________________
६० सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी परम्परा का परिचय : सन्तोष विनयसागर जैन
साध्वियों को शिक्षा-दीक्षा देती हुई अनेक में ही विवाह की बातचीत चली, पन्नीबाई ने अपनी स्थानों पर विचरण करती रहीं। संवत् १९४० माँ से स्पष्ट शब्दों में कहा कि 'मैं दीक्षा लेना के बाद ही फलोदी में ही आपका स्वर्गवास चाहती हूँ विवाह करना नहीं।' पिता के समक्ष हुआ।
पन्नीबाई की न चली और संवत् १९२७ आषाढ़ बदी इनकी शिष्याओं लक्ष्मीश्री जी और शिवश्रीजी ७ को फलोदी निवासी दौलतचन्द झाबक के साथ की शिष्याओं में अत्यधिक मात्रा में वद्धि होने के विवाह हुआ। किन्तु, यह सौभाग्य अधिक दिनों कारण उद्योतश्री जी की परम्परा दो भागों में तक न रह सका और विवाह के १८ दिन पश्चात् विभक्त हो गई। एक लक्ष्मीश्री जी की परम्परा ही पन्नीबाई को दुर्दैव से वैधव्य जीवन स्वीकार और दूसरी शिवश्री जी की परम्परा।
करना पड़ा। तदनन्तर अपनी बड़ी बहन मूलीबाई
के साथ आकर फलोदी रहने लगी और कस्तूरचन्द (२) प्रवर्तिनी लक्ष्मीश्रीजी जी लूणीया के पास से धार्मिक संस्कार प्राप्त करने
लगीं। विवाह के पूर्व ही दीक्षा की भावना थी, इनका निवास स्थान फलोदी था। जीतमल जी
वह भावना अब वेग पकड़ने लगी। पितृपक्ष और गोलेछा की सुपुत्री थी और कनीरामजी झाबक
श्वसुरपक्ष ने दीक्षा की आज्ञा न दी। पन्नीबाई ने के पुत्र सरदारमलजी की पत्नी थी। इनका नाम
आज्ञा हेतु अन्न-पानी का त्याग कर दिया। बड़ी लक्ष्मीबाई था। बालविधवा हो जाने से आपकी
कठिनता से दीक्षा की अनुमति प्राप्त हुई और संवत् भावना वैराग्य की ओर अग्रसर हुई। सुखसागर
१६३१ वैशाख सुदी ११ को फलोदी में ही महोत्सव जी महाराज की देशना से प्रतिबोध पाकर संवत् के साथ गणनायक सुखसागरजी महाराज के हाथों १६२४ मिगसर वदी १० को दीक्षा ग्रहण की। पुनीत दीक्षा ग्रहण कर लक्ष्मीश्रीजी की शिष्या बनी दीक्षानन्तर संवत् १६२५ का जयपुर, १६२६ का और इनका नाम रखा गया पुण्यश्री । फलोदी, १६२७ का बीकानेर और १६२८ का पाटण में चातुर्मास किया। पाटण से शत्रुजय तीर्थ की संवत् १९३१ से लेकर १९७६ तक ४५ वर्ष पर्यन्त यात्रा कर १६२६ का चातुर्मास अहमदाबाद किया स्थान-स्थान पर विचरण करती हुई, धर्मोपदेश देती
और १६३० का चातुर्मास नागोर में किया। इन्होंने हुई शासन की सेवा और खरतरगच्छ की वृद्धि में अनेक महिलाओं को दीक्षा दी थी। संवत १९३१ में सतत् संलग्न रहीं। पूण्यश्री को दीक्षा दी थी। आप कब तक विद्यमान इनकी दैदीप्यमान आकृति थी, आँखों में तेज रहीं, कब स्वर्गवास हुआ और कहाँ हुआ ! इसका था, वाणी में ओज और माधुर्य । गुरुजनों के पास कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है ।
रहकर आगम साहित्य आदि का अच्छा अध्ययन (३) प्रवर्तिनी पुण्यश्री जी
किया था । व्याख्यान शैली भी रसोत्पादक थी ।
यही कारण है कि आपके उपदेशों से अनेक भव्य जैसलमेर के निकट गिरासर नामक गाँव में महिलाओं ने दीक्षा ग्रहण की। सर्वप्रथम संवत् पारख गोत्रीय जोतमलजी रहते थे। उनकी धर्म- १६३६ में फलोदी में दो को दीक्षाएँ देकर अपनी पत्नी का नाम कुन्दनदेवी था। दो लड़के और एक शिष्याएँ बनाई थीं। वे थीं-अमरश्री और शृंगारलड़की के पश्चात् जब कुन्दनदेवी ने गर्भधारण श्री । संवत् १९३६ से लेकर १९७६ तक के काल में किया तो सिंह का स्वप्न देखा था। संवत् १६१५ आपकी निश्रा में ११६ दीक्षाएं विभिन्न स्थानों पर वैशाख सुदी छठ को कुन्दनदेवी ने बालिका को हुई और वे भी बड़े महोत्सव के साथ । इन ११६ जन्म दिया, नाम रखा पन्नीबाई । ११ वर्ष की उम्र दीक्षाओं में से ४६ तो इन्हीं की शिष्याएँ थीं और
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org.