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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
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संवत् १६७८ में फाल्गुन बदी सप्तमी को रंगविजय को दीक्षा दी थी और उपाध्याय पद भी दिया था । भविष्य में इन्हीं से जिनरंगसूरि शाखा का उद्गम हुआ । संवत् १७०० में चातुर्मास हेतु पाटण पधारे और जिनरत्नसूरि को अपने पट्ट पर स्थापित किया । इसी वर्ष आषाढ़ नवमी को पाटण में ही आपका स्वर्गवास हुआ ।
आप उच्च कोटि के साहित्यकार थे । नैषध काव्य पर ३६ हजार श्लोक परिमित 'जैन राजी' नाम की टीका की एवं स्थानांग सूत्र विषम पदार्थ वृत्ति की रचना की थी । 'शालिभद्र चौपाई' आपकी प्रसिद्धतम कृति है जिसकी अनेकों सचित्र प्रतियाँ प्राप्त होती हैं। छोटी-मोटी कृतियाँ एवं संख्याबद्ध स्तवन आदि अनेकों प्राप्त हैं जिनका संग्रह जिनराजसूरि कृति कुसुमांजली के नाम से प्रकाशित हो चुका है ।
(२६) जिनरत्नसूरि
आचार्य श्रीजिनराजसूरि के पट्ट पर आचार्य श्रीजिनरत्नसूरि विराजे । आप सैरुणा ग्राम निवासी लूणीया गोत्रीय साह तिलोकसी के पुत्र थे । आपकी माता का नाम तारादेवी था । आपका जन्म सम्वत् १६७० में हुआ था । आपका जन्म नाम रूपचंद था । निर्मल वैराग्य के कारण आपने अपनी माता और भाई रतनसी के साथ सम्वत् १६८४ वैशाख सुदी ३ में दीक्षा ग्रहण की थी। आपको जोधपुर में आचार्यश्री से वासक्षेप की पुड़िया मंगाकर उपाध्याय साधुसुन्दर ने दीक्षा प्रदान की थी। भणसाली गोत्रीय मंत्री सहसकरण के पुत्र मंत्री जसवन्त ने दीक्षोत्सव किया था। दीक्षा के पश्चात् इन्होने यावज्जीव कढ़ाई विग का त्याग कर दिया था । भट्टारक श्री जिनराजसूरिजी ने बड़ी दीक्षा देकर "रत्नमोम” नाम प्रसिद्ध किया ।
आपके गुणों से योग्यता का निर्णय कर जिनराजसूरिजी ने अहमदाबाद बुलाकर आपको उपाध्याय पद प्रदान किया । इस समय जयमाल, तेजसी ने बहुत-सा द्रव्य व्यय कर उत्सव किया । सम्बत् १७०० आषाढ़ शुक्ला नवमी को पाटण में आचार्य श्रीजिनराजसूरि ने स्वहस्त से ही सूरिमंत्र प्रदान कर अपना पट्टधर घोषित किया। पाटण से विहार कर जिनरत्नसूरिजी पाहणपुर पधारे । वहाँ संघ ने हर्षित हो उत्सव किया । वहाँ से स्वर्णगिरि के संघ के आग्रह से वहाँ पधारे । श्रेष्ठि पीथा ने प्रवेशोत्सव किया । वहाँ से मरुधर में विहार करते हुए संघ के आग्रह से बीकानेर पधारे । नथमल बेणे ने बहुत सा द्रव्य व्यय करके प्रवेशोत्सव किया । वहाँ से उग्र विहार करते हुए सम्वत् १७०१ का वीरमपुर में संघाग्रह चातुर्मास किया ।
चातुर्मास समाप्त होते ही सम्वत् १७०३ में बाड़मेर आये । संघ के आग्रह से चातुर्मास किया । वहाँ से विहार कर सम्वत् १७०३ का चातुर्मास कोटड़ा ने किया । चातुर्मास समाप्त होने पर वहाँ से जैसलमेर के श्रावकों के आग्रह से जैसलमेर आये । साह गोपा ने प्रवेशोत्सव किया। संघ के आग्रह से सम्वत् १७०४ से १७०७ तक के चार चातुर्मास आपने जैसलमेर ही किये। वहाँ से आगरा आये । मानसिंह ने बेगम की आज्ञा प्राप्त कर सूरिजी का प्रवेशोत्सव बड़े समारोह से किया । सम्वत् १७०८ से १७११ चार चातुर्मास आगरा में ही किये । आप शुद्ध क्रिया चारित्र के अभ्यासी थे । आपने अनेक नगरों में विहार करके जैन सिद्धान्तों वा प्रचार प्रसार किया और सम्वत् १७११ श्रावण कृष्णा सप्तमी के दिन आगरा में आप देवलोक पधारे । अन्त्येष्टि त्रिया के स्थान पर श्रीसंघ ने स्तूप निर्माण करवाया था।
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