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________________ अनुपम अद्वितीय -अनुपमा लूनिया अनुपम, अद्वितीय ॥ आगमज्ञा, विदुषीवर्या, आर्यारत्न प्रवर्तिनीश्रीजी, अनेकानेक उपाधि मण्डिता किन्तु, कितनी सहज-सरल ममतामयी मेरी “दादी-सा"। संयम ही जीवन जिनका ज्ञान ही जिनका पोषण, तप और साधना की भूमि पर किया जिन्होंने आत्म सुरभित पौध-रोपण चालीस वर्षों से सिंत्रित, सेवित यह पौध आज कल्पवृक्ष बन गया है, ......"॥२॥ : मुक्तक -साध्वी श्री मधुस्मिताश्रीजी (सुशिष्या शासनज्योति मनोहरश्रीजी) साहस नहीं चन्द्र पकड़ने का, फिर भी मन वाचाल हुआ, कलम हाथ में लेकर मैंने, गुरु चरणों मे नमन किया। ......"॥१॥ पिता गुलाब चंद लूणिया ने गुलाब पुष्प को जन्म दिया महक फैलाकर पूरे विश्व में जन-जन का उद्धार किया। यह जीवन क्षण भंगुर है इतना ही बस तुमने जाना गरु चरणों में किया समर्पण ज्ञान, उपयोग आत्मा को साधा """"॥३॥ यहाँ न कोई अपना मेरा इतना दृढकर तुमने माना महावीर प्रभु शाश्वत हैं अपने कुशल गुरु को मन में धारा रहूँ असंग चाह नहीं कुछ पाया सुख उसमें ही पाया पर के दुःख को अपना करके निज सुख को क्षण में त्यागा आगम वेत्ता आशु कवयित्री वक्तृत्व कला की आप हो धनी श्रमण सर्वस्व प्रकाशन करके संयम पथ की हुई प्रवर्तिनी ॥६॥ मैं मन्दज्ञानी अल्पज्ञ बालिका क्या जानू गुरु गरिमा को सागर सम गंभीर गुणों की अनन्त ज्ञान निधि महिमा को कि ......"||४॥ ....."||५॥ स्नेह, वात्सल्य, समता के सुधौपम फलों से लदा-फंदा अम्बर से धरती तक झुक गया है । इस शीतल छाया तले मैं, तुम, हम सब श्रांत-वलांत संसारी पाते हैं नयी चेतना, स्फूर्त प्रेरणा, उत्तिष्ठ होने की-जाग्रत होने की, अग्रसर होने की उस पथ की ओर जिधर जाने से मुक्ति का “गुलाब" मिल सके, यह जीवन सार्थक होकर जीवन कहलाने योग्य ॥७॥ बन सके। Jain Education International For Pilate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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