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________________ जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी नागेश्वर में तीर्थमण्डन प्रभु पार्श्वनाथ की मूर्ति थी। उसकी पूजा एक संन्यासी सिन्दूर और तेल के विलेपन से करता था। यह जैन पूजा पद्धति नहीं अपितु तीर्थंकर प्रभु की प्रतिमा की घोर आशातना है। इस आशातना को देखकर गुरुवर्या श्री आदि को घोर दुःख हुआ। दो-तीन दिन वहीं रुके, श्रावकों को बुलाकर जानकारी ली। उन्होंने बताया-यह करतूत एक संन्यासी की है, वही ऐसी पूजा करता है, किसी की भी नहीं सुनता है, मन्दिर की ७०० बीघा जमीन का मालिक भी वही बना हुआ है। यह सब जानकर चित्त और भी खिन्न हो गया-साध्वीजी का। आस-पास के ग्राम निवासियों को बुलवाकर स्थिति समझाई। आपकी प्रेरणा से उनमें धार्मिक उत्साह जागा और सभी ने शीघ्र ही उद्धार करने का संकल्प किया। उनके प्रयास सफल हुए। तीर्थ का उद्धार शुरू हो गया। आज तो वहाँ भव्य जिनालय, विशाल दादावाड़ी और सुन्दर सुव्यवस्थित धर्मशाला है । और मुख्य तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। यह सब चरितनायिकाजी की सप्रेरणा का फल है। यहां से मन्दसौर, जावरा होते हुए रतलाम पधारे । सेठ केशरीसिंह जी बाफना द्वारा बनवाई हई कोठी में विराजे । दूसरे दिन पौष बदी १० (भ. पार्श्वनाथ का जन्म दिवस) थी । समीप स्थित बिबडोद तीर्थ के दर्शनार्य पधारे। वहाँ पूजा तथा साधर्मी वात्सल्य भी था। संध्या को साध्वी-समुदाय पुनः रतलाम पधार गया। वहाँ से पूज्येश्वर वीर-पुत्र श्री आनन्दसागरजो म. सा. की निश्रा में बड़ी दीक्षा कराने हेतु सैलाना पधारे। उस समय सैलाना के राजा 'महाराज दिलीपसिंह शासन की रजत जयन्ती' मना रहे थे । महाराज दिलीपसिंह पूज्य गुरुदेव वीरपुत्र म. सा. के सहपाठी भी रह चुके थे । एक दिन वे गुरुदेव के दर्शनार्थ पधारे। उस समय पू. चरितनायिकादि भी वहाँ विराज रहीं थीं। गुरुदेव ने एक भजन सुनाने को कहा। गुरुवर्याश्री के मधुर वीणा समान गायन को सुनकर राजा दिलीपसिंह भावविभोर हो गये और जैन साध्वाचार की बहुत-बहुत प्रशंसा की। नूतन दीक्षिता राजेन्द्रश्री म. की बड़ी दीक्षा के योगोद्वहन शुरू हो चुके थे और पू. सज्जनश्रीजी म.सा. ने दशवैकालिक के अवशिष्ट योगोद्वहन भी शुरू कर दिये थे। बड़ी दीक्षा के दिन गुरुदेव की चरणपादुका स्थापन का भी समारोह था अतः अठाई महोत्सव, पूजन, भक्ति, रात्रि जागरणादि प्रारम्भ हो गये। राजेन्द्रश्रीजी म. के पारिवारिक सदस्य तथा आस-पास के अन्य लोग भी बड़ी संख्या में आ गये थे। इन सबकी उपस्थिति में पूज्य गुरुदेव के कर-कमलों से श्री राजेन्द्र श्रीजी म. की बड़ी दीक्षा का कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न हुआ। __ आप लोग (साध्वीजी) वहाँ से विहार करती हुई पू. गुरुवर्याश्री के पास जयपुर पधारी । सज्जनश्रीजी म. सा. के २००३, २००४ व २००५ के चातुर्मास गुरुणीजी श्री ज्ञानश्रीजी म. सा. के सान्निध्य में जयपुर में ही हुए। व्याख्यान का कार्य आप स्वयं सँभालती थीं। वि. सं. २००५ में पू. आचार्यदेव श्री रत्नसूरीश्वरजी म. सा., उपाध्याय श्री लब्धिमुनिजी म. सा., प्रेममुनिजी म. सा., मेघमुनिजी म. सा. व मुक्तिमुनिजी म. सा. का जयपुर में पदार्पण हुआ। आपके प्रवचनों से प्रभावित हो जययुर संघ ने चातुर्मास की विनती की जिसे आपश्री ने स्वीकार कर लिया। इस चातुर्मास में व्याख्यान आचार्यदेव फरमाते थे, अतः व्याख्यान भार से मुक्त, होकर आपने अपनी गुरुवर्याश्री प्रवर्तिनी महोदया एवं परमोपकारिणी पू. श्री उपयोगश्री जी म. सा. से तपस्या की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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