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________________ १७६ खण्ड १ | जीवन ज्योति : व्यक्तित्व दर्शन खान से निकले हुए रत्न के समान मनुष्य की वृत्तियाँ जन्म से तो असंस्कृत व अपरिमार्जित ही होती हैं किन्तु जब उस रत्न को तराशा जाता है अर्थात् कांट-छांट सफाई की जाती है तो उसकी सुन्दरता में चार चाँद लग जाते हैं उसकी चमक मानव-मन को सहज ही आकर्षित कर लेती है तथा मूल्य में कई गुना वृद्धि हो जाती है । तथैव-रत्न के समान है। मानव वृत्तियों का संस्कार, सुधार व परिष्कार भी अति आवश्यक है। वह हो सकता है मात्र सम्यग् अध्ययन से। उसी से उसके अन्तःकरण की शुद्धि होती है, विचार निर्मल और उच्च बनते हैं तथा योग्यायोग्य कार्य का निर्णय करने की विवेक शक्ति उत्पन्न होती है। अध्ययनशील व्यक्ति की दुर्भावनाएँ सहज ही नष्ट हो जाती हैं तथा उसके हृदय में स्नेह, सदविवेक सहानुभूति, विनम्रता, शिष्टता, उदारता आदि अनेक सद्गुणों का आविर्भाव हो जाता है। अध्ययनरत सभी की दृष्टि में ऊँचा उठ जाता है और उसका सर्वत्र सम्मान होने लगता है । __ श्रद्ध या गुरुवर्या श्री की बचपन से ही अध्ययन की ओर अत्यधिक रुचि थी। स्कूल की पढ़ाई भी बहुत ही दत्तचित्त होकर करती थीं । पुस्तक तो सदा से आपकी जीवन साथी बनकर रही है। कोई पुस्तक हाथ में आ जाये उसे बड़ी ही एकाग्रता से आप पढ़ती हैं। फिर तो आपका ध्यान बँटता नहीं है। आपकी माँ साहब भी कहा करती थी कि 'सज्जनबाई' को पुस्तक मिल गई तो मानो सब कुछ मिल गया। आज हम भी यही अनुभव करते हैं । आपश्री का अधिकाधिक समय अध्ययन-अध्यापन में ही व्यतीत होता है । आपके जीवन का यह एक विशिष्ट गुण है या यों कहूँ पिताश्री से विरासत में मिले हुए दृढ़ संस्कार हैं। पिताश्री के माध्यम से ही शास्त्राध्ययन की रुचि भी अल्पावस्था में ही जागृत हो चुकी थी। चूँकि शास्त्रों में विविध विषयों का ज्ञानकोश संचित रहता है। उसमें गहन शास्त्रीय ज्ञान के अतिरिक्त नैतिक शिक्षायें, धार्मिक उपदेश और आदर्श कथाएँ भी प्रचुर परिमाण में प्राप्त होती हैं जिनका अमिट प्रभाव पाठक के हृदय पट पर टंकोत्कीर्णवत् हो जाता है। आप्त महापुरुषों के वाक्य धीरे-धीरे उसके जीवन में व्यावहारिक रूप धारण करके उसकी उत्कर्षता में असाधारण वृद्धि करते हैं । इतना सब जानती हुई आप सदा आगम शास्त्रों का अध्ययन-स्वाध्याय करती रहती हैं जिससे आपश्री का जीवन उत्कर्षता की चरम सीमा पर पहुंचने का मार्ग प्राप्त कर चुका है । शास्त्रावलोकन तो आपश्री के जीवन की अनिवार्य खुराक है ही किन्तु सद्साहित्य व इतर साहित्य भी आपसे खूब पढ़ा व खूब मथा है । फलतः भूगोल, खगोल, इतिहास आदि की प्रायः सम्पूर्ण जानकारी आपश्री को है जिसकी चर्चा समय-समय पर हम लोगों व अन्यों के बीच भी होती रहती है। इतना ही नहीं आप देश-विदेश की संस्कृति से व वहाँ के आचार-विचार से भी पूर्णतः परिचित हैं । इस विषय की बातें जब हम व अन्य लोग सुनते हैं तो दंग रह जाते हैं कि आपश्री इतना सब कैसे जानती हैं ? क्योंकि प्रतिपादन शैली से ऐसा आभास होता है मानो आपने विदेश की यात्रा की है अथवा लगता है सब कुछ प्रत्यक्ष देखा हो । यह सब आपके सतत अध्ययन व तीव्र प्रज्ञा का ही सुफल है । लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि महाराजश्री का दिमाग तो अजायबघर की भाँति है । अथवा कोई कहता है ये तो चलती-फिरती सुन्दर व्यवस्थित लाइब्रेरी हैं । वस्तुतः इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं पूर्णतः वास्तविकता है। वर्तमान में यद्यपि शरीर से आपश्री अस्वस्थ हैं, इन्द्रियों की क्षमता भी अल्प हो गई है पर पढ़ने के व्यसन में कोई कमी नहीं आई है, भले लेटे-लेटे पढ़ पर पढ़ती अवश्य हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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