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________________ जैन दर्शन और योग दर्शन में कर्म सिद्धान्त : रत्नलाल जैन से कर्म-योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । इन ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गल और जीव-प्रदेशों का बन्धन -संयोग ही बन्ध है। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती लिखते हैं-जिन चैतन्य परिणाम से कर्म बँधता है, वह भावबन्ध है, तथा कर्म और आत्मा के प्रदेशों का प्रवेश, एक दूसरे में मिल जाना, एकक्षत्रावगाही हो जाना, द्रव्यबन्ध है। कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र सूरि लिखते हैं-"जीव कषाय के कारण कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यह बन्ध है । वह जीव को अस्वतन्त्रता का कारण है।" आचार्य पूज्यपाद के अनुसार जीव और कर्म के इस संश्लेष को दूध और जल के उदाहरण से समझा जा सकता है। योग और कषाय-बन्ध के हेतु दूसरे रूप में-“योग प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध का हेतु है, और कषाय स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध का हेतु है।" इस प्रकार योग और कषाय-ये दो बन्ध के हेतु बनते हैं । तीसरी दृष्टि से"मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये बन्ध के हेतु हैं।" इन चार बन्धहेतुओं से सत्तावन भेद हो जाते हैं। धर्मशास्त्र, आगम में प्रमाद को भी बन्ध हेतु कहा है । श्री उमास्वाति ने पाँच बन्ध हेतु माने हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इस प्रकार जैनदर्शन में बन्ध-हेतुओं की संख्या पाँच आत्रवों के रूप में मान्य है। समन्वय-कर्म-बन्ध के हेतुओं की दृष्टियों का समन्वय इस प्रकार किया गया है--"प्रमाद एक प्रकार का असंयम ही है। इसलिये वह अविरति या कषाय में आ जाता है । सूक्ष्मता से देखने से मिथ्यात्व और अविरति ये दोनों कषाय के स्वरूप से भिन्न नहीं इसलिए कषाय और योग-ये दो ही बन्ध के हेतु माने हैं।" कर्म-बन्ध के हेतु -पाँच आस्त्रव पाँच आस्रव-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग बन्ध के हेतु हैं । जैन धर्म-शास्त्रोंआगमों में कर्म-बन्ध के दो हेतु कहे गये हैं.--१. राग और २. द्वष । राग और द्वष कर्म के बीज हैं। जो भी पाप कर्म हैं, वे राग और द्वष से अजित होते हैं । टीकाकार ने राग से माया और लोभ को ग्रहण किया है, और द्वेष से क्रोध और मान को ग्रहण किया है। एक बार गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा “भगवन ! जीव कर्मप्रकृतियों का बन्ध कैसे करते हैं ?" भगवान् ने उत्तर दिया-“गौतम ! जीव दो स्थानों से कर्मों का बन्ध करते हैं-एक राग से और दूसरे द्वष से। राग दो प्रकार का है-माया और लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का है-क्रोध और मान ।” क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चारों का संग्राहक शब्द कषाय है। इस प्रकार एक कषाय ही बन्ध का हेतु होता है। योग दर्शन में बन्ध के मूल कारण–पाँच क्लेश-सब बन्धनों और दुःखों के मूल कारण पाँच क्लेश हैं-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। ये पाँचों बाधनारूप पीड़ा को पैदा करते हैं। ये चित्त में विद्यमान रहते हुए संस्काररूप गुणों के परिणाम को दृढ़ करते हैं इसलिये इनको क्लेश के नाम से पुकारा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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