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________________ जैन शिक्षा : स्वरूप और पद्धति : डॉ० नरेन्द्र भानावत ___ जो विद्यावान होते भी अभिमानी है, अजितेन्द्रिय है, बार-बार असम्बद्ध भाषण करता है वह अबहुश्रु त है । उत्तराध्ययन ११/२। ऐसे शिक्षार्थी को शिक्षणशाला से बहिर्गमित करने का विधान है। "उत्तराध्ययन सूत्र" में ऐसे शिक्षार्थी की भर्त्सना करते हुए उसे सड़े कानों वाली कुतिया से उपमित किया गया है । और कहा है कि -जैसे सड़े कानों वाली कुतिया सब जगह से निकाली जाती है, उसी तरह दुष्ट स्वभाव वाला, गुरुजनों के विरुद्ध आचरण करने वाला वाचाल व्यक्ति संघ अथवा समाज से निकाला जाता है । ऐसा समझ कर अपना हित चाहने वाला अपनी आत्मा को विनय में स्थापित करेविणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो। -उत्तराध्ययन सूत्र १/६ शास्त्रों में विनय का अर्थ सामान्य शिष्टाचार या नम्रता तक ही सीमित नहीं है अपितु वह भीतरी अनुशासन, आत्मनिग्रह और संयम के रूप में प्रतिपादित है। जिसका मन अस्थिर और चंचल है वह विनयभाव को नहीं धारण कर सकता है । मन की अस्थिरता और चंचलता, भोगवृत्ति और आसक्ति का परिणाम है । ऐसा व्यक्ति न अपने शासन में रहता है और न किसी अन्य के । “आचारांग सूत्र" में ऐसे व्यक्ति को अनेक चित्त वाला बताया है और कहा है कि वह अपनी अपरिमित इच्छाओं की पूर्ति के लिये दूसरे प्राणियों का वध करता है । उनको शारीरिक और मानसिक कष्ट पहुँचाता है । पदार्थों का संचय करता है और जनपद के वध के लिए सक्रिय बनता है । निश्चय ही ऐसी मानसिकता में जीने वाला सच्ची शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता । “स्थानांग सूत्र" के चौथे स्थान में कहा है-- चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता तं जहा अविणीए, विगइपडिबद्ध अणुवसमिए णउडेमाइ ॥३२६॥ __ अर्थात् चार व्यक्ति शिक्षा ग्रहण के अयोग्य कहे गये हैं-अविनीत, स्वादेन्द्रिय में गृद्ध, अनुपशांत अर्थात् अति क्रोधी और कपटी । सच्ची शिक्षाप्राप्ति ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप में परस्पर जुड़ाव है। यह जुड़ाव मात्र अध्ययन से संभव नहीं पर इसके लिये स्वाध्याय की प्रक्रिया से गुजरना होगा । भगवान महावीर ने अहंकार, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य को शिक्षा-प्राप्ति में बाधक माना है अह पंचहि ठाणेहि, जेहिं, सिक्खा न लब्भई । थम्मा कोहा, पमाएण, रोगेणालस्सएण य ।। --उत्तरा० ११/३ शिक्षार्थी के लिये अप्रमत्तता और जागरूकता अनिवार्य है। इसके अभाव में व्यक्ति आंतरिकता से जुड़ नहीं पाता और विवाद व मूर्छा में ग्रस्त बना रहता है । आत्म-जागरणा द्वारा ही इस मूर्छा को तोड़ा जा सकता है। भगवान महावीर ने जयणा अर्थात् विवेक को इसका साधन बताया है। संक्षेप में जैन शिक्षा का अर्थ है-अपने आंतरिक वीरत्व से जुड़ना, चेतना के स्तर को ऊर्ध्वमुखी बनाना और प्राणिमात्र के प्रति मैत्री सम्बन्ध स्थापित करना । पता-सी-२३५ ए, तिलक नगर, जयपुर ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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