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________________ खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी जमा चुकी होगी और उसी के फलस्वरूप जनता ने उनका जो नामकरण किया, वह समाज के मस्तिष्क पर अमिट अक्षरों में लिख गया । व्यक्ति चाहे वह चक्रवर्ती राजा ही क्यों न हो समाज-सागर का एक क्षुद्र बुद्-बुद् है, जो अपना क्षणिक अस्तित्व दिखाकर चला जाता है । परन्तु, समाज एक प्रवहमान सरिता है जो अक्ष ण्ण रूप से अपनी युग-युग की सिद्धियों और स्मृतियों को समेटे चलता रहता है। इसलिए समाज के मानस-पटल पर आचार्य जिनेश्वर के सुधारवाद की खरतरता ने जो प्रभाव डाला उसकी स्थायी अभिव्यक्ति होना निश्चित था। चाहे कोई राजा उसको मानता या न मानता, चाहे कोई आचार्य या सम्प्रदाय उसको स्वीकार करता या नहीं करता । किसी विरुद के महत्व को बढ़ाने के लिए राजमान्य होने की आवश्यकता नहीं । वसतिमार्ग को मान्यता किसने दी थी? चैत्यवासी नाम को रखने वाला कौन था ? वर्तमान युग में हवाई जहाज को चीलगाड़ी कहने वाला और मोटर सायकिल को फटफटिया कहने वाला कौन था? इसका उत्तर यही है कि समाज या जनता । अतः इस प्रकार के नामकरणों के मूलकर्ता के विषय में विवाद करना भाषा-विज्ञान के प्रति अनभिज्ञता प्रकट करना है। जब यह कहा गया कि दुर्लभराज की राजसभा में "खरतरविरुद" की सृष्टि हुई, तो चाहे राजा ने अपने मुख से उस शब्द का उच्चारण किया हो या न किया हो, यह एक ऐसा सत्य कथन था जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता, क्योंकि जिस विशेषता ने जिनेश्वर की विचारधारा को “खरतर विरुद" दिया उसका सर्वप्रथम सफल और सार्थक विस्फोट यहीं हुआ था। कुछ लोगों ने शंका उठाई है कि दुर्लभराज की अध्यक्षता में आचार्य जिनेश्वर और सूराचार्य का उक्त शास्त्रार्थ हुआ ही नहीं । इस प्रसंग में प्रभावकचरितकार का मौन रहना भी प्रमाण रूप में रखा जा सकता है, परन्तु प्रथम तो प्रभावकचरितकार से पूर्ववर्ती सुमतिगणि और जिनपालोपाध्याय के प्रबन्धों में तथा उनके भी पूर्ववर्ती आचार्य जिनवल्लभ के पट्टधर युगप्रधान जिनदत्तसूरि प्रणीत गणधर सार्धशतक, गुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र आदि काव्यों में इस घटना का स्पष्ट उल्लेख मिलता है और दूसरे प्रभावकचरितकार के लिए इस विषय में मौन धारण करने के लिए एक उपयुक्त कारण भी था। प्रभावकचरित अनेक प्रभावक चरित्रों के साथ-साथ सूराचार्य के चरित्र का भी वर्णन करता है जो उक्त शास्त्रार्थ में जिनेश्वराचार्य के साथ पराजित हुए बताए जाते हैं, इसलिये यदि सूराचार्य के गौरव को घटाने वाली किसी घटना का इसमें उल्लेख किया जाता तो वह ठीक नहीं होता। इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि प्रभावकचरितकार बहुत ही उदारमना होते हुए भी स्वयं एक चैत्यवासी आचार्य थे । अतः सामाजिक शिष्टाचार की दृष्टि से भी उनके द्वारा चैत्यवासी प्रधानाचार्य की पराजय का उल्लेख किया जाना ठीक न होता। साथ ही मुनि जिनविजयजी के शब्दों में "प्रभावकचरित के वर्णन से यह तो निश्चित ही ज्ञात होता है कि सूराचार्य उस समय चैत्यवासियों के एक बहुत प्रसिद्ध और प्रभावशील अग्रणी थे। ये पंचासरा पार्श्वनाथ के चैत्य के मुख्य अधिष्ठाता थे। स्वभाव से बड़े उदग्र और वाद-विवादप्रिय थे । अतः उनका इस वाद-विवाद में अग्ररूप से भाग लेना असंभवनीय नहीं, परन्तु प्रासंगिक ही मालूम देता है। शास्त्राधार की दृष्टि से यह तो निश्चित ही है कि जिनेश्वराचार्य का पक्ष सर्वथा सत्यमय था । अतः उनके विपक्ष का उसमें निरुत्तर होना स्वाभाविक ही था । इसमें कोई संदेह नहीं कि राजसभा में चैत्यवासी पक्ष निरुत्तरित होकर जिनेश्वर का पक्ष राज सन्मानित हुआ और इस प्रकार विपक्ष के नेता का मानभंग होना अपरिहार्य बना। इसलिये संभव है कि प्रभावकचरितकार को सूराचार्य के इस मानभंग का उनके चरित में कोई उल्लेख करना अच्छा नहीं मालूम दिया हो और उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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