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________________ ૨૦૪ नारी : मानवता का भविष्य : सुरेन्द्र बोथरा चाहिये था । आगमिक प्रतिपादनों से विपरीत होने पर भी इतनी लम्बी अवधि तक टिक रह जाना पुरुष वर्ग की दुरभिसन्धि का द्योतक है । स्त्री के आत्मिक विकास की सम्भावना के विरुद्ध प्रथम तर्क है कि स्त्रीशरीर की संरचना ऐसी है कि उसमें रक्तस्राव एक नियमित प्राकृतिक प्रक्रिया है । रक्तस्राव का आत्मिक विकास से क्या सम्बन्ध है, यह समझना कठिन है। और फिर रक्तस्राव तो एक आयु विशेष तक ही होता है, उसके बाद ? ऐसा ही दूसरा तर्क है कि स्त्री पर बलात्कार हो सकता है इसलिये वह अचेल नहीं रह सकती । क्या सचेल रहने पर बलात्कार नहीं हो सकता ? क्या पुरुष पर बलात्कार नहीं हो सकता ? क्या उस पर होने वाले बलात्कार को परीषह कहकर गौरवान्वित कर देने से वह मोक्ष का अधिकारी हो गया ? अन्य तर्क बताया गया है कि स्त्री करुणा प्रधान है - - तीव्र पुरुषार्थ नहीं कर सकती । यह तर्क अपने आप में ही आधारहीन है क्योंकि यथार्थ सत्य के विपरीत है । जहाँ तक तीव्र पुरुषार्थ का प्रश्न है स्त्री पुरुष से कहीं अधिक तीव्र पुरुषार्थ की संभावना रखती है और पुरुष से कहीं अधिक निर्दय हो सकती है । इतिहास को देखें तो अनगिनत उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ स्त्री ने इन दोनों में पुरुष को बहुत पीछे छोड़ दिया है । आगे कहा है कि चंचल स्वभावी होने के कारण स्त्री ध्यान व स्थिरता का अभाव होता है। तथ्य यह है कि स्त्री की तुलना में पुरुष अधिक क्षेत्रों में चंचल स्वभावी है । ठीक वैसे ही यथार्थ से परे है यह तर्क कि स्त्री में वाद सामर्थ्य और तीव्र बुद्धि का अभाव होता है । आत्मिक विकास के क्ष ेत्र की ये आधारहीन धारणाएँ पुरुष ने ही बनाई । वहाँ से यही धारणाएँ नियम बनकर धर्म के क्षेत्र से होती हुई समाज के क्षेत्र में आ गईं। पुरुष को नारी - दासता के लिये बड़ी सशक्त बेड़ियाँ मिल गईं और आरम्भ हो गया उस दमन चक्र का जिसमें भिन्न परम्पराओं के भेद भूल समस्त पुरुष वर्ग एक हो गया, चाहे वह वैदिक परम्परा का हो, बौद्ध परम्परा का, जैन परम्परा का या अन्य किसी परम्परा का । दायित्वों का सन्तुलन स्वस्थ परिवार व समाज के लिये अत्यन्त आवश्यक है । परिवार व समाज के बिखराव का कारण इस सन्तुलन का बिगड़ना ही है। पुरुष वर्ग ने जब अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिये नारी - दमन का चक्र आरम्भ किया तभी से यह सन्तुलन बिगड़ता चला गया । आधारहीन तर्क और भी विकसित होकर कुतर्कों में ढल गये । कुछ उदाहरण हैं वे तर्क जो स्त्री के लिये उपयोग में लाये गये हैं पर उपयुक्त हैं पुरुष के लिये । "स्त्रियाँ थोड़े से उपहारों से ही वशीभूत की जा सकती हैं और पुरुषों को विचलित होने में सशक्त होती हैं ।" "सन्ध्याकालीन आभा के समान क्षणिक प्रेम वाली और अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर पुरुष का परित्याग करने वाली ।" "पाप कर्म नहीं करने का वचन देकर भी पुनः अपकार्य में लग जाती हैं ।" स्त्री की दासता की यह परम्परा जो मूलभूत दार्शनिक सिद्धान्तों के विपरीत थी, निर्बाध चलती गई । विदेशी आक्रमणों की श्रृंखला ने भी उसके अधिक पुष्ट होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । मानव समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग सामाजिक अनुशासन के नाम पर दासता के दलदल में धँसता चला गया । उसकी चरम परिणति हुई स्त्री को अवला, ताड़ना के योग्य, नरक का द्वार आदि गर्हित नामों से सम्बोधित करने में । स्थिति की दयनीयता यह है कि स्वयं नारी का सोचने का तरीका वैसा ही हो गया है जैसा पुरुषप्रधान समाज चाहता है । युगों के दबाव ने उसे अपने आपको पुरुष का सहभोगी मात्र समझने का आदी बना दिया है । वह भूल- सी गई है कि नैसर्गिक यथार्थ यह है कि पुरुष और नारी परस्पर एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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