SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक बहु आयामी समग्र व्यक्तित्व १७५ को सहजतया पूर्ण कर लेती हैं । इसीलिए आपश्री की गुरु बहिनें व गुरुवर्या श्री फरमाया करती थींकि शिष्या हो तो सज्जनश्रीजी जैसी हो जो अकेली ही अनेकों कार्य सँभाल लेती हैं। कोई कार्य इनसे अछूता नहीं, सभी में पूर्णरूपेण पारंगत हैं। (७) सेवापरायणता - सेवा-शुश्र षा का गुण हर कोई में सहज सम्भव नहीं है और न ही हर प्राणी इसके मूल्य को आंक सकता है । मानव स्वयं के हृदय में उद्भूत चंचल मनोवृत्तियों का बलिदान करके ही इस अद्भुत गुण को सम्प्राप्त कर सकता है । सामान्य मंदबुद्धि मानव-सेवा के अप्रमेय मूल्य का मूल्यांकन नहीं कर सकता और सहज प्राप्त गुण से कोसों दूर रह जाता है । चूँकि वह समझता है,सेवा करना छोटों का कार्य है, पढ़े-लिखे व्याख्यान वाचस्पति व रईसों का कार्य नहीं है।। किन्तु आप जैसी प्रज्ञावती इसके अनुपम गुण से सर्वथा परिचित हैं, इसीलिए सैकड़ों अन्य कार्यों को गौण समझकर सेवा को प्रथम स्थान देती हैं। मैंने स्वयं ने प्रत्यक्ष देखा है कि पूज्येश्वरी ने अपने पूज्यजनों की व गुरुवर्याश्री की सेवा कितनी दत्तचित्त से की है। अपने गुरु की सेवा तो प्रायः प्रत्येक शिष्य करता ही है किन्तु आप अन्य पूज्यजनों की सेवा भी निरपेक्ष भाव से बड़ी रुचिपूर्वक करती हैं। चूँकि आपने कभी किसी को अन्य समझा ही नहीं। मैं सबकी हूँ व सब मेरे हैं अर्थात् वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओतप्रोत है आपश्री का विशाल हृदय । पूज्यजनों के प्रति पूज्यभाव तो रोम-रोम में भरा है पर छोटों के प्रति वात्सल्य का निर्झर भी सदा ही झरता रहता है। आपश्री के महान् पुण्योदय से व परम सौभाग्य से प्रायः सदा आपको बड़ों की निश्रा सम्प्राप्त होती रही जिससे आपको दोहरे लाभ का सहज ही सौभाग्य प्राप्त हो जाता। प्रथम तो उन पूज्यवाओं को आत्मीयतापूर्ण कृपा दृष्टि को अविरल वृष्टि व उनकी सेवा का अप्रतिम अद्भुत लाभ । आपश्री को आपकी बौद्धिक व शारीरिक क्षमता से सहज ही सुलभ हो जाता है व अब भी यथाक्षमता सदा तैयार रहती हैं। (८) प्रभावशालिता-आपश्री का यशस्वी, तेजस्वी व्यक्तित्व अद्भुत प्रभावशाली है जो गहराई में सागर से भी अधिक गम्भीर व ऊँचाई में हिमगिरि से भी अधिक उत्तुंग है। ऐसे व्यक्तित्व के विषय में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। अपने विचरण काल में आपश्री जहाँ भी पधारी, जिनके भी मध्य रहीं या जिस किसी से भी सम्पर्क रहा अथवा किसी से भी सम्बन्ध बना वह आपके प्रकाण्ड पाण्डित्य व विद्वत्ता के साथ-साथ सहज सरलता, सौजन्यता, सौम्यता, उदारता, विशालता आदि गुणों की सौरभ से सुरभित हुए बिना नहीं रहे। आपश्री से किसी ने कभी कोई अशान्ति या परेशानी का अनुभव नहीं किया अपितु उसे मदा शान्ति, प्रसन्नता व आनन्दातिरेक की अनुभूति होती रही है। आपश्री के अधिकांश चातुर्मास जयपुर में ही हुए हैं व वर्तमान में भी शारीरिक अस्वस्थता के कारण ५ वर्ष से जयपुर में ही विराज रही हैं फिर भी किसी को आपश्री से कोई शिकायत नहीं है अपितु हर व्यक्ति हर समाज पर आपके दिव्य अद्भुत, सरल, सुन्दर व्यक्तित्व की अमिट छाप सदा के लिए विद्यमान है । ऐसा अद्भुत प्रभावशाली जीवन है आपश्रीजी का जिससे भी प्रभावित होकर अनेक बालिकाओं ने युवावस्था में पाँव रखने से पूर्व ही आपश्री का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया जो आज त्याग, तप, संयम की आराधना के साथ-साथ अपने अध्ययन में संलग्न है । (8) अध्ययन-मानव जीवन के उत्थान व निर्माण में अध्ययन अर्थात् शिक्षा का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । किन्तु वह अध्ययन शास्त्रानुकूल सम्यग् अध्ययन होना चाहिए। जिससे बुद्धि परिष्कृत व परिमार्जित होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy