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________________ जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी आचार्यश्री के यह उद्गार कुछ ही समय में सत्य में प्रमाणित होने लगे। संघ के आग्रह से आचार्यश्री ने चातुर्मास में भगवती सूत्र का वाचन शुरू किजा । अचानक ही वे अस्वस्थ हो गये । उन्होंने आपको बुलाया और व्याख्यान देने का आदेश फरमा दिया। आप विचार में पड़ गईं-'भगवती सूत्र तो मैंने कभी उठाकर देखा भी नहीं, कैसे व्याख्यान दे सगी ।' आपको विचारमग्न देखकर आचार्यश्री ने फरमाया-'विचार में क्यों पड़ गईं ? तुम तो हमसे भी विदुषी और प्रतिभाशालिनी हो।' बस, आपत्री ने आचार्यदेव की आज्ञा शिरोधार्य की और इष्टदेव का स्मरण कर पाट पर बैठ गई। फिर एक सूत्र को लेकर आपने उसकी जो व्याख्या की, तर्क दिये और दृष्टान्तपूर्वक समझाया तो सभी आश्चर्यचकित हो गये । आचार्यश्री स्वयं भी सुन रहे थे वे दंग रह गये । मन ही मन में सोचने लगेक्या गजब की बुद्धि है, क्या प्रतिभा है ? भगवती जो सबसे गूढ़ और कठिन अंग है, जिसकी व्याख्या करने में बड़े-बड़े धुरन्धर चकरा जाते हैं, उसके सूत्र की एक-एक कली खोलकर रख दी है। अनुपम मेधा है इन साध्वीजी की। व्याख्यान के बाद जब आचार्यश्री के समक्ष आप पधारी तो उन्होंने हर्षित होकर आपकी प्रशंसा की और साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका सभी के समक्ष कहा - तुम तो व्याख्यात्री हो । भविष्य में इससे भी बढ़कर आगमों का ज्ञान प्राप्त करोगी । ऐसा मेरा विश्वास है। आचार्यश्री का यह विश्वास आज साकार हो रहा है। आचार्यश्री के इस आशीर्वाद को सुनकर सभी उपस्थित जन प्रसन्न हो गये। वि. सं. २०१३ का आचार्यश्री का चातुर्मास सानन्द सम्पूर्ण हुआ। इस चातुर्मास के उपरान्त वैराग्यांकुर धारिणी किरण (जो अब १२ वर्ष की हो चुकी थी) ने अपनी भूआ (ज्ञानमंडल की संचालिका उपयोगश्रीजी म. सा.) से अपनी दीक्षा शीघ्र करवाने की विनती की, क्योंकि उसका वैराग्य पूर्ण पल्लवित हो चुका था। पूज्याश्री ने कुछ समय बाद भावना को साकार रूप देने का सुझाव दिया। किरण का अध्ययन सुचारु रूप से चल रहा था। पंचप्रतिक्रमण कुछ ही समय में पूर्ण हो गया। तदुपरान्त संस्कृत चैत्यवन्दन स्तुति, जीवविचार, नव तत्वादि चारों प्रकरण, तीन भाष्य, कर्मग्रन्थ आदि भी कुछ ही समय में कंठस्थ कर लिया। प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ जो सामूहिक होतीं उनमें वन्दित्त सूत्रादि बोलने का आदेश प्रायः किरण ही लेती और उसकी बोली मधुर, स्पष्ट व वजनी होने के कारण बहनें भी उसका ही बोलना पसन्द करतीं। वैरागिन किरण ने अपनी योग्यता, नम्रता और मधुर वाणी से सभी के मन-मस्तिष्क पर अपना अधिकार कर लिया। पू. उपयोगश्रीजी भी वैरागिन किरण से सन्तुष्ट थीं और उसे दीक्षा योग्य समझने लगीं। जयपुर श्रीसंघ को वैरागिन किरण की इतनी जल्दी दीक्षा का अनुमान नहीं था। जब दीक्षा महोत्सव का मुहूर्त निकल गया और तैयारियाँ होने लगी तब कुछ प्रमुख श्रावकों ने इसे बाल-दीक्षा कहकर कठोर विरोध किया। यहाँ तक निश्चय कर लिया कि वैरागिन किरण की दीक्षा नहीं होने देंगे । इस विरोध के कारण पूज्य गुरुदेव और पू. प्रवर्तिनी महोदया ने वैराग्यवती किरण की दीक्षा उस वर्ष स्थगित कर दी । इसे अन्तराय कर्म का ही प्रभाव माना जाना चाहिए कि दीक्षा में अवरोध खड़ा हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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