशा हो जाती है तन-मन-नयन की, सम्पूर्णतः व्यक्ति भक्ति रस में सराबोर हो जाता है। ये प्रतिमाएँ भी एक-दो नहीं साढ़े छह हजार हैं। दर्शन-वन्दन से तन-मन-नयन तृप्त हो गये। भक्ति रस उमड़ चला। भंडार देखा तो पूर्णतः व्यवस्थित । पू. श्री पुण्यविजयजी महाराज ने उसे पूर्ण व्यवस्थित करके अमित पुण्योपार्जन किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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