SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 562
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन क्योंकि अपहरण करके विवाह करने का अर्थ मात्र स्त्री को चयन की स्वतन्त्रता का अभाव ही नहीं है। यह तो लूट की सम्पत्ति है । जहाँ तक आगमिक व्याख्याओं का प्रश्न है उनमें अधिकांश विवाह माता-पिता के द्वारा आयोजित विवाह ही हैं केवल कुछ प्रसंगों में ही स्वयंवर एवं गन्धर्व विवाह के उल्लेख मिलते हैं जो आगम युग एवं पूर्व काल के हैं । माता-पिता के द्वारा आयोजित इस विवाह विधि में स्त्री-पुरुषों की समकक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । यद्यपि जैनाचार्यों ने विवाह विधि के सम्बन्ध में गम्भीरता से चिन्तन नहीं किया किन्तु यह सत्य है कि उन्होंने स्त्री को गरिमाहीन बनाने का प्रयास भी नहीं किया । जहाँ हिन्दूपरम्परा में विवाह स्त्री के लिए बाध्यता थी । वहीं जैन परम्परा में ऐसा नहीं माना गया । प्राचीनकाल से लेकर अद्यावधि विवाह करने न करने के प्रश्न को स्त्री - विवेक पर छोड़ दिया गया। जो स्त्रियाँ यह समझती थीं कि वे अविवाहित रहकर अपनी साधना कर सकेंगी उन्हें बिना विवाह किये ही दीक्षित होने IT अधिकार था । विवाह संस्था जैनों के लिये ब्रह्मचर्य की साधना में सहायक होने के रूप में ही स्वीकार की गई। जैनों के लिए विवाह का अर्थ था अपनी वासना को संयमित करना । केवल उन्हीं लोगों के लिए विवाह संस्था में प्रवेश आवश्यक माना गया था जो पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ पाते हों, अथवा विवाह के पूर्व पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का व्रत नहीं ले चुके हैं । अतः हम कह सकते हैं कि जैनों ने ब्रह्मचर्य की आंशिक साधना के अंग के रूप में विवाह संस्था को स्वीकार करके भी नारी की स्वतन्त्र निर्णय शक्ति को मान्य करके उसकी गरिमा को खण्डित नहीं होने दिया । बहुपति और बहुपत्नी प्रथा विवाह संस्था के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न बहुविवाह का भी है । इसके दो रूप हैं बहुपत्नी प्रथा और बहुपति प्रथा । यह स्पष्ट है कि द्रौपदी के एक अपवाद को छोड़कर हिन्दू और जैन दोनों ही परम्पराओं ने नारी के सम्बन्ध में एक पति प्रथा की अवधारणा को ही स्वीकार किया और बहुपति प्रथा को धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना गया। जैनाचार्यों ने द्रौपदी के बहुपति होने की अवधारणा को इस आधार पर औचित्यपूर्ण बताने का प्रयास किया है कि सुकमालिका आर्या के भव में उसने अपने तप के प्रताप से पाँच पति प्राप्त करने का निदान ( निश्चय कर लिया था । अतः इसे पूर्वकर्म का फल मानकर सन्तोष किया गया । किन्तु दूसरी ओर पुरुष के सम्बन्ध में बहुपत्नी प्रथा की स्पष्ट अवधारणा आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य में मिलती है । इनमें ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं जहाँ पुरुषों को 'बहुविवाह करते दिखाया गया है । दुःख तो यह है कि उनकी इस प्रवृत्ति की समालोचना भी नहीं की गई है । अतः उस युग में जैनाचार्य इस सम्बन्ध में तटस्थ भाव रखते थे यही कहा जा सकता है। क्योंकि किसी जैनाचार्य ने बहुविवाह को अच्छा कहा हो, ऐसा भी कोई सन्दर्भ नहीं मिलता है । Nagat प्रथा के आविर्भाव पर विचार करें तो हम पाते हैं कि यौगलिक काल तक बहुपत्नी प्रथा प्रचलित नहीं थी । आवश्यकचूणि के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव ने दो विवाह किये थे । उनके लिये दूसरा विवाह इसलिये आवश्यक हो गया था कि एक युगल में पुरुष की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उस स्त्री को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से यह आवश्यक था । किन्तु जब आगे चलकर स्त्री को एक सम्पत्ति के रूप में देखा जाने लगा तो स्वाभाविक रूप से स्त्री के प्रति अनुग्रह की भावना के १. ज्ञाताधर्मकथा अध्याय १६, सूत्र ७२-७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy