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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
था। संवत् १३८२ भीमपल्ली के महावीर चैत्य में पिता रुद्रपाल द्वारा कृत उत्सव से बहिन कील्ह के साथ आचार्य प्रबर जिनकुशलसूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण की थी । दीक्षा नाम था सोमप्रभ । संवत् १४०६ जैसलमेर में जिनचन्द्रसूरि ने इनको वाचनाचार्य पद प्रदान किया था। संवत् १४१५ जेठ बदी तेरस को खम्भात में अजितनाथ विधि चैत्य में लूणिया गोत्रीय शाह जेसल अथवा संघवी रत्ना एवं पूनी कृत नन्दी महोत्सव द्वारा तरुणप्रभाचार्य ने आपको आचार्य पद पर अभिषिक्त किया और जिनोदयसूरि नाम रखा। इसी वर्ष आपने खम्भात में अजितनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई और इसी वर्ष शत्रुजय तीर्थ की यात्रा की। पाँच स्थानों पर पांच बड़ी प्रतिष्ठायें की। आपने २४ शिष्य और १४ शिष्याओं को दीक्षित किया एवं अनेकों को संघवी, आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य, महत्तरा आदि पदों से अलंकृत किया। इस प्रकार पंचपर्व दिन (पाँचों तिथि) उपवास करने वाले, बारह ग्रामों में अमारिघोषणा कराने वाले तथा अट्ठाइस साधुओं के परिवार के साथ अनेक देशों में विहार करने वाले आचार्यश्री का संवत् १४३२ भाद्रपद बदी एकादशी को पाटणनगर में स्वर्गवास हुआ ।
इनके विषय में इन्हीं के शिष्य मेरुनंदनगणि ने संवत् १४३१ में अयोध्या में विराजमान लोकहिताचार्य को एक विज्ञप्ति पत्र भेजा। यह विज्ञप्ति पत्र बड़ा ही महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक दस्तावेज के रूपमें है। इसमें अपने गुरु जिनोदयसूरि की यात्रा का विस्तृत वर्णन दिया है।
आपके द्वारा रचित त्रिविक्रमरास (संवत् १४१५) और शाश्वत जिनस्तव प्राप्त हैं । आपके समय के विद्वानों में ज्ञानकलश, मेरुनंदन, विजयतिलक आदि एवं गुणसमृद्धि महत्तरा प्रमुख हैं । आज भी आपके द्वारा प्रतिष्ठित अनेकों मूर्तियाँ अनेकों स्थलों पर प्राप्त हैं।
(१७) जिनराजसरि इनके जन्म संवत् स्थान आदि के सम्बन्ध में कोई उत्लेख प्राप्त नहीं है। जिन राजसूरिरास के अनुसार इनके पिता का नाम तेजपाल मिलता है । जिनोदयसूरि का स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् लोकहिताचार्य ने संवत् १४३३ फाल्गुन बदी छठ के दिन आचार्य पद प्रदान कर जिनराजसूरि नाम रखा और जिनोदयसूरि का पट्टधर घोषित किया । पट्टाभिषेक पदमहोत्सव सा० कडुआ धरना ने किया था। इस पद महोत्सव के समय विनयप्रभोपाध्याय भी उपस्थित थे । आप सवालाख श्लोक प्रमाण न्यायग्रन्थों के अध्येता थे। आपने अपने करकमलों से सुवर्णप्रभ, भुवन रत्न और सागरचंद्र इन तीन मनीषियों को आचार्य पद प्रदान किया था। आपने संवत् १४४४ में चित्तौड़गढ़ पर आदिनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। संवत् १४६१ में देवकुलपाटक (देलवाडा) में आपका स्वर्गवास हुआ था। भक्तिवश आराधनार्थ देलवाडा के सा. नान्हक श्रावक ने आपकी मूर्ति बनाकर उनके पट्टधर श्रीजिनवर्धनसूरि से प्रतिष्ठा करवाई थी, जो आज भी देलवाडा में विद्यमान है। आपके करकमलों से प्रतिष्ठित मूर्तियाँ आज भी अनेक नगरों में बड़ी संख्या में प्राप्त हैं । आपके द्वारा रचित शान्तिस्तव और शत्रुजय विनती दो लघु कृतियाँ प्राप्त हैं।
आपके शिष्यों में उद्भट विद्वान् जयसागरोपाध्याय हुए हैं। ये दरडागोत्रीय थे और १४६० के पूर्व ही इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। इन्हीं के भाई ने आबू तीर्थ पर खरतरवसही का निर्माण करवाया था। इनके द्वारा मौलिक, टीकाग्रन्थ, स्तुति स्तोत्र आदि प्रचुर मात्रा में प्राप्त है। जिनमें से विज्ञप्ति त्रिवेणी, पर्वरत्नावली, पृथ्वीचन्द्र चरित्र और जिनकुशलसूरि छन्द आदि उल्लेखनीय हैं। खण्ड ३/४
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