Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई ANUOGDARAIM-EDITED/EXPLAINED वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी संपादक/ विवे आचार्य नह Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्गंथं पावयणं अणुप्रोगदाराई [मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, तुलनात्मक टिप्पण तथा विविध परिशिष्टों से युक्त वाचना-प्रमुख गणाधिपति तुलसी सम्पादक : विवेचक आचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशक जैन विश्व भारती संस्थान [मान्य विश्वविद्यालय] लाडनूं, राजस्थान-३४१३०६ Jain Education Intemational Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं राजस्थान सर्वाधिकार सुरक्षित जैन विश्व भारती, लातू प्रथम संस्करण : सितम्बर, १६६६ मूल्य: ४००/- रुपये मुद्रक : मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्वभारती प्रेसला (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANUOGDARAIM (Prakrit Text, Sanskrit Rendering, Hindi Translation, Comparative Notes and Various Appendixes) Vachana-Pramukba GANADHIPATI TULSI Editor and Annotator ACHARYA MAHAPRAJNA Publishers JAIN VISHVA-BHARATI INSTITUTE LADNUN (Raj.) Jain Education Intemational Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publishers : Jaia Vishva Bharati Institute (Deemed University) Ladnun © Jain Vishva Bharati, Ladnun First Edition : September, 1996 Price: Rs. 400/ Printers : Jain Vishva Bharati Press Ladnun (Raj.) Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ॥१ ॥ पुट्ठो बि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुत्वं ॥ जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था । सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से ।। ॥२॥ विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीय मच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुब्वं ॥ जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत सध्यान लीन चिर चितन, जयाचार्य को विमल भाव से। पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुब्वं ॥ जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में मेरे मन में । हेतभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से । विनयावनत गणाधिपति तुलसी Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोय अनिर्वचनीय होता है, उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और निकुञ्ज को पल्लवित पुष्यित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगे । संकल्प फलवान बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया । अत मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है सम्पादक : विवेचक सहयोगी अनुवाद, टिप्पण संस्कृत छाया संपादन वीक्षा, समीक्षा और परिशिष्ट गणित टिप्पण आचार्य महाप्रज्ञ महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा महाश्रमण मुनि मुदित कुमार साध्वी श्रुतयशा साध्वी मुदितयशा साध्वीवितविभा मुनि हीरालाल मुनि श्रीचन्द संविभाग हमारा धर्म है। जिन जिनने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने । गणाधिपति तुलसी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय सानुबाद आगम-ग्रंथों के प्रकाशन की योजना के अन्तर्गत निम्न प्रकाशित आगम विद्वानों द्वारा समादत हो चुके हैं.-- १. दसवे आलियं ४. ठाणं २. सूयगडो (भाग १, भाग २) ५. समवाओ ३ उत्तरज्झयणाणि (भाग १, भाग २) इसी श्रृंखला में अनुयोगद्वार का प्रस्तुत प्रकाशन पाठकों के हाथों में पहुंच रहा है। मूल संशोधित पाठ, उसकी संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद, प्रत्येक प्रकरण के विषय-प्रवेश की दृष्टि से आमुख और विस्तृत टिप्पणियों से अलंकृत अनुयोगद्वार का यह प्रकाशन आगम प्रकाशन के क्षेत्र में अभिनव स्थान प्राप्त करेगा, ऐसा लिखने में संकोच नहीं होता। तेरह प्रकरणों में विभाजित इस आगम के अन्त में दिए गए परिशिष्ट ज्ञानवृद्धि की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं। वे परिशिष्ट इस प्रकार हैं१. विशेषनामानुक्रम ५. देशी शब्द २. पदानुक्रम ६. प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची ३ टिप्पण : अनुक्रम ७. जोड़ : पद्यात्मक व्याख्या ४. जब्दविमर्श : शब्दानुक्रम प्रस्तुत प्रकाशन के पूर्व सानुवाद आगम-प्रकाशन की योजना के अन्तर्गत आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा रचित 'आचारांगभाष्यम्' सन् १९१४ में प्रकाशित हो चुका है। उक्त प्रकाशन के बाद 'भगवई विआहपण्णत्ती' (खण्ड-१), (शतक १,२)-मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य तथा परिशिष्ट, शब्दानुक्रम आदि, जिनदासमहत्तरकृत चूणि एवं अभयदेवसूरिकृत वृत्ति सहित प्रकाशित हुआ। पूर्व प्रकाशनों की तरह ही वाचना-प्रमुख गणाधिपति तुलसी के तत्वावधान में प्रस्तुत एवं आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा सम्पादित ये प्रकाशन विद्वानों द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसित हुए हैं। जैन विश्व भारती संस्थान को अन्तिम तीन आगम-ग्रंथों के प्रकाशन का गौरव प्राप्त हुआ। इसके लिए संस्थान हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता है। प्रस्तुत आगम के प्रस्तुतीकरण में सहयोगी के रूप में इन साध्वियों का प्रचुर योगदान रहा है-साध्वी श्रुतयशाजी, साध्वी मुदितयशाजी और साध्वी विश्रुतविभाजी । मुनिश्री हीरालालजी के अत्यधिक श्रमसाध्य बहुमूल्य योगदान की किन शब्दों में प्रशंसा की जाये। वे धूरी की तरह कार्यशील रहे हैं। प्रस्तुत प्रकाशन को पाठकों के सम्मुख रखते हुए जो प्रसन्नता हो रही है, वह शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती । विश्वास है, यह प्रकाशन अनुसंधित्सु विद्वानों को अत्यन्त लाभप्रद प्रतीत होगा। जैन विश्व भारती संस्थान श्रीचन्द रामपुरिया (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं कुलाधिपति २३-९-९६ Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय अनुयोगद्वार का मूल पाठ 'नवसुत्ताणि' में प्रकाशित है। प्रस्तुत संस्करण अर्थबोध कराने वाला है। इसमें संस्कृत छाया के अतिरिक्त अनुवाद, टिप्पण, परिशिष्ट आदि की समायोजना है। आचाराङ्ग आदि में जैसे अध्ययन आदि का विभाग है वैसे प्रस्तुत आगम में कोई विभाग नहीं है । अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हमने इसे तेरह प्रकरणों में विभक्त किया है। प्रत्येक प्रकरण के पूर्व एक आमुख है। इसके सात परिशिष्ट हैं। अनुयोगद्वार का कोई स्वतन्त्र विषय नहीं है । वह अन्य आगमों की व्याख्यापद्धति प्रस्तुत करता है। वस्तुतः यह दृष्टिवाद अथवा चौदह पूर्वो के अध्ययन की कुंजी है। आर्यरक्षित ने इसकी रचना संभवतः पूर्वो के अध्ययन की पद्धति के रूप में की थी। पर्व साहित्य आज विलुप्त है फिर भी अनुयोगद्वार के आधार पर उसके कुछ रहस्य जाने जा सकते हैं। आगम साहित्य में व्याख्यापद्धति की दृष्टि से इसका स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत संस्करण में स्थान-स्थान पर इसकी अनुभूति हो जाती है। सहयोगानुभूति जैन परम्परा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चकी हैं। देवद्धिगणि के बाद कोई सुनियोजित आगम वाचना नहीं हुई। उनके वाचना-काल में जो आगम लिखे गए थे, वे इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए । उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी। गणाधिपति पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह पूर्ण नहीं हो सका। अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसन्धानपूर्ण, तटस्थ दृष्टि-समन्वित तथा सपरिश्रम होगी, तो वह अपने आप सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम-वाचना का कार्य प्रारम्भ हुआ। हमारी इस व्यवस्था के प्रमुख गणाधिपति श्री तुलसी हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है। हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन कर्म के अनेक अंग हैं--पाठ का अनुसन्धान, भाषान्तरण, समीक्षात्मक अध्ययन आदि-आदि। इन सभी प्रवृत्तियों में गुरुदेव का हमें सक्रिय योग, मार्गदर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त है। यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्ति-बीज है। प्रस्तुत आगम का कार्य दीर्घकाल तक विश्राम करता रहा है। इसका कार्य वि० सं० २०३५ में सम्पन्न हो गया था। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने अनुवाद और टिप्पणलेखन का कार्य संपन्न किया। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की सन्निधि में उस कार्य का निरीक्षण किया गया। फिर अन्यान्य कार्यों की व्यस्तता के कारण इस कार्य को विराम दे दिया गया। श्रीडूंगरगढ़ के चातुर्मास प्रवास (वि० सं० २०४५) में इसका पुननिरीक्षण किया गया। कुछ टिप्पण और जोड़े गए। वि० सं० २०५० में हमने अनुयोगद्वार का वाचन शुरू करवाया। उस समय कुछ परिवर्धन की अपेक्षा का अनुभव हुआ। फलतः संवर्धन का कार्य शुरू हुआ। उस कार्य में साध्वी श्रुतयशा, साध्वी मुदितयशा और साध्वी विश्रुतविभा ने काफी श्रम किया। मुनि हीरालालजी की संलग्नता भी बहुत उपयोगी रही। मुनि श्रीचन्दजी का भी इस कार्य में योग रहा। मुनि धर्मेशजी ने भी कुछ रेखाचित्र तैयार किए। इस प्रकार अनेक व्यक्तियों का श्रम कार्य की सम्पन्नता का हेतु बना। श्रीमज्जयाचार्य द्वारा विरचित अनुयोगद्वार की जोड़ परिशिष्ट में दी गई है। साध्वी जिनप्रभा का जोड़ को व्यवस्थित करने में योग रहा है। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक साधुओं और साध्वियों का योग है। गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के वरदहस्त की छाया में बैठकर कार्य करने वाले सब संभागी हैं, फिर भी मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं जिनका इस कार्य में योग है और आशा करता हूं कि वे इस महान कार्य में और अधिक दक्षता प्राप्त करेंगे। आचार्य महाप्रज्ञ १८ जुलाई, १९९६ जैन विश्व भारती, लाडनूं Jain Education Intemational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका अनुयोगद्वार और नन्दी सूत्र जैनागमों में सबसे अर्वाचीन हैं। इनसे पहले आगमों का वर्गीकरण पूर्व और अङ्ग' तथा अङ्ग प्रविष्ट और अङ्गवा' के रूप में हुआ नदी में भी अप्रविष्ट और बाह्य का वर्गीकरण ही स्वीकार हुआ है।' नन्दी में पुरुष का विश्लेषण करते हुए लिखा गया है- बुतपुरुष के बारह अ है दो पैर दो जमा दो ऊ दो गात्रा, दो भुजा, ग्रीवा और सिर इस श्रुतपुरुष के अङ्गभाग में स्थित श्रुत अङ्गप्रविष्ट है और श्रुतपुरुष के उपाङ्ग में स्थित श्रुत अङ्गवा है। निर्मुक्तिकार ने अव अवाह्य के वर्गीकरण की दो कसौटियां बतलाई है १. गणधर कृत आगम अङ्गप्रविष्ट हैं और स्थविर कृत आगम अङ्गबाह्य हैं। प्रविष्ट है और अनियत त अव है। २. अङ्गबाह्य श्रुत के दो भेद हैं-- आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त । आवश्यकव्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कालिक और उत्कालिक । विक्रम की ११वीं शताब्दी में ४५ सूत्रों का उल्लेख मिलता है पर मूलसूत्रों का विभाजन उस समय तक नहीं हुआ था । मूलसूत्र वर्ग की स्थापना १४वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुई, ऐसा संभव लगता है। क्योंकि १४वीं शताब्दी के प्रभावक चरित में आगम सूत्रों का वर्गीकरण अङ्ग, उपाङ्ग, मूल और छेद इस रूप में हुआ है। फिर भी अनुयोगद्वार और नन्दी को इन चार विभागों में से किसी भी विभाग के अन्तर्गत नहीं लिया गया । १६वीं शताब्दी में जब ३२ सूत्रों की मान्यता स्थिर हुई, संभव है तब से इनको मूलसूत्रों में परिगणित किया गया। तब से आज तक स्थानकवासी और तेरापंथ सम्प्रदाय में इनको मूलसूत्र माना जाता है । मूलसूत्रों के बारे में विभिन्न विद्वानों के विभिन्न अभिमत हैं। उनमें उपाध्याय समयसुन्दर, भावप्रभसूरि, प्रोफेसर बेबर, प्रो० बूलर, डॉ० सरपेन्टियर, डॉ० विन्टर नित्स, ग्यारीनो, सुबिंग तथा प्रोफेसर हीरालाल कापडिया आदि विद्वानों के विचार जानने के लिए "दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि" की भूमिका द्रष्टव्य है। इन विद्वानों के अभिमत को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि नन्दी और अनुयोगद्वार को स्थानकवासी और तेरापंथ के अतिरिक्त किसी ने मूलसूत्र नहीं माना है। चूर्णिकाल में मूलसूत्र आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग 1 तदनन्तर दशवैकालिक तथा उत्तराध्ययन को मूलसूत्रों का स्थान मिला और बाद में आवश्यक, पिण्डनिर्युक्ति, ओघनिर्मुक्ति आदि को मूलसूत्रों की मान्यता प्राप्त हुई। क्योंकि मूल का अर्थ है मुनिचर्या के प्रारम्भ में सहायक बनना अथवा जिन सूत्रों से आगमों का अध्ययन प्रारम्भ किया जाता है वे मूलसूत्र हैं । पाश्चात्य विद्वान् सुबिंग ने भी मूलसूत्र की यही परिभाषा दी है। इस दृष्टि से अनुयोगद्वार और नन्दी को मूलसूत्र नहीं मान सकते । "श्री आगमपुरुष नु रहस्य" पृष्ठ ५० के सामने वाले (श्री उदयपुर मेवाड़ के हस्तलिखित भण्डार से प्राप्त प्राचीन आगम पुरुष के ) चित्र में मूल स्थानीय आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग को माना है। उसी पुस्तक के पृ. १४ तथा ४९ के सामने वाले चित्र में मूल स्थानीय चार सूत्र आवश्यक, दशर्वकालिक, पिण्डनिर्युक्ति और उत्तराध्ययन को माना है तथा नन्दी और अनुयोगद्वार को व्याख्या ग्रन्थों या चूलिका सूत्रों के रूप में मूल से भी नीचे प्रदर्शित किया है। एक उत्तरवर्ती वर्गीकरण में आगमों का विभाजन अंग, उपांग, मूल, छेद, प्रकीर्णक और चूलिका इस प्रकार मिलता है ।" इस विभाजन में नन्दी और अनुयोगद्वार को चूलिका सूत्रों के अन्तर्गत लिया गया है। १. स. १४ । २,३; प्र० स०८८-१३४ । २. ( क ) ठा. २/१७१ । (ख) कपा. पृ. २५ । ३. नसुनं सू. ७२ । ४. नच् पृ. ५७ : पाययुगं जंघोरुगातदुगद्धं तु दो य बाहूयो । गोवा सिरं च दरिलो बोसो ॥ इतर मुलसिस जं सुतं गावभागठित अंग पनि मति मं पुण एलरसेव सुतपुरिसस्स परेगतिं तं अंगवाहिरति भगति अहवा मरकतमंगगतं तं हि वाहि तं च । नियतं अंगपविट्ठ, अणिपथ सुत बाहिरं भणितं ॥..... आवस्सगवतिरितं दुविहं कालियं उक्कालियं । ५. प्रच. ( श्लो. २४१ ) । ६.१ प्रस्तावना.) पृ. २७ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सामान्यतः आगमों का वर्गीकरण इस प्रकार है अंग – १२ उपांग- १२ १. औपपातिक २. राजप्रश्नीय ३. जीवाभिगम १. अचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग ४. समवायांग ५ भगवती ६. ज्ञातधर्मकथा ७ उपासकदशा ५. अन्तकृतदशा ९. अनुपपातका १०. प्रश्नव्याकरण ११. १२. दृष्टिवाद ४. प्रज्ञापना ४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ६. सूर्यप्रज्ञप्ति ७. चन्द्रप्रज्ञप्ति ८. निरयावलिका ९. कल्पवतंसिका १०. पुष्पिका ११. पुष्पचूलिका १२. मूल - २ १. दसर्वकालिक २. उत्तराध्ययन छेद–४ १. निशीथ २. व्यवहार ३. बृहत्कल्प ४. दशाश्रुतस्कन्ध चूलिकासूत्र -- २ १. अनुयोगद्वार २. नन्दी अणुओगदारा प्रकीर्णक १० चतुःशरण आतुरप्रत्याख्यान भक्तपरिज्ञा संस्तारक दुवैचारिक प्रकीर्णक वर्ग में इन ग्रन्थों के अतिरिक्त और भी बहुत से ग्रन्थ होने चाहिए। क्योंकि भगवान् महावीर के शिष्यों में हजारों प्रकीर्णककार थे। उनकी रचनाएं इसी वर्ग के अन्तर्गत आ सकती हैं, इसलिए अंग, उपांग, मूल, छेद और चूलिकासूत्रों के अतिरिक्त स्थविरों तथा आचार्यों के ग्रन्थों को प्रकीर्णक वर्ग में लेने से इस वर्ग की संख्या निश्चित नहीं हो सकती । अनुयोगद्वार और नन्दी की चूलिका सूत्र के रूप में विशेष प्रसिद्धि नहीं है। पहले इस दोनों ही सूत्रों को प्रकीर्णक वर्ग में गिना जाता था । दशवैकालिक और आचार की चला प्रसिद्ध हैं पर वे स्वतन्त्र आगम नहीं हैं। अनुयोगद्वार और नन्दी को स्वतन्त्र रूप में चूलिकासूत्र माना गया है। चन्द्रक वेश्यक देवेन्द्रस्तव गणिविद्या महाप्रत्याख्यान वीरस्तव इन्हें चूलिकासूत्र मानना उचित भी है क्योंकि चूलिका का अर्थ है अवशिष्ट विषय का वर्णन अथवा वर्णित विषय के व्याख्या सूत्रों का निरूपण । अनुयोगद्वार में पूर्वो के अध्ययन करने की पद्धति का वर्णन तथा विश्लेषण है इसलिए वह पूर्वज्ञान के परिशिष्ट का स्थान ले सकता है। नंदी सूत्र में जो ज्ञान का विश्लेषण किया गया है, वह दुसरे आगमों में उपलब्ध नहीं है इसलिए इसे ज्ञान विषयक चूलिकासूत्र अथवा परिशिष्ट कहा जा सकता है । चूलिकासूत्र चूलिका का अर्थ है चूला, चूड़ा या चोटी, जिसका स्थान सबसे ऊंचा है। मनुष्य के शरीर में चोटी का जितना महत्त्व है। उतना ही महत्त्व आगमों में चूलिका सूत्रों का है। चूलिका सूत्र आगम साहित्य के हृदयस्थानीय अथवा शिरःस्थानीय सूत्र हैं। आगम पुरुष को प्राप्त करने के लिए चूलिका सूत्र का आलम्बन अत्यंत आवश्यक है । चूलिका सूत्रों की ऐतिहासिकता का निरूपण करना कठिन है। ऐसा कोई निश्चित प्रमाण नहीं है जिससे हम व्यक्ति और समय के बारे में जान सकें। पर इतना निश्चित है कि यह वर्गीकरण आगमों में नहीं है और उत्तरवर्ती व्याख्या ग्रन्थों में भी नहीं है । संभव है बाद के विद्वानों ने अनुयोगद्वार और नन्दी की विषय-वस्तु के आधार पर इनको चूलिका-सूत्रों की संज्ञा दी हो । किन्तु यह तो अन्वेषणीय ही है कि अनुयोगद्वार और नन्दी का बूलिका-सूत्रों के रूप में निरूपण कब और किसके द्वारा हुआ ? आकार और विषयवस्तु अनुयोगद्वार सूत्र का ग्रन्थाय २१६२ श्लोक तथा ५ अक्षर हैं। इस आगम की रचना बहुलांशतः गद्यमय है। काव्यरसों के उद्धरण पद्यबद्ध हैं तथा बीच-बीच में और भी कुछ स्थलों पर पद्य हैं। पद्यभाग आर्यरक्षित द्वारा रचित है अथवा किसी अन्य ग्रन्थ से उदाहरण के रूप में उद्धृत है—यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। नय की व्याख्या देनेवाली गाथाएं आवश्यक निर्युक्ति में उपलब्ध हैं (द्रष्टव्य सू. ७१५ का टिप्पण) । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका कुछ अन्य स्थानों में भी समान गाथाएं मिलती हैं___अनुयोगद्वार आवश्यकनियुक्ति १. १. उद्देसे २. निद्दे से य ३. निग्गमे, १. १. उद्देसे २. निद्देसे य ३. निग्गमे, ४. खेत्त ५. काल ६. पुरिसे य । ४. खित्त ५. काल ६. पुरिसे य । ७. कारण ८. पच्चय ९. लक्खण, ७. कारण ८. पच्चय ९. लक्खण, १०. नए ११. समोयारणा १२. णुमए ॥१॥ १०. नए ११. समोयारणा १२. णुमए ।।१४०।। २. १३. किं १४. कइविहं १५. कस्स १६. कहि, २. १३. किं १४. कइविहं १५. कस्स १६. कहि, १७. केसु १८. कहं १९. केच्चिरं हवइ कालं । १७. केसु १८. कहं १९. केच्चिरं हवइ कालं । २०. कइ २१. संतर २२. मविरहियं २०. कइ २१. संतर २२. मविरहियं २३. भवा २४. गरिस २५. फासण २६. निरुत्ती ॥२॥ २३. भवा २४. गरिस २५. फासण २६. निरुत्ती ॥१४१। ३. समयावलिय-मुहुत्ता, दिवसमहोरत्त-पक्ख-मासा य । ३. समयावलिय-मुहुत्ता, दिवसमहोरत-पक्ख-मासा य । __ संवच्छर-जुग-पलिया, सागर-ओसप्पि-परियट्टा ॥१॥ संवच्छर-जुग-पलिया, सागर-ओसप्पि-परियट्टा ॥६६३।। ४. जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे नियमे तवे । ४. जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे नियमे तवे। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ।। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥७९७।। ५. जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । ५. जो समो सब्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ।' तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ।।७९८।। ६. नत्थि य से कोइ वेसो, पिओ व सम्वेसु चेव जीवेसु । ६. नत्थि य सि कोड वेसो, पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ । ४॥ एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ ॥८६॥ ७. तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ पावमणो। ७. तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु ॥६॥ सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु ।।८६७।। ८. इच्छा मिच्छा तहक्कारो, आवस्सिया य निसीहिया । ८. इच्छा मिच्छा तहाकारो, आवस्सिया य निसीहिया । आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा ॥१॥ आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा ॥६६६।। ९. उवसंपया य काले, सामायारी भवे दसविहा उ। ९. उवसंपया य काले, सामायारी भवे दसहा उ । एएसि तु पयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छ ।।६६७।। १०. संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च, खेत्त फुसणा य। १०. संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च, खेत्त फुसणा य । कालो य अंतरं, भाग भाव अप्पावडं चेव ॥१॥ कालो य अंतरं, भाग भाव अप्पाबहुं चेव ।।८९५।। ११. नायम्मि गिव्हियब्वे, अगिण्हियवम्मि चेव अत्थम्मि। ११. नायम्मि गिहियव्वे, अगिव्हियव्वम्मि चेव अत्थम्मि । जइयव्वमेव इइ जो, उवएसो सो नओ नाम ॥५॥ जइयब्वमेव इइ जो, उवएसो सो नओ नामं ॥१०५४,१६२२।। १२. सब्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तब्वयं निसामित्ता। १२. सव्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता। त सब्वनयविसुद्ध, जं चरणगुणढिओ साहू ॥ तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरणगुणट्ठिओ साहू ॥१०५५,१६२३॥ अनुयोगद्वार सूत्र में विविध विषयों की चर्चा हुई है ज्ञान के भेद, आवश्यक श्रुतस्कन्ध, सामायिक, उपक्रम, आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार, समवतार, निक्षेप, अनुगम और नय। काव्यरसों के विश्लेषण को पढते समय लगता है जैसे यह कोई काव्यशास्त्र है । कुप्रावनिक वर्ग में चरक, चीरिक, चर्मखण्डिक, गोवती, भिक्षोण्ड आदि नाम गिनाए गए हैं। पाषण्डी वर्ग (श्रमण सम्प्रदाय) में श्रमण, पाण्डुरांग, भिक्षु, कापालिक, तापस आदि का विवेचन है। कर्मकर वर्ग में तृणहारक, काष्ठहारक, कपड़े के व्यापारी आदि का उल्लेख है । शिल्पजीवी वर्ग में तन्तुवाय, काष्ठकार, छत्रकार, चित्रकार आदि के नाम मिलते हैं। रचनाकार अनुयोगद्वार सूत्र में कहीं भी कर्ता का उल्लेख नहीं है। चूणि और टीका में भी सूत्रकार का नाम निर्देश नहीं है। नन्दीसूत्र की स्थविरावलि में पाठान्तर के रूप में उल्लिखित गाथा है१. इस प्रकार की गाथाएं मूलाचार में भी उपलब्ध है Jain Education Intemational Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ वंदामि अज्जर क्खिअ खमणे रक्खिअचरित सव्वस्से | रयणकरंडक भूओ अणुओगो रक्खिओ जेहि ॥ चारित्र सर्वस्व के रक्षक, क्षपण आर्यरक्षित को मैं वन्दन करता हूं जिन्होंने रत्नकरण्डकभूत अनुयोग की रक्षा की है । आवश्यक निर्युक्ति में आर्य रक्षित के सम्बन्ध में लिखा है अणुभोगवाराई देविंद दिएहि महाणुभावेहि रक्खिअअज्जेहि । जुगमासज्जवितो अणुओगो तो कओ चउहा ||७७४ || इस उल्लेख से स्पष्ट है कि आर्यरक्षित ने आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त किया था। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने नितिकार के लेख का विस्तार से वर्णन किया है। आरक्षित ने अपने शिष्य दुवैलिका पुष्यमित्र की ओर ध्यान दिया। उन्हें प्रतीत हुआ कि यह श्रुतामंत्र का बड़ी कठिनाई के साथ अवगाहन कर रहा है। यह मननशक्ति, पाठशक्ति और धारणाशक्ति - तीनों से सम्पन्न है फिर भी इसे श्रुतज्ञान के संरक्षण में कठिनाई हो रही है तो मति, मेधा और धारणा शक्ति से हीन मुनि श्रुतार्णव का अवगाहन कैसे कर सकते हैं। इस चिन्तन के साथ उन्होंने श्रुत को चार भागों में विभक्त कर दिया । " अनुयोग को चार भागों में विभक्त करने के पश्चात् अनुयोग के विषय में व्यापक जानकारी देना आवश्यक था। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार सूत्र की रचना की, यह अनुमान किया जा सकता है। अनुश्रुति और परम्परा से भी अनुयोगद्वार के कर्त्ता के रूप में आर्यरक्षित का नाम विश्रुत है। किसी अन्य का नाम कर्त्ता के रूप में उपलब्ध नहीं है । इस बाधक प्रमाण के अभाव में भी आर्यरक्षित के कर्तृत्व की पुष्टि होती है । जीवनवृत्त - दशपुर नगर (मन्दसोर) में सोमदेव नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम रुद्रसोमा था। उसके दो पुत्र थे । एक का नाम था आर्यरक्षित और दूसरे का फल्गुरक्षित । उपनयन संस्कार के बाद आर्यरक्षित ने अपने पिता के पास अध्ययन किया । विशेष उपलब्धि के लिए वे पाटलीपुत्र गए। वहां चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र का अध्ययन किया। अध्ययन पूरा कर जब वे दशपुर आए तब राजा ने हाथी पर चढ़ाकर ग्राम में प्रवेश कराया । अन्य लोगों ने भी उसे अनेक प्रकार के उपहार दिए । आर्यरक्षित सब ग्रामवासियों का सम्मान और आशीर्वाद पाकर अपनी माता के पास आए। उनकी माता रुद्रसोमा जैन थी, अतः वह जैन धर्म के संस्कारों से अनुप्राणित थी। उसने उदासीन भाव से पुत्र का स्वागत किया। पुत्र ने कारण पूछा तो वह बोली - तुमने आत्मविद्या से शून्य शास्त्रों का अध्ययन किया है, इसे देखकर मैं प्रसन्न कैसे हो सकती हूं ? यदि तुम्हारा मुझ पर विश्वास है तो तुम आत्मविद्या प्रधान और नयप्रधान दृष्टिवाद का अध्ययन करो । आर्यरक्षित ने पूछा किसके पास पढ़ें ? माता ने कहा- दृष्टिवाद पढना है तो पहले श्रमणोपासक बनो, क्योंकि दृष्टिवाद के ज्ञाता आचार्य श्रमण हैं। आर्यरक्षित नैयायिक से श्रमणोपासक बनने के लिए तैयार हो गए तब माता ने कहा- हमारे इक्षुवाट में आचार्य तोसलि ठहरे हुए हैं। वे तुम्हें दृष्टिवाद पढाएंगे। रातभर आर्यरक्षित को नींद नहीं आई । प्रातःकाल होते ही वे माता की आज्ञा लेकर अपने प्रज्ञाबल से दृष्टिवाद समुद्र का पान करने चले । आरक्षित घर से चले तो मार्ग में उनके पिता के मित्र उपहार के लिए नौ इक्षुदण्ड और एक उसका खण्ड लेकर आ रहे थे। आर्यरक्षित बोले- मैं अभी बाह्यभूमि जाता हूं। आप अपना यह उपहार माताजी को दे देना और कहना कि मैंने उसे इस स्थिति में देखा है । उन्होंने यह बात कही तो माता ने सोचा-पुत्र को शकुन अच्छा हुआ है । यह नौ पूर्व और दशवें पूर्व का कुछ अंश पढ़ेगा। आर्यरक्षित ने भी शकुन का फल यही सोचा । आर्यरक्षित आचार्य तोसलि के पास पहुंचे और वन्दना की । आचार्य ने नाम और आने का प्रयोजन पूछा तो वे बोले- मैं श्रमणोपासक हूं और दृष्टिवाद पढ़ने के लिए आपके पास आया हूं। आचार्य ने कहा- तुम साधु बन जाओ तो दृष्टिवाद के साथ क्रम से और भी ज्ञान मिलेगा । आचार्य की प्रेरणा पाकर वे दीक्षित हो गए। आचार्य ने उनको ग्यारह अंग पढाकर बारहवां अंग दृष्टिवाद जितना ज्ञात था उतना पढ़ा दिया । आर्यरक्षित ने सुना वज्रस्वामी के पास दृष्टिवाद अधिक स्पष्ट है । वे उस समय महापुरी नगरी में थे अतः आर्यरक्षित ने वहां के लिए प्रस्थान कर दिया। वहां से चलते हुए वे उज्जयिनी पहुंचे। उज्जयिनी में उस समय आचार्य भद्रगुप्त थे। वे उनके १. विमा २२६२-२२९३ । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका उपाश्रय में गए । आचार्य ने उनका स्वागत किया और वहां इसलिए मैं अनशन कर रहा हूं, तुम मुझे आराधना करवा दो। बताया कि तुम वज्रस्वामी के साथ एक उपाश्रय में मत रहना । तो वह मर जाता है । आर्यरक्षित वहां से प्रस्थान कर उसी रात को वज्रस्वामी ने स्वप्न देखा कि दूध से भरा हुआ पात्र है। किसी ने उसका बहुत दूध पी लिया और थोड़ा बचा है। स्वप्न का फल पूछने पर उन्हें बताया गया कि कोई बहुश्रुतग्राही अतिथि आएगा । वह पूर्वो का ज्ञान अधिकांश ले लेगा और कुछ नहीं ले पाएगा । आर्यरक्षित वज्रस्वामी के पास आए और द्वादशावर्तविधि से वन्दन किया। वज्रस्वामी ने पूछा- कहां से आए हो ? आरक्षित ने उत्तर दिया आचार्य तोसलि के पास से क्या तुम्हारा नाम आर्यरक्षित है ? वज्रस्वामी के ऐसा पूछने पर आरक्षित ने स्वीकृति दे दी । वज्रस्वामी ने उसका स्वागत किया और दृष्टिवाद का अध्यापन प्रारम्भ कर दिया। थोड़े ही समय में आर्यरक्षित ने नव पूर्व पढ़ लिए और दसवें पूर्व के २४ यव पढ़ लिए। उधर दशपुर नगर से आर्यरक्षित के माता पिता ने कहलाया कि तुम तो हमें भूल गए हो। हमारे लिए तो तुम ही प्रकाशपुञ्ज हो। तुम्हारे बिना सब कुछ तमोमय हो रहा है इसलिए एक बार यहां आ जाओ। ऐसा कहलाने पर भी अध्ययन में लीन होने से वे घर नहीं गए । कुछ समय बाद फल्गुरक्षित उन्हें बुलाने गया। आर्यरक्षित ने वज्रस्वामी से आज्ञा ली तो उन्होंने पढने का आदेश दिया। आर्यरक्षित ने भाई को दीक्षा लेने की प्रेरणा दी। प्रेरित हो फल्गुरक्षित ने वहीं दीक्षा स्वीकार कर ली । १५ ठहरने का अनुरोध करते हुए कहा- मेरा आयुष्य क्षीण हो रहा है, आर्यरक्षित ने स्वीकृति दे दी। आचार्य भद्रगुप्त ने आर्यरक्षित को सोपक्रम आयुष्य वाला व्यक्ति एक रात्रि भी उनके साथ रह जाता है वज्रस्वामी के पास पहुंचे । आर्यरक्षित ने जब दसवें पूर्व का सार्धं भाग पढ लिया तो उन्होंने फिर दशपुर जाने की आज्ञा मांगी पर वज्रस्वामी ने निषेध कर दिया। आर्यरक्षित पढ़ते-पढ़ते श्रान्त हो गए अतः पूछने लगे-अध्ययन कितना शेष रहा है ? वज्रस्वामी बोले- अभी तो बिन्दुमात्र पढा है, समुद्र जितना बाकी है । श्रान्त होने पर भी वे आचार्य की प्रेरणा से पुनः अध्ययन में संलग्न हो गए । पर वे दसवें पूर्व को पूरा नहीं पढ़ पाए । कालान्तर में फल्गुरक्षित के साथ आर्यरक्षित दशपुर नगर में गए। नगर के सब लोग आए और वन्दन कर बैठ गए । आर्यरक्षित ने देशना दी। राजा ने सम्यक्त्व ग्रहण किया । रुद्रसोमा और सोमदेव अनेक व्यक्तियों के साथ दीक्षित हो गए । आर्यरक्षित तेरह वर्ष तक युगप्रधान आचार्य रहे । इन्होंने अपने जीवनकाल में आगमों को अनुयोगों द्वारा विस्तृत बनाया। इनकी और कोई रचना उपलब्ध नहीं है पर मुनि कल्याणविजयजी वर्तमान दस सूत्रों की नियुक्तियों को आचार्य आर्यरक्षित की कृतियां मानने के पक्ष में हैं किन्तु उन्होंने अपने अभिमत को पुष्ट करने के लिए कोई ठोस आधार नहीं दिया केवल संभावना मात्र प्रकट की है। इसलिए इस तथ्य को अभी तक प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । आरक्षित और अनुयोग आर्य वज्रस्वामी तक अनुयोग का पृथक्करण नहीं था । प्रत्येक आगम सूत्र में चार अनुयोगों का प्रतिपादन था। आर्यरक्षित ने इस पद्धति में परिवर्तन किया। इसके निमित्त थे - दुर्बलिका पुष्यमित्र आर्यरक्षित के चार शिष्य प्रमुख थे दुर्बलिका पुष्यमित्र, फल्गुरक्षित, विन्ध्य और गोष्ठामाहिल । मुनि विन्ध्य ने आर्यरक्षित से निवेदन किया कि साथ में पढने से अध्ययन बहुत कम होता है। इसलिए कोई दूसरी व्यवस्था कर दीजिए । आरक्षित ने उसे अध्ययन कराने का भार दुर्बलिका पुष्यमित्र को सौंपा। कुछ दिन तो यह क्रम चलता रहा। पर एक दिन दुर्बलिका पुष्यमित्र ने आर्यरक्षित से निवेदन किया कि वाचना देने से मैं पूर्वो का प्रत्यावर्तन नहीं कर सकता अतः मेरा नौंवा पूर्व विस्मृत हो जाएगा । अब आपका जो आदेश हो वही करने के लिए उद्यत हूं । आरक्षित ने सोचा अब प्रज्ञा की हानि हो रही है अतः प्रत्येक आगम में चारों अनुयोगों को धारण करने वाले भविष्य में उपलब्ध नहीं हो सकेंगे। इस विमर्श के बाद उन्होंने आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया। उस अनुयोग व्यवस्था के आधार पर आगमों का वर्गीकरण इस प्रकार है १. द्रयानुयोग २. चरणकरणानुयोग १. विभा २२८८ । देविदवं विएहिं महाणुभावह रखियज्जेहि । जुगमासज्ज विभत्तो अणुओगो तो वाओ चउहा ।। ३. गणितानुयोग ४. धर्मानुयोग Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई अनुयोग आगम विषय द्रव्यानुयोग दृष्टिवाद द्रव्यतत्त्व चरणकरणानुयोग कालिकसूत्र आचार गणितानुयोग सूर्यप्रज्ञप्ति आदि गणित, काल धर्मकथानुयोग उत्तराध्ययन आदि चरित, दृष्टान्त यह वर्गीकरण वीर नि०५८४-५९७ का मध्यवर्ती है। इससे आगम अध्ययन की नयप्रधान परिपाटी परिवर्तित हो गई। नयमुक्त अध्ययन की परम्परा का सूत्रपात हुआ । दिगम्बर परम्परा में यह वर्गीकरण कुछ रूपान्तर से मिलता है, जैसेप्रथमानुयोग महापुराण, पुराण महापुरुषों के जीवन चरित करणानुयोग त्रिलोकप्रज्ञप्ति लोकालोक विभक्ति, त्रिलोकसार गणिल, काल चरणानुयोग मूलाचार आचार द्रव्यानुयोग प्रवचनसार, गोम्मटसार आदि द्रव्य तत्त्व। नन्दी सूत्र की स्थविरावलि और प्रभावक चरित में भी अनुयोगों का उल्लेख है। विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अनुयोगों की चर्चा की है। अनुयोग के पृथक्करण से पहले प्रत्येक सूत्र में चार अनुयोगों का व्याख्यान और नयपद्धति से विचार होता था पर अनुयोग के पृथक्करण से नय पद्धति से विचार करने की परम्परा छिन्न हो गई। आर्य वज्रस्वामी तक कालिकश्रुत में अनुयोग का पृथक्करण नहीं हुआ था। उनके बाद आर्यरक्षित ने पृथक्त्वानुयोग का काम किया। व्याख्या ग्रन्थों में अनुयोग देने की विधि इस प्रकार है--सबसे पहले शिष्य को सूत्र का अर्थ बताना चाहिए, दूसरी बार निर्यक्ति मिश्रित पाठ का बोध देना चाहिए और तीसरी बार शेष सभी विषय पढ़ाना चाहिए। रचना काल आर्यरक्षित का समय वीर निर्वाण की छट्ठी शताब्दी (ई० की प्रथम शताब्दी) है। वालभी स्थविरावलि के अनुसार आर्यरक्षित वी०नि०सं० ५४४ में दीक्षित हुए और ५९७ में स्वर्गस्थ हुए। माथुरी और वालभी दोनों वाचनाओं के अनुसार आर्यरक्षित भगवान महावीर के बाद २०वें पट्टधर थे । वज्र-स्वामी के पश्चात् उनका नामोल्लेख आता है। अनुयोगद्वार माथुरी वाचना के अंतर्गत है। आचार्य मलयगिरि ने ज्योतिष्क रण्ड की टीका में इसका उल्लेख किया है। पट्टावलि समुच्चय में आर्य रक्षित का जीवनकाल ७५ वर्ष ७ मास और ७ दिन का बताया गया है। वी. नि० ५४४ में दीक्षा और ५९७ में स्वर्गवास होने की बात सही है तो आर्य रक्षित का जन्म वी०नि० ५२२ के पास होना चाहिए। अनुमान किया जा सकता है कि उन्होंने २२ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली थी। जैन कालगणना के अनुसार आर्य रक्षित वीर नि०सं० ५८४ के बाद १३ वर्ष तक युगप्रधान आचार्य रहे। इस क्रम से भी १. रक्षा. ११४३-४६ : प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमविपुण्यम् । बोधि समाधि निधानं बोधति बोधः समीचीनः ।। लोकालोकविभक्तेर्युगपारवृत्तेश्चतुर्गतीनाञ्च । आदर्शमिव तथा मतिरवैति करणानुयोगञ्च ॥ गृह पेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम् । चरणानुयोगसमयं सम्यगज्ञानं विजानाति ।। जीवाजीववस्तुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्यालोकमातनुते ॥ २. विमा. ९५० : आसी पुरा सो नियओ अणुयोगाणमपहत्तभावम्मि । संपइ नत्थि पुहुत्ते होज्ज व परिसं समासज्ज ।। ३. वही, २२८४-२२८६ : जावं ति अज्जवइरा अपहत्तं कालियाणुओगस्स । तेणारेण पहत्तं कालियसुय दिट्ठिवाए य ।। अपहत्तमासि वइरा जावं ति पुहत्तमारओऽभिहिए । के ते आसि कया वा पसंगओ तेसिमुप्पत्ती ।। अपहत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो। पुहत्ताणुओगकरणे ते य तओ वि वोच्छिन्ना ।। ४. नसुनं. १२७१५: सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ। तइयो य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगो।। Jain Education Intemational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका उनका ७५ वर्ष का जीवनकाल ठीक बैठता है, जैसे जन्म-- वी०नि०सं० ५२२ दीक्षा- "" " ५८४ युगप्रधान- "" " ५४४ स्वर्गवास- "" "५९० आर्यरक्षित ने वज्रस्वामी के पास अध्ययन किया था । वज्रस्वामी वी०नि०सं० ५८४ में स्वर्गस्थ हुए थे। अत: उनके बाद आर्यरक्षित का युगप्रधान आचार्य के रूप में प्रसिद्धि पाना उचित ही है। पुरातत्त्व में आगम विषयक चर्चा करते हुए लिखा गया है-"श्वेताम्बर जैनों ना पीस्तालीस आगमों मां अनुयोगद्वार अने नन्दी सूत्र सौ थी अर्वाचीन छ। नन्दी सूत्र देवधिगणि क्षमाश्रमणे पोते रचेलु छे ज्यारे अनुयोगद्वार तेमना पहेला आर्यरक्षिते रच्यु गणाय छ। आ गमे तेम होय पण एटलं तो चोक्कस छे के देवद्धिगणि क्षमाश्रमणे वल्लभीपुर मां वी०नि०सं० ९८० मां आगमों नुं पुनरुद्धार कर्यो त्यारे अनुयोगद्वार सूत्र आगम तरीके गणातुं हतुं । पट्टावलि प्रमाणे देवद्धिगणी महावीर पछी ९८० वर्षे थया अटले ४७० वर्ष बाद करतां वि०सं० ५१० एटले ई० सन् ४५४ मां थया गणाय छे । तेमना समय मां अनुयोगद्वार सत्र आगम तरीके गणातुं हतं तेने माटे सौ बरस नो के ओछा मां ओछो ५० वर्ष नो गालो मुकी तो अनुयोगद्वार सूत्र चौथा सैका ना मध्य मां के अन्त मां थयेलु गणाय । अनुयोगद्वार आर्यरक्षित रचेलं छे ए परम्परा साची होय तो अनुयोगद्वार ई. सन् पहेला सैका मां आवै छे कारण के पट्टावलिओ प्रमाणे आर्यरक्षित महावीर पछी ५७० वर्ष पछी थया गणाय छे । एटले के ई० स०४४ मां थया पण अनुयोगद्वार आटलं प्राचीन हज के नहीं ते हजी विवाद नो विषय छे पण तेनो समय ई० सन् पहेला संका अने पांचमां सैका ना मध्य पहेला छे अ बाबत शंकास्पद नथी । ऊपर कह्य ते प्रमाणे तेने चौथा संका ना अन्त मां के मध्य मां मुकी अयोग्य नथी।" उपर्युक्त कथन का वालभी स्थविरावलि के साथ मतैक्य नहीं है। वी०नि० ५७० में आर्यरक्षित का जन्म होता तो ५९८ तक उनका स्वर्गगमन तथा ५८४ के बाद उनका युगप्रधान आचार्य के रूप में प्रसिद्धि पाना उचित नहीं लगता। पण्डित दलसुख मालवणिया ने अनुयोगद्वार का कालनिर्णय करते हुए लिखा है ---अनुयोगद्वार के कर्ता कौन है ? यह कहना कठिन है किंतु इतना तो कहा जा सकता है कि वह आवश्यक सूत्र की व्याख्या है अत: उसके बाद का तो है ही। उसमें कई ग्रन्थों का उल्लेख हुआ है । यह कहा जा सकता है कि वह विक्रम पूर्व का ग्रन्थ है ।' उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर आर्य रक्षित का समय बी० नि० पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से पहले तो हो ही नहीं सकता। उनके जीवन प्रसंगों और पट्टावलियों के अनुसार हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आर्य रक्षित का समय वी०नि० की छट्ठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही होना चाहिए और अनुयोगों का पृथक्त्व तथा अनुयोगद्वार की रचना शताब्दी के उत्तरार्द्ध में होनी चाहिए। रचना शैली अनुयोगद्वार की रचना प्रश्नोत्तर-शैली प्रधान है। इसका अधिकांश भाग गद्यात्मक है। बीच-बीच में पद्य भी उपलब्ध हैं। उनमें से अधिकांश पद्य सूत्रकार द्वारा उद्धृत प्रतीत होते हैं । कुछ पद्य अन्य ग्रंथों से अथवा वाचनाकाल में देवधिगणी द्वारा संग्रहीत हैं यह निर्णयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । कुछ पद्य स्वरचित भी हो सकते हैं । अनुगम के नौ प्रकारों का उल्लेख केवल पद्य में ही मिलता है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि कुछ गाथाएं पूर्व साहित्य से उद्धृत की गई हैं । (द्रष्टव्य सूत्र १६५) . प्रस्तुत आगम की रचना दृष्टिवाद अथवा चौदह पूर्वो की अध्ययन विधि का ज्ञान करवाने के लिए हुई है । इसीलिए सूत्रकार को विस्तृत शैली अपनाने की आवश्यकता हुई। यदि आचारांग की भांति संक्षिप्त शैली का आश्रय लिया जाता तो यह सूत्र अगम्य ही रह जाता । प्रस्तुत आगम दृष्टिवाद की व्याख्या पद्धति समझाने के लिए है इसलिए इसका स्वरूप व्याख्यात्मक है। इसकी शैली सूत्रात्मक नहीं है। विषय वस्तु को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने दृष्टांतों और उपमाओं का यथावकाश प्रयोग किया है-उदाहरण स्वरूप -१. समय का दृष्टांत (द्रष्टव्य सूत्र ४१६) २. पल्य का दृष्टांत (सूत्र ४२२) ३. प्रस्थक दृष्टांत (सूत्र ५५५) ४. वसति दृष्टांत (सूत्र ५५६) ५. प्रदेश दृष्टांत (सूत्र ५५७) । श्रमण के लिए उरग, गिरि आदि बारह उपमाओं का प्रयोग किया गया है। (द्रष्टव्य सूत्र ७०८) १. जैसाबृइ १, पृ. ५७॥ Jain Education Intemational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अणओगदाराई व्याख्या ग्रन्थ अनुयोगद्वार पर तीन व्याख्या ग्रन्थ उपलब्ध हैं१. चणि २. हारिभद्रीया वृत्ति ३. मलधारीया वृत्ति चणि-. इसके कर्ता जिनदास महत्तर हैं । इसका समय विक्रम की ७ वीं शताब्दी है। चणि का ग्रन्थाग्र २२६५ श्लोक प्रमाण है। इसकी पृष्ठ संख्या ९१ है ।। चूणि की भाषा प्राकृत है। इसमें अनुयोग विधि का विश्लेषण है तथा कुछ विशिष्ट स्थलों को उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है। इसमें तलवर, कौटुम्बिक, इभ्य, सार्थवाह, वापी, पुष्करिणी, सारणी आदि शब्दों की व्याख्या की गई है । प्रसंगानुसार सांस्कृतिक, भौगोलिक, राजनैतिक और सामाजिक विषयों का विवरण मिलता है। चूर्णिकार ने जिनभद्र विरचित शरीरपद से संबंधित चूणि को उद्धृत किया है । चूणि के अन्त में यह प्रशस्ति मिलती है सरीरपदस्स चुण्णी जिणभद्दखमासमणकित्तिया समत्ता।' हारिभद्रीया वृत्ति हरिभद्र आगम सूत्रों के प्रसिद्ध टीकाकार हैं ! उन्होंने आवश्यक और दशवकालिक पर विस्तृत टीका लिखी है । इनके द्वारा लिखित नन्दी और अनुयोगद्वार की टीकाएं संक्षिप्त हैं। इनमें चूणि की शैली का अनुसरण किया गया है। अनेक स्थानों पर ऐसा प्रतीत होता हैं कि हरिभद्र चूणि की प्राकृत भाषा का संस्कृत मे अनुवाद कर रहे हैं। हरिभद्र सूरि ने अनेक स्थलों पर बीच-बीच में चूणि के पाठ उद्धृत किए हैं ' उन्होंने अपनी स्वतंत्रता का भी प्रयोग किया है । इसीलिए वृत्ति में चूणि से अधिक विस्तार है। इस टीका का नाम शिष्यहिता है। हरिभद्र ने इसका 'अनुयोगद्वार का विवरण' के रूप में उल्लेख किया है । प्रणिपत्य जिनवरेन्द्र त्रिदशेन्द्रनरेन्द्रपूजितं वीरम् । अनुयोगद्वाराणां प्रकटाएँ विवृतिमभिधास्ये ॥' कृत्वा विवरणमेतत्प्राप्तं यत्किञ्चिदिह मया कुशलम् । अनुयोगपुरस्सरत्वं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥ मुद्रित प्रति की पृष्ठ संख्या १२८ है । मलधारीया वृत्ति-- मलधारी हेमचन्द्र ने अनुयोगद्वार पर वृत्ति लिखी है। उन्होंने चूणि और टीका (विवरण) की व्याख्या को सरल शैली में प्रस्तुत किया है । अपनी ओर से कुछ नया भी जोड़ा है। वास्तव में चूणि हरिभद्र व हेमचन्द्र दोनों के लिए आधारभूत रही है । वृत्ति के अन्त में उन्होंने अपनी गुरु परम्परा का विस्तार से उल्लेख किया है। इस वृत्ति का ग्रन्थान ५९०० श्लोक प्रमाण है । आचार्य मलधारी हेमचन्द्र का समय बारहवीं शताब्दी है। १८ जुलाई, १९९६ गणाधिपति तुलसी जैन विश्व भारती, लाडनूं आचार्य महाप्रज्ञ १. अचू. पृ. ७४ । २. अहावृ. पृ. २-५=अचू. पृ. २-५। ३. अहावृ. पृ. १। ४. वही, पृ. १२८ । ५. अमवृ.प. २५०,२५१ । Jain Education Intemational Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FREEEEEEEEEEEEEEEEEE अचि अचू अमवृ असू अहा आ आनि आयु आसू उ उसुप कग्रं कटि कपा का कौअ गोजी जैसा जैसिको जैसिदी ज्योटा तभा तवा तश्लोवा तसू तिप त्रसा अंबमुतापि भगवई अभिधान चितामणि अनुयोगद्वार चूर्णि अनुयागद्वार मलधारीया वृत्ति अष्टांग हृदय (सूत्रस्थान ) अनुयोगद्वार हारिभद्रीया वृत्ति आयारो आवश्यक निर्वृति आगम युग का जैन दर्शन आचाराङ्गसूत्र सूत्रकृताङ्गसूत्रं च उत्तरज्झयणाणि उत्तराध्ययन वृहद्वृत्ति उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति नियुक्ति उता जोवाइ (भा.४ खं. १) उताणीवपत्ति संकेत निर्देशिका ( भा. ४ ख २ ) उवंग सुत्ताण पण्णवणा ( भा. ४ खं. २ ) उवंग सुत्ताणि रायपसेणइयं ( भा. ४ ख २ ) कर्म ग्रन्थ कल्पसूत्र टिप्पणकम् कषाय पाहुड़ काव्यानुशासन कौटिलीय अर्थशास्त्र गोम्मटसार जीवकाण्ड जैन आगम साहित्य मां गुजरात जैन साहित्य का वृहद् इतिहास जैनेन्द्र सिद्धांत कोश जैन सिद्धांत दीपिका ज्योति टाइम्स ठाणं तत्त्वार्थमायानुसारिणी (टीका) तस्यार्थवातिक तस्यार्थमवतिकालंकार सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र तिलोयपण्णत्ती त्रिलोकसार द दचू दरू देशको द्रत ध धर्म नच नच (आलाप पद्धति) नचप नमुन नसुअ नसु नसुनि निचू निभाचू न्या न्याकु न्यासू पायो प्रच प्रन प्रमी (भाटि बृभा ब्रउ भ भना भादप मू यसअ र रश्रा लोप्र विप्र विभा वैसासं व्यभा दसवेआलिय दसर्वकालिक चूर्णि दसरूपकम् देशी शब्दकोश द्रव्यानुयोगतर्कणा धवला धर्म प्रकरण नयचक्र नयवक (आलाप पद्धति) नयचक्र परिशिष्ट नंदी गुप्तं (पूणि नवनाथ अणुओगदारा नवसुत्ताणि नंदी नवसुत्ताणि निसीहज्झयणं निशीथ चूर्णि निशीथ भाष्य चूर्णि न्यायावतार न्यायकुमुदचन्द्र न्याय सूत्र पातञ्जलयोगदर्शन ( सभाष्य ) प्रभावकचरित प्रमाणन यतत्त्वलोकालंकार प्रमाण मीमांसा ( भाषा टिप्पणानि ) बृहत्कल्प (भाष्य चूर्णि सहित ) ब्रह्मबिन्दुपनिषद् भगवई भरतनाट्यशास्त्र भारतीय दर्शन परिचय मूलाचार यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन रघुवंशम् रत्नकरण्डक श्रावकाचार लोक प्रकाश विश्व प्रशिक विशेषावश्यकभाष्य वैदिक साहित्य और संस्कृति व्यवहार भाष्य Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अणुओगदाराई शासं षखं स (प्रस) सप्र ससि शार्ङ्गधर संहिता षट्खंडागम समयसार समवाओ (प्रकीर्णक समवाय) सन्मति प्रकरण सर्वार्थसिद्धि सूयगडो सूत्रकृताङ्गचणि सौन्दरनन्द गाथा पत्र पृष्ठ भाग भूमिका श्लोक सूत्र Jain Education Intemational Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम १-४० २४६ १५१-१८२ १५५ १५५ पहला प्रकरण ज्ञान पद आवश्यक अनुयोग पद आवश्यक स्वरूप पद आवश्यक निक्षेप पद २४८ १५५ or or w wm १६१ टिप्पण २६५ २६-७३ ४१-५८ दूसरा प्रकरण श्रुत निक्षेप पद स्कन्ध निक्षेप पद ૨૬ टिप्पण 45ssss sxa ...... ५६-७४ ७४ ३०६ ६३ ६३ १६३ १६४ १६४ १७६ १८३-२१६ ૧૬૭ १६२ १६३ १६५ २०७ २१७-२५० २२१ २२१ २२४ २३२ २५१-२८६ ६६ ७५-११४ ३६६ २५५ १३१ सातवां प्रकरण २४६-२६७ उपक्रम अनुयोगद्वार नाम पद एकनाम पद २४७ द्विनाम पद त्रिनाम पद २५५ चतुर्नाम पद पंचनाम पद २७० षटनाम पद २७१ टिप्पण आठवां प्रकरण २६८-३६८ सप्तनाम पद २६८ अष्टनाम पद ३०८ नवनाम पद दसनाम पद ३१६ टिप्पण नौवां प्रकरण ३६६-४१२ उपक्रम अनुयोगद्वार पद द्रव्य प्रमाण पद ३७० क्षेत्र प्रमाण पद ३८६ टिप्पण दसवां प्रकरण ४१३-५०५ काल प्रमाण पद ४१३ टिप्पण ग्यारहवां प्रकरण ५०६-६०४ भाव प्रमाण पद ५०६ टिप्पण बारहवा प्रकरण ६०५-६१७ उपक्रम अनुयोगद्वार वक्तव्यता पद ६०५ उपक्रम अनुयोगद्वार अर्थाधिकार पद ६१० उपक्रम अनुयोगद्वार समवतार पद ६११ टिप्पण तेरहवां प्रकरण ६१८-७१५ निक्षेप अनुयोगद्वार पद निक्षेप अनुयोगद्वार ओघनिष्पन्न पद ६१६ निक्षेप अनुयोगद्वार नामनिष्पन्न पद ६६६ निक्षेप अनुयोगद्वार सूत्रालापकनिष्पन्न पद go5 अनुगम अनुयोगद्वार पद नय अनुयोगद्वार पद ७१५ टिप्पण परिशिष्ट : १. विशेषनामानुक्रम २. पदानुक्रम ३. टिप्पण : अनुक्रम ४. शब्दविमर्श : शब्दानुक्रम देशी शब्द ६. प्रयुक्त ग्रन्थ सूची ड़: पद्यात्मक व्याख्या २७७ २८७-३३४ २६१ ३१५ तीसरा प्रकरण ७४-६६ आवश्यक अर्थाधिकार अध्ययन पद अनुयोगद्वार पद उपक्रम अनुयोगद्वार पद टिप्पण चौथा प्रकरण १००-१५४ उपक्रम अनुयोगद्वार में आनुपूर्वी पद १०१ नाम स्थापना आनुपूर्वी पद १०२ द्रव्य आनुपूर्वी पद १०५ नैगम व्यवहार अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पद ११४ संग्रहनय की अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पद औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पद १४७ टिप्पण पांचवा प्रकरण १५५-१६५ क्षेत्रानुपूर्वी पद १५५ नैगम व्यवहारनय सम्मत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी पद संग्रहनय सम्मत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी पद औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी पद १७६ टिप्पण छट्ठा प्रकरण कालानुपूर्वी पद १६६ नैगम व्यवहारनय सम्मत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी पद संग्रहनय सम्मत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी पद उत्कीर्तन आनुपूर्वी पद २२६ गणना आनुपूर्वी पद संस्थान आनुपूर्वी पद २३४ सामाचारी आनुपूर्वी पद २३८ भावानुपूर्वी पद २४२ टिप्पण ११५-१३२ ११६ १५८ ११६ ३३५-३५२ ३३६ ३४० ३४० ३४५ ३५३-३५६ ३५७ १७५ ६१८ १२४ १२४ १२८ १३३-१५० १३७ ३५७ ३७१ १६६-२४५ ३७५ ७१० ३७५ ३७६ ३७८ ૧૬૬ १३७ २१६ ३८६ १४१ १४३ १४४ २३० १४४ १४५ १४५ ४०३ ४०५ ४०६ ४१३ ४१७ ४२० १४७ Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकरण १-२८ सूत्र १-५ अनुयोग द्वार का विषय-श्रुतज्ञान विषयानुक्रम : रेखाचित्र केवलज्ञान उद्देश समुद्देश .अनुज्ञा अनुयोग मतिज्ञान मनःपर्यवज्ञान श्रुतज्ञान अंग प्रविष्ट अवधिज्ञान अंग बाह्य कालिक आवश्यक व्यतिरिक्त उत्कालिक आवश्यक बहुअध्ययन युक्त -१ श्रुत स्कन्ध सूत्र ६-२८"आवश्यक" शब्द का निक्षेप (आवश्यक शब्द के समस्त अर्थों का व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण एवं प्रस्तुत प्रसंग में अर्थ का निर्णय एवं पर्यायवाची शब्द) बहु अध्ययन युक्त एकश्रुत स्कन्ध १. नाम आवश्यक ४ाभाव २. स्थापना आगमत: १.ज्ञशरीर द्रव्य आवश्यक ३. द्रव्य २. भव्यशरीर द्रव्य आवश्यक नोआगमत: निक्षेप की सामान्य पद्धति . | ३. ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आवश्यक १. आगमत: १. लौकिक २. नोआगमत: २. कुप्रावचनिक |३. लोकोत्तर लौकिक कुप्रावचनिक लोकोत्तर भाव आवश्यक ८पर्यायवाची शब्द - आवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रुवनिग्रह, विशोधि, छ:अध्ययन समूह, न्याय, आराधना, मार्ग Jain Education Intemational Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत (हिन्दी में) सुख (प्राकृत में) स्कन्ध १. नाम २. स्थापना ३. द्रव्य दूसरा प्रकरण २९-७३ सूत्र २९-५१ 'श्रुत' शब्द का निक्षेप एवं पर्यायवाची शब्द ४. भाव नाम १०. पर्यायवाची शब्द सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना, आगम स्थापना द्रव्य भाव आगमतः नो आगमतः आगमतः नो आगमत: लौकिक लोकोत्तर भाव श्रुत आगमतः १२. पयार्यवाची शब्द सूत्र ५२-७३ "स्कन्ध" शब्द का निक्षेप एवं पर्यायवाची शब्द नो आगमतः आगमतः नो आगमतः । नैगम और व्यवहार से विचार सामयिक आदि. • संग्रहनय से विचार ऋजुसूत्र से विचार तीन शब्द नयों से विचार ज शरीर द्रव्य श्रुत भव्य शरीर द्रव्य श्रुत इनसे अतिरिक्त द्रव्य श्रुत T सूर्य के दो अर्थ - श्रुत और सूत्र (धागा) ताडपत्र, लिखित पुस्तक सात नय से विचार ज्ञशरीर द्रव्य स्कन्ध अध्ययनों का समुदाय सूत्र, धागा १. अंडज २. बोण्ड ३. कीटज ४. बालज ५. वल्कज भव्यशरीर द्रव्य स्कन्ध व्यतिरिक्त द्रव्य स्कन्ध १. गण, २. काय, ७. पुंज, ८. पिंड, सचित्त अचित्त १. ऊन से १२. ऊंट के बाल से ३. मृग रोम से ४. चूहे के बालों से ५. मिश्रित बालों से हाथी का स्कन्ध घोड़े का स्कन्ध आदि • द्विप्रदेशी से अनन्तप्रदेशी मिश्र सेना की टुकड़ी ३. निकाय, ४. स्कन्ध, ५. वर्ग, ६. राशि, ९. निकर, १०. संघात ११. आकुल, १२. समूह Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकरण ७४-९९ सूत्र ७४-९९ - आवश्यक के अधिकार, अध्ययन एवं सामायिक पर अनुयोगद्वारों का प्रयोग एवं प्रथम अनुयोगद्वार उपक्रम १. सावद्य योग विरति २. उत्कीर्तन ३. गुणवान की प्रतिपत्ति-सम्मान, आदर ४. स्खलित की निंदा व्रण चिकित्सा __6अध्ययन के सारांश (अर्थाधिकार) ६. गुण-धारणा आवश्यक अध्ययन के नाम नाम उपक्रम प्रथम अध्ययन पर चार द्वारों का प्रयोग ज्ञशरीर द्रव्य उपक्रम १. सामायिक स्थापना उपक्रम १.उपक्रम भव्यशरीर उपक्रम आगमत: द्रव्य उपक्रम नोआगमत: द्रव्य उपक्रम २. चतुर्विंशतिस्तव द्रव्य उपक्रम ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त २. निक्षेप ३. वंदना क्षेत्र उपक्रम ३. अनुगम काल उपक्रम आगमत: भाव उपक्रम परिकर्म ४. प्रतिक्रमण दुपद ४/नय भाव उपक्रम ५. कायोत्सर्ग सचित्त चतुष्पद नोअगमत: भाव उपक्रम अप्रशस्त | प्रशस्त | अचित्त वस्तु-विनाश परिकर्म वस्तु-विनाश परिकर्म वस्तु-विनाश ६. प्रत्याख्यान अपद | मिश्र Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अनुयोगद्वा उपक्रम अनुयोगद्वार उपक्रम आनुपूर्वी के निक्षेप अथवा ६. प्रकार नुपूर्वी नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल 6. भाव १. आनुपूर्वी नाम प्रमाण वक्तव्यता अर्थाधिकार समवतार सूत्र १०५-१५४ द्रव्यानुपूर्वी १. आगमतः २. नोआगमतः चौथा प्रकरण १००-१५४ सूत्र १००-१०४ उपक्रम और आनुपूर्वी के प्रकार ३. तद् व्यतिरिक्त १. २. ३. भंगोपदर्शन . ४. भंगसमुत्कीर्तना पूर्वपूर्वी - परमाणु पुगल, दो प्रदेशी, तीन प्रदेशी, चार प्रदेशी.... संख्य..... असंख्य प्रदेशी, अनन्त प्रदेशी परमाणु पश्चानुपूर्वी अनन्त प्रदेशी.... असंख्य प्रदेशी संख्य प्रदेशी.... दश प्रदेशी.... अनानुपूर्वी प्रारम्भ में एक एवं उत्तरोत्तर एक-एक वृद्धि वाली अनन्त समुदाय वाली श्रेणी को परस्पर गुणन करने पर जो प्राप्त होता है, उससे दो (आदि और अन्त) कमवाली संख्या जितनी । समवतार ५. अनुगम नैगम व्यवहार से विचार संग्रह से विचार अर्थपद प्ररूपणा २. औपनिधिकी ४. ५. ६. उत्कीर्तन ३. क्षेत्र अनौपनिधिक ४. स्पर्शन ५. काल ६. अन्तर नाम आनुपूर्वी स्थापना आनुपूर्वी द्रव्य आनुपूर्वी ७. गणना ८. संस्थान ९. सामाचारी १०. भाव १. सत्पदप्ररूपणा द्रव्य प्रमाण ७. भाग ८. भाव पूर्वी आनुपूर्वी अनु अवक्तव्यक १. अर्थ पद प्ररूपण २. भंग समुत्कीर्तन 3. भंगोपदर्शन ४.समवतार अनुगम ५. १. सत्पदप्ररूपणा २. द्रव्यप्रमाण ३. क्षेत्र ४. स्पर्शन ५. काल ६. अन्तर ७. भाग ८. भाव अल्पबहुत्व पूर्वानुपूर्वी १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय ४. जीवास्तिकाय ५. पुद्रलास्तिकाय ६. अद्धीसमय पश्चानुपूर्वी १. अद्वासमय २. पुद्गलास्तिकाय ३. जीवास्तिकाय ४. आकाशस्तिकाय ५. अधर्मास्तिकाय ६. धर्मास्तिकाय अनानुपुर्वी (१x२ ३x४ x ५ x ६ ) = ७२० (७२०- २) - ७१८ उपरोक्त से भिन्न इन छ: समुदाय के ७१८ क्रम बनते है । "वह अनानुपूर्वा है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११३-२१७ - १. अर्थपदप्ररूपण अनौपनिधिकी नैगम और व्यवहार नय से विचार द्रष्यानुपूर्वी ____ क्षेत्रानूपूर्वी |१. तीन प्रदेशी आनुपूर्वी से क्रमशः अनन्त प्रदेशी पुद्गलों की १. तीन आकाश प्रदेशों में अयगाढ द्रष्य स्कन्ध आनुपूर्वी से आनुपूर्वी क्रमशः असंख्य प्रदेशों में अयगाठ आनुपूर्षी २. परमाणु पुदगल की अमानुपूर्षी २. एक प्रवेशायगाढ अमानुपूर्षी ३. वो प्रवेशी अवक्तव्य ३. दो प्रदेशायगाठ अवक्तव्य ४. अनेक आनुपूर्षिया ५. अनेक अनानुपूर्षियां ६. अनेक अवक्तव्य ४. अनेक आनुपूर्षियां ५. अनेक अनानुपूर्थियो ६. अनेक अषक्तय छयीस प्रकार छबीस प्रकार उपरोक्त छब्बीस प्रकारों का उदाहरण से दिग्दर्शन। उपरोक्त एबीस प्रकारों का उदाहरण से दिग्दर्शन। आनुपूर्वी का आनुपूर्वी में, अनानुपूर्वी का अनानुपूर्षी में आनुपूर्षी का आनुपूर्षी मैं, अनानुपूर्षी का अनानुपूर्थी में और और अवक्तव्य का समावेश अवक्तव्य में होता है। अवक्तय का समावेश अपक्तय्य में होता है। नौ; सत्पदप्ररूपण से-- -- अल्पबहुत्य तक। नौ; सत्पथप्ररूपण से----अल्प बहुत्य तक। आनुपूर्वी अनानुपूर्वी अवक्तव्य आनुपूर्वी आनानुपूर्वी | अवक्तवा भंगसमुत्कीर्तन भंगोपदर्शन समवतार | ५. अनुगम अनन्त १ सत्पदप्ररूपण २. दय्य प्रमाण अनन्त अनन्त असंख्य असंख्य असंख्य ३. क्षेत्र (लोक के कितने भाग में ?) (क) एक द्रव्य की संख्यातये, असंख्यातयें, अनेक संख्यातवें, असंख्यात असंख्याता संख्यातयें,असंख्यातवें. अनेक संख्यातयेंअसंख्यातवें | असंख्यातवें अपेक्षा अनेक असंख्यातवें, सर्वलोक में अनेक असंख्यातयें, कुछ न्यून लोक में (ख) अनेक द्रव्य सर्व लोक में सर्वलोक में सर्वलोक में सर्वलोक में सर्वलोक में सर्वलोक में की अपेक्षा ४. स्पर्शना (लोक के कितने भाग का स्पर्श ?) (क) एक द्रष्य की संख्यातयें, असंख्यातवें, अनेक संख्यात, असंख्यातये । असंख्यातवें संख्यातयें,असंख्यातवें, अनेक संख्यात. असंख्यातये | असंख्यातये अपेक्षा अनेक असंख्यातयें. सर्यलोक का स्पर्श । अनेक असंख्यातये, कुछ न्यून लोक में (ख) अनेक द्रष्य सर्व लोक का स्पर्श सर्य लोक का | सर्व लोक का | सर्व लोक का सर्यलोक का | सर्वलोक का की अपेक्षा ५. काल (क) एक द्रव्य की जधन्य-एक समय ज.एक समय |ज. एक समय | जघन्य-एक समय ज.एक समय ज. एक समय अपेक्षा उत्कृष्ट-असंख्य काल उ. असंख्य काल| उ. असंख्यकाल उत्कृष्ट-असंख्य काल उ.असंख्य | उ.असंख्य काल (ख) अनेक द्रव्य सर्वकाल सर्वकाल सर्वकाल सर्वकाल सर्वकाल | सर्वकाल की अपेक्षा. ६. अन्तर (क) एक द्रव्य की जघन्य-एक समय ज.एक समय ज.एक समय जघन्य-एक समय ज, एक समय अपेक्षा उत्कृष्ट-अनन्त काल उ.असंख्यकाल | उ. अनन्त काल | उत्कृष्ट-असंख्य काल उ.असंख्य उ. असंख्य काल काल (ख) अनेक द्रव्य अन्तर नहीं अन्तर नहीं अन्तर नहीं अन्तर नहीं अन्तर नहीं अन्तर नहीं की अपेक्षा ७. भाग अनेक असंख्य भागों में असंख्यातवें असंख्यातवें अनेक असंख्य भागों में असंख्यातवें असंख्यातवें भाग मे भाग मे भाग में भाग में ८. भाव सादि पारिणामिक सादि सादि | सादि पारिणामिक सादि सादि पारिणामिक पारिणामिक पारिणामिक पारिणामिक काल ज.एक समय ६. अल्प बहुत्व (क) द्रव्य की अपेक्षा असंख्यगुणा अधिक (ख) प्रदेश की अनन्तगुणा अधिक की अपेक्षा विशेषाधिक सब से कम | सबसे कम । विशेषाधिक असंख्यात गुणा अधिक असंख्यात गुणा अधिक विशेषाधिक | सब से कम सब से कम | विशेषाधिक Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वी आनुपूर्वी है असंख्य १. तीन समय की स्थिति याला पुद्गल आनुपूर्वी से क्रमशः असंख्य समय स्थिति वाला आनुपूर्वी २. एक समय की स्थिति वाला पुद्गल अनानुपूर्वी ३. वो समय की स्थिति वाला पुद्गल अवक्तव्य ४. अनेक आनुपूर्वियां ५ अनेक अनानुपूर्वियां ६. अनेक अवक्तव्य छब्बीस प्रकार उपरोक्त छब्बीस प्रकारों को उदाहरण से दिग्दर्शन । आनुपूर्वी का आनुपूर्वी में, अनानुपूर्वी का अनानुपूर्वी में और अवक्तव्य का समावेश अवक्तय में होता है। नौ सत्पदप्ररूपण से" -अल्पबहुत्व तक । संख्यातवें, असंख्यातवें, अनेक संख्यातयें, अनेक असंख्यातवें, कुछ न्यून लोक में सर्वलोक में संख्यातवें, असंख्यातवें, अनेक संख्यातयें, अनेक असंख्यातवें, कुछ न्यून लोक का सर्वलोक का जघन्य तीन समय उत्कृष्ट - असंख्यकाल | सर्व काल जघन्य- एक समय उत्कृष्ट-दो समय अन्तर नहीं अनेक असंख्य भागों में सादि पारिणामिक असंख्यात गुणा अधिक असंख्यात गुणा अधिक अनानुपूर्वी है असंख्य आनुपूर्वी के तुल्य सर्वलोक में आनुपूर्वी के तुल्य सर्वलोक का एक समय सर्व काल ज. दो समय उ. असंख्य काल अन्तर नहीं असंख्यातवें भाग में सादि पारिणामिक विशेषाधिक सब से कम अवयतव्य 弯 असंख्य आनुपूर्वी केल्य सर्वलोक में आनुपूर्वी तु सर्वलोक का दो समय सर्व काल ज. एक समय उ. असंख्य काल अन्तर नहीं असंख्यातवें भाग में सादि पारिणामिक सब से कम विशेषाधिक सात प्रकार उपरोक्त सात प्रकारों का उदाहरण से दिग्दर्शन । आनुपूर्वीका आनुपूर्वी में अनुपूर्वीका अनापूर्वी में और अवक्तव्य का समावेश अवक्तव्य में होता है। आठ; सत्पदप्ररूपण से -भाव तक । आनुपूर्वी अनानुपूर्वी है एक राशि सर्वलोक में सर्वलोक का सर्वकाल अन्तर नहीं तीसरे भाग में सादि पारिणामिक संग्रह नय से विचार द्रव्यानुपूर्वी क्षेत्रानुपूर्वी कालानुपूर्वी आनुपूर्वी अनानुपूर्वी अवक्तव्य एक राशि सर्वलाक में सर्वलोक का सर्वकाल अन्तर नहीं तीसरे भाग में सादि पारिणामिक अवक्तव्य एक राशि सर्वलोक में सर्वलोक का सर्वकाल अन्तर नहीं तीसरे भाग में सादि पारिणामिक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेनुपूर्वी कालानुपूर्वी अनौपनिधिकी औपनिधिको अथवा अनौपनिधिकी औपनिधिकी अ पूर्वानुपूर्वी १. अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी पांचवां प्रकरण १५५-१९५ सूत्र १५५ - १९५. क्षेत्रानुपूर्वी भेद-प्रभेद अनौपनिधि की द्रव्यानुपूर्वी की तरह पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनापूर्वी पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी पूर्वानुपूर्वी - २. मध्य लोक क्षेत्रानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी इसके भेद-प्रभेद पूर्वानुपूर्वी २. पश्चानुपूर्वी ३. अनानुपूर्वी ३. ऊर्ध्वलोक क्षेत्रानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी - - - - पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी - अनानुपूर्वी - १. अधोलोक २. तिर्यग्लोक ३. ऊर्ध्वलोक १. ऊर्ध्वलोक २ तिर्यग्लोक ३. अधोलोक (१x२x३ - २) ४ रत्नप्रभा से तमस्तम प्रभा तक तमस्तमः प्रभा से रत्नप्रभा तक एक से उतरोत्तर वृद्धि श्रेढि गुणनफल में दो जम्बूद्वीप से स्वयंभूरमण समुद्र तक अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के तुल्य एकप्रदेशावगाढ से लेकर असंख्यप्रदेशावगाढ तक असंख्य प्रदेशावगाढ से लेकर एकप्रदेशावगाढ तक (ढि गुणनफल २) विन्यास संभव एक से उत्तरोत्तर वृद्धि श्रेढि गुणनफल में दो न्यून सौधर्म से ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी से सौधर्म तक (श्रेढि गुणनफल-२) विन्यास छठा प्रकरण १९६-२४५ सूत्र १९६-२२५. कालानुपूर्वी समय से लेकर सर्वाद्धा तक पदों का उपन्यास सर्व अद्धा से लेकर समय तक पदों का उपन्यास (श्रेढि गुणनफल-२) जितने विन्यास एक समय स्थिति से असंख्यात समय स्थिति तक असंख्यात समय स्थिति से एक समय स्थिति तक (ढि गुणनफल - २) जितने विन्यास न्यून Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वानपर्वी-- १. ऋषभ से क्रमश: वर्द्धमान तक का क्रम सूत्र २२६-२४५ उत्कीर्तन, गणना, संस्थान, सामाचारी एवं भाव आनुपूर्वी नाम पूर्वानुपूर्वी--- १. ऋषभ से क्रमश: वर्द्धमान तक का क्रम स्थापन | पश्चानुपूर्वी- २. वर्द्धमान से क्रमश: ऋषभ तक का क्रम द्रव्य अनानुपूर्वी -- ३. (श्रेढि गुणनफल-२) जितने क्रम विन्यास क्षेत्र काल पूर्वानुपूर्वी-एक से दस अरब तक का क्रमश: गणना क्रम ६. उत्कीर्तन ७. गणना पश्चानुपूर्वी-दस अरब से एक तक क्रमश: गणनाक्रम अनानुपूर्वी- (इनका ही श्रेढि गुणफल में दो न्यून) से प्राप्त राशि जितने क्रम विन्यास । आनुपूर्वी ८. संस्थान ९. सामाचारी पर्वानपर्वी- समचतुरस्र संस्थान से क्रमश: हुण्ड संस्थान तक का क्रम विन्यास पश्चानुपूर्वी---- हुण्ड से समचतुरस्र तक का क्रम विन्यास अनानुपूर्वी--- इनके श्रेढि गुणनफल में दो न्यून से प्राप्त.राशि जितने क्रम विन्यास १०. भाव पूर्वानुपूर्वी - इच्छाकार सामाचारी से क्रमश: उपसम्पदा सामाचारी तक का क्रम विन्या पश्चानुपूर्वी- उपसम्पदा से इच्छाकार तक का क्रम विन्यास अमानुपूर्वी- इनके श्रेढि गुणनफल में दो न्यून से प्राप्त राशि जितने क्रम विन्यास पूर्वानपूर्वी- औदयिक भाव से क्रमश: सान्निपातिक भाव तक का क्रम विन्यास पश्चा नपर्वी- सान्निपातिक भाव से क्रमश: औदयिक भाव का क्रम विन्यास अनानपर्वी- इनके श्रेढिगुणनफल में दो न्यन से प्राप्त राशि जितने क्रम विन्यास Jain Education Intemational Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम उपक्रम सातवां प्रकरण २४६-२९७ नाम उपक्रम सूत्र २४६-२७० एक नाम से पांच नाम तक। | आनुपूर्वी नाम उपक्रम एक नाम प्रमाण | अनुयोगद्वार | निक्षेप वक्तव्यता अर्थाधिकार समवतार दो नाम तीन नाम चार नाम पाँच नाम छ:नाम सात नाम अनेकाक्षरिक एकाक्षरिक जीव नाम आठ नाम अजीव नाम नौ नाम अविशेषित नाम दस नाम विशेषित नाम एक नाम द्विनाम द्रव्य नाम गुण नाम नाम पर्यायनाम |त्रिनाम १. नामिक २.नैपातिक ३. आख्यातिक ४. औपसर्गिक पाँच नाम 'स्त्री नाम | पुरुष नाम नपुंसक नाम चतुर्नाम आगम निष्पन्न लोप निष्पन्न प्रकृति निष्पन्न विकार निष्पन्न सूत्र २७१-२९७ छ: नाम उदय दो संयोगी तीन संयोगी जीवोदय निष्पन्न अजीवोदय निष्पन्न औदयिक | उदय निष्पन्न चार संयोगी उपशम पाँच संयोग सान्निपातिक औपशमिक उपशम निष्पन्न नाम पारिणामिक क्षायिक क्षय निष्पन्न सादिपारिणामिक अनादि पारिणामिक क्षायोपशनिक क्षयोपशम क्षयोपशम निष्पन्न Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रकरण २.९८-३६८ सूत्र २९८-३०७ सात नाम (स्वर मण्डल) अजीव निश्रित सप्त स्वर १. जिह्वा का अप्रभग । २. वक्ष स्थल सात स्वरों के जीव निश्रित उदाहरण | २. मयूर १. मृदंग २. गोमुखीवाद्य - ४.जिह्वा का मध्य भाग ३. शंख ४. झालर. ५. नासिका ६. दतौष्ठ-संयोग ७.मूर्धा १. सहजवृत्ति/आठ २. ऐश्वर्यशाली ... श्रेष्ठ आजीविक |४. सुख जीवी ५. भूपति, शूरवीर, ६. कलहप्रिय, शाकु ५.गोधिका ५. कोयल ६. सारस या क्रोच ६. आडंबर (नंगाड़ा) स्वर-स्थान ७. हाथी ७. महाभेरी १.षड्ज ७. चांडाल, चोर ति सात स्वर लक्षण २.ऋषभ सात नाम स्वर मण्डल सात स्वर के ग्राम ३. गांधार मध्यम ४. मध्यम गांधार ५.पंचम ६. धैवत ७.निषात गीत गायक की योग्यता गीत के दोष गीत के गुण गीत के वृत्त-छन्द गीत की भाषा गीत गायक के प्रकार सूत्र ३०८-३१८ आठ नाम एवं नौ नाम १.वीर रस | २. शृंगार रस निर्देश में प्रथमा उपदेश में द्वितीया करण में तृतीया संप्रदान में चतुर्थी अपादान में पंचमी सम्बन्ध में षष्ठी आधार में सप्तमी सम्बोधन में अष्टमी ३. अद्भुत रस ४. रौद्र रस ५.वीडनक रस ६.बीभत्स रस आठ नाम वचन विभक्तियाँ नौ काव्य रस आठ एवं नौ नाम ७. हास्य रस ८. कारुण्य रस ९.प्रशांत रस Jain Education Intemational Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुगम १. २. ३. ४. ५. ६. ७. नय २. नक्षत्र नाम देव नाम कुल नाम पाखंड नाम गण नाम जीवित नाम अभिप्राचिक नाम स्थापना प्रमाण निष्पन्न नाम ३. आदानपद निष्पन्न नाम २. नोगुण निष्पन्न नाम १. गुण निष्पन्न नाम अनुयोग द्वार ४. प्रतिपक्ष पद निष्पन्न नाम १. नाम प्रमाण से निष्पन्न नाम सूत्र ३३८-३६८ प्रमाण निष्पन्न नाम उपक्रम सूत्र ३१९ ३३७ दस नाम ५. प्रधानपद निष्पन्न नाम निक्षेप १. इन्द्र २. बहुवीहि ३. कर्मधारय ४. द्विगु ५. तत्पुरुष ६. अव्यवीभाव ७. एक शेष प्रयोजन आनुपूर्वी नाम प्रमाण वक्तव्यता अर्थाधिकार समवतार दस नाम प्रमाण निष्पन्न नाम ६. अनादिसिद्धान्त निष्पन्न नाम ७. नाम निष्पन नाम ८. अवयव निष्पन्न नाम ९. संयोग निष्पन्न नाम दस नाम १. धान्यमान प्रमाण दसवाँ भेद ३. द्रव्य प्रमाण निष्पन्न नाम नौवां प्रकरण ३६९-४१२ सूत्र ३६९-३८५ द्रव्य प्रमाण २. रसमान प्रमाण ४. भाव प्रमाण निष्पन्न नाम प्रयोजन सामासिक तद्धितज धातुज निरुक्तिज १०. प्रमाण निष्पन्न नाम द्रव्य प्रमाण क्षेत्र प्रमाण काल प्रमाण भाव प्रमाण २. उन्मान प्रमाण मान प्रमाण १. कर्म २. शिल्प द्रव्य संयोगज क्षेत्र संयोगज काल संयोगज भाव संयोगज ३. श्लोक ४. संयोग समीप ६. संयूथ ७. ऐश्वर्य ८. अपत्य प्रदेश निष्पन्न द्रव्य प्रमाण विभाग निष्पन्न ३. अवमान प्रमाण ४. गणिम प्रमाण ५. प्रतिमान प्रमाण Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३८५-४१२ क्षेत्र प्रमाण प्रयोजन-मनुष्यकृत पदार्थों की लम्बाई-चौड़ाई का माप प्रदेश निष्पन्न सचि आत्मांगुल तीन प्रकार क्षेत्र प्रमाण प्रतर विभाग निष्पन्न | घन अंगुल उन्सेधांगुल वितस्ति परमाणु . उत्सेधांगुल सूक्ष्म परमाणु व्यवहार परमाणु प्रयोजन-चतुर्गति के जीवों की ऊंचाई का मापन तीन प्रकार सूचि 'प्रतर रलि कुक्षि प्रमाणांगुल धनुष गव्य॒ति | धन योजन उत्सेधांगुल x १०००. प्रमाणांगुल प्रयोजन-दीप, समुद्र, पृथ्वी आदि की परिधि श्रेढि तीन प्रकार ___ लम्बाई, चौड़ाई का मापन श्रेणि प्रतर प्रवर अलोक घन दशवा प्रकरण ४१३-५०५ सूत्र ४१३-५०५ काल प्रमाण प्रदेश विष्पन | काल प्रमाण विभाग निष्पन्न समय, आवलिका. मुहुर्त, दिवस अहोरात्र पक्ष, मुहुर्त से शीर्ष प्रहेलिका तक उद्धारपल्योपम । गणक काल व्यवहार (प्रयोजन) प्ररूपणा मात्र सूक्ष्म (प्र) द्वीप सागरों की गणना मास, संवत्सर यगा अद्धापल्योपम व्यवहार (प्रयोजन) प्ररूपणा मात्र सूक्ष्म (प्र) चतुर्गति का आयुष्य काल की गणना पल्य. सागर 7 उपमाकाल अचमर्पिणी, उत्सर्पिणी [पुल परावर्तन क्षेत्रपल्योपम व्यवहार (प्र.) प्ररूपणा मात्र | सूक्ष्म (प्र) दृष्टिबाद में निरुपित द्रव्यों की गणना उद्धार सागरोपम अद्धा १० क्रोडाक्रोडपल्य ग्यारवां प्रकरण ५०६-६०४ भाव प्रमाण सूत्र ५०६-५१३ अजीव गुण प्रमाण १.वर्ण गुण प्रमाण अजीव गुण प्रमाण २.गंध गुण प्रमाण गुण प्रमाण ३. रस गुण प्रमाण | ४. स्पर्शन गुण प्रमाण जीव गण प्रमाण भाव प्रमाण नय प्रमाण ५. संस्थान गुण प्रमाण | सख्या प्रमाण Jain Education Intemational Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५१४-५५३ जीव गुण प्रमाण संख्या प्रमाण दर्शन गुण प्रमाण चक्षुदर्शन गुण प्रमाण अदर्शन गुण प्रमाण अवधिदर्शन गुण प्रमाण केवलदर्शन गुण प्रमाण चरित्र गुण प्रमाण सामायिक छेदोपस्थापनीय परिहारविशुद्धि सूक्ष्म- सम्पराय यथाख्यात प्रस्थक दृष्टान्त जीवगुण प्रमाण सूत्र ५५४-५५७ नय गुण प्रमाण ज्ञान गुण प्रमाण नाम संख्या २. स्थापना संख्या २. द्रव्य संख्या ४. औपमम्य संख्या ५. परिमाण संख्या ६. ज्ञान संख्या ७. गणना संख्या ८. भाव संख्या नय गुण प्रमाण सूत्र ५५८-५७३ संख्या प्रमाण प्रत्यक्ष अनुमान उपमा झन्द्रय प्रत्यक्ष वसति दृष्टान्त नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष १. श्रोत्रेन्द्रिय २. चक्षुरिन्द्रिय ३. धाणेन्द्रिय ४. रसनेन्द्रिय ५. स्पर्शनन्द्रिय पूर्ववत् शेषवत् दृष्टसाधर्म्यवत साधम्योंपनीत वैधम्योंपनीत लौकिक लोकोत्तर प्रदेश दृष्टान्त सत् से सत् की उपमा सत् से असत् की उपमा असत् से सत् की उपमा असत् से असत् की उपमा कालिकश्रुत परिमाण संख्या दृष्टिवादश्रुत परिमाण संख्या अवधिज्ञान प्रत्यक्ष मनः पर्यवज्ञान केवलज्ञान पर्यव, अक्षर, संघात, पद, पाद, गाथा, श्लोक, वेढा, निर्युक्ति, अनुयोगद्वार, उद्देश, ' अध्ययन, श्रुतस्कन्ध, अंग संख्या कार्य से कारण से गुण से अवयव से आश्रय से अनेक प्रकार पर्यव.... अनुयोगद्वार प्राभृत, प्राभृतिका, प्राभृत-प्राभृतिका, वस्तु संख्या, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५७४-६०३ गणना संख्या प्रमाण जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य संख्यात मध्यम परीत असंख्यात उत्कृष्ट जघन्य गणना संख्या युक्त मध्यम अनन्त असंख्यात-असंख्यात उत्कृष्ट जघन्य परीत मध्यम युक्त अनन्त-अनन्त जघन्यपरीत अनन्त मध्यमपरीत अनन्त उत्कृष्ट परीत अनन्त उत्कृष्ट | जघन्य अनन्त अनन्त मध्यम अनन्त अनन्त उत्कृष्ट अनन्त- अनन्त - जघन्ययुक्त अनन्त मध्यमयुक्त अनन्त परीतयुक्त अनन्त वारहवां प्रकरण ६०-६१३ सूत्र ६०५-६१७ वक्तव्यता, अर्थाधिकार, समवतार | १.स्वसमय वक्तव्यता २. पर समय वक्तव्यता -३.स्वसमय-पर समय वक्तव्यता प्रमाण वक्तव्यता अर्थाधिकार उपक्रम नाम समवतार ११. सावध योग विरति २. उत्कीर्तन ३. गुणवान की प्रतिपत्ति | ४. स्खलित की निदा 14.वण चिकित्सा आनपवी । १. नाम २.स्थापना ६. गुण धारण ५.काल ६.भाव Jain Education Intemational Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम, तेरहवा प्रकरण ६१८-७१५ सूत्र ६१८-७०९ निक्षेप स्थापना, द्रव्य, अध्ययन भाव अक्षीण नाम, स्थापना, १. | ओघनिष्पन्न निक्षेप द्रव्य, आय भाव उपक्रम क्षपणा. नाम, नाम, अनुयोग द्वार | स्थापना, स्थापना, द्रव्य, नक्षप द्रव्य, | भाव अनुगम भाव २. नाम निष्पन्न निक्षेप सामायिक माम सामायिक स्थापना सामायिक द्रव्य सामायिक, भाव सामायिक ३. सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप सूत्र ७१०-७१५ अनुगम और नय अनुयोगद्वार २.निक्षेप सूत्रानुगम नियुक्ति अनुगम निक्षेप नियुक्ति अनुगम उपोद्घात नियुक्ति अनुगम सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति अनुगम ३. अनुगम अनुयोगद्वार ४.नय १.उपक्रम १. उद्देश २.निर्देश ३.निर्गम ४. क्षेत्र ५. काल ६.पुरुष नैगम २. संग्रह ७.कारण- ८. प्रत्यय ९. लक्षण १०.नय ११. समवतार १२. अनुमत् १३. क्या? १४. कितने प्रकार? १५. किसको? १६.कहा:? १७.किसमें? १८. कैसे? १९.कितने काल तक व्यवहार ऋजुसूत्र शब्द २०.कितने २१. अन्तर २२. निरन्तरता २३. भव समभिरुढ एवं भूत २४. भाकर्ष २५. स्पर्श २६. निरुक्ति Jain Education Intemational arsanal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकरण (सूत्र १-२८) Jain Education Intemational Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख अनुयोगद्वार व्याख्या पद्धति का सूत्र है । संघदासगणी ने व्याख्या पद्धति का प्रथम अङ्ग नन्दी बतलाया है । नन्दी पंच ज्ञानात्मक होती है ।' प्रस्तुत सूत्र का प्रारम्भ पांच ज्ञान से ही होता है । सूत्रकार ने चार ज्ञान स्थाप्य हैं, हमारा सारा व्यवहार श्रुतज्ञान से चलता है - यह प्रतिपादित कर शब्द और ज्ञान के सम्बन्ध की पृष्ठभूमि प्रस्तुत की है । अध्ययन, अध्यापन आदि सब श्रुतज्ञान के इसलिए प्रस्तुत सूत्र में श्रुतज्ञान का प्रतिपादन है। जैन दृष्टि से श्रुतज्ञान के दो । अंग बाह्य के दो विभाग किए गए हैं-कालिक और उत्कालिक । उत्कालिक क्षेत्र में होते हैं । व्याख्या भी श्रुतज्ञान का विषय है विभाग किए गए हैं - १. अंग प्रविष्ट २. अंग बाह्य का प्रथम विभाग है- आवश्यक । प्रस्तुत प्रकरण में आवश्यक को निक्षेप पद्धति से समझाया गया है । प्रकरणवश निक्षेप का नियम भी प्रदर्शित है। अभिलषित वस्तु तक पहुंचने के लिए निक्षेप पद्धति बहुत उपयोगी है। इस संश्लेषात्मक जगत् में विश्लेषणात्मक पद्धति का उपयोग किए बिना अभिलषित वस्तु तक पहुंच नहीं सकते । इसलिए जैन आचार्यों ने निक्षेप पद्धति का विकास किया है। प्रस्तुत प्रकरण में उसे सहज सरलता के साथ बतलाया गया है । १. वृभा १ पृ. ३ : नंदी य मंगलट्ठा, पंचग दुग तिग दुगे य चोट्सए । अंगगयमणंगगए, कायध्व परूवणा पगयं ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ नाण-पदं १. नाणं णितं तं जहा आभिणिबोहियनाणं सुयनाणं ओहिनाणं मणवज्जवनाणं केवलनाणं ॥ आवस्यअणु-पर्व २. तत्व बतारि नागाई ठप्पाई ठवणिज्जाईनो उद्दिस्संति, नो समुद्दिस्संति नो अणुण्णविज्जंति, सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्त ॥ ३. जइ सुवनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अण्णा अणुओगो य पवत्तइ, कि अंगपविटुस्स उद्देसो समुहसो अणुष्णा अणुओगो व पवत्त ? अंगवाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुष्णा अणुओगो य पवई ? अंगपट्ठिस्स वि उद्देसो समुद्देतो अणुष्णा अणुओगो प अंगबाहिरस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओोगो व पवई । इमं पुष पुण पट्टवणं पटुवणं पटुच्च अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अण्णा अणुओगो य पवत्तई ॥ ४. जइ अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अण्णा अणओगोय पवत कि कालियस उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगोप पावत ? उनकालि यस्स उद्देसो समुद्देसो अगुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ? कालियरस विउसो समुदेसो अणुष्णा अणुओगो य पवत्त, उक्कालियस्स पहला प्रकरण संस्कृत छाया ज्ञान-पदम् प्रज्ञप्तम्, ज्ञानं पञ्चविधं तद्यथा - आभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं अवधिज्ञानं मनः पर्यवज्ञानं केवलज्ञानम् ॥ आवश्यक अनुयोग-पदम् तत्र चत्वारि ज्ञानानि स्थाप्यानि स्थापनीयानि-नो उद्दिश्यन्ते नो समुद्दिश्यन्ते नो अनुज्ञायन्ते, श्रुतज्ञानस्य उद्देश : समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते । यदि ज्ञानस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते, किम प्रविष्टस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्त्तते ? अङ्गबाह्यस्य उद्देशः समुद्देश: अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते ? अवस्य अपि उद्देश समुद्देशः अनुशा अनुयोगच प्रवर्तते अवाह्यस्य अपि उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते । इमां पुनः प्रस्थापनां प्रतीत्य अङ्गबाह्यस्य उद्देशः समुद्देशः अनुसा अनुयोगव प्रवर्तते । यदि अङ्गबाह्यस्य उद्देश : समुद्देश: अनुजा अनुयोगश्च प्रवर्तते, कि कालिकस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुचरकालिकस्य उद्देश : समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगव प्रवर्तते ? कालिकस्य अपि उद्देश : समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगच प्रवर्तते उत्कालिकस्य अपि उद्देशः समुद्देशः हिन्दी अनुवाद ज्ञान-पद १ १. ज्ञान के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआभिनिवोधिज्ञान श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान । आवश्यक अनुयोग पद २. उनमें चार ज्ञान (प्रतिपादन में अक्षम होने के कारण) स्वाप्य (असभ्यवहार्य) है अतएव स्वापनीय है।' उनके उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा नहीं होती, श्रुतज्ञान का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग (व्याख्या) प्रवृत्त होता है।' ३. यदि श्रुतज्ञान का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है, तो क्या अंग-प्रविष्ट त का उद्देश, समुद्देश, अनुशा और अनुयोग प्रवृत्त होता है ? अथवा अंगबाह्य श्रुत का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है ? अंग प्रविष्ट श्रुत का भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है, बंग बाह्य श्रुत का भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है। प्रस्तुत प्रस्थापना की दृष्टि से अंगबाह्य श्रुत का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है। ४. यदि अंगवा धूत का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है, तो क्या श्रुत का उद्देश, समुद्देश, अनुशा और अनुयोग प्रवृत्त होता है ? अथवा उत्कालिक श्रुत का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है । कालिक श्रुत का भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि उद्देसो समुद्देतो अणुण्णा अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते। इमां अणुओगो य पवत्तइ, इमं पुण पुनः प्रस्थापना प्रतीत्य उत्कालिकस्य पट्टवणं पडुच्च उक्कालियस्स उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो प्रवर्तते। य पवत्तइ॥ अणुओगदाराई उत्कालिक श्रुत का भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है। प्रस्तुत प्रस्थापना की दृष्टि से उत्कालिक श्रुत का उद्देश, समुद्दे श, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त ५. जइ उक्कालियस्स उद्देसो यदि उत्कालिकस्य उद्देशः समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते, पवत्तइ, कि आवस्सयस्स उद्देसो किम् आवश्यकस्य उद्देशः समुद्देशः समुद्देसो अणण्णा अणुओगो य अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते ? आवपवत्तइ? आवस्सयवतिरित्तस्स श्यकव्यतिरिक्तस्य उद्देशः समुद्देशः उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते ? आवय पवत्तइ ? आवस्सयस्स वि श्यकस्य अपि उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो अनुयोगश्च प्रवर्तते, आवश्यकव्यतिय पवत्तइ, आवस्सयवतिरित्तस्स रिक्तस्यापि उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा वि उद्देसो समुद्देसो अणण्णा अनुयोगश्च प्रवर्तते। इमां पुनः अणओगो य पवत्तइ। इमं पुण प्रस्थापनां प्रतीत्य आवश्यकस्य पटवणं पडुच्च आवस्सयस्स अनुयोगः । अणुओगो॥ ५. यदि उत्कालिक श्रुत का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है तो क्या आवश्यक श्रुत का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है ? अथवा आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रुत का उद्देश, समुद्देश अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है ? आवश्यक श्रुत का भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है । आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रुत का भी उद्देश, समुद्देश अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होता है। प्रस्तुत प्रस्थापना की दृष्टि से आवश्यक श्रुत का अनुयोग प्रवृत्त है।' आवस्सय-सरूव-पदं आवश्यक-स्वरूप-पदम् ६. जइ आवस्सयस्स अणुओगो, यदि आवश्यकस्य अनुयोगः, आवस्सयण्णं कि अंग? अंगाई? आवश्यक किम् अङ्गम् ? अङ्गानि ? सुयखंधो? सुयखंधा? अज्झयण? श्रुतस्कन्धः ? श्रुतस्कन्धाः ? अज्झयणाई? उद्देसो? उद्देसा? अध्ययनम् ? अध्ययनानि ? उद्देशः आवस्सयण्णं नो अंगं नो अंगाई, उद्देशाः ? आवश्यकं नो अङ्ग नो सुयखंधो नो सुयखंधा, नो अज्झयणं अङ्गानि, श्रुतस्कन्धः नो श्रुतस्कन्धाः, अज्झयणाई, नो उद्देसो नो नो अध्ययनम् अध्ययनानि, नो उद्देसा॥ उद्दशः नो उद्देशाः॥ आवश्यक-स्वरूप-पद ६. यदि आवश्यक श्रुत का अनुयोग प्रवृत्त होता है, क्या आवश्यक एक अंग है ? अथवा अनेक अंग हैं ? एक श्रुतस्कन्ध है ? अथवा अनेक श्रुतस्कन्ध हैं ? एक अध्ययन है ? अथवा अनेक अध्ययन हैं ? एक उद्देशक है ? अथवा अनेक उद्देशक हैं ? आवश्यक एक अंग नहीं है और अनेक अंग भी नहीं हैं। एक श्रतस्कन्ध है, अनेक श्रुतस्कन्ध नहीं हैं। एक अध्ययन नहीं है, अनेक अध्ययन हैं । एक उद्देशक नहीं है और अनेक उद्देशक भी नहीं हैं। आवस्सय-निक्खेव-पदं आवश्यक-निक्षेप-पदम् ७. तम्हा आवस्सयं निक्खिविस्सामि, तस्मात् आवश्यक निक्षेप्स्यामि, सुयं निक्खिविस्सामि, खंधं निक्खि- श्रुतं निक्षेप्स्यामि, स्कन्धं निक्षेप्स्यामि, विस्सामि, अज्झयणं निक्खि- अध्ययनं निक्षेप्स्यामि । विस्सामि। जत्थ य ज जाणेज्जा, यत्र च यं जानीयात्, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं। निक्षेपं निक्षिपेत् निरवशेषम् । जत्थ वि य न जाणेज्जा, यत्रापि च न जानीयात्, चउक्कयं निक्खिवे तत्थ ॥१॥ चतुष्ककं निक्षिपेत् तत्र ॥१॥ आवश्यक-निक्षेप-पद ७. इसलिए मैं आवश्यक का निक्षेप करूंगा, श्रुत का निक्षेप करूंगा, स्कन्ध का निक्षेप करूंगा, अध्ययन का निक्षेप करूंगा। जहां जितने निक्षेप ज्ञात हों वहां उन सभी (निक्षेपों) का न्यास किया जाए। जहां बहुत निक्षेप ज्ञात न हों, वहां कम से कम निक्षेप-चतुष्टय (नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव) का न्यास किया जाए। Jain Education Intemational Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकरण : सूत्र ५-१३ ८. से कि तं आवस्सयं ? आवस्सयं अथ कि तद् आवश्यकम् ? चउन्विहं पण्णत्तं, तं जहा-नामा- आवश्यकं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, वस्सयं ठवणावस्सयं दवावस्सय तद्यथा - नामावश्यकम स्थापनावश्यभावावस्सयं ॥ कम् द्रव्यावश्यकम् भावावश्यकम् ॥ ८. वह आवश्यक क्या है ? आवश्यक के चार प्रकार प्रप्जत हैं, जैसे-नाम आवश्यक स्थापना आवश्यक, द्रव्य आवश्यक, भाव आवश्यक। ६. से कि तं नामावस्सयं? नामा- अथ कि तत् नामावश्यकम् ? वस्सयं-जस्स णं जीवस्स वा नामावश्यकं यस्य जीवस्य वा अजोवस्स वा जीवाण वा अजीवाण अजीवस्य वा जीवानां वा अजीवानां वा तभयस्स वा तदुभयाण वा वा तदुभयस्य वा तदुभयेषां वा आवस्सए त्ति नामं कज्जइ। से तं आवश्यकमिति नाम क्रियते । तदेतत् नामावस्सय॥ नामावश्यकम् । ९. वह नाम आवश्यक' क्या हैं ? नाम--- आवश्यक-जिस जीव या अजीव का, जीवों या अजीवों का, जीव-अजीव दोनों का, जीवों अजीवों दोनों का आवश्यक यह नाम किया जाता है । वह नाम आवश्यक है। १०.से कि तं ठवणावस्सयं ? अथ कि तत् स्थापनावश्यकम् ? १०. वह स्थापना आवश्यक' क्या है ? स्थापना ठवणावस्सयं-जण्णं कट्टकम्मे स्थापनावश्यकम् - यत् काष्ठकर्मणि आवश्यक-काष्ठाकृति, चित्राकृति, पुस्तक वा चित्तकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्रकर्मणि वा पुस्तकर्मणि वा में अंकित चित्र, या लेप्याकृति में गूंथकर, वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा लेप्यकर्मणि वा ग्रन्थिमे वा वेष्टिमे वेष्टित कर, भरकर या जोड़कर बनाई हुई वेदिमे वा परिमे वा संघाइमे वा वा परिमे वा संघातिमे वा अक्षे वा पुतली में, अक्ष या कौड़ी में एक या अनेक अक्खे वा वराडए वा एगो वा वराटके वा एको वा अनेके वा सद्भाव-स्थापना [वास्तविक-आकृति] अथवा अणेगा वा सब्भावठवणाए वा सद्भावस्थापनया वा असद्भावस्थाप- असद्भाव स्थापना काल्पनिक आरोपण] के असम्भावठवणाए वा आवस्सए नया वा आवश्यकम् इति स्थापना द्वारा आवश्यक [आवश्यक क्रिया करते हुए त्ति ठवणा ठविज्जइ। से तं स्थाप्यते । तदेतत् स्थापनाऽऽवश्यकम् । व्यक्ति का जो रूपांकन या कल्पना की ठवणावस्सयं ॥ जाती है । वह स्थापना आवश्यक है। ११. नाम-ट्रवणाणं को पइविसेसो ? नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषः? ११. नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ? नाम नामं आवकहियं, ठवणा इत्तरिया नाम यावत्कथिकम्, स्थापना इत्वरिका यावज्जीवन होता है, स्थापना अल्पकालिक वा होज्जा आवकहिया वा ॥ वा भवेत् यावत्कथिका वा। भी होती है और यावज्जीवन भी।' १२. से कि तं दव्वावस्सयं? दवावस्सयं दुविहं पण्णत्तं, तं जहाआगमओ य नोआगमओ य॥ अय कि तत् द्रव्यावश्यकम् ? द्रव्यावश्यकं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाआगमतश्च नोआगमतश्च ।। १२. वह द्रव्य-आवश्यक' क्या है ? द्रव्य-आवश्यक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे - आगमतः [जान की अपेक्षा से] और नोआगमतः | ज्ञानाभाव और क्रिया की अपेक्षा से] । १३. से कि तं आगमओ दवावस्सयं? अथ कि तद आगमतो द्रव्या- १३. वह आगमतः द्रव्य आवश्यक क्या है ? आगमओ दवावस्सयं जस्स णं वश्यकम् ? आगमतो द्रव्यावश्यकम्- जिसने आवश्यक यह पद सीख लिया, स्थिर आवस्सए त्ति पदं सिक्खियं ठियं यस्य आवश्यकम् इति पदं शिक्षित कर लिया, चित [स्मृति-योग्य] कर लिया, जियं मियं परिजियं नामसमं स्थितं चितं मितं परिचितं नामसमं मित [श्लोक आदि की संख्या से निर्धारित घोससम अहीणक्खरं अणच्चक्खर घोषसमम् अहीनाक्षरम् अनत्यक्षरम् कर लिया] परिचित कर लिया, नाम-सम अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमि- अव्याविद्वाक्षरम् अस्खलितम् [अपने नाम के समान] कर लिया, घोष-सम लियं अवच्चामेलियं पडिपुणं अमीलितम अव्यत्यादंडितं प्रतिपूर्ण [सही उच्चारण युक्त कर लिया, जिसे वह पडिपुण्णघोसं कंठो?विप्पमुक्कं प्रतिपूर्णघोष कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं हीन, अधिक और विपर्यस्त-अक्षर रहित, गुरुवायणोवगयं, से णं तत्थ गरुवाचनोपगतं तत् वाचनया अस्खलित, अन्य वर्गों से अमिश्रित, अन्य ग्रंथवायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए प्रच्छनया परिवर्तनया धर्मकथया, नो वाक्यों से अमिश्रित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्णघोषधम्मकहाए, नो अणुप्पेहाए। अनुप्रेक्षया। कस्मात् ? अनुपयोगो युक्त, कण्ठ और होठ से निकला हुआ तथा जिसे Jain Education Intemational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई कम्हा? अणुवओगो दव्वमिति द्रव्यम् इति कृत्वा । गुरु की वाचना से प्राप्त किया जाता है, वह कटद॥ आवश्यक-पद के अध्यापन, प्रश्न, परावर्तन और धर्म-कथा में प्रवृत्त होता है तब आगमतः द्रव्य आवश्यक है। वह अनुप्रेक्षा [अर्थ के अनुचिन्तन] में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि द्रव्य निक्षेप अनुपयोग (चित्त की प्रवृत्ति से शून्य) होता है।" १४. नेगमस्स एगो अगवउत्तो नैगमस्य एकः अनुपयुक्तः १४. नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त (चित्त की आगमओ एगं दवावस्स यं, दोणि आगमतो एक द्रव्यावश्यकम्, द्वौ प्रवृत्ति से शून्य) व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य अणुवउत्ता आगमओ दोण्णि अनुपयुक्तौ आगमतो द्वे द्रव्यावश्यके आवश्यक है, दो अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः दो दव्वावस्सयाई, तिणि अणुवउत्ता त्रय अनुपयुक्ताः आगमतो त्रीणि द्रव्य आवश्यक हैं, तीन अनुपयुक्त व्यक्ति आगमओ तिष्णि दव्वावस्सधाई, द्रव्यावश्यकानि, एवं यावन्तः आगमतः तीन द्रव्य आवश्यक हैं। एवं जावइया अणुवउत्तातावइयाइं अनुपयुक्ताः तावन्ति तानि नैगमस्य इस प्रकार जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, नगम ताई नेगमस्स आगमओ दव्वा- आगमतो द्रव्यावश्यकानि । एवमेव नय की अपेक्षा उतने ही आगमतः द्रव्य आवश्यक वस्सयाई। एवमेव ववहारस्स व्यवहारस्यापि। संग्रहस्य एको वा हैं। इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा भी वि। संगहस्स एगो वा अणेगा वा अनेके वा अनुपयुक्तो वा अनुपयुक्ताः जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं उतने ही आगमतः अणुवउत्तो वा अणुवउत्ता वा वा आगमतो द्रव्यावश्यक वा द्रव्या- द्रव्य-आवश्यक हैं। आगमओ दव्वावस्सयं वा दवाव- वश्यकानि वा, तदेकं द्रव्यावश्यकम् । संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति है स्सयाई वा, से एगे दवावस्सए। ऋजुसूत्रस्य एकः अनुपयुक्तः आगमतो अथवा अनेक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, आगमतः उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो एक द्रव्यावश्यक, पृथक्त्वं नेच्छति । एक द्रव्य आवश्यक है अथवा अनेक द्रव्य आगमओ एगं दवावस्सयं, पुहत्तं त्रयाणां शब्दनयानां ज्ञः अनुपयुक्तः आवश्यक हैं, वह एक द्रव्य आवश्यक है । नेच्छइ । तिण्हं सद्दनयाणं जाणए अवस्तु। कस्मात् ? यदि ज्ञः ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति अणुवउत्ते अवत्थू । कम्हा? जइ अनुपयुक्तो न भवति। तदेतत् आगमत: एक द्रव्य-आवश्यक है। भिन्नता जाणए अणुवउत्ते न भवइ। से तं आगमतो द्रव्यावश्यकम् । उसे इष्ट नहीं है। आगमओ दवावस्सयं ।। तीनों शब्द नयों [शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत] की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता अवस्तु [वास्तविक नहीं है। क्योंकि यदि कोई ज्ञाता है तो वह अनुपयुक्त नहीं होता। वह आगमतः द्रव्य आवश्यक है।" १५.से कि तं नोआगमओ दव्वावस्सयं? अथ कि तद् नोआगमतो द्रव्या- १५. वह नोआगमत: द्रव्य-आवश्यक क्या है ? नोआगमओ दव्वावस्सयं तिविहं वश्यकम् ? नोआगमतो द्रव्यावश्यक नो आगमत. द्रव्य आवश्यक के तीन प्रकार पण्णत्तं, तं जहा--जाणगसरीर- त्रिविधं प्रजप्तम्, तद्यथा--जशरीर- प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ज्ञ-शरीर-द्रव्य-आवश्यक, दव्वावस्सयं भवियसरीरदव्वा- द्रव्यावश्यकं भव्यशरीरद्रव्यावश्यक भव्य-शरीर-द्रव्य-आवश्यक, ज्ञ-शरीर भव्यबस्सयं जाणगसरीर-भवियसरीर- ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्या- शरीर-व्यतिरिक्त द्रव्य आवश्यक । वतिरित्तं दव्यावस्सयं ॥ वश्यकम्। १६.से कि तं जाणगसरीरदव्वा- अथ कि तत् ज्ञशरीर द्रव्या- १६. वह ज्ञ-शरीर-द्रव्य-आवश्यक क्या है? वस्सयं? जाणगसरीरदव्वा- वश्यकम् ? ज्ञशरीर द्रव्यावश्यकं - ज्ञ-शरीर-द्रव्य-आवश्यक - आवश्यक इस पद वस्सयं-आवस्सए त्ति पयत्याहि- आवश्यकम् इति पदार्थाधिकारजस्य के अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति का जो गारजाणगस्स जं सरीरयं ववगय- यत् शरीरकं व्यपगतच्युतच्यावित- शरीर अचेतन, प्राण से च्युत, किसी निमित्त चय-चाविय-चत्तदेहं जीवविप्पजढं त्यक्तदेहं जीवविहीणं शय्यागतं वा से प्राणच्युत किया हुआ, अनशन द्वारा त्यक्त सेज्जागयं वा संथारगयं वा संस्तारगतं वा निषिधिकागतं वा अथवा जीव-विप्रमुक्त है, उसे शय्या, बिछौने, Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकरण : सूत्र १४-१६ निसीहियागयं वा सिद्धसिलातलगयं सिद्धशिलातलगतं वा दृष्ट्वा कोऽपि श्मशान-भूमि या सिद्ध-शिलातल पर देखकर वा पासित्ताणं कोई वएज्जा- वदेत् --अहो ! अनेन शरीर- कोई कहे-आश्चर्य है इस पौद्गलिक शरीर अहो णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं समुच्छयेण जिनदिष्टेन भावेन ने जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार जिणदिट्टेणं भावेणं आवस्सए ति आवश्यकम् इति पदं आख्यातं आवश्यक इस पद का आख्यान, प्रज्ञापन, पयं आधवियं पण्णवियं परूवियं प्रज्ञापितं प्ररूपितं दर्शितं निशितम् प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया दंसियं निदंसियं उवदंसियं। जहा उपदशितम्। यथा कः दृष्टान्तः ? है। जैसे -कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने को दिळंतो? अयं महुकुभे आसी, अयं मधुकुम्भः आसीत्, अयं घृत- कहा- इसका दृष्टान्त यह है] यह मधु-घट अयं घयकुंभे आसो । से तं जाणग- कुम्भः आसीत् । तदेतत् ज्ञशरीर- था, वह घृत-घट था। वह ज्ञ-शरीर-द्रव्यसरीरदब्वावस्सयं ॥ द्रव्यावश्यकम् । आवश्यक है। १७. से कितं भविषसरीरदवावस्सयं? अथ कि तत् भव्यशरीर द्रव्या- १७. वह भव्य-शरीर-द्रव्य-आवश्यक क्या है ? भवियसरीरदब्धावस्सयं-जे जीवे वश्यकम् ? भव्यशरीरद्रव्यावश्यक भव्य शरीर द्रव्य आवश्यक -गर्भ की पूर्णावधि जोणिजम्मणनिक्खंते इमेणं चेव यः जीवः योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त पौदगलिक आदत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिण- चैव आदत्तकेन शरीरसमुच्छयेण शरीर से "आवश्यक' इस पद को जिन द्वारा दिठेणं भावेणं आवस्सए त्ति पयं जिनदिष्टेन भावेन आवश्यकम् इति उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में सीखेगा, सेयकाले सिक्खिस्सइ, न ताव पदम् एष्यत्काले शिक्षिष्यते, न तावत् वर्तमान में नहीं सीखता है, तब तक वह सिक्खइ। जहा को दिठंतो? शिक्षते । यथा कः दृष्टान्तः ? 'अयं भव्य-शरीर-द्रव्य-आवश्यक है। जैसे कोई अयं महुकुंभे भविस्सइ, अयं घय- मधुकुम्भः भविष्यति, अयं घृतकुंभः दृष्टान्त है? कुभे भविस्सइ ।से तं भवियसरीर- भविष्यति । तदेतत् भव्यशरीर- [आचार्य ने कहा-इसका दृष्टान्त यह है] यह दव्वावस्सयं ॥ द्रव्यावश्यकम् । मधु-घट होगा, यह घृत-घट होगा । वह भव्य शरीर-द्रव्य-आवश्यक है। अथ कि तत् ज्ञ शरीर-भव्य- १८. वह ज्ञ-शरीर-भव्य-शरीर-व्यतिरिक्त-द्रव्यसरीर-वतिरित्तं दबास्सयं? शरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकम् ? आवश्यक क्या है ? ज्ञ-शरीर-भव्य-शरीरजाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्तं ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्या- व्यतिरिक्त-द्रव्य-आवश्यक के तीन प्रकार प्रज्ञप्त दवावस्सयं तिविहं पण्णत्तं, तं वश्यकं त्रिविधं प्रजप्तम् तद्यथा -- हैं, जैसे-लौकिक, कुप्रावनिक, लोकोत्तरिक । जहा-लोइयं कुप्पावयणियं लौकिकं कुप्रावचनिक लोकोत्तरिकम् । लोगुत्तरियं ॥ १६.से कि तं लोइयं दवावस्सयं? अथ कि तत लौकिकं लोइयं दवावस्सयं जे इमे द्रव्यावश्यकम? लौकिक द्रव्याराईसर-तलवर-माइंबिय-कोडुबिय- वश्यकम् ये इमे राजेश्वर-तलवरइब्भ-सेटि-सेणावइ-सत्थवाहप्पभि- माडम्बिक-कौटुम्बिक- इभ्य - श्रेष्ठी - इओ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए सेनापति-सार्थवाहप्रभृतयः कल्यं सुविमलाए फुल्लुप्पल-कमल-कोम- प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां सुविमलायां लुम्मिलियम्मि अहपंडुरे पभाए फुल्लोत्पल - कमल - कोमलोन्मीलिते रत्तासोगप्पगास - किसुय - सुयमुह- यथापाण्डुरे प्रभाते रक्तशोकप्रकाशगुंजद्धरागसरिसे कमलागर-नलि- किंशुक - शुकमुखगुजार्द्धरागसदृशे णिसंडबोहए उट्ठियम्मि सूरे कमलाकर-नलिनीषण्डबोधके उत्थिते सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा सूयें सहस्र रश्मौ दिनकरे तेजसा जलंते मुहधोयण-दंतपक्खालण- ज्वलति मुखधावने-दन्तप्रक्षालने-तलंतेल्ल-फणिह-सिद्धत्थय-हरियालिय- फणिह-सिद्धार्थक-हरितालिका- अद्दागअदाग-धव-पुष्क-मल्ल-गंध-तंबोल- धूप-पुष्प-माल्य-गन्ध - तम्बोल-वस्राणि १९. वह लौकिक-द्रव्य-आवश्यक क्या है ? लौकिक द्रव्य आवश्यक-उषा काल में पौ फटने पर और रात्रि के निर्मल होने पर, प्रफुल्लित उत्पल और अर्ध विकसित कोमल कमल वाले, पीत आभा वाले अरुणिम प्रभात में, लाल अशोक की दीप्ति, पलाश, तोते के मुख और गुजार्ध के समान रंग वाले, जलाशय गत नलिनी-वन के उद्बोधक, सहस्ररश्मि, दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर जो राजा, युवराज, तलवर (कोतवाल), मडम्बपति, कुटुम्बपति, इभ्य, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि मुख धोते हैं, दांत पखालते हैं, तैल लगाते हैं, कंघी करते हैं, श्वेत सरसों और दूब सिर में डालते हैं, दर्पण देखते हैं, Jain Education Intemational Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई वत्थाइयाई दवावस्सयाई काउं द्रव्यावश्यकानि कृत्वा ततः पश्चात् तओ पच्छा रायकुलं वा देवकुलं राजकुलं वा देवकुलं वा आरामं वा वा आरामं वा उज्जाणं वा सभं उद्यानं वा सभां वा प्रपा वा वा पवं वा गच्छति । से तं लोइयं गच्छन्ति । तदेतत् लौकिकं द्रव्यादव्वावस्सयं ॥ वश्यकम् । धूप करते हैं, फूल, माला, गन्ध, ताम्बूल, वस्त्र आदि का प्रयोग करते हैं। वे इन द्रव्य आवश्यक-क्रियाओं को सम्पन्न कर राजकुल, देवकुल, आराम, उद्यान, सभा अथवा प्रपा में जाते हैं। वह लौकिक-द्रव्यआवश्यक है। २०. से कि तं कुप्पावयणियं दवा- अथ किं तत् कुप्रावचनिकं द्रव्या- २०. वह कुप्रावनिक-द्रव्य-आवश्यक क्या है ? वस्सयं? कृपावयणियं दव्वा- वश्यकम् ? कुप्रावनिक द्रव्यावश्यकम्- कुप्रावचनिक-द्रव्य-आवश्यक ---उषा काल में वस्सयं-जे इमे चरग-चीरिय- ये इमे चरक-चीरिक-चर्मखण्डिक- पौ फटने पर और रात्रि के निर्मल होने पर चम्मखंडिय - भिक्खोंड - पंडुरंग- भिक्षोण्ड-पाण्डुरांग-गौतम -गोव्रतिक- प्रफुल्लित उत्पल और अर्ध विकसित कोमल गोयम-गोव्वइय - गिहिधम्म-धम्म- गृहिधर्म-धर्मचिन्तक-अविरुद्ध- विरुद्ध- कमल वाले पीत आभा वाले अरुणिम प्रभात चितग- अविरुद्ध- विरुद्ध- वुड्डसाव- वृद्धधावकप्रभृतयः पाषण्डस्थाः कल्यं में लाल अशोक की दीप्ति, पलाश, तोते के गप्पभिडओ पासंडत्या कल्लं- प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां सुविमलायां मुख और गुजार्ध के समान रंग वाले, जलापाउप्पभायाए रयणीए सुविमलाए फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलिते यथा- शयगत नलिनी वन के उद्बोधक, सहस्ररश्मि, फुल्लुप्पल- कमल - कोमलुम्मिलि- पाण्डुरे प्रभाते रक्ताशोकप्रकाश- दिनकर, सूर्य के उदित और तेज से देदीप्ययम्मि अहपंडरे पभाए रत्तासो- किंशुक - शुकमुख - गुजार्द्धरागसदृशे मान होने पर जो चरक, चीरिक, चर्मखण्डिक, गप्पगासकिसुय-सुयमुह-गुंजद्धराग- कमलाकर-नलिनीषण्डबोधके उत्थिते भिक्षाजीवी, शैव, गौतम, गोव्रती, गृहधर्मी, सरिसे कमलागर-नलिणिसंडबोहए सूर्ये सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा धर्मचिन्तक, अविरुद्ध, विरुद्ध और वृद्धश्रावक उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि ज्वलति इन्द्रस्य वा स्कन्दस्य वा आदि विभिन्न पाषण्डों [धर्म सम्प्रदायों के दिणयरे तेयसा जलंते इंदस्स वा रुद्रस्य वा शिवस्य वा वैश्रवणस्य वा अनुयायी, इन्द्र, कार्तिकेय, रुद्र, शिव, वैश्रवण, खंदस्स वा रुद्दस्स वा सिवस्स वा देवस्य वा नागस्य वा यक्षस्य वा देव, नाग, यक्ष, भूत, बलदेव, आर्या और वेसमणस्स वा देवस्स वा नागस्स भूतस्य वा मुकुन्दस्य वा आर्यायाः कोट्टक्रिया के [मन्दिर में] उपलेपन, संमार्जन वा जक्खस्स वा भूयस्स वा मुगु- वा कोट्टक्रियायाः वा उपलेपन सिंचन, धूप, फूल, गन्ध ओर माला आदि दस्स वा अज्जाए वा कोट्टकिरि- सम्मार्जन-आवर्षण धूप-पुष्प-गंध- द्रव्य-संबंधी-आवश्यक-क्रियाओं को सम्पन्न याए वा उवलेवण-सम्मज्जण- माल्यादिकानि द्रव्यावश्यकानि करते हैं। वह कुप्रावनिक-द्रव्य आवश्यक आवरिसण-धूव-पुष्फ-गंध-मल्लाइ- कुर्वन्ति । तदेतत् कुप्रावचनिक द्रव्यायाई दव्वावस्सयाई करति । से तं वश्यकम् । कुप्पावयणियं दव्वावस्सयं ॥ २१. से कि तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं? अथ किं तत् लोकोत्तरिक द्रव्या- २१. वह लोकोत्तरिक-द्रव्य-आवश्यक क्या है ? लोगृत्तरियं दब्वावस्सयं-जे इमे वश्यकम् ? लोकोत्तरिक द्रव्या- लोकोत्तरिक द्रव्य-आवश्यक-जो श्रमण समणगुणमुक्कजोगी छक्कायनिर- वश्यकम् --ये इमे श्रमणगुणमुक्त- श्रमण के गुणों से शून्य प्रवृत्ति वाले, छहकाय णकंपा हया इव उद्दामा गया योगिनः षट्कायनिरनुकम्पाः हयाः के जीवों के प्रति अनुकम्पा-रहित, घोड़े की इव निरंकुसा घट्ठा मट्ठा इव उद्दामाः गजाः इव निरंशाः भांति उद्दाम, हाथी की भांति निरंकुश, शरीर तुप्पोट्टा पंडुरपाउरणा जिणाणं घृष्टाः मृष्टाः तुप्पोष्ठाः पाण्डर- का घर्षण और तेल आदि से मर्दन करने अणाणाए सच्छंदं विहरिऊणं प्रावरणाः जिनानाम् अनाज्ञया स्वच्छन्दं वाले, चुपड़े होठ वाले, उजले वस्त्र पहनने उभओकालं आवस्सयस्स विहृत्य उभयकालम् आवश्यकाय वाले, तीर्थंकरों की आज्ञा से बाहर स्वच्छंद उवठंति। से तं लोगुत्तरियं उपतिष्ठन्ते। तदेतत् लोकोत्तरिक विहार कर जो दोनों समय आवश्यक के लिए दवावस्सयं । से तं जाणगसरीर- द्रव्यावश्यकम् । तदेतत् ज्ञशरीर-भव्य- उपस्थित होते हैं। वह लोकोत्तरिक-द्रव्यभवियसरीरवतिरित्तं दवावस्स। शरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकम् । आवश्यक है। वह ज्ञ-शरीर-भव्य-शरीरसे तं नोआगमओ दवावस्सयं । से तदेतत् नोआगमतो द्रव्यावश्यकम् । व्यतिरिक्त-द्रव्य-आवश्यक है । वह नोआगमतः तं दवावस्सयं ॥ तदेतत् द्रव्यावश्यकम् । द्रव्य-आवश्यक है । वह द्रव्य-आवश्यक है। Jain Education Intemational Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकरण : सूत्र २०-२७ २२. से कि तं भावावस्सयं? भावा- अथ किं तद् भावावश्यकम् ? वस्सयं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा - भावाश्यक द्विविधं प्रजप्तम्, तद्यथाआगमओ य नोआगमओ य॥ आगमतश्च नोआगमतश्च । २२. वह भाव-आवश्यक क्या है ? आवश्यक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-आगमतः और नोआगमतः । २३. से कि तं आगमओ भावावस्सयं? अथ कि तद् आगमतो भावा- २३. वह आगमता-भाव-आवश्यक क्या है? आगमओ भावावस्सयं-- जाणए वश्यकम् ? आगमतो भावावश्यकम्- आगमत: भाव आवश्यक-जो आवश्यक को उवउत्ते । से तं आगमओ भावा- ज्ञः उपयुक्तः । तदेतत् आगमतो जानता है और उसमें उपयुक्त [दत्तचित्त है वस्सयं ॥ भावावश्यकम् । वह आगमत:-भाव-आवश्यक है। २४. से कि तं नोआगमओ भावा- अथ कि तद् नोआगमतो भावा- २४. वह नोआगमत:-भाव-आवश्यक क्या है ? बस्सयं? नोआगमओ भावा- वश्यकम ? नोआगमतो भावावश्यक नोआगमतः भाव आवश्यक के तीन प्रकार वस्सयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा- त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-लौकिक प्रज्ञप्त हैं, जैसे-लौकिक, कुप्रावनिक और लोइयं कुप्पावणियं लोगुत्तरियं ॥ कुप्रावचनिकं लोकोत्तरिकम् । लोकोत्तरिक । २५. से कि तं लोइयं भावावस्सयं? अथ कि तद लौकिकं भावा- २५. वह लौकिक-भाव-आवश्यक क्या है ? लोइयं भावावस्सयं-पुवण्हे वश्यकम् ? लौकिकं भावावश्यकम् - लौकिक-भाव-आवश्यक-[वक्ता और श्रोता] भारहं, अवरण्हे रामायणं । से तं पूर्वाह्न भारतम्, अपराह्न पूर्वाल्ल में भारत और अपराल में रामायण लोइयं भावावस्सयं ॥ रामायणम् । तदेतत् लौकिकं भावा- के पाठ में उपयुक्त होते हैं । वह लौकिक भाव वश्यकम् । आवश्यक है। २६. से कि तं कुप्पावयणियं भावा- अथ कि तत् कप्रावनिक भावा- २६. वह कुप्रावनिक-भाव-आवश्यक क्या है ? वस्सयं? कुप्पावणियं भावा- वश्यक ? कुप्रावनिकं भावा- कुप्रावनिक-भाव-आवश्यक-जो चरक, वस्सयं-जे इमे चरग-चीरिय- वश्यकम् -ये इमे चरक-चीरिक-चर्म- चीरिक, चर्मखण्डिक, भिक्षाजीवी, शैव, चम्मखंडिय - भिक्खोंड - पंडुरंग - खण्डिक-भिक्षोण्ड-पाण्डुरांग - गौतम गौतम, गोव्रती, गृहधर्मी, धर्मचिन्तक, अविरुद्ध, गोयम-गोव्व इय-गिहिधम्म - धम्म- गोवतिक-गहिधर्म-धर्मचिंतक-अविरुद्ध विरुद्ध और बुद्ध-श्रावक आदि विभिन्न पाषण्डों चित्तग-अविरुद्ध-विरूद्ध - वुड्डसाव- विरुद्ध वृद्धश्रावकप्रभृतयः पाषडस्थाः [धर्म-सम्प्रदायों] के अनुयायी, देव-पूजा, गप्पभिइओ पासंडत्या इज्जंजलि- इज्याञ्जलि-होम-जप- 'उंदुरुक्क'-- अञ्जलि, होम, जप, देव आदि के सामने होम-जप-उंदुरुक्क-नमोक्कारमाइ- नमस्कारादिकानि भावावश्यकानि बैल की तरह रंभाना और नमस्कार आदि याइं करेति । से तं कुप्पावयणियं कुर्वन्ति । तदेतत् कुप्रावनिक भाव युक्त आवश्यक क्रियाओं को संपन्न करते भावावस्सयं ॥ भावावश्यकम् । हैं, वह कुप्रावनिक-भाव-आवश्यक है। २७. से कि तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं? अथ कि तत् लोकोत्तरिकं भावा- २७. वह लोकोतरिक-भाव-आवश्यक क्या है? लोगृत्तरियं भावावस्सयं-जण्णं वश्यकम ? लोकोतरिकं भावावश्यक- लोकोत्तरिक - भाव - आवश्यक -जो साधु, इमं समणे वा समणी वा सावए यत् इदं श्रमणः वा श्रमणी वा श्रावका साध्वी, श्रावक और श्राविका आवश्यक में वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे वा श्राविका वा तच्चित्तः तम्मनाः एक चित्त, एक मन, एक लेश्या और एक तल्लेसे तदझवसिए तत्तिव्वज्झ- तल्लेश्यः तदध्यवसित. ततीव्राध्यव- अध्यवसाय वाले, उसी में तीव्र अध्यवसाय वसाणे तबट्टोवउत्ते तदप्पियकरणे- सानः तदर्थोपयुक्तः तपित-करण: वाले, उसके अर्थ में उपयुक्त, उसके लिए सब तब्भावणाभाविए अण्णत्थ कत्थइ तद्भावनाभावितः अन्यत्र कुत्रचित् इन्द्रियों को समर्पित करने वाले, उसकी मणं अकरेमाणे उभओ कालं मनः अकुर्वन् उभयकालम् आवश्यक भावना से भावित अन्यत्र कहीं भी मन की आवस्सयं करेति। से तं __ करोति । तदेतद लोकोत्तरिक भावा- प्रवृत्ति नहीं करते हुए दोनों समय (प्रातः लोगुत्तरियं भावावस्सयं। से तं वश्यकम् । तदेतत् नोआगमतो और सायं) आवश्यक करते हैं। वह लोकोनोआगमओ भावावस्सयं। से तं भावावश्यकम् । तदेतत् भावा- तरिक-भाव-आवश्यक है। वह नोआगमत:भावावस्सयं ॥ वश्यकम् । भाव-आवश्यक है। वह भाव-आवश्यक है।" Jain Education Intemational Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ २८. तरसणं इमे एडिया नाणाघोसा नाणावंजणा नामधेज्जा भवंति तं जहा गाहा आवस्यं अवस्सकर णिज्जं, ध्रुवनिगहो बिसोही य अभयवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो ॥१॥ समणेण सावएण य, अवस्सकायन्वं हवइ जम्हा, अंत अहोनिसस्स उ तम्हा आवस्तयं नाम ॥२॥ से तं आवस्यं ॥ तस्य इमानि एकाथिकानि नानाघोषाणि नानाव्यञ्जनानि नामधेयानि भवन्ति तद्यथा - गाथा आवश्यकम् अवश्यकरणीयं, निः विशोधित्व । अध्ययनकर्म न्यायः आराधना मार्गः ॥ १ ॥ श्रमणेन श्रावकेण च, अवश्य कर्त्तव्यं भवति यस्मात् । अंतःि तस्मात् आवश्यकं नाम ॥ २ ॥ तदेतत् आवश्यकम् । अणुओगवाराह २८. उस आवश्यक के ये एकार्थिक नाना घोष और नाना व्यञ्जन वाले नाम होते हैं, जैसे (१) आवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रुव-निग्रह, विशोधि, अध्ययनषट्कवर्ग, न्याय, आराधना, और मार्ग । (२) यह साधु और श्रावक द्वारा दिन-रात के सन्धिकाल में अवश्य है, इसलिए इसका नाम आवश्यक है ।" वह आवश्यक है । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र १ १. ज्ञान के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं । ( णाणं पंचविहं पण्णत्तं ) अनुयोगद्वार व्याख्या के सिद्धांतों, विधियों तथा शिक्षा की प्रविधियों का प्रतिपादन करने वाला आगम है । व्याख्या का सम्बन्ध श्रुतज्ञान से है । इस प्रश्न को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने सर्वप्रथम ज्ञानसूत्र का निरूपण किया है। जैन ज्ञान मीमांसा में पांच ज्ञान माने जाते हैं-आभिनिवोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान । इनमें चार ज्ञान शिक्षा और व्याख्या से संबद्ध नहीं हैं। शिक्षा और व्याख्या से सम्बन्ध केवल श्रुतज्ञान का है । इस विश्लेषण की दृष्टि से पहले पांच ज्ञानों का निरूपण किया गया है। फिर चार ज्ञानों को स्थाप्य बतलाकर शिक्षा के लिए श्रुतज्ञान की उपयोगिता बतलाई गई है। ज्ञान का प्रतिपादक सूत्र 'नन्दी' है। किन्तु श्रुतज्ञान का प्रतिपादक सूत्र 'अनुयोग द्वार' है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर ज्ञान सूत्र का प्रथम सूत्र के रूप में उपन्यास किया गया है। चूर्णिकार ने प्रथम सूत्र को ज्ञान सूत्र के रूप में उपन्यस्त करने का कारण बताया है- विघ्न का उपशमन । उन्होंने मंगल के चार रूप बताए हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव भावमंगल में ' णमो अरहंताणं' इस महामंत्र को प्रस्तुत किया है। वैकल्पिक रूप में उन्होंने मंगल का अर्थ किया है 'नन्दी' । नाम, स्थापना और द्रव्य नन्दी का कथन करने के बाद भाव नन्दी के प्रसङ्ग में लिखा है - " णाणं पंचविधं पण्णत्तं" । " हारिभद्रया वृत्ति में ज्ञान की सर्वव्यापकता और अर्थगौरव को ध्यान में रखकर ग्रन्थ की आदि में इसके उपन्यास की सूचना दी है ।" मलधारीया वृत्ति में विघ्न शमन और शिष्टजन सम्मत परम्परा का निर्वाह – इन दो हेतुओं की प्रेरणा से मंगल रूप में ज्ञान- पंचक के ग्रहण का संकेत किया है। व्याख्याकारों ने ज्ञान सूत्र के विषय में जो लिखा है वह आदि मंगल की दृष्टि से लिखा है। वास्तव में प्रारम्भ में ज्ञान सूत्र का उल्लेख शिक्षा और व्याख्या की दृष्टि से किया गया है। सूत्र २ २. चार ज्ञान प्रतिपावन में अक्षम होने के कारण स्वाप्य असंव्यवहार्य हैं अतः स्थापनीय हैं। (चत्तारि नाणाई ठप्पाई ठवणिजाई ) ज्ञान दो प्रकार का होता है—अनुभवात्मक और शब्दात्मक अनुभवात्मक ज्ञान से व्यक्ति स्वयं लाभान्वित होता है और शब्दात्मक ज्ञान से वह अपने अनुभवों को दूसरों तक पहुंचाने में सक्षम बन जाता है। अनुभवात्मक ज्ञान को मूक तथा शब्दात्मक ज्ञान को अमूक कहा जाता है। इन्हें स्वार्थ और परार्थं बोध कहा जा सकता है । न्याय ग्रन्थों में अनुमान के दो भेद किए गए हैं स्वार्थ और परार्थ । मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान का वाणी से कोई सम्बन्ध नहीं है । अतः ये मूक या स्वसंवेद्य होने से स्वार्थ हैं । श्रुतज्ञान स्वार्थ भी है और परार्थ भी । जो श्रुतज्ञान है शब्दोन्मुख है पर अब तक शब्दात्मक नहीं बना है वह स्वार्थ है । शब्दजनित श्रुतज्ञान भी स्वार्थ है । जो १. अचू. पृ. १ : तं च काउकामो गुरू विग्घोवसमणिमित्तं आदीए मंगलपरिग्गहं करेइ, तच्च मंगलं चउविहंपि णामादि णिक्खिवियव्वं तत्थ णामठवणादव्वं मंगलेसु विहिणा खाते भावमंगलाहिगारे पत्ते भणेति णमो अरहंताणं' इच्चादि, अहवा मंगला गंदी, सा चतुविधा णामादि, इहंपि णामवणादन्वनंदीवक्खाण कते भावनंदीऽवसरे पत्ते भणति 'णाणं पंचविधं पण्णत्तं' । २. अहावृ. पृ. १ : सकलाध्ययनव्यापकत्वान्महार्थत्वाच्चादावेव मङगलशब्दाभिधानपूर्वकमुपन्यासमुपदर्शयता ग्रन्थकारेणे दमभ्यधायि । ३. अमवृ. प. ३ : तदुपशमार्थं शिष्टसमयपरिपालनार्थं चादौ मंगलरूपं सूत्रमाह- 'नाणं पंचविहं' । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अणुओगदाराई श्रुतज्ञान दूसरों को समझाने के लिए शब्दबद्ध हो जाता है वह परार्थश्रुत की कोटि में आता है । ___ जो सुना जाता है वह श्रुत है। यह इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है । इसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ है-वाच्य-वाचक के सम्बन्ध से होने वाला ज्ञान । इसके अनुसार पौद्गलिक शब्द श्रुत है । यह श्रुत पौद्गलिक होने से आत्मा का भाव नहीं हो सकता । परमार्थतः श्रुतज्ञान जीव है। जो श्रुतज्ञान व्यवहार में उपयोगी बनता है वह द्रव्यश्रुत होता है । श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष ज्ञान शब्दातीत हैं । अतः वे अपने स्वरूप का विश्लेषण करने में असमर्थ हैं। असमर्थता के कारण ही वे स्थाप्य हैं । चूर्णिकार और टीकाकार के अनुसार स्थाप्य का अर्थ है असंव्यवहार्य ।' जिसका दूसरों के लिए उपयोग हो सके वह व्यवहार्य होता है । एक व्यक्ति के मतिज्ञान आदि का दूसरे के लिए उपयोग नहीं होता-दूसरा कुछ जान नहीं पाता इसलिए ज्ञान-चतुष्टय असंव्यवहार्य है। अनुयोगद्वार शिक्षा व व्याख्या की पद्धति का सूत्र है। शिक्षा क्रम में अनुपयोगी होने के कारण चार ज्ञान उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की क्रियाओं में स्थापनीय हैं। श्रुतज्ञान शब्दात्मक है इसलिए वह संव्यवहार्य और लोकोपकारक है। इसलिए उसके उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग होते हैं । मतिज्ञान आदि चार ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से निष्पन्न होते हैं। श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से निष्पन्न होता है। किन्तु उसके साथ दो नियम भी जुड़े रहते हैं—मतिपूर्वकता और परोपदेश । श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, यह एक नियम है। इसका दूसरा नियम है-परोपदेश । प्रत्येक बुद्ध आदि के श्रुतज्ञान भी स्वतः होता है। किन्तु सामान्यतः वह गुरु के अधीन है। पराधीन होने पर भी वह वस्तु के स्वरूप का बोध कराने में समर्थ है। विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया दीपक अपनी उत्पत्ति में पराधीन होने पर भी स्व और पर को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान भी स्व और पर स्वरूप का विश्लेषण करने में समर्थ है । पर-प्रबोधक होने से ही वह शिक्षा अथवा व्याख्या के लिए अधिकृत है।" प्राचीन काल में अध्ययन के स्रोत थे -गुरु । शास्त्र लिखे नहीं जाते थे। उन्हें कण्ठस्थ रखने की परम्परा थी। इस स्थिति में अध्ययन की गुरुगम व्यवस्था का विकास हुआ । उसका प्रतिपादन उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग-इन चार पदों द्वारा किया गया है। विद्यार्थी शिष्य पहले गुरु से पढ़ने की आज्ञा प्राप्त करता। फिर वह परिवर्तना के द्वारा पढ़े हए ज्ञान को स्थिर रखने का अभ्यास करता। तीसरे चरण में उसे अध्यापन की अनुमति प्राप्त होती। चौथे चरण में उसे अनूयोग या व्याख्या करने की स्वीकृति मिलती। चूर्णिकार ने इस अध्ययन-पद्धति की विस्तृत जानकारी दी है। दोनों वृत्तिकारों ने भी उसी का अनुसरण किया है। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बड़ा महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध की सार्थकता है ज्ञान की उपलब्धि । गुरु शिष्य को बहुत कुछ दे सकता है, यदि शिष्य पाने के योग्य हो । योग्यता का पहला मानदण्ड है-विनय । जो शिष्य विनीत और समर्पित होता है, वह अपनी चर्या और अध्ययन के सम्बन्ध में स्वयं कोई निर्णय नहीं लेता। वह आचार्य के निकट उपस्थित होकर कहता है-"आपकी इच्छा हो तो मुझे किसी आगम की वाचना दे।" गुरु की दृष्टि शिष्य को परखती है। योग्य शिष्य को वाचना की आज्ञा मिल जाती है। गुरु की अनुज्ञा पाकर शिष्य स्वाध्याय के लिए पूर्व तैयारी करता है । वन्दन करता है। पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करता है। प्रदक्षिणा करता है। उपधान करता है और अन्य कई प्रकार के अनुष्ठानों को सम्पादित करके अन्त में फिर कायोत्सर्ग करता चूर्णिकार ने उद्देशन की जिस विधि का निरूपण किया है, उस में बार-बार वन्दन करने का विधान है । इसके दो उद्देश्य हो सकते हैं-अहंकार-विसर्जन और प्रमाद-परिहार । गुरु की आज्ञा से शिष्य पढ़े हुए पाठ की परिवर्तना करता है, उसे आत्मसात करता है और अन्य साधूओं को पढ़ाता भी है। अनुयोगकाल में तिथि, करण, नक्षत्र, मुहर्त आदि की प्रशस्तता को आवश्यक माना गया है। शिष्य को अनुयोगी बनाने के १. (क) नसुनं. ३५ : सुणेइत्ति सुयं । (ख) विभा. ९८ : जं सुणइ तं सुयं भणियं । २. विभा. ९९ : सुयं तु परमत्थओ जीवो। ३. (क) अचू. पृ. २ : 'ठप्पाई' ति असंववहारियाई ति बुत्तं भवति । (ख) अमवृ. प. ३ : 'ठप्पाई' ति स्थाप्यानि असंव्यवहार्याणि । ४. (क) नसुनं. ३५ : मइपुव्वं सुयं, न मई सुयपुब्विया । (ख) तसू. १११ : तत्पूर्वकत्वात् परोपदेशत्वाच्च श्रुतज्ञानम्। ५. विभा. ८३९ : पाएण पराहीणं दीवोव्व परप्पबोहयं जं च । सुयनाणं तेण परप्पबोहणत्थं तदणुओगो॥ ६. अचू. पृ. २ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १, सूत्र ५, टि० ४,५ १५ लिए गुरु कुछ मंत्रपदों का उच्चारण करता है और अपनी निषद्या पर शिष्य को बिठाता है। इससे ज्ञात होता है कि उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा से भी अधिक महत्त्व अनुयोग का है। मलधारीया वृत्ति में उद्देशन की समग्र विधि का निरूपण इसी प्रकार है। वृत्तिकार ने चूर्णिकार द्वारा लिखित विधि को सामाचारी के रूप में स्वीकृत किया है । इसके साथ ही उन्होंने कुछ अन्य विधियों की सूचना देते हुए लिखा है-सामाचारियों में बहुत विचित्रता होती है । इसीलिए भिन्न प्रकार की सामाचारी सामने आने पर दिग्भ्रांत नहीं होना चाहिए। चूर्णिकार और वृत्तिकारों द्वारा निरूपित अध्ययन की परम्परा से कुछ बातें अवश्य फलित होती हैं० दीर्घकाल तक शिष्य को गुरु के सान्निध्य की प्राप्ति । ० गुरु के प्रति शिष्य का सर्वात्मना समर्पण । ० अध्ययन काल में ध्यान, कायोत्सर्ग, तपस्या आदि का प्रयोग । • मंत्रोच्चारण आदि कुछ विशेष विधियों का प्रयोग। • गुरु के सामने ही शिष्य का अध्यापन कार्य । शब्द विमर्श १. उद्देश (उद्देशो) पढ़ने की आज्ञा । २. समुद्देश (समुद्देशो) पढे हुए ज्ञान के स्थिरीकरण का निर्देश । ३. अनुजा (अणुण्णा) अध्यापन की आज्ञा । ४. अनुयोग (अणुओगो) व्याख्या । ४. प्रस्तुत प्रस्थापना की दृष्टि से आवश्यक श्रुत का........ अनुयोग प्रवृत्त है। (इमं पुण पट्टवणं पडुच्च आवस्सयस्स अणुओगो) प्रस्थापना का अर्थ है-प्रारम्भ । अध्ययन के चारों अंग उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग-ये अंग-प्रविष्ट और अंगबाह्य सभी आगमों के होते हैं। फिर यहां आवश्यक सूत्र का ही अनुयोग क्यों किया गया? यह प्रश्न अस्वाभाविक नहीं है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार हरिभद्र ने इस प्रश्न पर कोई विचार नहीं किया। मलधारीया वृत्ति के अनुसार आवश्यक सब सामाचारियों का मूल है। इसलिए शेष आगमों को छोड़ इसे प्राथमिकता देकर इसकी व्याख्या की गई है। इस कथन के आधार पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि प्रत्येक साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका के लिए आवश्यक अवश्यकरणीय है। इसलिए प्रारम्भ में इसका अनुयोग किया गया ५. निक्षेप (निक्खेवं) हमारा व्यवहार तीन प्रकार का होता है -शब्दाश्रयी, ज्ञानाश्रयी और अर्थाश्रयी। व्यवहार की सम्यग् योजना करने के लिए जिस पद्धति का अनुसरण किया जाता है उसका नाम है-निक्षेप। द्रव्य अनन्तपर्यायात्मक होता है। उन अनन्त पर्यायों को जानने के लिए अनन्त शब्द आवश्यक हैं । शब्दकोश में शब्द बहुत सीमित हैं। हम संकेतविधि के अनुसार एक शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग करते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि पाठक अथवा श्रोता विवक्षित अर्थ को पकड़ नहीं पाता। फलत: अनिर्णय की स्थिति बन जाती है। निक्षेप का प्रयोजन है-वाक्य-रचना का ऐसा विन्यास जिससे पाठक अथवा श्रोता विवक्षित अर्थ को ग्रहण कर सके । इसके लिए प्रत्येक पर्याय के लिए विशेषण-युक्त वाक्य-रचना अपेक्षित है। उदाहरण के लिए वस्तु को चतुष्पर्यायात्मक मान कर विचार करें। वे चार पर्याय हैं १. नाम-नाममूलक व्यवहार के लिए नाम । १. अचू. पृ. ३,४ २. अमवृ. प. ४ ३. अचू. पृ.५: पढवणं प्रारंभ: प्रवर्त्तनेत्यर्थः । ४. अमवृ.प.६ : सकलसामाचारीमूलत्वादस्यवेह शेषपरिहारेण व्याख्यानादिति भावनीयम् । Jain Education Intemational Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई २. स्थापना-आरोपणमूलक व्यवहार के लिए स्थापना । ३. द्रव्य-अतीत एवं भावी पर्यायमूलक व्यवहार के लिए द्रव्य । ४. भाव-वर्तमान पर्यायमूलक व्यवहार के लिए भाव । नाम का अर्थ है-संज्ञाकरण। संज्ञा के द्वारा वस्तु का अवबोध होता है इसलिए नाम वस्तु का एक पर्याय है। आकृति ग आरोपण के द्वारा वस्तु का बोध होता है इसलिए स्थापना वस्तु का एक पर्याय है। वस्तु के अतीत और भावी पर्याय को जानना भी हमारे व्यवहार के लिए आवश्यक है । अतीत और भावी पर्याय को जानने के लिए द्रव्य निक्षेप उपयोगी है। वर्तमान पर्याय को जानने के लिए उपयोगी है-भाव निक्षेप।' जिनभद्रगणि ने एक ही वस्तु में चार पर्यायों की संयोजना की है, जैसे-वस्तु का अपना अभिधान नाम निक्षेप है । वस्तु का अपना आकार स्थापना निक्षेप है । वस्तु भूत और भावी पर्याय का कारण है इसलिए द्रव्य निक्षेप है। कार्यरूप में विद्यमान वस्तु भावनिक्षेप है । घड़े का 'घट' नाम नामनिक्षेप है । घट का पृथु, बुध्न, उदर आकार है वह स्थापना निक्षेप है। मृत्तिका घट का अतीतकालीन पर्याय है, कपाल घट का भविष्यकालीन पर्याय है। ये दोनों पर्याय घट पर्याय से शून्य होने के कारण द्रव्य हैं । कार्यापन्न पर्याय-घट रूप में परिणत पर्याय-भाव निक्षेप है । शास्त्रकार की प्रवृत्ति परव्युत्पादन के लिए होती है । 'पर' (श्रोता अथवा पाठक) तीन प्रकार का होता है' १. संक्षेपरुचि, २. विस्ताररुचि, ३. मध्यमरुचि । आगे रचनाकार ने उक्त श्रोता अथवा पाठक के चार प्रकार किए हैं'१. व्युत्पन्न ३. संदिग्ध २. अव्युत्पन्न ___४. विपर्यस्त धवला में निक्षेप की उपयोगिता के चार कोण बतलाए हैं:१. अव्युत्पन्न श्रोता यदि पर्यायार्थिक दृष्टि वाला है तो अप्रकृत अर्थ का निराकरण करने के लिए निक्षेप करना चाहिये । २. यदि वह द्रव्याथिक दृष्टि वाला है तो प्रकृत अर्थ का निरूपण के करने के लिए निक्षेप करना चाहिये । ३. यदि व्युत्पन्न होने पर भी संदिग्ध है तो उसके सन्देह का निराकरण करने लिए निक्षप करना चाहिए। ४. यदि वह विपर्यस्त है तो तत्त्वार्थ-निश्चय के लिए निक्षेप करना चाहिये। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'नि' के दो अर्थ बतलाए हैं-नियत और निश्चित। जो निक्षेपण नियत और निश्चित अर्थ की ओर ले जाता है वह निक्षेप है। मनुष्य ज्ञाता है और घट ज्ञेय है। ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध कैसे स्थापित हो सकता है ? यह एक दार्शनिक प्रश्न है। इस प्रश्न को जैन दर्शन में निक्षेप पद्धति के द्वारा सुलझाया गया है। हमारा ज्ञान परोक्ष है। इसीलिए हम किसी भी वस्तु को सर्वात्मना साक्षात् नहीं जान सकते। हम उसे किसी माध्यम से ही जानते हैं। माध्यम के द्वारा ज्ञाता का ज्ञेय के साथ संबन्ध स्थापित होता है। माध्यम की श्रृंखला में प्रमुख तत्त्व दो हैं-नाम और रूप । वस्तु का हमारे ज्ञान में अवतरण करने के लिए या तो नाम में निक्षेपण करना होता है अथवा किसी रूप या आकृति में । वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । हम उस अखंड वस्तु को नहीं जान सकते । उसे किसी एक पर्याय के माध्यम से जानते हैं । काल की दृष्टि से उसके तीन पर्याय हैं -- भूतपर्याय, भावीपर्याय और वर्तमानपर्याय । भूतपर्याय में भी वस्तु का उपचार या निक्षेपण किया जाता है। इन पर्यायों का सम्यक् ज्ञान करने के लिए विवक्षित वस्तु के पीछे विशेषण का प्रयोग किया जाता है जैसे-ज्ञ शरीर द्रव्य और भावी शरीर द्रव्य । इन दोनों अवस्थाओं में चेतना की प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए ये पर्याय द्रव्य कहलाते हैं। जिस क्रिया के साथ चेतना जुड़ी रहती है उसे भाव कहा जाता है। विषय और विषयी का सम्बन्ध तथा शब्द और अर्थ का सम्बन्ध तभी स्पष्ट होता है जब वस्तु का ज्ञान अथवा शब्द में १. विभा. ६० विस्ताररुचिः मध्यमरुचिश्चेति । अहया वत्थूभिहाणं नाम ठवणा य जो तयागारो। ३. वही पृ. २२ : स च त्रिविधोऽपि परः प्रत्येक चतुर्धा कारणया से दवं कज्जावन्नं तयं भावो ॥ भिद्यते- व्युत्पन्नः, अव्युत्पन्न:, संदिग्धः, विपर्यस्तश्च । २. न्याकु. १ पृ. २२ : परव्युत्पादनार्था हि शास्त्रकृतः प्रवृत्तिः। ४. ध. १११,१,१।३०-३१ न चाभिधेयादिरहितं शास्त्रं कुर्वता परो व्युत्पादितो ५. विभा. ९१२: भवति, तथाविधस्यास्य परप्रतारकत्वप्रसङ्गात् । स च निक्खिप्पइ तेण तहि तओ व निक्खेवणं व निक्खेवो । व्युत्पाद्यत्वेनाभिप्रेतः। परस्त्रिधा भिद्यते -संक्षेपरुचिः, नियओ व निच्छिओ वा खेवो नासो ति जं भणियं । Jain Education Intemational Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १, सू० ५, टि० ५ १७ न्यास किया जाता है। उदाहरण के लिए आवश्यक सूत्र को प्रस्तुत किया जा सकता है। आचार्य ने शिष्य से कहा-आवश्यक को बुलाओ। वह आचार्य की विवक्षा को नहीं समझ सका। इधर उधर गया। अलमारी की ओर दृष्टि डाली । एक पुस्तक देखी-'आवश्यक' । उसे ले आया । आचार्य ने कहा-यह क्या लाए हो? शिष्य ने कहा-यह आवश्यक है। आचार्य-मैंने कहा था--आवश्यक को बुलाओ, तुम पुस्तक ले आए। तुम विवक्षा को नहीं जानते । लो, मैं तुम्हें विवक्षा का सिद्धांत समझाता हूं। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-कम से कम इन चार विवक्षाओं से वस्तु का बोध हो सकता है। सबसे पहले वस्तु का नामकरण होता है, जैसे-इस आगम का नाम आवश्यक है। किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु का भी 'आवश्यक' नाम दिया जा सकता है । स्थापना का अर्थ है-किसी आकार या प्रतीक में वस्तु का आरोपण करना। आवश्यक की किसी आकृति या प्रतीक को भी आवश्यक कहा जाता है । किन्तु मैं जिस व्यक्ति को बुलाना चाहता हूं उसका सम्बन्ध नाम या स्थापना से नहीं है। ___मैं जिस व्यक्ति को बुलाना चाहता हूं, वह आवश्यक आगम को जानने वाला और उसकी स्मृति में उपयुक्त होना चाहिए अथवा वह आवश्यक आगम को जानने वाला और उसकी क्रिया में संलग्न होना चाहिए। क्योंकि मैं भाव आवश्यक को बुलाना चाहता हं । तुम मेरी विवक्षा को नहीं समझ सके । अब भी तुम सावधान रहना । तुम आवश्यक को बुलाने जाओगे। रास्ते में कोई मृतशरीर मिल सकता है। तुम पूछोगे --यह कौन है ? उत्तर मिलेगायह आवश्यक है । उत्तर अयथार्थ भी नहीं है । क्योंकि यह आवश्यक के ज्ञाता का शरीर है । भूत (अतीत) पर्याय की अपेक्षा से यह उत्तर सही है । इसे ज्ञ-शरीर-द्रव्य आवश्यक कहा जा सकता है। पर उसे बुलाना तुम्हें अभीष्ट नहीं है। तुम आगे चलोगे। तुम्हें फिर कोई मिल सकता है। उसके बारे में पूछताछ करने पर तुम्हें उत्तर मिलेगा यह आवश्यक है । वह आवश्यक का ज्ञाता बनेगा, इस अपेक्षा से वह भावी (भव्य) शरीर द्रव्य आवश्यक है। पर तुम्हें उसे भी नहीं बुलाना है। तुम आगे बढ़ोगे । तुम्हें प्रातःकाल दतौन करने वाले लोगों के बीच 'अवश्य करो' 'अवश्य करो' की गूंज सुनायी देगी। आवश्यक क्रिया करने वाले भी आवश्यक है। पर वे तद्व्यतिरिक्त-भूत और भावी पर्याय से अतिरिक्त केवल क्रियाकारी आवश्यक है । उनसे भी तुम्हारा प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। तुम्हें न तो ज्ञान-शून्य आवश्यक को बुलाना है न क्रिया-शून्य आवश्यक को। तुम्हें दो प्रकार के व्यक्तियों को बुलाना है-- • जो आवश्यक का अर्थ जानता है और उसके अनुकूल क्रियात्मक-रूप में आवश्यक का प्रयोग कर रहा है। • जो आवश्यक की क्रिया नहीं कर रहा है पर उसके अर्थ को जानता है और उसके अर्थ में उपयुक्त है-वहां अपनी स्मृति ___ का नियोजन किए हुए है। क्षेत्र, काल आदि अनेक धर्म हैं। उनमें वस्तु का आरोपण किया जाता है । इसलिए निक्षेप अनेक बनते हैं । वस्तु के आंतरिक और बाह्य जितने धर्म हैं उतने ही निक्षेप हो सकते हैं। इसीलिए सूत्रकार ने बताया-निक्षेप संख्यातीत हैं। कम से कम चार निक्षेपों का प्रयोग अवश्य किया जाए । नाम और स्थापना (रूप, संस्थान अथवा आकृति) के बिना वस्तु की पहचान नहीं होती। ये वस्तु की पहचान के प्रारम्भिक तत्त्व हैं। द्रव्य और भाव -ये दोनों वस्तु की अवस्थाएं हैं । वस्तु की जानकारी के लिए वर्तमान पर्याय में उसका निक्षेपण आवश्यक है। भूत और भावी पर्याय भी उस आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। इस प्रकार नाम, रूप और अवस्था में वस्तु का निक्षेपण यह न्यूनतम अपेक्षा है। उतराध्ययन नियुक्ति में 'उत्तर' शब्द के पन्द्रह निक्षेप किए गए हैं। आचारांग नियुक्ति तथा कषाय पाहुड़ में 'कषाय' शब्द के आठ निक्षेप किए गए हैं। १. उवृवृनि. १: (ख) कपा. पृ. २३४ : कसाओ ताव णिक्खिवियवो णामनाम ठवणा दविए खित्त दिसा तावखित्त पन्नवए । कसाओ ठवणकसाओ दव्वकसाओ पच्चयकसाओ पइकालसंचयपहाणनाणकमगणणओ भावे ॥ समुत्पत्तिकसाओ आदेसकसाओ रसकसाओ भाव२. (क) आसू. पृ. ६१ आनि १९० : कसाओ चेदि । णामं ठवणा दविए उप्पत्ती पच्चए य आएसो। रसभावकसाए या तेण य कोहाइया चउरो ।। Jain Education Intemational Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अणुओगदाराई इस निक्षेप पद्धति का भाषाशास्त्रीय मूल्य भी कम नहीं है। संयम में वीर्य का प्रयोग करें इस वाक्य में एक 'वीर्य' शब्द का प्रयोग है । यह असंख्य संदर्भों में प्रयुक्त होता है। किन्तु प्रस्तुत वाक्य में वीर्य का क्या अर्थ विवक्षित है—यह निक्षेप-पद्धति के द्वारा ही जाना जा सकता है। इसीलिए निक्षेप-पद्धति में शब्द के साथ विशेषण का प्रयोग किया जाता है। उससे शब्द में प्रतिनियत अर्थ के प्रतिपादन की शक्ति निक्षिप्त हो जाती है ।' ६. नामावश्यक ( नामावस्सयं ) प्रत्येक अर्थवान् शब्द नाम कहलाता है। उसके द्वारा पदार्थ का ज्ञान होता है। पदार्थ और नाम में वाच्य वाचक सम्बन्ध होने के कारण प्रत्येक नाम निक्षेप वन जाता है। आर्यरक्षित ने नाम की एक लम्बी तालिका प्रस्तुत की है। उसमें द्रव्य, गुण और पर्याय के नामिक, नैपातिक, आख्यातिक, औपसर्गिक, मिश्र और नक्षत्र - इस प्रकार अनेक कोणों से नामकरण के आधार प्रस्तुत किए हैं।' सूत्रकार ने आवश्यक के नामकरण के विषय में उल्लेख किया है। किसी जीव, अजीव का आवश्यक नाम कर दिया यह नाम आवश्यक है | आवश्यक नामकरण में मूल अर्थ की अपेक्षा न हो, फिर भी आवश्यक नामकरण किया जा सकता है। इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर जिनभद्रगणी ने नाम को यादृच्छिक बतलाया है। यह नाम विवक्षित अर्थ से निरपेक्ष होने के कारण मूल अर्थ से उसका सीधा सम्बन्ध नहीं होता है । नाम किसी एक संकेत के आधार पर किया जाता है इसलिए इसका कोई पर्यायवाची शब्द नहीं होता । सूत्र ९ ७. स्थापनावश्यक (ठवणावस्सयं) पदार्थ का नामकरण करने के पश्चात् 'यह वही है' इस अभिप्राय से उसकी व्यवस्थापना करने का अर्थ है-स्थापना । वह दो प्रकार की होती है सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना । विवक्षित व्यक्ति या वस्तु के समान आकृति वालो स्थापना सद्भाव स्थापना कहलाती है। मुख्य आकार से शून्य स्थापना असद्भाव स्थापना कहलाती है। आ० हरिभद्र एवं मलधारी हेमचन्द्र ने एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है। उसका तात्पर्य भी यही है । विवक्षित अर्थ से शून्य आकृति को उस अभिप्राय से स्थापित करना स्थापना है। स्थापना के लिए विवक्षित के सदृश और असदृश दोनों प्रकार की आकृतियों को स्थापित किया जा सकता है। सूत्रकार ने सदृश आकृतियों के लिए काष्ठकर्म आदि का उल्लेख किया है । असदृश आकृतियों के लिए अक्ष, वराटक आदि को उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है। नयचक्र में स्थापना के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं - साकार और निराकार प्रतिमा में अर्हत् की स्थापना साकार स्थापना है । केवलज्ञान आदि क्षायिक गुणों में अर्हत् की स्थापना करना निराकार स्थापना है ।" १. जैसिदी. १०१४ : शब्देषु विशेषणबलेन प्रतिनियतार्थप्रतिपादनशक्तेनिक्षेपणं निक्षेपः । कषाय पाहुड़ सूत्र २३४ टिप्पण संख्या ५ में कषाय के आठ निक्षेपों में आदेश कपाय की चर्चा आई है, उसके विषय में दो मत मिलते हैं। कषाय पाहुड़ में आदेश और स्थापना निक्षेप के भेद की मीमांसा की गई है। उसके अनुसार यह कषाय है इस प्रकार की प्ररूपणा करना और इस प्रकार की बुद्धि उत्पन्न होना आदेश कषाय है। स्थापना सद्भाव और असद्भाव दोनों प्रकार की होती २. नसुअ. २४६-३६८ । ३. विभा. २५ : पज्जायाऽभिधेयं ठिअमण्णत्थे तयत्थनिरवेक्खं । जाइच्छिअं च नामं, जावदव्वं च पाएण ॥ ४. न्याकु. २ पृ. ८०५ : स्थाप्यते इति स्थापना प्रतिकृतिः, सा च आहितनामकस्य अध्यारोपितनामकस्य द्रव्यस्य इन्द्रादेः सूत्र १० 'सोऽयम्' इत्यभिसन्धानेन व्यवस्थापना । ५. ( क ) अहावृ. पृ. ७ यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रावेण पश्च तत्करणिः । लेप्यादिकर्म तत्स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ॥ (ख) अमवृ. प. : ११ । ६. नच. २७४ सायार इयर ठवणा कित्तिम इयरा हु बिबजा पढमा । इयरा खाइय भणिया ठवणा अरिहो य णायव्वो । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १, सू० ६,१०, टि० ६,७ है। आदेश में यह विभाग नहीं होता।' जिनभद्रगणि ने उक्त मत की समीक्षा की है। उन्होंने लिखा है कि एक नट अभिनय के समय क्रोध आदि कषाय की मुद्रा बनाता है वह आदेश निक्षेप है किन्तु चित्र में क्रोध की मुद्रा का रेखांकन स्थापना निक्षेप है क्योंकि वह स्थापना से भिन्न नहीं है । शब्द विमर्श १. काष्ठाकृति (कटुकम्मे) मनुष्य, पशु या किसी अन्य वस्तु की काष्ठ निर्मित आकृति का नाम काष्ठकर्म है। काष्ठ कर्मान्त नाम काठ के कारखाने का है। कारखाने में काठ का जिस-जिस रूप में उपयोग होता है, वह सारा काष्ठकर्म है। हरिभद्र ने काष्ठकर्म का अर्थ कुट्टिम और हेमचन्द्र ने इसका अर्थ निकुट्टित किया है। प्राचीनकाल में स्कंद, मुकुन्द आदि की प्रतिमाएं काठ की बनती थीं। काष्ठ प्रतिमा शिल्प के वैशिष्ट्य से यथार्थ जैसी दिखाई देती है। इसी कारण मुनि को काष्ठ-निर्मित स्त्री प्रतिमा से दूर रहने का निर्देश है।' २. चित्राकृति (चित्तकम्मे) मनुष्य सुरुचिपूर्ण जीवन जीना चाहता है। रुचि परिष्कार के साधनों में एक चित्रकला भी है। इस कला के अन्तर्गत प्राकृतिक दृश्य, मनुष्य, देव, पशु-पक्षी आदि का चित्रांकन किया जाता है। किसी भी आकृति का चित्रांकन करना चित्रकर्म कहलाता है।' धवला में पट कुड्य (भित्ति) एवं फलहिका (काष्ठ आदि का तख्ता) आदि पर नृत्य आदि में प्रवृत्त देव, नारक, तियंच और मनुष्यों की प्रतिमाओं को चित्रकर्म कहा गया है।" ३. पुस्तकर्म (पोत्थकम्मे) . हमारा स्वीकृत पाठ 'पोत्थकम्मे' है। हरिभद्र तथा हेमचन्द्र ने पुस्तकर्म का अर्थ वस्त्र निर्मित पुतली, वत्तिका से लिखित पुस्तक तथा ताड़पत्रीय प्रति किया है। भाषाशास्त्रीय दृष्टि से 'पुस्त' शब्द पहलवी भाषा का है। इसका अर्थ है चमड़ा। चमड़े में चित्र आदि बनाए जाते थे। उसमें ग्रन्थ भी लिखे जाते थे इसलिए उसका नाम पुस्तक हो गया। पुस्तक शब्द जब से संस्कृत और प्राकृत में व्यवहृत होने लगा, उसका अर्थ बदल गया। 'पोत्थकम्मे' इस पाठ के बाद लेप्यकर्म पाठ मिलता है । संस्कृत में पुस्त का अर्थ लेप्य भी है। किन्तु यहां पुस्त का लेप्य अर्थ विवक्षित नहीं है। कषाय पाहुड़ और धवला में 'पोत्तकम्म' पाठ मिलता है। पोत का अर्थ है वस्त्र, पोतकर्म का अर्थ होगा-वस्त्र निर्मित पुतली। प्रतीत होता है कि मलधारी हेमचन्द्र के सामने भी पोत्तकम्मे पाठ था । इसीलिए उन्होंने 'पोत्थं पोतं वस्त्र' यह लिखा है। उच्चारण और श्रुतिभेद के कारण पोत्तं का पोत्थं में परिवर्तन होना सम्भव है। १. (क) कपा. पृ. २६२ : आदेसकसाएण जहा चित्तकम्मे ६. (क) अहावृ. पृ.७: पुस्तकर्म धीउल्लिकादि वस्त्रपल्लव लिहिदो कोहो रुसिदो तिबलिदणिडालो भिडि समुत्थं वा संपुटकं मध्यवत्तिकालेख्यं वा पत्रच्छेदकाऊण। निष्फण्णं वा, उक्तं च-- (ख) विभा. २९८४ । धोउल्लिगादि वेल्लियकम्मादिनिव्वंत्तियं च जाणाहि । २. (क) अहाव. पृ.७: काष्ठे कर्म काष्ठकर्म तच्च संपुडगवत्तिलिहियं पत्तच्छज्जे य पोत्थंति ॥ कुट्टिमं । (ख) अमवृ. प. १२ : पोत्थं पोतं वस्त्रमित्यर्थः, तत्र कर्म(ख) अमवृ. प. १२ : काष्ठे कर्म काष्ठकर्म-काष्ठनिकुट्टितं तत्पल्लवनिष्पन्नं धीउल्लिकारूपकमित्यर्थः, अथवा रूपकमित्यर्थः। पोत्थं पुस्तकं तच्चेह संपुटकरूपं गृह्यते, तत्र कर्म ३. मू. २२९९ : बीहे दविये णिच्चं कट्ठकम्मति भणंति । तन्मध्ये वत्तिकालिखितं रूपकमित्यर्थः, अथवा ४. अमवृ. प.१२ :चित्रकर्म चित्रलिखितं रूपकम् । पोत्थं-ताडपत्रादि तत्र कर्म तच्छेवनिष्पन्न ५. ध. ९।४,१,५२।२४९।३ : पटकडुफलहियादिसु णच्चणादि रूपकम् । किरिया-वावददेवणेरइय-तिरिक्खमणुस्साण पडिमाओ ७. अचि. ३३५८६ : पुस्तं लेप्यादिकर्म स्याद् । चित्तकम्म । ८. कपा. पृ. २६८ : एवमेदे कट्टकम्मे वा पोत्तकम्मे वा। Jain Education Intemational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई ४. लेप्याकृति (लेप्पकम्मे) मिट्टी आदि के लेप से निर्मित प्रतिमा का नाम लेप्यकर्म है।' ५. गूंथकर (गंथिमे) किसी वस्त्र, रस्सी या धागे में ग्रन्थियां डालकर बनाई गई आकृति को ग्रन्थिम कहा जाता है। आचार्य हरिभद्र ने पुष्पमाला और जालिका (कवचविशेष) को ग्रन्थिम वस्तुओं के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।' कुछ व्यक्ति इस क्षेत्र में विशिष्ट कौशल से वस्त्र आदि में ग्रन्थियां डालकर आकृति बना लेते हैं। ६. वेष्टित कर (वेढिमे) फलों को वेष्टित कर बनाई गई आकृति को वेष्टिम कहा जाता है। आनन्दपुर में पुष्पवेष्टन से आकृतियां बनाने की परम्परा विशेष रूप से प्रचलित रही है। एक-दो आदि वस्त्र खण्डों से वेष्टित करके बनाई गई आकृति को वेष्टिम कहा जाता है। ७. भरकर (पूरिमे) पीतल आदि से निर्मित प्रतिमा को पूरिम कहा जाता है । भीतर से पोली प्रतिमा में पीतल आदि भरकर उसे ठोस बनाने का उपक्रम भी पूरिम कहलाता है। ८. जोड़कर (संघाइमे) अनेक वस्त्र खण्डों को जोड़कर कंचुक की भांति बनाई जाने वाली आकृति को संघातिम कहा जाता है। ९. अक्ष या कोड़ी (अक्खे वा वराडए वा) पासों और कौड़ियों को भी प्रतीक मानकर स्थापित करने की परम्परा रही है। इसी कारण स्थापना आवश्यक के वर्णन में काष्ठकर्म आदि की तरह इनका भी ग्रहण किया गया है। प्रश्न हो सकता है कि प्रतीक तो कोई भी वस्तु बन सकती है। प्रस्तुत सन्दर्भ में इन्हीं का ग्रहण क्यों किया गया? इनके ग्रहण का एक कारण यह हो सकता है कि शंख, कौड़ा, कलश, अक्षत आदि वस्तुओं को लौकिक दृष्टि से मंगल माना गया है । मांगलिक वस्तुओं को प्रतीक बनाने से मानसिक तुष्टि भी रहती है। इसीलिए असद्भावस्थापना के उदाहरण में सूत्रकार ने इनका उल्लेख किया है। काष्ठकर्म की तरह दन्तकर्म, शैलकर्म आदि का भी उल्लेख मिलता है। इसकी सूचना वृत्तिकार ने दी है। उसके अनुसार वाचनांतर में दन्तकर्म आदि पदों का समावेश किया गया है। काष्ठकर्म, पोत (वस्त्र) कर्म और चित्रकर्म को जघन्य माना जाता है। दन्तकर्म को मध्यम और शैलकर्म (मणिशिला से निर्मित वस्तु) को उत्कृष्ट माना जाता है । इनको क्रमशः विरूप, मध्यमरूप और सुरूप भी कहा गया है। सूत्र ११ नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चार निक्षेपों में मूल तत्त्व भाव है क्योंकि वही वास्तविक है। नाम और स्थापना दोनों ही वास्तविक नहीं हैं। फिर इन दोनों में क्या अन्तर है ? वृत्तिकार ने इनमें कालकृत अन्तर की सूचना दी है। नाम तब तक १. अमवृ. प. १२ : लेप्यकर्म लेप्यरूपकम् । कश्चित् रूपकं उत्थापयति तद्वेष्टिमम् । २. अहाव. पृ. ७ : ग्रन्थिसमुदायजं पुष्पमालावद् जालिकावद् ६. (क) अहावृ. पृ. ७ : पूरिमं भरिमं सगर्भरीतिकादिभृतवा। प्रतिमादिवत् । ३. (क) अहाव. पृ. ७ : निवर्तयन्ति च केचिदतिशयन (ख) अमवृ. प. १२ : पूरिमं भरिमं पित्तलादिमयपुण्यान्वितास्तत्राप्तावश्यकवन्तं साधुम् । प्रतिमावत् । (ख) अमव. प. १२ : ग्रन्थिमं कौशलातिशयान् प्रन्थिसमुदाय. ७. (क) अहाव. पृ.७ : संघातिमं कंचुकवत् । निष्पादितं रूपकम् । (ख) अमवृ. प. १२ : संघातिमं बहुवस्त्रादिखण्डसंघात४. (क) अहावृ. पृ. : ७ तत्र वेष्टिमं वेष्टनकसंभवमानन्दपुरे । निष्पन्न कंचुकवत् । (ख) अमवृ. प. १२ : वेष्टिमं पुष्पवेष्टनक्रमेण निष्पन्न ८. अमवृ. प. १२ : अत्र वाचनान्तरे अन्यान्यपि दन्तकर्मादिमानन्दपुरादिप्रतीतरूपम् । पदानि दृश्यन्ते। ५. अमवृ. प. १२ : अथवा एकं यादीनि वा वस्त्राणि वेष्टयन् Jain Education Intemational ducation Intermational Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ प्र० १, सू० १०-१२, टि०६ रहता है, जब तक उससे सम्बद्ध द्रव्य का अस्तित्व है। स्थापना अल्पकालिक भी होती है और द्रव्य के अस्तित्व के साथ जुड़ी हुई भी है। आज जो अक्ष आवश्यक क्रिया करते हुए साधु के लिए स्थापित हो सकता है कालान्तर में वह अन्य किसी के लिए भी हो सकता है। जबकि नाम में इस प्रकार बदलाव नहीं होता। दूसरा कारण यह भी है कि नाम निराकार होता है पर स्थापना में कोई न कोई आकार होता है।' नाम और स्थापना की चर्चा में एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि स्थापना की भांति नाम भी परिवर्तित हो सकता है फिर इसे यावज्जीवन क्यों माना गया ? नाम के दो रूप हैं-नक्षत्र के आधार पर निर्धारित नाम और बोलचाल का नाम । नक्षत्र से सम्बन्धित नाम अपरिवर्तनीय होता है। व्यक्ति के जीवन की अनेक बातों का निर्णय इसी नाम के आधार पर किया जाता है। जो नाम बदला जाता है वह उपनाम होता है। कुछ व्यक्तियों के नाम एक से अधिक भी होते हैं। आगमों में भगवान महावीर के अनेक नामों का उल्लेख है। यहां उपनामों और पर्यायवाची नामों की विवक्षा नहीं है। नाम यावत्कथिक अर्थात् स्थायी होता है । स्थापना अल्पकालिक व स्थायी दोनों प्रकार की होती है। सूत्रकार ने इस भेद का उल्लेख किया है। नाम निक्षेप का आधार है-सद्भाव सामान्य और सादृश्य सामान्य । स्थापना निक्षेप का आधार है सादृश्य सामान्य । कषाय पाहड में नाम और स्थापना का भेद इसी आधार पर किया गया है।' विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार नाम मूल अर्थ से निरपेक्ष और यादच्छिक-इच्छानुसार संकेतित होता है। स्थापना मूल पदार्थ के अभिप्राय से आरोपित होती है। जिनभद्र ने यावत्कथिक को प्रायिक माना है।' मलधारी हेमचन्द्र ने इसकी व्याख्या में लिखा है कि मेरु, द्वीप, समुद्र आदि के नाम यावत् द्रव्यभावी होते हैं । देवदत्त आदि नामों का परिवर्तन भी होता है।' सूत्रकार ने नाम को यावत्कथिक बतलाया है। इस विषय में हेमचन्द्र का मत है कि यह जनपद आदि की प्रतिनियत संज्ञा की विवक्षा से निर्दिष्ट है जैसे-उत्तरकुरु आदि ।' सूत्र १२ ६. द्रव्यावश्यक (दव्वावस्सयं) द्रव्य निक्षेप तत्पर्यायपरिणत और तत्पदार्थोपयुक्त नहीं होता इसलिए वह वर्तमान पर्याय से शून्य व ज्ञान पर्याय से शून्य है । द्रव्य शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । प्रस्तुत प्रकरण में द्रव्य का अर्थ है योग्य । जिसमें भूतकालीन पर्याय की योग्यता थी, भविष्यकालीन पर्याय की योग्यता होगी, उसका नाम है द्रव्य । उदाहरणस्वरूप जिस घट में घी था और वर्तमान में वह खाली है वह भूतकालीन पर्याय की अपेक्षा घृतघट है। जो भविष्य में घृत का आधार बनेगा, अभी खाली है, वह भविष्यकालीन पर्याय की अपेक्षा घृतघट है। द्रव्य निक्षेप पर आगम और नोआगम-दो दृष्टिकोणों से विचार किया गया है। एक पुरुष मंगल शब्द के अर्थ को १. अहावृ. पृ.८: ४. विभा. २६: कालकतोऽत्थ विसेसो, णामं ता धरति जाव तं दव्वं । जं पुण तयत्थसुन्नं तयभिप्पाएण तारिसागारं । ठवणा दुहा य इयरा यावकहा इत्तरा इणमो ॥२॥ कीरइ व निरागारं इत्तरमियरं व सा ठवणा ॥ इह जो ठवणिदकओ अक्खो सो पुण ठविज्जए राया। ५. विभा. २५ : एवित्तर आवकहा कलसादी जा विमाणेसु ॥३॥ ६. विभा. २५ को वृत्ति : प्रायेणेति मेरुद्वीपसमुद्रादिकं नाम अहव विसेसो भण्णति अभिधाणं वत्थुणो णिरागारं । प्रभूतं यावद्व्यमावि दृश्यते, किञ्चित् त्वन्यथाऽपि ठवणाओ आगारो सो वि य णामस्स णिरवेक्खो ॥४।। समीक्ष्यते, देवदत्तादिनामवाच्यानां द्रव्याणां विद्यमानाना२. नसुअ. ११ : नामं आवकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा, मप्यपरापरनामपरावर्तस्य लोके दर्शनात् । आवकहिया वा। ७. वही, सिद्धान्तेऽपि यदुक्तम्- 'नामं आवकहियं त्ति' नाम ३. कपा. पृ. २५९ : जेण णामणिक्खे वो तब्भाव सारिच्छ यावत्कथिकमिति तत् प्रतिनियतजनपदादि संज्ञामेवाऽङ गीसामण्णमवलंबिय द्विदो, टुवणाणिक्खेवो वि सारिच्छ- कृत्य, यथोत्तराः कुरव इत्यादि । लक्खणसामण्णमवलंबिय टिदो। ८. विभा. २८ : दवए दुयए दोरवयवो विगारो गुणाण संदावो। दव्वं भवं भावस्स भूअभावं च जं जोग्गं ॥ Jain Education Interational Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अणुओगदाराई जानता है और मंगल शब्द से अनुवासित है किन्तु मंगल शब्द के अर्थ में उपयुक्त (दत्तचित्त) नहीं है, वह आगम अथवा ज्ञान की अपेक्षा द्रव्यमंगल है । ' मंगल शब्द के अर्थ को जानने वाले पुरुष का मृत शरीर मंगल शब्द के अर्थ का ज्ञाता नहीं रहता, इसलिए वह ज्ञान के अभाव की अपेक्षा द्रव्य मंगल है। नो शब्द का प्रयोग सर्वनिषेध और देशनिषेध दोनों में होता है। यहां इसके दोनों अर्थ घटित हो सकते हैं । सूत्र १३ पाठ कंठस्थ करने की आगमकालीन पद्धति के पांच अंग हैं। पहला अंग है- शिक्षण । इसका अर्थ है उच्चारण की शुद्धि । दूसरा अंग है स्थिरीकरण । इसका अर्थ है अधीयमान ग्रन्थ को स्मृति में स्थिर कर लेना । तीसरा अंग है चित चयन। इसका अर्थ है कण्ठस्थ किए हुए पाठ को पुनरावृत्ति के योग्य बना लेना। चौथा अंग है मित-परिमाण । इसका अर्थ है वर्ण, मात्रा, हस्व-दीर्घ आदि के निश्चित परिमाण का ज्ञान करना। पांचवा अंग है - परिचित - परिचयन । इसका अर्थ है कण्ठस्थ किए हुए पाठ की स्मृति को अत्यन्त परिपक्व बना लेना। इसके आधार पर क्रम एवं व्युत्क्रम से पुनरावर्तन किया जा सकता है एवं परिमाण की भी स्मृति बनी रह सकती है। इससे आगे नामसम पद है, जो परिचयन का ही विशिष्टीकरण है। घोषसम आदि पद उच्चारण शुद्धि से सम्बद्ध हैं । शब्द-विमर्श १. सीख लिया ( सिक्खियं) प्रारम्भ से लेकर अन्त तक पढ़ा हुआ ग्रन्थ । " २. स्थिर कर लिया (ठियं ) कुछ व्यक्ति बातें सीखते हैं पर भूल जाते हैं । बहुत जब तक सीखा हुआ ग्रन्थ या ग्रन्थांश स्थिर नहीं होता उससे व्यक्ति लाभ नहीं उठा सकता। शिक्षित तत्त्व को मन में धारण कर लेना, जमा लेना अथवा उसकी अविस्मृति करना स्थिर करना है । * ३. चित कर लिया ( जियं) चित का अर्थ है ज्ञात किया हुआ । परावर्तन करते समय अथवा किसी दूसरे के द्वारा पूछे जाने पर जो तत्काल स्मृति में आ जाता है वह चित कहलाता है।" ४. मित कर लिया (मियं) सीखे हुए ग्रन्थ के श्लोक, पद, वर्ण, मात्रा आदि का निर्धारण करना मित है ।' १. विभा. २९ : आगमओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता । तितो सिहियो विभो २. विभा. ४४ : मंगलपयत्थ जाणयदेहो भव्वस्स वा सजीवोत्ति । नोआगमओ दव्वं आगमरहिओ त्ति जं भणिअं || ४५ : अहवा नो देसम्मि नोआगमओ तदेगदेसाओ : भूयस्स भाविणो वाऽऽगमस्स जं कारणं देहो || ३. (क) अचू. पृ. ७ जं आदितो आरम्भ पढतेणं अंतं गीतं तं सिक्खितं । नीतमधीत (ग) अमवृ. प. १४ : तत्रादित आरभ्य पठनक्रियया यावदन्तं नीतं तदिक्षितमुच्यते। ४. ( क ) अचू. पृ. ७ तं चैव हितए अविस्सरण भावठितं (ख) महा १.९ : शिक्षितमित्यंतं मित्यर्थः । ठितं भन्नति । चेतसि स्थितम्, न (ख) अहावृ. पृ. ९: स्थितमिति प्रयुतमिति यावत् । (ग) अमवृ. प. १४ : तदेवाविस्मरणतश्चेतसि स्थितम् । ५. (क) अचू. पृ. ७ : जं परावत्तयतो परेण वा पुच्छितस्स आदिमज्झते सव्वं वा सिग्धमागच्छति तं जितं । (ख) अहावृ. पृ. ९ । (ग) अमवृ. पृ. १४ । ६. (क) अचू. पृ. ७ जं वणतो तनुश्यमसाहि पर्यासलोगादिहि य संखितं तं मितं भण्णति । (ख) अहावृ. पृ. ९ : मितमिति वर्णादिभिः परिसंख्यातमिति । विज्ञातश्लोकपदवर्णादिसंख्यं (ग) अमवृ. प. १४ : मितं । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १, सू० १३, टि०६ ५. परिचित कर लिया (परिजिय) परिचित चित की विशिष्ट स्थिति है। चित में जो स्मृति होती है वह क्रमशः होती है। परिचित में क्रम और व्युत्क्रम दोनों प्रकार से स्मृति होती है। परावर्तन करते समय उल्टे सीधे के क्रम से पूरे ग्रन्थ को दोहराना अथवा पूछे जाने पर क्रम या व्युत्क्रम से तत्काल बता देना।' __शास्त्र को परिचित करने के लिए अपात्र को भी वाचना देने का विधान है। इसका हेतु यह है-जिनके पास शास्त्र का अध्ययन किया जाता वे दिवंगत हो गए। दूसरा कोई पात्र शिष्य प्रतिपृच्छा करने वाला नहीं है। इस स्थिति में शास्त्र की विस्मृति अपरिहार्य है । इसलिए योग्य शिष्य न हो तो अपात्र को भी वाचना दे देनी चाहिए।' ६. नामसम कर लिया (नामसमं) जैसे अपना नाम स्थिर, स्मृति योग्य, निर्धारित वर्ण वाला और परिचित होता है उसी प्रकार ग्रन्थ या ग्रंथांश को अपने नाम की तरह याद रखना।' ७. घोषसम कर लिया (घोससमं) गुरु के पास वाचना लेते समय गुरु द्वारा उच्चारित उदात्त आदि घोषों के अनुसार उच्चारण करना।' घोष के तीन प्रकार होते हैं -उदात्त, अनुदात्त और स्वरित । वैदिक संस्कृत में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित को स्वरवर्णों का धर्म माना गया है । बलदेव उपाध्याय ने वैदिक व्याकरण का विश्लेषण करते हुए लिखा है -अक्षर के उच्चारण में दो प्रकार के स्वर लगाए जाते हैं । एक होता है-स्वर का आरोह और दूसरा होता है स्वर का अवरोह ।। इसकी एक मिश्रित दशा भी तब होती है जब उच्चारणकर्ता उच्चस्वर से एकदम नीचे स्वर की ओर उतरता है। जहां आरोह से एकदम अवरोह की ओर जाता है वहां एकदम उतरना संभव न होने से बीच में वह टिकता है। इसे ही आधुनिक ध्वनिविद् Rising galling tone कहते हैं। हमारे यहां ये स्वर उदात्त, अनुदत्त और स्वरित के नाम से पुकारे जाते हैं। ८. हीनाक्षर और अत्यक्षर दोष रहित होना (अहीणक्खरं अणच्चक्खरं) कुछ अक्षरों को छोड़कर पढ़ना होनाक्षर है और जोड़कर पढ़ना अत्यक्षर है । जैसा सुना या पढ़ा उसका वैसा ही उच्चारण करना अहीनाक्षर और अनत्यक्षर है। अक्षरों को छोड़कर या बढ़ाकर पढ़ने से अनेक दोषों की संभावना रहती है। एक भी अक्षर की विस्मति होने पर मूल अर्थ प्राप्त नहीं हो सकता। इस तथ्य को एक उदाहरण से स्पष्ट किया गया है १. (क) अचू. पृ. ७ : जं कमेण उक्कमेण उ अणेगधा आगन्छंति तं परिजियं । (ख) अहाव. पृ. ९ परिजितमित सर्वतो जितं परिजितं । (ग) अमव. प. १४ : परि-समन्तात्सर्वप्रकारजितं परिजितम् । परावर्तनं कुर्वतो यत्क्रमेणोत्क्रमण वा समागन्छतीत्यर्थः। २. निचू. ४ पृ. २६१ : जस्स समीवातो गहियं सो मतो, अण्णओ तस्स पडिपुच्छगं पि णत्थि, अतो परिजयट्ठा अपात्रं पि वाएज्जा। ३. (क) अच. पृ. ६ जधा सणामं सिक्खितं ठितं च तेण समं जं तं णामसमं । अहाव. पृ. ९: नाम्ना समं नामसम, नाम-अभिधानं एतदुक्तं भवति स्वनामवत् शिक्षितादिगुणो पेतमिति। (ग) अमवृ.प.१४ । (घ) विभा. ८५२ की वृत्ति : स्वकीयेन नाम्ना समं नामसमं। ४. (क) अचू. पृ.७ : उदात्तादिता घोसा ते जधा गुरूहि उच्चारिया तधा गहितंति घोससममिति । (ख) अहावृ. पृ. ९ : घोषा-उदात्तादय तैर्वाचनाचार्या भिहितघोषः समं घोषसमम् । (ग) अमवृ. प. १४ । (घ) विभा. ८५२ की वृत्ति : यद् वाचनाचार्याभिहितैरु दात्ताऽनुदात्तस्वरितलक्षणे?षः सदृशमेव गृहीतं तद्घोषसमम् । ५. वैसासं. पृ. ६७८ । ६. (क) अचू. पृ.८: अणच्चक्खरं ति अहियक्खरंति ण भवति। (ख) अहावृ. पृ. ९ अक्षरन्यून हीनाक्षरं न हीनाक्षरमहीना क्षरं, अधिकाक्षरं नाधिकाक्षरमनत्यक्षरमिति । (ग) अमवृ. प. १४ ॥ Jain Education Intemational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अणुओगदाराई राजगृह नगर में भगवान महावीर पधारे । उनकी देशना सुनकर परिषद् अपने घर जा रही थी। मार्ग में श्रेणिक राजा ने एक विद्याधर को देखा, जो पंखहीन पक्षी की तरह आकाश में उत्पात-निपात कर रहा था। राजा श्रेणिक वापिस भगवान के पास आया और विद्याधर के बारे में जिज्ञासा की। भगवान ने बताया कि वह अपनी नभोगामिनी विद्या का एक अक्षर भूल गया है अतः आकाश में उड़ने के लिए असमर्थ है । राजा श्रेणिक के पास अभयकुमार बैठा था। भगवान् के मुंह से यह बात सुनकर वह विद्याधर के पास गया और बोलायदि तुम मुझे अपनी विद्या सिखाओ तो मैं तुम्हें विस्मृत अक्षर की स्मृति दिला सकता हूं। विद्याधर ने अपनी स्वीकृति दे दी। अभयकुमार ने पदानुसारी लब्धि से विस्मृत अक्षर को प्राप्त कर बता दिया और विद्याधर ने भी अपनी आकाशगामिनी विद्या का रहस्य बता दिया । एक ही अक्षर की विस्मृति से वह अपने कार्य में असफल रहा और स्मृति आते ही अपने गंतव्य-स्थल वैताढ्य गिरि पर पहुंच गया।' हीनाक्षर की तरह अधिक अक्षर जोड़कर पढ़ने से भी मूल की विकृति हो जाती है। अधिकाक्षर के सम्बन्ध में भी एक उदाहरण दिया गया है कुमार कुणाल अशोक का पुत्र था। अशोक पाटलिपुत्र में रहता था और कुमार का पालन-पोषण उज्जयिनी में होता था। जब कुमार की अवस्था आठ वर्ष से कुछ अधिक हो गई तो लेखवाहक ने आकर राजा अशोक को निवेदन किया। राजा ने अपने हाथ से एक लेख लिखा-"इदानीमधीयतां कुमारः" और कार्यवश कक्ष से बाहर चला गया । इधर कुमार की सौतेली मां ने यह लेख पढ़ा। उसने सोचा-मेरा पुत्र कुणाल से छोटा है। कुणाल में राज्य संचालन की योग्यता रहेगी तो मेरे पुत्र को राज्य नहीं मिल सकेगा। इसलिए कुणाल की योग्यता को समाप्त कर देना चाहिए । यह सोचकर उसने अपनी नयनशलाका को थूक से गीला कर अकार पर बिंदु लगा दिया। 'अधीयता कुमारः' के स्थान पर 'अंधीयतां कुमारः' हो गया । रानी ने पत्र को उसी स्थान पर रख दिया । राजा ने उसका पुनर्वाचन किए बिना ही उसे लेखवाहक के साथ भेज दिया। पत्र कमार के पास पहुंचा । किसी संरक्षक ने उसे पढ़ा। पर कुमार के विरुद्ध समझ कर सबको नहीं सुनाया। कुमार ने आग्रह किया तब उसे पढ़कर सुनाया गया। कुमार ने लेख का अभिप्राय समझकर कहा-“मौर्यवंशी राजाओं की आज्ञा का लंघन कोई भी नहीं कर सकता, फिर मैं पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन कैसे करूं?" पारिवारिक जनों के मना करने, रोने चिल्लाने पर भी कुमार ने तप्तशलाकाओं से दोनों आंखों को आंज लिया और अंधा हो गया। एक बिंदु की अधिकता ने कुमार कुणाल की आंखों की ज्योति ले ली । इसी प्रकार एक बिन्दु, मात्रा या अक्षर को अधिक करके शास्त्र का पठन करने से दोषों की संभावना रहती है। हीनाक्षर और अधिकाक्षर से विधेय स्पष्ट नहीं होता है अतः हीन और अधिक अक्षरों का उच्चारण इस प्राप्ति में बाधक बनता है जैसे कोई माता-पिता या वैद्य बच्चे को कटु औषधि कम मात्रा में देता है और मधुर औषधि अधिक मात्रा में, तो बच्चा स्वस्थ नहीं होता। इसी प्रकार हीनाधिक वाचन से अर्थ गम्य नहीं होता।' मात्रा, बिन्दु आदि को घटाकर या बढ़ाकर पढ़ने से सूत्र का भेद होता है। सूत्रभेद से अर्थ में विसंवाद आता है। अर्थ में विसंवाद होने से क्रियारूप चारित्र में भेद होता है। चारित्रिक भेद मोक्ष में बाधक बनता है। मोक्ष का अभाव दीक्षा को व्यर्थता का सूचक है। इसलिए सूत्र के उच्चारण में बहुत सतर्क रहना चाहिए। ९. विपर्यस्त अक्षर न होना (अम्वाइद्धक्खर) विपर्यस्त अक्षरों के उच्चारण को व्याविद्ध कहते हैं। जो ऐसा नहीं होता है उसे अव्याविद्ध कहते हैं। टीकाकार ने इसको एक उदाहरण से समझाते हुए लिखा है-किसी रत्नमाला में रत्न पिरोते समय विपर्यास हो जाता है तो वह अच्छी नहीं १. विभा. ८६४ : बिज्जाहररायगिहे उप्पय पडणं च हीणदोसेण । कहणो सरणागमणं पयाणुसारिस्स दाणं च ॥ २. विभा. ८६१ की वृत्ति । ३. विभा. ८६५ : तित्तकडभेसयाई मा णं पीलेज्ज ऊणए देइ। पडणइ न तेहि अहियेहि मरइ बालो तहाहारे । ४. विभा. ८६६: अत्थस्स विसंवाओ सुयभेयाओ तओ चरणभेओ। तत्तो मोक्खाभावो मोक्खाभावेऽफला दिक्खा ॥ Jain Education Intemational Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १, सू० १३, टि०१० २५ लगती। इसी प्रकार कहीं का सूत्र, अक्षर या मात्रा अन्यत्र बोलने से सूत्र शैली का सौन्दर्य तो नष्ट होता ही है, अर्थबोध में बहत बड़ी उलझन खड़ी हो जाती है। इसलिए जहां जो जैसे है, उसका वैसे ही उच्चारण करना अव्याविद्ध अक्षर है।' अस्खलित पथरीली भूमि में हल चलाया जाए तो बीच-बीच में स्खलित होता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति ग्रन्थ का उच्चारण भी स्खलित रूप से करता है । अस्खलित उच्चारण में मध्यावरोध नहीं होता। अमीलित सभी व्याख्याकारों ने इसके दो अर्थ किए हैं१. अनेक सूत्रों को एक साथ मिला कर पढ़ने को मीलित कहते हैं जैसे-भिन्नजातीय अनेक धान्यों को एक साथ मिश्रित कर देने से उनका अच्छा उपयोग नहीं हो सकता, वैसे ही अनेक सूत्रों को मिश्रित कर पढ़ने से सही अर्थ गम्य नहीं होता। २. जिस वाक्य में यति और विराम ठीक हों, उसे भी अमीलित कहते हैं।' विशेषावश्यक भाष्य की वत्ति में इसकी प्रकारांतर से व्याख्या की गई है-जिसमें पद और वाक्य का विच्छेद समुचित रूप से होता है उसे अमीलित कहते हैं। अव्यत्यानेडित ___ अनेक शास्त्रों के पद, वाक्य और अवयवों से मिश्रित सूत्र के उच्चारण को व्यत्यानंडित कहते हैं। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या दो प्रकार से की है १. एक ही शास्त्र में अन्य-अन्य स्थानों के एकार्थक सूत्रों को एक स्थान पर लाकर पढ़ने का नाम व्यत्याम्रडित है। २. नश्यमान सूत्र के स्थान पर अपनी बुद्धि से कल्पित सूत्र का प्रक्षेप कर पढ़ने का नाम व्यत्याने डित है । इस व्याख्या के अनुसार समग्र प्रक्षिप्त अंश व्यत्यानंडित दोष में आ जाता है।" टीकाकार ने उपर्युक्त पद की व्याख्या तीन प्रकार से की है। दो व्याख्याएं पूर्ववत् हैं। तीसरी व्याख्या का सम्बन्ध उच्चारणगत अशुद्धि से है। शास्त्रोच्चारण के समय जहां विराम लेना चाहिए, वहां विराम न ले, उसे यतिभंग दोष या अस्थानविरतिंक दोष कहते हैं। किन्तु यह व्याख्या समीचीन प्रतीत नहीं होती क्योंकि यति और विराम की चर्चा अमीलित पद में की जा चुकी है अतः यहां अपेक्षित नहीं है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार अनेक प्रकार के शास्त्रों के पदों और वाक्यों से मिश्रित सूत्र व्यत्यानंडित होता है अथवा अनुपयुक्त रूप से शास्त्र में किसी अंश का पृथक्करण या ग्रन्थन करना व्यत्यानंडित है । वृत्तिकार हेमचन्द्र ने इसको भेरीकथा और कोलिकपायस के उदाहरण से स्पष्ट किया है।" १. (क) अचू. पृ.८: अव्वाइद्ध अविवच्चक्खरं पदं । ४. विभा. ८५४ को वृत्ति-'अमिलियपयवक्कविच्छेयं ति' (ख) अहाव. पृ.९ : विपर्यस्तरत्नमालागतरत्नानीव अथवेत्यत्रापि तृतीय व्याख्यान्तसूचकः सम्बध्यते, अमिलिन व्याविद्धानि अक्षराणि यस्मिस्तदव्याविद्धाक्षरम् । तोऽसंसक्तः पदवाक्य-विच्छेदो यत्र, तद् वाऽमिलितमुच्यते । (ग) अमवृ. प. १४ । ५. अचू. पृ.८ : एगातो चेव सत्यातो जे एकाधिकारिसुत्ता ते (घ) विभा. ८५३ की वत्ति । सम्वे वीणोउं एगतो करेति, एवं विच्चामेलितं, अहवा २. (क) अचू. पृ.८ : पादसिलोगादीहि य उवलाकुलभूमीए समतिविकप्पिते नस्समाणे सुत्ते काउं बुवतो विच्चामेलितं जधा हलं खलते तधा जं परावत्तयतो खलते तं खलितं दिठैते धानं । ण क्खलितं अक्खलितम् । ६. अमव. प. १४ : अस्थानविरतिकं वा व्यत्यानेडितं न तथा (ख) अहावृ. पृ. ९। ऽव्यत्यानेडितम् । (ग) अमवृ. प. १४ । ७. विमा. ८५५ की वृत्ति-विविधानि नानाप्रकाराण्यनेकानि (घ) विभा. ८५४ को वृत्ति । शास्त्राणि तेषां पदवाक्यावयवरूपा बहवः पल्लवास्तविमिश्र ३. (क) अचू. पृ.८ : अण्णोन्नसत्थमिस्सं तं मिलितं दिळंतो, व्यत्यानंडितं अथवा अस्थानविच्छिन्नग्रथितं व्यत्यानेडितं असमाणधण्णमेलोव्व एवं जण्ण मिलितं, उच्चरतो यथा-'प्राप्त राज्यस्य रामस्य राक्षसां निधनं गताः' वा पदपादसिलोगादीहि वा अमिलितं । कोलिकपायसवद भेरीकन्थावद् वा, यथोक्तरूपं यद् न भवति (ख) अहावृ. पृ. ९। तदव्यत्यानेडितम् । (ग) अमवृ. प. १४॥ Jain Education Intemational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ मेरीकथा का उदाहरण श्रीकृष्ण द्वारवती नगरी का राज्य करते थे। ओमुतिको कौमुदी उत्सव की सूचना के लिए पहली के लिए तीसरी भेरी बजाई जाती थी । श्रीकृष्ण के पास देवप्रदत्त श्रीखण्ड गोशीर्षमयी एक भेरी और थी जो छह महिने से बजाई जाती थी । इस भेरी का शब्द सुनने वालों के छह मास का अशिव उपशांत हो जाता और अनागत छ मास तक अशिव नहीं होता था । उनके पास देवपरिगृहीत तीन भेरियां कौमुदी, सांग्रामिकी और संग्राम की सूचना के लिए दूसरी और आकस्मिक प्रयोजन को सूचित करने एक दिन दाहज्वर से पीड़ित एक व्यक्ति आया और भेरीरक्षक को हजार सुवर्ण मुद्राओं का प्रलोभन देकर भेरी का कुछ अंश मांगा । लोभवश रक्षक ने वैसा कर लिया और भेरी के कटे भाग में दूसरे चन्दन का थिग्गल लगवा दिया। इसी प्रकार कुछ और व्यक्ति भेरीरक्षक के पास आए और उसने धन के लोभ में प्रायः हिस्सा काट कर दे दिया तथा स्थान-स्थान पर दूसरे चन्दन के थिग्गल लगवा दिए । अणुओगदराई - छह महिने बाद नियत समय पर श्रीकृष्ण ने भेरी मंगाई और अशिव की उपशांति के लिए उसे बजाना प्रारम्भ किया । भेरी तो बजी पर अशिव की उपशांति नहीं हुई । श्रीकृष्ण ने इस रहस्य को जानने की कोशिश की तब रक्षक की अप्रामाणिकता स्पष्ट हो गई । थिग्गल लगवाने का इतिहास जानकर श्रीकृष्ण ने उस भेरीरक्षक को दण्डित किया । श्रीकृष्ण ने देवाराधन करके दूसरी भेरी प्राप्त की और दूसरा रक्षक नियुक्त किया। वह रक्षक बहुत ईमानदार था अतः प्रयत्नपूर्वक भेरी की रक्षा में सजग रहता । तात्पर्य यह है कि जो शिष्य गुरु से प्राप्त श्रुत में अन्यतीर्थिकों से प्राप्त श्रुत के थिग्गल जोड़कर उसे जर्जरित करता है, वह शिष्य अयोग्य होता है और श्रुत की यथावत् सुरक्षा करने वाला शिष्य द्वितीय भेरीरक्षक की भांति योग्य होता है । अव्यत्याम्रेडित का आशय स्वभावस्थित श्रुत है । जो आगम गणधरों के द्वारा जिस रूप में रचित है, उसका उसी रूप में पाठ होना चाहिए । कोलिकपास का उदाहरण कुछ तंतुवाय गोकुल में गए। वहां उन्होंने खीर बनाने का निर्णय लिया । खीर के लिए दूध उबाल कर गाढ़ा किया। इसमें कुछ भी डाला जाए, खीर बन जाएगी - यह सोचकर उन्होंने चावल, चौला, मूंग, तिल, भूसा सब कुछ उसमें डाल दिया । खीर को जगह भूसा बन गया और उसका कोई उपयोग नहीं हुआ, ठीक इसी प्रकार एक आगम में दूसरे आगमों का मिश्रण होने से वह अकिचित्कर हो जाता है । प्रतिपूर्ण लघु गुरु आदि से पूर्ण तथा उदात्त आदि घोषों से युक्त उच्चारण लेते समय उनसे जैसा उच्चारण प्राप्त हुआ, उसे उसी रूप में दोहराना दोहराना प्रतिपूर्णघोष है। इनमें ग्रहण और पुनरावृत्ति का अन्तर है।' १. (क) अ. पृ. ७: बिंदुमत्ताविएहि जं बुवइ अणूणातिरितं पडिपुण्णं भण्णति, जतोवइट्ठ वा छंदेण । (ख) अहावृ. पृ. ९ : प्रतिपूर्ण ग्रन्थतोऽर्थतश्च तत्र ग्रन्थतो मात्रादिभिर्यत् प्रतिनियतप्रमाणं, छन्दसा वा नियतमानमिति, अर्थतः परिपूर्ण नाम न साकांक्षमव्यापकं स्वतन्त्रं चेति । (ग) अमवृ. प. १४ । २. विभा. ८५६ की वृत्ति । ३. (क) अचू. पृ. ७ सहगुरुसेहि पुण्गं उदात्ताविहिवा जिस सूत्र में बिन्दु, मात्रा आदि की अधिकता या हीनता न हो, जिसके अर्थबोध में अध्याहार, आकांक्षा आदि की अपेक्षा न हो और जो यथोपदिष्ट छन्द से समन्वित हो वह प्रतिपूर्ण है ।" मधारी हेमचन्द्र ने प्रतिपूर्ण के दो अर्थ बतलाये हैं-सूत्र की दृष्टि से प्रतिपूर्ण और अर्थ की दृष्टि से प्रतिपूर्ण । जिसमें बिन्दु और मात्रा कम या अधिक न हो तथा जो उपयुक्त छन्द वाला पाठ हो, वह सूत्र की अपेक्षा से प्रतिपूर्ण है । जिसमें क्रिया के अध्याहार की अपेक्षा नहीं रहती, अव्यापकता और अस्वतंत्रता नहीं रहती, वह अर्थ की दृष्टि से प्रतिपूर्ण है । प्रतिपूर्णघोषयुक्त को प्रतिपूर्णघोष कहते हैं। गुरु के पास सूत्र की शिक्षा घोषसम है और पुनरावृत्ति करते समय उसे उसी रूप में घोसेहिं उच्चरतो पुण्णं । (ख) अहावृ. पृ. ९ उदात्तादिघोषाविकलं परिपूर्णघोषं, आह्घोषसममित्युक्तं ततोऽस्य को विशेषः ? इति उच्यते, घोषसममिति शिक्षितमधिकृत्योक्तं प्रतिपुर्णपोषं तुच्चार्यमाणं गृह्यत इत्ययं विशेषः । (ग) अमवृ. प. १४ । (घ) विभा. ८५६ की वृत्ति । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १, सू० १४, टि०११ २७ कण्ठोष्ठविप्रमुक्त _ मुक्त कण्ठ और मुक्त होठ से निकला हुआ पाठ कष्ठोष्ठविप्रमुक्त होता है। बच्चे और मूक व्यक्ति भी अपनी भावनाओं को शब्दों द्वारा व्यक्त करते हैं। किन्तु व्याकरण-निर्दिष्ट आठ स्थानों और प्रयत्नों का बोध न होने के कारण वे शब्द का स्पष्ट उच्चारण नहीं कर सकते। दोनों वृत्तियों में उक्त आशय की व्याख्या है ।' चूणि की व्याख्या इससे भिन्न प्रतीत होती है। उसके गृहित शब्द से लगता है कि 'कंठोट्ठविप्पमुक्कं' यह पाठ गुरूवाचनोपगत से संबद्ध है। चूर्णिकार के अनुसार शिष्य ने गुरु से अव्यक्तभाषित, बालभाषित और मूकभाषित जैसा पाठ ग्रहण नहीं किया किन्तु कण्ठ और होठ से मुक्त प्रयोग से उच्चारित पाठ का ग्रहण किया है। गुरुवाचनोपगत गुरुवाचनोपगत का अर्थ है गुरु द्वारा प्रदत्त वाचना से प्राप्त । गुरु दूसरों को वाचना दे, उसे छिपकर सुनना कर्णाक्षेप कहलाता है । यह गुरु की साक्षात् वाचना नहीं है। इस प्रकार सुनने से अर्थ का बोध अस्पष्ट और विसंवादी रह सकता है । इसी प्रकार शिष्य स्वयं पढ़े, उसमें भी उक्त दोनों कमियां रह सकती हैं। इस दृष्टि से गुरु के सामने बैठकर जो वाचना ली जाती है, उसका महत्त्व स्वीकार किया गया है। षट्खण्डागम में स्थित आदि कुछ पद उक्त विवरण के समान हैं और कुछ भिन्न हैं। जो पद समान हैं, उनमें भी अर्थभेद मिलता है। धवला के अनुसार अवधारण किए हुए श्रुत का नाम स्थित है। अस्खलित रूप से संचार करने योग्य श्रुत का नाम जित या चित है । पूछे हुए विषय में तत्काल प्रवृत्ति की जा सके, वैसे श्रुत का नाम परिचित है। नाना रूप से जो जानता है उसे नाम कहते हैं। यहां नाम का अर्थ व्यक्तिवाचक संज्ञा अभिप्रेत नहीं है किन्तु श्रुत का ज्ञाता अथवा द्रव्यश्रुत विवक्षित है। वाचनोपगत का अर्थ है-दूसरों को प्रत्यय कराने में समर्थ । इसके अतिरिक्त वहां सूत्रसम ग्रन्थसम आदि पद भी उपलब्ध होते हैं।' अनुप्रेक्षा अधिगत या ज्ञात अर्थ का तन्मयता के साथ मन से अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है । जैसे तप्त लोहपिण्ड अग्निमय बन जाता है, वैसे ही अनुप्रेक्षा करने वाला अर्थ के प्रति समर्पित होकर अर्थमय बन जाता है। वाचना आदि उपयोग शून्य भी हो सकते हैं किन्तु अनुप्रेक्षा उपयोग शून्य नहीं हो सकती । इसलिए शिक्षित पद से लेकर धर्मकथा पर्यन्त पद द्रव्यनिक्षेप की कोटि में आ सकते हैं किन्तु अनुप्रेक्षा द्रव्यनिक्षेप में नहीं आ सकती। सूत्र १४ ११. (सू० १४) द्रव्य निक्षेप के आगमतः-ज्ञानात्मक पक्ष पर सात नयों से विचार किया गया है। नैगम नय का विषय सामान्य और विशेष दोनों हैं इसलिए उसके अनुसार द्रव्यावश्यक एक, दो, तीन यावत् लाख, करोड़ कितने ही हो सकते हैं। जितने अनुपयुक्त हैं वे सब द्रव्यावश्यक हैं। व्यवहार नय का विषय है विशेष अथवा भेद । यह लोक व्यवहार को मान्य करता है इसलिए इसमें भी नंगम नय की भांति द्रव्यावश्यक की संख्या का निर्देश किया जा सकता है । संग्रह नय का विषय है-सामान्य । इसलिए उसमें द्रव्यावश्यक का राशिकरण हो सकता है जैसे एक द्रव्यावश्यक और अनेक द्रव्यावश्यकों की एक राशि । ऋजुसूत्र का विषय है-पर्याय । इसलिए उसके अनुसार एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः द्रव्यावश्यक है, बहुवचन इसे मान्य नहीं। तीनों शब्द नयों का विषय है --शब्द । उनके अनुसार कोई व्यक्ति जानता है और उपयुक्त नहीं है - ऐसा हो नहीं सकता । अतः उन्हे आगमतः द्रव्यावश्यक मान्य नहीं है । १. (क) अहावृ. पृ. ९ : कंठश्चौष्ठी कण्ठोष्ट, प्राण्यङग्त्वादेकवद्भावस्तेन विप्रमुक्तमिति विग्रहः, नाव्यक्तबालमूकभाषितवत्। (ख) अमवृ. प. १४॥ २. अचू. पृ. ७ : गुरुणा अव्वत्तं णुभासंतं बालमूअभणितं वा, कहं वा भासतो गहियं ? उच्यते, कंठे वट्टितणे परिफुडउट्ठविप्पमुक्केण भासतो गहियं । ३. (क) अचू. पृ. ७, ८ : एवं गुरुसमीवातो तेणागतं, ण कण्णा हेडितं, पोत्थयाओ वाअणं ण भवति । (ख) अहावृ. पृ.९। (ग) अमव. प.१४। (घ) विभा. ८५७ की वृत्ति । ४.ध. ९४,१,५४।२५९७ । ५. तवा. ९।२५ : अधिगतपदार्थप्रक्रियस्य तप्तायसपिंडवपित चेतसो मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा वेदितव्या। Jain Education Intemational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराइ सूत्र १५-२१ १२. (सू० १५-२१) नोआगम के आधार पर द्रव्य निक्षेप के तीन प्रकार होते हैं१. ज्ञशरीर द्रव्यावश्यक-जो शरीर निर्दिष्ट विषय को जानता था, पर वर्तमान में ज्ञान शून्य है। २. भव्यशरीर द्रव्यावश्यक-जो शरीर भविष्य में निर्दिष्ट विषय को जानेगा, पर वर्तमान में ज्ञानशून्य है। ३. तद्व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक-आर्यरक्षित ने तद्व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक के तीन प्रकार बतलाए हैं' १. लौकिक २. कुप्रावनिक ३. लोकोत्तर ये उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं किन्तु तद्व्यतिरिक्त के अर्थ की सीमा करने वाले नहीं हैं। तद्व्यतिरिक्त के अन्यान्य प्रसंगों में अन्य भेद भी उपलब्ध होते हैं । कषायपाहड़ में 'पेज्ज' के तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप के दो प्रकार किए गए हैं।-- १. कर्मपेज्ज तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप। २. नोकर्मपेज्ज तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप । जिनभद्रगणि ने भी कषाय के प्रसंग में तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप के ये ही दो प्रकार बतलाये हैं।' तद्व्यतिरिक्त कर्मद्रव्य को उन्होंने राग के उदाहरण के द्वारा परिभाषित किया है। कर्मद्रव्य की चार अवस्थाएं हैं १. योग्य बंधपरिणामाभिमुख अवस्था । २. बध्यमान - जिसकी बंधक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है । ३ बद्ध- जिसकी बंधक्रिया सम्पन्न हो चुकी है। ४ उदीरणावलिका प्राप्त - जो उदीरणावलिका में प्रविष्ट हो चुका है। नार्मद्रव्य की दो अवस्थाएं निर्दिष्ट हैं:१ प्रायोगिक-कुसुम्भे का रंग । २. वैससिक-संध्या का रंग । शब्द विमर्श सूत्र १६ व्यपगतच्युतच्यावितत्यक्तदेह व्यपगत, च्युत, च्यावित और त्यक्तदेह-ये चारों शरीर के विशेषण हैं - ० व्यपगत चैतन्य पर्याय से मुक्त होकर अचैतन्य पर्याय को प्राप्त । • च्युत-प्राणशक्ति से च्युत । आयुष्य पूर्ण होने पर जो शरीर स्वतः छूट जाता है वह च्युत शरीर है। १. नसुअ. १८। ६. (क) अचू. पृ. ९ : ववगतं सरीरं जीवातो जीवो वा २. कपा. पृ. २७० : तव्वदिरित्त णोआगमदव्वपेज्जं दुविहं सरीरातो, एवं तु तावइयावि चत्तं जीवेण देहं चत्तो कम्मपेज्ज णोकम्मपेज्ज चेदि । देहेण वा जीवो। ३.विभा. २९८१: (ख) अहावृ. पृ. १४ : व्यपगतं-ओघतश्चेतनापर्यायाददुविहो दबकसाओ कम्मदव्वे व नो य कम्मम्मि । चेतनत्वं प्राप्तं, च्युतं-देवादिभ्यो भ्रष्टं, च्यावितंकम्मदव्वकसाओ चउव्हिा पोग्गलाणुइआ । तेभ्य एवायुःक्षयेण भ्रंशितं, त्यक्तदेहं-जीवसंसर्गसमु४. विभा. २९६२ त्थशक्तिजनिताहारादिपरिणामप्रभवपरित्यक्तोपच यं ॥ जोग्गा बद्धा बझंतया य पत्ता उईरणावलियं । (ग) अमवृ. प. १८। अह कम्मदव्वराओ चउब्विहा पुग्गला हुंति ॥ ५. विभा. २९६३ : नोकम्मदव्वराओ पओगओ सो कुसुंभरागाई। बीओ य वीससाए नेओ संझन्मरागाई। Jain Education Intemational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १, सू० १५-२१, टि०१२ • च्यावित-शस्त्र आदि के प्रयोग से प्राणशक्ति से च्युत किया गया। • त्यक्तदेह-अनशन के द्वारा त्यागा हुआ शरीर अथवा अनशनजनित उपचय की हानि । धवला में त्रिविध अनशन के आधार पर त्यक्त शरीर के तीन भेद किए गए हैं:० प्रायोपगमन विधान से त्यक्त । • इंगिनी विधान से त्यक्त • भक्तप्रत्याख्यान विधान से त्यक्त । चूर्णिकार ने 'चत्तं जीवेण देह' 'चनो देहेण वा जीवो' इस व्याख्या के द्वारा चत्तदेहं का अर्थ जीवमुक्तदेह किया है।' आचार्य हरिभद्र ने भी चत्तदेहं की यही व्याख्या की है। उन्होंने चत्तदेहं और देहोवरयं को एकार्थक माना है।' वृत्तिकार हेमचन्द्र ने चत्तदेहं का अर्थ उपचयरहित किया है। शरीर का उपचय आहार आदि के द्वारा होता है । जीवमुक्त शरीर के आहार का ग्रहण नहीं होता, तब उसकी परिणति कहां से होगी? शय्यागत देहप्रमाण बिछौने को शय्या कहा गया है और ढाई हाथ प्रमाण बिछौने को संस्तारक कहा गया है। निषिधिकागत चूर्णिकार और हरिभद्र के सामने यह पाठ नहीं रहा होगा, इसलिए उन्होंने इसकी व्याख्या नहीं की। वृत्तिकार हेमचन्द्र ने वाचनान्तर मानकर इसकी व्याख्या की है । उनके अनुसार इसका अर्थ है-शवपरिष्ठापनभूमि । स्थानांग सूत्र में व्यापारान्तर के निषेध रूप समाचारी-आचार, वसुदेवहिडि में मुक्ति--मोक्ष, श्मशानभूमि, तीर्थकर या सामान्यकेवली का निर्वाण स्थान, स्तूप और समाधि अर्थ किया गया है। आवश्यक चूणि में इसका अर्थ वसति-साधुओं के रहने का स्थान और स्थण्डिलभूमि-निर्जीवभूमि किया गया है । सिद्धशिलातलगत सिद्धशिला शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है। ईषत् प्राग्भारा नामक आठवीं पृथ्वी सिद्धशिला कहलाती है पर यहां वह विवक्षित नहीं । प्रस्तुत सन्दर्भ में इसका अर्थ है-जिस शिलातल पर तपस्वी साधु स्वयं जाकर भक्तपरिज्ञा, इंगिनी या प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर चुके हैं, कर रहे हैं अथवा करेंगे वह क्षेत्र । उस क्षेत्र के प्रकम्पन ऐसे हैं कि वहां बैठकर साधना करने से शीघ्र सफलता मिल जाती है । चूणिकार ने इसका दूसरा कारण यथाभद्रक देवों के द्वारा दिए गए सहयोग को माना है। यथाभद्रक देव वे होते हैं जो प्रकृति से भद्र व साधना में सहयोग करने वाले होते हैं । सूत्र १७ जोणिजम्मणनिक्खंते गर्भकाल का परिपाक होने के बाद निकलने वाला जीव। इस पद के द्वारा समय से पूर्व होने वाले जन्म का निषेध किया गया है। १.ध. १११,१,१।२५।६। २. अचू. पृ.९। ३. अहावृ. पृ. १४ : भण्णइ हु चत्तदेहं देहोवरओत्ति एगट्ठा। ४. अमवृ. प. १८ : त्यक्तो देहः---आहारपरिणतिजनित उपचयो येन तत् त्यक्तदेहं। ५. अमवृ. प. १८: शय्या -महती सर्वांगप्रमाणा तां गतं ___ शय्यागतं संस्तारो लघुको/तृतीयहस्तमानस्तं गतं ....... । ६. अमवृ.प. १८, १९ : नषेधिकी शवपरिस्थापनभूमिः । ७. (क) अचू. पृ. ९ : सिद्धसिल त्ति जत्थ सिलातले साहवो तवकम्मिया सयमेव गंतुं भत्तपरिणिगिणि पाववगमणं वा बहवे पवण्णपुव्वा पडिवज्जति य तत्थ यं खेत्तगुणतो अहाद्दियदेवता गुणेण वा आराहणा सिद्धी य जत्थावस्सं भवति सा सिद्धसिला। (ख) अहावृ.पृ. १४,१५ । (ग) अमवृ. प. १८। ८. (क) अचू. पृ. १०.११: जोणी गम्भाधारस्थानं ततो सब्वहा पज्जत्तो जन्मत्वेन निष्क्रान्तः आमगन्मनिक्कमणप्रति षेधार्थमेवमुक्तम् । (ख) अहाव.पृ.१५। (ग) अमवृ. प. १९,२० । Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई सूत्र १८ कुप्रावनिक यह एक सापेक्ष वर्गीकरण है। इसमें आवश्यक क्रिया करने वाले व्यक्तियों को तीन वर्गों में संगृहीत किया गया है। प्रथम वर्ग लौकिक या सामाजिक है । शेष दो वर्ग धर्म की आराधना करने वाले व्यक्तियों के हैं । जैन दृष्टि के अनुसार एकान्तवाद को कुप्रवचन माना जाता है। इस दृष्टि से चरक, चीरिक आदि का कुप्रावनिक वर्ग में संग्रह किया गया है। इन्हें लोकोत्तर वर्ग में भी सम्मिलित किया जा सकता है किन्तु उसमें अनेकांत प्रवचन का ही संग्रह किया गया है इस अपेक्षा से 'कुप्रावचनिक'-इस स्वतन्त्र वर्ग की विवक्षा की गई है। सूत्र १९ राजा, युवराज चूर्णिकार और दोनों टीकाकारों के अनुसार चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और महामाण्डलिक राजा कहलाता है।' कल्पसूत्र टिप्पनकम् में केवल माण्डलिक को राजा बतलाया गया है। षट्खण्डागम के अनुसार जो नम्रीभूत अठारह श्रेणियों का अधिपति हो, मुकुट को धारण करने वाला हो और सेवा करने वालों के लिए कल्पतरु के समान हो, उसे राजा कहा गया है।' अठ रह श्रेणियों में घोड़ा, हाथी और रथ के अधिपति, सेनापति, मन्त्री, श्रेष्ठी, दण्डपति, शूद्र, क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, महत्तर, गणराज, अमात्य, तलवर, पुरोहित, स्वाभिमानी महामात्य और पैदल सेना को लिया गया है। ईश्वर युवराज, अमात्य आदि को कहा जाता है। ऐश्वर्य युक्त व्यक्ति को भी ईश्वर कहा जाता है। ग्राम का पट्टधारक अधिपति भी ईश्वर कहलाता है।' तलवर राजा प्रसन्न होकर जिसके सिर पर रत्नखचित सोने का पट्ट बांधता है उसे तलवर कहते हैं। राजा के समान ही ऐश्वर्यसम्पन्न व्यक्ति को तलवर कहते हैं केवल उसके पास चामर नहीं होता। तमिल भाषा में तलवर शब्द का प्रयोग होता है। उसका अर्थ है-अध्यक्ष या प्रधान । संभव है यह तलवर शब्द ही तलवर के रूप में परिवर्तित होकर प्रयुक्त हुआ हो । यशस्तिलक में तलवार धारण करने वाले व्यक्ति के लिए तलवर शब्द का प्रयोग हुआ है । एक प्रसंग में तलवर चोर को पकड़कर राजदरबार में उपस्थित होता है। इस प्रकरण के अनुसार तलवर शब्द कोतवाल का वाचक होना चाहिए। १. (क) अचू. पृ. ११ : रायत्ति-चक्कवट्टी वासुदेवो बलदेवो महामंडलीओ वा। (ख) अहाव. पृ. १९ तत्र राजा-चक्रवादिमहा माण्डलिकान्तः। (ग) अमवृ. प. २१ । २. कटि. पृ.९: राजानः माण्डलिकाः। ३.ध. १११,१,१, गा. ३६१५७ : अष्टादशसंख्यानां श्रेणीनामधिपतिविनम्राणाम् । राजा स्यान्मुकुटधरः कल्पतरुः सेवमानानाम् ॥ ४. वही ११,१,१, गा. ३७,३८।५७ : हय-हत्थि-रहाणहिवा-सेणावइ-मंति-सेट्ठि-दण्डवई । सुद्दक्खत्तिय-बम्हण-वइसा-तह-महयरा चेव ॥ गणरायमच्च-तलवर-पुरोहिया-दप्पियामहामत्ता। अट्ठारह सेणीओ पयाइणा मीलिया होंति ॥ ५. (क) अचू. पृ. ११ : जुवराया अमच्चादिया ईसरा, अहवा ईसरविव ऐश्वर्ययुक्त ईश्वरः । (ख) अहावृ. पृ. १६ । (ग) अमवृ. प. २१ । (घ) कटि. पृ. ९ : ईश्वराः युवराजाः । ६. निचू.२ पृ. २६७ : सोय गामभोतियादिपट्टबंधा। ७. (क) अचू. पृ. ११ : राइणा तुह्रण चामीकरपट्टो रयण खइतो सिरसि बद्धो यस्स सो तलवरो भण्णति । (ख) अहावृ.पृ. १६ । (ग) अमवृ. प. २१ । (घ) कटि. पृ. ९ : तलवरा:-नरपति-प्रदत्तपट्टबन्ध विभूषिता राजस्थानीयाः। ८. निचू. २ पृ. २६७ : रायप्रतिमो चामरविरहिता। ९. यसांअ. पृ. २०६। Jain Education Intemational Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १ सू० १५-२१, टि०१२ माsम्बिक मडम्ब के अधिपति का नाम माडम्बिक है ।' टीकाकार हेमचन्द्र के अनुसार जिसके आसपास कोई ग्राम, नगर न हो वह विजन स्थान मडम्ब कहलाता है। तमिल में धार्मिक स्थान को मडम्ब कहते हैं उसके अधिपति माडम्बिक कहलाते हैं । बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति में मडम्ब उसे कहा गया है जिसके आसपास ढाई गव्यूत (दो कोस का एक गव्यूत होता है) या ढाई योजन तक कोई ग्राम आदि न हो ।' कौटुम्बिक इभ्य माण्डलिक राजा को कौटुम्बिक कहते हैं। टीकाकारों के अभिमत से कुछ कुटुम्बों के स्वामी का नाम कौटुम्बिक है। इम का अर्थ है हाथी । जिस व्यक्ति के पास हाथी के प्रमाण जितना या इससे उसे इभ्य कहते हैं - यह चूर्णिकार का अभिमत है। टीकाकारों के अनुसार जिसकी हाथी भी दिखाई न दे, इतनी या इससे अधिक द्रव्यराशि के स्वामी को इभ्य कहते हैं। या व्यापारी ।" श्रेष्ठी अभिषेक करती हुई लक्ष्मीदेवी का चित्र जिसमें अंकित हो, वैसा वेष्टन बांधने वाला और सब वणिजों का अधिपति श्रेष्ठी कहलाता है । यह तमिल भाषा के चेट्टि शब्द का परिवर्तित रूप है। विशेष जानकारी के लिए देखें- दसवेआलियं प्रथम चूलिका टि० १९ । सेनापति ३१ चतुरंगिणी सेना के अधिपति को सेनापति कहते हैं ।" चतुरंगिणी सेना में हाथी, घोड़ा, रथ और पदाति-सेमा के ये चार अंग होते हैं । इन सबका नेतृत्व सेनापति के द्वारा किया जाता है। हरिभद्रसूरि ने इन चार अंगों के अतिरिक्त ऊंट की सेना का उल्लेख भी किया है ।" सार्थवाह १. (क) अ.. ११ मंडवाहियो मंडी। (ख) हा पू. १६ । (ग) कटि. पृ. २१ । २. अमवृ. प. ११ : यस्य पार्श्वतः आसन्नमपरं ग्रामनगरादिकं नास्ति तत्सर्वतन्नायविशेषरूपं मम्यते । सार्थ के नायक का नाम सार्थवाह है। जो राजा की आज्ञा से गण्य (जो गिनकर दिया जाए, जैसे-सुपारी, नारियल आदि), धायें (जो तौलकर दिया जाए, जैसे- मिश्री आदि), मेव (जो मापकर दिया जाए, पी, चावल आदि) और परिच्छेद्य (जो परीक्षा करके दिया जाए, जैसे-रत्न, मोती आदि ) - इन चार प्रकार के द्रव्यसमूह को लेकर विशेष लाभ पाने के लिए व्यापारार्थ ३. बृभा. २, पृ. ३४२ : मडम्बं नाम यत् सर्वतः सर्वासु दिक्षु छिन्नं, अर्धतृतीयगव्यूतं मर्यादायामविद्यमानमिति भावः । अन्ये तु व्याचक्षते यस्य पारतोयोजनान्तरप्रामादिकं न प्राप्यते तत् मडम्बम् । ४. अचू. पृ. ११ : जे मंडलिया राई ते कोडंबी । ५. (क) अहावू. पू. १६ : कौटुम्बिकः कतिपयकुटुम्ब प्रभुः । (ख) अमवृ. प. २१ । ६. अचू. पृ. ११ : इभो हत्थी तप्यमाणो हिरण्ण सुवण्णादिपूंजो जस्स अत्थि अधिकतरो वा सो इब्भो । भी अधिक सोने चांदी आदि का पुंज होता है पूंजीकृत रत्न आदि की राशि में छिपा हुआ इब्भ देशी शब्द भी है इसका अर्थ है वणिक् ७. (क) अहावृ. पृ. १६ : इभ्यः, अर्थवान् - स च किल य पंजीकृत रत्नराज्यन्तरितो हस्त्यपि नोपलभ्यते इत्येति । (ख) अमवृ. प. २१ । ८. देशको पृ. ४२ । ९. ( क ) अच्. पृ. ११ : अभिषिच्यमानश्रीवेष्टनकबद्धः सव्ववयाहियो सेट्ठी । (ख) अहाबु प १६ श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितो तमाङ्गः पुरज्येष्ठो वणिक् । (ग) अमवृ. प. २१ । १०. अ. पू. ११ चउरंगिणीए गाए अहियो सेना ११. अहावृ. पृ. १६ सेनापतिः - नरपतिनिरूपितोष्ट्र हस्त्यश्वरथपदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुरित्यर्थः । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अणुओगदाराई विदेश जाता है उसे सार्थवाह कहते है।' वृत्ति के अनुसार वह राजा के द्वारा मान्यता प्राप्त, प्रसिद्ध और मार्ग में दीन एवं अनाथ व्यक्तियों का सहायक होता 'है।' यशस्तिलक में वैश्य के लिए वैश्य, वणिक्, श्रेष्ठी और सार्थवाह शब्द आए हैं। सार्थवाह अपने देश में व्यापार करते ही थे। नौका द्वारा समुद्र पारकर विदेशों में भी जाते थे । श्रेष्ठ व्यापारी को राज्य की ओर से राज्यश्रेष्ठी पद दिया जाता था । प्राचीन समय में यात्रा के साधन आधुनिक साधनों की भांति द्रुतगामी नहीं थे। दूर की यात्रा में समय अधिक लगता और चोरी, बटमारी आदि का भी भय रहता था । अकेला व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों से घबरा जाता था। इसलिए सामूहिक यात्रा का सूत्रपात किया गया। एक साथ चलने वाले व्यापारियों के समूह के लिए सार्थ शब्द का उपयोग हुआ । निशीथचूर्णि के अनुसार राजा के द्वारा अनुज्ञात सार्थ का वहन करनेवाले वणिक् का नाम सार्थवाह है। सार्थवाह केवल नाम मात्र का नेता नहीं होता था। सार्थ की समग्र व्यवस्था का दायित्व उसी पर होता था । कुशल सार्थवाह अपने साथियों के लिए हर प्रकार की सुविधा जुटाता था। किसी-किसी सार्थवाह की मूर्खता से समग्र सार्थ को भयंकर कष्टों का सामना करना पड़ता था । जैनागमों में, बौद्ध जातकों में और महाभारत आदि में सार्थ और सार्थवाह के सम्बन्ध में अनेक प्रसंग वर्णित है। इन प्रसंगों में तत्कालीन व्यापारविधियों के साथ भारतीय पथ पद्धतियों के बारे में भी विस्तृत जानकारी मिलती है। व्यापारी लोग अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से यात्रा करते थे। उनके साथ पांच प्रकार के होते थे१. भंडी सार्थ - गाड़ी आदि से माल ढोने वाले व्यक्ति । २. बहलिका सार्थ - इस सार्थ में ऊंट, बैल आदि होते थे । ३. भारवह सार्थ -- इस सार्थ में मनुष्य स्वयं पोटली आदि में अपना माल ढोते थे । ४. औदरिक सार्थ - इस सार्थ के व्यक्ति जहां जाते, वहीं अपने रुपये आदि छोड़ देते थे । व्यापारार्थ इधर उधर घूमकर पुनः वहीं आ जाते । अपने सम्पूर्ण सम्बल के साथ घूमने वाले सार्थ भी औदरिक कहलाते थे । ५. कार्पटिक सार्थ - इस सार्थ में भिक्षावर मुनियों की अधिकता होती थी।" वैदिककाल में सार्थवाह बोझा ढोने के लिए बैल, घोड़ा, गधा, ऊंट और कुत्ते का उपयोग करते थे । ' सुविमलाए चूर्णि में सुविमलाए पाठ व्याख्यात नहीं है। हेमचन्द्र और हरिभद्र की वृत्ति में इसकी व्याख्या है।" फुल्ल-कमल-कोमलुमिनियम हरिभद्र ने कमल का अर्थ आरण्यक पशु किया है ।" हेमचन्द्र ने इसका अर्थ हरिण किया है।' कोमल शब्द यहां विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पूर्णिकार ने कोमल, उम्मीलित का अर्थ अर्धविकसित किया है।" वृत्ति इव में कोमल का अर्थ अकठोर किया गया है।" पर चूर्णि का अर्थ ही अधिक प्रासंगिक लगता है क्योंकि कमल सूर्य विकासी होता है। उषाकाल में वह पूर्ण विकसित नहीं होता, पर विकसित होना शुरू हो जाता है इसीलिए यहां उसकी अर्धविकसित अवस्था वर्णित है । १. (क) अधू. पू. ११ रायाण्यातो चतुव्विहं दबिणजायं, गणिमधरिममेज्नपरि घेतुं लाभाची विसयंतर गामी सत्यमाह । (ख) अमवृ. प., २१ । २. अमवृ. प. २१ : नियम पसिद्धी दानाहान बल पये। सो सत्थवाह नाम धणोव्व लोए समुव्वहई ॥ ३. यसअ पृ. ७ । ४. निघू. पू. २६७ जी वाणिओ रातीहि अन्यगुणतो सत्यं वाहेति सो सत्यवाहो । ५. निचू. ४, पृ. ११० : सो सत्थो पंचविहो मंडि त्ति गंडी, बहिलगा उट्टबलिद्दादि, भारवहा पोट्टलिया वाहगा, उदरिया णाम जहं गता तह चैव रूवगादी छोढुं समुद्दिसंति पच्छा - गम्मति, अहवा गहिय संबला उदरिया, कप्पडिया भिक्खायरा । ६. वैसास. पू. ५७४ । ७. (क) अहा. पृ. १६ काल भाविना मानवानां तमावश्यककालमाह । (ख) अमवृ. प. २१ । ८. अहाव. पृ. १६ : कमलस्त्वारण्यः पशुविशेषः । ९. अमवृ. प. २१ : कमलो हरिणविशेषः । सुविमलायामित्यादिनोत्तरोत्तरविशेषणकलापेनास्तोत १०. अचू पृ. ११ : कोमला उम्मिलिया- अद्धविकसिता य । ११. (क) अहावू. पृ. १६ : कोमलं - अकठोरं । (ख) अमवृ. प. २१ । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १० १५-२१, दि० १२ यथा पाण्डर चूर्णिकार और वृत्तिकार हरिभद्र ने अहपंडुरे में अह को अलग शब्द मानकर अथ आनन्तर्ये इस रूप में व्याख्या की है । ' हमने इसे यथापांडुर एक शब्द मानकर इसका अर्थ पीत आभावाला अरुणिम किया है। मुखधावन आदि मुंह धोना, दांत प्रक्षालना, बालों में तेल लगाना, कंघी करना, सरसों और दूर्वा को सिर पर बिखेरना ( उवारणा) दर्पण में मुंह देखना, वस्त्रों में धूप देना, फूलमाला आदि से सिर या अन्य अवयव को सजाना, सुगंधित द्रव्य का उपयोग करना, तांबूल आदि को काम में लेना या स्वच्छ वस्त्र पहनना ये सब प्रभात कर्म हैं। प्रातःकाल ये अवश्य किए जाते हैं इसलिए ये आवश्यक हैं। ये सब लौकिक कार्य हैं अतः लौकिक द्रव्यावश्यक हैं। सभा अथवा प्रपा चूर्णिकार और टीकाकार हेमचन्द्र ने सभा का अर्थ बताते हुए लिखा है कि जहां महाभारत आदि का व्याख्यान करने के लिए लोग इकट्ठे होते हैं वह स्थान सभा है।' यहां सभा का अर्थ ग्राम सभा, पंचायत आदि होना चाहिए। प्रपा का अर्थ है प्याऊ । लोगों के एकत्रित होने का स्थान । प्रपा का प्रयोग आधुनिक काफी हाऊस, रेस्टोरेंट या हॉटल जैसे किसी स्थान के लिए हुआ है, ऐसी संभावना की जा सकती है । सूत्र २० चरक जो भिक्षा के लिए घूमते हैं वे चरक कहलाते हैं। फटे पुराने चीवरों - वस्त्र खण्डों को जोड़कर बनाए गए परिधान को पहनने वाले या चीरमय भण्ड उपकरण रखने वाले संन्यासी ।" चीरिक बौद्ध भिक्षुओं में मार्ग में गिरे हुए वस्त्र खण्डों को जोड़कर पहनने की परम्परा थी। वर्तमान में इस परम्परा में परिष्कार करके नए वस्त्रों को फाड़कर उनके खण्ड किए जाते हैं फिर उन्हें जोड़कर परिधान तैयार किया जाता है। धर्मडिक चमड़े के परिधान पहनने वाले अथवा सभी उपकरण चमड़े के रखने वाले संन्यासी ।' भिक्षाजीवी संन्यासी भिक्खोंड या भिच्छंड कहलाते थे । बौद्ध भिक्षुओं के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया है। मिक्षाजीवी शेव शरीर पर भस्म लगाने वाले संन्यासी ।" १. ( क ) अजू. पृ. ११ : अथेत्यनन्तरं । (ख) अहावृ. पृ. १६ । २. (क) असू. पू. १२ समा जाय भारहाइपाइकाहि जय अच्छती । ३३ (ख) अमवृ. प. २२ । ३. अचू. पृ. १२ : पवा जत्य उदगं दिज्जति । ४. ( क ) अचू. पृ. १२ : भिक्खं हिंडंति ते चरगा । (ख) अहावृ. पृ. १७ । (ग) अमवृ. प. २२ । ५. (क) अजू. पृ. १२ चीरपरिहाणा चीरपाउरगा चीरमंडो वकरणा य चीरिया । (ख) अहाव. पृ. १७ । (ग) अम. प. २२ रम्यापतितवीरपरिधानारची रिका अथवा येषां चीरमयमेव सर्वमुपकरणं ते चोरिकाः । ६. (क) अचू पृ. १२ : चम्मपरिहाणा चम्मपाउरणा चम्म टोकरणा यचम्महिता चम्मचंडिता था। (ख) अहावृ. पृ. १७ । (ग) अमवृ. प. २२ ॥ ७. (क) अचू. पृ. १२ : भिक्खं उंडेति भिक्षाभोजना । (ख) अहावृ. पृ. १७ : भिक्षोण्डा: भिक्षाभोजिनः सुगतशासनस्था इत्यन्ये । (ग) अमवृ. प. २२ ॥ ८. (क) अचू. पृ. १२ : पंडुरंगा सारक्खा । (ख) महायू. पू. १७ पांडुरङ्गाः बौता । (ग) अमवृ. प. २२ : पांडुराङ्गा - भस्मोद्धूलितगात्राः । