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खण्ड १ | व्यकतित्व-परिमल : संस्मरण
C श्री सोहनलालजी बुरड, ब्यावर जिनागम वेत्ती परमविदूषी आर्यारत्न स्वपरोपकारक विविध विषयों पर साहित्य की सर्जना करने वाली, तप और संयम में निरन्तर निरत रहने वाली प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी म. का जिसने नामकरण किया, मालूम होता है कि वह अवश्य भविष्यवेत्ता रहा होगा । अन्यथा क्या कारण है कि उनके जीवन व्यवहार में यथानाम तथागुण की लोकोक्ति पूर्णरूप से चरितार्थ होती है। वास्तव में श्रद्धय साध्वीजी का सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक नर-नारी के प्रति अत्यन्त सौजन्यपूर्ण, मधुर एवं वात्सल्यमय व्यवहार होता है। यद्यपि आप अल्पभाषिणी हैं, निरर्थक बातें करना आपकी प्रकृति के विरुद्ध है, फिर भी जीवनोपयोगी धार्मिक आध्यात्मिक चर्चा में रस लेती हैं। आपके साथ ऐसी चर्चा करने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।
साहित्य पठन की ओर आपकी कितनी तीव्र रुचि है, यह प्रदर्शित करने के लिये एक उदाहरण जो मुझ से सम्बन्धित है, उपस्थित कर देना पर्याप्त होगा।
साध्वीजी महाराज ब्यावर नगर में पधारे। नगर में जब कोई आत्म-साधक सन्त या सती पधारते हैं तो उनके सत्समागम का लाभ उठाने को मेरा मन उत्सुक हो उठता है। मैं आपकी सेवा में भी उपस्थित हुआ। उन दिनों अहमदाबाद से मेरे पास “आत्मज्ञान अने साधनापथ" नामक गुजराती पुस्तक आई हुई थी। आपको दिखाई। आपने लेकर सरसरी तौर पर उसे देखा। पन्ने उलट-पलट कर कुछ पृष्ठ पढ़े और फर्माया कि यह पुस्तक तो मुझे भी पढ़नी है। मेरी भावना थी कि पहले मैं पढ़ लूं फिर आपको दूं। मगर आप इतनी उत्सुक थीं कि आपने सुझाव दिया दिन-दिन में मैं पढूंगी, शाम को आप ले जाकर अध्ययन करते रहना। ऐसा ही किया गया। शाम को जाता, पुस्तक पाट पर रक्खी तैयार मिलती।
ऐसी है आपकी स्वाध्यायवृत्ति, गुणग्राहकता । वास्तव में आपका समग्र जीवन सरलता, सज्जनता, नम्रता और समाधि से परिमण्डित है।
देह छतां जेनी दशा, वर्ते देहातीत । ते ज्ञानीना चरणमा हो वंदन अगणीत ॥ मेरा शत-शत बन्दन! .
] श्री केशरीचन्दजी पारख लगभग १५-२० वर्ष पूर्व की यह स्मृति है। मैं परम तारक, चरम तीर्थंकर श्री सम्मेत शिखर अधिष्ठाता श्री पार्श्वनाथ प्रभु एवं अधिष्ठायक देव श्री भोमीयाजी महाराज के दर्शन, वन्दन, पूजन हेतु सम्मेत शिखर की यात्रा पर गया हआ था। उन दिनों शांत स्वभावी. मदभाषी प. प. साध्वीजीश्री सज्जनश्री म. सा. भी अपने शिष्या समदाय के साथ वहीं विराजित थीं। मैं तलहटी में जिन मन्दिर में पूजा कर रहा था। पूजा, चैन्यवन्दन आदि करके निवृत्त हुआ था, उसी समय प. पू. साध्वीजी का भी जिन मन्दिर के प्रांगण में आगमन हुआ।
___मेरा यह उनके दर्शन करने का पहला अवसर था। मैंने विनीत भाव से उन्हें वहीं मन्दिर के प्रांगण में खमासमणा सहित वंदन किया।
उन्होंने मुझे एक ओर ले जाकर नम्र वचनों में समझाया-जिन मन्दिर के प्रांगण में, वीतराग प्रभु के सम्मुख, साधु-साध्वी को वन्दन नहीं करना चाहिए । इसमें तीर्थंकर देव की आशातना होती है। Jain Education International
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