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________________ जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी लखनऊ चातुर्मास : सं० २०२८ मार्ग में जिनमन्दिर के दर्शन करते हुए शांतिनाथ जी की धर्मशाला में पधारी, वहाँ आपश्री ने ओजस्वी वाणी में मांगलिक प्रवचन दिये । लोग आश्चर्याभिभूत हो गए। लखनऊ में कुल ३५ घर हैं लेकिन प्रायः सभी सम्पत्ति और सन्मति से युक्त । धर्मोत्साह के साथ चातुर्मास प्रारम्भ हुआ। व्याख्यान शृंखला शुरू हुई । प्रभु पूजाएँ, दादागुरु पूजाएँ आदि कार्यक्रमों से चातुर्मास सफलता के सोपान चढ़ने लगा। मेघधाराओं के समान त्याग-तपस्याओं की झड़ियाँ लग गई। लखनऊवालों में अत्यधिक उत्साह था। ८, ९, ११, २१ आदि की तपस्याओं का ठाठ लग गया। कोई घर ऐसा न बचा जहाँ एक-दो अठाइयाँ न हुई हों। पूजाएँ व स्वधर्मी-वात्सल्य की तो धूम ही मची रही, सम्पूर्ण चातुर्मास में। इंगलिश में निष्णात श्री जोगेश्वर मास्टर सा० शशिप्रभाजी व प्रियदर्शना को इंगलिश पढ़ाने आते थे। वे भी अत्यन्त प्रभावित हुए, कहते थे-महाराजश्री की दृष्टि में अद्भुत शक्ति है जिसकी ओर भी शांत-स्नेहसिक्त दृष्टि से देख लें, वही निहाल हो जाय । पूज्याश्री मध्यान्ह में अपनी शिष्याओं को आचारांग सूत्र की वाचना देती थीं, अन्य भी सुनने आते थे । सुश्रावक अमोलकचन्द जी सा. के आग्रह से 'पुण्यप्रकाश' स्तवन का हिन्दी अनुवाद भी आपने किया। लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी है और अयोध्या तीर्थ के समीप है, अतः साधु-साध्वियों का आगमन होता रहता है, धर्मभावना अच्छी है फिर भी चातुर्मास बहुत कम होते हैं । लेकिन आपका यह चातुर्मास सभी दृष्टियों से सफल रहा। चातुर्मास के उपरान्त शिष्या मंडली सहित अयोध्या तीर्थ की ओर गमन किया। विहार का सारा लाभ माणकबाई सा. की सासु ने लिया । रत्नपुरी पहुंचे । यह भ० धर्मनाथ की कल्याणक भूमि है। लखनऊ के लोग यहाँ आते रहते हैं। इस बार स्वधर्मी-वात्सल्य का आयोजन किया गया। कार्य की समाप्ति पर हमने अयोध्या की ओर प्रयाण किया । मार्ग में फैजाबाद मंदिर के दर्शन करते हुए अयोध्या पहुंचे। विभिन्न प्रदेशों की तीर्थ-यात्राएँ अयोध्या-यह नगरी अत्यन्त प्राचीन है । आज श्रीराम जन्मभूमि के रूप में प्रसिद्ध है, किन्तु असंख्य वर्ष पहले भगवान ऋषभदेव ने जन्म लेकर इस नगरी को धन्य बनाया था। ऋषभदेव पहले राजा, पहले योगी और पहले तीर्थंकर थे । उनसे पहले युगलिक युग था। उन्होंने ही मानव को सर्वप्रथम असि, मसि, ललित कलाओं तथा अन्य सभी प्रकार का ज्ञान कराया, गणित-विद्या और लिपिविद्या के पुरस्कर्ता भी वे ही थे । एक शब्द में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति के जनक थे ऋषभदेव । ऐसी महान नगरी में पहुँचे, मन्दिरों की दशा देखकर दुःख हुआ। मुस्लिम काल में मन्दिर और मूर्तियों को तोड़कर मस्जिदें बना ली गईं। धार्मिक मतान्धता थी यह । इस स्थिति को देखकर मन खिन्न हो गया । यहाँ से विहारकर कन्नौज आदि होते हुए वाराणसी पहुंचे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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