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________________ १०० सेठ श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया के कई प्रतिष्ठित ठिकानेदारों से आपका व्यक्तिगत सम्पर्क था। महाराजा जामनगर ने आपसे जवाहरात का बहुत माल खरीदा और वे समय-समय पर आपको जामनगर आमन्त्रित करते थे। इन सभी महत्वपूर्ण सम्पर्को, सम्बन्धों और व्यापारिक उपलब्धियों का एकमात्र कारण आपकी सत्यनिष्ठा ही थी । लाभांश से कई गुना अधिक आपका ध्यान संबंधों और सम्पर्कों की शुद्धता व निरंतरता बनाये रखने पर रहता था। यही कारण था कि अच्छे-अच्छे व्यापारी, ओहदेदार, ठिकानेदार, अंग्रेज अफसर, राजदरबारी आदि आपके आजीवन मित्र बने रहे। व्यापारिक सहिष्णुता : इतने बृहद् पैमाने पर व्यापार होते हुए भी आपने कभी कचहरी का द्वार नहीं खटखटाया। कोर्ट-कचहरी, मुकदमेबाजी आदि झंझटों से आप आजीवन दूर रहे । गवाही (साक्षी) देने जाने की आपने सौगन्ध ले रखी थी। इस व्रत को आपने आजीवन निभाया । बहुआयामी किन्तु धर्म निष्ठजीवन : __व्यापारिक, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन सभी क्षेत्रों में कर्तव्यनिष्ठ रहते हुए भी सेठ साहब ने अपने हृदय को धर्म की धुरी पर ही केन्द्रित रखा । कहते हैं, धर्मनिष्ठ गृहस्थी तपोनिष्ठ साधु से भी श्रेष्ठतर होता है । इसलिए श्री गुलाबचन्दजी का मान चारों ही सम्प्रदायों के आचार्य करते थे। सेठजी को सम्प्रदायवाद ने छुआ तक नहीं था। आपकी दृष्टि व्यापक थी। नगर में किसी भी सम्प्रदाय के आचार्य पधारे हों, सेठसाहब उनकी सेवा में नियमित रूप से जाते थे । आप केवल औपचारिक श्रावक नहीं थे अपितु एक महान् तत्त्वज्ञानी थे। उपवास बेला तेला आदि की तपस्या भी करते रहते थे। जयपुर के एक प्रसिद्ध पंत जी महाराज के स्वर्गवास होने पर उनकी सम्पूर्ण हस्तलिखित ग्रन्थों का भंडार आपने खरीद लिया तथा उनका अनुशीलन किया । आगम शास्त्रों का आपको गहरा ज्ञान था। ज्योतिषविद्या के भी आप अच्छे जानकार थे। आचार्यों से आपकी तत्त्व-चर्चा निरन्तर चलती रहती थी। इसलिए व्याख्यानों व प्रवचनों में आचार्यवर्य भी आपकी "तहत्ति” की निरन्तर अपेक्षा रखते थे । सामायिक, प्रतिक्रमण, आपकी दिनचर्या के नियमित क्रियाकलाप थे। युवावस्था ही में आपने अपनी धर्मपत्नी के साथ १२ व्रतों की पालना प्रारम्भ कर दी थी। आपने विदेशयात्रा, एलोपैथी औषधी, अखाद्य खाद्य, मुकदमेबाजी आदि नहीं करने की शपथ ले रखी थी। इन सभी नियमों का पालन आपने आजीवन किया था। तेरापंथ धर्मसंघ की पाट-परम्परा के पाँचवें आचार्य श्री मघवागणी, छठे आचार्य श्री माणकगणी, सातवें आचार्य श्री डालगगी, आठवें आचार्य श्री कालूगणी एवं वर्तमान आचार्य श्री तुलसीगणी की आपने दत्तचित्त होकर सेवा की। इन पाँचों आचार्यों की निकट सेवा का अवसर सेठसाहब को अनेक बार मिला। उन्होंने गण और गणी की सेवा में सदैव तत्परता दिखलाई। आपका सम्पूर्ण जीवन ही संघ की सेवा से ओत-प्रोत रहा। यह उल्लेखनीय है कि जर्मन दार्शनिक हर्मन जेकोबी सर्वप्रथम आपके सम्पर्क में आए और आपने उनको जैनदर्शन, जैन आचार, आचार्य भिक्षु के तत्वदर्शन आदि के विषय में विस्तार से बताया । जर्मनी में जैनधर्म के प्रचार एवं प्रसार में आपका पूर्ण सहयोग रहा। भावमर्मज्ञ, भक्ति-रसज्ञ, संगीतज्ञ, कविहृदय रात्रि जागरण के आयोजनों में यदि सेठ श्री गुलाबचन्दजी का भक्ति संगीत हो तो मंदिरों में आपकी ढालें और चौमासे की विनतियाँ सुनने के लिए हजारों की भीड़ लग जाती थी । आप एक सुमधुर गायक थे तो गीतिकाओं और ढालों के सिद्धहस्त रचयिता भी थे । तीन सौ से अधिक भजन ढालें आपने स्वयं लिखीं, जिनमें भक्तिरस, तत्वज्ञान और धार्मिक भावनाओं का त्रिवेणी संगम देखने को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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