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जैन शिक्षा : स्वरूप और पद्धति : डॉ० नरेन्द्र भानावत
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दैनिक कार्यक्रमों में छ: आवश्यक कार्य सम्पन्न करने पर बल दिया गया है। इन्हें आवश्यक कहा गया है। ये हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । सामायिक का मुख्य लक्ष्य आत्म-चिन्तन, आत्म-निरीक्षण है। बिना अहं का विसर्ज कए आत्म-चिन्तन की ओर प्रवृत्ति नहीं होती। अतः अहं को गालने के लिये, जो आत्मविजेता बन चके हैं ऐसे २४ तीर्थंकरों के गण-कीर्तन स्तवन और पंच परमेष्ठी अर्थात अरिहंत, सिद्ध, आचार्य. उपाध्याय और साधु की वन्दना करने का विधान किया गया है । "प्रतिक्रमण" में असावधानीवश हए दोषों का प्रायश्चित्त कर उनसे बचने का संकल्प किया जाता है । “कायोत्सर्ग" में देहातीत होने का अभ्यास किया जाता है । और “प्रत्याख्यान" में सम्पूर्ण दोषों के परित्याग का संकल्प लिया जाता है।
श्रमणों को “उत्तराध्ययन" सूत्र के २६वें अध्ययन की १८वीं गाथा में निर्देश दिया गया है कि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान अर्थात् अर्थ का चिन्तन, तीसरे में भिक्षाचरण और चौथे में पुनः स्वाध्याय किया जाय
पढम पोरिसि सज्झायं, वीयं झाणं झियायई ।
तइयाए भिक्खाचरियं पुणो, चउत्थी सज्झायं ।। इसी प्रकार रात्रि के प्रथम पहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में निद्रा और चौधे में पुनः स्वाध्याय करने का विधान है। इससे स्पष्ट है कि दिन-रात के आठ पहरों में चार पहर केवल स्वाध्याय के लिये नियत किये गये हैं ।
विधिपूर्वक श्रत की आराधना करने के लिये आठ आचार बताये गये हैं१. जिस शास्त्र का जो काल हो, उसको उसी समय पढ़ना कालाचार है । २. विनयपूर्वक गुरु की वन्दना कर पढ़ना विनयाचार है। ३. शास्त्र एवं ज्ञानदाता के प्रति बहुमान होना बहुमान आचार है । ४. तप, आयम्बिल आदि करके पढ़ना उपधान आचार है । ५. पढ़ाने वाले गुरु के नाम को नहीं छिपाना अनिवाचार है। ६. शब्दों ह्रस्व-दीर्ध का शुद्ध उच्चारण करना व्यंजनाचार है । ७. सम्यक् अर्थ की विचारणा अर्थाचार है ।
८. सूत्र और अर्थ दोनों को शुद्ध पढ़ना और समझना तदुभयाचार है । शिक्षक का स्वरूप
शिक्षक को गुरु कहा गया है । आचार्य और उपाध्याय प्रमुख गुरु हैं । आचार्य का मुख्य कार्य वाचना देना और आचार का पालन करना-करवाना है। उपाध्याय का मुख्य कार्य ज्ञानदान देना है। जो अध्ययन के स्व के निकट ले जाये, वह उपाध्याय है। सामान्य लौकिक शिक्षा पद्धति में भी आचार्य और उपाध्याय पद समादृत हैं। जैन शास्त्रकारों ने आचार्य और उपाध्याय को विशेष पूजनीय स्थान देकर उन्हें पंच परमेष्ठी महामन्त्र में प्रतिष्ठित किया है। आचार्य के लिये "आवश्यक सूत्र" में कहा गया है कि वे पाँच इन्द्रियों के विषय को रोकने वाले, नव वाड़ सहित ब्रह्मचर्य के धारक, क्रोध, मान, माया, लोभ, कषायों के निवारक, पंच महाव्रतों से युक्त, पंचविध आचार-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारि
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