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स्व० आचार्य श्री जिनकवीन्द्रसागर सूरिजी म० सा० : साध्वी सभ्यग्दर्शनाश्री जी
रत्नश्री जी म० सा० ने इस बुद्धिमान तेजस्वी बालक की भावना को वैराग्यमय आख्यानों से परिपुष्ट किया और गणाधीश्वर श्री पूज्य हरिसागरजी म० सा० के पास धार्मिक शिक्षा-दीक्षा लेने को कोटा भेज दिया। वहीं रहकर शिक्षा प्राप्त करने लगे । थोड़े दिनों में इन्होंने जीव विचार, नवतत्व आदि प्रकरण एवं प्रतिक्रमण - स्तवन- सज्झाय आदि सीख लिये ।
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गणाधीश महोदय कोटा जयपुर पधारे। वहीं वि० सं० १९७६ के फाल्गुन मास की कृष्णा पंचमी को १२ वर्ष के किशोर बालक धनपतशाह ने शुभ मुहूर्त में बड़ी धूमधाम में ४ अन्य वैरागियों के साथ दीक्षा धारण की । इनका नाम 'कवीन्द्रसागर' रखा गया और गणाधीश महोदय के शिष्य बनें ।
अध्ययन-अपने योग्य गुरुदेव की छत्रछाया में निवास करके व्याकरण, न्याय, काव्य, कोश, छन्द, अलंकार आदि शास्त्र पढ़े एवं संस्कृत, प्राकृत, गुर्जर आदि भाषाओं का सम्यग्ज्ञान प्राप्त किया व जैन शास्त्रों का भी गम्भीर अध्ययन किया । यथानाम तथागुण के अनुरूप आप सोलह वर्ष की आयु से ही काव्य प्रणयन करने लग गये थे । स्वल्पकाल में हो आशु कवि बन गये । आपने संस्कृत और राष्ट्र भाषा में काव्य साहित्य की अनुपम वृद्धि की है । दार्शनिक एवं तत्वज्ञान से पूर्ण अनेक चैत्यवन्दन, स्तवन, स्तुतियाँ, सज्झाएँ और पूजाएँ बनाई हैं जो जैन साहित्य की अनुपम कृतियाँ हैं । जैन साहित्य के गम्भीर ज्ञान का सरल एवं सरस विवेचन पढ़कर पाठक अनायास ही तत्त्वज्ञान को हृदयंगम कर सकता है और आनन्द समुद्र में मग्न हो सकता है । आधुनिक काल में इस प्रकार तत्वज्ञानमय साहित्य बहुत कम दृष्टिगोचर होता है। जैन समाज को आप से अत्यधिक आशाएँ थीं, किन्तु असामायिक निधन से वे सब निराशा में परिवर्तित हो गईं ।
आपने ४२ वर्ष से संयमी जीवन में ३० वर्ष गुरुदेव के चरणों में व्यतीत किये और मारवाड़, कच्छ, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल में विहार करके तीर्थयात्रा के साथ धर्म प्रचार किया । जयपुर, जैसलमेर आदि कई ज्ञान भण्डारों को सुव्यवस्थित करने, सूचीपत्र बनाने में गुरुवर्य महोदय की सहायता की।
आप ही के अदम्य साहस और प्रेरणा से वि० सं० २००६ में मेड़तारोड़ फलोदी पार्श्वनाथ तीर्थ गुरुदेव श्री जिनहरिसागरसूरीश्वरजी म० सा० के कर कमलों से श्री पार्श्वनाथ विद्यालय की स्थापना हुई। उसी वर्ष गुरुदेव ने मेड़तारोड़ में उपधान मालारोहण के अवसर पर मार्गशीर्ष शुक्ला १० के दिन आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया। आपके गुरुदेव का पक्षाघात से उसी वर्ष पोष कृष्णा अष्टमी को स्वर्गवास हो जाने पर उपस्थित श्रीसंघ ने आपश्री को आचार्य पद पर विराजमान होने की प्रार्थना की, किन्तु आपश्री ने फरमाया हमारे समुदाय में परम्परा से बड़े ही इस पद को अलंकृत करते हैं । अतः यह पद वीर पुत्र श्रीमान् आनन्दसागरजी महाराज सा० सुशोभित करेंगे। मुझे जो गुरुदेव बना गये हैं, वही रहूँगा । कितनी विनम्रता और निःस्पृहता ।
योग साधना - आपको आत्मसाधना के लिए एकान्त स्थान अत्यधिक रुचिकर थे । विद्याध्ययनान्तर आपश्री योगसाधना के लिए कुछ समय ओसियां के निकट पर्वत गुफा में रहे थे, एवं लोहावट के पास की टेकड़ी भी आपका साधना स्थल रहा था । जयपुर में मोहनवाड़ी नामक स्थान पर भी आपने कई बार तपस्यापूर्वक साधना की थी । वहाँ आपके सामने नागदेव फन उठाये रात्रि भर बैठे रहे थे । यह दृश्य कई व्यक्तियों ने आँखों देखा था । आप हठयोग की आसन, प्राणायाम, मुद्रा, नेति, धौति आदि कई क्रियायें किया करते थे ।
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