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________________ एक बहुआयामी समग्र व्यक्तित्व १७३ सरल बनना पड़ता है । मुमुक्षु साधक के लिए आवश्यकता है चरित्र की, चातुर्य की नहीं, सम्यक्आचार की जरूरत है समलंकृत वाणी की नहीं, कार्य करने वाले की आवश्यकता है न कि विवरण देने वाले की किन्तु कहीं-कहीं साधक के जीवन में भी बहुरूपियापन देखने को मिलता है जो उसकी साधना में विक्ष ेप उत्पन्न करने वाला है । जिससे सिद्धि तो अतिदूर है ही पर मानवता की सोपान भी कोसों दूर रह जाती है । पर पूज्य श्री इनसे सर्वथा अछूती हैं, बहुत दूर हैं। आपश्री का जीवन तो "जहाँ अन्तो तहा बाहि" अर्थात् जैसा अन्दर है वैसा ही बाहर है, कथनी करणी के अनुरूप है । उपयुक्त बात छोटों की भी सहज ही स्वीकार कर लेती हैं | अपनी बात मानने व मनवाने में यत्किचित् भी हठाग्रह नहीं है । आज आप इतने बड़े पद पर आसीन हैं फिर भी वही सरलता, वही सौम्यता है । उसमें किंचित् मात्र भी अल्पता नहीं आई वृद्धिंगत ही है अहम्रहित सरल जीवन ही अर्हम् पद को प्राप्त कर सकता है । (३) सहिष्णुता की सरिता-साधकजीवन स्वर्ण व चन्दन के समान होता है । यथा सोने को ज्योंज्यों आग में तपाया जाता है त्यों-त्यों अधिक शुद्ध व चमकदार बनता है । चन्दन को जितना अधिक घिसा जाय उतनी ही अधिक महक आती है । वैसे ही साधक के जीवन में जितने अधिक कष्ट आते हैं उतना ही उसमें और अधिक निखार आता है । और अधिक उज्ज्वल व प्रशस्त बनता है उसका जीवन | प्रत्येक मानव के जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंग सदा आते ही रहते हैं । पूज्याश्री ने भी अपने जीवन में अनेक बार ऐसे कटु मधुर अनुभव किये पर उनमें सदा तटस्थ रही हैं । मैंने अपने दीर्घकालीन संयमी जीवन के संयोग में आपश्री को कभी प्रतिकूल प्रसंगों में कभी भी अप्रसन्न होते नहीं देखा और न ही कभी यशकीर्ति, प्रशंसा आदि अनुकूल परिस्थिति में प्रसन्नता या गर्व करते देखा ऐसे समय में आप सदा मध्यस्थ रहती हैं। मैं कभी पूछ लेती "पूज्या श्री आपको प्रतिकूलता में भी कभी नाराज होते या गुस्सा होते नहीं देखा, और न कभी अनुकूलता में चेहरे पर मुस्कराहट ।" मेरे प्रश्न का आप बड़ा ही गंभीर उत्तर देतो - "यह जीवन तो सुख-दुःखमय है और संसार फिल्म हॉल के समान है, जहाँ प्रायः ऐसे प्रसंग आते ही रहते हैं उन प्रसंगों में क्या हँसना, क्या रोना, क्या प्रसन्न होना क्या अप्रसन्न होना । इन प्रसंगों में साधक को बहना नहीं है अपितु ज्ञाता द्रष्टा बनकर हर स्थिति को निरपेक्ष भाव से देखना है । जीवन व्यवहार में कभी किसी से मन-मुटाव कहा सुनी हो जाये तो इस उक्ति से " कहना नहीं सहना सीखो" से मन को समझाना है - इस सर्वोत्कृष्ट सूत्र को जीवन के प्रत्येक व्यवहार में उतारना है ।" वास्तव में पूज्याश्री की न केवल जिह्वा ही अपितु जीवन भी बोलता है । अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंगों में तो आपश्री पूर्णतः तटस्थ हैं ही किन्तु भयंकर शारीरिक वेदना में भी पूर्णतः समता के दर्शन होते हैं आपश्री के जीवन में । २ वर्ष पूर्व ब्लड की उल्टियाँ व दस्त लगने पर आपश्री की उस अपूर्व समता के हम लोगों ने व जयपुरवालों ने प्रत्यक्ष दर्शन किये। जड़-चेतन के भेद को आपश्री ने न केवल जिह्वा से समझा है अपितु प्रसंग आने पर जीवन में पूर्णतः उतारा भी है। इस प्रकार सहिष्णुता की पराकाष्ठा है आपश्री का यशस्वी तेजस्वी जीवन । (४) दया हृदया- 'दया धर्मस्य जननी' अर्थात् दया धर्म की जननी है, माँ है । जिस प्रकार के बिना जीवन शून्यवत् - सा महसूस होता है, उसी प्रकार दया के बिना मानव मात्र आकृति से मानव है प्रकृति से नहीं । जीवन में मानवता लाने के लिए दया देवी की पूजा करना, रोम-रोम में उसको स्थान देना आवश्यक ही नहीं परमावश्यक है फिर साधक का तो यह अनिवार्य आवश्यक गुण है । प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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