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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन यह माना गया कि परिग्रहण के बिना सम्भोग सम्भव नहीं, साथ ही द्रव्य देकर कुछ समय के लिये ग्रहीत अतः वेश्या भी परिग्रहीत की कोटि में आ जाती है, परिणामस्वरूप धनादि देकर अल्पकाल के लिए ग्रहीत स्त्री (इत्वरिका)1 के साथ भी सम्भोग का निषेध किया गया और गृहस्थ उपासक के लिए आजीवन हेतु गृहीत अर्थात् विवाहित स्त्री के अतिरिक्त सभी प्रकार के यौन सम्बन्ध निषिद्ध माने गये।
यद्यपि आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्य सभी लोगों के साथ जैनधर्म के प्रति श्रद्धावान सामान्यजन भी किसी न किसी रूप में गणिकाओं से सम्बद्ध रहा । कृष्ण वासुदेव की द्वारिका नगरी में अनंगसेना प्रमुख अनेक गणिकाएँ भी थी। स्वयं ऋषभदेव के नीलांजना का नृत्य देखते समय उसकी मृत्यु से प्रतिबोधित होने की कथा दिगम्बर परम्परा में सुविथ त है । कुछ विद्वान् मथुरा में इसके अंकन को भी स्वीकार करते हैं। ज्ञाता आदि में देवदत्ता आदि गणिकाओं की समाज में सम्मानपूर्ण स्थिति की सूचना मिलती है। समाज के सम्पन्न परिवारों के लोगों के वेश्याओं से सम्बन्ध थे, इसकी सूचना आगम, आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन पौराणिक साहित्य में विपुल मात्रा में उपलब्ध है । कान्हड कठिआरा और स्थूलभद्र के आख्यान सूविध त हैं, किन्तु इन सब उल्लेखों से यह मान लेना कि वेश्यावृत्ति जैनधर्मसम्मत थी या जैनाचार्य इसके प्रति उदासीन भाव रखते थे, सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी। हम पूर्व में संकेत कर ही चुके हैं कि जैनाचार्य इस सम्बन्ध में सजग और किसी भी स्थिति में इसे औचित्यपूर्ण नहीं मानते थे। सातवीं-आठवीं शती में तो जैनधर्म का अनुयायी बनने की प्रथम शर्त यही थी कि व्यक्ति सप्त दुर्व्यसन का त्याग करे। इसमें परस्त्रीगमन और वेश्यागमन दोनों निषिद्ध माने गये थे। उपासकदशा में "असतीजन पोषण" श्रावक के लिये निषिद्ध था ।
___ आगमिक व्याख्याओं में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि अनेक वेश्याओं और गणिकाओं की अपनी नैतिक मर्यादाएँ थीं, वे उनका कभी उल्लंघन नहीं करती थीं। कान्हडकठिआर और स्थूलिभद्र के आख्यान इसके प्रमाण हैं। ऐसी वेश्याओं और गणिकाओं के प्रति जैनाचार्य अनुदार नहीं थे, उनके लिये धर्मसंघ में प्रवेश के द्वार खुले थे, वे श्राविकाएँ बन जाती थीं । कोशा ऐसी वेश्या थी, जिसकी शाला में जैन मुनियों को निःसंकोच भाव से चातुर्मास व्यतीत करने की अनुज्ञा आचार्य दे देते थे। मथुरा के अभिलेख इस बात के साक्षी हैं कि गणिकाएँ जिनमन्दिर और आयागपट्ट (पूजापट्ट) बनवाती थीं। यह जैनाचार्यों का उदार दृष्टिकोण था, जो इस पतित वर्ग का उद्धार कर उसे प्रतिष्ठा प्रदान करता था। नारी-शिक्षा
नारी-शिक्षा के सम्बन्ध में जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं से हमें जो सूचना मिलती है,
१. उपासकदशा १, ४८ । २. अणंगसेणा पामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं""""।
-आवश्यकचूणि भाग १, पृ० ३५६ ३. आदिपुराण, पृ० १२५, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, १९१६ । ४. अड्ढा जाव"..."सामित्त भट्टित्त महत्तरगतं आणा ईसर सेणावच्चं कारेमाणी....." । ५. देखें, जैन, बौद्ध और गीता का आचार दर्शन, भाग २, डा० सागरमल जैन, पृ० २६८ । ६. ......"असईजणपोसणया ।
-उपासकदशा १/५१ ७. साविका जाया अबंभस्स पच्चक्खाइ णण्णत्थ रायाभियोगेणं। -आवश्यकचूणि, भाग १, पृ० ५५४-५५ ८. जैनशिलालेख संग्रह।
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