SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शत शत प्रणतियाँ -साध्वी श्री शशिप्रभाश्रीजी श्रद्धा भरी शत-शत प्रणतियाँ, पदकंजों में है हमारी । श्रमणीगण में अग्रणी हैं, अप्रतिम प्रतिभा के धारी ॥ धन्य राजस्थान की अवनी, धन्य-धन्य है आपकी जननी । धन वैशाख पूर्णिमा रजनी, जन्म हुआ था आनन्दकारी ॥ किया धन्य तारुण्य ले दीक्षा, सम्यगदर्शन ज्ञान सुशिक्षा। हम भी मांगे ज्ञान की भिक्षा, दे दो हमको हे दातारी ॥ हिन्दी गुर्जर प्राकृत भारती, राजस्थानी संस्कृत विचारती । क्षण-क्षण तत्त्वस्वरूप विचारती, संशय सबके दूर निवारी ॥ विनय विवेक साकार बने हैं, जिनके वचन भी स्नेहसने हैं। सन्तसती देखे ही घने हैं, तव रीति है सबसे न्यारी ॥ जब देखो वाचन में निरत हैं, अथवा अध्यापन में रत हैं। विकथा से तो सदा विरत हैं, कहते हैं यों सब नरनारी"" ॥ काव्यकलामय कृतियाँ ऐसी, सुनते लगती अमृत जैसी। होती जग में विरली वैसी, पण्डितजन कहते सुविचारी"" ॥ आगम ज्योति कहते गुरुजन, करती गद्यपद्य का सर्जन । अमर रहें यशोनाम से सज्जन, जब तक "शशि" सूरज संचारी ॥ अभिनन्दन स्वीकारो साध्वी प्रियदर्शनाश्री अभिनन्दन स्वीकारो भगवती तुम दर्शन अति सुखकारो ॥ (टेर)॥ भाव सुमन श्रद्धाञ्जलि भरकर, अर्पण करने आई दर पर; कर कृपा अवधारो ॥१॥ क्रोध कषाय मान मद त्यागी, आत्मज्ञान की बन अनुरागी, सम्यग्दर्शन धारो ॥२॥ आगमज्ञान की अद्भुत ज्ञाता, ग्रन्थ अनेकों की निर्माता, बहुमुखी प्रतिमा धारो ॥३॥ उदार हृदया सरल सुप्रज्ञा, विध-विध भाषा की सुविज्ञा, चमको ज्यूं ध्रुव तारो॥४॥ ज्ञान ज्योति मन मंदिर भर दो, आत्मभूमि अति निर्मल करदो; मिथ्या तिमिर निवारो ॥५॥ जनकल्याणी! विश्वविख्याना, करुणामयी ! श्र तज्ञान प्रदाता; गुणगरिमा भण्डारो ॥६॥ "प्रियदर्शना" अभिनन्दन करती, कोटि-कोटि अभिवंदन करती; प्राण जीवन आधारो ॥७॥ ( ४५ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy