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________________ खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ - श्री मानकचन्दजी लूनिया किसी भी धर्म संघ, किसी भी नारीकल्याण संस्था से पीछे नहीं है। प्रवर्तिनी जी का पथ तलवार सज्जनश्री महाराज आपका की धार पर चलने के समान है । पुरुष शत शत है अभिनन्दन। संघों का आचार्यों द्वारा संचालन इतना खतरों नतमस्तक हो श्री चरणों में भरा नहीं जितना कि नारी संघों का संचालन करत ह हम वन्दन ॥ करना और इस कसौटी पर कठोर अनुशासन अनआगमवेत्ता-जिनवरचेता गामिनी प्रतिनी सज्जनश्रीजी म. सा० सौ टंक आप विनय की प्रतिमा। खरी उतरी हैं। मेरा मन यहीं आजानुनतमस्तक जैन धर्म की जागृत प्रतिभा, हो श्रद्धावनत हो जाता है। गुरुवर्या विचक्षणश्री अतुलनीय है गरिमा ॥ जी म. सा. के स्वर्गवास के उपरांत जैन श्वे. सहज सरल समता की देवी, खरतर-गच्छ संघ प्रवर्तिनी जी की संचालन संगठन अभिनन्दन स्वीकार करो। पतिशासबारे निरन्तर तिमीला हम अनजान अभिज्ञ प्राणि हैं, यह उपलब्धि किन्हीं शाब्दिक प्रशंसा से प्रशंसनीय हो मुक्तिमार्ग में हाथ धरो॥ सकती है ? शब्द असमर्थ हैं अस्तु भावांजलि अर्पित शत शत वन्दन, शत अभिनन्दन, कर ही आपश्री का अभिनन्दन हो सकता है। कोटि नमन चरणों में । प्रवतिनो श्री के अनेक गुणों में अद्वितीय गुण है बसो सदा जन-जन अन्तर में, है आपश्री की “विनम्रता” “सहजता" “सरलता"। वाणी में नयनों में । प्रवर्तिनी आर्या श्री सज्जनश्रीजी के प्रति मेरे ___ "अमृत रस से भरे फलों का, मन में जो असीम श्रद्धा उत्पन्न हुई है उसका वृक्ष सदा झुक जाता है। कारण यह नहीं है कि वे मेरी बुआजी हैं। इस धरतो का प्राणी उससे हो, छाया पाता, जीवन पाता है । श्रद्धा का कारण यह भी नहीं है कि वे जैन श्वे० खरतरगच्छ संघ के उच्च पद पर पदासीन हैं । यह ऐसे अमृत भरे कल्पवृक्ष सी हो हैं प्रवर्तिनी श्री भी इस श्रद्धा का कारण नहीं है कि वे आगमज्ञा हैं, जी ! विनम्र-सहज-सरल, आज तक मैंने किसी शास्त्रज्ञ हैं, भाषाविद हैं, कवयित्री हैं तापसी हैं ? श्रावक से, किसी शिष्या से, किसी खरतरगच्छ नहीं ! मेरे आत्मज्ञ मन में प्रवर्तिनी विदुषीवर्या धर्मावलम्बी से प्रवर्तिनी जी के अहंकार, असहज सज्जनश्रीजी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होने का एक व्यवहार, क्रोध, आवेश के बारे में कभी कुछ नहीं मात्र कारण है उनका "नारी" होना ? नारी होकर सुना प्रत्युत सबने आपश्री को सहज सरल विनम्र भी उन्होंने साधना, तपस्या, ज्ञानाराधना, संयम के शांतमना ही कहकर बखाना तो क्या “खल्कए पथ पर चलकर जो नारी की गरिमा को बढ़ाया आवाज नक्काराए खुदा" नहीं है ? आपश्री निसंदेह है वह निस्सन्देह पूजनीय है। “नारी नरक की खान" अभिनन्दन की अधिकारिणी हैं। अधिकारिणी हैं उक्ति को वे एक चुनौती हैं उस क्रांतिकारी वैज्ञानिक अपनी तपस्या से, साधना से, ज्ञान से और अधिगेलीलियो की तरह जिसने यह सिद्ध कर दिया था कारिणी हैं अपने पिता श्री-मेरे दादाजी श्री कि सूर्य, पृथ्वी के चारों ओर नहीं घूमता वरन् गुलाबचन्द जी से विरासत में मिले धार्मिक गुणों पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। नारी को प्रभामंडित करने से ।। उत्थान, नारी चेतना, नारी जागरण, नारी कल की बुआजी और आज की प्रवर्तिनी श्री अनुशासन में वे आज भारत के किसी भी सम्प्रदाय, जी, आपके चरणों में मेरा नतमस्तक प्रणाम। 0 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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