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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ नाम परिवर्तन कर जिनपतिसूरि घोषित किया गया। इसी महोत्सव के समय जिनभद्र को आचार्य पद प्रदान किया गया। साथ ही आपने पदमचन्द्र और पूर्णचन्द्र को दीक्षा प्रदान की।
___ विक्रम संवत् १२२४ में आचार्य जिनपति सूरि ने विक्रमपुर में गुणधर आदि छः को दीक्षा प्रदान की और जिनप्रिय मुनि को उपाध्याय पद प्रदान किया। संवत् १२२५ में पुष्करणी नगर में पत्नी सहित जिनसागर एवं जिनपाल आदि आठ को दीक्षा प्रदान की। वहाँ से विहार कर विक्रमपुर में आये और जिनदेवगणि को दीक्षा दी। संवत् १२२७ में उच्चा नगरी में धर्मसागर आदि सात को दीक्षित किया। जिनहित मुनि को वाचनाचार्य पद दिया। वहां से मरुकोट आये। मरुकोट में शीलसागर, विनयसागर और उनकी बहिन अलितश्री को संयम व्रत प्रदान किया। १२२८ में सागरपाड़ा आये, वहां पर सेनापति आम्बड़ तथा सेठ साढ़ल के बनवाये हुए अजितनाथ तथा शान्तिनाथ मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। वहाँ से बब्बेरक गाँव पधारे, वहाँ आशिका नगर के श्री संघ के साथ आशिका के महाराजा भीमसिंह भी आचार्य श्री के दर्शनार्थ बब्बेरक आये । महाराजा के आग्रह से आचार्य श्री आशिका नगरी पधारे, आशिका नगरी में ही महाप्रमाणिक दिगम्बर आचार्य के साथ वाद-विवाद हुआ और इस चर्चा में जिनपतिसूरि को विजय प्राप्त हुई।
सूरिजी वहाँ से १२२६ में धनपाली पहुँचे और वहाँ पर सम्भवनाथ स्वामी की प्रतिमा की स्थापना और शिखर की प्रतिष्ठा की। सागरपाट में पण्डित मणिभद्र के पट्ट पर विनयभद्र को वाचनाचार्य का पद दिया। १२३० में स्थिरदेव आदि तीन साधु और अभयपति आदि चार साध्वियों को दीक्षा प्रदान की। १२३२ फाल्गुन सुदी दसमी को विक्रमपुर में भांडागारिक गुणचन्द्र गणि के स्मारक स्तूप की प्रतिष्ठा की। वहाँ से पुनः विहार कर आशिका नगरी पधारे, बड़े महोत्सव के साथ नगर प्रवेश हुआ, उस समय आचार्यश्री के साथ ८० साधु थे। ज्येष्ठ सुदी तीज के दिन बड़े विधि विधान के साथ पार्श्वनाथ मन्दिर के शिखर पर ध्वजाकलश आरोपित किया। आशिका में ही धर्मसागर गणि और धर्मरुचिगणिनी को संयमी बनाया। १२३३ आषाढ़ माह में कन्यानयन के विधि चैत्यालय में आचार्यश्री के चाचा साह मानदेव कारित भगवान महावीर की प्रतिमा स्थापित की। व्याघ्र-पुर में पार्श्वदेवगणि को दीक्षा प्रदान की। संवत् १२३४ में फलवधिका नगरी के विधिचैत्य में पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा स्थापित की । इसी वर्ष जिनमत गणि को उपाध्याय पद और गुणश्री साध्वी को महत्तरा पद दिया और सर्वदेवाचार्य और जयदेवी नाम की साध्वी को दीक्षा दी। संवत् १२३५ में आचार्यश्री का चार्तुमास अजमेर में हुआ। इसी वर्ष दादा जिनदत्तसूरि के प्राचीन स्तूप का जीर्णोद्धार हुआ। देवप्रभ और उसकी माता चरणमति को दीक्षा प्रदान की। अजमेर में ही संवत् १२३६ में सेठ पासट द्वारा बनवाई हुई महावीर मूर्ति की स्थापना की, अम्बिका शिखर की भी प्रतिष्ठा करवाई। वहाँ से सागरपाड़ा में आकर अम्बिका शिखर की स्थापना करवाई। संवत् १२३७ में बब्बेरक गाँव में जिनदत्त को वाचनाचार्य पद दिया। संवत् १२३८ में पुनः आशिका पधारे और दो बड़ी जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की।
आचार्य जिनपति सूरि १२३६ में फलवधिका (फलोदी-मेड़ता रोड) पधारे । उनके प्रभाव को सहन न कर वहाँ का निवासी उपगेशगच्छीय पद्मप्रभाचार्य मात्सर्य एवं ईर्ष्यावश अपलाप करने लगा। आचार्यश्री के बिहार कर अजमेर पहुँचने के पश्चात् वहाँ के दोनों के भक्तदलों में संघर्ष होने लगा और इस संघर्ष का नतीजा हुआ अन्तिम हिन्दू सम्राट महाराजा पृथ्वीराज चौहान की राज्यसभा में शास्त्रार्थ । महाराजा पृथ्वीराज ने शास्त्रार्थ की तिथि कार्तिक शुक्ला दसवीं निश्चित की और निश्चित समय पर महाराजा पृथ्वीराज नरानयन पर दिग्विजय कर वापस लौटे। कार्तिक सुदी दसवीं के दिन आचार्य
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