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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ जैन समाज ही नहीं अपितु सारा साहित्य संसार भी आपका चिरकृतज्ञ है । आपके द्वारा प्रतिष्ठित, लेखांकित शताधिक मूर्तियाँ आज भी विद्यमान हैं । भावप्रभाचार्य और कीर्तिरत्नसूरि को आपने ही आचार्य पद से विभूषित किया था। कीर्तिरत्न सूरि ही नाकोड़ा तीर्थ के संस्थापक एवं प्रतिष्ठापक थे और इन्हीं से कीतिरत्नसूरि शाखा के नाम से एक उपशाखा प्रारम्भ हुई थी। इसी शाखा में प्रसिद्धतम आचार्य जिनकृपाचन्द्रसूरि जी हुए। जयसागरजी को उपाध्याय पद भी आपने ही प्रदान किया था। जैसलमेर नरेश राउल वैरीसिंह और त्र्यंबकदास जैसे आपके चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम करते थे। जयसागरोपाध्याय ने संवत् १४८४ में नगरकोट (कांगडा) की यात्रा के स्वरूप 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' नामक महत्वपूर्ण विज्ञप्ति पत्र आपही को भेजा था। संवत् १४६४ और १५०६ में जैसलमेर में संभवनाथ एवं चन्द्रप्रभ मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई थी। श्री जिनभद्रसूरि शाखा में अनेक दिग्गज विद्वान हुए हैं। आज भी आपकी शाखा में कुछ यति विद्यमान हैं। खरतरगच्छ की वर्तमान में उभय भट्टारकीय, आचार्यांय, भावहर्षीय एवं जिनरंगसूरि आदि शाखाओं के आप ही पूर्व पुरुष हैं। संवत १५१४ मिगसर बदी नवमी के दिन कुम्भलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ था। नाकोड़ा शान्तिनाथ मन्दिर में आपकी प्राचीन मूर्ति विद्यमान है । और, कलकत्ता आदि अनेक दादाबाडियों में आपके चरण आज भी पूजित होते हैं। ___ (१६) जिनचन्द्रसूरि महाप्रभावक युगप्रवर आचार्य जिनभद्रसूरि के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि हुए । इनका जन्म संवत् १४८७ में जैसलमेर में हुआ था। इनके पिता का नाम चम्म गोत्रीय शाह वच्छराज था और माता का नाम था वाल्हादेवी। सोमकुंजरकृत गुर्वावली में साहूसाखा गोत्रीय बतलाया है और माता का नाम स्याणी लिखा है। आपका जन्म नाम करणा था। १४९२ में आपने दीक्षा ग्रहण की थी और दीक्षा नाम था कनकध्वज । संवत् १५१५ जेठ बदी दूज के दिन कुम्भलमेरु निवासी कुकड़ चौपड़ा गोत्रीय शाह समरसिंहकृत नन्दी महोत्सव में श्री कीर्तिरत्नसूरि ने आचार्य पद प्रदान कर जिनचन्द्रसूरि नाम रखा था । संवत् १५३७ में जैसलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ था। (२०) जिनसमुद्रसूरि ये बाड़मेर निवासी पारस गोत्रीय देकोशाह के पुत्र थे। देवलदेवी इनकी माता का नाम था। संवत् १५०६ में इनका जन्म हुआ और संवत् १५२१ में दीक्षा ग्रहण की । दीक्षानन्दी महोत्सव पुञ्जपुर में मण्डन दुर्ग के निवासी श्रीमालवंशीय सोनपाल ने किया था। दीक्षा नाम कुलवर्धन था। संवत् १५३३ माघ सुदी त्रयोदशी के दिवस जैसलमेर में, संघपति श्रीमालवंशीय सोनपालकृत नंदिमहोत्सव में श्रीजिनचन्द्रसरिजी ने अपने हाथ से पद स्थापना की थी। ये पंच नदी के सोमयक्ष आदि के साधक थे। संवत् १५३६ में जैसलमेर के अष्टापद प्रासाद में आपने प्रतिष्ठा की थी। परम पवित्र चारित्र के पालक आचार्यश्री का संवत् १५५५ मिगसर बदी १४ (१५५४ माघ) को अहमदाबाद में देवलोक हुआ। आपके शासनकाल में अनेक प्रौढ़ विद्वान् हुए हैं, जिन्होंने साहित्य सर्जना कर साहित्य के भंडार को समृद्ध किया। इनमें से कुछ मुख्य-मुख्य विद्वानों के नाम इस प्रकार हैं-वाग्भटालंकार, वृत्तरत्नाकर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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