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________________ ५६ जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी मुख्य श्रावक मारवाड़ी साथ वाले श्रीमान ताजमलजी साबोथरा, भंवरलालजी सा० नाहटा, हीरालालजी सा० लूनिया, पानमलजी सा० कोठारी, ज्ञानचंदजी सा० लूणावत आदि तथा मुर्शिदाबादी व जौहरी साथ वाले कई श्रावकगण कलकत्ता चातुर्मास हेतु एक बड़ा विनती पत्र, कलकत्ता श्रीसंघ के हस्ताक्षर युक्त लेकर पधारे, पूज्याश्री के सम्मुख रखा और भावभरी विनती की। उन्हें शीघ्र ही स्वीकृति मिल गयी । जहाँ भाव हो वहाँ मनुहार कैसी ? पूज्याश्री रंभाश्रीजी म. सा. आदि भी इधर के क्षेत्रों में धर्म-जागरण करती हुई पधार गई। उत्साह और बढ़ गया। पू० कल्याणसागरजी म. सा० के नवाणु यात्रा के निमित्त अठाई महोत्सव-पूजाओं आदि का ठाठ रहा । लगभग सवा महीने हम लोग शिखरजी रहे । बड़े उत्साह से मन भरकर यात्राएँ-वन्दनाएँ कीं। बड़ा आनन्द का वातावरण रहा । चित्त में उल्लास छाया रहा । तन-मन स्फूति से उमग रहा था। वहाँ से प्रस्थान करके कतरास, झरिया, धनवाद, बर्द्धमान आदि नगरों में विचरण करते हुए तथा मन्दिरों के दर्शन करते हुए, जन-साधारण को प्रवन लाभ देते हुए सैंथिया ग्राम (श्वेताम्बिका नगरी) में आये। मार्ग में कलकत्ता से ४-५ श्रावक आ गये । वे भी यहाँ तक साथ रहे । संथिया--यहाँ के लगभग सभी लोग स्थानकवासी थे; लेकिन गुरुवर्याश्री के प्रवचनों से प्रभावित हो, ठाठ से नगर-प्रवेश कराया। मंदिरों के दर्शन करते हुए महावीर भवन पहुँचे । वहाँ आपश्री का ओजस्वी प्रवचन हुआ । लोग चकित रह गये-क्या साध्वीजी भी इतनी विद्वान और प्रवचनकुशल हो सकती हैं ? बहुत प्रभावित हुए, उन्होंने कुछ दिन रुकने की विनम्र श्रद्धायुक्त विनती की। हमारे भी उस क्षेत्र के लगभग सभी तीर्थ हो चुके थे, चातुर्मास में भी अभी समय था, अतः स्वीकृति दे दी। प्रतिदिन के व्याख्यानों से काफी धर्म प्रभावना हुई । उन लोगों ने चातुर्मास का आग्रह किया पर कलकत्ता चातुर्मास स्वीकृत हो चुका था, अतः उन्हें स्वीकृति न मिल सकी। यहाँ से निकट ही वह स्थान है जहाँ प्रभु महावीर ने चण्डकौशिक नाग को प्रतिबोध दिया था। अब वह स्थान जोगी पहाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है । उस समय वहाँ स्मारक बनाने की योजना चल रही थी जो अब पूर्ण हो गई है, चरण स्थापित हो गये हैं। बंगाल प्रवेश यहाँ से मुर्शिदाबाद की ओर कदम बढ़ाए । मार्ग में बंगाली लोगों से परिचय हुआ । अपनी भाषा में बड़ी स्त्री को वे मां और छोटी स्त्री को वे दीदी कहते हैं । भाषा प्रायः मधुर थी। हमारे वेश के प्रति उन लोगों के हृदय में सम्मान भी था । हमारे आचार-विचार-निवास के बारे में जिज्ञासा भी कर लेते थे । जैसे-आपका घर कहाँ है (आपनार बाड़ी को थाय) ? आप बाल क्यों नहीं रखते ? पैदल (बिना चप्पल जूते के) क्यों चलते हैं, आदि-आदि । हम लोग भी टूटी-फूटी बंगला में संक्षिप्त उत्तर दे देते ।। जैन श्रमणी की कठोर चर्या को सुनकर वे लोग चकित रह जाते । अधिकांश बंगाली लोगों में भारतीय संस्कृति के दर्शन होते हैं। धोती कुर्ते का पहनावा, अतिथि सत्कार की भावना, त्यागियों के प्रति पूज्यभाव, नारीजीवन में सतीत्व व पातिव्रत्य को प्रथम स्थान । लोगों की दृष्टि में अश्लीलता का अभाव । यद्यपि पहनावे आदि में आधुनिक प्रभाव बढ़ रहा है, फिर भी अपनी सांस्कृतिक मर्यादाओं के प्रति प्रेम और आदर का भाव है उनमें । ____ महिमापुर में पहुँचे । वहाँ जगत्सेठ का कसौटी पत्थर का पूरा मंदिर बना हुआ है । अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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