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________________ परिवार परिचय (२) गोलेच्छा परिवार का परिचय विजयकुमार गोलेच्छा [ ससुराल पक्ष परिचय ] गोलेच्छा वंश की उत्पत्ति चन्देरी नगरी में खरहत्थसिंह राठौड राज्य करते थे । खरहत्थसिंह के चार पुत्र थे—अम्बेदेव, मिम्बदेव, भैंसासिंह और आसफल । एक बार यवन सेना ने इनके प्रदेश को लूटा । खरहत्थसिंह को ज्ञात होते ही उसने पुत्रों सहित सेना लेकर यवन सेना का पीछा किया । घमासान युद्ध हुआ । यवन सेना सब कुछ छोड़कर पलायन कर गईं। इस युद्ध में विजय तो हुई, पर चारों पुत्र गम्भीर रूप से घायल हो गये । दैवयोग से महान प्रभावक युगप्रधान श्री जिनदत्त सूरि का उस प्रदेश अर्थात् चन्देरी में पधारना हुआ । राजा ने उनके महाप्रभाव की बात सुनी और उनकी शरण में पहुँचे, अपनी विपत्ति - पुत्रों की घायल मरणासन्न अवस्था कही । गुरुदेव ने वासक्षेप व जल अभिमन्त्रित कर दिया जिसके प्रयोग से वे शीघ्र स्वस्थ हो गये । राजा की श्रद्धा दादा गुरु में दृढ़ हो गई । प्रतिबोध पाकर राजा सपरिवार जैन बन गया । उनके साथ अनेक अन्य क्षत्रिय आदि भी जैन बने वि० सं० १९९५ में । राजा के तृतीय पुत्र भैंसा सिंह के द्वितीय पुत्र का नाम गेलोजी था । उनके पुत्र का नाम था वच्छराज । जनता इनको गेलवच्छा के नाम से सम्बोधित करती थीं। तब ये गेलवच्छा कहलाये और वही शब्द अपभ्रंश होते-होते गुलेच्छा या गोलेच्छा कहलाता है । आदरास्पद श्रीयुत रत्नचन्दजी गोलेच्छा- आपने खींचन फलौदी से गुलाबी नगरी जयपुर की ओर प्रस्थान किया । परिवार सहित आप जयपुर में ही बस गये । आपके दो पुत्र थे । बड़े पुत्र का नाम श्री नथमलजी था और छोटे पुत्र का नाम श्री जवाहरमल जी । मानव बन कर आये हो मानव ही बनकर चलना, तपःपूत हो तप के आँगन में है दिन रात तुम्हें पिघलना । जीवन वही कि जिसकी लो धरती को नभ से बाँधे, बैठो मेरे पास सुनो तुम मंगल दीपक सा जलना ॥ विश्वविख्यात गुलाबी नगरी जयपुर के गुलाबी रत्न दीवान सेठ श्री नथमलजी गोलेछा का परिचय आप बचपन से ही बड़े भाग्यशाली तथा प्रखर एवं तेजस्वी थे । आपकी कार्यकुशलता को देखकर जयपुर के महाराजा भी आपसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । अपको अपनी रियासत का दीवान बना दिया। आपके छोटे भाई को खजांची बनाया । आपको दीवान साहब के नाम से प्रसिद्धि मिली । बच्चे-बच्चे के मुख पर श्री नथमलजी दीवान का नाम था । शौहरत तो कदम चूम रही थी । सेठ नथमलजी का कटला व सेठ नथमलजी का चौक आज भी आपके नाम से जाने जाते हैं । दीवान पद पर रहते हुए भी आपकी धर्म के प्रति गहरी आस्था थी । आप साधु-सन्तों के नियमित रूप से दर्शन का लाभ लेते थे तथा धर्म की दलाली करते थे । ठाकुर, राजपूत एवं अन्य जाति के लोगों को मांस-मदिरा का त्याग करवाते थे । और उन लोगों को जैन सन्तों के दर्शन करवाते थे । इस विशाल धरती पर तमाम लोगों के चरित्र ऐसे मिल जायेंगे जिन्होंने दूसरों के भले के लिये अपने आपको समर्पित कर रखा है। इस तरह के व्यक्तियों का जीवन चन्दन के वृक्ष की तरह होता है ( १०५ ) खण्ड १/१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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