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________________ ४ जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी बाँझपन ही नारी-जीवन का अभिशाप है। बाँझ स्त्री को लौकिक जन अमंगल मानते हैं। फिर भी बाँझपन को पूर्वकृत कर्मों का दोष मानकर स्त्री सह भी जाये, लेकिन सन्तान होकर चल बसे तो दारुण दुःख होता है । रत्न हाथ में आकर लुट जाये तो वह कैसे धीरज धारण करे ? जैसे अच्छा-सा सुन्दर फल कोई किसी को दे और फिर कुछ क्षण बाद ही उसे छीन ले, पाने वाला अतृप्त ही रह जाय, उसका आनन्द न ले सके तो अतृप्तिजन्य दारुण वेदना होती है, हृदय में शूल से चुभते हैं, वैसी ही वेदना मेहताबदेवी को भी होती थी, पर धर्मनिष्ठ और विवेकवती होने के कारण वह यह वेदना भी समता से सह जाती थी। इतने पर भी उसका मातृत्व तो अतृप्त ही रह जाता था । अपने बच्चे की तुतली भाषा में 'माँ' शब्द सुनने को उसने कान तरसते रह जाते। मन में हूक उठती-जब मेरे भाग्य में पुत्र-सुख है ही नहीं तो देव मुझे पुत्र देता ही क्यों है ? इधर दिया और उधर छीन लिया, हे दैव ! एक अबला के साथ तू इतना क्रूर मजाक करता ही क्यों है ? ....."और फिर अपने मन को समझा लेती-मेरे पूर्वजन्म के कर्म ही ऐसे हैं। अवश्य ही मैंने पूर्वजन्मों में किसी की इष्ट वस्तु चुरायी होगी। किसी को इसी प्रकार पीड़ित किया होगा, उन कर्मों का यह दुष्फल मेरे सामने आ रहा है । और वह सन्तोष कर आशावान हो जाती । किन्तु दीर्घायु पुत्र-प्राप्ति के लिए तथा उसके जीवन की रक्षा के लिए किसी भी देवी-देवता की मनौती नहीं करती थी। लेकिन अन्य सभी पारिवारिकजनों की इच्छा यही थी कि 'मेहताब देवी की सन्तान जीवित रहे। और इस इच्छा की पूर्ति के लिए मनौतियाँ करते रहते थे। शुभ-स्वप्न संकेत-एक रात्रि ! मेहताबदेवी अपनी सुख-शैय्या पर निद्राधीन थी । बन्द आँखों में सपने तैरने लगे-सत्संग हो रहा है । सन्तों का प्रवचन चल रहा है । उसमें मैं बैठी प्रवचन सुन रही हैं। मेरे समीप ही एक दिव्य देवांगना बैठी है । प्रवचन समाप्त हुआ । देवांगना जैसे मेरे शरीर में समा गई । सन्तों की और धर्म की जय-जयकार होने लगी, श्रोताओं, भक्तजनों का हर्षनाद तुमुल स्वर में व्याप्त हो गया । अचानक ही आँख खुल गईं । देखा तो वही कक्ष । मेहताबदेवी का चिन्तन उभरा-कितना मधुर और सुहावना स्वप्न था। काश ! आँख न खुलतीं। प्रवचन चलता ही रहता । यह जागृति तो बैरिन बन गई । सुख की घड़ियाँ लूट ले गई। चिन्तन आगे बढ़ा-और सब लोग तो जाते दिखाई दिये लेकिन वह देवांगना कहाँ चली गई ? कितनी सुन्दर थी । कैसी मनोहारी मूरत...""अरे वह तो मेरे शरीर में ही समा गई। पलक उठा मेहताबदेवी का तन-मन ! हर्ष से हिया छलक उठा। सोचा-अपनी खुशी में पतिदेव को भी साझीदार बनाऊँ । उठी, पति को जगाया और पूरा स्वप्न सुना दिया। गुलाबचन्द जी का मन मोद से भर गया, शब्द निकले गुलाबी हँसी के साथ उत्तम स्वप्न है। तुम माता बनोगी । तुम्हारी कन्या साधारण नहीं, कन्या-रत्न होगी, जिसके उजास से हमारा हृदय-घट तो प्रकाशित होगा, पूरा समाज उससे उजाला पाकर धन्य अनुभव करेगा अपने आपको । __ और मेहताबदेवी अभी से अपने को धन्य अनुभव करने लगी। ज्यों-ज्यों गर्भ में वृद्धि हुई, माता की धर्म प्रवत्तियाँ दिनोंदिन प्रद्धित होती चली गई । अब उन्हें सुपात्रदान, गुरु-दर्शन-वन्दन, प्रवचन श्रवण आदि में अधिक आनन्द आता। सभी व्यवहारों में विनय विशेष रूप से समाहित हो गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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