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हे दिव्य ज्योति ! हे ज्ञान ज्योति !
-शशिकर 'खटका' राजस्थानी
हे ! दिव्य ज्योति, हे ज्ञान ज्योति, हे आगम ज्योति वन्दन है । हे ! सरल स्वभावी पूज्य प्रवर्तिनी, अभिनन्दन है अभिनंदन है ।
जन्म लुनिया कुल में लेकर तुमने उसे दीपाया । मेहताब देवी की कुक्षी को उज्ज्वल यहाँ बनाया ! नगर गुलाबी गुलाबचन्दजी थे सब ही के प्यारे ।
श्रीमती मेहताब देवी संग द्वादश व्रत थे धारे । उनके संग संग तुमने जाना जग में बस क्रन्दन है। हे ! सरल स्वभावी पूज्य प्रवर्तनी अभिनन्दन है अभिनन्दन है।
ज्ञानश्रीजी महाराज के चरण शरण तुम आईं। कोई नहीं किसी का जग में सुनी बात मन भाई। छोड़ सभी एक दिन जायेंगे बात मर्म की जानी ।
कर्म काटना होगा जग में बात धर्म की मानी । सुनकर शिक्षा गुरुणी जी की मन में हुआ स्पन्दन है । हे ! सरल स्वभावी पूज्य प्रवर्तिनी अभिनन्दन है अभिनन्दन है ।।
आषाढ़ शुक्ला दूज संवत् निन्यान्वे का आया। मणिसागरजी की निश्रा में वैराग्य वेश अपनाया। आचार्य देव हरिसागरजी से वृहद् दीक्षा ले ली।
त्याग दिया संसार आपने जीवन बनी पहेली। त्याग मयी जीवन ही तुमको लगा यहाँ वन नन्दन है। हे ! सरल स्वभावी पूज्य प्रवर्तनी अभिनन्दन है अभिनन्दन है ।।
श्री सज्जनश्रीजी महाराज ने तन को बहुत तपाया। तेले अठाई मास खमण कर जीवन सफल बनाया। रचना का संसार शशिकर हर पल गाथा कहता ।
स्तवन रचना का स्रोत आपके मन में हर पल बहता। आप बोलते तो जग का जग जाता था मन है। हे ! सरल स्वभावो ना ना ना ॥
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