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई गौतम जो संन्यासी बैलों को कौड़ियों व मालाओं से सजाते हैं, नमस्कार करना सिखाते हैं और उनके कारण से भिक्षा प्राप्त करते हैं, वे गौतम कहलाते हैं। गौव्रती ___गाय की चर्या का अनुसरण करने वाले संन्यासी । ये तिर्यंचों, पशुओं के साथ रहने की भावना से गाय के साथ चलते हैं, रहते हैं, बैठते हैं और उन्हीं की तरह फल, फूल आदि खाते हैं।' राजा दिलीप की गौभक्ति प्रसिद्ध है । वह नन्दिनी गाय के प्रति इतना समर्पित था कि वह ठहरती तो ठहरता, चलती तो चलता, वह बैठती तो बैठता, वह पानी पीती तो पानी पीता । एक वाक्य में कहें तो वह छाया की तरह अनुगमन करता।' गृहधर्मी गृहस्थ धर्म को श्रेयस्कर मानकर के उसका पालन करने वाला।' इस विचारधारा के लोगों का यह अभिमत है गृहस्थ धर्म के समान कोई धर्म न हुआ है और न होगा। इसका पालन करने वाले ही धीर होते हैं । वे ही लोग संन्यास को स्वीकार करते हैं जो कायर होते है। धर्मचिन्तक याज्ञवल्क्य गौतम आदि ऋषियों के द्वारा निर्मित धर्म-संहिताओं पर चिन्तन करने वाले और उन्हीं को आधार मानकर व्यवहार करने वाले। अविरुद्ध वैनयिक मत में आस्था रखने वाले । इस मत के अनुसार देव, राजा, माता, पशु आदि सभी प्राणियों के प्रति समान रूप से विनय रखना चाहिए। विनय की प्रमुखता के कारण ही इस दर्शन की पहचान विनयवादी दर्शन के रूप में हुई। चूर्णिकार ने अविरुद्ध का मूल अर्थ वैनयिक किया है पर वैकल्पिक अर्थ में उन्होंने उदाहरण के रूप में वैश्यायन पुत्र को निर्दिष्ट किया है । आचार्य हरिभद्र ने भी वैश्यायन पुत्र का उल्लेख किया है। सूत्रकृतांग की भूमिका में विनयवादी दर्शन के वशिष्ठ, पराशर आदि ११ आचार्यों का उल्लेख किया गया है। विरुद्ध अक्रियावादी दर्शन में आस्था रखने वाले । चर्णिकार के अनुसार ये सब क्रियावादियों, अज्ञानवादियों और विनयवादियों से विरुद्ध होने के कारण विरुद्ध कहलाये। आचार्य हरिभद्र के अनुसार ये परलोक को अस्वीकार करते थे और सब वादियों के विरुद्ध रहते थे।" १. (क) अचू. पृ. १२ : पायवडणादिविविहसिक्खाइ बइल्लं ६. (क) अचू. पृ. १२ : गौतमयाज्ञवल्कप्रभृतिभिः ऋषिभिर्या सिक्खावंतो तं चैव पुरो का कण्णभिक्खादि अडतो धर्मसंहिता प्रणिता तं चिन्तयंतः ताभिर्व्यवहरतो गोतमा। (ख) अहावृ. पृ. १७ । धर्मचितगा भवंति। (ग) अमवृ. प. २२ । (ख) अहावृ पृ.१७। २. (क) अचू. पृ. १२ : गावीहिं समं गच्छंति......."गोण इव (ग) अमवृ. प. २३ । भक्खयंतो गोव्वतिया। (क) अचू. पृ. १२ : अविरुद्धा वेणइया वा हत्थियार(ख) अहावृ. पृ. १७। पासंडत्था जहा वेसियायणपुत्तो। (ग) अमव. प. २२,२३ । (ख) अहाव. पृ. १७॥ ३. र. २०६। ८. सूभू. पृ. २३। ४. अचू. पृ. १२ : गृहधर्म एव श्रेयान् अतो गृहधर्मे स्थिता ९. अचू. पृ. १२ : विरुद्धा अकिरियावायद्विता सम्वकिरियागृहधम्मत्था। वादी अण्णाणियवेणईएहि सह विरुद्धा। (ख) अहावृ.पृ. १७। १०. अहाव. पृ. १७ : परलोकानभ्युपगमात्सर्ववादिभ्य एव ५. अमवृ. प. २३: विरुद्धा इति । गृहाश्रमसमोधर्मो, न भूतो न भविष्यति । तं पालयन्ति ते धीराः, क्लीबा पाषण्डमाश्रिता ।। Jain Education Intemational Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १, सू० १५-२१, टि०१२ मलधारिया वृत्ति के अनुसार ये पुण्य-पाप आदि का अस्वीकार करने के कारण विरुद्ध कहलाये।' वृद्धधावक वृद्धश्रावक इस शब्द में दो पद हैं-वृद्ध और श्रावक । वृद्ध का अर्थ है तापस और श्रावक का अर्थ है ब्राह्मण । तापस को वृद्ध मानने का हेतु इस प्रकार है-समग्र तीथिकों की उत्पत्ति भगवान् ऋषभ की प्रव्रज्या के बाद हुई। उनमें सबसे पहले तापसों का प्रादुर्भाव हुआ इसलिए वे वृद्ध कहलाए । अथवा तापस लोग प्रायः वृद्धावस्था में संन्यास स्वीकार करते थे, इस कारण वे वृद्ध कहलाए। ब्राह्मण को श्रावक कहने का हेतु यह है-सम्राट भरत आदि के समय में जो श्रावक थे वे कालान्तर में ब्राह्मण कहलाए।' कुछ आचार्यों ने वृद्धश्रावक शब्द को एक ही पद मानकर ब्राह्मण का वाचक बतलाया है।' वृद्ध श्रावक एक शब्द हो या दो, संभव नहीं लगता कि इससे जैन-परम्परा से सम्बन्धित श्रावकों का ग्रहण किया गया है। कुप्रावनिक द्रव्यावश्यक के सन्दर्भ में चरक, चीरिक आदि जितने संन्यासियों का उल्लेख हुआ है वे सब अन्यतीथिक होने चाहिए क्योंकि इसी सूत्र के उत्तरार्द्ध में इनकी जिन क्रियाओं का वर्णन किया गया है वे जैनदर्शन से सम्मत नहीं हैं। अतः वृद्धश्रावक शब्द का सम्बन्ध तापसों के किसी सम्प्रदाय से होना चाहिए। औपपातिक (सू०२८) ज्ञाताधर्मकथा (१।१५।६) एवं निशीथभाष्य चूणि (भाग २ पृ० ११८) में भी वृद्धश्रावक शब्द प्रयुक्त हुआ है। इससे इतना तो निश्चित हो जाता है कि यह शब्द उस समय की किसी विशिष्ट परम्परा का वाहक है। इन्द्र, कातिकेय ......"कोदृक्रिया भारतीय समाज अनेक देवों का उपासक रहा है। अन्य लोग अपने इष्ट देव को एक ही रूप में देखते हैं पर भारतीयों में बहुदेववाद का प्रचलन रहा है। यहां हर व्यक्ति को यह स्वतन्त्रता प्राप्त है कि वह अपनी आस्था को जहां चाहे टिका सकता है। उस समय इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण, देव, नाग, यक्ष, भूत, मुकुन्द, आर्या और कोट्टक्रिया आदि ख्यातिप्राप्त देव थे। उनकी उपासना करने वाले को अभिलषित अर्थ की प्राप्ति होती है-इस मान्यता का प्रसार होने से प्रायः साधारण लोग अभीष्ट सिद्धि के लिए इनकी पूजा किया करते थे । समय-समय पर राजाओं की ओर से इन्द्रमहोत्सव आदि महोत्सव भी बड़ी धूमधाम से मनाए जाते थे। श्रावस्ती नगरी में विशेष अवसरों पर इन्द्रमहोत्सव, रुद्रमहोत्सव, मुकुन्दमहोत्सव, शिवमहोत्सव, वैश्रमणमहोत्सव, नागमहोत्सव, यक्षमहोत्सव, गिरिमहोत्सव, दरीमहोत्सव, चैत्यमहोत्सव, वृक्षमहोत्सव, भूतमहोत्सव, स्तूपमहोत्सव, अगड (कूप) महोत्सव, नदीमहोत्सव, सागरमहोत्सव मनाने की परम्परा थी। इस प्रकरण के आधार पर पता चलता है कि इन्द्र, रुद्र आदि की तरह स्तूप, चैत्य, वृक्ष, पर्वत, गुफा, नदी, समुद्र आदि प्राकृतिक तत्त्वों की भी देवताओं की तरह पूजा होती थी। इन्द्रमहोत्सव, स्कन्दमहोत्सव, यक्षमहोत्सव और भूतमहोत्सव को महा महोत्सव माना जाता था। उस समय मुनि के लिए स्वाध्याय निषिद्ध था।' आषाढ़ी पूर्णिमा को इन्द्रमहोत्सव होता था। लाट देश में यह महोत्सव श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता था। आश्विन पूर्णिमा को स्कन्दमहोत्सव, कार्तिक पूर्णिमा को यक्षमहोत्सव और चैत्र पूर्णिमा को भूतमहोत्सव मनाने की परम्परा रही है। निशीथ चुणि में कोंकण आदि देशों में प्रति सन्ध्या 'गिरि यज्ञ' नामक उत्सव मनाने का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार १, अमवृ. प. २३ : पुण्यपापपरलोकानभ्युपगमपरा अक्रिया ४. (क) अचू. पृ. १२ : अण्णे भणंति-वुड्ढा सावगा बंभणा वादिनो विरुद्धाः। इत्यर्थः। २. (क) अचू. पृ. १२ : उस्सणं वुड्ढवते पव्वयंतीत्ति तावसा (ख) अहावृ. पृ. १७। वुड्ढा भणिता। (ग) अमवृ. प. २३। (ख) अहावृ. पृ. १७ : वृद्धाः तापसाः प्रथमसमुत्पन्नत्वात् ५. उसुरा. ६८८। प्रायो वृद्धकाल एवं बीक्षाप्रतिपत्तेः श्रावका ६. नसुनि. १९११ : जे भिक्खू चउसु महामहेसु सज्झायं धिग्वर्णाः। करेति, करेंतं वा सातिज्जइ, तं जहा-इंदमहे, खंधमहे, (ग) अमवृ. प. २३। जक्खमहे, भूतमहे। ३. अमवृ. प. २३ : श्रावका-ब्राह्मणाः प्रथमं भरताविकाले ७. जैआसागु. पृ. ५३ । श्रावकाणामेव सतां पश्चाद् ब्राह्मणत्वभावाद् । Jain Education Intemational Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ या अणुओगवाराई आनन्दपुर में यक्ष पूजा का प्रचलन था।' लाट देश में वर्षा ऋतु में गिरि यज्ञ का प्रचलन था। इन सब प्रसंगों से ऐसा ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में नाना अवसरों पर अलग-अलग देवताओं और यक्षों की पूजा की जाती थी व उत्सव मनाए जाते थे। सूत्र २२-२७ १३. (सू० २२-२७) वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य भाव कहलाता है। भाव निक्षेप पर भी आगम और नोआगम इन दो दृष्टिकोणों से विचार किया गया है। जो आवश्यक को जानता है और उसमें उपयुक्त (दत्तचित्त) है वह ज्ञानात्मक पर्याय की अपेक्षा भाव आवश्यक है। इसी प्रकार जो मंगल शब्द के अर्थ को जानता है तथा उसके अर्थ में उपयुक्त है वह ज्ञानात्मक पर्याय की अपेक्षा भाव मंगल है । इस विमर्श के अनुसार घट शब्द के अर्थ को जानने वाला और उसमें उपयुक्त पुरुष भाव घट कहलाता है। घट के तीन रूप बनते हैं १. घटद्रव्य जो मिट्टी से बना हुआ है। २. घटशब्द जो घट द्रव्य का वाचक है। ३. घट का ज्ञान ज्ञाता घट को जानने के लिए घट पर्याय के साथ कथंचित् तन्मय नहीं बनता तब तक उसे घट का ज्ञान नहीं होता । विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-विभा० गा० ४९ । आर्यरक्षित ने नोआगमत: भाव निक्षेप के तीन प्रकार किए हैं'१. लौकिक २. कुप्रावनिक ३. लोकोत्तर जिनभद्र ने नोआगमतः भाव निक्षेप का अर्थ क्षायिक आदि भाव किया है। कषायपाहुड़ में नोआगमतः भाव निक्षेप के दो भेद बतलाये हैं १. प्रशस्त नोआगम भाव २. अप्रशस्त नोआगम भाव शब्द विमर्श सूत्र २५ लौकिक भाव आवश्यक वैदिक, सामयिक और लौकिक-ये तीन धाराएं प्रसिद्ध रही हैं। धर्म की दृष्टि से दो धाराएं प्रचलित हैं-वैदिक और सामयिक । वैदिक धर्म में वेद, पुराण ब्राह्मण, आदि ग्रन्थों की मान्यता रही है और सामयिक धारा में आगम, पिटक आदि ग्रन्थ स्वीकृत रहे हैं । रामायण, महाभारत आदि लोक गीतों और लोक कथाओं की भांति लोकग्रन्थों के रूप में प्रचलित थे। कालान्तर में वैदिक पण्डितों ने रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों को अपना लिया और उन्हें अपना बनाकर जनता के सामने प्रस्तुत किया किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि महाभारत और रामायण मूलतः लौकिक धारा के ग्रन्थ थे । सूत्र २६ देव-पूजा, अञ्जलि इज्या अर्थात् देव पूजा । गायत्री आदि मंत्रों के द्वारा उभय संध्या में की जाने वाली देवपूजा का नाम इज्या है। इष्ट देवता के प्रति नकुलाकार हाथों की अवस्था का नाम अञ्जलि है।" १. जैआसागु. पृ. १९। ५. कपा. पृ. २९४ : णोआगमदो भावपाहुडं दुविहं-पसत्थ२. वही, पृ. १६०। मप्पसत्यं । ३. नसुअ. २४॥ ६. अचू. पृ. १३ : देवपूया वा इज्जा तं गायच्या आदिक्रियया ४. विभा. ४९ : उभयस्स सोहणा करेंति दोवि करा नउलसंठिया तं इट्ठमंगलसुयउवउत्तो आगमओ भावमंगलं होइ । देवताए अंजलि करेंति, अण्णे भणंति-इज्जा इति माता नोआगमओ भावो सुविसुद्धो खाइयाईओ। तीए गठभस्स णिग्गच्छतो जो करतलाणं आगारो तारिसं देवताए अंजलि करेंति । Jain Education Intemational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १ सू० २२ २७, टि० १३ ३७ टीकाकार ने यज्ञ देवता की पूजा के समय दी जाने वाली जलाञ्जलि को इज्याज्ञ्जलि कहा है। प्रकारान्तर से इज्या को देशी शब्द मानकर उसका अर्थ माता किया है । यह माता शब्द देवी का सूचक है । उसके भक्त गर्भ से निकलते हुए बच्चे के हाथ की मुद्रा ( बंधी हुई मुट्ठियों) के रूप में नमस्कार करते हैं वह इज्याञ्जलि है । ' होम अग्नि में अग्निहोत्रकों द्वारा घृत, नेवैद्य आदि पदार्थों का किया जाने वाला हवन होम कहलाता है ।" जप मन्त्र आदि का अभ्यास ।' दुरुक्क देव आदि के सामने मुख से वृषभ गर्जन आदि के समान शब्द करना। यह प्रथा तमिलनाडु में आज भी प्रचलित है। अतिथियों के समागमन पर सम्मान के लिए ऐसा किया जाता है। इसका पाठान्तर रूप उंदुरक्क है। उंदु का अर्थ है – मुख और रुक्क का अर्थ है - शब्द करना । यह देशी शब्द है । सूत्र २७ सूत्र में एकाग्रता की विभिन्न दशाओं का चित्रण किया गया है। कोई व्यक्ति करणीय के विषय में समर्पित होकर ही सफलता के शिखर तक जा सकता है। कार्य चाहे अध्यात्म की साधना का हो, चाहे समाज की साधना का सफलता के लिए एकाग्रता और समर्पण अनिवार्य शर्त है । उसी का निदर्शन प्रस्तुत वाक्य श्रृंखला में हुआ है । चित्त- चूर्णिकार ने चित्त के तीन अर्थ किए हैं-२. मति और श्रुतज्ञान १. आत्मा ३. आवश्यक क्रिया-काल में अर्थ में व्यापृत चेतना । W मन - बूमिकार के अनुसार मनोद्रव्य की वर्गणाओं से उपरंजित चित्त मन कहलाता है। दोनों वृतिकारों ने चित्त के विशेष उपयोग (बेतना के विशेष व्यापार) को मन कहा है।' लेश्या - द्रव्यलेश्या की वर्गणा से उपरंजित चित्त । अध्यवसाय - क्रिया के सम्पादन का अध्यवसाय । " तीव्राध्यवसान - क्रिया के सम्पादन में निरन्तर प्रवर्धमान श्रद्धा वाला अध्यवसाय ।' अर्थोपयोग - क्रियमाण क्रिया के अर्थ में व्यापृत चेतना का व्यापार ।" अर्पितकरण -- अपने समस्त शरीर का आवश्यक क्रिया के लिए समर्पण । अथवा क्रिया में हेतुभूत उपकरण, रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि का उचित उपयोग पूर्वक न्यास " १. ( क ) अहावृ. पृ. १९ : इज्ज्याज्ञ्जलिर्यागांजलिरुच्यते, स चायवताविषयः मातुर्वाञ्जलिरिजल नमस्कारविधाविति भावः । (ख) अमवृ. प. २६ । २. (क) अहावृ. पृ. १९ : होमाग्निः - हवनक्रिया । (ख) अमवृ. प. २६ । ३. ( क ) अहावृ. पृ. १९ : जपो मंत्रादिन्यासः । (ख) अमवृ. प. २६ : जपो मंत्राद्यभ्यासः । ४. (क) अचू. पृ. १३ : देसीवयणतो उंडं मुहं तेण रुक्कंति सद्दकरणं, तं च वसभढिक्कियाइ । (ख) अहावू. पृ. १९ । (ग) अमवृ. प. २६ । ५. अचू. पृ. १३ : णिच्छयणयाभिव्पारण चित्त इत्यात्मा जवा मतिसुताभावे चित्तं महवा आवत्सयकरणकाले चेव अण्णोष्णसुत्तत्थकिरियालोयणं चित्तं । ६. (क) अतू. पृ. १३ : मनोद्रव्योपरं जितं मनः । (ख) अहावृ. पृ. १९ : विशेषोपयोगं वा । (ग) अमवृ. प. २७ । ७. अचू. पृ. १४ : द्रव्यलेश्योपरंजितं लेश्या । ८. वही, क्रियया करोमीति प्रारम्भकाले मनसाऽध्यवसितम् । ९. वही, तदेवोत्तरकालं सन्तान क्रियाप्रवृत्तस्य प्रवर्द्धमानश्रद्धस्य तीव्राध्यवसितम् । १०. वही, प्रतिसूत्रं प्रत्यर्थं प्रतिक्रियं वाऽर्थेऽस्य साकारोपयोगोपयुको बोते । ११. यही तस्सा जाणि सरीररजोहरणादिवाणि दम्बाणि ताणि किरियाकरणको अाणि । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई भावना भावित-बार-बार किए जाने वाले अनुष्ठान में उसके अनुरूप परिणाम धारा से युक्त होना।' प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में उक्त शब्दों का विमर्श इस प्रकार किया जा सकता हैचित्त-स्थूल शरीर के साथ कार्य करने वाली चेतना । मन-एक पौद्गलिक संरचना और चित्त के द्वारा संचालित स्मृति, कल्पना और चिन्तन में सक्षम चेतना । लेश्या-आभामण्डल और भावधारा । अध्यवसाय-सूक्ष्मतर शरीर (कर्मशरीर) के साथ काम करने वाली चेतना । अध्यवसान-प्रकृत विषय में तीव्र अध्यवसाय, अभिप्रेरणा। अपितकरण-प्रकृत विषय में समर्पित इन्द्रिय चेतना। भावना-बार-बार दोहराया जाने वाला अभ्यास । इस समूचे विश्लेषण को एक शब्द 'भावक्रिया के द्वारा अभिव्यक्ति दी जा सकती है। भावक्रिया अर्थात् वर्तमान क्रिया में ही मन, वाणी और शरीर का नियोजन । साधनाकाल में भावक्रिया का होना अत्यन्त आवश्यक है। जो साधक वर्तमान में जीना सीख लेता है वह भावक्रिया को साध लेता है। चित्तविक्षिप्तता से बचने का सीधा उपाय भाव क्रिया है। आचारांग में भावक्रिया का यह प्रसंग तदृष्टि, तन्मूर्ति, तत्पुरस्कार तत्संज्ञा और तन्निवेशन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।' उत्तराध्ययन में गमनयोग की व्याख्या करते हुए भी तन्मूर्ति, तत्पुरस्कार और उपयुक्त-इन तीन शब्दों का प्रयोग किया गया है।' निशीथ भाष्य में अब्रह्मचर्य के प्रसंग में तच्चित्त और तल्लेश्या शब्द का प्रयोग हुआ है। निशीथ चूर्णिकार ने इन शब्दों की व्याख्या करते हुए एक प्रतीक के रूप में लिखा है-स्त्री आदि के शरीर को देखकर उसके अवयवों के बारे में चिन्तन करना चित्त है और उसके अवयवों के परिभोग करने का अध्यवसाय लेश्या है। निष्कर्षत: चिप्स आदि शब्दों के अर्थ इस प्रकार किए जा सकते हैंचित्त-चैतन्य मन-मननात्मक ज्ञान लेश्या-आभामण्डल अध्यवसाय-सूक्ष्म चेतना अध्यवसान-चैतन्य-परिणाम उपयोग-क्रियमाण अर्थ में व्याप्त चेतना अपितकरण-शरीर आदि का समर्पण भावना-सूक्ष्म चैतन्य परिणाम के अनुरूप अभ्यास । विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-भगवती भाष्य २३५३-३५७ । - सूत्र २८ १४. (सू० २८) प्रस्तुत गाथा में आवश्यक के आठ पर्यायवाची नामों का उल्लेख किया गया है। १. आवश्यक और (२) अवश्यकरणीयये दो स्पष्ट हैं। ३. ध्रुवनिग्रह - आवश्यक दिनचर्या और रात्रिचर्या का निश्चित रूप से नियमन करने वाला है इसलिए इसका नाम ध्रुवनिग्रह है । मुनि के लिए ध्रुवयोग का विधान है।' आवश्यक भी ध्रुवयोग का एक अंग है इसलिए इसे ध्रुवनिग्रह कहा गया है। सामायिक का फल सावद्ययोग विरति है।' ध्रुवनिग्रह शब्द की सार्थकता उससे फलित हो सकती है। चूर्णिकार ने ध्रुव शब्द के द्वारा कर्म, कषाय और इन्द्रिय का संग्रहण किया है। आवश्यक के द्वारा इनका निग्रह होता है इसलिए इसे ध्रुवनिग्रह कहते हैं।' १. अहावृ.पृ. २०: तद्भावनाभावितः असकृदनुष्ठानात्पूर्व वसरूवचितणं चित्तं, तदंगभोगऽज्झवसाओ लेसा । भावनाऽपरिच्छेदत एव पुनःपुनः प्रतिपत्ते रिति हृदयम् । ५. द. ८.१७ : धुवं च पडिलेहेज्जा । २. आ. ५।६८ : तद्दिट्ठीए तम्मोत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी ६. उ. २९।९ : सामाइएणं सावज्जजोगविरई जणयइ । तन्निवेसणे। ७. अचू पृ. १४ : कम्ममट्ठविहं कसाया इंदिया वा धुवा इमेण ३. उ. २४८ : तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए ।। जम्हा तेसि णिग्गहो कज्जइ तम्हा धुवनिग्गहो, अवस्सं वा ४. निभा. चू. ४, पृ. ३ : तं इत्थिमादी रूपं दटुं तदंगावय णिग्गहो । Jain Education Intemational Education International Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १, सू० २८, टि०१४ ४. विशोधि-इससे भावविशुद्धि होती है इसलिए आवश्यक का एक नाम है-विशोधि । उत्तराध्ययन में चतुर्विशतिस्तव का लाभ दर्शनविशुद्धि बताया गया है। ५. अध्ययनषट्कवर्ग-आवश्यक छह अध्ययनों का समूह है इसलिए इसे अध्ययनषट्कवर्ग कहा जाता है।' ६. न्याय-आवश्यक अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि का सम्यक् उपाय है इसलिए इसे न्याय कहते हैं।' ७. आराधना-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना का हेतु होने के कारण इसका नाम है आराधना। उत्तराध्ययन के अनुसार आराधना का सम्बन्ध स्तवस्तुति मंगल से भी है।' ८ मार्ग-यह आत्मालोचन और आत्मनिरीक्षण की ओर ले जाने वाला है इसलिए आवश्यक का नाम है मार्ग । मलधारी हेमचन्द्र ने अनुयोगद्वार की वृत्ति में ध्रुवनिग्रह की एक नाम के रूप में व्याख्या की है और विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति में ध्रुव और निग्रह की पृथक् पृथक् व्याख्या की है। इसी प्रकार अनुयोगद्वार की वृत्ति में अध्ययनषट्कवर्ग को एक मानकर व्याख्या की है तथा विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति में अध्ययनपटक और वर्ग को अलग-अलग मानकर व्याख्या की है। आवश्यक साधु और श्रावक दोनों के लिए प्रतिदिन करणीय आध्यात्मिक कार्यक्रम है। धर्म की आराधना करने वाले व्यक्ति को प्रतिदिन सामायिक की साधना इसलिए करनी चाहिए कि रागद्वेष की ग्रन्थि सघन न बने । अर्हत् अथवा वीतराग की स्तुति प्रतिदिन इसलिए करनी चाहिए कि उसका दर्शन विशुद्ध रहे। इससे वीतरागता का लक्ष्य स्पष्ट व परिपक्व होता है । वन्दना का प्रयोग इसलिए करना चाहिए कि अहंकार जो साधना का सबसे बड़ा विघ्न है, का विलय होता रहे। प्रतिक्रमण का प्रयोग इसलिए करना चाहिए कि प्रतिदिन होने वाले प्रमाद का परिष्कार या शोधन होता रहे। कायोत्सर्ग प्रतिदिन इसलिए करना चाहिए कि भेद विज्ञान की धारणा पुष्ट बनती रहे, व्रण की चिकित्सा होती रहे। . प्रत्याख्यान प्रतिदिन इसलिए करना चाहिए कि इच्छा का निग्रह और संवर की शक्ति का विकास होता रहे। आवश्यक के छह अध्ययनों के अधिकार प्रस्तुत आगम में आगे (सूत्र ७४ तथा ६१०) में बतलाए गए हैं । १. उ. २९.१० : चउव्वीसत्थएणं सविसोहि जणयइ । २. अचू. पृ. १४ : सामादिकादि गण्यमानानि षडध्ययनानि समूहः वग्गो। ३. वही, णायो युक्तः अभिप्रेतार्थसिद्धिः। ४. उ. २९।१५ : थवयुइमंगलेणं नाणदसणचरित्तबोहिलामं जणयइ। ५. अमवृ. प. २८ : ध्रुवनिग्रह इति अत्रानादित्वात् क्वचिद पर्यवसितत्वाच्च ध्रुवं - कर्म तत्फलभूतः संसारो वा तस्य निग्रहहेतुत्वान्निग्रहो ध्रुवनिग्रहः । ६. विभा. ८७६ को वृत्ति-अर्थतो ध्रुवत्वात् शाश्वतत्वाद् ध्रुवम् । निगृह्यन्ते इन्द्रियकषायादया भावशत्रवोऽनेनेति निग्रहः। ७. अमव. प. २८: सामायिकादिषडघ्ययनकलापात्मकत्वाव ध्ययनषट्कवर्गः। ८. विभा. ८७६ की वृत्ति--सामायिकादिषडध्ययनात्मकत्वादध्ययनषट्कम् । 'वृजी वर्जने' वृज्यन्ते दूरतः परिहियन्ते रागादयो दोषा अनेनेति वर्गः। Jain Education Intemational Education International Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकरण (सूत्र २९-७३) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख में प्रस्तुत प्रकरण श्रुत और स्कन्ध के निक्षेप बतलाए गए हैं। वैकल्पिक रूप में श्रुत के अण्डज आदि (सू० ४०) पांच प्रकार निर्दिष्ट हैं। ये सूत्र के पांच प्रकार हैं। सुय और सुत्त दोनों पर्यायवाची हैं ( सू० ५१) । सुय और सुत्त की एकता को स्वीकार कर यह विकल्प प्रस्तुत किया गया है। प्राकृत भाषा में सुत्त का सुय रूप निष्पन्न हो सकता है इसलिए सुय और सुत्त में एकता मानी गई है । आवश्यक एक श्रुत स्कन्ध है ( सू० २-६) । सूत्र ७ से २८ तक आवश्यक की जानकारी दी जा चुकी है। प्रस्तुत प्रकरण में श्रुत और स्कन्ध के निक्षेप की जानकारी दी जा रही है। सूत्रकार ने लौकिक भावत में कनकसप्तति (सांख्यकारिका) बादि का संग्रह भावश्रुत ( सू० ६७) में किया गया है। महाभारत और रामायण ये वस्तुतः लौकिक शास्त्र हैं लौकिक शास्त्र नहीं हैं, फिर भी सूत्रकार ने उनकी पृथक् विवक्षा नहीं की, उनका लौकिक आगम में ही समावेश किया है । किया है। नन्दी में इनका संग्रह मिथ्याभूत (द्रष्टव्य सू० ५४८ ) किन्तु कनकसप्तति आदि निक्षेप पद्धति में एक शब्द की अनेक सन्दर्भों में जानकारी मिलती है । हय-स्कन्ध, द्विप्रदेशी-स्कन्ध, सेना का स्वन्ध और श्रुत का स्कन्ध-ये भिन्न सन्दर्भ हैं । इन भिन्न सन्दर्भों में स्कन्ध पद का प्रयोग विशेष विशेषण के साथ होता है और विशिष्ट अर्थ की जानकारी देता है । इसके अध्ययन से ग्रंथकार के मौलिक प्रतिपाद्य तक पहुंचने की स्थिति निर्मित होती है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ सुय-निश्वपदं २६. से किं तं सुयं ? सुयं चउव्विहं पण्णत्तं तं जहानामसुयं ठवणा सुयं दव्वसुयं भावसुयं ॥ ३०. से कि तं नाम ? नामसुर्यजस्स णं जीवस्स वा अजीवस्त वा जीवान वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा सुए ति नामं कज्जइ । सेतं नामसुयं ॥ ३१. से किं तं ठवणासुयं ? ठवणासुयं -जणं कटुकम्मे वा चित्तकम्मे वा पोत्यकम्मे वा लेप्यकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगा वा सम्भावठवणाए वा असम्भावठवणाए वा सुए त्ति ठवणा ठविज्जइ । से तं ठवणासुयं ॥ ३२. नाम - टूवणाणं को पइविसेसो ? नामं आवकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा ॥ ३३. से किं तं दव्वसुयं ? दव्वसुयं दुविहं पण्णत्तं तं जहा- आगमओ य नोआगमओ य ॥ - ३४. से किं तं आगमओ दव्वसुयं ? आगमओ सुर्य जस्स णं सुए त्ति पदं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं नामसमं घोससमं अहीणक्लरं अणञ्चक्रं अय्याइद्वक्वरं अवलिये अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठो विप्यमुक्कं गुरुवायणोवगयं दूसरा प्रकरण संस्कृत छाया श्रुत- निक्षेप-पदम् अथ किं तत् श्रुतम् चतुविधं प्रप्तं तथानाम , स्थापना भावतम्। ? श्रुतं अथ किं तद् नामश्रुतम् ? नामश्रुतं यस्य जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानां वा अजीवानां वा तदुभयस्य वो तभयेषां या तमिति नाम श्रुतम् । 1 अथ किं तत् स्थापनाश्रुतम् ? स्थापनाश्रुतं यत् काष्ठकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा पुस्तकर्मणि वा लेप्यकर्मणि वा ग्रन्थि मे वा वेष्टिमे वा पूरिमे वा संघातिमे वा अक्षे वा वराटके वा एको वा अनेके वा सद्भावस्थापनया वा असद्भावस्थापनया वा श्रुतमिति स्थापना स्थाप्यते । तदेतत् स्थापनाश्रुतम् । नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषः ? नाम यावत्कथिकम्, स्थापना इत्वरिका वा भवेत् यावत्कथिका वा । अथ किं तद् द्रव्यश्रुतम् ? द्रव्यश्रुतं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथाआगमतश्च नोआगमतश्च । अथ किं तद् आगमतो द्रव्यश्रुतम् ? आगतो द्रव्यम् स्व श्रुतमिति पदं शिक्षितं स्थितं चितं मितं परिचितं नामसमं घोषसमम् अहीनाक्षरम् अनत्यदक्षरम् अन्याविद्याक्षरम् तम् अयोजितम् अत्याम्रेडितं प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्णघोषं कण्ठौष्ठवप्रमुक्त' गुरुवाचनोगतं, हिन्दी अनुवाद श्रुत-निशेष-पद २९. वह श्रुत क्या है ? श्रुत के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-नाम श्रुत, स्थापनाश्रुत, द्रव्यश्रुत, भावश्रुत | ३०. वह नामश्रुत क्या है ? नामश्रुत - जिस जीव या अजीव का, जीवों या अजीवों का, जीव-अजीव दोनों का, जीवों अजीवों दोनों का श्रुत यह नाम दिया जाता है । वह नामश्रुत है । ३१. वह स्थापनाश्रुत क्या है ? स्थापनाश्रुत-काष्ठाकृति, चित्राकृति वस्त्राकृति या लेप्याकृति में, गूंथकर वेष्टितकर भरकर या जोड़कर बनाई हुई पुतली में अक्ष या कौड़ी में एक या अनेक सद्भावस्थापना अथवा असद्भावस्थापना के द्वारा श्रुत का जो रूपांकन या कल्पना की जाती है। वह स्थापनाश्रुत है । ३२. नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ? नाम यावज्जीवन होता है। स्थापना स्वल्पकालिक भी होती है और यावज्जीवन भी । ३३. वह द्रव्यश्रुत क्या है ? द्रव्यश्रुत के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआगमतः और नोआगमतः । ३४. वह आगमतः द्रव्यश्रुत क्या है ? आगमतः द्रव्यश्रुत - जिसने श्रुत यह पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, चित कर लिया, मित कर लिया, परिचित कर लिया, नामसम कर लिया, घोषसम कर लिया, जिसे वह हीन, अधिक और विपर्यस्त अक्षर रहित, अस्खलित, अन्य वर्णों से अमिश्रित अन्य ग्रन्थवाक्यों से अमिश्रित प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोष Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए तद् वाचनया प्रच्छनया परिवर्तनया युक्त, कण्ठ और होठ से निकला हुआ तथा परियट्टणाए धम्मकहाए, नो अणु- धर्मकथया, नो अनुप्रेक्षया। कस्मात् ? गुरु की वाचना से प्राप्त है, वह उस श्रुत पद प्पेहाए। कम्हा? अणुवओगो अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा । के अध्यापन, प्रश्न, परावर्तन और धर्मकथा दव्वमिति कट्ठ ॥ में प्रवृत्त होता है तब आगमत: द्रव्यश्रुत है। वह अनुप्रेक्षा में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि द्रव्य निक्षेप अनुपयोग (चित्त की प्रवृत्ति से शून्य) होता है। ३५. नेगमस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ नेगमस्य एकः अनुपयुक्तः आग- ३५. नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति एग दव्वसुयं, दोणि अणुवउत्ता मतः एक द्रव्यश्रुतं, द्वौ अनुपयुक्ती आगमत: एक द्रव्यश्रत है। दो अनुपयुक्त आगमओ दोण्णि दव्वसुयाई, तिणि आगमतो द्वे द्रव्यश्रुते, त्रयः अनुपयुक्ताः व्यक्ति आगमतः दो द्रव्यश्रुत हैं । तीन अनुपअणवउत्ता आगमओ तिण्णि दव- आगमतः त्रीणि द्रव्यश्रुतानि, एवं युक्त व्यक्ति आगमत: तीन द्रव्यश्रुत हैं। इस सुयाई, एवं जावइया अणुवउत्ता यावन्तः अनुपयुक्ताः तावन्ति तानि प्रकार जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं नैगमनय तावइयाइं ताई नेगमस्त आगमओ नेगमस्य आगमतो द्रव्यश्रुतानि । एव- की अपेक्षा उतने ही आगमत: द्रव्यश्रुत हैं। दव्वसुयाई। एवमेव ववहारस्स मेव व्यवहारस्यापि । संग्रहस्य एको इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा से भी वि। संगहस्स एगो वा अणेगा वा वा अनेके वा अनुपयुक्तो वा अनुप- जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, उतने ही आगमतः अणुवउत्तो वा अणुवउत्ता वा युक्ताः वा आगमतो द्रव्यश्रुतं वा द्रव्यश्रुत हैं। आगमओ दव्वसुयं वा दव्वसुयाणि द्रव्यश्रुतानि वा, तदेकं द्रव्यश्रुतम् । संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति है वा, से एगे दव्वसुए। उज्जुसुयस्स ऋजुसूत्रस्य एकः अनुपयुक्तः आगमतः अथवा अनेक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, आगमतः एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं एक द्रव्यश्रुतं, पृथक्त्वं नेच्छति । एक द्रव्यश्रुत है अथवा अनेक द्रव्यश्रुत हैं वह दव्वसुयं, पुहत्तं नेच्छइ । तिण्हं सद्द- त्रयाणां शब्दनयानां ज्ञः अनुपयुक्तः । एक द्रव्यश्रुत है। नयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थू। अवस्तु । कस्मात् ? यदि ज्ञः अनुप- ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त कम्हा? जइ जाणए अणुवउत्तेन युक्तो न भवति । तदेतद् आगमतो व्यक्ति आगमत: एक द्रव्यश्रुत है, भिन्नता उसे भवइ । सेतं आगमओ दव्वसुयं ।। द्रव्यश्रुतम् । इष्ट नहीं है। तीन शब्द नयों (शब्द, समभिरूढ़ एवंभूत) की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता अवस्तु है । क्योंकि यदि कोई ज्ञाता है तो वह अनुपयुक्त नहीं होता। वह आगमत: द्रव्यश्रुत है । ३६. से कि तं नोआगमओ दव्वसुयं? अथ किं तद् नोआगमतो द्रव्य- ३६. वह नोआगमतः द्रव्यश्रुत क्या है ? नोआगमओ दव्वसुयं तिविहं श्रुतम्। नोआगमतो द्रव्यश्रुतं त्रिविधं नोआगमत: द्रव्यश्रुत के तीन प्रकार पण्णत्तं, तं जहा जाणगसरीर- प्रज्ञप्तं, तद्यथा -- ज्ञशरीरद्रव्यश्रुतं प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ज्ञशरीर द्रव्यश्रुत, भव्यदव्वसुयं भवियसरीरदव्वसुयं भव्यशरीरद्रव्यश्रुतं ज्ञशरीरभव्य शरीर द्रव्यश्रुत और ज्ञशरीर भव्य शरीर जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्तं शरीरव्यतिरिक्तद्रव्यश्रुतम् । व्यतिरिक्त द्रव्यश्रुत । दव्वसुयं ॥ ३७. से कि तं जाणगसरीरदव्वसुयं? अथ किं तद् ज्ञशरीरद्रव्यश्रुतम् ? ३७. वह ज्ञशरीर द्रव्यश्रुत क्या है ? जाणगसरीरदव्वसुयं-सुए त्ति ज्ञशरीरद्रव्यश्रुतं-- श्रुतमिति पदार्था- ज्ञशरीर द्रव्यश्रुत-'श्रुत' इस पद के अर्थापयत्थाहिगारजाणगस्स जं सरीरयं धिकारज्ञस्य यत् शरीरक धिकार को जानने वाले व्यक्ति का जो शरीर ववगय-चुय-चाविय-चत्तदेहं जीव- व्यपगतच्युतच्यावितत्यक्तदेहं जीव- अचेतन, प्राण से च्युत. किसी निमित्त से प्राणविप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं विप्रहीणं शय्यागतं वा संस्तारगतं च्युत किया हुआ, उपचय रहित. जीवविप्रमुक्त वा निसीहियागयं वा सिद्धसिला- वा निषीधिकागतं वा सिद्ध शिलातल- है, उसे शय्या, बिछौने, श्मशानभूमि या तलगयं वा पासित्ताणं कोइ वएज्जा गतं वा दृष्ट्वा कोऽपि वदेत् -अहो! सिद्धशिलातल पर देखकर कोई कहे-- Jain Education Intemational Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकरण: सूत्र ३५-४३ -अहो नं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिट्ठेणं भावेणं सुए सि पयं आघवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं नियंतियं उपयंतियं जहा को दिट्ठतो ? अयं महुकुंभे आसी, अयं घयकुंभे आसी । से तं जाणगसरीरव्ययं ॥ ३८. से किं तं भवियसरीरदव्वसुयं ? भवियसरीरदव्य सूर्य जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खते इमेण चेव आदत एवं सरीरसमुस्सएणं जिण दिट्ठेणं भावणं सुए त्ति पयं सेयकाले सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्लइ जहा को दितो ? अयं महकुंभे भविस्सइ, अयं घयकुंभे भविस्स से तं भवियसरीर दव्वसुयं ॥ ३६. से किं तं जाणगसरीर भवियसरीर वतिरित्तं दव्वसुयं ? जाणगसरीर भवियसरीर वतिरित्तं दव्वसुयं - पत्तय-पोत्थय लिहियं ॥ ४०. अहवा सुयं पंचविहं पण्णत्तं तं जहा - अंडयं बोंडयं कीडयं वालयं वक्कयं ॥ ४१. से कि तं अंडयं ? अवयंगभाइ । से तं अंडयं ॥ ४२. से कि तं बॉडयं ? बॉड फलिहमाइ । से तं बोंडयं ॥ -हंस ४३. से कि तं कडवं ? कीड पंचविहं पण्णसं तं जहा पट्टे मलए अंसुए चोणंसुए किमिरागे । से तं कीडयं ॥ " - - अनेन शरीरसमुचयेण जिनविष्टेन भावे भूतमिति पदम् आयात प्रज्ञापितं प्ररूपितं दर्शितं निर्दाशतम् उपदशितम्। यथा कः पृष्टान्तः ? अर्थ मधुकुम्भः आसीत्, अयं घृतकुम्भः आसीत् । तदेतद् नशरीरद्रव्यधुतम् । अथ किं तद् भव्यशरीरद्रव्यश्रुतम् ? यसरी ३८. वह भव्यशरीर द्रव्यश्रुत क्या है ? यो जीवो योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन चैव आयतन शरीरसमुद्वेष जिनविष्टेन भावेन श्रुतमिति पदम् एष्यत्काले शिक्षिष्यते, न तावत् शिक्षते । यथा कः दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भः भविव्यति, अयं घृतकुम्भः भविष्यति 1 तदेतद्व्यशरीरद्रव्यभुतम् । अथ तद् शरीर बध्यतरीरव्यतिरिक्त द्रव्यश्रुतम् ? ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त' द्रव्यश्रुतंपत्रक - पुस्तक - लिखितम् । अथवा सूत्रं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - अण्डजं बोण्डजं कोटजं वालजं वल्कजम् । अथ किं तद् अण्डजम् ? अण्डजं - हंसगर्भादि तदेत अण्डजम् ॥ अथ किं तद् बोण्डजम् ? बोण्डजं -'फलिह' आदि । तदेतद् बोण्डजम् । अथ किं तत् कीटजम् ? कीटजं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं ताप मलयः अंशुकं चीनांशुकं कृमिरागः । तदेतत् कोराजम् । ४७ आश्चर्य है ! इस पौद्गलिक शरीर ने जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार श्रुत इस पद का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया है। जैसे कोई दृष्टान्त है ? (आचार्य ने कहा - इसका दृष्टान्त यह है ) यह मधुघट था, यह घृतघट था। वह ज्ञशरीर द्रव्यश्रुत है । भव्यशरीर द्रव्यश्रुत-गर्भ की पूर्णावधि से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त पौद्गलिक शरीर से श्रुत इस पद को जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में सीखेगा, वर्तमान में नहीं सीखता है तब तक वह भव्यशरीर द्रव्यश्रुत है । जैसे कोई दृष्टान्त है ? (आचार्य ने कहा - इसका दृष्टान्त यह है) यह मधुघट होगा, यह पुतपट होगा। वह भव्यशरीर द्रव्यश्रुत है । ३९. वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यश्रुत क्या है ? जशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यभुत पत्र और पुस्तकों में लिखित त ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त दव्यश्रुत है । ४०. अथवा सूत्र' के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे १. अण्डज २. बोंडज ३. कीटज ४, बालज ५. वल्कन । ४१. वह अण्डज सूत्र क्या है ? अण्डज - हंस- गर्भ आदि से उत्पन्न सूत्र अण्डज है । ४२. वह बोंडज सूत्र क्या है ? बोंडज-कपास आदि से उत्पन्न सूत्र बोंड है। ४३. वह कीटज सूत्र क्या है ? कीटज ' के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेसूत्र पट्टसूत्र, मलसूत्र, अंधुकसूत्र चीनांशुकसूत्र' और कृमिरायसूत्र" यह कीटजसूत्र है । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ " ४४. से कि तं बाल ? वालयं पंचवि अथ किं तद् वालजम् ? वालजं ४४. वह बालज सूत्र क्या है ? पण्णसं तं जहा उणिए उट्टिए पञ्चविधं प्रज्ञप्तं तद्यथाि मिलोमिए कुतवे किसे से तंम् ओष्ट्र मृगनोमि चैत । वालयं ॥ किट्टिसम् । तदेतद् वालजम् । कौतवं - । । ४५. से किं तं वक्कयं ? वक्कयं - सणमा से तं वक्कयं से तं जाणगसरीर भविवसरीर-पतिरितं दव्वसु से तं नोआगमओ दव्यसुयं से तं दध्वसूयं ॥ ४६ से किं तं भावसुर्य ? भावसुर्य दुविहं पण्णसं तं जहा आगमओ य नोआगमओ य ॥ ४७. से कि त आगमओ भावसूयं ? अगमओ भावसुषं जाणए उबउत्ते । सेतं आगमन भावसुयं ॥ ४८. से कि तं नागमओ भावसुर्य ? नोआगमओ भावसूयं दुविहं पण्णत्तं तं जहा लोइयं लोगुतरियं ॥ ४६. से किं तं लोइयं भावसुयं ? लोइयं भावसूर्यजं इमं अण्णाणिएहि मिहि सदबुद्धि-मईमिच्छदिट्ठीहिं विगपियं तं जहा १. भारहं २. रामायणं ३, ४. हंभीमासुरुतं ५. कोडिल्लयं ६. घोडमुहं ७. सगभद्दियाओ ८. कप्पासियं 8 नागसह १०. कणगससरी ११. वेसियं १२. वइसेसियं १३. बुद्धवयणं वय १४, काविलं १५. लगायतं १६. सट्टितंतं १७. माढरं १८. पुराणं १९. वागरणं २०. नाडगादि अहवा बाबत्तरिकलाओ चत्तारि वेया संगोवंगा से तं लोइयं भावसु ।। । । अथ किं तद् वल्कजम् ? वल्कजं - समादि तदेतद्यत्कनम् । तदेतद् शरीरमयारीरव्यतिरिक्त' श्रुतम् । तदेतद् नोआगमतो द्रव्यश्रुतम् । तदेतद् द्रव्यश्रुतम् । द्रव्य अथ किं तद् भावश्रुतम् ? भावभूतं द्विविधं प्राप्तं श्रुतं तद्यथाआगमतश्च नोआगमतश्च । अथ किं तद् आगमतो भावश्रुतम् ? आगमतो भावश्रुतं -ज्ञः उपयुक्तः । तदेतद् आगमतो भावश्रुतम् । अथ किं तद् नोआगमतो भावश्रुतम् ? नोआगमतो भावतं द्विभावश्रुतं विश्र प्रज्ञ, तद्यथा लौकिकं लोकोत्तरिकम् । इयं अकित लौकिक भावभूत लौकिकं लौकिकं भावश्रुतम् — यत् अज्ञान मिथ्यादृष्टिभिः स्वच्छन्दबुद्धिमतिधिकल्पितम् तद्यथा १. भारतं २. रामायणं ३. भंभी ४. आसुरोक्तं ५. कौटिल्यकं ६. घोटमुखं ७. शकभद्रिका ८ कार्पासिक ९. नागसूक्ष्मं १०. कनकसप्ततिः ११. वैशिकं १२. वैशेषिकं १३. बुद्धवचनं १४. कापिलं १५. लोकाय १६. षष्टितन्त्रं १७. माठरं १८. पुराणं १९. व्याकरणं २०. नाटकादि । अथवा द्विसप्ततिः कलाः चत्वारः वेदाः साङ्गराः सबै लौकिकं साङ्गोपाङ्गाः । तदेतद् भावश्रुतम् । अणुओगदाराई बालज सूत्र के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -ऊन का सूत, ऊंट का सूत, मृगरोम का सूर्त, चूहे के रोगों का सूर्त और मिश्रित बालों से बना हुआ सूत ।" वह बालज सूत्र है। ४५. वह वल्कज सूत्र क्या है ? वल्कज - सण आदि से उत्पन्न सूत्र वल्कज है । वह शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यत है । वह नोआगमतः द्रव्यश्रुत है । वह द्रव्यहै। ४६. वह भावश्रुत क्या है ? भावश्रुत के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआगमतः और नोआगमतः । ४७. वह आगमतः भावश्रुत क्या है ? आगमतः भावश्रुत – जो जानता है और उसमें उपयुक्त [दत्तचित्त ] है यह आगमतः भावश्रुत है । ४८. वह नोआगमतः भावश्रुत क्या है ? आगमतः भावश्रुत के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- लौकिक और लोकोत्तरिक । ४९. वह लौकिक भावश्रुत क्या है । er लौकिक भावश्रुत - अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और स्वच्छन्द बुद्धि" तथा मति" द्वारा विरचित त लौकिक भावत है, जैसे१ भारत २ रामायण, ३ भंभी, ४ आसुरोल" ५ कौटलीय अर्थशास्त्र ६ पोटमुख५, ७ शकभद्रिका, ८ कार्पासिक, ९ नागसूक्ष्म, १० कनकसप्तति, " [ सांख्यकारिका ] ११ वैशिक" १२ १२ वचन", १४ कापिल, १५ लोकायत, १६ षष्टितन्त्र २१, १७ माठर, १८ पुराण ३, १९ व्याकरण २४, २० नाटक आदि । , २५ अथवा बहत्तर कलाएं" और अंग - उपांग सहित चार वेद" । वह लौकिक भावश्रुत है । 3 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ दूसरा प्रकरण : सूत्र ४४-५४ ५०. से कि तं लोगुत्तरियं भावसयं? अथ कि तब लोकोत्तरिकं भाव-५०. वह लोकोत्तरिक भावश्रुत क्या है? लोगुत्तरियं भावसुयं-जं इमं श्रुतम् ? लोकोत्तरिकं भावश्रुतं लोकोत्तरिक भावश्रुत-समुत्पन्न ज्ञानअरहंतेहि भगवंतेहिं उप्पण्णनाण- यद् इदम् अर्हद्भिः भगवद्भिः उत्पन्न- दर्शन के धारक, अतीत, वर्तमान और भविष्य दसणधरेहिं तीय-पडुप्पण्णमणागय- ज्ञानदर्शनधरः अतीतप्रत्युत्पन्नमनाग- के ज्ञाता, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीन लोक द्वारा जाणएहि सम्वहिं सव्वदरिसीहि तज्ञः सर्वज्ञः सर्वदशिभिः त्रैलोक्य- अभिलषित, प्रशंसित और पूजित तीयंकर तेलोक्कचहिय - महिय - पूइएहिं 'चहिय'-महित-पूजितः प्रणीतं द्वाद- भगवान् द्वारा प्रणीत द्वादशाङ्ग गणिपिटक पणीयं दुवालसंगं गणिपिडगं, तं शाङ्गं गणिपिटकं, तद्यथा-१. श्रुत लोकोत्तरिक भावश्रुत है, जैसे-१ जहा–१. आयारो २.सूयगडो ३. आचारः २. सूत्रकृतं ३. स्थानं ४. आचार, २ सूत्रकृत, ३ स्थान, ४ समवाय, ठाणं ४. समवाओ ५. वियाह- समवायः ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति: ६. ज्ञात- ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६ ज्ञाताधर्मकथा ७ उपापण्णत्ती ६. नायाधम्मकहाओ ७. धर्मकथा ७. उपासकदशाः ८- अन्त- सकदशा, ८ अन्तकृत दशा, ९ अनुत्तरोपपातिकउवासगदसाओ ८. अंतगडदसाओ कृतवशाः ९. अनुत्तरोपपातिकदशाः दशा, १० प्रश्नव्याकरण, ११ विपाकश्रुत ६. अणुत्तरोववाइयदसाओ १०. १०. प्रश्नव्याकरणानि ११. विपाक और १२ दृष्टिवाद । वह लोकोत्तरिक भावपण्हावागरणाई ११. विवागसुयं श्रुतं १२. दृष्टिवादः । तदेतद् लोको श्रुत है। वह नोआगमतः भावश्रुत है। वह १२. दिदिवाओ। से तं लोगत्तरियं त्तरिकं भावश्रुतम् । तदेतद् नोआग भावश्रुत है। भावस्यं । से तं नोआगमओ भाव- मतो भावश्रुतम् । तदेतद् भावश्रुतम् । सुयं । से तं भावसुयं ॥ ५१. तस्स णं इमे एगट्टिया नाणाघोसा तस्य इमानि एकाथिकानि नाना- ५१. उस श्रुत के ये नाना-घोष और नाना-व्यञ्जन नाणावंजणा नामधेज्जा भवंति, तं घोषाणि नानाव्यञ्जनानि नाम वाले एकाथिक नाम होते हैं, जैसे-श्रुत, सूत्र, जहाधेयानि भवन्ति, तद्यथा ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, गाहागाथा प्रज्ञापना और आगम । वह श्रुत है । सुय सुत्त गथ सिद्धत, श्रुतं सूत्रं ग्रन्थः सिद्धान्तः, शासनं आज्ञा वचनं उपदेशम् । सासणे आण वयण उवएसे । प्रज्ञापनं आगमश्च, पण्णवण आगमे य, एकार्थाः पर्यवाः सूत्रे ॥ एगट्ठा पज्जवा सुत्ते॥ तदेतत् श्रुतम् । से तं सुयं ॥ खंध-निक्खेव-पदं स्कन्ध-निक्षेप-पदम् स्कन्ध-निक्षेप-पद ५२. से कि तं खंधे ? खंधे चउन्विहे अय कि स स्कन्धः? स्कन्धः ५२. वह स्कन्ध क्या है ? पण्णत्ते, तं जहा-नामखंधे ठवणा- चतुविधःप्रज्ञप्तः, तद्यथा-नामस्कन्धः स्कन्ध के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेखंधे दव्वखंधे भावखंधे ॥ स्थापनास्कन्धः द्रव्यस्कन्धः भाव नामस्कन्ध, स्थापनास्कन्ध, द्रव्यस्कन्ध और स्कन्धः। भावस्कन्ध । ५३. से कितं नामखंधे? नामखंध- अथ किं स नामस्कन्धः । नाम- ५३. वह नामस्कन्ध क्या है ? जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा स्कन्धः-यस्य जीवस्य वा अजीवस्य नामस्कन्ध-जिस जीव या अजीव का, जीवाण वा अजीवाण तदुभयस्स वा जीवानां वा अजीवानां वा जिन जीवों या अजीवों का, जिस जीव अजीव वा तदुभयाण वा खंध त्ति नामं तदुभयस्य वा तदुभयेषां वा स्कन्धः दोनों का, जिन जीवों और अजीवों दोनों का कज्जइ। से तं नामखंधे। इति नाम क्रियते । स एष नाम- स्कन्ध यह नाम किया जाता है। वह नामस्कन्धः। स्कन्ध है। अब ५४. से कि तं ठवणाखंधे ?ठवणाखंधे- अथ कि स स्थापनास्कन्धः? ५४. वह स्थापनास्कन्ध क्या है ? जण्णं कट्टकम्मे वा चित्तकम्मे वा स्थापनास्कन्धः-यः काष्ठकर्मणि स्थापनास्कन्ध-काष्ठाकृति, चित्राकृति, पोत्थकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा चित्रकर्मणि वा पुस्तकर्मणि वा वस्त्राकृति या लेप्याकृति में, गंथकर, वेष्टित Jain Education Intemational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अणुओगदाराई वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे लेप्यकर्मणि वा प्रन्थिमे वा वेष्टिमे कर, भरकर या जोड़कर बनाई हुई पुतली में, वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा वा पूरिमे वा संघातिमे वा अक्षे वा अक्ष या कौड़ी में एक या अनेक सद्भाव अणेगावा सब्भावठवणाए वा अस- वराटके वा एको वा अनेके वा स्थापना अथवा असद्भावस्थापना के द्वारा ब्भावठवणाए वा खंध त्ति ठवणा सद्भावस्थापनया वा असद्भावस्थाप- स्कन्ध का जो रूपांकन या कल्पना की जाती ठविज्जइ । से तं ठवणाखंधे। नया वा स्कन्धः इति स्थापना है । वह स्थापनास्कन्ध है। स्थाप्यते । स एष स्थापनास्कन्धः । ५५. नाम-ढवणाणं को पइविसेसो ? नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषः ? ५५. नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ? नाम आवकहियं, ठवणा इत्तरिया नाम यावत्कथिकम्, स्थापना इत्व- नाम यावज्जीवन होता है तथा स्थापना वा होज्जा आवकहिया वा। रिका वा भवेत् यावत्कथिका वा। स्वल्पकालिक भी होती है और यावज्जीवन ५६. से कि तं दव्वखंधे ? दव्वखंधे अथ कि स द्रव्यस्कन्धः ? द्रव्य- ५६. वह द्रव्यस्कन्ध क्या है ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- आगमओ स्कन्धः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा -- द्रव्यस्कन्ध के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेय नोआगमओ य॥ आगमतश्च नोआगमतश्च ॥ आगमत: और नोआगमतः । ५७. से कितं आगमओ दब्वखंधे? अथ किं स आगमतो द्रव्यस्कन्धः? आगमओ दब्वखंधे -जस्स णं खंध आगमतो द्रव्यस्कन्धः-यस्य स्कन्धः त्ति पदं सिक्खियं ठियं जियं मियं इति पदं शिक्षितं स्थितं चितं मितं परिजियं नामसमं घोससमं अहीण- परिचितं नामसमं घोषसमम् अहीक्खरं अणचक्खरं अव्वाइद्धक्खरं नाक्षरम् अनत्यक्षरम् अव्याविद्धाक्षरम् अक्ख लियं अमिलियं अवच्चा- अस्खलितम् अमीलितम् अव्यत्यानेमेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णधोसं डितं प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्णघोष कण्ठोष्ठकंठोडविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं, विप्रमुक्तं गुरुवाचनोपगतं स वाचनया से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए प्रच्छनया परिवर्तनया धर्मकथया, नो परियट्टणाए धम्मकहाए, नो अणु- अनुप्रेक्षया। कस्मात् ? अनुपयोगो प्पेहाए । कम्हा? अणुवओगो द्रव्यम् इति कृत्वा । दवमिति कटट । ५७. वह आगमतः द्रव्यस्कन्ध क्या है ? आगमतः द्रव्यस्कन्ध-जिसने स्कन्ध यह पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, चित कर लिया, मित कर लिया, परिचित कर लिया, नामसम कर लिया, घोषसम कर लिया, जिसे वह हीन, अधिक और विपर्यस्त अक्षर रहित, अस्खलित, अन्य वर्गों से अमिश्रित, अन्य ग्रन्थ वाक्यों से अमिश्रित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोष युक्त, कण्ठ और होठ से निकला हुआ तथा गुरु की वाचना से प्राप्त है। वह उस [स्कन्ध पद] के अध्यापन, प्रश्न, परावर्तन और धर्मकथा में प्रवृत्त होता है तब आगमतः द्रव्यस्कन्ध है। वह अनुप्रेक्षा में प्रवत नहीं होता क्योंकि द्रव्य निक्षेप अनुपयोग (चित्त की प्रवृत्ति से शून्य) होता है। ५८. नेगमस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ नैगमस्य एकः अनुपयुक्तः आग- ५८. नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति एगे दव्वखंधे, दोणि अणुवउत्ता मतः एकः द्रव्यस्कन्धः, द्वौ अनुपयुक्तो आगमतः एक द्रव्यस्कन्ध है। दो अनुपयुक्त आगमओदोणि दध्वखंधाई, तिणि आगमतो द्वौ द्रव्यस्कन्धौ, त्रयः अनुप- व्यक्ति आगमतः दो द्रव्यस्कन्ध हैं। तीन अणव उत्ता आगमओ तिणि युक्ताः आगमतः त्रयः द्रव्यस्कन्धाः, अनुपयुक्त व्यक्ति आगमत: तीन द्रव्यस्कन्ध दव्वखंधाई, एवं जावइया अणु- एवं यावन्तः अनुपयुक्ताः तावन्तः ते हैं। इस प्रकार जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं वउत्ता तावइयाई ताई नेगमस्स नंगमस्य आगमतो द्रव्यस्कन्धाः । नैगमनय की अपेक्षा उतने ही आगमत: द्रव्यआगमओ दव्वखंधाई। एवमेव एवमेव व्यवहारस्यापि । संग्रहस्य एको स्कन्ध हैं। ववहारस्स वि । संगहस्स एगो वा वा अनेके वा अनुपयुक्तो वा अनुपयुक्ताः इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा से भी अणेगा वा अणुवउत्तो वा अणु- वा आगमतो द्रध्यस्कन्धः वा द्रव्य- जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं उतने ही आगमत: वउत्ता वा आगमओ दव्वखंधे वा स्कन्धा: वा, स एकः द्रव्यस्कन्धः । द्रव्यस्कन्ध हैं। दब्वखंधाणि वा, से एगे दव्वखंधे। ऋजुसूत्रस्य एकः अनुपयुक्तः आगमतः संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति Jain Education Intemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकरण : सूत्र ५५-६१ उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो आग- एकः द्रव्यस्कन्धः, पृथक्त्वं नेच्छति।। है अथवा अनेक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, आगमतः मओ एगे दव्वखंधे, पुहत्तं नेच्छइ। त्रयाणां शब्दनयानां ज्ञः अनुपयुक्तः एक द्रव्यस्कन्ध है अथवा अनेक द्रव्यस्कन्ध तिण्हं सद्दनयाणं जाणए अणवउत्ते अवस्तु । कस्मात् ? यदि ज्ञ. अनुप- हैं, वह एक द्रव्यस्कन्ध है। अवत्थू । कम्हा? जइ जाणए युक्तो न भवति । स एष आगमतो ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त अणउवत्तं न भवइ। से तं आग- द्रव्यस्कन्धः । व्यक्ति एक द्रव्यस्कन्ध है, भिन्नता उसे इष्ट मओ दव्वखंधे ॥ नहीं है। तीन शब्द नयों [शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत] की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता अवस्तु है क्योंकि यदि कोई ज्ञाता है तो वह अनुपयुक्त नहीं होता। वह आगमतः द्रव्यस्कन्ध है। ५६. से कि तं नोआगमओ दव्वखंधे ? अथ किं स नोआगमतो द्रव्य- ५९. वह नोआगमत: द्रव्यस्कन्ध क्या है ? नोआगमओ दव्वखंधे तिविहे स्कन्धः ? नोआगमतो द्रव्यस्कन्धः नोआगमत: द्रव्यस्कन्ध के तीन प्रकार पण्णते, तं जहा -जाणगसरीर- त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-शरीर- प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ज्ञशरीर द्रव्यस्कन्ध, भव्यशरीर दव्वखंधे भवियसरीरदव्वखंध द्रव्यस्कन्धः भव्यशरीरद्रव्यस्कन्धः द्रव्यस्कन्ध और ज्ञशरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त जाणगसरीर-भवियसरीर-बतिरित्त ज्ञशरीरमध्यशरीरव्यतिरिक्तः द्रव्य- द्रव्यस्कन्ध । दव्वखंधे ॥ स्कन्धः। ६०. से कि तं जाणगसरीरदव्वखंधे ? अथ किं स ज्ञशरीरद्रध्यस्कन्धः? ६०. वह ज्ञशरीर द्रव्यस्कन्ध क्या है ? जाणगसरीरदव्वखंधे-खंधेत्ति पय- ज्ञशरीरद्रव्यस्कन्धः-स्कन्ध इति ज्ञशरीर द्रव्यस्कन्ध–'स्कन्ध' इस पद के स्थाहिगारजाणगस्स जं सरीरयं पदार्थाधिकारज्ञस्य यत् शरीरकं अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति का जो ववगय-चय-चाविय-चत्तदेहं जीव- व्यपगतच्युतच्यावितत्यक्तदेहं जीवविप्र- शरीर अचेतन, प्राण से च्युत, किसी निमित्त विप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं हीणं शय्यागतं वा संस्तारगतं वा से प्राणच्युत किया हुआ, उपचय रहित वा निसीहियागयं वा सिद्धसिला- निषीधिकागतं वा सिद्ध शिलातलगतं जीव-विषमुक्त है, उसे शय्या, बिछौने, श्मशानतलगयं वा पासित्ताणं कोइ वएज्जा वा दृष्ट्वा कोऽपि वदेत् --अहो ! भूमि या सिद्ध शिलातल पर देखकर कोई कहे -अहो णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं अनेन शरीरसमुच्छयेण जिनदिष्टेन -आश्चर्य है, इस पौद्गलिक शरीर ने जिन जिणदिठेणं भावेणं खंधे त्ति पयं भावेन स्कन्ध इति पदं आख्यातं द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार स्कन्ध इस आघवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं प्रज्ञापितं प्ररूपितं दर्शितं निदर्शितम् । पद का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदंसियं उवदंसियं । जहा को उपदर्शितम् । यथा क: दृष्टान्तः ? निदर्शन और उपदर्शन किया है। जैसे-कोई दिळंतो? अयं महकुंभे आसी, अयं मधुकुम्भः आसीत्, अयं घृत- दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहा, इसका अयं घयकुंभे आसी । से तं जाणग- कुम्भः आसीत् । स एष ज्ञशरीर- दृष्टान्त यह है] यह मधुघट था, यह घृतघट सरीरदव्वखंधे ॥ द्रव्यस्कन्धः। था । वह ज्ञशरीर द्रव्यस्कन्ध है। ६१. से कि तं भवियसरीरदव्वखंधे? अथ कि स भव्यशरीरद्रव्य- ६१. वह भव्यशरीर द्रव्यस्कन्ध क्या है ? भवियसरीरदब्वखंधे-जे जीवे स्कन्धः ? भव्यशरीरद्रव्यस्कन्धः-- भव्यशरीर द्रव्यस्कन्ध -गर्भ की पूर्णाजोणिजम्मणनिक्खंते इमेणं चेव यः जीवः योनिजन्मनिष्क्रान्त अनेन वधि से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त आदत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिण- चैव आदत्तकेन शरीरसमुच्छयेण जिन- पौद्गलिक शरीर से स्कन्ध इस पद को जिनदिट्टेणं भावेणं खंधे त्ति पयं सेय- दिष्टेन भावेन स्कन्धः इति पदम् द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में काले सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खइ। एष्यत काले शिक्षिष्यते, न तावत् सीखेगा, वर्तमान में नहीं सीखता है, तब तक जहा को दिळंतो? अयं महुकुंभे शिक्षते । यथा कः दृष्टान्तः ? अयं वह भव्यशरीर द्रव्यस्कन्ध है। जैसे कोई भविस्सइ, अयं घयकुंभे भविस्सइ। मधुकुम्भः भविष्यति, अयं घृतकुम्भः दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहा, इसका Jain Education Intemational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अणुओगदाराई से तं भवियसरीरदन्वखंधे ॥ भविष्यति । स एष भव्यशरीरद्रव्यस्कन्धः। दृष्टान्त यह है] यह मधुघट होगा, यह घृतघट होगा। वह भव्यशरीर द्रव्यस्कन्ध ६२. से कितं जाणगसरीर-भविय- अथ कि स ज्ञशरीर-भव्यशरीर- ६२. वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सरीर-वतिरित्ते दब्वखंधे? जाणग- व्यतिरिक्तः द्रव्यस्कन्धः ? ज्ञशरीर- स्कन्ध क्या है ? सरीर-भवियसरीर-वतिरित्ते दव्व- भव्यशरीर-व्यतिरिक्तः द्रव्य स्कन्धः ज्ञशरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यखंधे तिविहे पण्णते, तं जहा- त्रिविध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सचित्तः स्कन्ध के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-सचित्त, सचित्ते अचित्ते मीसए॥ अचित्त: मिश्रः । अचित्त और मिश्र । ६३.से कि तं सचित्ते दब्वखंध? अथ कि स सचित्तः द्रव्यस्कन्धः? ६३. वह सचित द्रव्यस्कन्ध क्या है ? सचित्ते दब्वखंधे अणेगविहे पण्णत्ते, सचित्त: द्रव्यस्कन्धः अनेकविधः सचित द्रव्यस्कन्ध के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त तं जहा--हयखंधे गयखंधे किन्नर- प्रज्ञप्तः, तद्यथा हयस्कन्धः गज- हैं, जैसे-अश्वस्कन्ध, गजस्कन्ध, किन्नरखंधे किंपरिसखंधे महोरगखंधे स्कन्धः किन्नरस्कन्धः किंपुरुषस्कन्धः स्कन्ध, किंपुरुषस्कन्ध, महोरगस्कन्ध और उसभखंधे । से तं सचित्ते दब्वखंधे। महोरगस्कन्धः ऋषभस्कन्धः । स एष वृषभस्कन्ध । वह सचित्त द्रव्यस्कन्ध है। सचित्तः द्रव्यस्कन्धः । ६४. से कि त आचत्त दवखध । अथ किस अचित्तः द्रव्यस्कन्धः ? ६४. वह अचित्त द्रव्यस्कन्ध क्या है ? अचित्ते दव्वखंधे अणेगविहे पण्णत्ते, अचित्तः द्रव्यस्कन्धः अनेकविध: अचित्त द्रव्यस्कन्ध के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त तं जहा-दुपएसिए खंध तिपएसिए प्रज्ञप्तः, तद्यथा-द्विप्रदेशिक: स्कन्ध: हैं, जैसे-द्विप्रदेशिक स्कन्ध, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, खंधे जाव दसपएसिए खंधे संखेज्ज- त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः यावद् दशप्रदे- यावत् दसप्रदेशिक स्कन्ध, संख्येयप्रदेशिक पएसिए खंधे असंखेज्जपएसिए खंधे शिक: स्कन्ध: संख्येयप्रदेशिक: स्कन्ध: स्कन्ध, असंख्येयप्रदेशिक स्कन्ध और अनन्तअणंतपएसिए खंधे। से तं अचित्ते असंख्येयप्रदेशिक: स्कन्धः अनन्तप्रदे- प्रदेशिक स्कन्ध । वह अचित्त द्रव्यस्कन्ध है। दव्वखंधे॥ शिक: स्कन्धः । स एष अचित्त: द्रव्यस्कन्धः। ६५. से कितं मीसए दव्वखंध? मीसए अथ किं स मिश्रः द्रव्यस्कन्धः? ६५. वह मिश्र द्रव्यस्कन्ध क्या है ? दव्वखंधे अणेगविहे पण्णत्ते, तं मिश्रः द्रव्यस्कन्धः अनेकविध: प्रज्ञप्तः, मिश्र द्रव्यस्कन्ध के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त जहा-सेणाए अग्गिमे खंधे सेणाए तद्यथा-सेनायाः अग्रिमस्कन्धः हैं, जैसे-सेना का अग्रिम स्कन्ध, सेना का मज्झिमे खंधे सेणाए पच्छिमे खंधे। सेनायाः मध्यमस्कन्धः सेनायाः मध्यम स्कन्ध और सेना का अन्तिम से तं मीसए दव्वखंधे ॥ पश्चिमस्कन्धः । स एष मिश्रः द्रव्य- स्कन्ध । वह मिश्र द्रव्यस्कन्ध है। स्कन्धः । ६६. अहवा जाणगसरीर-भवियसरीर- अथवा ज्ञशरीरभव्यशरीर- ६६. अथवा ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य वतिरित्ते दव्वखंधे तिविहे पण्णत्ते, व्यतिरिक्तः द्रव्यस्कन्धः त्रिविध: स्कन्ध के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे - पूर्णतं जहा-कसिणखंधे अकसिणखंधे प्रज्ञप्तः, तद्यथा--कृत्स्नस्कन्धः स्कन्ध, अपूर्णस्कन्ध और अनेकद्रव्यस्कन्ध । अणेगदवियखंधे॥ अकृत्स्नस्कन्धः अनेकद्रव्यस्कन्धः । ... ६७. से किं तं कसिणखंधे ? कसिणखंधे अथ कि स कृत्स्नस्कन्धः ? ६७. वह पूर्णस्कन्ध क्या है ? --स चव हयखध गयखध किन्नर- कृत्स्नस्कन्धः स चैव हयस्कन्धः पूर्णस्कन्ध - वही अश्वस्कन्ध, गजस्कन्ध, खंधे किपुरिसखंधे महोरगखंधे गजस्कन्धः किन्नरस्कन्धः महोरग किन्नरस्कन्ध, किंपुरुषस्कन्ध, महोरगस्कन्ध उसभखंधे । से तं कसिणखंधे ॥ स्कन्धः ऋषभस्कन्धः । स एष कृत्स्न और वृषभस्कन्ध । वह पूर्ण स्कन्ध है। Jain Education Intemational Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकरण : सूत्र ६२-७३ - ६८. से कि तं अरुणिबंध ? अकसिणबंधे से चैव दुपएसिए बंधे तिपएसिए खंधे जाव बसपएसिए खंधे संखेज्जपए सिए खंधे असंखेज्जएसिए बंधे अनंतपए सिए बंधे। से तं अकणिबंधे ॥ ६९. से कि तं अगदविखंधे ? अनंगदवियखंधे - तस्सेव देसे अवचिए तस्सेव देसे उवचिए । से तं अणेगविखंधे । से तं जाणगसरीर भवियसरोर वतिरिते दन्यसंधे। से तं दव्वखंधे || ७०. से कि तं भावखंधे ? भावखंधे दुविहे पण तं जहा- आगमओ य नोआगमओ य ॥ ७१. से कि तं आगमओ भावबंधे ? आगमओ भावखंधे जाणए उबउत्से से तं आगमओ भावखंधे || 1 ७२. से किं तं नोआगमओ भावखंधे ? नोआगमओ भावखंधे - एएसि चेव सामाइयमाइयाणं छण्हं अभयणाणं समुदय समिति-समागमेणं निष्कणे आवसवसुधे भावखंधे ति लम्भ से तं नोआगमओ भावखंधे । से तं भावखंधे ॥ ७३. तस्स णं इमे एगट्टिया नाणाघोसा नाणावंजणा नामधेज्जा भवंति, तं जहागाहा - गण काए य निकाए, खंधे वग्गे तहेव रासी य । पंजे पिंडे निग़रे, संघाए आउल समूहे ॥ सेतं खंधे ॥ अथ कि स अकृत्स्नस्कन्धः ? अकृत्स्नस्कन्धः स चैव द्विप्रदेशिक: स्कन्धः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः यावद् दशप्रदेशिकः स्कन्धः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः अनन्तप्रदेशिकः स्कन्ध: । स एष अकृत्स्नस्कन्धः । अथ किं स अनेकद्रव्यस्कन्धः ? अनेकद्रव्यस्कन्धः -- तस्यैव देश: अपचितः तस्यैव देशः उपचितः । स एष अनेकद्रव्यस्कन्धः । स एष ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः द्रव्यस्कन्धः । स एष द्रव्यस्कन्धः । अथ किस भावस्कन्ध: ? भावस्कन्धः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाआगमतश्च नोआगमतश्च । अथ कि स आगमतो भावस्कन्धः ? आगमतो भावस्कन्धः -ज्ञः उपयुक्तः । स एव आगमतो भावस्कन्धः । अथ कि स नोआगमतो भावस्कन्ध: ? नोआगमतो भावस्कन्धःएतेषां चैव सामायिकादिकानां षण्णाम् अध्ययनानां समुदय समितिसमागमेन froपन्नः आवश्यकश्रुतस्कन्ध भावस्कन्धः इति लभ्यते । स एष नोआगमतो भावस्कन्धः । स एष भावस्कन्धः । तस्य इमानि एकायिकानि नानाघोषाणि नानाव्यञ्जनानि नामधेयानि भवन्ति, तद्यथागाथा गण: कायश्च निकाय:, स्कन्धः वर्गः तथैव राशिश्च । पुञ्जः पिण्ड: निकरः, ―― संघातः आकुलः समूहः ॥ स एष स्कन्धः । ६८. वह अपूर्णस्कन्ध क्या है ? अपूर्ण स्कन्ध-वही द्विप्रदेशिक स्कन्ध, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, यावत् दसप्रदेशिक स्कन्ध, संख्येयप्रदेशिक स्कन्ध, असंख्येयप्रदेशिक स्कन्ध, अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध । वह अपूर्ण स्कन्ध है । ६९. वह अनेक द्रव्यस्कन्ध क्या है ? अनेकद्रव्यस्कन्ध - उसी स्कन्ध का कोई एक देश अपचित (जीव प्रदेशविरहित) है और उसी स्कन्ध का कोई एक देश उपचित (जीव प्रदेश परिव्याप्त ) है । वह अनेकद्रव्यस्कन्ध है" वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यस्कन्ध है । वह नोआगमतः द्रव्यस्कन्ध है । वह द्रव्यस्कन्ध है । ७०. वह भावस्कन्ध क्या है ? ५.३ भाव स्कन्ध के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, आगमतः और नोआगमतः । ७१. वह आगमतः भावस्कन्ध क्या है ? जैसे आगमतः भावस्कन्ध- जो जानता है और उसमें उपयुक्त [ दत्तचित्त ] है । वह आगमतः भावस्कन्ध है । ७२. वह नोआगमतः भावस्कन्ध क्या है ? नोआगमतः भावस्कन्ध-सामायिक आदि इन्हीं छह अध्ययनों के समुदय, समिति और समागम से निष्पन्न आवश्यक श्रुतस्कन्ध भावस्कन्ध है । वह नोआगमतः भावस्कन्ध है । " वह भावस्कन्ध है । ७३. उस स्कन्ध के ये नाना घोष और नानाव्यञ्जन वाले एकार्थिक नाम होते हैं, जैसेगण, काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग, राशि, पुञ्ज, पिण्ड, निकर, संघात, आकुल और समूह । वह स्कन्ध है ।" Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र ४० १. सूत्र (सुयं) प्रस्तुत आगम के ५१वें सूत्र में सूत्र के दस पर्यायवाची नाम बताए गए हैं। उनमें प्रथम दो नाम सुय और सुत्त हैं । 'सुय' का संस्कृत रूप श्रुत और सुत्त का संस्कृत रूप सूत्र होता है। श्रुत के प्रसङ्ग में प्रायिक समानता के कारण सूत्र के पांच प्रकारों का निर्देश किया गया है। सूत्र ४१ २. (सूत्र ४१) अण्डज–अण्ड का अर्थ है-कोशी (खोल) का निर्माण करने वाला कीट। उससे उत्पन्न होने वाला सूत्र अण्डज कहलाता है । चूर्णिकार ने इसे हंसगर्भ कहा है । हंस का अर्थ है पतंगा, यह चतुरिन्द्रिय जीव विशेष होता है। उसके गर्भ से अथवा कोशिका से निकलने वाला सूत्र अण्डज होता है । देशी-भाषा में इसे चटकसूत्र भी कहा जाता है.' सूत्र ४२ ३. (सूत्र ४२) 'बोण्ड' देशी शब्द है । बोण्डज का अर्थ है-कपास का धागा अथवा कपास के धागे से बना हुआ सूत्र । ४. पट्टसूत्र (पट्टे) चूर्णिकार ने पट्ट आदि की व्याख्या इस प्रकार की है-वन-निकुञ्ज में किसी स्थान पर मांस के टुकड़े रख दिए जाते हैं । उनके आस-पास थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ऊपर-नीचे कीले गाड दिए जाते हैं। वन में घूमते हुए पतंग-कीड़े मांस की गन्ध पाकर वहां पहुंचते हैं । मांस खाने के लिए वे कीलों के बीच में इधर-उधर घूमते हैं। उस समय उनके मुख से लालास्राव होता है जो कीलों पर चिपक जाता है । उस लाला से निर्मित सूत्र पट्टसूत्र कहलाता है।' ५. मलय (मलए) मलयदेश में निर्मित सूत्र मलयसूत्र कहलाता है।' ६. अंशुक, चीनांशुक (अंसुए चीणंसुए) ___ भारत आदि देशों में होने वाला सूक्ष्म सूत्र अंशुक और चीन देश में बना हुआ सूक्ष्म सूत्र चीनांशुक कहलाता है।' १. (क) अचू पृ. १५ : अंडाज्जातं अंडजं, तं च हंसगम्भ, आमिसं चरंता इतो ततो कोलंतरेसु संचरंता लालं मुयंति, अंडमिति कोसिकारको हंसगभो भण्णति, हंसो पक्खी एस पट्टो। सो तं पतंगो तस्स गम्भो, एवं चडयसुत्तं हंसगम्भ ३. (क) अचू. पृ. १५ : मलयविसयुप्पण्णो मलयपट्टो भण्णति । भण्णति । (ख) अहावृ. पृ. २१ । (ख) अहावृ. पृ. २१ । (ग) अमव. प.