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खण्ड १ | जीवन ज्योति
जोर से डाँटती तक नहीं थीं । सांसारिक व्यक्ति के सामने परस्पर व्यवहार निभाने की अनेक उलझनें होती हैं, किन्तु वे अत्यन्त व्यावहारिक थीं तथा संयम और न्यायपूर्ण ढंग से चला करती थीं। वे हमारे दादाजी सेठ श्री गुलाबचन्दजी की केवल धर्मपत्नी ही नहीं थीं, अपितु धर्मयुक्त परामर्शदात्री भी थीं। अनेक अवसरों पर उन्होंने अपने पति को न्यायसंगत एवं नीतिसम्मत परामर्श देकर अपनी योग्यता का परिचय दिया था। प्रतिकूल परिस्थिति में भी उनका सम्यक् भाव अडिग रहता था।
___ अपने सबसे छोटे पुत्र श्री पूनमचन्द जी के आकस्मिक एवं असामयिक निधन पर भी उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया था। उनका चिन्तन था कि संसार नाशवान है, जिसने जन्म लिया है वह देरमबेर अवश्य जायेगा। और इसी चिन्तन के सहारे उन्होंने पुत्र के वियोग को मन पर हावी नहीं होने दिया। निर्लिप्त बनकर यथावत् अपने नियम-संयम का पालन करती रहीं। लगभग इसी प्रकार की अनित्य भावना का परिचय आपने उस समय दिया जब आपके पतिदेव सेठ श्री गुलाबचन्दजी का अन्तिम समय निकट था । उनको मरणासन्न जानकर भी दादी सा. ने धैर्य खोकर रोना-धोना आदि नहीं किया। अपित आपने पतिदेव को धर्म-चर्चा का श्रवण करवाया और नमस्कार महामन्त्र तथा चार धार्मिक संबल प्रदान करती रहीं। अनुकरणीय संस्मरण :
यों तो दादी सा. का सम्पूर्ण जीवन ही अनुकरणीय है, किन्तु अपने पति को निरन्तर धर्माचरण में प्रेरित करते रहना तथा निरन्तर उनके साथ रहकर धार्मिक क्रियाओं में प्रवृत्त रहना सद्गृहिणी के अनुपम उदाहरण हैं। उन्हें अपने आप पर और अपने संयमित एवं नियमित जीवन पर पूर्ण विश्वास था। जिस प्रकार गांधीजी दढ़ता के साथ कहा करते थे कि मैं १२५ वर्ष तक जीऊँगा, क्योंकि उनको भी अपने नियमित, संयमित और धार्मिक जीवन की लम्बी आयु का पूर्ण विश्वास था, उसी प्रकार दादीजी भी अपनी लम्बी उम्र के विषय में पूर्ण आश्वस्त थीं।।
एक बार वृद्धावस्था में उनको मियादी ज्वर (टाईफाइड) ने घेर लिया । वे कृशकाय हो गयीं। किसी ने उनकी अवस्था और रुग्णता देखकर परामर्श दिया कि अब उनको संथारा (आमरण अनशन) पचख लेना चाहिए। किन्तु उन्होंने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया-'मेरा आयुष्य अभी बहुत शेष है । अनशन करके क्या विराधक बनना है ? मैं संथारा नहीं करूंगी।' ऐसा उत्तर वे ही दे सकते हैं जिनको अपने संयम-नियम और धर्माचरण पर पूर्ण निष्ठा हो। इस बीमारी के बाद वे २५ वर्ष से भी अधिक जीवित रहीं तथा ६७ वर्ष की दीर्घायु में दिवंगत हुईं। अपने अन्तिम समय तक वे धर्म-चर्चा में लीन रहीं और धर्माराधनापूर्वक त्याग-प्रत्याख्यान के साथ उन्होंने अपने इहलोक और परलोक को सार्थक बनाया।
दादी सा. स्वर्गीया महताब कँवरजी की माताजी का नाम जतनकँवरजी एवं छोटी बहिन का नाम फूलकँवरजी था । ये दोनों ही तेरापंथ धर्मसंघ के साध्वी वर्ग की आदर्श साध्वियाँ हुई हैं। उनकी गणना धर्मसंघ की अत्यन्त विनयशीला एवं सहनशीला सतियों में की जाती है।
गुरुवर्या प्रवर्तिनी आर्यारत्न सज्जनश्रीजी म. सा. की पूजनीया माताजी का स्मरण करना इस अवसर पर अत्यन्त आवश्यक है, धर्म लाभ का कार्य है, क्योंकि आज हमें जिस महान् विभूति के दर्शन सुलभ हैं वे उस महान् नारीरत्न की सुपुत्री हैं, जिसने अपने जीवन के ६७ वर्ष पवित्रता एवं धार्मिक भावना से ओतप्रोत रहकर लूणिया परिवार को शाश्वत गौरव प्रदान किया है। गुरुवर्या के पावन अभिनन्दन के शुभ अवसर पर मेरा उस महान् आत्मा को कोटिशः वन्दन !
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