३१। (ग) अमवृ.प. ३१ । ४. (क) अचू. पृ. १५: चीणविसयबहिमुप्पण्णो अंसुपट्टो २. अचू. पृ. १५ : तत्थ अरन्ने वणणिगुंजट्ठाणे मंसं चीडं वा चीणविसयुप्पण्णो चीणंसुयपट्टो। आमिसं पुंजेसु ठविज्जइ, तेसि पुजाण पासओ णिण्णुण्णता (ख) अहाव. पृ. २१॥ संतरा बहवे खीलया भूमीए उद्धा णिहोडिज्जति, तत्य (ग) अमवृ. प. ३१ वणंतरातो पदंगकीडा आगच्छंति, तं च मंसचीडाइयं Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० २, सू० ४० ४६, टि० १-१३ ७. कृमिराग ( किमिरागे) कृमिराग अर्थात् कुमचिया रंग का सूत्र । इस सूत्र - निर्माण की प्रक्रिया में बताया गया कि मनुष्य का रक्त निकालकर उसमें कोई रासायनिक पदार्थ मिलाकर एक पात्र में रख दिया जाता है। उस रक्त में कृमि उत्पन्न होकर वे हवा की खोज में पात्र के छेदों से बाहर निकलते हैं। आस-पास घूमते समय उनके मुख से लार टपकती है। उससे सूत्र बन जाता है । कुछ लोग मानते हैं कि कृमि सहित उस शोणित को मला जाता है। उनके खोलों को निकालकर उस रस में कुछ पदार्थ मिलाकर पट्टसूत्र को रंगा जाता है, वही कृमिराग सूत्र है । वह रंग इतना पक्का होता है कि वस्त्र को धोने के बाद भी नहीं छूटता | सूत्र ४४ ८. मृगरोम का सूत (मियलोमिए) मृग की आकृति वाले बड़ी पूंछ वाले आठविक जीवों के रोमों से निष्पन्न सूत्र को मृगरोम कहा जाता है।' 1 ६. चूहे के रोमों का सूत (कुतबं) चूहे के रोम से बना हुआ सूत कौतव कहलाता है । " १०. मिश्रित बालों से बना सूत ( किट्टिसे) ऊन, मृगरोम आदि का सूत बनाने के बाद जो कचरा बचता है, उससे निर्मित सूत किट्टिस कहलाता है । इसका दूसरा अर्थ यह है ऊन, ऊंट के रोम, मृगरोम और चूहों के रोम - इनमें से दो-तीन के मिश्रण से जो सूत बनता है, वह किट्टिस कहलाता है।" ११. बुद्धि (बुद्धि) व्यवसायात्मक या निर्णयात्मक ज्ञान । १२. मति (इ) सूत्र ४९ मननात्मक और स्मरणात्मक ज्ञान । १३. मंत्री और आसुरोक्त (हंमीमासुर) इस वाक्य में दो ग्रन्थों का उल्लेख है । व्यवहारभाष्य की मलयगिरीया वृत्ति के अनुसार हंभी का संस्कृत रूप भंभी होता है । गोम्मटसार में आभी (आभीत) का उल्लेख मिलता है। ललितविस्तर में आम्भिर्य पद का प्रयोग है। इस प्रकार एक ही ग्रन्थ के लिए अनेक परिवर्तित पाठ मिलते हैं। इसका परिचय प्राप्त नहीं है । गोम्मटसार की व्याख्या में इसे चौर्यशास्त्र बतलाया गया है । १. ( क ) अचू. पृ. १५ : मणुयादिरुहिरं घेतुं किणावि जोगेण जुत्तं भायणसं पुडंमितविज्जति, तत्थ किमी उप्पज्जंति, ते वाताभिलासिणो छिद्दनिग्गता इतो ततो य आसणं मंति, सिमीहारनाता किमिरागपट्टमति, सो सपरिणामं रंगरंगितो चेव भवति । अण्णे भांतिजहा रुहिरे उप्पन्ना किमितो तत्थेव मलेत्ता कोसट्ट उत्तारेत्ता तत्थ रसे किंपि जोगं पक्खिवित्ता वत्थं रयंति सो किमिरागो भण्णति । (ख) अहावृ. पृ. २१,२२ ॥ २.अ.प.३१च्च धौताद्यवस्थासु मनागपि कंपचिद रागंन मुंचति । ३. (क) अचू. पृ. १५ मिहितो लहुतरा मृगाकृतयो बृहत्पिच्छा तेसि लोमा मियलोमा । (ख) अहावृ. पृ. २२ । (ग) अमवृ. प. ३२ । ४. (क) अजू. पू. १५ कृतयो उदररोगे । (ख) अहावृ. पृ. २२ । (ग) अमृवृ. प. ३२ । ५५ ५. (क) अचू. पृ. १५ : उण्णितादीणं अवघाडो किट्टिसमहवा एतेसि दुगादिसंयोगजं किट्टिसं, अहवा जे अण्णे साणगा (छगणा) दयो रोमा ते सव्वे किट्टिसं भन्नति । (ख) अहावृ. पृ. २२ । (ग) अमवृ. प. ३२ । ६. व्यभा. ३, प. १३२ । ७. गोजी. ३०३ । ८. नसुअ. ४९ का पादटिप्पण । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई इसी प्रकार आसुरोक्त शब्द भी अनेक परिवर्तित रूपों में मिलता है। व्यवहारभाष्य में 'आसुरक्ख' पाठ मिलता है। मलयगिरी ने उसका अर्थ आशुवृक्ष किया है। गोम्मटसार में आसुरक्ष का अर्थ हिंसाशास्त्र किया गया है। हमने 'आसुरुत्त' पाठ स्वीकार किया है । इस 'आसुरोक्त' के लिए भी हिंसाशास्त्र या युद्धशास्त्र की कल्पना की जा सकती है। १४. कौटलीय अर्थशास्त्र (कोडिल्लयं) महामात्य कौटिल्य द्वारा निर्मित राजनीतिशास्त्र या अर्थशास्त्र । १५. घोटमुख (घोडमुह) वात्स्यायन के पूर्वज घोटकमुख द्वारा रचित कामसूत्र । १६. कनकसप्तति (कणगसत्तरी) यह ग्रन्थ षष्टितन्त्र के आधार पर लिखा हुआ है। इसके लेखक आचार्य ईश्वरकृष्ण सांख्यदर्शन के लोकप्रिय आचार्य हुए हैं। इनका समय ईसा पूर्व दूसरी सदी माना जाता है। ईसवी सन् ५४६ में बौद्ध विद्वान परमार्थ ने इस ग्रन्थ का अनुवाद चीनी भाषा में किया जो आज भी प्राप्त है। वहां इसका नाम सुवर्णसप्तति है। ___सांख्यकारिका, सांख्यसप्तति, सुवर्णसप्तति आदि नामों से भी इस ग्रन्थ की पहचान होती है। १७. वैशिक (वेसियं) यह कामशास्त्र प्रतीत होता है। सूत्रकृताङ्ग में 'स्त्रीवेद' नामक कामशास्त्र का उल्लेख है। चूणिकार ने स्त्रीवेद की व्याख्या में वैशिक तंत्र का उल्लेख किया है।' १८. वैशेषिक (वइसेसियं) कणाद ऋषि द्वारा प्रणीत वैशेषिक सूत्र । १६. बुद्धवचन (बुद्धवयणं) बुद्धवचन --पिटक । २०. कापिल (काविलं) सांख्यसूत्र। २१. षष्टितन्त्र (सट्टितंतं) यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । इसके रचयिता वार्षगण्य के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे एक प्रभावशाली सांख्य आचार्य के नाम से प्रसिद्ध थे । तुलना के लिए द्रष्टव्य-भगवती भाष्य २।२४ । २२. माठर (माढरं) माठर कनक-सप्तति की टीकाओं में से एक है। रचयिता के नाम पर उस टीका का नाम भी माठर हो गया, ऐसा प्रतीत होता है। माठर सम्राट कनिष्क (प्रथम सदी) के समसामयिक माने जाते हैं। २३. पुराण (पुराणं) इसमें वैदिक साहित्य के व्यास रचित १८ पुराणों का समावेश किया गया है। २४. व्याकरण (वागरणं) यहां पाणिनी आदि वैयाकरणों की ओर इंगित किया गया प्रतीत होता है। २५. नाटक (नाडगादि) इसका संकेत भरत के नाट्य शास्त्र की ओर किया गया है ऐसा प्रतीत होता है। २६. बहत्तरकलाएं (बावतरिकलाओ) देखें-समवाओ ७२।७। १ सूचू पृ. १३८,१३९ वैशिकतन्त्रेप्युक्तं 'एता हसं ति च रुदंति च अर्थहेतोः विश्वासयंति च नरं न च विश्वसं ति।' स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं, निष्पीलितालक्तकवत् त्यजति । Jain Education Intemational Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० २, सू० ५०-७२, टि० १४-३० २७. अंगोपांग सहित ( संगोवंगा) वेद के छह अंग हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त और ज्योतिष्क । इन छहों अङ्गों के व्याख्यात्मक ग्रन्थ २८. ( सूत्र ५० ) लोकोत्तर भारत में निर्दिष्ट ग्रन्थों के विशेष विवरण के लिए देखें नंदी, समयाओ और कषायपा भावश्रुत सूत्र ६९ सूत्र ५० समुदय—समूह | समिति-अव्यवहित मिलन । समागम परस्पर संबद्धता । २९. अनेकद्रव्यस्कन्ध (अणेगदवियधे) अनेकद्रव्यस्कन्ध के लिए वृत्तिकार ने शरीर का उदाहरण प्रस्तुत किया है। शरीर एक स्कन्ध है । उसमें केश, नख आदि निर्जीव भाग हैं— जीव- प्रदेशों से अपचित हैं। पैर, जंघा, ऊरु आदि सजीव भाग हैं जीव- प्रदेशों से उपचित हैं । इन दोनों भागों के समुदय अथवा विशिष्ट परिणमन का नाम है-शरीर, इसलिए उसका नाम है—अनेकद्रव्यस्कन्ध । ' सूत्र ७२ ३०. नोआगमतः भावस्कंध (नोआगमओ भावखंधे) सामायिक आदि छ अध्ययनों के समुदय समिति का समागम करने पर आवश्यक श्रुतस्कंध उपलब्ध होता है। आवश्यक में संलग्न और आवश्यक के अनुरूप क्रिया करने वाले व्यक्ति के नोआगमतः भावस्कंध होता है। ज्ञान और दर्शन की चेतना आगम है, वह यहां पर विवक्षित नहीं है । शब्दविमर्श १. अमवृ. पू. ३३ : तंत्रांगानि - शिक्षाकल्पव्याकरणच्छन्दोfreerज्योतिष्कायनलक्षणानि षट् । उपांगानि तद्व्याख्यानरूपाणि तैः सह वर्तन्ते इति सांगोपांगाः । २. (क) नसुनं. सू. ८१-१२७ । (ख) स. प्रस. सू. ८८-१३४ । (ग) कपा. पृ. १२२-१३२ । एक से अधिक वस्तुओं को एकत्रित करने से समूह बन जाता है। समूह बनने के बाद भी उसमें बिखराव हो सकता है, इसलिए उनका अव्यवहित सम्पर्क बताने के लिए 'समिति' शब्द की सार्थकता है । अव्यवहित सम्पर्क में भी निरपेक्षता संभव है जैसे -लोहे के अनेक कीलों को परस्पर संबद्ध कर दिया जाए तो भी उनका अस्तित्व अलग अलग रहता है। परस्पर संबद्ध होने के बाद उनकी विशिष्ट परिणति अर्थात् एकात्मकता बनती है, उसे बताने के लिए यहां तीन शब्दों का एक साथ प्रयोग हुआ है ।" प्रस्तुत संदर्भ में सामायिक आदि छह आवश्यकों के समुदयसमितिसमागम से निष्पन्न आवश्यक श्रुतस्कंध को नोआगमतः भावश्रुतस्कंध बताया गया है। । ३. अहावृ. पू. २४ । ४. स. पू. १७ नोवागमती भावबंध जागकिरियागुणसमूहमतो, सो त सामादियादि छन्हं अज्झयणाणं संमेलो । ५७ ५. ( क ) अहावृ. पृ. २४, २५ प्रस्तुतावश्यकभेदानां सामापिकादीनां वयामध्यवनानां समुदायसमितिसमागमेन इाध्ययनमेव वायसमुदायत्वात् समुदाय, समुदा यानां समितिः-मेलकः, समुदायमेलकः समुदायसमितिः, इयं च स्वस्वभावव्यवस्थितानामपि भवति अत एकीभावप्रतिपत्यर्थमाह समागमेन समुदयसमितेः समा गमो - विशिष्टैकपरिणाम इति समासस्तेन आवश्यकश्रुतभावस्कन्ध इति लभ्यते । (ख) अमवृ. प. ३८ । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ अणुओगदाराई सूत्र ७३ ३१. (सूत्र ७३) प्रस्तुत गाथा में स्कन्ध के बारह पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं। समभिरूढ़ नय के अनुसार एक अर्थ के वाचक दो शब्द नहीं हो सकते । प्रत्येक शब्द भिन्न अर्थ का वाचक होता है। हरिभद्रसूरि ने प्रत्येक शब्द में विद्यमान अर्थभेद को स्पष्ट किया है १. 'गण' शब्द का प्रयोग मल्ल आदि गणों के लिए किया जाता है। २. 'काय' शब्द का प्रयोग एक बिन्दु पर घनीभूत अनेक व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जैसे-पृथ्वीकाय । ३. 'निकाय' शब्द का प्रयोग पृथक्-पृथक् व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जैसे-षड्जीवनिकाय, नगरनिगमनिकाय __ आदि। ४. 'स्कन्ध' का प्रयोग परमाणु निर्मित समूह के लिए किया जाता है, जैसे-त्रिप्रदेशी स्कन्ध । ५. 'वर्ग' का प्रयोग समान जाति वाले समूह के लिए किया जाता है, जैसे-गौवर्ग । ६. 'राशि' का प्रयोग ढेर के लिए किया जाता है, जैसे-अन्नराशि। ७. 'पुञ्ज' शब्द का प्रयोग बिखरी हुई वस्तु को एकत्रित करने के लिए किया जाता है, जैसे-धान्यपुञ्ज । ८. 'पिण्ड' का प्रयोग पृथक् वस्तु को एकत्रित करने के लिए किया जाता है, जैसे-गुड़ का पिण्ड । ९. 'निकर' का प्रयोग एक पात्र में डाली हुयी वस्तुओं के समूह के लिए किया जाता है, जैसे-पात्र में डाले गए सिक्कों का निकर। १०. 'संघात' का प्रयोग मिलन के लिए किया जाता है, जैसे-तीर्थस्थानों में जनसंघात । ११. 'आकुल' का प्रयोग संकीर्ण स्थान में बहुत लोगों के इक्कट्ठे होने के लिए किया जाता है, जैसे-जनाकुल राजमार्ग। १२. 'समूह' का प्रयोग समुदाय के लिए किया जाता है, जैसे नगरनिवासी जनसमूह । १. अहाव. पु. २५ : मल्लगणवद्गणः पृथिवीसमस्त जीवकायवत्कायः व्यादिपरमाणुम्कन्धवत्स्कन्धः गोवर्गवद्वर्गः शालिधान्यराशिवराशि: विप्रकीर्णधान्यपुजीकृतपुजवत्पुञ्जः गुडादिपिण्डीकृतपिंडवत् पिण्डः हिरण्यादिद्रव्यनिकरवन्निकरः तीर्थादिषु संमिलितजनसंघातवत् संघातः राजगृहाङ्गणजनाकुलवत् आकुलं पुरादिजनसमूहवत् समूहः । Jain Education Intemational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकरण ( सूत्र ७४-९९ ) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख सामायिक के चार अनुयोग द्वार हैं। उनमें पहला है उपक्रम । आवश्यक, श्रुत और स्कन्ध के चार-चार निक्षेप किए गए हैं । उपक्रम के छः निक्षेप निदर्शित हैं । क्षेत्र और काल ये दो पूर्व-पद्धति से अतिरिक्त हैं। शास्त्र से परिचित होने के लिए उपक्रम अथवा उपोद्घात आवश्यक होता है । अनुयोग द्वार के लिए प्रशस्त भावों का उपक्रम आवश्यक है । प्रशस्त भावोपक्रम की प्रत्यभिज्ञा के लिए नाम, स्थापना आदि निक्षेप पद्धति का प्रयोग बहुत अपेक्षित है। कालोपक्रम में नाडिका का उल्लेख है । आर्यरक्षित के समय में यान्त्रिक घड़ियां नहीं होती थीं। उस समय कालमान के लिए रेत अथवा पानी की नाडिका (घड़ी) का प्रयोग होता था। उपक्रम-विधि के पश्चात् निक्षेप-विधि का प्रयोग होता है। अनुयोग द्वार का प्रथम अङ्ग उपक्रम बतलाया गया है। उपक्रम को अनुयोग द्वार के प्रवेश के समकक्ष माना जा सकता है। Jain Education Intemational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकरण मूल पाठ संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद आवस्सयस्स अत्थाहिगार-अज्झयण-पदं आवश्यकस्य अर्थाधिकार- आवश्यक-अर्थाधिकार-अध्ययन-पद अध्ययन-पदम् ७४. आवश्यक के ये अर्थाधिकार प्रज्ञप्त हैं, ७४. आवस्सयस्स णं इमे अत्थाहिगारा आवश्यकस्य इमे अर्थाधिकाराः जैसेभवति, तं जहा-- भवन्ति, तद्यथा गाथा-- गाहागाथा १. सावद्ययोगविरति २. उत्कीर्तन ३. गुणवान १.सावज्जजोगविरई, २. उक्कित्तण १.सावद्ययोगविरतिः २. उत्कीर्तनं की प्रतिपत्ति ४. स्खलित की निन्दा ५. व्रण३. गुणवओ य पडिवत्ती। ३ गुणवतश्च प्रतिपत्तिः । चिकित्सा और ६. गुण धारणा। ४. खलियस्स निंदणा ५. वणतिगिच्छ ४ स्खलितस्य निन्दनं ५वणचिकित्सा यह आवश्यक का समुदायार्थ संक्षेप में ६. गुणधारणा चेव ॥१॥ ६ गुणधारणा चैव ॥१॥ बताया है । अब एक-एक अध्ययन का वर्णन आवस्सयस्स एसो, आवश्यकस्य एष, करूंगा, जैसेपिडत्थो वण्णिओ समासेणं । पिण्डार्थः वणितः समासेन । १. सामायिक २. चतुर्विशस्तव ३. बन्दना एतो एक्केक्कं पुण, इतः एकैकं पुनः, ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान ।' . अज्झयणं कित्तइस्सामि ॥२॥ अध्ययन कीर्तयिष्यामि ॥२॥ तं जहा--१. सामाइयं २. चउ तद्यथा-१ सामायिकम् २ वीसत्थओ ३. वंदणयं ४. पडिक्क चतुर्विशस्तवः ३ वन्दनकम् ४ प्रतिमणं ५. काउस्सग्गो ६. पच्च क्रमणम् ५ कायोत्सर्गः ६ प्रत्याख्याक्खाणं॥ नम्। अणुओगदार-पदं अनुयोगद्वार-पदम् अनुयोगद्वार-पद ७५. तत्थ पढमं अज्झयणं सामाइयं। तत्र प्रथमम् अध्ययनं सामायि- ७५. इनमें पहला अध्ययन सामायिक है। उसके ये तस्स णं इमे चत्तारि अणुओगदारा कम् । तस्य इमानि चत्वारि अनुयोग- चार अनुयोगद्वार होते हैं, जैसे --१. उपक्रम भवंति, तं जहा–१. उवक्कमे २. द्वाराणि भवन्ति, तद्यथा- २. निक्षेप ३. अनुगम ४. नय। निक्खेवे ३. अणुगमे ४. नए। १ उपक्रमः २ निक्षेपः ३ अनुगमः ४ नयः। उवक्कमाणुओगदार-पदं उपक्रमानुयोगद्वार-पदम् उपक्रम-अनुयोगद्वार-पद ७६. से कि तं उवक्कमे ? उवक्कमे अथ कि स उपक्रमः ? उपक्रमः ७६. वह उपक्रम क्या है ? छविहे पण्णत्ते, तं जहा- षड्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा उपक्रम के छह प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे१. नामोवक्कमे २. ठवणोवक्कमे १. नामोपक्रमः २. स्थापनोपक्रमः १. नाम उपक्रम २. स्थापना उपक्रम ३. द्रव्य ३. दम्वोवक्कमे ४. खेतोवक्कमे ३. द्रव्योपक्रमः ४. क्षेत्रोपक्रमः ५. उपक्रम ४. क्षेत्र उपक्रम ५. काल उपक्रम ५. कालोवक्कमे ६. भावो- कालोपक्रमः ६. भावोपक्रमः। ६. भाव उपक्रम। वक्कमे ॥ ७७. से कि तं नामोवक्कमे ? नामोव- अथ कि स नामोपक्रमः ? नामोप- ७७. वह नाम उपक्रम क्या है ? क्कमे-जस्स णं जीवस्स वा क्रमः-यस्य जीवस्य वा अजीवस्य वा ___नाम उपक्रम --जिस जीव या अजीव का, अजोवस्स वा जीवाण वा अजी- जीवानां वा अजीवानां वा तदुभयस्य जिन जीवों या अजीवों का, जिस जीववाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा तदुभयेषां वा उपक्रमः इति अजीव दोनों का, जिन जीवों और अजीवों Jain Education Intemational Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ वा उवक्कमे त्ति नामं कज्जइ । से तं नामोवक्कमे ॥ ७८. से किं तं वगोवक्रुमे ? ठवणोवक्कमे - जण्णं कटुकम्मे वा चित्तकम्मे वा पोत्थकम्मे वा लेप्यकम्मे वा गंधिमे वा वेढिमे वा पूरिने वा संपादने वा अपले वा बराए वा एगो वा अणेगा वा सम्भावठवणाए वा असम्भावठवणाए वा उवक्कमे त्ति ठवणा ठविज्जइ । से तं ठवणोवक्कमे ॥ ७९. नाम-दुवणाणं को पदविसेसो ? नाम आवकहिये, ठबणा इतरिया वा होज्जा आवकहिया वा ॥ मे ? दव्ययक्कमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - आगमओ व नोआगमओ व ॥ ८०. से कि तं ८१. से किं तं आगमओ दव्वोवक्कमे ? आगमओ दयोवक्कमे जस्स णं उक्कमेति पर्व सिविलयंठिय जियं मियं परिजियं नामसमं घोससमं अहोणक्खरं अणच्चक्खरं अम्बाइक्सरं अक्सलियं अमिलियं अवच्चामेलियं परिपुष्णं पपुण्णधोसं कंठोट्ठविप्यमुक्कं गुरुवायणोवगयं, से णं तत्थ वायजाए पुच्छणाए परिवहणाए धम्मकहाए, नो अणुप्पेहाए । कम्हा ? अणुवओगो दव्यमिति कट्टु ॥ ८२. नेगमस्स एगो अणवउत्तो आग मओ एगे दबोक्कमे दोणि अणुवत्ता आगमओ दोणि दग्बी वक्कमाई तिष्णि अणुवत्ता आगमओ तिणि दय्योयवकमाई एवं नाम क्रियते । स एष नामोपक्रमः । अथ किं स स्थापनोपक्रमः ? स्थापनोपक्रमः - - यत् काष्ठकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा पुस्तकर्मणि वा लेप्यकर्मणि वा प्रन्थिमे वा वेष्टिमे वा पूरिमे वा संघातिमे वा अक्षे वा वराटके वा एको वा अनेके वा सद्भावस्थापनया वा असद्भावस्थापनया वा उपक्रमः इति स्थापना स्थाप्यते । स एष स्थापनोपक्रमः । नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषः ? नाम यावत्कथिकम्, स्थापना इत्वरिका वा भवेत् यावत्वा अथ किं स द्रव्योपक्रमः ? द्रव्योपक्रमः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा आगमतश्च नोआगमतश्च । अथ कि स आगमतो द्रव्योपक्रमः ? आगमतो द्रव्योपक्रमः -यस्य उपक्रमः इति पदं शिक्षितं स्थितं चितं मितं परिचितं नामसमं घोषसमम् अहीनाक्षरम् अनत्यक्षरम् अव्याविद्वाक्षरम् अस्खलितम् अमीलितम् अध्यश्वादितं प्रतिपूर्ण प्रतिपुर्णपोष कष्ठौष्ठविप्रमुक्तं गुरुवाचनोपगतं, तत् तत्र वाचनया प्रच्छनया परि नया धर्मका मी अनुप्रेक्षा कस्मात् ? अनुपयोगी प्रम्यम् इति कृत्वा । नंगमस्य एकः अनुपयुक्तः आगमतः एकः द्रव्योपक्रमः, द्वौ अनुपयुक्ती आगमतो हो यो य अनुपयुक्ताः आगमतः त्रयः द्रव्योपक्रमा एवं यावन्तः अनुपयुक्ताः अणुओगदाराई दोनो का उपक्रम यह नाम किया जाता है । वह नाम उपक्रम है । ७८. वह स्थापना उपक्रम क्या है ? स्थापना उपक्रम - काष्ठाकृति, चित्राकृति, वस्त्राकृति या प्याकृति में धर वेष्टित कर भरकर या जोड़कर बनाई हुई पुतली में, अक्ष या कौड़ी में एक या अनेक सद्भाव स्थापना अथवा असद्भाव स्थापना के द्वारा उपक्रम का जो रूपांकन या कल्पना की जाती है। वह स्थापना उपक्रम है । ७९. नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ? नाम यावज्जीवन होता है तथा स्थापना स्वल्पकालिक भी होती है और यावज्जीवन भी । ८०. वह द्रव्य उपक्रम क्या है ? द्रव्य उपक्रम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -आगमतः और नोआगमतः । ८१. वह आगमतः द्रव्य उपक्रम क्या है ? आगमतः द्रव्य उपक्रम - जिसने उपक्रम यह पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, चित कर लिया, मित कर लिया, परिचित कर लिया, नामसम कर लिया, घोषसम कर लिया, जिसे वह हीन, अधिक या विपर्यस्त - अक्षर रहित, अस्खलित, अन्य वर्णों से अमिश्रित, अन्य ग्रन्थ वाक्यों से अमिश्रित प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोषयुक्त, कण्ठ और होठ से निकला हुआ तथा गुरु की वाचना से प्राप्त है, वह उस [ उपक्रम पद] के अध्यापन, प्रश्न, परावर्तन और धर्मकथा में प्रवृत्त होता है तब आगमतः द्रव्य उपक्रम है । वह अनुभेक्षा में प्रवृत नहीं होता, क्योंकि द्रव्य निक्षेप अनुपयोग (चित्त की प्रवृत्ति से शून्य ) होता है । ८२. नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य उपक्रम है, दो अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः दो द्रव्य उपक्रम हैं, तीन अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः तीन द्रव्य उपक्रम हैं। इस प्रकार जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकरण : सूत्र ७८-८४ जावइया अणुवत्ता तावइवाई तावइयाइं ताई नेगमस्स आगमओ दोव कमाई । एवमेव बवहारस्स वि 1 संगहस्स एगो वा अणेगा वा अणु उत्तो वा अणवत्ता वा आगमओ coatara मे वा दव्वोवक्कमाणि बा से एगे दब्बोवक्कमे उज्जु सुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एंगे दव्वोवक्कमे पुहतं ति सद्दनवाणं जाणए अगुवउत्ते अवत्थू कम्हा ? जइ जाणए अणुवडते न भव से तं आगमक्कमे ॥ । ८३. से कि तं नोआगमओ दव्वोवक्कमे ? नोआगमओ दव्वोवक्कमे तिविहे पण ते तं जहा जानग सरीरदव्वोवक्कमे भवियसरीरभविसरीर दबोवक्कमे जाणगसरीर-नविय सरीर-यतिरित दव्योवक्कमे ॥ ८४. से कि तं जाणगसरीरदब्बोवकमे? जाणगसरीरदग्वोवक्कमे उपक्कमे ति पयत्याहिगारजान गस्स जं सरीरखं ववगय-चुय चाविष जीवविप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं वा निसीहियागयं वा सिद्धसिलातलगयं वा पासिता कोइ वएन्ना अहो णं इमेणं सरीरसमुस्सएर्ण जिणदिणं भावणं उबक्कमे ति पर्य आघवियं पण्णवियं परुविये पंसि निसियं उपयंखियं जहा को । वितो? अयं महकुंभे आसो अयं घयकुंभे आसी । से तं जाणगसरदव्ववक्कमे ॥ तावन्तः ते नैगमस्य आगमतो द्रव्योप माः। एवमेव व्यवहारस्यापि । संग्रहस्य एको वा अनेके वा अनुपपुतो वा अनुपयुक्ता या आगमतो द्रव्योपक्रमः वा द्रव्योपक्रमाः वा, स एकः द्रव्योपक्रमः । ऋजुसूत्रस्य एकः अनुपयुक्तः आगमतः एकः ब्रज्योपमः पृथक्त्वं नेच्छति । त्रयाणां शब्दनयानां ज्ञः अनुपयुक्तः अवस्तु । कस्मात् ? यदि शः अनुपयुक्त न भवति । स एष आगमतो द्रव्योप क्रमः । अथ किं स नोआगमतो द्रव्योपक्रम. ? नोआगमतो द्रव्योपक्रमः त्रिविध प्रज्ञप्तः, तद्यथा ज्ञशरीरद्रव्योपक्रम: भव्यशरीरद्रव्योपक्रमः शरीर-व्यशरीर-व्यतिरिक्तद्रव्यो पक्रमः । अथ किं स ज्ञशरीरद्रव्योपक्रमः ? सरीरद्रव्योपक्रमः उपक्रमइति पदाधिकारस्य यत् शरीरक स्वगत्च्त्व्यावित्यक्त जीवविप्रहीणं शय्यागतं वा संस्तारगतं वा निवीधिकागतं वा सिद्ध शिलातलगतं वा वृष्ट्वा कोऽपि वदेत् अहो | अनेन शरीरसमुष्येष जिनदिन भावेन उपक्रम इति पदम् आख्यातं प्रज्ञावित प्ररूपितं दर्शितं नितम् उपशितम् वचा कः पृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भः आसीत्, अयं पूतकुम्भः आसीत्। स एष शरीर । । द्रव्योपक्रमः । ६५ नैगमनय की अपेक्षा उतने ही आगमतः द्रव्य उपक्रम हैं । इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा से भी जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, उतने ही आगमतः द्रव्य उपक्रम हैं । संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति है अथवा अनेक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, आगमतः एक द्रव्य उपक्रम है अथवा अनेक द्रव्य उपक्रम हैं, वह एक द्रव्य उपक्रम है । ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य उपक्रम है, भिन्नता उसे इष्ट नहीं है । तीन शब्द नयों [शब्द, समभिरूढ़ एवंभूत] की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता वस्तु है। क्योंकि यदि कोई ज्ञाता है तो वह अनुपयुक्त नहीं होता । वह आगमतः द्रव्य उपक्रम है। ८३. वह नोआगमतः द्रव्य उपक्रम क्या है ? नोआगमतः द्रव्य उपक्रम के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे ज्ञशरीर द्रव्य उपक्रम, भव्यशरीर द्रव्य उपक्रम और ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य उपक्रम । ८४. वह ज्ञशरीर द्रव्य उपक्रम क्या है ? ज्ञशरीर द्रव्य उपक्रम -उपक्रम इस पद के अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति का जो शरीर अचेतन, प्राण से च्युत, किसी निमित्त से प्राण च्युत किया हुआ, उपचय रहित, जीव विप्रमुक्त है, उसे शय्या, बिछौने, श्मशानभूमि या सिद्ध शिलातल पर देखकर कोई कहे आश्चर्य है। इस पौगलिक शरीर ने जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार उपक्रम इस पद का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया है। जैसे कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहा इसका दृष्टान्त यह है ] यह मधुघट था, यह घृतघट था । वह ज्ञशरीर द्रव्य उपक्रम है । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई ८५. से कि तं भवियसरीरदव्वोव- अथ किं स भव्यशरीरद्रव्योप- ८५. वह भव्यशरीर द्रव्य उपक्रम क्या है ? क्कमे? भवियसरीरदब्वोवक्कमे क्रम: ? भव्यशरीरद्रव्योपक्रमः-यः भव्यशरीर द्रव्य उपक्रम-गर्भ की पूर्णा-जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खंते जीव: योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन चैव वधि से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त इमेणं चेव आदत्तएणं सरीरसमु- आदत्तकेन शरीरसमुच्छ्येण जिन- पौद्गलिक शरीर से उपक्रम इस पद को स्सएणं जिणदिठेणं भावेणं उव- दिष्टेन भावेन उपक्रम इति पदम् जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य क्कमे त्ति पयं सेयकाले सिक्खि- एध्यत्काले शिक्षिष्यते, न तावत् में सीखेगा, वर्तमान में नहीं सीखता है तब स्सइ, न ताव सिक्खइ। जहा को शिक्षते । यथा क: दृष्टान्त ? अयं तक वह भव्यशरीर द्रव्य उपक्रम है। जैसे दिठंतो? अयं महुकुभे भविस्सइ, मधुकुम्भः भविष्यति, अयं घृतकुम्भः कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहा - इसका अयं घयकभे भविस्सइ। से तं भविष्यति भविष्यति । स एष भव्यशरीरद्रव्योप- दृष्टान्त यह है] यह मधुघट होगा, यह भवियसरीरदव्वोवक्कमे ॥ ऋमः । घृतघट होगा। वह भव्यशरीर द्रव्य उपक्रम ५६. से कि तं जाणगसरीर-भविय- अथ फि स ज्ञशरीर-भव्यशरीर- ८६. वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सरीर-बतिरित्ते दध्वोवक्कमे? व्यतिरिक्तः द्रव्योपक्रमः ? शरीर- उपक्रम क्या है ? जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्त भव्यशरीर-व्यतिरिक्तः द्रव्योपक्रमः ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य दब्वोवक्कमे तिविहे पण्णत्तं, त त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सचित्तः उपक्रम के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेजहा-सचित्त अचित्तं मीसए॥ अचित्तः मिथः । सचित्त, अचित्त और मिश्र । ८७. से कि तं सचित्ते दव्वोवक्कमे? अय किं स सचित्तः द्रव्योपक्रमः? सचित्ते दव्वोवक्कमे तिविहे पण्णत्ते, सचित्तः द्रव्योपक्रमः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तं जहा-दुपयाणं चउप्पयाणं तद्यथा- द्विपदानां चतुष्पदानाम् अपयाणं । एक्किक्के पुण दुविहे अपदानाम् । एकैकः पुनः द्विविधः पण्णते, तं जहा-परिकम्मे य प्रज्ञप्त:, तद्यथा-परिकर्म च वस्तुवत्थविणासे य॥ विनाशश्च । ८७. वह सचित्त द्रव्य उपक्रम क्या है ? सचित्त द्रव्य उपक्रम के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-द्विपद, चतुष्पद और अपद का उपक्रम । इनमें से प्रत्येक के दो-दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-परिकर्म और वस्तु-विनाश । ८८. से कि त दुपयउवक्कमे ? दुपय- अथ कि स द्विपदोपक्रम: ? द्विप- उवक्कमे- दुपयाणं नडाणं नद्राणं दोपक्रमः --द्विपदानां नटानां नर्त्त- जल्लाणं मल्लाणं मट्रियाणं वेलब- कानां 'जल्लाणं' मल्लानां मौष्टिगाणं कहगाणं पवगाणं लासगाणं कानां विडम्बकानां कथकानां प्लवआइक्खगाणं लंखाणं मंखाणं तूण- कानां लासकानाम् आख्यायकानां इल्लाणं तुंबवीणियाणं कायाणं 'लंखाणं' मङ्खाना 'तूणइल्लाणं मागहाणं । से तं दुपयउवक्कमे ॥ तुंबवीणियाणं कायाणं' मागधानाम् । स एष द्विपदोपक्रमः। ८८. वह द्विपद उपक्रम क्या है? द्विपद उपक्रम-नट, नर्तक, कौड़ी से जुआ खेलने वाले, पहलवान, मुष्टि-युद्ध करने वाले, विदूषक, कथा करने वाले, छलांग भरने वाले, रास रचाने वाले, शुभाशुभ बताने वाले, बड़े बांस पर चढ़कर खेल करने वाले, चित्रपट दिखाकर आजीविका करने वाले [मंखलि], तूण-[मक के आकार का वाद्य] वादक, तम्बूरा-वादक, कांवर ले जाने वाले और मंगलपाठक, इन दो पैर वाले व्यक्तियों के परिकर्म और विनाश में किया जाने वाला उपक्रम द्विपद उपक्रम है। वह द्विपद उपक्रम है। Jain Education Intemational Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकरण : सूत्र ८५-६४ ८६. से कि तं च उप्पयउवक्कमे ? अथ किं स चतुष्पदोपक्रम: ? चउप्पयउवक्कमे --- चउप्पयाणं चतुष्पदोपक्रमः - चतुष्पदानाम् आसाणं हत्थीणं इच्चाइ। सेतं अश्वानां हस्तिनाम् इत्यादि । स एष चउप्पयउवक्कमे॥ चतुष्पदोपक्रमः। ८९. वह चतुष्पद उपक्रम क्या है ? चतुष्पद उपक्रम-घोड़े, हाथी आदि चार पैर वाले पशुओं के परिकर्म और विनाश में किया जाने वाला उपक्रम चतुष्पद उपक्रम है। वह चतुष्पद उपक्रम है। ९०.से कि तं अपयउवक्कमे ? अपय उवक्कमे-अपयाणं अंबाणं अंबाडगाणं इच्चाइ । से तं अपयउवक्कमे। से तं सचित्ते दव्वोवकम्मे॥ अथ कि स अपदोपक्रम: ? ९०, वह अपद उपक्रम क्या है ? अपदोपक्रमः-अपदानाम् आम्राणाम् अपद उपक्रम-आम, आम्बेडा आदि आम्रातकानाम् इत्यादि । स एष। अपद पदार्थों के परिकर्म और विनाश में अपदोपक्रमः । स एष सचित्तः द्रव्योप- किया जाने वाला उपक्रम अपद उपक्रम है। क्रमः। वह अपद उपक्रम है। वह सचित्त द्रव्य उपक्रम है। ६१. से कि तं अचित्ते दव्वोवक्कमे? अथ किस अचित्तः द्रव्योपक्रमः? ९१. वह अचित्त द्रव्य उपक्रम क्या है ? अचित्ते दवोवक्कमे-खंडाईणं अचित्तः द्रव्योपक्रमः-खण्डादीनां अचित्त द्रव्य उपक्रम-खांड, गुड़ और गुडाईणं मच्छंडीणं । से तं अचित्तं गलादीनां मत्स्यण्डीनाम् । स एष राब इत्यादि के परिकर्म और विनाश में किया दवोवक्कमे ॥ अचित्तः द्रव्योपक्रमः। जाने वाला उपक्रम अचित्त द्रव्य उपक्रम है। वह अचित्त द्रव्य उपक्रम है। ६२. से कि तं मोसए दव्वोवक्कमे ? अथ किं स मिश्रः द्रव्योपक्रम: ? मीसए दवोवक्कमे से चेव मिश्रः द्रव्योपक्रमः-स चैव स्थासकाथासगआयंसगाइमंडिए आसाइ। दर्शकादिमण्डितः अश्वादिः। स एष से तं मीसए दव्वोवक्कमे। से तं मिश्रः द्रव्योपक्रमः। स एष ज्ञशरीरजाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ते भव्यशरीर-व्यतिरिक्तः द्रव्योपक्रमः । दव्वोवक्कमे । से तं नोआगमओ स एष नोआगमतो द्रव्योपक्रमः । स दव्वोवक्कमे से तं दव्वोवक्कमे॥ एष द्रव्योपक्रमः । ९२. वह मिश्र द्रव्य उपक्रम क्या है ? मिश्र द्रव्य उपक्रम - बुबुद के आकार वाले आभूषण और गले के आभूषण आदि से विभूषित अश्व आदि के परिकर्म और विनाश में किया जाने वाला उपक्रम मिश्र द्रव्य उपक्रम है। वह मिश्र द्रव्य उपक्रम है। वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य उपक्रम है। वह नोआगमतः द्रव्य उपक्रम है। वह द्रव्य उपक्रम है। ६३. से कितं खेतोवक्कमे ? खेत्तोव- अथ किं स क्षेत्रोपक्रमः ? क्षेत्रो- क्कमे-जणं हलकुलियाहिं पक्रमः-यत् हलकुलिकादिभिः खेत्ताई उवक्कमिज्जंति, इच्चाइ। क्षेत्राणि उपक्रम्यन्ते, इत्यादि। स से तं खेत्तोवक्कमे॥ एष क्षेत्रोपक्रमः । ९३. वह क्षेत्र उपक्रम क्या है ? क्षेत्र उपक्रम-हल, कुलिक खेत में उगे हुए घास को काटने का उपकरण] आदि के द्वारा खेत का उपक्रम [खेत को बीज बोने योग्य] किया जाता है तथा इस प्रकार के अन्य उपक्रम करना क्षेत्र उपक्रम है। वह क्षेत्र उपक्रम है। १४. से कि तं कालोवक्कमे? कालोव- अथ किं स कालोपक्रमः ? ९४. वह काल उपक्रम [काल-बोध का साधन] क्कमे-जण्णं नालियाईहिं काल- कालोपक्रमः-यत् नाडिकादिभिः क्या है ? स्सोवक्कमणं कीरइ। से तं कालस्य उपक्रमणं क्रियते । स एष काल उपक्रम-नाडिका (नाडी- घटी, कालोवक्कमे ॥ कालोपक्रमः। ५४ मिनट] आदि के द्वारा समय को जाना जाता है। वह काल उपक्रम है। Jain Education Intemational Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई ६५. से कि तं भावोवक्कमे? भावोव- अथ किं स भावोपक्रम: ? क्कमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- भावोपक्रम: द्विविध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा आगमओ य नोआगमओ य॥ -आगमतश्च नोआगमतश्च । ९५. वह भाव उपक्रम [दूसरों के भाव-बोध का साधन] क्या है ? -भाव उपक्रम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -आगमत: और नोआगमतः । १६. से कि तं आगमओ भावोवक्कमें? अथ किं स आगमतो भावोप- ९६. वह आगमत: भाव उपक्रम क्या है ? आगमओ भावोवक्कमे-जाणए क्रम: ? आगमतो भावोपक्रमः आगमत: भाव उपक्रम-जो जानता है उवउत्ते। से तं आगमओ भावोव- ज्ञः उपयुक्तः। स एष आगमतो और उसमें उपयुक्त [दत्तचित्त है। वह क्कमे॥ . भावोपक्रमः । आगमत: भाव उपक्रम है। ६७. से कि तं नोआगमओ भावोव- अथ कि स नोआगमतो भावोप- ९७. वह नोआगमतः भाव उपक्रम क्या है ? क्कमे? नोआगमओ भावोवक्कमे । नोआगमतः भाव उपक्रम के दो प्रकार दुविहे पण्णते, तं जहा-पसत्थे य द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - प्रशस्तश्च प्रज्ञप्त हैं, जैसे -प्रशस्त और अप्रशस्त । अपसत्थे य॥ अप्रशस्तश्च । १८. से कितं अपसत्थे भावोवक्कमे ? अथ किं स अप्रशस्तः भावोप- ९८. वह अप्रशस्त भाव उपक्रम क्या है ? अपसत्थे भावोवक्कमे-डोडिणि क्रमः ? अप्रशस्तः भावोपक्रमः अप्रशस्त भाव उपक्रम -किसी ब्राह्मणी, गणिया अमच्चाईणं। से तं अप- 'डोडिणि' गणिका अमात्यादीनाम् । वेश्या और अमात्य आदि की [जो दूसरों के सत्थे भावोवक्कमे ॥ स एष अप्रशस्त: भावोपक्रमः । भाव-बोध की] प्रवृत्ति है। वह अप्रशस्त भाव उपक्रम है। &E.से कि तं पसत्थे भावोवक्कमे? अथ किं स प्रशस्त: भावोप- ९९. वह प्रशस्त भाव उपक्रम क्या है ? पसत्थे भावोवक्कमे-गुरुमाईणं। क्रम: ? प्रशस्तः भावोपक्रमः -- प्रशस्त भाव उपक्रम -गुरु आदि के भावसे तं पसत्थे भावोवक्कमे। से तं गुर्वादीनाम् । स एष प्रशस्त: भावो. बोध की जो प्रवृत्ति है। वह प्रशस्त भाव नोआगमओ भावोवक्कमे। से तं पक्रमः । स एष नोआगमतो भावोप- उपक्रम है। वह नोआगमतः भाव उपक्रम है। भावोवक्कमे । से तं उवक्कमे ॥ क्रमः। स एष भावोपक्रमः। स एष वह भाव उपक्रम है। वह उपक्रम है।' उपक्रमः। Jain Education Intemational Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. ( सूत्र ७४ ) आवश्यक (भावाश्यक) के छह अर्थाधिकार हैं । १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वंदना आवश्यक ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान १. सामायिक टिप्पण सूत्र ७४ अर्थाधिकार १. अठारह पाप का प्रत्याख्यान २. चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति ३. गुणिजनों की प्रतिपत्ति-वंदना, विनम्र व्यवहार ४. स्खलित की निंदा ५. व्रण चिकित्सा ६. विशिष्ट गुणों का आधान । चूर्णिकार ने सामायिक का अर्थ समभाव किया है। वह सावद्य योग की विरति से प्राप्त होता है। हिंसा आदि असत् आचरण का त्याग इस बात का सूचक है कि अमुक व्यक्ति में समभाव उदित हुआ है और समभाव का उदय निश्चित ही व्यक्ति को हिंसा आदि असत् आचरणों से विरत करता है। सामायिक का तात्पर्य है समभाव । राग और द्वेष विषम भाव उत्पन्न करते हैं। उनका न होना समभाव है। यह आत्मस्थता की स्थिति है और आत्मस्थता ही सामायिक है । 'सामायिक' समय शब्द से निष्पन्न होता है। यहां समय का अर्थ है एकीभाव को प्राप्त होना । व्याख्या साहित्य में इसका निरुक्त इस प्रकार है- एकत्वेन अयनं गमनं समयः । शरीर, वचन और मन की विविध पर्यायों से निवृत्त होकर द्रव्यार्थ (द्रव्य आत्मा या मूल चेतना) के साथ एकत्व को प्राप्त करना सामायिक है। अथवा जिस प्रवृत्ति का प्रयोजन आत्मोपलब्धि है, वह सामायिक है । ' इसका दूसरा निरुक्त यह है-जीव वध के हेतुभूत जो आय (स्रोत) हैं उन्हें त्याग कर प्रवृत्ति को संगत या सम्यग् करना समाय है। इस प्रयोजन से किया जाने वाला प्रयत्न सामायिक है । हरिभद्र के अनुसार - समता का अर्थ समाय है । समता का अर्थ है - राग द्वेष- वियुक्तता और आय का अर्थ है लाभ समता का लाभ पाने के लिए जो प्रवृत्ति होती है वह सामायिक है ।" २.विशतिस्तव चतुर्विंशतिस्तव का प्रतिपाद्य विषय है उत्कीर्तना । इसमें चौबीस तीर्थंकरों की भाव स्तुति है । तीर्थ का अर्थ हैप्रवचन । तीर्थंकर प्रवचनकार होते हैं । वे समभाव के उपदेशक होने के कारण उपकारी हैं। वास्तविक गुणों का उत्कीर्तन करने से अन्तःकरण की शुद्धि होने के कारण दर्शन की विशुद्धि होती है इसलिए चौबीस तीर्थंकरों की उत्कीर्तना की जाती है ।' १. ( क ) अचू. पू. १८ : जं पढमं सामादियंति अज्झयणं तं च समभावलक्खणं । (ख) 'समय' शब्द से निष्पन्न सामायिक शब्द में 'म' का दीर्घीकरण प्राकृत ( प्राकृतत्त्वात् ) के आधार पर हुआ है जैसे सामाथियों' (समानीतः) शब्द में सकार दीर्घ हुआ है। २. महावु पृ. २६ मोरागद्वेषवितो व सर्वात्म पश्यति, आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः समस्य आय: समायः समो हि प्रतिक्षणमपूर्वज्ञनिदर्शनचरणपर्यायवाची भ्रमणसंक्लेश विच्छेद के निरुपम सुखहेतुभिरधः कृतचिन्तामणिकल्पद्रुमोपमैर्युज्यते स एव समायः प्रयोजनमस्याध्ययनसंवेदनानुष्ठानन्दस्वेति सामायिकम् । २. (क) अबू. पू. १८बिलिए दरिलणविसोहिणिमितं पुण बोधिलाभत्थं च कम्मखवणत्थं च तित्थगराणामुक्त्तिणा कता । (ख) अहावृ. पृ. २५ : यथाभूतान्यासाधारणगुणोत्कीर्तना चतुर्विंशतिस्तवस्येति । (ग) अमवृ. प. ३९ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ३. वन्दना वन्दना अहं विसर्जन की प्रक्रिया है । वन्दनीय, वन्दना और वन्दना करने वाले के बीच एकात्मभाव जुड़ने से ही अस्मिता टूट सकती है । वन्दनीय वह होता है जो अहं, समर्थ या योग्य हो । वन्दना की एक निश्चित विधि है । इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है- गुणवान गुण की पूजा । गुण और गुणी में भेद नहीं होता इसलिए गुणवान की पूजा का उल्लेख है । विशिष्ट गुणोपेत व्यक्ति को वन्दन - नमस्कार करना । " ४. प्रतिक्रमण - प्रतिक्रमण का अर्थ है— वापस आना । सामायिक की स्वीकृति के बाद ज्ञात-अज्ञात सामान्य स्खलनाओं का निराकरण स्तवना और वन्दना से हो जाता है । विनय कर्म - निर्जरण का महान हेतु है। जहां गलती स्पष्ट रूप से प्रतिभासित हो, वहां उससे पीछे हटने की बात आती है। अर्हतों द्वारा प्रतिपादित साधना के विधि-विधानों का अतिक्रमण साधना की स्खलना है । अतिक्रमण के बाद प्रतिक्रमण करने वाला व्यक्ति मूल स्थिति में पहुंच जाता है। स्खलित की निन्दा इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है ।" प्रतिक्रमण, प्रतिचरण, प्रतिहरण, वारणा, निवृत्ति, निन्दा गर्हा और शोधि - ये प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची नाम हैं । प्रतिक्रमण करने के ये हेतु हैं १. निषिद्ध काम करना । २. विहित काम न करना । ३. मोक्ष के साधनों में अश्रद्धा होना । ४. विपरीत प्ररूपणा करना । ५. कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग का अर्थ है - शारीरिक प्रवृत्ति और ममत्व का विसर्जन । इसका प्रयोग औषधि के रूप में होता है । चारित्र आत्मा को एक शरीर से उपमित किया जाए तो चारित्र विघटक क्रियाएं शरीर में व्रण के समान हैं । व्रण- घाव भरने के लिए औषधि रूप कायोत्सर्ग का उपयोग होता है। प्राचीनकाल में प्रायश्चित्त विधि में कायोत्सर्ग प्राप्त होता था । निष्प्रकम्प शरीर, मौन भाव और एकाग्र मन से अतिचारों का सम्यग् बोध हो जाता है । जैसे करोत से काठ कट जाता है वैसे ही कायोत्सर्ग से कर्म पुद्गलों को आत्मा से दूर हटाया जा सकता है। कायोत्सर्ग अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है व्रण चिकित्सा । - ६. प्रत्याख्यान अणुओगदाराई प्रत्याख्यान अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है-गुण धारणा । अहिंसा, सत्य आदि मूलगुण और दस प्रकार के प्रत्याख्यान रूप उत्तरगुण की स्वीकृति तथा उसकी निरतिचार पालना के लिए विशिष्ट गुणों का आधान प्रस्तुत अध्ययन का फलितार्थ है । प्रतिक्रमण अतीत का और प्रत्याख्यान अनागत का होता है । १. ( क ) अचू. पृ. १८ : ततिए चरणादिगुणसमूहवतो वंदणमंसादिएहि पडिवत्ती कातव्वा । (ख) अहावृ. पृ. २५ : तत्र गुणा मूलगुणोत्तरगुणव्रतपिण्डविशुयायी गुणा अस्य विद्यन्त इति गुणवान् तस्य गुणवतः प्रतिपत्यर्थं वन्दनादिलक्षणा (प्रतिपत्तिः) कार्येति । (ग) अमवृ. प. ३९ । २. (क) अच्. पृ. १८ : चउत्थे मूलुत्तरावराहक्खलणाए क्खलितो पच्चागतसंवेगे विसुज्झमाणभावो पमातकरणं संभरंतो अध्पणो णिदणगरहणं करेति । (ख) अहावृ. पृ. २५ : स्खलितस्य निन्दा प्रतिक्रमणार्थी धिकारः । (ग) अमवृ. प. ३९ ॥ ३. (क) अलू. पू. १८ पंचम पुन साधू बगोब पच्छिण चरणादियाइयारवणस्स तिगिच्छं करेति । (ख) अहावृ. पृ. २५ : व्रणचिकित्सा कायोत्सर्गस्य । (ग) अमवृ. प. ३९ । ४. (क) अबू. पृ. १० छ जहा तरी निर तियारधारणं च जधा तेसि भवति तथा अत्थ परूवणा । (ख) अहावृ. पृ. २५ : गुणधारणा प्रत्याख्यानार्थाधिकारः । (ग) अमवृ. प. ३९ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०३, सू० ७४,७५, टि० १,२ सूत्र ७५ २. अनुयोगद्वार (अणुओगदारा) अनुयोगद्वार जैन शिक्षा पद्धति का सूत्र है । इसे प्राचीन आचार्यों ने व्याख्या पद्धति का सूत्र कहा है। हरिभद्र सूरि ने अनुयोग का अर्थ अध्ययन के अर्थ की प्रतिपादन पद्धति किया है। हेमचन्द्र ने हरिभद्र का अनुसरण किया है।' अनुयोग के चार द्वार होते हैं। जिस नगर के द्वार नहीं होता वह नगर वास्तव में नगर ही नहीं होता। एक द्वार वाले नगर में जाना आना कठिन होता है। कार्यसिद्धि में विलम्ब होता है। चार प्रवेश द्वार होने पर जाना आना सरल हो जाता है, कार्य वेला का अतिक्रमण नहीं होता है।' टीका का मूल आधार विशेषावश्यक भाष्य है।' व्याख्या के चार द्वार हैं-उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय । १. उपक्रम व्याख्या का पहला द्वार है-उपक्रम । जिससे श्रोता और पाठक को ग्रन्थ का प्रारम्भिक परिचय प्राप्त होता है, उसे उपक्रम कहा जाता है। इसका समानार्थक शब्द है उपोद्घात । जो व्यक्ति किसी ग्रन्थ का नाम, प्रतिपाद्य विषय, अध्ययन आदि नहीं जानता वह उसके अध्ययन में प्रवृत्त नहीं हो सकता । अध्ययन में प्रवृत्त होने के लिए सर्वप्रथम उपक्रम अपेक्षित है। किसी भी ग्रन्थ का अध्ययन करते समय उपोद्घात की क्या अपेक्षा है ? इस प्रश्न का समाधान बृहत्कल्प-भाष्य की वृत्ति में मिलता है-अंधेरे ओरे में रखी हुई वस्तुएं दीपक के प्रकाश में दिखाई देती हैं उसी प्रकार शास्त्र में निहित अर्थ उपोद्घात के द्वारा अभिव्यक्त होता है। कोई शास्त्र कितना ही विशिष्ट क्यों न हो, उपोद्घात के बिना उसकी उपादेयता प्रमाणित नहीं होती। इस तथ्य को मेघाच्छन्न चन्द्रमा के उदाहरण से स्पष्ट किया है जिस प्रकार मेघ से आच्छादित चन्द्रमा आकाश में नहीं चमकता उसी प्रकार शास्त्र भी उपोद्घात के बिना उपयोगी नहीं बनता।" २. निक्षेप व्याख्या का दूसरा द्वार है-निक्षेप । शब्दों में विशेषण के द्वारा प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन करने की शक्ति निहित करना निक्षेप कहलाता है। निधान, निधि, निक्षेप, न्यास, विरचना, प्रसार, स्थापना ये सब पर्यायवाची हैं। इसके द्वारा उपक्रान्त विषय के प्रस्तुत अर्थ का बोध होता है । विस्तृत जानकारी के लिए द्रष्टव्य है सूत्र ५ का टिप्पण । ३. अनुगम व्याख्या का तीसरा द्वार है-अनुगम । अस्तित्व, नास्तित्व, द्रव्यमान, क्षेत्र, स्पर्शना, काल आदि अनेक पहलुओं से व्याख्या करना अनुगम है। निक्षेप द्वारा प्रस्तुत विषय की स्थापना होने के बाद उसका सत्, संख्या, क्षेत्र आदि अनेक अधिकारों से अर्थबोध करना। १. अहाव. पृ. २६ : इहाध्ययनार्थकथनविधिरनुयोगः। २. अमव. प.४०। ३. (क) अहावृ. पृ. २७ । (ख) अमवृ. प. ४० । ४. विभा. ९०८ : अकयद्दारमनगरं कएगदारं पि दुक्खसंचारं । चउमूलद्दारं पुण सपडिदारं सुहाहिगमं ॥ वही, ९०९ : सामाइयमहपुरमवि अकयद्दारं तहेगदारं वा । दुरहिगम, चउदारं सपडिद्दारं सुहाहिगमं ॥ ५. बृभा. १ पृ. २ : अनेन चोपोद्धातेनाभिहितेन सूत्रादयोऽर्था अभिव्यक्ता भवन्ति, यथा दीपेनाऽपवरके तमसि । उक्तं वत्तीभवंति दम्वा, दीवेणं अप्पगासे उव्वरए । वत्तीभवंति अत्था, उवग्धाएणं तहा सत्थे ॥ उपोद्धातान्निधानमन्तरेण पुनः शास्त्रं स्वतोऽतिविशिष्टमपि न तथाविधमुपादेयतया विराजते, यथा नभसि मेघाच्छन्नश्चन्द्रमाः। उक्तं च-- मेघान्छन्नो यथा चन्द्रो, न राजति नभस्तले । उपोद्धातं विना शास्त्रं, न राजति तथाविधम् ।। ६. (क) अहावू. पृ. २७ : निक्षेप: भ्यासः स्थापनेति पर्यायः । (ख) अमव. प. ४० : शास्त्रादेमिस्थापनाविभेदैर्व्यसनं व्यवस्थापन निक्षेपः। Jain Education Intemational Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई ७२ ४. नय व्याख्या का चौथा द्वार है-नय । नय का अथ है--अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का बोध ।' अनुगम के द्वारा प्रतिपाद्य विषय का अर्थबोध होने पर नय के द्वारा उसके विभिन्न पर्यायों का अर्थबोध किया जाता है। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य है विशेषावश्यक भाष्य ।' सूत्र ७६-९९ ३. (सूत्र ७६-६६) प्रस्तुत प्रकरण में उपक्रम के छ: निक्षेपों का निर्देश है। जैसे बीज की बुवाई के लिए खेत को तैयार किया जाता है, जैसे काल बोध के लिए नालिका से रेत अथवा जल को नीचे डाला जाता है, जैसे वस्तु का परिकर्म और विनाश किया जाता है, जैसे भावभंगिमा के द्वारा अमात्य और गुरु का अभिप्राय जाना जाता है वैसे ही जिस विषय का अध्ययन करना है उसके नाम, स्थापना, -क्षेत्र (किस क्षेत्र में ग्रंथ रचा गया), काल (ग्रंथ कब रचा गया), द्रव्य (किस विषय का मण्डन और खण्डन किया गया) अथवा अमुक ग्रंथ किस विशेष गुण या पर्याय का प्रतिपादन कर रहा है ? उपक्रम अथवा उपोद्घात के द्वारा इन सब विषयों का ज्ञान विद्यार्थी को होता है इसलिए अध्ययन का पहला सूत्र है - उपक्रम । क्षमाश्रमण जिनभद्र ने द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि को गुरु के चित्त की प्रसन्नता का उपक्रम बतलाया है।' शब्द विमर्श सूत्र ८७ परिकर्म परिकर्म का अर्थ है-वस्तु में गुण विशेष का निर्माण करना, उसे सजाना या संवारना। घी, तेल आदि विशिष्ट पदार्थों के उपयोग से नटों, नर्तकों के शरीर को पुष्ट और कान्तियुक्त बनाया जाता है। पशुओं को प्रशिक्षित करना, उन्हें आभूषण आदि के द्वारा सजाना भी परिकर्म है । इस प्रकार सजीव या निर्जीव किसी भी वस्तु में गुण विशेष की वृद्धि करना परिकर्म कहलाता है। वस्तु-विनाश वस्तु को सम्पूर्ण रूप में या आंशिक रूप में विनष्ट कर देना वस्तु विनाश उपक्रम है। परिकर्म और विनाश दोनों उपक्रमों में वस्तु के पूर्व रूप का नाश होता है, और नया रूप सामने आता है। इस दृष्टि से ये दोनों एक हैं किन्तु परिकर्म में रूपान्तरण होने के बाद भी यह वस्तु वही है, ऐसी पहचान होती है। वस्तु विनाश में यह प्रतीति नहीं होती है । इसलिए यह उससे भिन्न है। सूत्र ८८ तूणवादक तम्बूरा-वादक कुछ व्याख्याकार तूणइल्ल, तुम्बा और वीणिय इन तीन शब्दों की व्याख्या करते हैं। कल्पसूत्र के टिप्पणकार ने तूणइल्ल १. (क) अचू. पृ. १९ : तस्स वा बत्थुणो पज्जायसंभवेण बहुधा नयनं नतो भण्णति । (ख) अहावृ. पृ. २७ : नयनं नय: नीयतेऽनेनास्मिन्नस्मा दिति वा नयः, अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांश परिच्छेद इत्यर्थः। (ग) अमवृ. प. ४० : नयः सर्वत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तु न्येकांशग्राहको बोध:। । २. अहाव.पृ. २७ : संबद्धमुपक्रमत: समीपमानीय रचितनिक्षेपम् । अनुगम्यतेऽथ शास्त्रं नयरनेकप्रभेदैस्तु ॥ ३. विमा. ९११ से १२८ । ४. विभा. ९२९ से ९३९ । ५. (क) अहाव. पृ. २७ : परिकर्म--द्रव्यस्य गुणविशेषपरि ___णामकरणं । (ख) अमवृ. प.४१ : वस्तुनो गुणविशेषाधानं परिकर्म । ६. (क) अहाव. पृ. २८ : तथावस्तुविनाशे च पुरुषादीनां खड्गादिभिविनाश एव उपक्रम्यते। (ख) अमवृ. प.४१: यदा तु वस्तुनो विनाश एवोपाय विशेषरुपक्रम्यते तदा वस्तुनाशविषयो द्रव्योपक्रमः । Jain Education Intemational Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ३, सू०७६-६६, टि०३ का अर्थ तूणीरधारक, तुम्ब का अर्थ आलपनी आदि वादक और वीणिय का अर्थ वीणावादक किया है। किन्तु प्रस्तुत आगम के व्याख्याकारों ने तुम्बवीणिय को एक शब्द मानकर उसकी व्याख्या की है।' सूत्र ९४ नालिका प्राचीन समय में काल-ज्ञान के लिए नालिका, शंकुच्छाया और नक्षत्र-गति को आधार बनाया जाता था।' नालिका ताम्बे से बनी हुई एक घड़ी होती है, जिसमें धूलि या पानी डालकर समय को जाना जाता है। जितने समय में ऊपर का पदार्थ नीचे जाता है वह एक मुहूर्त का समय होता है। सूत्र ९८ अप्रशस्त भावोपक्रम दूसरे के भाव को जानने का उपक्रम । यहां अप्रशस्त और प्रशस्त की चर्चा में लौकिक फल वाला उपक्रम अप्रशस्त और लोकोत्तर फल वाला उपक्रम प्रशस्त रूप में विवक्षित है। वृत्तिकार ने अप्रशस्त उपक्रम को समझाने के लिए तीनों उदाहरणों की व्याख्या प्रस्तुत की है। ब्राह्मणी एक ब्राह्मणी के तीन लड़कियां थी। शादी के बाद मेरी पुत्रियां सुखी रहें, ऐसी व्यवस्था करने के लिए उसने बड़ी लड़की से कहा-आज तुम पहली बार ससुराल जा रही हो। जब तुम्हारा पति कमरे में आए तो कोई गल्ती बताकर उसके सिर पर पादप्रहार कर देना उसके बाद जो स्थिति हो, मुझे बताना । पुत्री ने बसा ही किया। उसका पति मधुर शब्दों में बोला-प्रिये ! मेरे कठोर सिर से तुम्हारे कोमल पांव में पीड़ा तो नहीं हुई? इसके साथ ही उसने पांव अपने हाथ में लेकर सहलाए । पुत्री ने सारी घटना अपनी माता को बता दी। मां ने कहा-बेटी घर में तुम्हारा ही राज है जैसा चाहो, करो। माता के कथनानुसार दूसरी लड़की ने भी वैसा ही किया। उसके पति ने थोड़ा सा गुस्सा करके कहा-क्या यह काम शिष्ट व्यक्तियों के योग्य है ? लड़की ने माता के सामने सही स्थिति रख दी। सुनकर वह बोली-तुम्हारा पति थोड़े समय के लिए नाराज होगा, और कुछ नहीं करेगा । तुम भी थोड़ी सी सावधानी के साथ इच्छानुसार घर में रहो। तीसरी लड़की का पति इस आकस्मिक अपमानजनक घटना से उत्तेजित हो उठा । वह बोला-कैसा अनुचित और अशिष्ट व्यवहार है तुम्हारा ? क्या तुम कुलीन हो ? आक्रोश प्रकट करने के बाद पीटकर उसे घर से बाहर निकाल दिया। माता ने इस घटनाचक्र की जानकारी पाकर कहा-पुत्री ! तुम्हारे पति की सेवा बहुत कठिन है। तुम उसे देवता मानकर अप्रमत्त भाव से उसकी आराधना करो और सुखपूर्वक रहो । अपनी पुत्री को यह निर्देश देकर वह जामाता के पास गई और बोली--पुत्र ! यह हमारी कुल परम्परा है । तुम बुरा मान गए । तुम्हारे प्रति उसका यह व्यवहार हो ही कैसे सकता है ? इस प्रकार समझाकर उसे मनाया। गणिका ___एक नगर में एक वेश्या रहती थी। वह ६४ कलाओं में प्रवीण थी। आगन्तुकों का अभिप्राय जानने के लिए उसने अपने रतिभवन की दीवारों पर अपने-अपने व्यापार मे प्रवृत्त राजकुमारों के चित्र बनाए। वहां जो कोई आता, अपने व्यापार की प्रशंसा करता । इसके आधार पर वह अंकन कर लेती कि कौन राजकुमार किस श्रेणी का है तथा उसे कैसे प्रसन्न करना चाहिए? उसके प्रति अनुकूल आचरण कर वह उससे बहुत अधिक धन प्राप्त कर लेती। ३. अमात्य एक राजा अपने मन्त्री के साथ घुड़सवारी कर रहा था। मार्ग में ऊपर भूमि पर घोड़े ने प्रस्रवण किया। वापस आते समय १. कटि. पृ. १३। तया, शंकुच्छायादिना वा नक्षत्रचारादिना वा एता२. अमव. प. ४२ : 'तूणइल्लाणं' ति तूणाभिधानवाद्यविशेष वत्पौष्यादिकालोऽतिक्रान्त इति यत् परिज्ञानं वतां। भवति स परिकर्मणि कालोपक्रमः । ३. (क) अहावृ. पृ. २९ : नालिका-घटिका। ४. विमा. ९२८ की वृत्ति । (ख) अमव. प. ४४ : तत्र नालिका-ताम्रादिमयघटिका Jain Education Intemational Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अणुओगदाराई राजा ने देखा -वह स्थान तब तक गीला था। उसका चिन्तन वहीं अटक गया। वहां की भूमि में जल की सम्भावना से उसके मन में तालाब बनवाने की बात उठी । मन्त्री राजा की मनःस्थिति का अध्ययन कर रहा था। घर पहुंचकर उसने वहां तालाब बनाने की योजना बनाई और राजा के न कहने पर भी तालाब खुदवा दिया। उसके चारों ओर सब ऋतुओं के अनुकूल फलों फूलों वाले वृक्ष लगा दिए। एक दिन उधर से गुजरते समय राजा ने वह तालाब देखा और मन्त्री से पूछा-यह मानसरोवर की भांति रमणीय तालाब किसने बनवाया ? मन्त्री-महाराज ! आप ही ने तो बनवाया है। राजा ने प्रश्नायित आंखों से देखकर कहा-मैंने कब, किसे कहा ? मन्त्री ने उस दिन की सारी बात बताई। राजा अपने मन्त्री की दूसरे के चित्त को पहचानने की कला पर प्रसन्न हुआ। उसने मंत्री का वेतन बढ़ा दिया । सूत्र ९९ प्रशस्त भावोपक्रम शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए गुरु आदि पूज्यजनों के भावों को समझना और तदनुरूप चेष्टा करना- इसका नाम है प्रशस्त भावोपक्रम । प्रस्तुत आगम में अनुयोग के चार द्वारों की चर्चा है । अनुयोग का अर्थ है- व्याख्या । व्याख्या के सन्दर्भ में जिन तत्त्वों का उपयोग हो उन्हीं का कथन अपेक्षित है। शास्त्राध्ययन के प्रसंग में गुरु का भावबोध तो अप्रासंगिक सा लगता है। इस आशंका का निरसन करते हुए वृत्तिकार हेमचन्द्र ने गुरु के भावबोध को ही व्याख्या का मुख्य अंग स्वीकार किया है। कहा भी है "शास्त्र का प्रारम्भ गुरु के अधीन होता है। इसलिए अपने हित की एषणा करने वाले व्यक्ति को गुरु की आराधना में तत्पर रहना चाहिए।" गुरु के मन को समझना और उसके अनुरूप प्रवृत्ति करना उचित है। इसलिए गुणार्थी शिष्यों को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे गुरु प्रसन्न रहे। शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरु के आकार और इंगित की आराधना करे। किसी समय गुरु कौए को सफेद भी बताए तो शिष्य उनकी बात का प्रतिवाद न करे । एकान्त में वह उसका कारण पूछ ले । वृत्तिकार ने प्रशस्त भावोपक्रम का पूरा उदाहरण तो नहीं दिया पर संकेत अवश्य दिया है। पूरा कथानक विशेषावश्यक भाष्य की मलधारीया वृत्ति में मिलता है। राजा आचार्य के पास आया । उसने पूछा-भन्ते ! आपके शिष्यों में सबसे अधिक विनीत शिष्य कौन है ? आचार्य ने कुछ शिष्यों को बुलाया और कहा- जाओ, देखकर आओ, गंगा किस दिशा में बह रही है। कई शिष्यों ने तत्काल उत्तर दिया-भंते ! गंगा पूर्व की ओर बह रही है। उसमें से एक शिष्य आश्रम से बाहर गया, गंगा के तट पर पहुंचा, गंगा की धारा को देखा और लौटकर निवेदन किया-गंगा पूर्व की ओर बह रही है। आचार्य ने राजा की ओर अभिमुख होकर कहा-राजन् ! मेरा यह शिष्य सबसे अधिक विनीत है। सब शिष्यों ने गुरु के प्रश्न का उत्तर दिया पर गुरु के इंगित की आराधना करने वाला वह एक ही शिष्य था। यह प्रशस्त भावोपक्रम का उदाहरण है। १. अमवृ. प. ४५। २. विभा. ९३४ की वृत्ति । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा प्रकरण ( सूत्र १०० - १५४ ) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख वैकल्पिक रूप में उपक्रम के छः प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें पहला प्रकार है आनुपूर्वी । इसका संबंध क्रम व्यवस्था से है । य की संरचना में क्रम और व्युत्क्रम का महत्त्वपूर्ण योग है । यौगिक द्रव्यों के अनेक विकल्प इसी क्रम व्यवस्था के आधार पर बनते । आनुपूर्वी के दस प्रकार हैं। प्रस्तुत प्रकरण में नामानुपूर्वी स्थापनानुपूर्वी और द्रव्यानुपूर्वी का निरूपण है । द्रव्यानुपूर्वी के औपfant और अनौपनिधिकी इन दो विकल्पों का विमर्श किया गया है । अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के पांच प्रकार हैं । उनमें भङ्गमुत्कीर्तन और भङ्गोपदर्शन पूर्वश्रुत के अध्ययन की पद्धति पर प्रकाश डालते हैं । पूर्वश्रुत का मुख्य विषय है द्रव्यानुयोग । द्रव्य की रचना में दो परमाणु का स्कन्ध, तीन परमाणु का स्कन्ध यावत् अनन्त परमाणु का स्कन्ध होता है। एक परमाणु में क्रम रचना हीं होती इसलिए अनानुपूर्वी होती है। दो परमाणुओं से निष्पन्न स्कन्ध में क्रम नहीं होता इसलिए आनुपूर्वी नहीं, अक्रम नहीं होता लिए अवक्तव्य है । तीन परमाणु से निष्पन्न स्कन्ध में क्रम व्यवस्था होती है इसलिए वह आनुपूर्वी है । भङ्गसमुत्कीर्तन व भङ्गोपन पर नय दृष्टि से विचार किया गया है। 7 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ १००. अहवा उक्कमे छविहे पण्णत्ते, तं जहा १. आणुपुथ्वी २. नामं ३. पमाणं ४. वत्तव्वया ५. अत्याहिगारे ६. समोयारे ॥ उपक्रमाणुओगदारे आणुपुथ्वी-पर्व १०१. से कि तं आणुपुथ्वी ? आणुपुग्यो दसविहा पण्णत्ता तं जहा १. नामापुथ्वी २. वाणपुथ्वी ३. दवाखी ४. बेलापुथ्वी ५. कालाखी ६. विकस णापुवी ७. गणणाणपुथ्वी ८. संठाणाणुपुव्वी ६. सामायारियाणुपुथ्वी १०. भावाणु पुव्वी ॥ नाम-वणाणपुण्वी-पर्व १०२. से किं तं नामाणुपुव्वी ? नामाणुपुव्वी जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्य वा तदुभयाण वा आणुपुग्यो ति नाम कज्जइ । से तं नामाणुतं नामाणु पुची ॥ १०३. से किं तं ठणाणपुबी ? ठवणाणुपुवी--जणं कटुकम्मे या चित्तकम्मे वा पोल्यकम्मे वा लेकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा] पूरिमेवा संघाइमे वा अक्खे वा वराड वा एगो वा अणेगा वा सम्भावठवणाए वा असम्भावठवणाए वा आणुपुथ्वी ति ठवणा ठविज्जह। से तं वाणी ॥ चौथा प्रकरण संस्कृत छाया अथवा उपक्रमः षड्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - १. आनुपूर्वी २. नाम ३. प्रमाणम् ४. वक्तव्यता ५. अर्थाधिकारः ६. समवतारः । उपक्रमानुयोगद्वारे आनुपूर्वी-पदम् अय किसा आनुपूर्वी ? जानु पूर्वी दशविधा प्रता प्रज्ञप्ता, तद्यथा१. नामानुपुर्वी २.स्थापनानुपूर्वी २. यापूर्वी ४. क्षेत्रानुपूर्वी ५. कालानुपूर्वी ६. उत्कीर्तनानुपूर्वी ७. गणनानुपूर्वी ८. संस्थानानुपूर्वी ९. सामाचार्यानुपूर्वी १०. भावानु पूर्वी । नामस्थापनानुपूर्वी-पदम् अथ किसा नामानुपूर्वी ? नामानुपूर्वी - यस्य जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानां वा अजीवानां वा तदुभयस्य वा तदुभयेषां वा आनुपूर्वी इति नाम कियते सा एषा नामानु । अथ कि सा स्थापनानुपूर्वी ? स्थापनानुपूर्वी - यत् काष्ठकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा पुस्तकर्मणि वा लेप्यकर्मणि वा ग्रन्थिमे वा वेष्टिमे वा पूरिने वा संपाति वा भवा वराटके वा एको वा अनेके वा सद्भावस्थापनया वा असद्भावस्थापनया वा आनुपूर्वी इति स्थापना स्थाप्यते । सा एवा स्थापनानुपूर्वी । हिन्दी अनुवाद १००. अथवा उपक्रम के छह प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे - आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार ।' उपक्रम अनुयोगद्वार में आनुपूर्वी-पद १०१. वह आनुपूर्वी क्या है ? आनुपूर्वी के दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-नाम आनुपूर्वी स्थापना आनुपूर्वी, द्रव्य आनुपूर्वी क्षेत्र अनुपूर्वी काल अनूपूर्वी उत्कीर्तन आनुपूर्वी, गणना आनुपूर्वी, संस्थान आनुपूर्वी, सामाचारी आनुपूर्वी और भाव आनुपूर्वी ।' नाम-स्थापना श्रानुपूर्वी-पद १०२. वह नाम आनुपूर्वी क्या है ? नाम आनुपूर्वी - जिस जीव या अजीव का जिन जीवों या अजीवों का जिस जीवअजीव दोनों का, जिन जीवों और अजीवों दोनों का आनुपूर्वी यह नाम किया जाता है वह नाम आनुपूर्वी है। १०३. वह स्थापना आनुपूर्वी क्या है ? स्थापना आनुपूर्वीकाष्ठाकृति, चित्राकृति, वस्त्राकृति या प्याकृति में बंधकर, वेष्टित कर, भरकर या जोड़कर बनाई हुई पुतली में, अक्ष या कौड़ी में एक या अनेक सद्भावस्थापना अथवा असद्भावस्थापना के द्वारा आनुपूर्वी का जो रूपांकन या कल्पना की जाती है । वह स्थापना आनुपूर्वी है । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० अणुओगदाराई १०४. नाम-दृवणाणं को पइविसेसो ? नाम-स्थापनयोः कःप्रतिविशेषः? १०४. नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ? नामं आवकहियं, ठवणा नाम यावत्कयिकम्, स्थापना इत्व- नाम यावज्जीवन होता है, स्थापना अल्पइत्तरिया वा होज्जा आवकहिया रिका वा भवेत् यावत्कथिका वा । कालिक भी होती है और यावज्जीवन भी। वा॥ दव्वाणुपुव्वी-पदं द्रव्यानुपूर्वी-पदम् द्रव्य आनुपूर्वी-पद १०५. से किं तं दव्वाणुपुवी ? अथ किं सा द्रव्यानुपूर्वी ? द्रव्या- १०५. वह द्रव्य आनुपूर्वी क्या है ? दव्वाणुपुव्वी दुविहा पण्णता, नुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा द्रव्य आनुपूर्वी के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, तं जहा-आगमओय आगमतश्च नोआगमतश्च ॥ जैसे-आगमत: और नोआगमतः। नोआगमओ य॥ १०६. से कि तं आगमओ दव्वाणु- अथ कि सा आगमतो द्रव्यानु- १०६. वह आगमतः द्रव्य आनुपुर्वी क्या है ? पुब्बी ? आगमओ दव्वाणपुवो पूर्वी ? आगमतो द्रव्यानपूर्वी-यस्य आगमतः द्रव्य आनुपूर्वी-जिसने आनुपूर्वी --जस्स णं आणपुव्वी ति पदं आनुपूर्वी इति पदं शिक्षितं स्थित यह पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, चित सिक्खियं ठियं जियं मियं चितं मितं परिचितं नामसमं घोष- कर लिया, मित कर लिया, परिचित कर परिजियं नामसमं घोससमं समम् अहोनाक्षरम् अनत्यक्षरम् अव्या- लिया, नामसम कर लिया, घोषसम कर अहोणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वा- विद्धाक्षरम् अस्खलितम् अमीलितम् लिया, जिसे वह हीन, अधिक या विपर्यस्तइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अव्यत्यानंडितम् प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्ण- अक्षर रहित, अस्खलित, अन्य वर्गों से अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्ण घोषं कण्ठोष्ठविप्रमुक्त गुरुवाचनोप- अमिश्रित, अन्य ग्रन्थवाक्यों से अमिश्रित, घोसं कंठोढविप्पमुक्कं गुरुवायणोगतं सा तत्र वाचनया प्रच्छनया परि प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोष युक्त, कण्ठ और होठ वगयं, से गं तत्थ वायणाए पुच्छवर्तनया धर्मकथया, नो अनुप्रेक्षया । से निकला हुआ तथा गुरु की वाचना से प्राप्त णाए परियट्टणाए धम्मकहाए, नो कस्मात् । के कस्मात् ? अनुपयोगो द्रव्यम् इति है। वह उस (आनुपूर्वी पद) का अध्यापन, अणुप्येहाए। कम्हा? अणुवओगो प्रश्न, परावर्तन और धर्मकथा में प्रवृत्त होता दव्वमिति कटु ॥ है तब आगमतः द्रव्य आनुपूर्वी है। वह अनुप्रेक्षा में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि द्रव्य निक्षेप अनुपयोग (चित्त की प्रवृत्ति से शून्य) होता १०७. नेगमस्स एगो अणुवउत्तो नंगमस्य एकः अनुपयुक्तः आग- १०७. नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमओ एगा दव्वाणुपुव्वी, मत: एका द्रव्यानुपूर्वी, द्वौ अनुपयुक्ती आगमतः एक द्रव्य आनुपूर्वी है, दो अनुपयुक्त दोणि अणुवउत्ता आगमओ आगमतो द्वे द्रव्यानुपूव्यौं, त्रयः अनुप- व्यक्ति आगमतः दो द्रव्य आनुपूर्वी है, तीन दोण्णीओ दवाणपुव्वीओ, युक्ताः आगमतः तिस्रः द्रव्यानपूर्व्यः, अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः तीन द्रव्य आनुपूर्वी तिणि अणुवउत्ता आगमओ एवं यावन्तः अनुपयुक्ताः तावन्तः ताः हैं, इस प्रकार जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं तिण्णीओ दवाणपुव्वीओ, एवं नेगमस्य आगमती द्रव्यानुपूर्वा । एव नैगमनय की अपेक्षा उतनी ही आगमतः द्रव्य जावइया अणुवउत्ता तावइयाओ मेव व्यवहारस्यापि । संग्रहस्य एको आनुपूर्वी हैं। ताओ नेगमस्स आगमओ वा अनेके वा अनुपयुक्तो वा अनुप- इसी प्रकार व्यवहारनय को भी समझना दव्वाणुपुव्वीओ। एवमेव वव- युक्ताः वा आगमतो द्रव्यानुपूर्वी वा चाहिए। हारस्स वि। संगहस्स एगो वा द्रव्यानपूर्व्यः वा सा एका द्रव्यानुपूर्वी। संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति अणेगा वा अणुवउत्तो वा ऋजुसूत्रस्य एकः अनुपयुक्तः आगमतः है अथवा अनेक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, आगमत: अणुवउत्ता वा आगमओ एका द्रव्यानुपूर्वी, पृथक्त्वं नेच्छति । एक द्रव्य आनुपूर्वी है अथवा अनेक द्रव्य दव्वाणुपुव्वी वा दवाणुपुव्वीओ त्रयाणा शब्दनयानां ज्ञः अनुपयुक्तः । आनुपूर्वी हैं वह एक द्रव्य आनुपूर्वी है। वा, सा एगा दव्वाणुपुवी। अवस्तु । कस्मात् ? यदि ज्ञः अनुप- ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त Jain Education Intemational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा प्रकरण : सूत्र १०४-११० उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो युक्तो न भवति । सा एषा आगमतो व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य आनुपूर्वी है, भिन्नता आगमओ एगा दवाणुपुव्वी, द्रव्यानुपूर्वी । उसे इष्ट नहीं है। पहत्तं नेच्छइ। तिण्हं सद्दनयाणं तीन शब्द नयों (शब्द, समभिरूढ, एवंभूत) जाणए अणुवउत्तं अवत्थ । की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता अवस्तु है। कम्हा? जइ जाणए अणुवउत्ते क्योंकि यदि कोई ज्ञाता है तो वह अनुपयुक्त न भवइ। से तं आगमओ नहीं होता । वह आगमतः द्रव्य आनुपूर्वी है। दव्वाणुपुत्वी॥ १०८. से कि तं नोआगमओ दव्वाणु- अथ कि सा नोआगमतो द्रव्यान- १०८. वह नोआगमतः द्रव्य आनुपूर्वी क्या है ? पुवी ? नोआगमओ दवाणुपुवी पूर्वी ? नोआगमतो द्रव्यानुपूर्वी नोआगमतः द्रव्य आनुपूर्वी के तीन प्रकार तिविहा पण्णता, तं जहा-जाण- त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-ज्ञशरीर- प्रज्ञप्त हैं, जैसे -ज्ञशरीर द्रव्य आनुपूर्वी, भव्यगसरीरदव्वाणुपुव्वी भवियसरीर- ___ द्रव्यानुपूर्वी भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी शरीर द्रव्य आनुपूर्वी और ज्ञशरीर भव्यशरीर दव्वाणपुव्वी जाणगसरीर-भविय- ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्ता द्रव्या- व्यतिरिक्त द्रव्य आनुपूर्वी। सरीर-वतिरित्ता दवाणपुव्वी॥ नुपूर्वी। १०६. से कि तं जाणगसरीरदव्वाणु- अथ कि सा ज्ञशरीरद्रव्यानुपूर्वी ? १०९. वह ज्ञशरीर द्रव्य आनुपूर्वी क्या है ? पुव्वी? जाणगसरीरदव्वाणपुव्वी ज्ञशरीरद्रव्यानुपूर्वी --आनुपूर्वी इति ज्ञशरीर द्रव्य आनुपूर्वी-आनुपूर्वी इस पद -----आणपुवी ति पयत्था- पदार्थाधिकारजस्य यत् शरीरकं के अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति का जो हिगारजाणगस्स जं सरीरयं ___ व्यपगत-च्युत-च्यावित-त्यक्तदेहं जीव- शरीर अचेतन, प्राण से च्युत, किसी निमित्त ववगय-चय-चाविय-चत्तदेहं जोवविहीणं शय्यागतं वा संस्तारगतं वा से प्राणच्युत किया हुआ, उपचय रहित और विप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं निषीधिकागतं वा सिद्धशिलातलगतं जीव-विप्रमुक्त है, उसे शय्या, बिछौने, श्मशानवा निसोहियागयं वा सिद्धसिला- वा दृष्ट्वा कोऽपि वदेत् ---अहो ! भूमि या सिद्धशिलातल पर देखकर कोई तलगयं वा पासित्ता गं कोइ अनेन शरीरसमुच्छ्येण जिनविष्टेन कहे-आश्चर्य है ! इस पौद्गलिक शरीर ने वएज्जा-अहो णं इमेणं सरीरस- भावेन आनुपूर्वी इति पदम् आख्यातं जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार आनुमुस्सएणं जिणदिठेणं भावेणं प्रज्ञापितं प्ररूपितं दर्शितं निशितम् पूर्वी इस पद का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, आणपुव्वी त्ति पयं आघवियं ___ उपदर्शितम् । यया क: दृष्टान्तः ? दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया है। जैसे पण्णवियं परूवियं दंसियं निदंसियं अयं मधुकुम्भः आसीत्, अयं घृत- कोई दृष्टान्त है ? (ओचार्य ने कहा- इसका उवदंसियं। जहा को दिळंतो? कुम्भः आसीत् । सा एषा ज्ञशरीर- दृष्टान्त यह है) यह मधुघट था, यह घृतघट अयं महुकुंभे आसी, अयं घयकुंभे द्रव्यानुपूर्वी । था। वह ज्ञशरीर द्रव्य आनुपूर्वी है। आसी । से तं जाणगसरीरदव्वाणु पुवी॥ ११०. से कि तं भवियसरीरदव्वाण अथ कि सा भव्यशरीरद्रव्यानु- ११०. वह भव्यशरीर दव्य आनुपूर्वी क्या है ? पुवी? भवियसरीरदब्वाणुपुन्वी पूर्वी ? भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी-य: भव्यशरीर द्रव्य आनुपूर्वी -गर्भ की -जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खंते जीव: योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन चैव पूर्णावधि से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त इमेणं चेव आदत्तएणं सरीरस- आदत्तकेन शरीरसमुच्छयेण जिन- पौद्गलिक शरीर से आनुपूर्वी इस पद को मुस्सएणं जिणदिठेणं भावेणं दिष्टेन भावेन आनुपूर्वी इति पदम् जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य आणुपुव्वी ति पयं सेयकाले एष्यत् काले शिक्षिष्यते, न तावत् में सीखेगा, वर्तमान में नहीं सीखता है तब सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खइ। शिक्षते। यथा कः दृष्टान्तः ? अयं तक वह भव्यशरीर द्रव्य आनुपूर्वी है। जैसे जहा को दिळंतो? अयं महकुंभे मधुकुम्भः भविष्यति, अयं घृतकम्भः कोई दृष्टान्त है ? (आचार्य ने कहा - इसका भविस्सइ, अयं घयकंभे भविस्सइ। भविष्यति। सा एषा भव्यशरीर- दृष्टान्त यह है) यह मधुघट होगा, यह घृतघट से तं भवियसरीरदब्वाणपूवी॥ द्रव्यानुपूर्वी। होगा । वह भव्यशरीर द्रव्य आनुपूर्वी है। Jain Education Intemational Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ER १११. से किं तं जाणगसरीर भवियसरीर वतिरिता दयाणुपुथ्वी ? जाणगसरीर भवियसरीर वति रित्ता दव्याणुपुच्ची दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा ओयणिहिया व अनोव णिहिया य ॥ - ११२. तत्थ णं जा सा ओवणिहिया सा ठप्पा ॥ ११३. तत्व णं जा सा अणोवणिहिया सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहानेगम-ववहाराणं संगहस्स य ॥ गम-यवहाराणं अणोवनिहिय-दम्बाणुपृथ्वी-पर्य ११४. से किं तं नेगम-वबहाराणं अणोवणिहिया दव्याणुपुथ्वी ? नेगम-वबहाराणं अणोवणिहिया दयावी पंचविहा पण्णसा, तं जहा - १. अट्ठपयपरूवणया २. भंगसमुत्तिणया ३. भंगोवदंसणया ४. समोयारे ५. अणुगमे ॥ ११५. से किसे नेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया ? नेगम-ववहाराणं अपयस्वणयातिपएसिए आणुपृथ्वी चउपएसिए आणुपुथ्वी जाय दसपएसिए आणुपुव्वी संखेज्जपएसिए आणुपुग्यो असंवेज्जएसिए आणुपुव्वी अनंतपए सिए आणखी । परमाणुयोग्य अणापुथ्यो। दुपएसिए अवत्तम्बए। तिपएसिया आणुपुत्रीमो जाव अणतपएसिया आणुपुवीओ । परमाणुपोग्गला अणाणुपुव्वीओ । दुपएसिया अवत्तव्वयाई । से तं नेगम-ववहाराणं अपयपर वणया || ११६. एयाए णं नेगम-बवहाराणं अपरूवणयाए कि पोषणं ? एयाए णं नेगम-ववहाराणं अथ कि सा ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वी ? ज्ञशरीरभव्यशरीर व्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-औपनि धिकीच अननिधि च ॥ तत्र या असौ औपनिधिको सा स्थाप्या । तत्र या असौ अनौपनिधिको सा द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नंगमव्यवहारयोः संग्रहस्य च ॥ नंगम-व्यवहारयोः अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी-पदम् अथ कि सा नैगम-व्यवहारयोः अनोपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी ? नंगमव्यवहारयो: अनोपनिधिकीच्यापूर्वी पचविधा प्रज्ञप्ता तथा १२. सरको नम् ३. भङ्गोपदर्शनम् ४. समवतार: ५. अनुगमः । - अथ कि सा नैगम-व्यवहारयोः अर्थपदप्ररूपणा ? नंगम-व्यवहारयोः अर्थपदत्ररूपणा शिप्रदेशिक: मनुपूर्वी चतुष्प्रदेशिक जानुपूर्वी याबद् दशप्रदेशिक : आनुपूर्वी संख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी असंख्येयप्रदेशिकः आनुपूर्वी अनन्तप्रदेशिक : पूर्वी परमापुद्गलः अनानुपूर्वी द्विप्रवेशिक अवध्यकम्। प्रिवेfrer अनुपू याद अनदे शिका: आनुपूर्व्यः परमात अनानुपूव्यं । द्विप्रदेशिका: अवक्तध्यानि सा एया नंगम-व्यवहारयोः अर्थपदप्ररूपणा । आनु एतया मैगम-व्यवहारयोः अर्थपदप्ररूपणया कि प्रयोजनम् ? एतया नैगम-व्यवहारयोः अर्थपदप्ररूपणया अणुओगवाराई १११. वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आनुपूर्वी क्या है ? ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आनुपूर्वी के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे— औपनिधिकी और अनौपनिधिकी। ११२. जो औपनिधिकी है वह स्थाप्य है । ११३. जो अनौपनिधिकी है उसके दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे नैगम-व्यवहार की अनौपनिधिकी और संग्रह की अनौपनिधिकी।" नंगम-व्यवहार अनीपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी-पद ११४. वह नंगम और व्यवहारनय सम्मत अनौपनिधिको द्रव्य आनुपूर्वी क्या है ? नंगम और व्यवहारनय सम्मत अनौपनिधिकी द्रव्य आनुपूर्वी के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- १. अर्थपदपरूपण, २. भंगसमुत्कीर्तन, ३. भंगोपदर्शन, ४. समवतार, ५. अनुगम । ११५. वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत अर्थपदपरूपण क्या है ? नगम और व्यवहारनय सम्मत अर्थपद प्ररूपण -- त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी, " चतुष्यदेशिक आनुपूर्वी यावत् दसप्रदेशिक आनुपूर्वी संख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी, असंख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी, अनन्तप्रदेशिक आनुपूर्वी, परमाण पुद्गल अनानुपूर्वी, द्विप्रदेशिक अवक्तव्य, त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वियां यावत् अनन्तप्रदेशिक आनुपूर्वियां परमाणुपुद्गल अनानुपूनिया और द्विप्रदेशिक अवस्तव्य ( अनेक ) हैं वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत अर्थपदप्ररूपण है । ११६. नैगम और व्यवहारनय सम्मत अर्थपदप्ररूपण से क्या प्रयोजन है ? नैगम और व्यवहारनय सम्मत इस अर्थ - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा प्रकरण : सूत्र १११-११७ अट्ठपयपरूवणयाए मंगसमुक्कि तणया कज्जइ ॥ भंगसमुक्कि भङ्गसमुत्कीर्तनं क्रियते ।। ११७. से किं तं नेगम-ववहाराणं मंगसविकतणया ? नेगम ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया १. अस्थि आणुपुव्वी २. अस्थि अणाणुपुव्वी ३. अत्थि अवत्तव्वए ४. अस्थि आणुपुवीओ ५. अस्थि अणाणपुथ्वीओ ६. अस्थि अवसव्याइं । अहवा १. अस्थि आणुपुथ्वी य अणाणुपुवीय ७. अहवा २. अस्थि आणुपुथ्वीय अणाणुपुथ्वीजो य ८. अहवा ३. अस्थि आणुपुव्वीओ य अणाणुपुव्वी य ६. अहवा ४. अस्थि आणुपुव्वीओ य अणाणुyoवीओ य १०. । अहवा १. अस्थि आणवीय अणाणुव्वी य अवत्तन्वर य १६. अहवा २. अस्थि आणुपुव्वी य अणाणुपुव्वो य अवत्तव्वयाई च २०. अहवा ३. अस्थि आणुपुव्वी य अणाणुपुव्वोओ य अवत्तव्वए य २१. अहवा ४. अस्थि आणुपुव्वी य अणाणुपुव्वीओ य अवत्तब्वयाई च २२. अहवा ५ अस्थि आणु पुण्यीओ य अणाणुपुवीय अथ कि तद्गम-व्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्तनम् ? नैगम व्यव हारयोकर्त१.अस्ति आनुपूर्वी २. अस्ति अनानुपूर्वी ३. अस्ति अवक्तव्यकम् ४. अस्ति आनुपूर्व्य : ५. अस्ति अनानुपू ६. अस्ति अवक्तव्यकानि । अहवा] १. अस्थि आणुपुथ्वी य अवत्तव्वए य ११. अहवा २. अस्थि आणुपुव्वी य अवत्तव्वयाइं च १२. अहवा ३. अस्थि आणुपुव्वीओ य अवत्तम्बए य १३. अहवा ४. अस्थि आणुवीओ य अवत्तव्वयाई च १४. । अहवा १. अस्थि अणाणुपुन्वी य अथवा १ अस्ति अनानुपूर्वी च अवतव्य व १४. अहा २. अस्थि अवक्तव्यकञ्च १५ अथवा २ अस्ति अणावीय अवत्तव्वयाई च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकानि च १६ १६. अहवा ३. अस्थि अणाणु- अथवा ३ अस्ति अनानुपूर्व्यश्च अवक्तपुथ्वीओ य अवत्तव्यए य १७. व्यकञ्च १७ अथवा ४ अस्ति अहवा ४. अस्थि अणुपुव्वीओ य अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकानि च अवतव्यया च १८. । १८ । अथवा १ अस्ति आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च ७ अथवा २ अस्ति आनुपूर्वी अथवा ३ अस्ति आनुपूर्व्यश्च अनानुपूर्वी च ९ अथवा ४ अस्ति आनुपूर्व्यश्च अनानुपूर्व्यश्च १० । अथवा १ अस्ति आनुपूर्वी च अवक्तव्यकञ्च ११ अथवा २ अस्ति आनुपूर्वी च अवक्तव्यकानि च १२ अथवा ३ अस्ति आनुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकञ्च १३ अथवा ४ अस्ति आनुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकानि च १४ । अथवा १ अस्ति आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकञ्च १९ अथवा २ अस्ति आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकानि च २० अथवा ३ अस्ति आनुपूर्वी च अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकञ्च २१ अथवा ४ अस्ति आनुपूर्वी च अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकानि च २२ अथवा ५ अस्ति आनुपूर्व्यश्च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकञ्च २३ अथवा ६ अस्ति आनु ८३ पद - प्ररूपण से भंगसमुत्कीर्तन किया जाता है । ११७. वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगसमुत्कीर्तन क्या है ? नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगसमुरडीतं १. आनुपूर्वी है २. अनानुपूर्वी है ३. अवक्तव्य है । ४. आनुपूर्वियां हैं, ५. अनानुपूनियां है ६ तय है। . ७. अथवा १. आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है । ८. अथवा २. पूर्वी है, अनानुपूनिया है । नुनिया है, अनानुपूर्वी है। १०. अथवा ४. आनुपूर्वियां हैं, अनानुपूर्वियां हैं । ९. ३. ११. अथवा १. आनुपूर्वी है, अवक्तव्य है । १२. अथवा २. आनुपूर्वी है, अवक्तव्य हैं । १३. अथवा ३. आनुपूर्वियां हैं, अवक्तव्य है । १४. अथवा ४. आनुपूर्वियां हैं, अवक्तव्य हैं। १५. अथवा १. अनानुपूर्वी है, अवक्तव्य है । १६. अथवा २. अनानुपूर्वी है, अवक्तव्य हैं। १७. अथवा ३ अनानुपूर्वियां हैं, अवक्तव्य है । १८. अथवा ४. अवियां हैं, वकतव्य हैं । १९. अथवा १. आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है और अवक्तव्य है । २० अथवा २. आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है और अवक्तव्य हैं । २१. अथवा आनुपूर्वी है, अनानुपूनियां हैं और अवक्तव्य है । २२. अथवा ४. आनुपूर्वी है, अनानुपूवियां हैं और अवक्तव्य हैं । २३. अथवा ५ आनुपूर्वियां हैं, अनानुपूर्वी है और अवक्तव्य है । २४. अथवा ६. आनुपूर्वियां हैं, अनानुपूर्वी है और अवक्तव्य हैं । २५. अथवा ७. आनुपूनिया है, अनानुपूर्विया Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई अवत्तव्वए य २३. अहवा ६. अस्थि पूर्व्यश्च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकानि आणपुव्वीओ य अणाणुपुब्वी य च २४. अथवा ७. अस्ति आनुपूय॑श्च अवत्तव्वयाइं च २४. अहवा ७. अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकञ्च २५. अत्थि आणुपुव्वीओ य अणाणु- अथवा ८. अस्ति आनुपूर्व्यश्च अनानुपुग्वीओ य अवत्तब्वए य २५. पूय॑श्च अवक्तव्यकानि च २६ । अहवा ८. अत्थि आणुपुत्वोओ य (एते अष्टौ भङ्गाः) एवं सर्वे पि अणाणपुव्वीओ य अवत्तव्वयाइं षड्विंशतिः भङ्गाः। तदेतद् नैगमच २६ । (एए अट्ट भंगा)। एवं व्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्तनम् । सव्वे वि छन्वीसं भंगा। से तं नेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कितणया॥ हैं और अवक्तव्य है। २६. अथवा ८. आनुपूवियां हैं, अनानुपूर्वियां हैं और अवक्तव्य हैं। (ये आठ त्रिसांयोगिक विकल्प हैं।) इस प्रकार सब मिलाकर छब्बीस विकल्प होते हैं । वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगसमुत्कीर्तन है।" ११८. एयाए णं नेगम-ववहाराणं एतेन नैगम-व्यवहारयोः भङ्ग- ११८. इस नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंग भंगसमुक्कित्तणयाए कि पओयणं? समुत्कीर्तनेन कि प्रयोजनम् ? एतेन समुत्कीर्तन का क्या प्रयोजन है ? एयाए णं नेगम-ववहाराणं भंग- नैगम-व्यवहारयोः भङ्गासमुत्कीर्तनेन नैगम और व्यवहारनय सम्मत इस भंगसमुक्कित्तणयाए भंगोवदसणया भङ्गोपदर्शनं क्रियते । समुत्कीर्तन से भंगोपदर्शन किया जाता है। कीरइ॥ ११६.से कि तं नेगम-ववहाराणं अथ किं तद् नैगम-व्यवहारयोः ११९. वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगोप भंगोवदसणया? नेगम-ववहाराणं भङ्गोपदर्शनम् ? नैगमव्यवहारयोः दर्शन क्या है ? भंगोवदंसणया-१. तिपएसिए भङ्गोपदर्शनम् - १. त्रिप्रदेशिकः नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगोपआणुपुवी २. परमाणुपोग्गले आनुपूर्वी २. परमाणुपुद्गल: अनानु- दर्शन-१. त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी २. परमाणुअणाणपुब्बी ३. दुपएसिए पूर्वी ३. द्विप्रदेशिकः अवक्तव्यकम् पुद्गल अनानुपूर्वी ३. द्विप्रदेशिक अवक्तव्य । अवत्तव्वए ४. तिपएसिया आणु- ४. त्रिप्रदेशिकाः आनुपूर्य: ५. पर- ४. त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वियां ५. परमाणु पुद्गल पुव्वीओ ५. परमाणुपोग्गला माणपुद्गलाः अनानुपूर्व्यः ६. द्विप्रदे- अनानुपूर्वियां ६. द्विप्रदेशिक अवक्तव्य हैं। अणाणपुव्वीओ ६. दुपएसिया शिकाः अवक्तव्यकानि । अवत्तव्वयाई। अहवा १. तिपएसिए य परमाणु- अथवा १. त्रिप्रदेशिकश्च २. ७. अथवा १. त्रिप्रदेशिक है, परमाणुपोग्गले य आणुपुव्वी य अणाणु- परमाणुपुद्गलश्च आनुपूर्वी च पुद्गल है, आनुपूर्वी है और अनानुपूर्वी है। पुव्वी य ७. अहवा २.तिपएसिए अनानुपूर्वी च ७. अथवा २. त्रिप्रदे- ८. अथवा २. त्रिप्रदेशिक है, परमाणुय परमाणुपोग्गला य आणुपुव्वी य शिकश्च परमाणुपुदगलाश्च आनुपूर्वी पुद्गल हैं, आनुपूर्वी है और अनानुपूर्वियां हैं। अणाणपुव्वीओ य ८. अहवा ३. च अनानुपूर्व्यश्च ८. अथवा ३. ९. अथवा ३. त्रिप्रदेशिक हैं, परमाणुपुद्गल तिपएसिया य परमाणुपोग्गले य त्रिप्रदेशिकाश्च परमाणुपुदगलश्च हैं, आनुपूर्वियां हैं और अनानुपूर्वी हैं। आणपुव्वीओ य अणाणुपुव्वी य आनुपूर्व्यश्च अनानुपूर्वी च ९. अथवा १०. अथवा ४. त्रिप्रदेशिक हैं, परमाणु६. अहवा ४. तिपएसिया य ४. त्रिप्रदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलाश्च पुद्गल हैं, आनुपूर्वियां हैं और अनानुपूर्वियां परमाणुपोग्गला य आणुपुवीओ आनुपूर्वश्च अनानुपूर्व्यश्च १० । अणाणुपुव्वीओ य १०।। अहवा १. तिपएसिए य दुपएसिए अथवा १. त्रिप्रदेशिकश्च विप्रदे- ११. अथवा १. त्रिप्रदेशिक है. द्विप्रदेशिक य आणपुव्वी य अवत्तवए य शिकश्च आनुपूर्वी च अवक्तव्यकञ्च है, आनुपूर्वी है और अवक्तव्य है। १२. अथवा ११. अहवा २. तिपएसिए य ११. अथवा २. त्रिप्रदेशिकश्च द्विप्र- २. त्रिप्रदेशिक है, द्विप्रदेशिक हैं, आनुपूर्वी है दुपएसिया य आणुपुब्वी य देशिकाश्च आनुपूर्वी च अवक्तव्यकानि और अवक्तव्य हैं। १३. अथवा ३. अवत्तब्वयाई च १२. अहव। ३. च १२. अथवा ३. त्रिप्रदेशिकाश्च त्रिप्रदेशिक हैं, द्विप्रदेशिक है, आनुपूर्वियां Jain Education Intemational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा प्रकरण : सूत्र ११८,११६ तिपएसिया यदुपएसिए य आणु पुव्वीओ य अवत्तव्वए य १३. अहवा ४. तिपएसिया यदुपएसिया य आणपुण्बीओ य अवतव्यवाई च १४ । अहवा १. परमाणुपोग्गले य दुपसिए य अणाणुपुत्री य अवत्तव्वए य १५. अहवा २. परमाणुयोग्गले य दुपएसिया य अणाणुपुथ्वी व अवतव्ययाई च १६. अहवा ३. परमाणुवोग्गला दुपसिए य अणाणुपुव्वीओ य अवत्तव्वए य १७. अहवा ४. परमाणुपोग्गला य दुवएसिया य अणाणुपुरवीओ व अवतव्यवाई च १८. । अहवा १. तिपएसिए य परमाणुपोले यदुपएसए य आणुपुव्वी य अणाणुपुव्वी य अवत्तव्वए य १६. अहवा २. तिपएसिए य परमाणुपोग्गले यदुपएसिया य आणुपुत्री य अणाणुपुब्बी य अवतव्यवाई च २०. अहवा ३. तिपए सिए य परमाणुपोगला य एसिए व आणुवीय अणाणु पृथ्वीओ य अवसय २१. अहवा ४. तिपएसिए य परमाणुपोग्गला यदुपएसिया य आणुपुथ्वी य अणाणुपुथ्वीओ य अवयवा २२. अहवा ५ तिपएसिया य परमाणुपले यदुपए लिए य आणुपुवाओ प अणाणुपुथ्वी य अवत्तव्वए य २३. अहवा ६. तिपएसिया य परमाणुपोग्गले य दुपएसिया य आणुपुव्वीओ य अाणपुच्चीय अवसथ्यया च २४. अहवा ७ तिपएसिया य परमाणुपोग्गला य दुपए लिए य आणुपुव्वोओ य अणाणुपुथ्वीओ य अवत्तव्वए य २५. अहवा ८. तिपएसिया य परमाणुपोग्गला य सुपएसिया प आणपुच्छीओ य द्विप्रदेशिकश्च आनुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकञ्च १३. अथवा ४. त्रिप्रदेशिकाश्च द्विप्रदेशिकाश्च आनुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकानि च १४ । अथवा १. परमाणु पुद् गलश्च द्विप्रदेशिकश्च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकञ्च १५. अथवा २. परमाणुपुद्गलश्च द्विप्रदेशिकाश्च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकानि च १६. अथवा ३. परमाणुपुलाव द्विप्रदेशिकश्च अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकञ्च १७. अथवा ४. परमाणुपुद्गलाश्च द्विप्रदे शिकार अनानुपुष्यश्व वानि च १५ । अथवा १ त्रिप्रदेशिकश्च परमाणुपुद्गलश्च द्विप्रदेशिकश्च अनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकञ्च १९. अथवा २ त्रिप्रदेशिकश्च परमाणुपुद्गलश्च द्विप्रदेशिकाश्च आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकानि च २०. अथवा ३. त्रिप्रदेशिकश्च परमाणुपुद्गलाश्च द्विप्रदेशिकरच आनुपूर्वीच अनानुपश्च - व्यकञ्च २१. अथवा ४. त्रिप्रदेशिकश्च परमाणुपुद्गलाश्च द्विप्रदे शिकाश्च आनुपूर्वीच अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकानि च २२. अथवा ५. त्रिप्रदेशिकाश्च परमाणुपुद् गलश्च द्विदेशिकश्च आनुपूर्व्यश्च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकञ्च २३. अथवा ६. त्रिप्रदेशिकाश्च परमाणुपुङ्गलश्च दिप्रदेशिकारच आनुपूर्वश्च अनानुअवक्तव्यकानि च २४. पूर्वी च अवस्थान अथवा ७. त्रिदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलाश्वद्विप्रदेशिका अनुपयं श्व अनानुपश्च अवक्तव्यकञ्च २५. अथवा ८ त्रिप्रदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलाश्च द्विप्रदेशिकाश्च आनुपूर्वश्व अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकानि ८५ हैं और अवक्तव्य है । १४. अथवा ४. त्रिप्रदेशिक हैं, द्विप्रदेशिक हैं, आनुपूर्वियां हैं और अवक्तव्य हैं। १५. अथवा १. परमाणुपुद्गल है, प्रदेशिक है, पूर्वी है और अस्तव्य है । १६. अथवा २. परमाणुपुद्गल है, द्विप्रदेशिक हैं, अनानुपूर्वी है और अवक्तव्य हैं । १७. अथवा ३. परमाणुपुद्गल हैं, द्विप्रदेशिक है, अनानुपूर्वियां हैं और अवक्तव्य है । १८. अथवा ४. परमाणुपुद्गल हैं, द्विपदेशिक है, अनानुपूनिया है और अवक्तव्य हैं । १९. अथवा १. त्रिप्रदेशिक है परमाणुपुद्गल है, कि है, आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है और अवक्तव्य है । २०. अथवा २. त्रिप्रदेशिक है, परमाणुपुद्गल है, द्विप्रदेशिक हैं, आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है और अवक्तव्य हैं । २१. अथवा ३. त्रिप्रदेशिक है, परमाणु हैं, द्विप्रदेशिक है, आनुपूर्वी है, अनानुपू है और अय है। २२. अथवा ४. त्रिप्रदेशिक है, परमाणुपुद्गल हैं, द्विप्रदेशिक हैं, आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वियां हैं और अवक्तव्य हैं । २३. अथवा ५. त्रिप्रदेशिक हैं, परमाणुपुद्गल है, द्विप्रदेशिक है, आनुपूनियां है, अनानुपूर्थी है और अवक्तव्य है। २४. अथवा ६ त्रिप्रदेशिक हैं, परमाणुपुदगल है, द्विप्रदेशिक हैं, आनुपूर्वियां हैं, अनानुपूर्वी है और अवक्तव्य हैं । २५. अथवा ७ त्रिप्रदेशिक हैं, परमाणुपुदगल हैं, द्विप्रदेशिक है, आनुपूर्वियां हैं, अनानुपूर्वियां हैं और अवक्तव्य है । २६. अथवा ८ त्रिदेशिक हैं, परमाणुपुद्गल हैं, द्विप्रदेशिक हैं, आनुपूर्वियां हैं, अनानुपूर्वियां हैं और अवक्तव्य हैं । वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगोपदर्शन है । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई अणाणुपुव्वीओ य अवत्तव्वयाई च च २६ । तदेतद् नै गम-व्यवहारयोः २६। से तं नेगम-ववहाराणं भङ्गोपदर्शनम् । भंगोवदंसणया॥ १२०. से कि तं पमोयारे? समोयारे-- अथ किस समवतारः ? समव- १२०. वह समवतार क्या है ? नेगम-ववहाराणं आणुपुग्विदन्वाई तारः-नैगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वी- समवतार नैगम और व्यवहारनय सम्मत कहि समोयरंति....कि आणपुव्वि- द्रव्याणि क्व समवतरन्ति-किम् आनुपूर्वी द्रव्य कहां समवतरित होते हैं - दव्वेहि समोयरंति ? अणाणुपुग्वि- आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानु- क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? दवेहि समोयरंति ? अवत्तव्वय- पूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अवक्त अनानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? दवेहि समोयरंति ? नेगम- व्यकद्रव्येषु समवतरन्ति ? नैगम- अथवा अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? ववहाराणं आणुपुग्विदव्वाइं ___ व्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि आनु- नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी आणपुग्विदन्वेहि समोयरंति, नो पूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो अनानु- द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं, अणाणपुग्विदब्वेहि समोयरंति, नो पूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो अवक्त- वे अनानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित नहीं होते, अवत्तव्वयदवेहि समोयरंति। व्यकद्रव्येषु समवतरन्ति । अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित नहीं होते। नेगम-ववहाराणं अणाणपुब्बि- नैगम-व्यवहारयोः अनानुपूर्वी- नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी दवाई कहि समोयरंति--कि द्रव्याणि क्व समवतरन्ति किम् द्रव्य कहां समवतरित होते हैं --क्या आनुपूर्वी आणपुग्विदन्वेहि समोयरंति ? आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानु- द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अनानुपूर्वी अणाणपुग्विदव्वेहि समोयरंति ? पूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अवक्तव्यक- द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अथवा अवत्तव्वयदव्वेहि समोयरंति? द्रव्येषु समवतरन्ति ? नैगम-व्यव- अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? नेगम-ववहाराणं अणाणपुन्वि- हारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणि नो आनु- नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी दव्वाई नो आणपुग्विदग्वेहि पूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, अनानुपूर्वी- द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित नहीं होते, समोयरंति, अणाणपुग्विदव्वेहिं द्रव्येषु समवतरन्ति, नो अवक्तव्यक- अनानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं, समोयरंति, नो अवत्तव्वयदव्वेहि द्रव्येषु समवतरन्ति । अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित नहीं होते। समोयरंति। नेगम-ववहाराणं अवत्तन्वयदवाई नंगम-व्यवहारयोः अवक्तव्यक- नैगम और व्यवहारनय सम्मत अवक्तव्य कहिं समोयरंति - किं आणुपुब्वि- द्रव्याणि क्व समवतरन्ति - किम् द्रव्य कहां समवतरित होते हैं क्या आनुपूर्वी दवेहि समोयरंति ? अणाणुपुब्बि- आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानु- द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अनानुपूर्वी दम्वेहि समोयरंति ? अवत्तव्वय- पूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अवक्त- द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अथवा दव्वेहि समोयरंति ? नेगम- व्यकद्रव्येषु समवतरन्ति ? नैगम- अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? ववहाराणं अवत्तव्वयदवाइं नो व्यवहारयोः अवक्तव्यकद्रव्याणि नो नैगम और व्यवहारनय सम्मत अवक्तव्य आणुपुश्विदन्वेहि समोयरंति, नो आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित नहीं होते, अणाणुपुग्विदन्वेहि समोयरंति, अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति नो अनानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित नहीं होते, अवत्तव्वयदम्वेहि समोयरंति । से अवक्तव्यकद्रव्येषु समबतरन्ति । स एष अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित होते हैं। वह तं समोयारे॥ समवतारः। समवतार है। १२१. से कि तं अणुगमे ? अणुगमे अथ कि स अनुगमः? अनुगमः १२१. वह अनुगम क्या है ? नवविहे पण्णत्ते, तं जहानवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा अनुगम के नौ प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-... गाहा गाथा-- १. सत्पदप्ररूपणा, २. द्रव्यप्रमाण, ३. क्षेत्र, १.संतपयपरूवणया २. दव्वपमाणं १. सत्पदनरूपणा २. द्रव्यप्रमाणञ्च ४. स्पर्शना, ५. काल, ६. अन्तर, ७. भाग, च ३. खेत्त ४. फुसणा य । ३. क्षेत्र ४. स्पर्शना च। ८. भाव, ९. अल्पबहुत्व । ५. कालो य ६. अंतरं ७ भाग ५. कालश्च ६. अन्तरं ७. भाग: ८. भाव ६. अप्पाबहुं चेव ॥१॥ ८. भावः ९. अल्पबहु चैव ॥१॥ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा प्रकरण : सूत्र १२०-१२४ १२२. नेगम-यवहाराणं आणुपुब्विदवाई कि अस्थि ? नरिव ? नियमा अस्थि ? नेगम-ववहाराणं अापुव्विदवाई कि अस्थि ? त् ? नत्थि नियमा अस्थि । १२२. नेगमहाराणं आणुपुविदवाई कि संखेन्जाई ? असं जाई ? अनंताई ? नो संखेन्जाई, नो असंखेज्जाई, अनंताई एवं दोणि वि ॥ १२४. नेगम-ववहाराणं नेगम बबहाराणं अवतव्ययवय्वाई नैगम-व्यवहारयोः अवक्तव्यक कि अस्थि ? नfत्व ? नियमाप्रम्याणि किम् अस्ति ? नास्ति ? नियमात् अस्ति । अस्थि । आणुपुविदवाई लोगस्स कति भागे होज्जा - fक संवेदभागे होन्ना ? असंखेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? सव्वलोए होज्जा ? एगदव्वं पच्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होज्जा, असंखेज्जइभागे वा होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखेज्जेसु भागे वा होज्जा, सम्यलोए वा होज्जा । नाणादवाई पहुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा । नेगम-ववहाराणं अणाणपुविदवाई लोगस्स कति भागे होज्जा - कि संखेज्जइभागे होज्जा ? असंखेन्नइमागे होज्जा ? संखेज्जे भागेसु होना ? असंखेज्जेसु भागे होज्जा ? सव्वलोए होज्जा ? एगदव्वं पच्च लोगस्स नो संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइ भागे होज्जा, नो वेज्जेसु भागे होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो सव्वलोए होज्जा । नागदव्या पहुच नियमा सव्वलोए होज्जा । एवं अवत्तव्वगदण्याणि वि ।। नंगम-व्यवहारयोः द्रव्याणि किम् अस्ति ? नियमात् अस्ति । आनुपूर्वीनास्ति ? नैगम-व्यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणि किम् अस्ति ? नास्ति ? नियमात् अस्ति । नंगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीव्याणि कि संख्येयानि ? असंख्ये पानि ? अनन्तानि ? नो संख्येपानि नो असंख्येयानि अनस्तानि एवं इ अपि । गम-यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य कतिभागे भवन्तिकि संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? सर्वलोके भवन्ति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य लोकस्य संख्येयतमभागे वा भवन्ति, असंख्येयतमभागे या भवन्ति संख्येयेषु भागेषु वा भवन्ति, असंख्येयेषु भागेषु वा भवन्ति, सर्वलोके वा भवन्ति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोके भवन्ति । जंगम-व्यवहारयो: अनानुपूर्वीइष्याणि लोकस्य कतिभागे भवन्तिकि संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंपेतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? सर्वलोके भवन्ति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य लोकस्य नो संख्येयतमभागे भवन्ति, असंख्येयतमभागे भवन्ति नो संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो सर्वलोके भवन्ति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोके भवन्ति । एवम् अवक्तव्यकद्रव्याणि अपि ।। ८७ १२२. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं ? वे नियमतः हैं । नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं ? वे नियमतः हैं । नैगम और व्यवहारनय सम्मत अवक्तव्य द्रव्य हैं या नहीं ? वे नियमतः हैं । १२३. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य संख्येय हैं ? असंख्येय हैं ? या अनन्त है? वे संश्येय नहीं है, असंख्य नहीं है, अनन्त हैं । इसी प्रकार अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्य भी अनन्त हैं । " १२४. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग में हैं क्या संख्यातवें भाग में हैं ? असंख्यातवें भाग में हैं ? संख्येय भागों में हैं ? असंख्येय भागों में हैं ? या समूचे लोक में हैं ? आनुपूर्वी द्रव्य एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग में हैं, असंख्यातवें भाग में है, संख्य भागों में हैं, असंख्य भागों में हैं अथवा समूचे लोक में हैं ।" अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमतः समूचे लोक में हैं । १५ नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग में हैं क्या संख्यातवें भाग में हैं ? असंख्यातवें भाग में हैं ? संख्येय भागों में हैं ? असंख्येय भागों में हैं ? या समूचे लोक में हैं ? अनानुपूर्वी द्रव्य एक द्रव्य [ परमाणु ] की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग में नहीं हैं, असंख्यातवें भाग में हैं, " संख्येय भागों में नहीं हैं, असंख्येय भागों में नहीं हैं और समूचे लोक मैं नहीं हैं। अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमतः समूचे लोक में हैं। इसी प्रकार अवक्तव्य द्रव्यों का भी प्रतिपादन करना चाहिए। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई ८८ १२५. नेगम-ववहाराणं आणुपुग्वि- नंगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वी- दव्वाइं लोगस्स कति भागं द्रव्याणि लोकस्य कतिभागं स्पृशन्ति फुसंति–कि संखेज्जइभागं -fक संख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? फुसंति ? असंखेज्जइभागं फुसंति? असंख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? संख्येसंखेज्जे भागे फुसंति? असंखेज्जे यान् भागान् स्पृशन्ति ? असंख्येयान् भागे फुसंति ? सव्वलोगं फुसंति? भागान् स्पृशन्ति ? सर्व लोकं स्पृशन्ति? एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइ- एकद्रव्यं प्रतीत्य लोकस्य संख्येयतमभागं वा फुसंति, असंखेज्जइभागं भागं वा स्पृशन्ति, असंख्येयतमभागं वा फुसंति, संखेज्जे भागे वा वा स्पृशन्ति, संख्येयान् भागान् वा फुसंति, असंखेज्जे भागे वा संति, स्पृशन्ति, असंख्येयान् भागान् वा सव्वलोगं वा फुसंति । नाणादव्वाइं स्पृशन्ति, सर्वलोकं वा स्पृशन्ति । पडच्च नियमा सव्वलोगं फूसंति। नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्व लोकं स्पृशन्ति । नेगम-ववहाराणं अणाणपुग्वि- नगम-व्यवहारयोः अनानुपूर्वीदव्वाणं पुच्छा। एगदव्वं पडुच्च द्रव्याणां पृच्छा। एकद्रव्यं प्रतीत्य नो संखेज्जइभागं फुसंति, नो संख्येयतमभागं स्पृशन्ति, असंख्येयअसंखेज्जइभागं फुसंति, नो संखेज्जे तमभागं स्पृशन्ति, नो संख्येयान् भागे फुसंति, नो असंखज्जे भागे भागान् स्पृशन्ति, नो असख्येयान् फुसंति, नो सव्वलोगं फुसंति। भागान् स्पृशन्ति, नो सर्वलोकं स्पृशनाणादव्वाइं पडुच्च नियमा न्ति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सव्वलोगं फुसंति। एवं अवत्त सर्वलोकं स्पृशन्ति। एवम् अवक्तव्वगदव्वाणि विभाणियब्वाणि ॥ व्यकद्रव्याणि अपि भणितव्यानि । १२५. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग का स्पर्श करते हैं।" -क्या संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? संख्येय भागों का स्पर्श करते हैं ? असंख्येय भागों का स्पर्श करते हैं ? अथवा समूचे लोक का स्पर्श करते हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं, असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं, संख्येय भागों का स्पर्श करते हैं, असंख्येय भागों का स्पर्श करते हैं अथवा समूचे लोक का स्पर्श करते हैं। अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमत: समूचे लोक का स्पर्श करते हैं। नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग का स्पर्श करते हैं -क्या संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? संख्येय भागों का स्पर्श करते हैं ? असंख्येय भागों का स्पर्श करते हैं ? अथवा समूचे लोक का स्पर्श करते हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा वे लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करते हैं, असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं, संख्येय भागों का स्पर्श नहीं करते हैं, असंख्येय भागों का स्पर्श नहीं करते हैं, समूचे लोक का स्पर्श नहीं करते हैं । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमतः समूचे लोक का स्पर्श करते हैं। इसी प्रकार अवक्तव्य द्रव्यों का भी प्रतिपादन करना चाहिए। १२६. नेगम-ववहाराणं आणपुब्धि- नैगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वी- दव्वाइं कालओ केवच्चिरं हाति? द्रव्याणि कालत: कियच्चिरं भवन्ति? एगदव्वं पडच्च जहणणं एग एकद्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एक समयम्, समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जंकालं। उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नानानाणादव्वाइं पडच्च नियमा द्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वाध्वासव्वद्धा। एवं दोणि वि। नम् । एवं द्वे अपि। १२६. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य काल की दृष्टि से कितने समय तक होते हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा वे जघन्यत: एक समय और उत्कृष्टतः असंख्य काल तक होते हैं। अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमतः सर्वकाल में होते हैं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों के काल का भी प्रतिपादन करना चाहिए। १२७. नेगम-ववहाराणं आणुपुग्वि नैगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्या- १२७ नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी Jain Education Intemational Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा प्रकरण : सूत्र १२५-१२८ दवाणं अंतरं कालओ केवश्विरं होइ ? एगदव्वं पडुच्च जहणणं एवं समयं उक्कोसेणं अनंतं कालं । नाणादव्वाई पच्च नत्थि अंतरं । नेगम-ववहाराणं अणाणुपुविदव्वाणं अंतरं कालओ केवचिचरं होइ ? एगदव्वं पडुच्च जहणणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । नाणादव्वाइं पडुच्च नत्थि अंतरं । नेगम-ववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? एगदव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं अनंतं कालं । नाणारवाई नत्थि पटुच्च अंतरं ॥ १२८. नेगम ववहाराणं आणुपुविदव्वाइं सेसदव्वाणं कइ भागे होज्जा- कि संखेज्जइभागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? नो संखेज्जइभागे होज्जा, नो असंखेज्जइमागे होना, नो संसेज्जे भागे होज्जा, नियमा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा । नेगम-यवहाराणं अणाजपवि दव्वाई सेसदव्वाणं कइ भागे होज्जा- कि संखेज्जइभागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जे भागे होज्जा ? असंखे ज्जेसु भागेसु होज्जा ? संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होना, नो संखेज्जेसु भागे होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होना एवं अवलम्बगदव्याणि । वि ॥ १२. नेगम-यवहाराणं आणुपुग्वि दवाई कयरम्मि भावे होज्जा णाम् अन्तरं कालतः किafeचरं भवति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण अनन्तं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । मंगम-व्यवहारथी: अनानुपूर्वीद्रव्याणाम् अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य ना अन्तरम् । नैगम-व्यवहारयोः अवक्तव्यकद्रव्याणाम् अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण अनन्तं कालम् । प्रतीत्य नानाद्रव्याणि नास्ति अन्तरम् । जंगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणां कति भागे भवन्ति - किं संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? असख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? नो संख्येयतमभागे भवन्ति, नो असंख्येयतमभागे भवन्ति, मी संख्येयेषु भागेषु भवन्ति नियमात् असंख्ययेषु भागेषु भवन्ति । नैगम-यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रध्याणि शेषद्रव्याणां कति भागे भवन्ति - कि संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंयमाने सति ? संख्येयेषु भायेषु भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु नोभयन्ति ? नो संख्या भवन्ति, असंख्येयतमभागे भवन्ति, नो संख्येयेषु भागेषु भवति, तो असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति । एवम् अवक्तव्यकइम्पाणि अपि । । संगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीप्रत्यानि रस्मिन् भावे भवन्ति કર द्रव्यों में कालकृत अन्तर [विरहकाल ] कितना होता है ? एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अनन्तकाल का अन्तर होता है । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा उनमें कालकृत अन्तर नहीं होता । नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्यों में कालकृत अन्तर कितना होता है ? एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्येय काल का अन्तर होता है । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा उनमें काल कृत अन्तर नहीं होता । नैगम और व्यवहारनय सम्मत अवक्तव्य द्रव्यों में कालकृत अन्तर कितना होता है ? एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अनन्तकाल का अन्तर होता है । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा उनमें कालकृत अन्तर नहीं होता । " १२८. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कितने भाग में होते हैंक्या संख्यातवें भाग में होते हैं ? असंख्यातवें भाग में होते हैं ? संख्येय भागों में होते हैं ? अथवा असंख्येय भागों में होते हैं ? वे संख्यातवें भाग में नहीं होते, असंख्यातवें भाग में नहीं होते, संख्येय भागों में नहीं होते, वे नियमतः असंख्येय भागों में होते हैं । नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कितने भाग में होते हैं- क्या संख्यातवें भाग में होते हैं ? असंख्यातवें भाग में होते हैं ? संख्येय भागों में होते हैं ? अथवा असंख्येय भागों में होते हैं ? वे संख्यातवें भाग में नहीं होते, असंख्यातवें भाग में होते हैं, संख्येय भागों में नहीं होते, असंख्येय भागों में नहीं होते। इसी प्रकार अवक्तव्य द्रव्यों के शेष द्रव्यों में होने वाले भाग का भी प्रतिपादन करना चाहिए ।" १२९. नैगम और व्यहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य किस भाव में होते हैं क्या उदय भाव में Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई कि उदइए भावे होज्जा? किम् औदपिके भावे भवन्ति ? होते हैं ? उपशम भाव में होते हैं ? क्षायिक उवसमिए भावे होजा? खइए औपशमिके भावे भवन्ति ? क्षायिके भाव में होते हैं ? क्षायोपशमिक भाव में भावे होज्जा? खओवसमिए भावे भावे भवन्ति ? क्षायोपशमिके भावे होते हैं ? पारिणामिक भाव में होते हैं ? होज्जा ? पारिणामिए भावे भवन्ति ? पारिणामिके भावे अथवा सान्निपातिक भाव में होते हैं ? होज्जा?सन्निवाइए भावे होज्जा? भवन्ति ? सान्निपातिके भावे भवन्नि? __ वे नियमतः सादि पारिणामिक भाव में नियमा साइपारिणामिए भावे नियमात् सादिपारिणामिके भावे होते हैं।" इसी प्रकार अनानुपूर्वी और होज्जा। एवं दोण्णि वि॥ भवन्ति । एवं अपि। अवक्तव्य द्रव्यों के भाव का भी प्रतिपादन करना चाहिए। १३०. एएसि णं नेगम-ववहाराणं एतेषां नैगम-व्यवहारयोः आनु- १३०. नैगम और व्यवहारनय सम्मत इन आनुपूर्वी आणुपन्विदव्वाणं अणाणुपुन्वि- पूर्वीद्रव्याणाम् अनानुपूर्वीद्रव्याणाम् द्रव्यों, अनानुपूर्वी द्रव्यों और अवक्तव्य द्रव्यों दव्वाणं अवत्तव्वगदव्वाण य अवक्तव्यकद्रव्याणां च द्रव्यार्यतया प्रदे में द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ दव्वट्टयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठ- शार्थतया द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थतया कतरे की अपेक्षा कौन किनसे अल्प, अधिक, समान पएसट्टयाए कयरे कयरोहितो अप्पा __ कतरेभ्यः अल्पानि वा ? बहूनि वा ? या विशेषाधिक हैं ? वा? बहया वा? तुल्ला वा? तुल्यानि वा ? विशेषाधिकानि वा ? नगम और व्यवहारनय सम्मत अवक्तव्य विसेसाहिया वा? सव्वत्थोवाइं सर्वस्तोकानि नैगम-व्यवहारयोः द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा सबसे कम हैं, अनानुनेगम-बवहाराणं अवत्तव्वगदम्वाई अवक्तव्यकद्रव्याणि द्रव्यार्थतया, पूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा अवक्तव्य द्रव्यों दव्वट्टयाए, अणाणपव्विदब्वाइं अनानुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतया विशेषा से विशेषाधिक हैं, आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थ की दव्वट्टयाए विसेसाहियाई, आणु- धिकानि, आनुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थ अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से असंख्येयगुण हैं। पव्विदव्वाइं दवट्टयाए असंखेज्ज- तया असंख्येयगुणानि । प्रदेशार्थतया प्रदेशार्थ की अपेक्षा नैगम और व्यवहारगुणाई। पएसट्टयाए-सव्वत्थो- सर्वस्तोकानि नंगम-व्यवहारयोः नय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य अप्रदेशार्थ की वाइं नेगम-ववहाराणं अणाणु- अनानुपूर्वीद्रव्याणि अप्रदेशार्थतया, अपेक्षा सबसे कम हैं, अवक्तव्य द्रव्य प्रदेशार्थ पव्विदव्वाइं अपएसट्टयाए, अवक्तव्यकद्रव्याणि प्रदेशार्थतया की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से विशेषाधिक अवत्तव्वगदव्वाइं पएसट्टयाए विशेषाधिकानि, आनुपूर्वीद्रव्याणि हैं, अनानुपूर्वी द्रव्य प्रदेशार्थ की अपेक्षा अवक्तविसेसाहियाई, आणपुग्विदव्वाइं प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि । द्रव्यार्थ व्य द्रव्यों से अनन्तगुण हैं । पएसट्टयाए अणंतगुणाई। दव्वट्ठ- प्रदेशार्थतया - सर्वस्तोकानि नैगम ___ द्रव्यार्थ और प्रदेशार्थ की अपेक्षा नैगम पएसट्टयाए --सव्वत्थोवाइं नेगम- व्यवहारयोः अवक्तव्यकद्रव्याणि और व्यवहारनय सम्मत अवक्तव्य द्रव्य ववहाराणं अवत्तव्वगदम्वाई द्रव्यार्थतया, अनानुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थ की अपेक्षा सबसे कम हैं, अनानुपूर्वी दव्वट्टयाए, अणाणुपुव्विदवाई द्रव्यार्थतया अप्रदेशार्थतया विशेषा द्रव्य द्रव्यार्थ और अप्रदेशार्थ की अपेक्षा दव्वट्टयाए अपएसटुयाए विसेसाहि- धिकानि. अवक्तव्यकद्रव्याणि प्रदेशार्थ अवक्तव्य द्रव्यों से विशेषाधिक हैं, अवक्तव्य याई, अवत्तव्वगदव्वाइं पएसट्टयाए तया विशेषाधिकानि, आनुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्य प्रदेशार्थ की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से विसेसाहियाई, आणुपुब्बिदव्वाई द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि तानि विशेषाधिक हैं, आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थ की दव्वट्ठयाए असखेउजगुणाई, ताई चैव प्रदेशार्थतया अनन्तगणानि । स अपेक्षा अवक्तव्य द्रव्यों से असंख्येयगुण हैं, चेव पएसट्टयाए अणंतगुणाई। से एष अनुगमः । सा एषा नंगम- प्रदेशार्थ की अपेक्षा वे ही अनन्तगुण हैं। वह तं अणुगमे । से तं नेगम-बवहाराणं व्यवहारयोः अनौपनिधिकी द्रव्यानु- अनुगम है ।२२ वह नैगम और व्यवहारनय अणोवणिहिया दव्वाणुपुवी। सम्मत अनौपनिधिकी द्रव्य आनुपूर्वी है। संगहस्स अणोवणिहिय-दव्वाणुपुवी- संग्रहस्य अनौपनिधिको-द्रव्यानु- संग्रहनय की अनौपनिधिको द्रव्य आनुपूर्वी पूर्वो-पदम् पद १३१. से कि तं संगहस्स अणोवणिहिया अथ कि सा संग्रहस्य अनौप- १३१. वह संग्रहनय सम्मत अनौपनिधिकी द्रव्य दव्वाणपदवी ? संगहस्स अणोव- निधिको द्रव्यानुपूर्वो ? संग्रहस्य आनुपर्ची क्या है ? णिहिया दवाणुपुत्वी पंचविहा अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी पञ्चविधा संग्रहनय सम्मत अनौपनिधिकी द्रव्य आनुपण्णता, त जहा-१. अटुपयपरू- प्रज्ञप्ता, तद्यथा-१. अर्थपदप्ररूपणा पूर्वी के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-१. अर्थ पूर्वो ॥ पदं Jain Education Intemational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ चौथा प्रकरण : सूत्र १३०-१३६ वणया २. भंगसमुक्कित्तणया २. भंगसमुत्कीर्तनम् ३. भंगोपदर्श३. भंगोवदसणया ४. समोयारे नम् ४. समवतारः ५. अनुगमः । ५. अणुगमे ॥ पदप्ररूपण, २. भंगस मुत्कीर्तन, ३. भंगोपदर्शन, ४. समवतार, ५. अनुगम। १३२. वह संग्रहनय सम्मत अर्थपदप्ररूपण क्या १३२. से कि तं संगहस्स अटुपयपरू- अथ कि सा संग्रहस्य अर्थपदप्ररू वणया?संगहस्स अट्रपयपरूवणया पणा? सग्रहस्य अर्थपदप्ररूपणा -- -तिपएसिया आणुपुवी चउपए- त्रिप्रदेशिका: आनुपूर्वी चतुष्प्रदेशिका: सिया आणपब्बी जाव दसपएसिया आनपूर्वी यावत् दशप्रदेशिकाः आनु आणपदवी संखेज्जपएसिया आणु- पूर्वी संख्येयप्रदेशिका: आनपूर्वी पुवी असंखेज्जपएसिया आणुपुत्वी असंख्येयप्रदेशिका: आनुपूर्वी अनन्तअगंतपएसिया आणुपुत्वी । पर प्रदेशिका: आनपूर्वी । परमाणुपुद्गलाः माणुपोग्गला अणाणुपुत्वो। दुपए अनानपूर्वी। द्विप्रदेशिका: अवक्तसिया अवत्तव्वए। से तं संगहस्स व्यकम् । सा एषा संग्रहस्य अर्थपदअट्ठपयपरूवणया ॥ प्ररूपणा। १३३. एयाए णं संगहस्स अटुपम्परू एतया संग्रहस्य अर्थपदप्ररूपणया वणयाए कि पओयणं? एयाए णं कि प्रयोजनम् ? एतया संग्रहस्य अर्थसंगहस्स अट्ठपयपरूवणयाए पदप्ररूपणया भङ्गसमुत्कीर्तनं क्रियते । भंगसमुक्कित्तणया कोरइ॥ संग्रहनय सम्मत अर्थपदप्ररूपण-त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी, चारप्रदेशिक आनुपूर्वी यावत् दसप्रदेशिक आनुपूर्वी, संख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी, असंख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी, अनन्तप्रदेशिक आनुपूर्वी, परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी, द्विप्रदेशिक अवक्तव्य है। वह संग्रहनय सम्मत अर्थपदप्ररूपण है। १३३. इस संग्रहनय सम्मत अर्थपदप्ररूपण से क्या प्रयोजन है ? संग्रहनय सम्मत इस अर्थपदप्ररूपण से भंगसमुत्कीर्तन किया जाता है। १३४. वह संग्रहनय सम्मत भंगसमुत्कीर्तन क्या १३४. से कि तं संगहस्स भंगसमुक्कि- अथ कि तत् संग्रहस्य भङ्ग- तणया? संगहस्स भंगसमुक्कि समुत्कीर्तनम् ? संग्रहस्य भङ्गसमुतणया-१. अस्थि आणुपुवी २. कीर्तनम् -- १. अस्ति आनपूर्वी अस्थि अणाणुपुत्वी ३. अस्थि २. अस्ति अनानपूर्वी ३. अस्ति अवत्तव्वए अहवा ४. अस्थि आणु अवक्तव्यकम् अथवा ४. अस्ति पुवो य अणाणुपुव्वी य अहवा ५. आनपूर्वी च अनानपूर्वी च अथवा अस्थि आणुपुब्वी य अवत्तव्वए य ५. अस्ति आनुपूर्वो च अवक्तव्यकञ्च अहवा ६. अस्थि अणाणुपुवी य अथवा ६. अस्ति अनान पूर्वी च अवत्तव्वए य अहवा ७. अत्थि अवक्तव्यकञ्च अथवा ७. अस्ति आनआणुपुत्वी य अणाणुपुब्वी य पूर्वीच मनानुपूर्वी च अवक्तव्यकञ्च । अवत्तव्वए य। एवं एए सत्त एवं एते सप्तभङ्गा: । तदेतत् संग्रहस्य भंगा। से तं संगहस्स भंगसमुक्कि- भङ्गसमुत्कीर्तनम् । त्तणया। संग्रहनय सम्मत भंगसमुत्कीर्तन-१. आनुपूर्वी है २. अनानुपूर्वी है ३. अवक्तव्य है अथवा ४. आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी है अथवा ५. आनुपूर्वी और अवक्तव्य है अथवा ६. अनानुपूर्वी और अवक्तव्य है अथवा ७. आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अबक्तव्य है। इस प्रकार ये सात विकल्प होते हैं। वह संग्रहनय सम्मत भंगसमुत्कीर्तन है। १३५. एयाए णं संगहम्स भंगसमुक्कि- एतेन संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्तनेन १३५. संग्रहनय सम्मत इस भंगसमुत्कीर्तन से क्या तणयाए कि पओयणं? एयाए णं किं प्रयोजनम् ? एतेन संग्रहस्य भङ्ग- प्रयोजन है ? संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए समूत्कीर्तनेन भङ्गोपदर्शनं क्रियते । संग्रहनय सम्मत इस भंगसमुत्कीर्तन से भंगावदसणया कीरइ ।। भंगोपदर्शन किया जाता है। १३६. से कि तं संगहस्स भंगोवदं- अथ किं तत् संग्रहस्य भङ्गोपदर्श- १३६. वह संग्रहनय सम्मत भंगोपदर्शन क्या है ? सणया? संगहस्स भंगोवदंसणया नम? संग्रहस्य भङ्गोपदर्शनम् - संग्रहनय सम्मत भंगोपदर्शन---१. त्रिप्रदे-१.तिपएसिया आणुपवी २. १. त्रिप्रदेशिकाः आनपूर्वी २. शिक आनुपूर्वी २. परमागुपुद्गल अनानुपूर्वी परमाणुपोग्गला अणाणुपुब्धी ३. परमाणपुद्गला: अनानपूर्वी ३. ३. द्विप्रदेशिक अवक्तव्य अथवा ४. त्रिप्रदेशिक दुपएसिया अवत्तव्वए अहवा ४. द्विप्रदेशिका: अवक्तव्यकम् अथवा ४. और परमाणुपुद्गल, आनुपूर्वी और अनानु Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई पूर्वी अथवा ५. त्रिप्रदेशिक और द्विप्रदेशिक, आनुपूर्वी और अवक्तव्य अथवा ६. परमाणु पुद्गल और द्विप्रदेशिक, आनुपूर्वी और अवक्तव्य अथवा ७. त्रिप्रदेशिक, परमाणुपुद्गल और द्विप्रदेशिक, आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्य । इस प्रकार ये सात विकल्प होते हैं। वह संग्रहनय सम्मत भंगोपदर्शन ६२ तिपएसिया य परमाणपोग्गलाय त्रिप्रदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलाश्च आणुपुवो य अणाणुपुत्वो य अहवा आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च अथवा ५. ५. तिपएसिया य दुपएसिया य त्रिप्रदेशिकाश्च द्विप्रदेशिकाश्च आनुआणुपुब्वी य अवत्तव्वए य अहवा पूर्वी च अवक्तव्यकञ्च अथवा ६. ६. परमाणुपोग्गला य दुपएसियाय परमाणुपुद्गलाश्च द्विप्रदेशिकाश्च अणाणुपुत्वी य अवत्तव्वए य अनानुतूर्वी च अवक्तव्यकञ्च अथवा अहवा ७. तिपएसिया य परमाणु- ७. त्रिप्रदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलाश्च पोग्गला य दुपएसिया य आणु- द्विप्रदेशिकाश्च आनुपूर्वी च अनानुपुवी य अणाणुपुत्वो य अवत्तव्वए। पूर्वी च अवक्तव्यकञ्च । (एवं एते य।[एवं एए सत्तभंगा?] 1 से तं सप्तभङ्गाः ?)। तदेतत् संग्रहस्य संगहस्स भंगोवदंसणया ॥ भङ्गोपदर्शनम् । १३७. से कि तं समोयारे ?समोयारे अथ कि स समवतार: ? समव- संगहास आणुपुस्विदव्वाइं कहि तार:-संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि समोयरंति ? कि आणुपुग्विदम्वेहि क्व समवतरन्ति ? किम् आनुपूर्वीसमोयरंति ? अणाणुपुग्विदन्वेहि द्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानुपूर्वीसमोयरंति ? अवत्तव्वगदम्वेहि द्रव्येषु समवतरन्ति ? अवक्तव्यकसमोयरंति ? संगहस्स आणुपुन्वि- द्रव्येषु समवतरन्ति ? संग्रहस्य आनुदवाइं आणपव्विदन्वेहि समोय. पूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येषु समवरंति, नो अणाणुपुग्विदन्वेहि तरन्ति, नो अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवसमोयरंति, नो अवतव्वगदवेहि तरन्ति, नो अवक्तव्यकद्रव्येषु समवसमायरंति । एवं दोणि वि सट्टाणे तरन्ति । एवं द्वे अपि स्वस्थाने समोयरंत । से तं समोयारे॥ समवतरतः। स एष समवतारः। १३७. वह समवतार क्या है? समवतार--संग्रहनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य कहां समवतरित होते हैं- क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अनानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अथवा अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? संग्रहनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं, अनानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित नहीं होते, अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित नहीं होते । इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी अपने-अपने स्थान में समवतरित होते हैं। वह समवतार १३८. से कि तं अणुगमे ? अणुगमे अथ किस अनुगम: ? अनुगमः १३८. वह अनुगम क्या है ? अट्टविहे पण्णत्त, तं जहा - अष्टविध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-' अनुगम के आठ प्रकार प्रज्ञप्त हैं- जैसे गाहागाथा १. सत्पदप्ररूपण, २. द्रव्यप्रमाण, ३. क्षेत्र, १. संतपयपरूवणया २. दव्वपमाणं १. सत्पदप्ररूपणा २. द्रव्यप्रमाणं ४. स्पर्शना, ५. काल, ६. अन्तर, ७. भाग, च ३. खेत ४. फुसणा य । च ३. क्षेत्र ४. स्पर्शना च । ८. भाव । अल्पबहुत्व नहीं होता।" ५. कालो य ६. अंतरं ७. भाग ५. कालश्च ६. अन्तरं ७. भागः ८. भाव अप्पाबहुं नत्थि ॥१॥ ८. भाव: अल्पबहु नास्ति ॥१॥ १३६. संगहस्स आणुपुत्विदन्वाइं कि संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि १३९. संग्रहनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं? अत्थि ? नस्थि ? नियमा अत्थि। किम् अस्ति ? नास्ति ? नियमात् वे नियमतः हैं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी एवं दोणि वि॥ अस्ति । एवं द्वे अपि। और अवक्तव्य द्रव्य भी नियमतः हैं। १४०. संगहस्स आणपग्विदन्वाइं कि संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि किं १४०. संग्रहनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य संख्येय हैं ? संखेज्जाइं? असंखेज्जाई? संख्येयानि ? असंख्ययानि ? अन- असंख्येय हैं ? अथवा अनन्त हैं ? अणंताई? नो संखेज्जाइंनो तानि ? नो संख्येयानि नो असंख्ये- वे संख्येय नहीं हैं, असंख्येय नहीं हैं और असंखेज्जाई नो अंणताई, नियमा यानि नो अनन्तानि, नियमात् एकः अनन्त भी नहीं हैं, वे नियमतः एक राशि एगो रासी। एवं दोणि वि॥ राशि । एवं द्वे अपि। है। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों की भी नियमतः एक राशि है। Jain Education Intemational Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा प्रकरण : सूत्र १३७-१४५ १४१. संगहस्स आणुपव्विदव्वाइं संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि १४१. संग्रहनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य लोक के लोगस्त कति भागे होज्जा–कि लोकस्य कति भागे भवन्ति-कि कितने भाग में होते हैं - क्या संख्यातवें भाग संखेज्जइभागे होज्जा ? असंखे- संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्ये- मे होते है ? असंख्यातवें भाग में होते हैं ? संख्येय ज्जइभागे होज्जा? संखेज्जेसु यतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागों में होते हैं ? असंख्येय भागों में होते भागेसु होज्जा? असंखेज्जेसु भागे भागेषु भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु है ? अथवा समूचे लोक में होते हैं ? होज्जा? सव्वलोए होज्जा ? नो भवन्ति ? सर्वलोके भवन्ति ? नो । __ संग्रहनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य संख्यातवें संखेज्जइभागे होज्जा, नो असंखे- संख्येयतमभागे भवन्ति, नो असंख्ये- भाग में नहीं होते, असंख्यातवें भाग में नहीं ज्जइभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु यतमभागे भवन्ति, नो संख्येयेषु होते, संख्येय भागों में नहीं होते, असंख्येय भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेषु भवन्ति, नो असंख्येयेषु भागों में नहीं होते, वे नियमतः समूचे लोक में भागेस होज्जा, नियमा सबलोए भागेष भवन्ति, नियमात सर्वलोके होते हैं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य होज्जा। एवं दोणि वि ॥ भवन्ति । एवं द्वे अपि। द्रव्य भी नियमत: समूचे लोक में होते हैं। १४२. संगहस्स आणपश्विदव्व इं संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि १४२. संग्रहनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य लोक के लोगस्स कति भागं फुसंति कि लोकस्य कतिभागं स्पृशन्ति -कि कितने भाग का स्पर्श करते हैं- क्या संखेज्जइभागं फुसंति ? असंखे- संख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? असंख्येय- संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? ज्जइभागं फुसंति ? संखेज्जे भागे तमभागं स्पृशन्ति ? संख्येयान् भागान् असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? फुसंति ? असंखेज्जे भागे फुसंति ? स्पृशन्ति ? असंख्येयान् भागान् संख्येय भागों का स्पर्श करते हैं ? असंख्येय सव्वलोगं फुसंति ? नो संखेज्ज इ- स्पृशन्ति ? सर्वलोकं स्पृशन्ति ? नो भागों का स्पर्श करते हैं ? अथवा समूचे लोक भार्ग संति, नो असंखेज्जइभाग संख्येयतममागं स्पृशन्ति, नो असंख्येय- का स्पर्श करते हैं? फूसंति, नो संखेज्जे भागे फुसंति, तममागं स्पृशन्ति, नो संख्येयान् वे संख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करते, नो असंखेज्जे भागे फुसंति, नियमा भागान् स्पृशन्ति, नो असंख्येयान् असंख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करते, सव्वलोगं फुसंति । एवं दोणि भागान् स्पृशन्ति, नियमात् सर्वलोकं संख्येय भागों का स्पर्श नहीं करते, असंख्येय वि॥ स्पशन्ति । एवं द्वे अपि। भागों का स्पर्श नहीं करते, वे नियमतः समूचे लोक का स्पर्श करते हैं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी नियमतः समूचे लोक का स्पर्श करते हैं । १४३. संगहस्स आणपतिवदव्वाई संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि १४३. संग्रहनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य काल की कालओ केवच्चिरहोंति ? सव्वद्धा। कालतः किच्चिरं भवन्ति ? सर्वा- अपेक्षा से कितने समय तक होते हैं ? एवं दोणि वि॥ ध्यानम् । एवं द्वे अपि। ___ वे सर्वकाल में होते हैं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी सर्वकाल में होते हैं। १४४. संगहस्स आणुपुग्विदव्वाणं संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणाम् १४४. संग्रहनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्यों में कालकृत अंतरं कालओ केविरं होइ? अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? अन्तर कितना होता है ? नत्थि अंतरं । एवं दोणि वि॥ नास्ति अन्तरम् । एवं द्वे अपि । उनमें कालकृत अन्तर नहीं होता। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों में भी कालकृत अन्तर नहीं होता। १४५. संगहस्स आणुपुग्विदव्वाइं संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि शेष- १४५. संग्रहनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों सेसदव्वाणं कइ भागे होज्जा-कि द्रव्याणां कति भागे भवन्ति-कि के कितने भाग में होते हैं- क्या संख्यातवें संखेज्जइभागे होज्जा? असंखे- संम्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येय- भाग में होते हैं ? असंख्यातवें भाग में होते ज्जइभागे होज्जा ? संखज्जेसु तभभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु हैं ?संख्येय भागों में होते हैं ? अथवा असंख्येय भागेसु होज्जा? असंखज्जेसु भागेसु भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु भव- भागों में होते हैं ? Jain Education Intemational Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ - अणुओगदाराई होज्जा ?नो संखेज्जइभागे होज्जा, न्ति ? नो संख्येयतमभागे भवन्ति, वे संख्यातवें भाग में नहीं होते, असंख्यातवें नो असंखेज्जइभागे होज्जा, नो नो असंख्येयतममागे भवन्ति, नो भाग में नहीं होते, संख्येय भागों में नहीं संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो असं- होते, असंख्येय भागों में नहीं होते, वे नियमतः असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा ख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नियमात् एक तिहाई भाग में होते हैं। इसी प्रकार तिभागे होज्जा। एवं दोणि त्रिभागे भवन्ति । एवं वे अपि । अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी एक वि ॥ तिहाई भाग में होते हैं ।२५ १४६. संगहस्स आणुपुग्विदव्वाई संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि कतर- १४६. संग्रहनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य किस भाव कयरम्मि भावे होज्जा ? नियमा स्मिन् भावे भवन्ति ? नियमात में होते हैं ? साइपारिणामिए भावे होज्जा। सादिपारिणामिके भावे भवन्ति । एवं वे नियमतः सादि-पारिणामिक भाव में एवं दोणि वि। अप्पाबहुं नस्थि। अपि । अल्पबहु नास्ति । स एष होते हैं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और से तं अणुगमे । से तं संगहस्स अनुगमः । सा एषा संग्रहस्य अनौप- अवक्तव्य द्रव्य भी नियमतः सादि-पारिणाअणोवणिहिया दव्याणपुवी। से निधिको द्रव्यानुपूर्वी। सा एषा मिक भाव में होते हैं। इनमें अल्पबहुत्व नहीं तं अणोवणिहिया दव्वाणुपुवी ॥ अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी। होता । वह अनुगम है । वह संग्रह की अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी हैं। वह अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी है। ओवणिहिय-दव्वाणुपुत्वी पदं औपनिधिको-द्रव्यानुपूर्वी-पदम् औपनिधिकी-द्रव्यानुपूर्वी-पद १४७. से कि तं ओवणिहिया दव्वाणु- अथ किं सा औपनिधिको द्रव्या- १४७. वह औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी क्या है ? पुवी ? ओवणिहिया दव्वाणु- नुपूर्वी ? औपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के तीन प्रकार पुवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानु- प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और पुव्वाणुपुवी पच्छाणुपुत्वी अणाणु- पूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी ॥ अनानुपूर्वी । पुवी। १४८.से कि तं पुवाणुपुवी? पुवाणु- अथ कि सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वा- १४८. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? पुवी-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थि- नुपूर्वी-धर्मास्तिकाय: अधर्मास्ति- पूर्वानुपूर्वी-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काए आगासस्थिकाए जीवस्थिकाए। काय: आकाशास्तिकाय: जीवास्ति- आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलापोग्गलत्थिकाए अद्धासभए। से तं कायः पुद्गलास्तिकाय: अध्वासमयः । स्तिकाय और अध्वासमय । वह पूर्वानुपूर्वी पुवाणुपुब्बी॥ सा एषा पूर्वानुपूर्वी। १४६. से कि तं पच्छाणुपुवी? अय कि सा पश्चानुपूर्वी ? १४९. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? पच्छाणुपुवी-अद्धासमए पोग्गल- पश्चानुपूर्वी -अध्वासमयः पुद्गला- पश्चानुपूर्वी -- अध्वासमय, पुद्गलास्तिकाय, त्यिकाए जोवस्थिकाए आगासत्थि- स्तिकायः जीवास्तिकायः आकाशा- जीवास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अधर्मास्तिकाए अधम्मस्थिकाए धम्मत्थि- स्तिकायः अधर्मास्तिकायः धर्मास्ति- काय और धर्मास्तिकाय । वह पश्चानुपूर्वी काए। से तं पच्छाणुपुत्वो॥ कायः । सा एषा पश्चानुपूर्वी । १५०.से कि तं अणाणपव्वी ? अथ कि सा अनानुपूर्वी ? अनानु- १५०. वह अनानपर्वी क्या है ? अणाणपुब्बी-एयाए चेव एगाइ- पूर्वी-एतया चैव एकादिकया एको अनानुपूर्वी -- एक से प्रारम्भ कर एक-एक याए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए तरिकया षड्गच्छगतया श्रेण्या अन्यो की वृद्धि करें। इस प्रकार छह तक की संख्या सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवणो। न्याभ्यासः द्विरूपोनः । सा एषा का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार से तं अणाणुपुवी॥ अनानुपूर्वी। करें। इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो, वह अनानुपूर्वी है। Jain Education Intemational Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा प्रकरण : सूत्र १४६ - १५४ १५१ अरवा ओवणहिया दव्वाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा वाणपृथ्वी पछाणपुथ्यो अमाणुपुथ्वी ॥ १५२ से कि तं पुरवावी? पुण्यापुण्वी परमाणुयोग्यले दुपए सिए तिपएसिए जाव दसपएसिए संखेज्जपए लिए असंखेन्जप लिए अनंतपएसए से तं पुच्दाणु पुव्वी ॥ । १५३. से किं तं पच्छाणुपुथ्वी ? पच्छाणुपुवी -- अनंतपएसिए असंलेज्जपएसए संजयएसिए दसपए लिए जाव पिएसिए टुपएसिए परम पोले । से तं पच्छावी ॥ १५४. से कि तं अष्णाणुपुथ्वी ? अणाणुपृथ्वी- एयाए चैव एमाइयाए एगुलरियाए अनंतगच्छगयाए सेडीए अण्णमण्णमासो दुरूवणो । से तं अणाणपथ्वी से तं ओवणिहिया दव्वाणपृथ्वी से । तं जाणगसरीर भवियसरीरवतिरिता दयाणुपुच्चो से तं नोआगमओ दव्वाणुपुव्वो । से तं दवावी ॥ अथवा औपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा पूर्वानु पूर्वी परवानुपूर्वी अनापूर्वी । अथ कि सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु पूर्वी परमाणुपुदगलः द्विप्रवेशिका त्रिप्रदेशिकः यावत् दशप्रदेशिकः संख्येयप्रदेशिकः असंख्येयप्रदेशिकः अनतप्रदेशिकः स एषा पूर्वानु । पूर्वी । अथ कि सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानपूर्वी अनादेशिक असंस्पेयप्रदेशिक संदेश द संध्येयप्रदेशिक : प्रवेशिकः यावत् त्रिप्रवेशिकः द्विप्रदे शिकः परमाणुपुद्गलः । सा एषा पश्चानुपूर्वी । : - असा जनानपूर्वी ? अनापूर्वी एतया चैत्र एकादिया एकोत्तरिकया अनन्तगच्छ्रगतया श्रेण्या अन्योन्याभ्यासः द्विरूपोनः । सा एषा अनानुपूर्वी सा एषा औपनिधिकी द्रयानुपूर्वी सा एषा शरीरज्ञशरीरमध्यशरीर-व्यतिरिक्ताध्यानुपूर्वी सा एषा नोआगमतो द्रव्यानुपूर्वी । स एषा त्यापूर्वी ॥ । । ६५ १५१. अथवा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । १५२. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? , पूर्वानुपूर्वी परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक, विदेशिकवादप्रदेशिक संख्येयप्रदेशिक, असंख्येयप्रदेशिक और अनन्तप्रदेशिक । वह पूर्वानुपूर्वी है । १५२. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? पश्चानुपूर्वी अनन्तप्रदेशिक असंख्येयप्रदेशिक संख्येयप्रदेशिक, दसप्रदेशिक सम्वत् त्रिप्रदेशिक, द्विप्रदेशिक और परमाणुपुद्गल । वह पश्चानुपूर्वी है । १५४. वह अनानुपूर्वी क्या है ? अनानुपूर्वी -- एक से प्रारम्भ कर एक-एक की वृद्धि करें। इस प्रकार अनन्त की संख्या का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार करें। इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो, वह अनानुपूर्वी है । वह औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी है । वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी है । वह नोआगमतः द्रव्यानुपूर्वी है। वह द्रानुपूर्वी है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. (सूत्र १०० ) ७६ वें सूत्र में उपक्रम के छह प्रकार बतलाए जा चुके हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रकारान्तर से उसके छह प्रकार बतलाए गए हैं। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने उपक्रम के पूर्ववर्ती छह प्रकारों को गुरुभावोपक्रम बतलाया है। प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट विकल्पों को शास्त्रीय भावोपक्रम कहा है।' आचार्य हरिभद्र ने आचार्य जिनभद्रगणि का ही अनुसरण किया है । " उपक्रम के पूर्वोक्त छह प्रकारों को ग्रन्थ का शरीर परामर्श अथवा बहिरंग परामर्श कहा जा सकता है । प्रस्तुत सूत्र में उपक्रम के निर्दिष्ट छह प्रकार शास्त्र की आत्मा का अथवा उसके अन्तरंग का परामर्श करने वाले हैं। १. आनुपूर्वी का विवरण - सूत्र १०१ से २४५ । २. नाम का विवरण सूत्र २४६ से ३६८ । ३. प्रमाण का विवरण – सूत्र ३६९ से ६०४ । ३. (सूत्र १०५ ) टिप्पण सूत्र १०० २. (सूत्र १०१ ) प्रस्तुत सूत्र में आनुपूर्वी के दस प्रकार बतलाए गए हैं। इनमें से नामानुपूर्वी स्वापनानुपूर्वी द्रव्यानुपूर्वी और भावानुपूर्वीये चार आनुपूर्वी के निक्षेपात्मक रूप को प्रस्तुत करने वाले हैं। क्षेत्रानुपूर्वी और कालानुपूर्वी में भी निक्षेप का प्रयोग है। शेष चार प्रकार आनुपूर्वी के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं । अनुपूर्वभाव, आनुपूर्वी, अनुक्रम और अनुपरिपाटी - ये चारों शब्द एकार्थक हैं। तीन प्रदेश आदि वस्तु-संहति से आनुपूर्वी की योजना होती है । पदार्थ संरचना को जानने के लिए यह बहुत उपयोगी सिद्धान्त है । सूत्र १०५ ४. (सूत्र १११) नुपू के दो १. औपनिधिकी 'द्रव्यानुपूर्वी २. अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी । द्रव्य छह होते " धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय और काल' द्रव्यानुपूर्वी का प्रयोजन द्रव्य की संरचना का क्रम और द्रव्य का क्रम बतलाना है, किन्तु यहां द्रव्य की संख्या विवक्षित नहीं है । अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी में पुद्गल द्रव्य की संरचना का क्रम बताया गया है।" औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी में छहों द्रव्यों का क्रम और वैकल्पिक रूप से पुद्गल द्रव्य की संरचना का क्रम बताया गया है । ' सूत्र १११ ४. वक्तव्यता का विवरण सूत्र ६०५ से ६०९ । ५. अर्थाधिकार का विवरण सूत्र ६१० । ६. समवतार का विवरण सूत्र ६११ से ६१७ । सूत्र १०१ १. विभा. ९३९ : गुरुमावोवक्कमणं कयमज्झयणस्स छविहमियाणि । तत्थ पुरवाईसुं इदमज्झयणं २. अहा . ३० यद् वा प्रशस्तो द्विविधः क्रमः शास्त्रभावोपक्रमश्च । समोयारे ॥ गुरुमायोप २. अहा . ३०: अनुपूर्वभाव: आनुपूर्वी अनुक्रमोपरिपाटीति पर्यायाः व्यादिवस्तुसंहतिरिति भावः । ४. नसुअ. १४८ । ५. वही, ११३ से १४६ । ६. वही, १४७ से १५४ । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ४, सू० १००-११४, टि०१-६ ६७ विषय वस्तु का बोध कराने के लिए क्रम की व्यवस्था की जाती है। यह अध्ययन का पहला चरण है। इस चरण को दो दिशाओं में गतिशील बनाया जा सकता है। जहां केवल द्रव्य की क्रम-व्यवस्था समझानी हो वहां द्रव्यानुपूर्वी की औपनिधिकी विधि का प्रयोग किया जाता है। जहां द्रव्यानुपूर्वी का नय के आधार पर विस्तार से बोध कराना हो वहां अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का विवरण मिलता है। शब्द-विमर्श औपनिधिको आचार्य हेमचन्द्र ने अभिधान-चिन्तामणि में निक्षेप, न्यास और उपनिधि को पर्यायवाची बतलाया है।' औपनिधिकी का अर्थ है-विवक्षित अर्थ की पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से स्थापना करना।' आवश्यक के सामायिक आदि छह अध्ययन हैं-उनकी पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से स्थापना की जाती है वह औपनिधिकी आनुपूर्वी कहलाती है। अनौपनिधिकी आनुपूर्वी में क्रम-व्यवस्था प्रधान नहीं होती। सूत्र ११३ ५. (सूत्र ११३) ___ अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी का विस्तार नय-वक्तव्यता के आधार पर होता है।' नैगम और व्यवहार-यह विस्तार का एक कोण है। संग्रहनय-यह विस्तार का दूसरा कोण है। इन दो कोणों के आधार पर अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप समझाया गया है। नय सात हैं। उनका समावेश द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक इन दो नयों में होता है। द्रव्यानुपूर्वी की चर्चा में पर्यायार्थिक नय अपने आप गौण हो जाता है। द्रव्यार्थिक नय के दो भेद हैं-अविशुद्ध और विशुद्ध ।' नैगम और व्यवहारनय अनन्त गुणात्मक परमाणु आदि अनन्त द्रव्यों को स्वीकार करते हैं इसलिए ये अविशुद्ध नय हैं। संग्रहनय उन परमाणु आदि अनन्त द्रव्यों में एकता स्वीकार करता है । यह शुद्ध द्रव्य को स्वीकार करता है इसलिए इसे विशुद्ध माना गया है। सूत्र ११४ ६. (सूत्र ११४) नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। प्रस्तुत सूत्र में नैगम और व्यवहारनय के आधार पर अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी की शिक्षा अथवा व्याख्या पद्धति बतलायी गयी है। उसका पहला अंग है -अर्थपद की प्ररूपणा। सबसे पहले अर्थपद अर्थात् संज्ञा और संज्ञी के संबंध का प्रस्तुतीकरण आवश्यक है। इसके बिना अन्य अङ्गों की कल्पना संभव नहीं। इस शिक्षा अथवा व्याख्या पद्धति का दूसरा अङ्ग है-भङ्गसमुत्कीर्तन । भङ्गसमुत्कीर्तन का अर्थ है-भङ्गों का निर्देश ।' इस शिक्षा अथवा व्याख्या पद्वति का तीसरा अङ्ग है-भङ्गोपदर्शन ।" इसका तात्पर्य है-द्रव्य के साथ भङ्गों की योजना करना । जैसे-त्रिप्रदेशीस्कन्ध-आनुपूर्वी। __ भङ्गसमुत्कीर्तन भङ्गोपदर्शन १. अत्थि आणु पुव्वी १. तिपएसिए आणुपुव्वी २. अत्थि अणाणुपुव्वी २. परमाणुपोग्गले अणाणुपुब्वी ३. अत्थि अवत्तव्वए ३. दुपएसिए अवत्तव्वए। १. अचि. ३१५३४ : निक्षेपोपनिधी न्यासे । ६. अहाव. पृ. ३१ : द्रव्यास्तिकोप्यौघतो विभेद:-अविशुद्धो २. अहाव. पृ. ३१: अधिकृताध्ययनपूर्वानुपादिरचनाश्रय विशुद्धश्च । प्रस्तारोपयोगिनी औपनिधिकोत्युच्यते । ७. नसुअ. ११५। ३. अहाव. पृ. ३१: याऽसावनोपनिधिको सा नयवक्तव्यता- ८. (क) अहाव. पृ. ३१ : संज्ञासंजिसम्बन्धप्ररूपणेत्यर्थः । अयणात् द्रव्यास्तिकनयमतेन द्विविधा प्रज्ञप्ता। (ख) अमव. प. ४८ : संज्ञासंजिसम्बन्धकथनमात्रम् । ४. नसुअ. ११४ से १३० । ९. नसुअ. ११७॥ ५. वही, १३१ से १४६ । १०. वही, ११९ । Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई शिक्षा या व्याख्यापद्धति का चौथा अंग है-समवतार। समवतार अर्थात् अपनी जाति में होने वाला अंतर्भाव या अवतरण ।' अविरुद्ध अवतरण अपनी जाति में ही होता है। आनुपूर्वी द्रव्यों का समवतार आनुपूर्वी द्रव्यों में ही होता है, अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों में नहीं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी द्रव्यों का समवतार अनानुपूर्वी द्रव्यों में तथा अवक्तव्य द्रव्यों का समवतार अवक्तव्य द्रव्यों में होता है। __ शिक्षा अथवा व्याख्या पद्धति का पांचवां अङ्ग है-अनुगम। अनुगम का अर्थ है-आनुपूर्वी आदि विवेच्य विषयों की सत्, द्रव्य, क्षेत्र आदि अनेक कोणों से व्याख्या करना। सूत्र ११५ ७. त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी (तिपएसिए आणुपव्वी) आनुपूर्वी के लिए कम से कम तीन प्रदेश (तीन अवयव) अपेक्षित हैं। दो अवयवों में आनुपूर्वी अथवा क्रमयोजना संभव नहीं। जिस वस्तु में आदि, मध्य और अन्त-ये तीन होते हैं, उसी में क्रम की व्यवस्था बनती है। द्विप्रदेशी स्कन्ध में अन्तिम परमाणु की अपेक्षा प्रथम परमाणु आदि है और प्रथम की अपेक्षा दूसरा परमाणु अन्तिम है। जिससे पहले कोई नहीं है वह आदि है। जिसके पहले कोई है पर बाद में नहीं है वह अन्तिम होता है। इसके बीच में एक मध्यवर्ती की अपेक्षा रहती है जो इनके आदित्व और अन्तत्व को अपना साक्ष्य देता है। अतः आनुपूर्वी के लिए कम से कम त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होना आवश्यक है।' ८. परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी (परमाणुपोग्गले अणाणपुव्वी) एक परमाणुपुद्गल में आनुपूर्वी (क्रम) नहीं होती। आनुपूर्वी वहां होती है जहां कम से कम तीन अवयव हों-आदि, मध्य और अन्त हो। जहां एक ही वस्तु हो वहां क्रम-उत्क्रम का प्रश्न ही नहीं उठता, अतः परमाणु पुद्गल अनानुपूर्वी है। इसमें पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी दोनों ही नहीं होती है।' ९.द्विप्रदेशिक अवक्तव्य (दुपएसिए अवत्तव्वए) द्विप्रदेशिक द्रव्य 'अवक्तव्य' कहलाता है। इस द्रव्य के दो प्रदेशों में आदि, अन्त का व्यवहार सापेक्ष है। मध्यवर्ती द्रव्य की अपेक्षा आदि, अन्त मुख्य होते हैं। मध्य भाग ही नहीं होगा तो आदि और अन्त का आधार क्या होगा? दो प्रदेशों में आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी दोनों घटित नहीं होती। इसलिए इन दोनों की अपेक्षा वह अवक्तव्य है। क्रम की दृष्टि से पहले अनानुपूर्वी, फिर अवक्तव्य और फिर आनुपूर्वी होती है। फिर भी विषय की बहुलता और अल्पता के आधार पर यह क्रम-भेद हुआ है ऐसा अनुमान किया जा सकता है। आनुपूर्वी द्रव्य अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों से अधिक हैं। अनानुपूर्वी द्रव्य अल्प और अवक्तव्य द्रव्य अल्पतर हैं। १०. त्रिप्रदेशिक आनुपूवियां (तिपएसिया आणुपुवीओ) तीन प्रदेश वाली आनुपूर्वी और तीन प्रदेश वाली आनुपूर्वियां इन दोनों में पहला पद एकवचनान्त तथा दूसरा पद बहुवचनान्त है। एकवचनान्त पद एक और बहुवचनान्त पद अनेक द्रव्यों का सूचक है। नैगम और व्यवहारनय भेद को मान्य करते हैं इसलिए आनुपूर्वी के बहुवचन का प्रयोग किया गया है। १. (क) नसुअ. १२०। (ख) अहाव. पृ. ३२: समवतार:-इहानुपूर्वीद्रव्याणां स्वस्थानपरस्थानसमवतारान्वेषणाप्रकारः। २. (क) अहावृ. पृ. ३२ : आनुपूर्व्यादीनामेव सत्पदप्ररूपणा दिभिरनुयोगद्वारैरनेकधाऽनुगमनं अनुगमः । (ख) अमवृ. प. ४८। ३. अहाव. पृ. ३२ : सम्बन्धिशब्दा हते परस्परसापेक्षाः प्रवर्तन्त इति यत्रषो मुख्यो व्यपदेश्यव्यपदेशकभावोऽस्ति अयमस्यादिरयमस्यान्त इति तत्रानुपूर्वीव्यपदेश इति, त्रिप्रदेशादिषु सम्भवति नान्यत्रेति ।। ४. अहाव. पृ. ३२: यः पुनरसंसक्त रूपं केनचिद् वस्त्वन्तरेण शुद्ध एव परमाणुस्तस्य द्रव्यतः अनवयवत्वात् आविमध्यावसानत्वाभावात् अनानुपूर्वीत्वम् । ५. अहावृ. पृ. ३२ : यस्तु द्विप्रदेशिक: स्कन्धस्तस्याप्याद्यन्तव्यपदेश: परस्परापेक्षयाऽस्तीतिकृत्वा अनानुपूवित्वमशक्यं प्रतिपत्तुं, अयान पूवित्वं प्रसक्त तदपि चावधिभूतवस्तुरूपस्यासंभवात् अपरिपूर्णत्वात् न शक्यते वक्तुमिति, उमाभ्यामवक्तव्यत्वात् अवक्तव्यकमुच्यते । ६. वही, पृ. ३२,३३ : आनुपूर्वीद्रव्यबहुत्वज्ञापनार्थ स्थान बहुजापनार्थ चादावानुपूा उपन्यासः, ततोऽल्पतरखव्यस्वादवक्तव्यकस्येति। Jain Education Intemational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ४, सू० ११५-१२१, टि०७-१२ ४००० सूत्र ११७ ११. (सूत्र ११७) प्रस्तुत सूत्र में नैगम और व्यवहार सम्मत आनुपूर्वी आदि द्रव्यों के एकवचन, बहुवचन तथा असंयोगिक. द्विकसंयोगी तथा त्रिसंयोगी भंगों का वर्णन किया गया है, वे कुल २६ होते हैं । एकवचनान्त भंग१. आनुपूर्वी १ २० २. अनानुपूर्वी १ ० ३. अवक्तव्यक १ .. बहुवचनान्त भंग४. आनुपूर्वियां ३ ५. अनानुपूर्वियां ३ ६. अवक्तव्यक ३ द्विकसंयोगी भंग७. आनुपूर्वी १ अनानुपूर्वी १ ८. आनुपूर्वी १ अनानुपूर्वियां ३ ९. आनुपूर्वियां ३ अनानुपूर्वी १ १० आनुपूर्वियां ३ अनानुपूर्वियां ३ ११. आनुपूर्वी १ अवक्तव्यक १ १२. आनुपूर्वी १ अवक्तव्यक ३ १३. आनुपूर्वियां ३ अवक्तव्यक १ १४. आनुपूवियां ३ अवक्तव्यक ३ १५. अनानुपूर्वी १ अवक्तव्यक १६. अनानुपूर्वी १ अवक्तव्यक३ १७. अनानुपूर्वियां ३ अवक्तव्यक १ १८. अनानुपूवियां ३ अवक्तव्यक ३ त्रिक संयोगी भंग१९. आनु० १ अना०१ अव०१:० २०. आनु०१ अना०१ अव०३ २१. आनु०१ अना० ३ अव०१ २२. आनु० १ अना० ३ अव०३ २३. आनु० ३ अना० १ अव०१ २४. आनु० ३ अना० १ अव०३ २५. आनु० ३ अना०३ अव०१० २६. आनु० ३ अना० ३ अव०३० ०००० ० ० ००० ० ० ०००००००० ० ० ०००००००० ० ० ० ०००००००००००००० ० ० ० ० ० ०००००००० ० ० ० सूत्र १२१ १२. (सूत्र १२१) किसी भी वस्तु को जानने के लिए जिन न्यूनतम पक्षों को जानना आवश्यक है, प्रस्तुत सूत्र में उनका निर्देश किया गया है। सर्वप्रथम वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व पर विचार करना जरूरी है। यदि वह सत् है, उसका अस्तित्व है तो फिर उसके द्रव्यप्रमाण पर विचार करना आवश्यक है। द्रव्यप्रमाण जानने पर उसके आधार-क्षेत्र और स्पर्शना को जानना आवश्यक है। क्षेत्रज्ञान के पश्चात् कालावधि का ज्ञान जरूरी है। द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। स्वभाव का परिवर्तन होता रहता है इसलिए एक स्वभाव को छोड़कर वह दूसरे स्वभाव में चला जाता है और कुछ समय के बाद पुनः उस पूर्व स्वभाव में चला जाता हैदोनों स्वभावों का अन्तर-काल जानना बहुत उपयोगी है। हमारे लोक में केवल एक ही द्रव्य नहीं है इसलिए यह विचार भी Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अणुओगदाराई आवश्यक है कि वह शेष द्रव्यों के कितने भाग में अवस्थित है। भाव से उसके बदलते हुए स्वभाव का बोध होता है। अतः वर्तमान में वह जिस भाव में विद्यमान है इसका अवबोध भी बहुत मूल्यवान है। कौन द्रव्य किस द्रव्य से अल्प या अधिक है-यह भी उसके परिचय का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। शब्द-विमर्श सत्पदप्ररूपणा द्रव्य के अस्तित्व और नास्तित्व का विचार करना । विवक्षित पदार्थ घट, पट आदि की भांति सत् है या खर-विषाण अथवा आकाश-कुसुम की भांति असत् है, इस प्रकार का निरूपण करना।' द्रव्यप्रमाण विवक्षित पदार्थ की संख्या का निरूपण करना। क्षेत्र विवक्षित पदार्थ के आधारभूत क्षेत्र का निरूपण करना।' स्पर्शना विवक्षित पदार्थ द्वारा किए गए आकाश-प्रदेशों के स्पर्शन का निरूपण करना। क्षेत्र पदार्थ द्वारा अवगाहित मात्र होता है । और स्पर्शना में अनन्तरित आकाश-प्रदेशों का भी ग्रहण होता है। जैसे-परमाणु द्वारा अवगाहित क्षेत्र एक प्रदेश है पर वह स्पर्श सात आकाश प्रदेशों का करता है। चार दिशाओं में चार प्रदेश और ऊर्ध्व व अधः दो दिशाओं में दो प्रदेश तथा एक प्रदेश वह जिसमें वह अवगाढ़ है-इस प्रकार स्पर्शना सात प्रदेश की हो जाती है। सप्त-प्रदेश की स्पर्शना का उल्लेख भगवती में भी मिलता है। काल विवक्षित पदार्थ की कालावधि का निरूपण करना।' अन्तर कोई पदार्थ अपने विवक्षित स्वरूप का परित्याग कर पुनः उसी स्वरूप को प्राप्त करता है. उसके बीच का समय अन्तर या विहरकाल कहलाता है। जैसे- त्रिप्रदेशी स्कन्ध अपने रूप को छोड़कर पुन: त्रिप्रदेशी स्कन्ध के रूप में परिणत होता है। इन दोनों पर्यायों के बीच का काल अन्तर काल है।' भाग विवक्षित पदार्थ शेष पदार्थों के कितने भाग में है, इसका निरूपण करना।' तत्त्वार्थसूत्र की मार्गणाओं में भाग का उल्लेख नहीं है। कषायपाहुड़ में भाग के स्थान पर भागाभाग का उल्लेख है।" भाव विवक्षित पदार्थ में औदयिक औपशमिक आदि कितने भाव होते हैं, इसका निरूपण करना।" १. अमव. प. ५४ : सदर्थविषयं पदं सत्पदं । तस्य प्ररूपणं प्रज्ञापनं सत्पदप्ररूपणं तस्य भावः सत्पदप्ररूपणता। इह स्तम्भकम्मादीनि पदानि सदर्थविषयाणि दृश्यन्ते, खरशृगव्योमकुसुमादीनि त्वसदर्थविषयाणि। २. वही, द्रव्याणां प्रमाणं-संख्या-स्वरूपं प्ररूपणीयम् । ३. वही, क्षेत्रं- तदाधारस्वरूपं प्ररूपणीयम् । ४. अहावृ. पृ. ३५ : क्षेत्रमवगाहमात्रं स्पर्शना तु स्वचतसृष्वपि दिक्षु तबहिरपि वेदितव्येति, यथेह परमाणोरेकप्रदेश क्षेत्र सप्तप्रदेशा स्पर्शनेति । ५. अशुभ. १३३६१-६५। ६. अमवृ. ५. ५४ : कालश्च तत स्थितिलक्षणो वक्तव्यः । ७. वही, अन्तरं विवक्षितस्वमावपरित्यागे सति पुनस्तद्भाव प्राप्तिविरहलक्षणं। ८. वही, शेषद्रव्याणां कतिभागे वर्तन्ते इत्यादि लक्षणो भागः। ९. तसू. १।८ : सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरमावाल्पबहुत्वैश्च । १०.कपा. पृ. ३९२। ११. अहाव. पृ. ३४ : आनुपूर्याविद्रव्याणि कस्मिन् भावे वर्तन्ते इत्येवंरूपो भावः। Jain Education Intemational Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ४ ०१२३, १२४, टि० १३-१४ अल्पबहुत्व करना।" आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की परस्पर द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ और उभयार्थ की अपेक्षा से अल्पता और बहुलता का निरूपण कषाय- पाहुड़ में अनुगम के इन सभी प्रकारों का ओघ और आदेश – इन दो दृष्टिकोणों से विचार किया गया है।" सूत्र १२३ १३. (सूत्र १२३ ) आनुपूर्वी आदि द्रव्य अनन्त होते हैं और लोक के प्रदेश असंख्य हैं। असंख्यप्रदेशात्मक लोकाकाश में उनका समावेश कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का समाधान सूक्ष्मता के आधार पर किया गया है ? परिणति दो प्रकार की होती है - सूक्ष्म और स्थूल । सूक्ष्म परिणति के कारण अनन्तप्रदेशात्मक अनन्त द्रव्य भी असंख्यप्रदेशात्मक लोक में समा जाते हैं। क्षमता की विलक्षणता भी इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण है । सूत्र १२४ १४. सम्पूर्ण लोक में हो सकता है (सालोए वा होज्जा) अचित्त-महास्कन्ध स्वाभाविक परिणमन से होता है । वह संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। उसकी अपेक्षा एक द्रव्य को सर्वलोकव्यापी कहा गया है। जिनभद्रगणि ने केवली समुद्घात के समय होने वाले महास्कन्ध के संदर्भ में अचित्त शब्द की मीमांसा की है । उनके अनुसार केवली समुद्घात के समय होनेवाला कर्मपुलों का महास्कन्ध जीवाधिष्ठित होने के कारण सचित होता है।* हेमचन्द्र ने इन दोनों महास्कन्धों का विशद तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है । अति महास्कन्ध सम्पूर्ण लोकव्यापी स्वभाव से परिगत तिरछे लोक में असंख्य-योजन प्रमाण, अनियतकाल की स्थिति वाला वृत्त, ऊंची और नीची दिशा में चौदह रज्जु परिमाण, सूक्ष्म पुद्गलों के परिणाम से परिणत होता है। प्रथम समय में उसकी आकृति दण्डाकार होती है, द्वितीय समय में कपाटाकार होती है, तृतीय समय में वह मंथनी के आकार का होता है और चतुर्थ समय में वह पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है, पांचवें, छठे और सातवें समय में उसकी प्रतिलोम क्रिया होती है, आठ समय के पश्चात् वह विनष्ट हो जाता है।" १५. नाना द्रव्यों की अपेक्षा से नियमतः सर्वलोक में होते हैं (नाणादध्वाई पटुच्च नियमा सम्बलोए होना) प्रत्येक आकाशप्रदेश में अनन्त आनुपूर्वी द्रव्य उपलब्ध होते हैं। इसके दो हेतु हैं - १. अमवृ. प. ५४ : अल्पबहुत्वं चानुपूर्व्यादिद्र त्र्याणां द्रव्यार्थप्रदेशार्थ पदार्थताश्रयमेन परस्परं स्तोकस्यचिन्तालक्षणं प्ररूपणीयम् । २. कपा. पृ. ३७७ से ३९७ । ३. पू. ३४संदेशात्मकेोऽनन्तामामापूर्वादिद्रव्याणां सूक्ष्मपरिणाम युक्तत्वादवस्थानं भावनीयमीति । ४. अहावृ. प. ३४ : सम्वलोए वा होज्जत्ति यदुक्तं तत्राचितमहास्कंध ः सर्वलोकव्यापकः समयावस्थायी सकललोकप्रमाणोऽवसेयः । ५. विभा. ६४४ : १०१ ६. विमा ६४४ की वृत्ति । ७. (क) अचू. पृ. ३३,३४ । समुग्धायसचितकम्मयोगानन महा पद तत्मानुभावो हो अचितो महाधो ॥ (ख) अहावृ. पृ. ४६ : सीसो पुच्छइदव्वाणुपुविए एवं सम्बलोगावगाइति, कहं पुण महं एव वा भवति ? उच्यते केवलिसमुधात उक्तं चकेवलिउग्धाओ इव समयट्टम पूर रेयति य लोये । अचित्तमहाखंधो वेला इव अतर णियतो य ॥ अतिमहाधी सलोमेसी सलोगमेत्तो वीससापरिणतो भवति, तिरियम संजोयणप्यमाणो अणियतकालठीती वट्टो उद्यमहोबोट्सरम्यमाणो सुमोग्गलपरिणामपरिणओ पदमसमये दंड भवति मिलिए कवाडं तइए मंध करेड चउत्थे लोगपूरणं पंचमादिसमएस पडिलोमं संहारेण असमयते सम्या तस्स बंधन विभासी एस जननिहिवेला इव लोगपूरणरेयकरणेण ठितो लोगपुग्गलाणुभावो, सव्वण्णवयणतो सद्धेतो इत्यलं प्रसंगेन । ८. अहावृ. पृ. ३५, यस्मादेकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे सूक्ष्मपरिणामपरिणतान्यनन्तान्यानुपूर्वीद्रव्याणि विद्यन्ते । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अणुओगदाराई १. आकाश की विचित्र अवगाहक्षमता। २. पुद्गल की सूक्ष्म परिणति । स्थूल जगत् के नियम के अनुसार यह संभव नहीं है किन्तु सूक्ष्म जगत के नियम स्थूल जगत में घटित नहीं होते। १६. एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होता है। (एगबव्वं पडुच्च लोगस्स"असंखेज्जइभागे वा होज्जा) परमाणु एक प्रदेश का ही अवगाहन करता है। द्विप्रदेशी स्कन्ध एक प्रदेश का भी अवगाहन कर सकता है। अधिक से अधिक दो प्रदेशों का अवगाहन कर सकता है। इसलिए अनानुपूर्वी और अबक्तव्य द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में ही अवस्थित होते हैं। सूत्र १२५ १७ स्पर्शना करते हैं (फुसंति) परमाणु एक प्रदेश का अवगाहन करता है। उसकी स्पर्शना आकाश के सात प्रदेशों की होती है। प्रश्न उपस्थित होता है यदि सात आकाश प्रदेशों की स्पर्शना हो तो अणु का एकत्व या अविभाज्यत्व खण्डित हो जाता है, वह निरंश नहीं रह पाता। जिसका दिग्भाग होता है उसका एकत्व युक्तिसंगत नहीं है। इस संशय का समाधान यह है कि स्पर्शना के द्वारा परमाणुओं के अंशों का निर्देश नहीं किया जा रहा है बल्कि उनका आकाश के साथ निरन्तर अथवा अन्तर रहित स्पर्श का निर्देश किया जा रहा है। सूत्र १२६ १८. (सूत्र १२६) दो या तीन परमाणु संयुक्त होकर स्कन्ध का निर्माण करते हैं, वे एक समय तक स्कन्ध रूप में रहकर फिर वियुक्त हो जाते हैं । इस अवस्था में आनुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्य की जघन्य स्थिति एक समय की बनती है। सामान्यतः परमाणु स्कन्ध का कारण माना जाता है। किन्तु अनेकान्त दृष्टि से परमाणु कार्य भी है। अकलंक ने उसकी 'कार्य' अवस्था पर अनेकान्त दृष्टि से विचार किया है। परमाणु स्कन्ध से वियुक्त होकर पुनः परमाणु अवस्था में लौट आता है। इस आधार पर परमाणु के कार्य होने का सिद्धान्त स्थापित हो सकता है। एक परमाणु स्कन्ध से वियुक्त होकर एक समय तक परमाणु रूप में रहता है, फिर संयुक्त होकर स्कन्ध बन जाता है । इस अवस्था में अनानुपूर्वी द्रव्य की जघन्य स्थिति एक समय की बनती है। कोई भी स्कन्ध असंख्यकाल के पश्चात् वर्तमान रूप में नहीं रहता। वह या तो वियुक्त हो जाता है या अन्यान्य परमाणुओं अथवा स्कन्धों से संयुक्त हो जाता है। इस नियम के अनुसार स्कन्ध की एकरूपता असंख्यकाल से अधिक नहीं रह सकती। परमाणु (अनानुपूर्वी द्रव्य) के लिए भी यही नियम है। परमाणु भी असंख्यकाल के पश्चात् अवश्य संयुक्त हो जाता है।' सूत्र १२७ १६. (सूत्र १२७) एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध है। वह त्रिप्रदेशी स्कन्ध के रूप को छोड़कर द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक परमाणु के रूप में चला जाता १. अहावृ. पृ. ३५ : अनानुपूर्वाअवक्तव्यकद्रव्ये तु एक द्रव्यं प्रतीत्यासंख्येयभाग एव वर्तन्ते, न शेषभागेषु, यस्पात्परमाणुरेकप्रदेशावगाढ़ एव भवति, अवक्तव्यक स्वेकप्रदेशाव गाढं द्विप्रदेशावगाढं च । २. (क) अहावृ. पृ. ३५: यथेह परमाणोरेकप्रदेश क्षेत्र सप्तप्रदेशा स्पर्शनेति, स्यादेतत्-एवं सत्यणोरेकत्वं हीयत इति, उक्तं च 'दिग्भागभेदो यस्यास्ति, तस्यैकत्वं न युज्यते' इत्येतदयुक्तं, अभिप्रायापरिज्ञामात्, नह्य शत: स्पर्शना नाम काचिद्, अपि तु नरन्तयमेव स्पर्शनां बूम इति । (ख) अमवृ. प. ५६,५७ । ३. तवा. २ पृ. ४९२ : द यणकादिकार्यप्रादुर्भावनिमित्तत्वात् स्यात्कारणमणः, भेदानुपजायत इति स्यात्कायम् । ४. अहाव. पृ. ३५। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०४, सू० १२५-१२६ टि० १६-२१ १०३ अथवा तीन परमाणु के रूप में चला जाता है। फिर वे तीनों परमाणु मिलकर त्रिप्रदेशी स्कन्ध के रूप में आते हैं। उनके मध्य का कालमान अन्तर कहलाता है।' आनुपूर्वी द्रव्य का जघन्य अन्तरकाल एक समय का बतलाया गया है। त्रिप्रदेशी आदि स्कन्धों से एक परमाणु बिछुड़ गया। एक समय वह स्कन्ध से अलग रहा, वापस उसी स्कन्ध में आ मिला। इस अपेक्षा से जघन्य अन्तरकाल एक समय का हो जाता है। आनुपूर्वी द्रव्य का उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है। एक त्रिप्रदेशी यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध है, उसके परमाणु बिखर गए। वे कभी परमाणु बने रहे, कभी स्कन्ध के साथ मिल गए, इस प्रकार अनेक रूपों का परिवर्तन करते रहे। अनन्तकाल के पश्चात् किसी प्रयोग अथवा स्वभाव से पुनः अपने मूल रूप में आ गए। अनन्तकाल के पश्चात् नियमत: मूल रूप का निर्माण होता है, इस अपेक्षा से उसका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है। अवक्तव्य द्रव्य के लिए भी यही नियम लागू होता है। अनानुपूर्वी द्रव्य का जघन्य अन्तरकाल एक समय है। एक परमाणु किसी अन्य परमाणु (अनानुपूर्वी द्रव्य) या स्कन्ध (आनुपूर्वी या अव्यक्तव्य द्रव्य) के साथ जा मिला। एक समय उस स्थिति में रहकर फिर बिछुड़ गया। इस अपेक्षा से उसका जघन्य अन्तरकाल एक समय का है। अनानुपूर्वी द्रव्य का उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यकाल है। एक परमाणु किसी परमाणु अथवा त्रिप्रदेशी आदि स्कन्धों से संयुक्त हो गया। वह उनके साथ असंख्यकाल तक ही रह सकता है। यह एक सार्वभौम नियम है। असंख्यकाल के पश्चात् उसे परमाणु रूप में लौटना ही होता है। इस अपेक्षा से अनानुपूर्वी द्रव्य का उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यकाल बतलाया गया है। हेमचन्द्र ने इस विषय में व्याख्याप्रज्ञप्ति के नियम का उल्लेख किया है।' व्याख्याप्रज्ञप्ति में पुद्गल की एकरूप विषयक कालावधि का नियम है। गौतम ने पूछा-भंते ! एक परमाण एक परमाणु के रूप में उत्कर्षतः कितने काल तक रह सकता है ? महावीर ने उत्तर दिया-एक परमाणु परमाणु रूप में उत्कर्षतः असंख्यकाल तक रह सकता है इसके पश्चात् उसका रूपान्तरण अनिवार्य है। यही नियम द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक लागू होता है।' सूत्र १२८ २०. (सूत्र १२८) आनुपूर्वी द्रव्य सबसे अधिक हैं। इसलिए वे शेष द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यात भागों में अधिक हैं। अनानुपूर्वी द्रव्य तथा अवक्तव्य द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यों के असंख्यातवें भाग जितने हैं । सूत्र १२९ २१. निश्चित रूप से सादिपारिणामिक (नियमा साइपारिणामिए) पारिणामिक भाव के दो प्रकार होते हैं-सादिपारिणामिक और अनादिपारिणामिक ।' धर्मास्तिकाय आदि जो अमूर्त द्रव्य हैं, वे अनादि पारिणामिक हैं, मूर्त द्रव्यों में सादि पारिणामिक भाव होता है, जैसे-बादल, इन्द्रधनुष आदि। आनुपूर्वी आदि द्रव्य नियमतः सादि पारिणामिक होते हैं क्योंकि इनकी उत्कृष्ट स्थिति असंख्यकाल है। १. अहाव. पृ. ३६ : इह व्यादिस्कन्धास्त्यादिस्कन्धतां विहाय पुनवता कालेन त एव तथा भवंतीत्यसावन्तरम् । २. वही, पृ. ३६,३७ । ३. अमवृ. प.८६ : प्रस्तुतसूत्रे व्याख्याप्रज्ञप्त्यादिषु च परमाणोः पुनः परमाणुभवनेऽसंख्ययरूपस्यैवान्तरकालस्योक्तत्वात् । ४. अंसुभ. ५॥६९ : परमाणुपोग्गले णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । एवं जाव अणंतपएसिओ ॥ १. अहाव. पृ. ३८ : इह परिणाम: द्विविधः-सादिरनादिश्च, तत्र धर्मास्तिकायादिद्रव्यादिष्वनादिपरिणामः रूपिद्रव्येज्वादिमांस्तद्यथा अभ्रेन्द्रधनुरादिपरिणाम इत्येवमवस्थिते सतीद निर्वचनसूत्र ‘णियमा' इत्यादि नियमेन अवश्यं नया सादिपारिणामिके भावे भवन्ति तथा परिणतेरनादित्वाभावाद्, उत्कृष्टतो द्रव्याणां विशिष्टैकपरिणामत्वेनासंख्येयकालस्थितेः । Jain Education Intemational Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अणुओगदाराई सूत्र १३० २२. (सूत्र १३०) अल्पबहुत्व की विवक्षा द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ, द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ इन तीन दृष्टिकोणों से की गई है। द्रव्यार्थता की विवक्षा में एक-एक आनुपूर्वी द्रव्य की गणना होती है। प्रदेशार्थता की विवक्षा में प्रदेशों की गणना होती है, द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता की विवक्षा में द्रव्य और प्रदेश दोनों की गणना होती है। अवक्तव्य द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा सबसे अल्प हैं। इसका हेतु यह है-द्विप्रदेशी स्कन्धों को संघात और भेद के निमित्त कम मिलते हैं । इसलिए ये सबसे कम होते हैं। अनानुपूर्वी द्रव्य इनकी अपेक्षा विशेषाधिक होते हैं। इसका हेतु यह है कि परमाणु बहुतर द्रव्यों की उत्पत्ति में निमित्त बनते हैं । आनुपूर्वी द्रव्य इनसे असंख्य गुणा अधिक होते हैं, इसका हेतु है द्रव्य की प्रचुरता । तीन प्रदेश से आगे एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते अनन्त प्रदेश तक चले जाते हैं। इस प्रकार इनके स्थान बहुत बन जाते हैं। इन्हें संघात और भेद के निमित्त भी बहुत मिलते हैं इसलिए ये सबसे अधिक हैं। चूर्णिकार ने इसे स्थापना के द्वारा समझाया है' (१,२,३,४) अवक्तव्य द्रव्य संघात और भेद करने पर (५) बनते हैं। अनानुपूर्वी द्रव्य भेद और संघात से (१०) बनते हैं । (प्रस्तुत टिप्पण के अन्त में देखें-स्थापना) अवक्तव्य द्रव्य में द्विप्रदेशी स्कन्ध और अनानुपूर्वी द्रव्य में परमाणु दोनों का एक-एक स्थान है। आनुपूर्वी द्रव्य में स्थान अनन्त हैं। इस अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य अनन्त गुणा अधिक होने चाहिए। किन्तु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अनानुपूर्वी द्रव्य के अनन्तवें भाग जितने हैं। इसलिए वे अनन्त गुणा अधिक नहीं हो सकते। वास्तव में असंख्यात स्थान ही प्राप्त हो सकते हैं। इस अपेक्षा से असंख्यगुण अधिक बतलाए गए हैं। अवक्तव्य द्रव्य अनानुपूर्वी द्रव्य से विशेषाधिक हैं। इसका हेतु यह है कि अनानुपूर्वी में दूसरा कोई प्रदेश नहीं होता और अवक्तव्य द्रव्य में दो प्रदेश होते हैं। आनुपूर्वी द्रव्य के स्थान बहुत होते हैं इसलिए वे प्रदेश की अपेक्षा उनसे अनन्त गुणा अधिक होते ___ द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा परमाणुओं और स्कन्धों का अल्पबहुत्व जानने के लिए भगवती का २५वां शतक (सूत्र १५१ से १५७) द्रष्टव्य है। स्थापना कल्पना करें चार द्रव्य हैं-एकप्रदेशी यावत् चतुष्प्रदेशी । अनानुपूर्वी द्रव्य--उपर्युक्त द्रव्यों के भेद से द्रव्यानुपूर्वी के अनानुपूर्वी द्रव्य बस बनेंगे अवक्तव्य द्रव्य–इन्हीं द्रव्यों को यदि संघात और भेद से स्थापित किया जाए तो अवक्तव्य द्रव्य पांच बनेंगे ०० आनुपूर्वी द्रव्य-इन्हीं द्रव्यों के विविध प्रकार के संघात भेदों से आनुपूर्वी द्रव्य चौदह बनेंगे ०० ४ .० . ०. ०० . ४ ४०० :० १४ ००००० ००००० ००००० ०००० १.अचू. पृ. २६ । २. उसुप. ३१७९ : सत्वत्पोवा अणंतपएसिया खंधा दग्वट्ठयाए, परमाणुपोग्गला दब्वट्ठयाए अणंतगणा। ३. अमव. प.६२। Jain Education Intemational Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०४, सू० १३०-१३८, टि० २२-२४ १०५ इस प्रकार आनुपूर्वी द्रव्य होंगेत्रिप्रदेशी द्रव्य-३ अष्टप्रदेशी द्रव्य-१ चतुष्प्रदेशी द्रव्य-५ नवप्रदेशी द्रव्य---१ पंचप्रदेशी द्रव्य-१ दसप्रदेशी द्रव्य-१ षट्प्रदेशी द्रव्य-१ कुल द्रव्य-१४ सप्तप्रदेशी द्रव्य-१ स्पष्ट है कि नैगम और व्यवहार सम्मत द्रव्यानुपूर्वी में अवक्तव्य द्रव्य सबसे कम होते हैं और आनुपूर्वी द्रव्य सबसे अधिक । शब्दविमर्श अप्रदेशार्थता प्रदेशार्थ की विवक्षा में परमाणु का प्रसंग विरोध उत्पन्न करता है। वह स्वयं अप्रदेश है। प्रदेशार्थ की दृष्टि से उसके प्रदेश सबसे कम हैं। यह बात कैसे घटित होगी? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार है-परमाणु एक प्रदेश से अतिरिक्त दूसरा प्रदेश नहीं है, इस अपेक्षा से उसकी अप्रदेशार्थता का निरोध नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा हो तो धर्मी भी नहीं हो सकता इसलिए उक्त प्रश्न विरोध उपस्थित नहीं करता। सूत्र १३१-१३७ २३. (सूत्र १३१-१३७) सू० ११४ से १३० तक नैगम और व्यवहार की दृष्टि से अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का विवेचन किया गया है। प्रस्तुत प्रकरण (सू० १३१ से १४६) में संग्रहनय की दृष्टि से अनौपनिधिकी द्रव्या नुपूर्वी का विवेचन किया गया है। नैगम और व्यवहारनय द्रव्य को अनेक भेद युक्त मानता है। संग्रहनय सामान्य को स्वीकार करता है। इसीलिए संग्रहनय की अनौपनिधिकी द्रव्य आनुपूर्वी में केवल एकवचन का प्रयोग होता है। सू० १३२ इसका उदाहरण है। जितने त्रिप्रदेशी स्कन्ध हैं वे त्रिप्रदेशिकत्व सामान्य का अतिक्रमण नहीं करते इसलिए त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी एक ही होगी। विशुद्धतर संग्रहनय की अपेक्षा आनुपूर्वीत्व का सामान्य होने के कारण आनुपूर्वी एक ही होगी। अनानुपूर्वी और अवक्तव्य के लिए भी यही नियम है। बहुत्व का अभाव होने के कारण बहुवचन का प्रयोग नहीं हो सकता। नैगम और व्यवहार की अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के २६ भंग होते हैं। संग्रहनय की व्याख्या में व्यक्ति का बहुवचन नहीं होता। इसलिए उसकी व्याख्या में बहुवचन के भंगों का प्रयोग नहीं होने से उसमें सात ही भंग होते हैं। सूत्र १३८ २४. अल्पबहुत्व नहीं होता है (अप्पाबहुं नत्थि) नैगम और व्यवहारनय के सन्दर्भ में अनुगम के नौ भेद किए गए हैं। संग्रहनय के सन्दर्भ में उसके आठ भेद हैं। संग्रहनय सामान्य धर्मों का संग्राहक है। सामान्य सदा एक रूप होता है। अतः इसमें अल्पता और अधिकता का विचार घटित नहीं हो सकता। १. अहावू. पृ. ३९ : 'अपदेसट्टयाए' त्ति अप्रदेशार्थत्वेन नास्य प्रवेशा विद्यन्त इत्यप्रदेश: परमाणः उक्तं च --- 'परमाणुप्रदेश' इति तद्भावस्तेन, अणोनिरवयवत्वादित्यर्थः, आह -- प्रदेशार्थतया सर्वस्तोकानोत्यभिप्राये अप्रदेशार्थनेति कारणाभिधानमयुक्त, विरोधात्, स्वभावो हि हेतुर्यदि प्रदेशार्थता कथमप्रदेशार्थता इति, अत्रोच्यते, आत्मीयकप्रदेशव्यतिरिक्तप्रदेशान्तरप्रतिषेधापेक्षा प्रदेशार्थता, न पुननिजकप्रदेशप्रतिषेधापेक्षाऽपि, धम्मिण एवाप्रसंगाद्विचारवैयर्थ्यप्रसंगाद् अलं विस्तरेण । २. अहाव.पृ. ३९ : सामान्यमात्रसंग्रहणशीलः संग्रहः । ३. वही, बहुत्वाभावाद् बहुवचनाभावः । ४. अमव. प. ६६ : संग्रहस्य सामान्यवादित्वात् सामान्यस्य च सर्वत्रकत्वादल्पबहुत्वविचारोऽत्र न संभवतीत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अणुओगदाराई सूत्र १४० २५. एक राशि (एगो रासी) संग्रहनय सामान्यग्राही है। इसके अनुसार द्रव्यों की संख्या का प्रमाण नहीं होता क्योंकि द्रव्यत्व की अपेक्षा से वे सब एक हैं। आनुपूर्वी द्रव्यों के बहुसंख्यक होने पर भी उनमें आनुपूर्वीत्व एक ही है। बहुत आनुपूर्वियां भी एक आनुपूर्वी में समाविष्ट हैं, अतः पिण्डीभूत राशि की स्वीकृति युक्तिसंगत है, जैसे बहुत परमाणुओं का स्कन्धरूप में परिणमन होने पर एक स्कन्ध बन जाता है वैसे ही बहुत सारे आनुपूर्वी द्रव्यों का आनुपूर्वी भाव में परिणमन होने पर एक आनुपूर्वी बन जाती है। इसी प्रकार संग्रहनय की अपेक्षा से अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी एक ही होंगे। सूत्र १४५ २६. तीसरे भाग में (तिभागे) संग्रह के आनुपूर्वी द्रव्य शेष अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों के एक तिहाई भाग में होते हैं। द्रव्यों की संख्या विषम होने पर भी इनकी अपनी-अपनी राशि है। तीनों राशियां समान हैं। तीनों राशियों की समानता के कारण वे एक तिहाई भाग में ही होते हैं। चूर्णिकार ने इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। जैसे--एक राजा के तीन पुत्र थे। वे तीनों राजा से घोड़े की मांग कर रहे थे। राजा ने एक पुत्र को एक घोड़ा दिया जिसका मूल्य छह हजार रुपए था। दूसरे को दो घोड़े दिए उनका मूल्य तीन-तीन हजार रुपए था और तीसरे को बारह घोड़े दिए उनका मूल्य पांच-पांच सौ रुपए था। संख्या की दृष्टि से विषम होने पर भी प्रत्येक राजकुमार के घोड़े समग्र पूंजी के एक तिहाई भाग में आते हैं। सूत्र १४७ २७. (सूत्र १४७) औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के तीन प्रकार बतलाए गए हैं१. पूर्वानुपूर्वी २. पश्चानुपूर्वी ३. अनानुपूर्वी कषायपाहुड़ में अनानुपूर्वी के स्थान पर यत्रतत्रानुपूर्वी शब्द का प्रयोग मिलता है। १. पूर्वानुपूर्वी-प्रथम से गणना प्रारम्भ करना, यह अनुलोम क्रम है। २. पश्चानुपूर्वी -- अन्तिम से गणना प्रारम्भ करना, यह प्रतिलोम क्रम है। ३. अनानुपूर्वी-अनुलोम क्रम और प्रतिलोम क्रम को छोड़कर कहीं से भी गणना प्रारम्भ करना।' यत्रतत्रानुपूर्वी का भी यही तात्पर्य है। १५१वें सूत्र में भी औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के ये ही तीन प्रकार बतलाए गए हैं। प्रथम विकल्प में अनादि पारिणामिक द्रव्य का उदाहरण दिया गया है। द्वितीय विकल्प में सादि पारिणामिक पुद्गल द्रव्य का उदाहरण दिया गया है। ये दो विकल्प उदाहरण की भिन्नता के आधार पर किए गए हैं। १. अहाव. पृ. ४० : एकरासिग्रहणेण बहुसुवि आणुपुग्विदम्बेसु एक्कं चेव आणुपुब्विभावं सेति, जहा भूतेसु कठीणमुत्तत्तं, अहवा जहा बहवो परमाणवो खंधत्तभावपरिणता एगखधो भण्णति, एवं बहु आणुपुग्विदव्वा आणुपुब्विभावपरिणयत्तणतो एगाणपुश्वित्तं एगतणओ एगो रासीति भणितम् ।। २. अमव.प. ६६ : भागद्वारे 'नियमा तिभागे होज्ज' ति त्रयाणां राशीनामेको राशिस्त्रिभाग एव वर्तत इति भावः । ३. (क) अचू पृ. २८ । (ख) अहावृ. पृ. ४१ । ४. (क) अहावृ. पृ ४१ : प्रथमात्प्रभृति आनुपूर्वी अनुक्रमः परिपाटी पूर्वानपूर्वो, पाश्चात्यात्-चरमादारभ्य व्यत्ययेनैवानपूर्वी पश्चानुपूर्वी, न आनुपूर्वी अनानु पूर्वी यथोक्तप्रकार यातिरिक्तरूपेत्यर्थः । (ख) अमवृ. प. ६७ । ४. कपा. पृ. २८ : जं जेण कमेण सुत्तकारेहि ठइदमुप्पण्णं वा तस्स तेण कमेण गणणा पुवाणु पव्वी णाम । तस्स विलोमेण गणणा पच्छाणपुवी। जत्थ वा तत्थ वा अप्पणो इच्छिदमादि कादूण गणणा जत्थतत्थाणुपुब्वी होदि । Jain Education Interational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०४, सू० १४०-१५०, टि० २५-२६ १०७ सूत्र १४८ २८. (सूत्र १४८) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीन लोक व्यवस्था के आधारभूत द्रव्य हैं। धर्मास्तिकाय का लक्षण है गति और अधर्मास्तिकाय का लक्षण है स्थिति । गति और स्थिति से ही लोक की व्यवस्था होती है। जहां गति और स्थिति है वहां लोक है, जहां गति और स्थिति नहीं है वह अलोक है। इन दो द्रव्यों ने ही आकाश को दो भागों में विभक्त किया है। लोकाकाश ओर अलोकाकाश । जीव और पुद्गल ये गति, स्थिति और अवगाह करने वाले द्रव्य हैं । काल इन सबके परिणमन का हेतु है। इस प्रकार इनका क्रम भी सार्थक बनता है। सूत्र १५० २६. (सूत्र १५०) जितने अंकों का विकल्प जानना हो उसके लिए उनको परस्पर गुणा करने से जो संख्या आती हो, उतने ही विकल्प होते हैं । जैसे-६ संख्या के विकल्प करने हैं। १४२४३४४४५४६=७२० विकल्प । एक कोष्ठक में कितने विकल्प होंगे और कितने कोष्ठक होंगे? इसके लिए विधि यह है -अंतिम दो अंकों को गुणा करने से जो संख्या आती है उतने ही कोष्ठक होते हैं । जैसेयहां अंतिम दो अंक ५ और ६ हैं । ५४६-३० कोष्ठक बनते हैं। एक कोष्ठक में कितने विकल्प होते हैं ? इसके लिए शेष अंकों को परस्पर गुणा करने से जो संख्या आती है, उतने ही एक कोष्ठक में विकल्प होते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में शेष ४ संख्या है, चारों को गुणा करने से १४२४३४४ =२४ विकल्प हुए। एक कोष्ठक में २४ विकल्प होंगे और ३० कोष्ठक होंगे। कुल विकल्प २४४३०-७२० होंगे। इसके विकल्प बनाने का क्रम यह है-सबसे छोटी संख्या को पहले स्थापित करें, फिर क्रमशः संख्या स्थापित करते हुए सबसे बड़ी संख्या अंत में स्थापित करें। एक कोष्ठक में अंतिम दो संख्या अपरिवर्तित रहती है । सुविधा के लिए यंत्र देखें । ३० कोष्ठक बनाने का क्रम यह है -दूसरे कोष्ठक में अंतिम संख्या अपरिवर्तित रहती है, उससे पूर्व की संख्या क्रमशः उससे छोटी ग्रहण की जाती है । देखें कोष्ठक २,३,४ और ५ । पहले कोष्ठक में ५६, दूसरे में ४६, तीसरे में ३६, चौथे में २६ और पांचवें में १६ की संख्या अपरिवर्तित है। उससे आगे के कोष्ठकों में अंतिम संख्या सबसे बड़ी ६ थी। अब उसके स्थान पर उससे छोटी संख्या ५ स्थापित करें और शेष पांच अंकों में सबसे बड़ी हो उसे उसके पहले स्थापित करें। यहां छट्ठा कोष्ठक ६५ बनता है। छठे कोष्ठक में ६५ की संख्या अपरिवर्तनीय रहेगी। सातवें से दसवें तक क्रमशः उससे क्रमसंख्या का परिवर्तन होता रहेगा। जैसे सातवें मे ४५ आठवें में ३५ नौवें में २५ और दसवें में १५ की संख्या अपरिवर्तनीय रहेगी। ५५ हो नहीं सकते क्योंकि एक संख्या दो बार नहीं आ सकती। ११वें से १५वे कोष्ठक में पांचवीं संख्या अपरिवर्तित रहेगी और उससे आगे के कोष्ठकों में अंतिम संख्या क्रमशः छोटी होती जाएगी। इस नियम के अनुसार ११वें से १५वें कोष्ठक में ६४,५४,३४,२४,१४ की संख्या अपरिवर्तित रहेगी। १६वें से २०वें कोष्ठक में ६३,५३,४३,२३,१३ की संख्या अपरिवर्तित रहेगी। २१वें से २५वें कोष्ठक में ६२,५२,४२, ३२,१२ की संख्या अपरिवर्तनीय रहेगी। २६वें से ३०वें कोष्ठक में ६१,५१,४१,३१,२१ की संख्या अपरिवर्तनीय रहेगी। इसके बाद एक कोष्ठक में परिवर्तन इस प्रकार होता है। अन्तिम दो बड़ी संख्याएं अपरिवर्तित रहती हैं। शेष संख्याएं क्रमशः स्थापित करें। चौथी संख्या ४ है, वह छह विकल्पों तक अपरिवर्तनीय रहती है, तीसरी संख्या दो-दो विकल्पों के बाद क्रमश: छोटी होती जाती है। इस क्रम से संख्या की स्थापना इस प्रकार होगी--.३४,२४,१४ फिर ४३,२३,१३ फिर ४२.३२,१२ फिर ४१,३१,२१ होगी। छह-छह विकल्पों में अन्तिम संख्या अपरिवर्तनीय है। पहले ६ में ४ की संख्या, दूसरे ६ में ३ की संख्या, तीसरे ६ में २ की संख्या और चौथ ६ में १ की संख्या अपरिवर्तनीय है। पहली दो संख्या दूसरे विकल्प में परिवर्तित होती रहती है। पहले विकल्प में १२ की संख्या है तो दूसरे विकल्प में २१ होगी। पहले विकल्प में १६ है तो दूसरे में ६१ होगी। देखेंअगले पृष्ठ के कोष्ठक Jain Education Intemational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ १२ २१ १३ ३१ २३ ३२ १२ २१ १४ ४१ २४ ४२ १३ ३१ १४ ४१ ३४ ४३ २३ ३२ २४ ४२ ३४ ४३ १२ 2 mm 2222222222 २१ १३ ३१ २३ ३२ १२ २१ 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worko, To Re (RE) (Pa) له ل ل ل ل ل س س س س س س ع ع ع ع ع ع م م م م ا ا ا జుజుజుజుజుజుజుజు నననననననననననననననననననననXXXXXXXX -- Xn. mxXAబు-జు. (ఎం) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अणुओगदाराई शब्द विमर्श गच्छ-पहले जो कोई संख्या सोची जाती है वह गच्छ कहलाती है । वृत्तिकार ने गच्छ का अर्थ समुदाय किया है।' श्रेणी-गणित की प्रक्रिया में भंगों अथवा विकल्पों की रचना सीढी की तरह होती है अतः उसे श्रेणी अथवा पंक्ति कहा जाता है। परस्पर गुणाकार-अण्णमण्ण-परस्पर, अब्भास-गुणाकार । द्विरूपन्यून-दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकालने पर दो विकल्प कम हो जाते हैं। १. अहाव.पृ. ४२ : गच्छ: समुदायः। Jain Education Intemational Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां प्रकरण (सूत्र १५५-१९५) Jain Education Intemational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख क्षेत्रानुपूर्वी का वर्ण्य विषय प्रायः द्रव्यानुपूर्वी के समान ही है। उसमें क्षेत्र विषयक जानकारी विशिष्ट है। अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक-इन तीनों की पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी बतलाई गई है। रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियां अधोलोक में हैं । जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र आदि द्वीप और समुद्र तिर्यग्लोक में हैं। सौधर्मकल्प आदि विमान ऊध्र्वलोक में हैं। Jain Education Intemational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां प्रकरण मूल पाठ संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद खेत्ताणुपुवी-पदं क्षेत्रानुपूर्वी-पदम् क्षेत्रानुपूर्वी-पद १५५. से कि तं खेत्ताणपुव्वी ? अथ कि सा क्षेत्रानुपूर्वी ? क्षेत्रानु- १५५. वह क्षेत्रानुपूर्वी क्या है ? खेत्ताणपुव्वी दुविहा पण्णता, तं पूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा क्षेत्रानुपूर्वी के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेजहा-ओवणिहिया य अणोव- औपनिधिको च अनौपनिधिको च । औपनिधिकी और अनौपनिधिकी।' णिहिया य॥ १५६. तत्थ णं जा सा ओवणिहिया सा तत्र याऽसौ औपनिधिको सा १५६. जो औपनिधिकी है वह स्थापनीय है। ठप्पा ॥ स्थाप्या। १५७. तत्थ णं जा सा अणोवणिहिया तत्र याऽसौ अनौपनिधिकी सा १५७. जो अनौपनिधिकी है उसके दो प्रकार सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नगम- प्रज्ञप्त हैं, जैसे-नैगम-व्यवहारनय सम्मत नेगम-ववहाराणं संगहस्स य॥ व्यवहारयोः संग्रहस्य च । अनौपनिधिकी और संग्रहनय सम्मत अनौपनिधिकी। नेगम-ववहाराणं अणोवणिहिय-खेत्ताण- नगम-व्यवहारयोः अनौपनिधिको- नेगम-व्यवहारनय सम्मत अनौपनिधिकोपुव्वी -पदं क्षेत्रानुपूर्वो-पदम् क्षेत्रानुपूर्वी-पद १५८. से कि तं नेगम-ववहाराणं अथ कि सा नंगम-व्यवहारयोः १५८. वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनौप अणोवणिहिया खेत्ताणपुवी ? अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी ? नंगम- निधिको क्षेत्रानुपूर्वी क्या है ? नेगम-ववहाराणं अणोवणिहिया व्यवहारयोः अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनौपखेत्ताणपुव्वी पंचविहा पण्णत्ता, तं पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-१. अर्थ- निधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के पांच प्रकार प्रज्ञप्त जहा-१. अट्ठपयपरूवणया २.. पदप्ररूपणा २. भङ्गसमुत्कीर्तनम् हैं, जैसे-१. अर्थपदप्ररूपण, २. भंगभंगसमुक्कित्तणया ३. भंगोव- ३. भङ्गोपदर्शनम् ४. समवतारः समुत्कीर्तन, ३. भंगोपदर्शन, ४. समवतार, दसणया ४. समोयारे ५. अणगमे॥ ५. अनुगमः । ५. अनुगम। १५६. से कि तं नेगम-ववहाराणं अथ कि सा नैगम-व्यवहारयोः १५९. वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत अर्थपद अट्ठपयपरूवणया ? नेगम-ववहाराणं अर्थपदप्ररूपणा ? नैगम-व्यवहारयोः प्ररूपण क्या है ? अटुपयरूवणया-तिपएसोगाढे अर्थपदप्ररूपणा--त्रिप्रदेशावगाढः नैगम और व्यवहारनय सम्मत अर्थपदआणुपुवी चउपएसोगाढे आणु- आनुपूर्वी चतुष्प्रदेशावगाढः आनुपूर्वी प्ररूपण-त्रिप्रदेशावगाढ़ आनुपूर्वी, चारप्रदेपुव्वी जाव दसपएसोगाढे आण- यावत् दशप्रदेशावगाढः आनुपूर्वी शावगाढ़ आनुपूर्वी यावत् दसप्रदेशावगाढ़ पुवी संखेज्जपएसोगाढे आणुपुवो संख्येयप्रदेशावगाढः आनुपूर्वी असंख्येय- आनुपूर्वी, संख्येयप्रदेशावगाढ़ आनुपूर्वी, असंखेज्जपएसोगाढे आणुपुव्वो। प्रदेशावगाढ: आनुपूर्वी । एकप्रदेशाव- असंख्येयप्रदेशावगाढ़ आनुपूर्वी। एकप्रदेशावएगपएसोगाढे अणाणपुवी। दुपए- गाढः अनानुपूर्वी । द्विप्रदेशावगाढः गाढ़ अनानुपूर्वी । द्विप्रदेशावगाढ़ अवक्तव्य । सोगाढे अवत्तव्वए। तिपएसोगाढा अवक्तव्यकम् । त्रिप्रदेशावगाढाः आनु- त्रिप्रदेशावगाड़ आनुपूर्वियां, चारप्रदेशावगाढ़ आणुपुव्वीओ चउपएसोगाढा पूर्व्यः चतुष्प्रदेशावगाढाः आनुपूर्त्यः आनुपूर्वियां यावत् दसप्रदेशावगाढ़ आनुपूर्वियां, आणपुवीओ जाव दसपएसोगाढा यावत् दशप्रदेशावगाढाः आनुपूर्व्यः संख्येयप्रदेशावगाढ़ आनुपूर्वियां असंख्येयप्रदेआणपुव्वीओ संखेज्जपएसोगाढा संख्येयप्रदेशावगाढाः आनुपूर्व्यः शावगाढ़ आनुपूवियां। एकत्रदेशावगाढ़ Jain Education Intemational Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अणुओगदाराई आणपुव्वीओ। असंखेज्जपएसो- असंख्येयप्रदेशावगाढा: आनुपूर्व्यः। गाढा आणपुव्वीओ। एगपएसो- एकप्रदेशावगाढाः अनानुपूर्व्यः । गाढा अणाणुपुवीओ। दुपएसो- द्विप्रदेशावगाढाः अवक्तव्यकानि। सा गाढा अवत्तव्वगाइं । से तं नेगम- एषा नैगम-व्यवहारयोः अर्थपबववहाराणं अटुपयपरूवणया ॥ प्ररूपणा। अनानुपूर्वियां । द्विप्रदेशावगाढ़ अवक्तव्य हैं। वह नंगम और व्यवहारनय सम्मत अर्थपदप्ररूपण है। १६०. एयाए णं नेगम-ववहाराणं एतया नंगम-व्यवहारयोः अर्थपद- अट्ठपयपरूवणयाए कि पओयणं? प्ररूपणया कि प्रयोजनम् ? एतया एयाए णं नेगम-ववहाराणं नंगम-व्यवहारयोः अर्थपदप्ररूपणया अट्ठपयपरूवणयाए भंगसमुक्कि- भङ्गसमुत्कीर्तनं क्रियते । तणया कज्जइ॥ १६०. नंगम और व्यवहारनय सम्मत इस अर्थपदप्ररूपण से क्या प्रयोजन है ? नंगम और व्यवहारनय सम्मत इस अर्थपदप्ररूपण से भंगसमुत्कीर्तन किया जाता १६१. से कि तं नेगम-ववहाराणं अथ कि सा नंगम-व्यवहारयोः १६१. वह नंगम और व्यवहारनय सम्मत भंग भंगसमुक्कित्तणया ? नेगम- भङ्गसमुत्कीर्तनम् ? नैगम-व्यवहारयोः समुत्कीर्तन क्या है ? ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया- भङ्गसमुत्कीर्तनम्-१. अस्ति आनु- नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगसमु१. अत्थि आणुपुव्वी २. अत्थि पूर्वी २. अस्ति अनानुपूर्वी ३. अस्ति त्कीर्तन-आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है, अवक्तव्य अणाणपुव्वी ३. अस्थि अवत्तव्वए। अवक्तव्यकम् । एवं द्रव्यानुपूर्वीगमेन है । इसी प्रकार द्रव्यानुपूर्वी की भांति क्षेत्रानुएवं दवाणुपुश्विगमेणं खेत्ताणु क्षेत्रानुपूामपि ते चैव षड्विंशतिः पूर्वी के भी उन्हीं छब्बीस विकल्पों का प्रतिपुवीए वि ते चेव छठवीसं भंगा भंगाः भणितव्या यावत् । तदेतत् पादन करना चाहिए [देखें सू. ११७] । वह भाणियब्वा जाव । से तं नेगम- नंगम-व्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्तनम् । नगम और व्यवहारनय सम्मत भंगसमुत्कीर्तन ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया । १६२. एयाए णं नेगम-ववहाराणं एतेन नैगम-व्यवहारयोः भंग- १६२. नैगम और व्यवहारनय सम्मत इस भंग भंगसमुक्कित्तणयाए कि पओयणं? समुत्कीर्तनेन किं प्रयोजनम् ? एतेन समुत्कीर्तन से क्या प्रयोजन है ? एयाए णं नेगम-ववहाराणं भंग- नेगम-व्यवहारयोः भगसमुत्कीर्तनेन नैगम और व्यवहारनय सम्मत इस भंगसमुक्कित्तणयाए भंगोवदसणया भंगोपदर्शनं क्रियते । समुत्कीर्तन से भंगोपदर्शन किया जाता है। कीरइ॥ १६३. से किं तं नेगम-ववहाराणं अथ किं तद् नैगम व्यवहारयोः १६३. वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगोप भंगोवदसणया ? नेगम-ववहाराणं भंगोपदर्शनम् । नंगम-व्यवहारयोः दर्शन क्या है ? भंगोवदंसणया-१. तिपएसोगाढे ___ भंगोपदर्शनम् -१. त्रिप्रदेशावगाढः नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगोपआणुपुब्वी २. एगपएसोगाढे ___ आनुपूर्वी २. एकप्रदेशावगाढः अनानु दर्शनअणाणुपुवी ३. दुपएसोगाढे पूर्वी ३. द्विप्रदेशावगाढः अवक्तव्यकम् (१) त्रिप्रदेशावगाढ़ आनुपूर्वी अवत्तव्वए ४. तिपएसोगाढा आणु- ४. त्रिप्रदेशावगाढाः आनुपूर्व्यः (२) एकप्रदेशावगाढ़ अनानुपूर्वी पुव्वीओ ५. एगपएसोगाढा अणाणु ५. एकप्रदेशावगाढा: अनानुपूर्व्यः (३) द्विप्रदेशावगाढ़ अवक्तव्य पुवीओ ६. दुपएसोगाढा ६. द्विप्रदेशावगाढाः अवक्तव्यकानि । (४) त्रिप्रदेशावगाढ़ आनुपूर्वियां हैं अवत्तव्वयाई। अहवा १ तिपएसो- ___ अथवा १. त्रिप्रदेशावगाढश्च एक- (५) एकप्रदेशावगाढ़ अनानुपूर्वियां हैं गाढे य एगपएसोगाढे य आणुपुत्वी प्रदेशावगाढश्च आनुपूर्वी च अनानु- (६) द्विप्रदेशावगाढ़ अवक्तव्य हैं। य अणाणपुव्वी य। एवं तहा चेव पूर्वी च । एवं तथा चैव द्रव्यानुपूर्वी- अथवा (१) द्विप्रदेशावगाढ़, एकप्रदेशावगाढ़, दव्वाणपब्विगमेणं छव्वीसं भंगा गमेन षड्विंशति: भंगा: भणितव्या आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी । भाणियव्वा जाव। से तं नेगम- यावत् । तदेतत् नैगम-व्यवहारयोः इस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी की भांति भंगोपववहाराणं भंगोनदसणया। भंगोपदर्शनम्। दर्शन के भी उन्हीं छब्बीस विकल्पों का प्रति Jain Education Intemational Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां प्रकरण : सूत्र १६०-१६८ १६४. से कि तं समोवारे ? समोवारेनेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई कहि समोयरंति - कि आणुपुव्विGodह समोयरंति ? अणाणुपुव्विदेहिं समोयरंति ? अवत्तव्वयदहि समोयरंति ? नेगमयवहाराणं आणुपुव्विदव्वाइं आणुपुव्विदव्वेहि समोयरंति, नो अणापुव्विदच्चेहि समोयरंति नो अवत्तव्यव्वेहिं समोयरंति । एवं दोण्णि वि सट्टाणे समोयरंति त्ति भाणियव्वं । से तं समोयारे ॥ 1 १६५. से किं तं अणुगमे ? अणुगमे नवविहे पण्णत्ते, तं जहागाहा १. संतपयपरूवणया २. दव्वपमाणं च ३. खेत्त ४. फुसणा य । ५. कालो य ६. अंतरं ७. भाग ८. नाव . अप्पाहं चैव ॥ १ ॥ १६६. नेगम-ववहाराणं आणुपुषिदवाई कि अत्थि ? नत्थि ? नियमा अस्थि ? एवं दोण्णि वि ।। १६७. नेगम-ववहाराणं आणुपुच्चि दवाई कि संखेज्जाई ? असंखे ज्जाई ? अनंताई ? नो संखेज्जाई, असंखेज्जा, मो अनंताई एवं दोण्णि वि ॥ १६८. नेगम-ववहाराणं आणवि दवाई लोगस्स कति भागे होज्जा - कि संसेजमागे होज्जा ? असंखेज्जइमाये होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु अथ कि स समवतारः ? समवतारःबतारः- नंगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि क्व समवतरन्ति - किम् आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति ? नंगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो अनानुपूर्वीद्रव्येषु समचतरन्ति नो व्यकद्रव्येषु समवतरन्ति । एवं द्व े अपि स्वस्थाने समवतरतः इति भणितव्यम् । स एष समवतारः । अथ कि स अनुगमः ? नवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथागाथा १. संतपद प्ररूपणा २. द्रव्यप्रमाणञ्च ३. क्षेत्रं ४. स्पर्शना च । अनुगमः ५. कालश्च ६. अन्तरं ७. भागः ८. भावः ९. अल्पबहु चैव ॥१॥ मंगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि किम् अस्ति ? नास्ति ? नियमात् अस्ति । एवं द्वे अपि । यम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि कि संख्येयानि ? मसंख्येयानि ? अनन्तानि ? नो संख्येयानि, असंख्येयानि नो अनन्तानि एवं द्र अपि । मंगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य कतिचान्तिकि संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति? १२१ पादन करना चाहिए (देखें-सूत्र ११९) वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगोपदर्शन है । १६४. वह समवतार क्या है ? समवतार - नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य कहां समवतरित होते हैं ? क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अनानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अथवा अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं । अनानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित नहीं होते, अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित नहीं होते । इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी अपने-अपने स्थानों में समवतरित होते हैं। वह समवतार है । १६५. वह अनुगम क्या है ? अनुगम के नौ प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे३. क्षेत्र, १. सत्पदप्ररूपण, २. द्रव्यप्रमाण, ४. स्पर्शना, ५. काल, ६. अन्तर ७. भाग, ८. भाव, ९. अल्पबहुत्व । १६६. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य हैं अथवा नहीं ? नियमत: हैं । इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी नियमतः हैं । १६७. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य संख्येय हैं ? असंख्येय हैं ? अथवा अनन्त हैं ? वे संख्येय नहीं हैं, असंख्येय हैं, अनन्त नहीं हैं। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी असंख्येय हैं । " - १६८. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग में हैं क्या संख्यातवें भाग में हैं ? असंख्यातवें भाग में हैं ? संख्येय भागों में हैं ? असंख्येय भागों में हैं ? अथवा समूचे लोक में हैं ? Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ भागेसु होज्जा ? सव्वलोए होज्जा ? सर्वलोके भवन्ति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य एगदव्वं पच्च लोगस्स संखेज्जइ- लोकस्य संख्येयतमभागे वा भवन्ति, भागे वा होज्जा, असंखेज्जइमागे असंख्येयतमभागे वा भवन्ति, संख्येयेषु या होना, संसेज्जेमु भागे वा भागेषु वा भवन्ति, असंध्येयेषु भागेषु होज्जा, असंवेश्जे भागे वा वा भवन्ति, देशोने लोके वा भवन्ति । होज्जा, देने लोए वा होज्जा । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वनाणादव्वाइं पहुच्च । नियमा लोके भवन्ति । सव्वलोए होज्जा । नेगम-ववहाराणं अापुवि दव्वाणं 'पुच्छा। एगदव्वं पडुच्च नो संखेज्जइम होजा, असं भागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो सव्वलोए होज्जा । नाणादव्वाई पडुच्च नियमा सम्बलोए होज्जा एवं अवसव्यग दव्वाणि विभणियाण ॥ १६६. नेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदवाई लोगस्स कति भागं फुसंति - कि संखेज्जइभागं फुसंति ? असंखेज्जइभागं फुसंति ? संखेज्जे भागे संति ? असंखेज्जे भागे फुसंति ? सव्वलोगं फुसंति ? एगदवं पहुच्च संखेज्जइ भागं वा फुसंति, असंखेज्जइभागं वा फुसंति, संखेज्जे भागे वा फुसंति, असंखेज्जे भागे वा फुसंति, देणं लोगं वा फुसंति । नाणा दवाई पच्च नियमा सव्वलोगं फुति । अणाणुपु विदव्वाइं अवत्तव्वदव्वा च जहा खेत्तं नवरं फुसणा भाणिया | १७०. नेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदवाई कालओ केचिचरं हाति ? एगदव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । नाणादव्वाई पडुच्च नियमा नगम-व्यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणां पृच्छा । एकद्रव्यं प्रतीत्य मो सयममा भवन्ति, असंख्येयतमभागे भवन्ति, नो संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो असख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो सर्वलोके भवन्ति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोके भवन्ति । एवम् अवक्तव्यकद्रव्याणि अपि भणितव्यानि । नगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीप्रम्याणि लोकस्य कतिभागं स्पृशन्ति - कि संख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? असंख्येयमचा स्पृशन्ति ? संख्ये वान् भागान् त? असंख्येयान् भावान् स्पृशन्ति ? सर्व लोकं स्पृशति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य संख्येयतमभागं वा स्पृशन्ति, असंख्येयतमभागं वा स्पृशन्ति, संख्येयान् भागान् वा स्पृशन्ति, असंख्येयान् भागान् वा स्पृशन्ति, देशोनं लोकं वा स्पृशन्ति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोकं स्पृशन्ति अनानुपूर्वीयानि अवक्तव्यकद्रव्याणि च यथा क्षेत्रं नवरं स्पर्शना भणितव्या । नैगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि कालतः कियच्चिरं भवन्ति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वाध्वा अणुओगदाराई एक द्रव्य की अपेक्षा वे लोक के संख्यातवें भाग में हैं, असंख्यातवें भाग में हैं, संख्येय भागों में हैं, असंख्येय भागों में हैं अथवा देशोन ( कुछ न्यून) लोक में हैं ।" अनेक द्रव्यों की अपेक्षा के नियमतः समूचे लोक में हैं। नगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग में हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा वे संख्यातवें भाग में नहीं हैं, असंख्यातवें भाग में हैं, संख्येय भागों में नहीं है, असंख्य भागों में नहीं हैं, समूचे लोक में नहीं हैं। अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमतः समूचे लोक में हैं। इसी प्रकार अवक्तव्य द्रव्य भी पूर्ववत् जानना चाहिए । १६९. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग का स्पर्श करते हैं- क्या संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? संख्येय भागों का स्पर्श करते हैं ? असंख्येय भागों का स्पर्श करते हैं ? अथवा समूचे लोक का स्पर्श करते हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा वे संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं, असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं, संख्येय भागों का स्पर्श करते हैं, असंख्य भागों का अथवा कुछ कम लोक का स्पर्श करते हैं। अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमतः समूचे लोक का स्पर्श करते हैं । अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्य भी क्षेत्र की भांति एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के असंख्येय भाग का और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा समूचे लोक का स्पर्श करते हैं । [ देखें -सूत्र १६८ ] । १७०. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य काल की अपेक्षा से कितने समय तक होते हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्येय काल तक होते हैं । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां प्रकरण : सूत्र १६६ - १७४ सव्वद्धा । एवं दोण्णि वि ॥ १७१. नेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाणं अंतरं कालओ केवस्चिरं होइ ? एगद पच्च जहणणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं नाणादच्या पश्च नत्वि अंतरं । एवं दोणि वि ॥ । १७२. नेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई' सेसदव्वाणं कइ भागे होज्जा ? तिष्णि वि जहा दाणुबीए || १७३. नेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदवाई कवरम्मि भावे होता ? नियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा । एवं दोणि वि ॥ १७४. एएसि णं नेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाणं अणाणुपुवि दध्वाणं अवत्तव्वगदव्वाण य दव्वट्टयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठएसवाए कपरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया था ? सव्वत्योबाई नेगम-ववहाराणं अवत्तव्यगदव्वाइं दव्वट्टयाए, अणाणुविदाई पाए बिसेसाहियाई, आणु पुव्विदव्वाई दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणाई पएसटुयाए सन्वस्थ| - याई नेगम-ववहाराणं अणाणुपुविदाई अपएसट्र्याए, नम् । एवं द्व े अपि । नगम-व्यवहारयोः आनुपर्योप्रव्याणाम् अन्तरं कालतः किि कियच्चिरं भवति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य जयन्येन एवं समयम् उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् नानाइय्याणि प्रतीत्य नाहित अन्तरम् । एवं द्व े अपि । । जंगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वी - द्रव्याणि शेषद्रव्याणां कति भागे भवन्ति ? त्रीणि अपि यथा द्रव्यानुपूर्व्याम् । नगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि कतरस्मिन् भावे भवन्ति ? नियमात् सारिवारिणामिके भावे भवन्ति । एवं द्वे अपि । एतेषां गम-व्यवहारयोः आयुपूर्वीद्रयाणाम् अनानुपूर्वीद्रव्याणाम् अवक्तव्यकद्रव्याणां च द्रव्यार्यतया प्रदेशार्थतया द्रव्यार्थ प्रदेशार्थतया कतरे कतरेभ्यः अल्पानि वा ? बहूनि वा ? त्यानि वा ? विशेषाधिकानि ? सस्तोकानि नेयम-व्यवहारयोः अवक्तव्यकद्रव्याणि व्याया अनापुचद्रव्याणि द्रयार्थतया विशेषा धिकानि आनुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्यतथा असंख्येयगुणानि । प्रवेशार्थतया सर्वलोकानि अनानुद्रपाणि अवयव्याणि गम-व्यवहारयोः प्रदेशात प्रदेशार्थ तया १२३ अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमतः सर्वकाल में होते हैं? नगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्यों का प्रतिपादन आनुपूर्वी द्रव्य की भांति करना चाहिए।* १७१. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्यों में कालकृत अन्तर कितना होता है ? एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्येय काल' तक होता है । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा इनमें कालकृत अन्तर नहीं होता । अनानुपूर्वी द्रव्यों और अवक्तव्य द्रव्यों का प्रतिपादन आनुपूर्वी द्रव्यों की भांति करना चाहिए । १७२. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कितने भाग में होते हैं ? आनुपूर्वी द्रव्य, अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्य तीनों ही द्रव्यानुपूर्वी की भांति होते हैं।" (देखें सूत्र १२८ ) । १७३. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य किस भाव में होते हैं ? वे नियमतः सादिपारिणामिक भाव में होते हैं । अनानुपुर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्य भी नियमतः सादिपारिणामिक भाव में होते हैं ।" १७४. नैगम और व्यवहारनय सम्मत इन आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों में द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ की अपेक्षा कौन किससे अल्प, अधिक, समान या विशेषाधिक हैं ? नैगम और व्यवहारनय सम्मत अवक्तव्य द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा सबसे कम हैं, अनानुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा अवक्तव्य द्रव्यों से विशेषाधिक हैं, आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थ की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से असंख्येय गुण हैं । प्रदेशार्थं की अपेक्षा नंगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य अप्रदेशार्थं की अपेक्षा सबसे कम है, अवक्तव्य द्रव्य प्रदेशार्थ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अणुओगदाराई अवत्तव्वगदम्वाइं पएसट्टयाए विशेषाधिकानि, आनुपूर्वीद्रव्याणि की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से विशेषाधिक विसेसाहियाई, आणविदव्वाइं प्रवेशार्थतया असंख्येयगणानि । हैं, आनुपूर्वी द्रव्य प्रदेशार्थ की अपेक्षा पएसट्टयाए असखेज्जगुणाई। द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थतया ---सर्वस्तोकानि अवक्तव्य द्रव्यों से असंख्येयगुण हैं। दव्वट-पएसट्टयाए -सव्वत्थोवाइं नैगम-व्यवहारयोः अवक्तव्यकद्रव्याणि द्रव्यार्थ और प्रदेशार्थ की अपेक्षा-नगम नेगम-ववहाराणं अवत्तव्वगदब्वाई __द्रव्यार्थतया, अनानुपूर्वीद्रव्याणि और व्यवहारनय सम्मत अवक्तव्य द्रव्य दबट्टयाए, अणाणुपुग्विदव्वाई द्रव्यार्थतया अप्रदेशार्थतया विशेषा द्रव्यार्थ की अपेक्षा सबसे कम हैं, अनानुपूर्वी दन्वयाए अपएसट्टयाए विसेसाहि- धिकानि, अवक्तव्यकद्रव्याणि प्रदेशार्थ- द्रव्य द्रव्यार्थ और अप्रदेशार्थ की अपेक्षा याई, अवत्तम्बगदम्वाइं पएसट्टयाए तया विशेषाधिकानि, आनुपूर्वीद्रव्याणि अवक्तव्य द्रव्यों से विशेषाधिक हैं। अवक्तव्य विसेसाहियाई, आणुपुग्विदवाई द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि तानि द्रव्य प्रदेशार्थ की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से दव्बट्रयाए असंखेज्जगुणाई, ताइ चैव प्रदेशार्थतया असंख्येयगणानि । विशेषाधिक हैं। आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थ की चेव पएसट्टयाए असंखेज्जगुणाई।से स एष अनुगमः। सा एषा नंगम अपेक्षा अवक्तव्य द्रव्यों से असंख्येयगुण हैं, तं अणुगमे । से तं नेगम-ववहाराणं व्यवहारयोः अनौपनिधिको क्षेत्रानु प्रदेशार्थ की अपेक्षा वे ही असंख्येयगुण हैं । अणोवणिहिया खेत्ताणपुवी। पूर्वो। वह अनुगम हैं। वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी है। संगहस्स अणोवणिहिय-खेताणुपुवी-पदं संग्रहस्य अनौपनिधिको-क्षेत्रानु- संग्रहनय सम्मत अनौपनिधकी-क्षेत्रानुपूर्वी पूर्वी-पदम् १७५. से कि तं संगहस्स अणावणि- अथ कि सा संग्रहस्य अनौप- १७५, वह संग्रहनय सम्मत अनौपनिधिकी क्षेत्रानु हिया खेत्ताणुपुव्वी ? जहेव दव्वा- निधिको क्षेत्रानुपर्छ ? यथैव पूर्वी क्या हैं ? णपव्वी तहेव खेत्ताणुपुवी वि द्रव्यानुपूर्वी तथैव क्षेत्रानुपूर्वी अपि ___संग्रहनय सम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी यव्वा । से तं संगहस्स अणोव- ज्ञातव्या । सा एषा संग्रहस्य अनौप- की भांति इस क्षेत्रानुपूर्वी को जानना चाहिए। णिहिया खेत्ताणपुवी । से तं अणो- निधिको क्षेत्रानुपूर्वी । सा एषा अनौ- [देखें-सूत्र १३१-१४६]। वह संग्रहनय सम्मत वणिहिया खत्ताणुपुवी। पनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी। अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी है। वह अनौपनि धिकी क्षेत्रानुपूर्वी है। ओवणिहिय-खेत्ताणुपुवी-पदं औपनिधिको-क्षेत्रानपूर्वी-पदम औपनिधिकी-क्षेत्रानुपूर्वी-पद १७६. से कितं ओवणिहिया खेत्ताण- अथ कि सा औपनिधिको क्षेत्रा- १७६. वह औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी क्या है ? पुवी ? ओवणिहिया खेत्ताणु- नुपूर्वी ? औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी के तीन प्रकार पुवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- पूर्वानु- प्रकार हैं, जैसे -पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और पुवाणुपुवी पच्छाणुपुत्वी अणाणु- पूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अनानुपूर्वी। पुवी। १७७. से कि तं पव्वाणपुवी? पव्वा- अथ कि सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु- १७७. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? णपनी-अहोलोए तिरियलोए पूर्वी -अधोलोक: तिर्यक्लोकः ऊर्व- पूर्वानुपूर्वी-अधो लोक , तिर्यक् लोक और उड्ढलोए । से तं पुव्वाणपवी॥ लोकः । सा एषा पूर्वानुपूर्वी। ____ ऊर्ध्व लोक । वह पूर्वानुपूर्वी है । १७८. से कि तं पच्छाणपुवी ? पच्छा- अथ कि सा पश्चानुपूर्वी ? १७८. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? णुपुवी- उड्ढलोए तिरियलोए पश्चानुपूर्वी-ऊर्ध्वलोकः तिर्यक्लोकः पश्चानुपूर्वी-ऊर्ध्व लोक , तिर्यक् लोक अहोलोए। से तं पच्छाणपुवी ॥ अधोलोकः । सा एषा पश्चानुपूर्वी । और अधो लोक । वह पश्चानुपूर्वी है। १७६. से कि तं अणाणपळवी ? अथ किं सा अनानुपूर्वी ? १७९. वह अनानुपूर्वी क्या है ? अणाणुपुवी--एयाए व एगाइ- अनानुपूर्वी-एतया चैव एकादिकया अनानुपूर्वी--- एक से प्रारम्भ कर एक-एक याए एगुत्तरियाए तिगच्छगयाए एकोत्तरिकया त्रिगच्छगतया श्रेण्या की वृद्धि करें। इस प्रकार तीन की संख्या सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवणो। अन्योन्याभ्यासः द्विरूपोनः। सा एषा का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार Jain Education Intemational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ पांचवां प्रकरण : सूत्र १७५-१८५ से तं अणाणुपुवी॥ अनानुपूर्वी। करें। इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो। वह अनानुपूर्वी है। पूर्वी। १८०. अहोलोयखेत्ताणुपव्वी तिविहा अधोलोकक्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा १८०. अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वी के तीन प्रकार प्रज्ञप्त पण्णत्ता, तं जहा-पुव्वाणुपुवी प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानु- हैं, जैसे-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानु पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुत्वी॥ पूर्वी अनानुपूर्वी। १८१. से किं तं पुवाणुपुवी? पुवाणु- अथ कि सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु- १८१. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? पव्वी-रयणप्पभा सक्करप्पभा पूर्वी - रत्नप्रभा शर्कराप्रभा बालुका- पूर्वानुपूर्वी-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालयप्पभा पंकप्पभा धूमप्पभा प्रभा पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमा तमस्तमा। बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमा और तमा तमतमा। से तं पुवाणु- सा एषा पूर्वानुपूर्वी । तमस्तमा । वह पूर्वानुपूर्वी है। पुवी॥ १८२. से कि तं पच्छाणुपुव्वी ? पच्छा अथ कि सा पश्चानुपूर्वी ? १८२. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? णुपुव्वी-तमतमा तमा धूमप्पभा पश्चानुपूर्वी --तमस्तमा तमा धूमप्रभा पश्चानुपूर्वी-तमस्तमा, तमा, धूमप्रभा, पंकप्पभा वालुयप्पभा सक्करप्पभा पङ्कप्रभा बालुकाप्रभा शर्कराप्रमा पंकप्रभा, बालुकाप्रभा, शर्कराप्रभा और रयणप्पभा । से तं पच्छाणुपुवी॥ रत्नप्रभा । सा एषा पश्चानुपूर्वी । रत्नप्रभा । वह पश्चानुपूर्वी है। १८३. से कि तं अणाणुपुवी? अणाणु अथ कि सा अनानुपूर्वी ? अनानु- १८३. वह अनानुपूर्वी क्या है ? पुवी-एयाए चेव एगाइयाए पूर्वी-एतया चैव एकादिकया एको- ___ अनानुपूर्वी-एक से प्रारम्भ कर एक-एक एगुत्तरियाए सत्तगच्छगयाए सेढोए तरिकया सप्तगच्छगतया श्रेण्या अन्यो- की वृद्धि करें। इस प्रकार सात तक की संख्या अण्णमण्णब्भासो दुरूवणो। से तं न्याभ्यासः द्विरूपोनः । सा एषा का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार अणाणुपुवी॥ अनानुपूर्वी। करें। इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो । वह अनानुपूर्वी है। १८४. तिरियलोयखेताणपुव्वी तिविहा तिर्यक्लोकक्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा १८४. तिर्यक् लोक क्षेत्रानुपूर्वी के तीन प्रकार पण्णत्ता, तं जहा-पुव्वाणुपुत्वी प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानु- प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और पच्छाणुपुवो अणाणुपुवी॥ पूर्वी अनानुपूर्वी । अनानुपूर्वी। १८५. से कि तं पुवाणुपुव्वी ? पुवा- अथ कि सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु- १८५. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? णुपुवीपूर्वी पूर्वानुपूर्वी-जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, गाहा गाथा धातकीखण्ड द्वीप, कालोद-समुद्र , पुष्कर द्वीप, जंबुद्दीवे लवणे, जम्बूद्वीपं लवणः, वरुण समुद्र, क्षीर, घृत, इक्षु, नन्दी, अरुणधायइ-कालोय-पुक्खरे वरुणे। धातकी-कालोद-पुष्कराः वरुणः । वर, कुण्डलवर, रुचकवर। जम्बूद्वीप से खीर-घय-खोय-नंदी क्षीर-घृत-क्षोद-नन्दी रुचकवर तक के द्वीप और समुद्र परस्पर अरुणवरे कुंडले रुयगे ॥१॥ अरुणवरः कुण्डल: रुचकः ॥१॥ संलग्न हैं तथा रुचकवर से असंख्य द्वीप और जंबुद्दीवाओ खलु जम्बूद्वीपात् खलु समुद्रों के बाद भुजगवर द्वीप है। इसी प्रकार निरन्तरा सेसया असंखइमा। निरन्तराः शेषका: असंख्याततमा। कुसवर, क्रौञ्चवर, आभरण आदि द्वीपों के ... भुयगवर-कुसवरा वि य, मुजगवर-कुशवरौ अपि च, बीच में असंख्य द्वीप और समुद्रों का व्यवधान " कोंचवराजभरणमाईया ॥२॥ क्रौञ्चवराभरणादिका ॥२॥ है। आभरण, वस्त्र, गन्ध, उत्पल, तिलक, Jain Education Intemational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अणुओगदाराई आभरण-वत्थ-गंधे, आमरण-वस्त्र-गन्धाः , पृथ्वी, निधि, रत्न, वर्षधर, द्रह, नदी, विजय, उप्पल-तिलए य पुढवि-निहि-रयणे। उत्पल-तिलकाश्च पृथिवी-निधि-रत्नानि। वक्षस्कार, कल्पेन्द्र, कुरु, मन्दर, आवास, वासहर-दह-नईओ वर्षधर-द्रह-नद्यः कूट, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, देव, नाग, यक्ष, विजया वक्खार-कप्पिदा ॥३॥ विजया वक्षस्कार-कल्पेन्द्राः ॥३॥ भूत और स्वयंभूरमण । वह पूर्वानुपूर्वी है। कुरु-मंदर-आवासा, कुरु-मंदर-आवासा:, कडा नक्खत्त-चंद-सूरा य । कूटा: नक्षत्र-चन्द्र-सूराश्च । देवे नागे जक्खे, देवः नागः यक्षः भूए य सयंभरमणे य ॥४॥ भूतश्च स्वयम्भूरमणश्च ॥४॥ से तं पुवाणुपुवी॥ सा एषा पूर्वानुपूर्वी। १८६. से कि तं पच्छाणपुवी ? पच्छा- अथ कि सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चा- १८६. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? णुपुवी-सयंभुरमणे जाव जंबु- नुपूर्वी- स्वयंभूरमण : यावत् जम्बू- पश्चानुपूर्वी- स्वयंभूरमण यावत् जम्बूहीवे । से तं पच्छाणुपुवी॥ द्वीपः । सा एषा पश्चानुपूर्वी । द्वीप । वह पश्चानुपूर्वी है । (देखें-सूत्र १८५)। १८७. से कि तं अणाणुपुवी? अणाणु- अथ किं सा अनानुपूर्वी ? अना- १८७. वह अनानुपूर्वी क्या है ? पुव्वी-एयाए चेव एगाइयाए नुपूर्वी-एतया चव एकादिकया __अनानुपूर्वी- एक से प्रारम्भ कर एक-एक एगुत्तरियाए असंखेज्जगच्छगयाए ___एकोत्तरिकया असंख्येयगच्छगतया की वृद्धि करें। इस प्रकार असंख्य की संख्या सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवणो। श्रेण्या अन्योन्याभ्यास: द्विरूपोनः । सा का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार से तं अणाणुपुवी॥ एषा अनानुपूर्वी। करें । इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो। वह अनानुपूर्वी है। १८८. उड्ढलोयखेत्ताणपुवी तिविहा ऊवलोकक्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा १८८. ऊर्ध्व लोक क्षेत्रानुपूर्वी के तीन प्रकार प्रज्ञप्त पण्णत्ता, त जहा-पुवाणुपुव्वी प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी पश्चान- हैं, जैसे पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुथ्वी॥ पूर्वी अनानुपूर्वी ॥ अनानुपूर्वी। १८९. से किं तं पुव्वाणपुवी ? पुव्वा अथ किं सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु- १८९. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? णपुव्वी-१. सोहम्मे २. ईसाणे पूर्वी-१. सौधर्मः २. ईशानः पूर्वानुपूर्वी - सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, ३. सणंकुमारे ४. माहिदे ५. बंभ- ३. सनकमारः ४. माहेन्द्रः ५. ब्रा माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, लोए ६. लंतए ७. महासुक्के लोकः ६. लांतकः ७. महाशुक्रः सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, ८. सहस्सारे ६. आणए १०.पाणए ८. सहस्रारः ९. आनतः १०. प्राणत: ग्रैवेयक विमान, अनुत्तर विमान और ११. आरणे १२. अच्चुए १३. ११. आरणः १२. अच्युतः १३. ईषत्प्राग्भारा । वह पूर्वानुपूर्वी है । गेवेज्जविमाणा १४. अणुत्तर- ग्रेवेयविमानानि १४. अनुत्तरविमाविमाणा १५. ईसिप्पन्भारा। से नानि १५. ईषत्प्रारभारा। सा एषा तं पुव्वाणुपुवी॥ पूर्वानुपूर्वी। १६०. से कि तं पच्छाणपुवी ? पच्छा- अथ कि सा पश्चानुपूर्वी ? १९०. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? णपव्वी-ईसिपब्भारा जाव पश्चानुपूर्वी ईषत्प्राम्भारा यावत् पश्चानुपूर्वी .. ईषत्प्राग्भारा यावत् सौधर्म । सोहम्मे । से तं पच्छाणुपुवी॥ सौधर्मः । सा एषा पश्चानुपूर्वी । वह पश्चानुपूर्वी है। (देखें-सूत्र १८९)। १६१. से कि तं अणाणपुयी ? अणा- अथ किं सा अनानुपूर्वी ? १९१. वह अनानुपूर्वी क्या है ? णपुव्वो-एयाए चेव एगाइयाए अनानुप:- एतया चैव एकादिकया अनानुपूर्वी एक से प्रारम्भ कर एकएगुत्तरियाए पन्नरसगच्छगयाए एकोत्तरिकया पञ्चदशगच्छगतया एक की वृद्धि करें। इस प्रकार पन्द्रह की Jain Education Intemational Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां प्रकरण : सूत्र १८६-१६५ १२७ सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवणो। घेण्या अन्योन्याभ्यासः । द्विरूपोनः सा संख्या का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणासे तं अणाणुपुवी॥ एषा अनानुपूर्वी। कार करें। इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो । वह अनानुपूर्वी है। १९२. अहवाओवणिहिया खेत्ताणुपुवी अथवा औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी १९२. अथवा औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी के तीन तिविहा पण्णता, तं जहा-पुवा- त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानु- प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुणुपुव्वी पच्छाणुपुव्वी अणाणु- पूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी। पूर्वी और अनानुपूर्वी । पुवी॥ १६३. से कि तं पुवाणुपुव्वी ? पुव्वा- अथ किं सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु- १९३. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? णपूवो-एगपएसोगाढे दुपएसो- पूर्वी एकप्रदेशावगाढ: द्विप्रदेशावगाढः पूर्वानुपूर्वी-एकप्रदेशावगाढ, दोप्रदेशागाढे जाव असंखेज्जपएसोगाढे । से यावत् असंख्येयप्रदेशावगाढः।सा एषा वगाढ़ यावत् असंख्येयप्रदेशावगाढ़। वह तं पुव्वाणुपवी ॥ पूर्वानुपूर्वी। पूर्वानुपूर्वी है। १६४. से कि तं पच्छाणपुवी? पच्छा- अथ किं सा पश्चानुपूर्वी ? १९४. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? णपवी-असंखेज्जपएसोगाढे जाव पश्चानुपूर्वी असंख्येयप्रदेशावगाढः पश्चानुपूर्वी-असंख्येयप्रदेशावगाढ़ यावत् एगपएसोगाढे ।से तं पच्छाणु- यावत् एकप्रदेशावगाढः। सा एषा एकप्रदेशावगाढ़। वह पश्चानुपूर्वी है । पुन्वी ॥ पश्चानुपूर्वी। १६५. से कि तं अणाणपुवी? अणा- अथ कि सा अनानुपूर्वी ? अनानु- १९५. वह अनानुपूर्वी क्या है ? णपुव्वो-एयाए चेव एगाइयाए पूर्वी-एतया चैव एकादिकया एकोत्त- ___अनानुपूर्वी-एक से प्रारम्भ कर एक-एक एगुत्तरियाए असंखेज्जगच्छगयाए रिकया असंख्येयगच्छगतया शेण्या की वृद्धि करें। इस प्रकार असंख्य की संख्या सेढोए अण्णमण्णभासो दुरूवणो। अन्योन्याभ्यास: द्विरूपोनः । सा एषा का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार से तं अणाणुपुव्वी । से तं ओवणि- अनानुपर्छ । सा एसा औपनिधिको करें। इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से हिया खेत्ताणुपुब्बी। से तं खेत्ताणु- क्षेत्रानुपूर्वी । सा एषा क्षेत्रानुपूर्वी । दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल पुवो ॥ देने से जो संख्या प्राप्त हो । वह अनानुपूर्वी Jain Education Intemational Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानुपूर्वी १. आनुपूर्वी - त्रिप्रदेशी स्कन्ध यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध । १. (सूत्र १५५) यहां क्षेत्र पद के द्वारा द्रव्य से अवगाढ क्षेत्र विवक्षित है। इस ( क्षेत्रानुपूर्वी) में आकाश के क्षेत्र की प्रधानता के कारण आकाश प्रदेश विवक्षित हैं । द्रव्यानुपूर्वी में पुद्गल द्रव्य की संख्या के आधार पर आनुपूर्वी, अवक्तव्य और अनानुपूर्वी द्रव्यों का विभाग किया गया है । प्रस्तुत प्रकरण में आनुपूर्वी, अवक्तव्य और अनानुपूर्वी द्रव्यों का विभाग आकाश प्रदेशों के आधार पर किया गया है । I २. अनानुपूर्वी एक परमाणु ३. अवक्तव्य - द्विप्रदेशी स्कन्ध । २. (सूत्र १६७ ) टिप्पण सूत्र १५५ आनुपूर्वी द्रव्यों में त्रिप्रदेशी आदि स्कन्ध जघन्यतः एक आकाश प्रदेश में अवगाहन कर सकते हैं । उत्कृष्टतः जो स्कन्ध जितने परमाणुओं से निष्पन्न है वह उतने आकाश-प्रदेशों का अवगाहन कर सकता है। यह नियम संख्येय और असंख्येय प्रदेशों तक लागू होता है । अनन्तप्रदेशी स्कन्ध आकाश के एक प्रदेश पर अवगाहन कर सकता है। दो, तीन, चार, पांच और उत्कृष्टतः आकाश के असंख्य प्रदेशों पर अवगाहन कर सकता है ।" १. महावृ. पृ. ४४, ४५ । २. पू. ३२ ३. अहावू. पू. ४५ । क्षेत्रापूर्वी १. आकाश के तीन प्रदेश यावत् असंख्यप्रदेश | (आकाश के प्रदेशत्रिक में तीनप्रदेशी पुद्गलस्कन्ध अवगाहन करता है यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी अवगाहन कर सकता है ।) २. आकाश का एक प्रदेश । ( आकाश के एक प्रदेश में एक परमाणु अवगाहन करता है यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी अवगाहन कर सकता है । ) ३. आकाश के दो प्रदेश । ( आकाश के दो प्रदेशों पर द्विप्रदेशी स्कन्ध अवगाहन करता है यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी अवगाहन कर सकता है ।) आनुपूर्वी द्रव्य असंख्येय बतलाये गए हैं। इसके तीन हेतु हैं१. क्षेत्रानुपूर्वी में क्षेत्र की प्रधानता । २. द्रव्य के अवगाहना क्षेत्र (आकाश) की असंख्येय प्रदेशात्मकता । ३. सदृश अवगाहना वाले अनेक स्कन्धों में एकत्व की विवक्षा । सूत्र १६७ अपने समान आकाश प्रदेशों में अवगाढ स्कन्ध द्रव्य की दृष्टि से अनेक होने पर भी उनमें एकत्व विवक्षित है। जैसे - दशप्रदेशी स्कन्ध आकाश के दश प्रदेशों में अवगाढ है वैसे अनेक स्कन्ध उस क्षेत्र में अवगाढ है, फिर भी वे अवगाह्य क्षेत्र की दृष्टि से एक ही माने जाएंगे। हरिभद्रसूरि ने इसका विस्तार से निर्देश किया है।' वाण अवग्राहवेत्तासंवेज्जसणतो सरिसावगाहणान एयणतो । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०५ , सू० १५५-१७१, टि०१-६ १२४ ३. देशोन लोक में (देसूणे वा लोए) आनुपूर्वी का एक द्रव्य लोक के संख्यातवें भाग में अवगाह करता है। आनुपूर्वी का एक द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में अवगाह करता है। आनुपूर्वी का एक द्रव्य लोक के संख्येय भागों में अवगाह करता है। आनुपूर्वी का एक द्रव्य लोक के असंख्येय भागों में अवगाह करता है। इसका हेतु यह है कि स्कन्ध एक प्रकार के नहीं होते । कोई स्कन्ध छोटा होता है कोई बड़ा होता है। यह परिणति की विचित्रता के कारण होता है। नैगम और व्यवहारनय सम्मत क्षेत्रानुपूर्वी का एक आनुपूर्वी द्रव्य भी देशोन (किञ्चित् न्यून) लोक में होता है। यह कथन सापेक्ष है। 'अचित्त महास्कन्ध' सर्वलोकव्यापी होता है। इस दृष्टि से अपूर्ण लोक-व्याप्ति की बात संगत प्रतीत नहीं होती किन्तु लोक में आनुपूर्वी द्रव्यों की भांति अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी सदा होते हैं। यदि आनुपूर्वी द्रव्य समूचे लोक में व्याप्त हो जाएं तो अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों के लिए स्थान ही नहीं रहेगा। इसलिए अनानुपूर्वी द्रव्यों के लिए जघन्यतः एक प्रदेश और अवक्तव्य द्रव्यों के लिए जघन्यतः दो प्रदेशों की विवक्षा की गई है । यद्यपि इन प्रदेशों में भी आनुपूर्वी द्रव्य होते हैं पर उनकी गौणता और अनानुपूर्वी एवं अवक्तव्य द्रव्यों की प्रधानता की अपेक्षा से यह प्रतिपादन किया गया है।' क्षेत्रानुपूर्वी का आनुपूर्वी द्रव्य कम से कम आकाश के तीन प्रदेशों में अवगाहन करता है। द्रव्यानुपूर्वी का आनुपूर्वी द्रव्य आकाश के एक प्रदेश में भी अवगाह कर सकता है। लोक के निष्कुट (प्रान्तभाग) में अनानुपूर्वी द्रव्य रह सकते हैं किन्तु आनुपूर्वी द्रव्य नहीं रह सकते । इस अपेक्षा से भी उनका अवगाह देशोन लोक कहा जा सकता है। सूत्र १७० ४. (सूत्र १७०) काल चिन्ता के दो विकल्प बनते हैं१. आकाश प्रदेशों की काल चिन्ता । २. आनुपूर्वी द्रव्यों के अवगाह-काल की चिन्ता । आकाश के प्रदेश अनादि अपर्यवसित हैं। इसलिए उनकी कालावधि विमर्शनीय नहीं हो सकती किन्तु आनुपूर्वी द्रव्यों के अवगाह की कालावधि विमर्शनीय है । यह चूर्णिकार का अभिप्राय है। हरिभद्रसूरि ने चूर्णिकार के मत को उद्धृत किया है। उन्होंने आकाश प्रदेशों की कालावधि का समर्थन किया है । उनके अनुसार आधेय-द्रव्य के परिणमन के आधार पर आधार-द्रव्यों में भी परिणमन होता है। इसलिए इस कालावधि को आकाश प्रदेशों की कालावधि माना जा सकता है और यह युक्तिसंगत है क्योंकि यह क्षेत्रानुपूर्वी का प्रकरण है द्रव्यानुपूर्वी का नहीं। सूत्र १७१ ५. जघन्यतः एक समय (जहण्णणं एगं समयं) एक समय की स्थिति के निर्देश का तात्पर्य है-किसी द्विप्रदेशावगाढ स्कन्ध में एक परमाणु या स्कन्ध मिल गया और वह त्रिप्रदेशावगाढ हो गया । एक समय के अंतराल से पुनः वह द्विप्रदेशावगाढ हो गया। इस प्रकार जघन्य स्थिति एक समय की हो जाती है। यहां भी आधेय-भेद के अनुसार आधार-भेद की भावना करनी चाहिए। ६. उत्कृष्टतः असंख्येयकाल (उक्कोसेणं असंखेज्जं काल) अन्तरकाल क्षेत्रस्वभाव के नियम का उदाहरण है। पुद्गलों के अवगाह क्षेत्र का स्थितिकाल असंख्येय होता है। क्षेत्रानु१. (क) अचू. पृ. ३२ । कालश्चिन्त्यते ततः किल नभःप्रदेशानामनाद्यपर्यवसित(ख) अहाव. पृ. ४५। त्वात् स एव वक्तव्यः, सूत्राभिप्रायस्त्वानुपादिद्रव्याणा(ग) अमवृ. प. ७३,७४ । मेवावगाहस्थितिकालश्चिन्त्यते इत्येके, म चेद् क्षेत्रखडा२. अचू. पृ. ३४ : कालो खप्पदेसावगाहठितिकालो चितिज्जद्द, नामपि विशिष्टपरिणामपरिणताधेयद्रव्याधारमावोऽपि सोवि दव्वाणुपुव्विसरिसो चेव । चिन्त्यमानो विरुध्यत इति, युक्तिपतितश्चायमेव, क्षेत्रानु३. अहाव, पृ. ४९ : कालचितायामपि यद्याकाशप्रदेशानामेव पूाधिकारादिति । Jain Education Intemational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अणुओगदाराई पूर्वी में क्षेत्र की प्रधानता है । असंख्येय काल की अवधि में वे पुद्गल स्कन्ध जो पहले निर्दिष्ट आकाशप्रदेश का अवगाहन किए हुए थे पुनः उसी आकाशप्रदेश का अवगाह कर लेते हैं । इस अपेक्षा से उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्य बताया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने एक मतान्तर का उल्लेख किया है। उनके अनुसार विवक्षित क्षेत्र से एक आनुपूर्वी द्रव्य अन्यत्र चला गया वह सर्वथा अपने तुल्य अथवा किसी भिन्न स्कन्ध से संयुक्त होकर पुनः उसी आकाश क्षेत्र में आता है। इस अपेक्षा से इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्य होता है। सूत्र १७२ ७. (सूत्र १७२) आकाश के तीन प्रदेश एक त्रिप्रदेशात्मक आनुपूर्वी द्रव्य से अवगाढ हैं । वे ही आकाशप्रदेश चतुःप्रदेशात्मक, पञ्चप्रदेशात्मक यावत् अनन्तप्रदेशात्मक द्रव्य से भी अवगाढ हैं। इस प्रकार समूचा आकाश एक-एक प्रदेश की वृद्धि युक्त अनेक प्रकार के आनुपूर्वी द्रव्यों से अवगाढ होता है। इस अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य के असंख्येय भाग अधिक बतलाए गए हैं । अनानुपूर्वी तथा अवक्तव्य द्रव्यों में अवगाह के ये विकल्प नहीं बनते । इसलिए वे असंख्येय भाग न्यून हो जाते हैं।' वृत्तिकार हेमचन्द्र ने इसे समझाने के लिए स्थापना का प्रयोग किया है। आकाश के पांच प्रदेश की कल्पना करें। इन पांच प्रदेशों में अनानुपूर्वी द्रव्य पांच रहेंगे। अवक्तव्य द्रव्य आठ और आनुपूर्वी द्रव्य सोलह रहेंगे। देखें-स्थापना कल्पना करें आकाश के पांच प्रदेश हैं- १. २. ३. अनानुपूर्वीउपर्युक्त पांच आकाश प्रदेशों में क्षेत्रानुपूर्वी के अनानुपूर्वी द्रव्य (एक प्रदेशावगाढ) पांच ही रह सकते हैंस्थापना I. II. III. IV. V. अवक्तव्यक---- इन्हीं पांच प्रदेशों पर यदि अवक्तव्य द्रव्यों (दो प्रदेशावगाढ ) का अवस्थान हो तो उनकी कुल संख्या होगी-८ उनका अवस्थान इस प्रकार होगा स्थापना १.१-२ आकाश प्रदेशों पर २.१-३ ॥ ३.१-४ ॥ ॥ AN M 6 ७.३-५ " " " ८. ४-५ , आनुपूर्वीइन्हीं पांच प्रदेशों पर यदि आनुपूर्वी द्रव्यों की अवस्थिति हो तो कुल संख्या होगी-१६, जिनमेंत्रिप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी द्रव्य होंगे-१० चतुष्प्रदेशावगाढ , , ,-५ पञ्चप्रदेशावगाढ , ,होगा-१ १. (क) अहावृ. पृ. ४७ : उत्कृष्टत: असंख्येयं कालं नानन्तं भावादित्यतिगहनमेतदवहितैर्भावनीयमिति । यथाऽनानुपूामिति, कस्मात् ? सर्वपुद्गलानामवगाह (ख) अमवृ. प. ७६। क्षेत्रस्य स्थितिकालस्य चासंख्येयत्वात् क्षेत्रानुपूयं धि २. अमवृ. प. ७६। कारस्य व्याख्येयत्वात्, क्षेत्रानुपूय॑धिकारे च ३. अहावृ. पृ. ४८। क्षेत्रप्राधान्यान्, असंख्येयकालादारतश्च पुनस्तत्प्रदे- ४. अमव. प. ७७। शानां तथाविधाधेयभावेन तथाभूताधारपरिणाम Jain Education Intemational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ५ सू० १७२, १७३, टि०७८ उनका अवस्थान इस प्रकार होगात्रिप्रदेशावगाढ १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. १. २. चतुष्प्रदेशावगाढ ४. ५. १ - २ - ३ आकाश प्रदेशों पर १ – २ – ४ १ - २–५ १. १-३-४ १- ३. -५ १ - ४ - ५ २-३-४ २--३ - ५ २-४-५ ३---४---५ पञ्चप्रदेशावगाढ 17 33 33 " "1 11 31 "" "" 33 "1 "" 31 "" "1 १-२-३-४ आकाश प्रदेशों पर १ – २ – ३–५ १–२–४–५ १ - ३-४-५ २–३–४–५ 31 " "1 33 13 "1 11 १. ズ ३. १-२-३-४-५ आकाश प्रदेशों पर ४.१ स्थापना १० ५ নA 72 स्थापना L १. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अणुओगदाराई सूत्र १७४ ६. (सूत्र १७४) आकाश एक द्रव्य है, एक इकाई है। उसमें द्रव्यार्थ और प्रदेशार्थ का विभाग विशिष्ट द्रव्य के अवगाह के आधार पर होता है। आनुपूर्वी द्रव्यों में तीन आकाश प्रदेशों का एक समुदाय, चार आकाश प्रदेशों का एक समुदाय, पांच आकाश प्रदेशों का एक समुदाय, इस प्रकार विशिष्ट पुद्गल स्कन्धों से अवगाढ जितने समुदाय बनते हैं, वे द्रव्य कहलाते हैं । अनानुपूर्वी द्रव्य में एक प्रदेशावगाही द्रव्य से उपलक्षित आकाश का प्रत्येक प्रदेश द्रव्य है । इस एक-एक प्रदेशात्मक द्रव्य में अन्य प्रदेश की कल्पना संभव नहीं। अवक्तव्य द्रव्य में लोक में द्विप्रदेशावगाढ द्रव्य से उपलक्षित आकाश प्रदेश अवक्तव्य द्रव्य है । अवक्तव्य द्रव्य-द्विप्रदेशी स्कन्ध सबसे अल्प हैं । अनानुपूर्वी द्रव्य एक परमाणु रूप है इसलिए उसे अवक्तव्य द्रव्य से दुगुना होना चाहिए फिर विशेषाधिक का उल्लेख क्यों? इसका समाधान यह है कि भिन्न-भिन्न परमाणुओं के संयोग से द्विप्रदेशी स्कन्धों का निर्माण होता रहता है । द्विप्रदेशी स्कन्ध अधिक संख्या में हो जाते हैं तो अनानुपूर्वी द्रव्य उससे दुगुने नहीं हो पाते।' द्रव्यानुपूर्वी में प्रदेशार्थ की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य अवक्तव्य द्रव्य से अनन्तगुना बतलाए गए हैं। क्षेत्रानुपूर्वी के प्रकरण में वे असंख्येय गुण बतलाए गए हैं। आकाश (क्षेत्र) के प्रदेश असंख्येय ही होते हैं, इसलिए यहां 'असंखेज्जगुणाई' पाठ की रचना १. अहावृ. पृ. ४९ : तत्र सम्वत्थोवाइं नेगमववहाराणं अवत्तब्वगदवाई दवठ्ठयाए, कथं? द्विप्रदेशात्मकत्वादवक्तव्यकद्रव्याणामिति, अणाणु विदवाई दब्वट्ठयाए विसेसाधियाई, कथं ? एकप्रदेशात्मकत्वादनानुपूर्वीणां इति, आह-यद्येवं कस्माद् द्विगुणान्येव न भवन्त्येकप्रदेशात्मकत्वात् तद्विगुणत्वभावादिति, अत्रोच्यते, तदन्यसंयोगतोऽवधीकृतावक्तव्यकबाहुल्याच्च नाधिकृतद्रव्याणि द्विगुणानि, किन्तु विशेषाधिकान्येव । Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्रकरण (सूत्र १९६-२४५) Jain Education Intemational Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख आनुपूर्वी की निरूपण पद्धति प्रायः एक जैसी है । द्रव्य, क्षेत्र और काल से सन्दर्भ बदलते हैं फलतः कुछ विषय बदल जाते हैं । कालानुपूर्वी में काल के सूक्ष्मतम विभाग से सर्वाध्वा तक का निरूपण है । उसके तीन विभाग हैं। शीर्षप्रहेलिका तक का कालविभाग संख्यातकाल है । पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी- यह असंख्यात काल है। पुद्गलपरिवर्त, अतीतकाल, अनागतकाल और सर्वकाल - यह अनन्त काल है । कालानुपूर्वी में एक समय की स्थिति वाले, दो समय की स्थितिवाले, तीन समय से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्यों की पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी बतलाई गई है। समय सूक्ष्मतम काल है सर्वाच्या उत्कृष्टतम काल है। इनमें पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी की योजना की गई है। मुख्यतः क्षेत्र और काल द्रव्य से संयुक्त होकर ही प्रज्ञापनीय बनते हैं। आनुपूर्वी के प्रकरण में उत्कीर्तन, गणना, संस्थान और सामाचारी - ये उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव - ये छह निक्षेप पद्धति के साथ जुड़े हुए हैं। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्रकरण मूल पाठ संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद कालाणुपुव्वी-पदं कालानुपूर्वी-पदम् १९६. से किं तं कालाणुपुवी ? काला- अथ कि सा कालानुपूर्वी ? णुपुवी दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-- कालानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा ओवणिहिया य अणोवणिहिया य॥ -औपनिधिको च अनौपनिधिको च। कालानुपूर्वी पद १९६. वह कालानुपूर्वी क्या है ? कालानुपूर्वी के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेऔपनिधिकी और अनौपनिधिकी। १९७. तत्थ णं जा सा ओवणिहिया सा तत्र या असौ औपनिधिको सा १९७. जो औपनिधिकी है वह स्थापनीय है। ठप्पा ॥ स्थाप्या। १९८. तत्थ णं जा सा अणोवणिहिया तत्र या असौ अनौपनिधिको सा १९८. जो अनौपनिधिकी है उसके दो प्रकार प्रज्ञप्त सा दुविहा पण्णता, तं जहा- द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नैगम- हैं, जैसे--नगम और व्यवहारनय सम्मत अनौनेगम-ववहाराणं संगहस्स य॥ व्यवहारयोः संग्रहस्य च । पनिधिकी और संग्रहनय सम्मत अनौप निधिकी। नेगम-ववहाराणं अणोवणिहिय-काला- नैगम-व्यवहारयोः अनौपनिधिको- नैगम व्यवहारनय सम्मत अनौपनिधिकोणुपुवी-पदं कालानुपूर्वी-पदम्। कालानुपूर्वी पद १६६. से कितं नेगम-ववहाराणं अणो- अथ कि सा नैगम-व्यवहारयोः १९९. वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनौप वणिहिया कालाणपुवी ? नेगम- अनौपनिधिको कालानुपूर्वी ? नेगम- निधिकी कालानुपूर्वी क्या है ? ववहाराणं अणोवणिहिया कालाणु- व्यवहारयोः अनौपनिधिको कालानुपूर्वी नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनौपपवी पंचविहा पण्णता, तं जहा- पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-१. अर्थ- निधिकी कालानुपूर्वी के पांच प्रकार प्रज्ञप्त १. अटुपयपरूवणया .२. भंगसमु- पदप्ररूपणा २. भङ्गसमुत्कीर्तनम् । हैं, जैसे-१. अर्थपदप्ररूपण, २. भंगकित्तणया ३. भंगोवदसणया ३. भङ्गोपदर्शनम् ४. समवतारः समुत्कीर्तन, ३. भंगोपदर्शन, ४. समवतार, ४. समोयारे ५. अणुगमे ॥ ५. अनुगमः । ५. अनुगम। २००. से किं तं नेगम-ववहाराणं अथ कि सा नैगम-व्यवहारयोः २००. वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत अर्थपद अट्रपयपरूवणया ? नेगम-ववहाराणं अर्थपदप्ररूपणा? नैगम-व्यवहारयोः प्ररूपण क्या है ? अट्टपयरूवणया-तिसमयट्टिईए अर्थपदप्ररूपणा -त्रिसमयस्थितिक: नैगम और व्यवहारनय सम्मत अर्थपदआणुपुथ्वी जाव दससमयट्टिईए आनुपूर्वी यावत् दशसमयस्थितिक: प्ररूपण-तीन समय की स्थिति वाला पुद्गल आणुपुवी संखेज्जसमयट्टिईए आनुपूर्वी संख्येयसमयस्थितिकः आनु- आनुपूर्वी यावत् दस समय की स्थिति वाला आणपुव्वो असंखेज्जसमयदिईए पूर्वी असंख्येयसमयस्थितिक: आनुपूर्वी। पुद्गल आनुपूर्वी, संख्येय समय की स्थिति आणपुवो। एगसमयदिईए अणा- एकसमयस्थितिकः अनानुपूर्वी । वाला पुद्गल आनुपूर्वी, असंख्येय समय की णुपुवी। दुसमयट्ठिईए अवत्तव्वए। द्विसमयस्थितिकः अवक्तव्यकम् । स्थिति वाला पुद्गल आनुपूर्वी, एक समय तिसमयट्टिईयाओ आणुपुवीओ त्रिसमयस्थितिकाः आनुपूर्व्यः यावत् की स्थिति वाला पुद्गल अनानुपूर्वी, दो समय जाव दससमयट्टिईयाओ आणु- दशसमयस्थितिकाः आनुपूर्यः संख्येय- की स्थिति वाला पुद्गल अवक्तव्य, तीन पुवीओ संखेज्जसमयट्टिईयाओ समय स्थितिकाः आनुपूर्व्यः असंख्येय- समय की स्थिति वाली आनुपूर्वियां, यावत् आणुपुवीओ असंखेज्जसमय- समयस्थितिकाः आनुपूर्व्यः। एक- दस समय की स्थिति वाली आनुपूर्वियां, दिईयाओ आणपुवीओ। एग- समयस्थितिका: अनानुपwः। द्वि- संख्येय समय की स्थिति वाली आनुपूर्वियां, समयट्टिईयाओ अणाणपुव्वीओ। समयस्थितिकाः अवक्तव्यकानि । सा असंख्येय समय की स्थिति वाली आनुपूबियां, Jain Education Intemational Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अणुओगदाराई दुसमयदिईयाओ अवत्तव्वगाई। एषा नैगम-व्यवहारयोः अर्थपद- एक समय की स्थिति वाली अनानुपूर्वियां से तं नेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरू- प्ररूपणा। और दो समय की स्थिति वाले पुद्गल वणया॥ अवक्तव्य । वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत अर्थपदप्ररूपण है। २०१. एयाए णं नेगम-ववहाराणं एतया नैगम-व्यवहारयोः अर्थपद- २०१. नैगम और व्यवहारनय सम्मत इस अर्थपद अट्रपयपरूवणयाए कि पओयण ? प्ररूपणया कि प्रयोजनम् ? एतया प्ररूपण से क्या प्रयोजन है ? एयाए णं नेगम-ववहाराण नैगम-व्यवहारयोः अर्थपदप्ररूपणया नगम और व्यवहारनय सम्मत इस अर्थअट्ठपयपरूवणयाए भंगसमुक्कि- भङ्गसमुत्कीर्तनं क्रियते । पदप्ररूपण से भंगसमुत्कीर्तन किया जाता तणया कज्जइ॥ २०२. से कि तं नेगम-ववहाराणं अथ किं सा नैगम-व्यवहारयोः २०२. वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंग भंगसमुक्कित्तणया? नेगम- भङ्गसमुत्कीर्तनम् ? नैगम-व्यवहारयोः समुत्कीर्तन क्या है ? ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया--- भङ्गसमुत्कीर्तनम्-१. अस्ति आनु- नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगसमु१. अत्थि आणुपुव्वी २. अत्थि पूर्वी २. अस्ति अनानुपूर्वी ३. अस्ति कीर्तन-आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है, अवक्तव्य अणाणुपुव्वी ३. अस्थि अवत्तव्वए। अवक्तव्यकम् । एवं द्रव्यानुपूर्वीगमेन है। इसी प्रकार द्रव्यानुपूर्वी की भांति कालानुएवं दवाणपव्विगमेणं कालाण- कालानुपूर्व्यामपि ते चैव षड्विंशतिः पूर्वी के भी छब्बीस विकल्प जानने चाहिए। पवीए वि ते चेव छब्बीसं भंगा भंगाः भणितव्या यावत् । तदेतत् [देखें सू. ११७] । वह नैगम और व्यवहारभाणियव्वा जाव । से तं नेगम- नगम-व्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्तनम् । नय सम्मत भंगसमुत्कीर्तन है । ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया । २०३. एयाए णं नेगम-ववहाराणं एतेन नैगम-व्यवहारयोः भंग- २०३. नैगम और व्यवहारनय सम्मत इस भंग भंगसमुक्कित्तणयाए कि पओयणं? समुत्कीर्तनेन किं प्रयोजनम् ? एतेन समुत्कीर्तन से क्या प्रयोजन है ? एयाए णं नेगम-ववहाराणं भंग- नैगम-व्यवहारयोः भंगसमुत्कीर्तनेन नैगम और व्यवहारनय सम्मत इस भंगसमुक्कित्तणयाए भंगोवदंसणया भंगोपदर्शनं क्रियते। समुत्कीर्तन से भंगोपदर्शन किया जाता है। कज्जइ॥ २०४. से किं तं नेगम-ववहाराणं अथ किं तद नैगम-व्यवहारयोः २०४. वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगोप भंगोवदंसणया ? नेगम-ववहाराणं भंगोपदर्शनम् ? नैगम-व्यवहारयोः दर्शन क्या है ? भंगोवदसणया-१. तिसमयदिईए भंगोपदर्शनम् -१. त्रिसमयस्थितिकः नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगोपआणुपुव्वी २. एगसमयदिईए आनुपूर्वी २.एकसमयस्थितिकः अनानु- दर्शन-१. तीन समय की स्थिति वाला अणाणुपुव्वी ३. दुसमयट्टिईए पूर्वी ३. द्विसमयस्थितिकः अवक्तव्यकम् पुद्गल आनुपूर्वी, २. एक समय की स्थिति अवत्तव्वए ४. तिसमयट्ठिईयाओ ४. त्रिसमयस्थितिका: आनुपूर्व्यः ५. वाला पुद्गल अनानुपूर्वी, ३. दो समय की आणुपुव्वीओ ५.एगसमयट्टिईयाओ ___एकसमयस्थितिकाः अनानुपूर्व्यः ६. स्थिति वाला पुद्गल अवक्तव्य, ४. तीन समय अणाणुपुव्वीओ ६.दुसमयट्टिईयाओ द्विसमयस्थितिका: अवक्तव्यकानि । की स्थिति वाली आनुपूर्वियां, ५. एक समय अवत्तव्वगाई। अहवा १.तिसमय- ___ अथवा १. त्रिसमयस्थितिकश्च एक- की स्थिति वाली अनानुपूर्वियां, ६. दो समय ट्टिईए य एगसमयट्ठिईए य आणु- समयस्थितिकश्च आनुपूर्वी च अनानु- की स्थिति वाले अबक्तव्य । पुवो य अणाणुपुव्वी य। पूर्वी च । अथवा १. तीन समय की स्थिति वाली एवं तहा चेव दव्वाणपब्विगमेणं एवं तथा चैव द्रव्यानुपूर्वीगमेन और एक समय की स्थिति वाली आनुपूर्वी छव्वीसं भंगा भाणियव्वा जाव। षड्विंशति: भंगाः भणितव्या यावत् । और अनानुपूर्वी। से तं नेगम-ववहाराणं भंगोवदंस- तदेतत् नैगम-व्यवहारयोः भंगोप इसी प्रकार द्रव्यानुपूर्वी की भांति छब्बीस णया॥ दर्शनम् । विकल्प जानने चाहिए। [देखें सू. ११९] । वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत भंगोपदर्शन है। Jain Education Intemational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्रकरण : सूत्र २०१-२०६ २०५. से कि तं समोवारे ? समोयारे - नेगम-ववहाराणं आणुपुच्चिदबाई कह समोयरंति fक आणुपुव्विदहि समोयरंति - पुच्छा । नेगम बवहाराणं आणुपुविदव्वा आदिहि समोयरंति नो अणापुविदेह समोयरंति नो अवत्तव्यववहिं समोयरंति । एवं दोणि वि सट्टाणे समोयरंति । से तं समोवारे ॥ २०६. से कि अणुगमे ? अनुगमे नवविहे पण्णले, तं जहा गाहा १. संतपयपरूवणया २. दव्वपमाणं च ३. खेत्त ४. फुसणा य । ५. कालो व ६. अंतरं ७. भाग ८. भा. अध्यादेव ॥ १ ॥ २०७. नेगम-ववहाराणं आणुपुविदवाई कि अस्थि ? त्वि ? नियमा अस्थि ? एवं दोण्णि वि । २०६. नेगम-ववहाराणं आणुपुब्बि दवाई कि संवेज्जाई ? असंखे ज्जाई ? अनंताई ? नो संखेज्जाई, असंखेज्जाई, नो अनंताई । एवं बोणि वि ॥ २०६. नेगम ववहाराणं आणुपुव्विदवाई लोगस्स कति भागे होज्जा कि संवेज्जइमागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु मागेसु होज्जा ? सव्वलोए होज्जा ? एगदव्वं पटुच्च लोगस्स संखेज्जइ अथ किं स समवतारः ? समआनु वतारः नंगम- स्ववहारयोः पूर्वीद्रव्याणि क्व समवतरन्ति कि आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति पृच्छा नैगम-यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीयेषु समवतरन्ति नो अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति नो अवत द्रव्येषु समवतरन्ति एवं अपि स्वस्थाने समवतरतः । स एष समवतारः । अथ किस अनुगमः ? नवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा अनुगमः गाथा १. संतपद प्ररूपणा २ द्रव्यप्रमाणञ्च ३. क्षेत्रं ४. स्पर्शना च । ५. कालश्च ६. अन्तरं ७. भागः ८. भावः ९. अल्पबहु चैव ॥१॥ मंगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वी - द्रव्याणि किम् अस्ति ? नास्ति ? नियमात् अस्ति । एवं द्वे अपि । नैगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वीइम्याणि संख्येयानि ? असंख्ये यानि ? अनन्तानि ? नो संख्येयानि, असंख्येयानि, नो अनन्तानि । एवं द्व े अपि । गंगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वी - द्रयाणि लोकस्य कतिमा भयन्तिकि संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति? सर्वलोके भवन्ति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य लोकस्य संख्येमागे वा भवन्ति, १३६ २०५. वह समवतार क्या है ? समवतार - नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य कहां समवतरित होते हैं ? क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? अनापुर्वी प्रयों में समवतरित होते हैं ? अथवा अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित होते हैं ? नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य अनुपूर्वी द्रों में समवतरित होते हैं। अनानुपूर्वी द्रव्यों में समवतरित नहीं होते, अवक्तव्य द्रव्यों में समवतरित नहीं होते । इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी अपने-अपने स्थानों में समवतरित होते हैं। वह समवतार है । २०६. वह अनुगम क्या है ? अनुगम के नौ प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे— १. सत्पदप्ररूपण, २. द्रव्यप्रमाण, ३. क्षेत्र, ४. स्पर्शना, ५. काल, ६. अन्तर ७. भाग, ८. भाव, ९. अल्पबहुत्व । २०७. नंगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं ? वे नियमतः है। इसी प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी नियमतः हैं। २०८. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्येय हैं ? असंख्येय हैं ? या अनन्त हैं ? वे संख्येय नहीं हैं, असंख्येय हैं, अनन्त नहीं हैं। इसी प्रकार नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी असंश्येव हैं।" २०९. गम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग में होते हैं- क्या संख्यातवें भाग में होते हैं ? असंख्यातवें भाग में होते हैं ? संख्येय भागों में होते हैं ? असंख्येय भागों में होते हैं ? या समूचे लोक में होते हैं ? एक द्रव्य की अपेक्षा वे लोक के संख्यातवें Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अणुओगदाराई भागे वा होज्जा, असंखेज्जइभागे असंख्येयतमभागे वा भवन्ति, संख्येयेषु भाग में होते हैं, असंख्यातवें भाग में होते हैं, वा होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु वा भागेषु वा भवन्ति, असंख्येयेषु भागेषु संख्येय भागों में होते हैं, असंख्येय भागों में होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु वा वा भवन्ति, देशोने लोके वा भवन्ति । होते हैं अथवा कुछ कम लोक में होते हैं। होज्जा, देसूणे लोए वा होज्जा। नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात सर्व- अनेक द्रव्यों की अपेक्षा वे नियमतः समूचे नाणादवाई पडच्च नियमा लोके भवन्ति । एवं अपि । लोक में होते हैं। सव्वलोए होज्जा। एवं दोण्णि इसी प्रकार नैगम और व्यवहारनय सम्मत वि ॥ अनानुपूर्वी ओर अवक्तव्य द्रव्यों का प्रतिपादन करना चाहिए।' २१०. एवं फुसणा वि॥ एवं स्पर्शना अपि। २१०. इसी प्रकार स्पर्शना का निरूपण भी करना चाहिए । [देखो सूत्र २०९] २११. नेगम-ववहाराणं आणवि - नैगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वी- २११. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य दव्वाइं कालओ केवच्चिरं होंति? द्रव्याणि कालत: कियच्चिरं भवन्ति? काल की अपेक्षा से कितने समय तक होते हैं ? एगदव्वं पडुच्च जहणणं तिणि एकद्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन त्रीन् समयान्, एक द्रव्य की अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य समया, उक्कोसेणं असंखेज्जंकालं। उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नाना- जघन्यतः तीन समय और उत्कृष्टतः असंख्येय नाणादब्वाइं पडुच्च नियमा द्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वाध्वा काल तक होते हैं। अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सव्वद्धा। नम् । वे सर्वकाल में होते हैं। नेगम-ववहाराणं अणाणुपुग्वि- नेगम-व्यवहारयोः अनानुपूर्वी- नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी दवाई कालओ केवच्चिरं होंति? द्रव्याणि कालतः कियश्चिरं भवन्ति ? द्रव्य काल की अपेक्षा से कितने समय तक एगदव्वं पड़च्च अजहण्णमणुक्को- एकद्रव्यं प्रतीत्य अजघन्यानुत्कर्षेण एक होते हैं ? सेणं एक्कं समयं । नाणादब्वाइं समयम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य एक द्रव्य की अपेक्षा से अनानुपूर्वी द्रव्य जघन्य पडुच्च सव्वद्धा। सर्वाध्वानम्। और उत्कृष्ट का भेद किए बिना एक समय नेगम-ववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाइं नंगम-व्यवहारयोः अवक्तव्यक- तक और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वकाल में कालओ केवच्चिरं होंति ? एगदव्वं द्रव्याणि कालतः कियच्चिरं भवन्ति ? होते हैं। पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं दो एकद्रव्यं प्रतीत्य अजघन्यानुत्कर्षेण द्वौ नेगम और व्यवहारनय सम्मत अवक्तव्य द्रव्य समयं । नाणादव्वाई पडच्च समयौ। नानाद्रव्याणि प्रतीत्य काल की अपेक्षा से कितने समय तक होते हैं ? सव्वद्धा॥ सर्वाध्वानम् । एक द्रव्य की अपेक्षा से अवक्तव्य द्रव्य जघन्य और उत्कृष्ट का भेद किए बिना दो समय तक और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वकाल में होते २१२. नेगम-ववहाराणं आणुपुग्वि- नैगम-व्यवहारयोः आनुपर्वी- दव्वाणं अन्तरं कालओ केवच्चिरं द्रव्याणाम् अन्तरं कालत: कियच्चिरं होइ ? एगदव्वं पडुच्च जहण्णणं भवति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एगं समयं, उक्कोसेणं दो समया। एक समयम, उत्कर्षेण द्वौ समयौ। नाणादव्वाइं पडुच्च नत्थि अतरं। नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । नेगम-ववहाराणं अणाणुपुग्वि- नैगम-व्यवहारयोः अनानुपूर्वीदव्वाण अतर कालआ कवाच्चर द्रव्याणाम् अन्तरं कालतः कियच्चिरं होइ ! एगदव्वं पडुच्च जहण्णण भवति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन दो समया, उक्कोसेणं असंखेज्जं द्वौ समयौ, उत्कर्षेण असंख्येयं कालं। नाणादव्वाइं पडुच्च नत्थि ___ कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अंतरं॥ अन्तरम् । २१२. नैगम और व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्यों में कालकृत अन्तर कितना होता है ? ___ एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्यत: एक समय और उत्कृष्टतः दो समय । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा इनमें कालकृत अन्तर नहीं होता। नंगम और व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्यों में कालकृत अन्तर कितना होता है ? एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्यतः दो समय और उत्कृष्टत: असंख्येय काल । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा उनमें कालकृत अन्तर नहीं होता। Jain Education Intemational Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्रकरण : सूत्र २१०-२१७ नेगम-यवहाराणं अवत्तम्बगवण्याणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? एगदव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं समर्थ, उनकोसेणं असंवेज्जं कालं नाणादया पहुच्च नत्वि अंतरं ॥ । २१३. नेगम-ववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई सेसदव्वाणं कइ भागे होज्जा - पुच्छा । जहेव खेत्ताणुपुवीए ॥ २१४. भावो वि तहेव ॥ २१५. अप्पाबहुं पि तहेव यव्वं । से तं अणुगमे से तं नेगम-यवहाराणं । अणोवणिहिया कालाणुपुथ्वी ॥ २१६. से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया कालाणुपुथ्वी ? संगहस्स अणोवणहिया कालाणुपुथ्वी पंचविहा पण्णता, तं जहा१. अपयवा २. अंगसमुक्कि त्तणया ३. भंगोवदंसणया ४. समोवारे ५. अणयमे ॥ २१७. से कि तं संगहस्स अट्ठपयपरूगणया ? संगहस्स अपयपरूवणया - एवाई पंच विदाराई जहाँ खेत्ताणुपब्बीए संगहस्स तहा कालापुवीए वि भाणियव्वाणि नवरं-ठितीअभिलावो जाव से तं अणुगमे । सेतं संगहस्स अणोमिहिया कालापुवी से तं अणोवणिहिया कालाणुपुच्ची ॥ नैगम-व्यवहारयोः अवक्तव्यकद्रव्याणाम् अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? एकद्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एक समयम् उत्कर्षेण अध्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । संगहस्स अगोवणियि कालानुपुथ्वी-पर्व संग्रहस्य अनोपनिधिकी- कालानुपूर्वी-पदम् अथ किं सा संग्रहस्य अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी ? संग्रहस्य अनौपनिधिको कालानुपूर्वी पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - १. अर्थपदप्रवणा २. मंकीर्तन मंगो पदर्शनम् ४. समवतारः ५. अनुगमः । नैगम-व्यवहारयोः आनुपूर्वी द्रव्याणि शेषद्रव्याणां कति भागे भवति पृच्छा । यथंव क्षेत्रानुपूर्णाम् । भावः अपि तथैव । अल्पबहु अपि तथैव ज्ञातव्यम् । स एवं अनुगमः । सा एया संगम-नयहारयो: अनोपनिधि कालानुपूर्वी अथ किं सा संग्रहस्य अर्थपदप्ररूपणा ? संग्रहस्य अपत्ररूपणाएतानि पञ्च अपि द्वाराणि दया क्षेत्रानुपु संग्रहस्य तथा कालानुपूष्य अपि भवितव्यानि नवरं स्थित्यभिलापः यावत् । स एष अनुगमः । सा एषा संग्रहस्य अनौप निधिकी कालानुपूर्वी । सा एषा अनौपनि धिकी कालानुपूर्वी । ** निगम और व्यवहारनय सम्मत अवक्तव्य द्रव्यों में कालकृत अन्तर कितना होता है ? एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्येय काल । अनेक द्रव्यों की अपेक्षा उनमें कालकृत अन्तर नहीं होता ।" २१२. नैगम और व्यवहारनय सम्पत आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कितने भाग में होते हैं ? ये क्षेत्रानुपूर्वी की भांति जानने चाहिए। (देखो सूत्र १७२ ) २१४. भाव भी वैसे ही जानने चाहिए । (देखो सूत्र १७३ ) २१५. अल्पबहुत्व भी वैसे ही जानना चाहिए । [देखो सूत्र १७४ ] वह अनुगम है । वह नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी है । संग्रहनय सम्मत अनौपनिधिको कालानुपूर्वी पद २१६. वह संग्रहनय सम्मत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी क्या है ? संग्रहनय सम्मत अनोपनिधिको कालानुपूर्वी के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे--- १. अर्थपदप्ररूपण २. अंगसमुत्कीर्तन २ गोपदर्शन ४. समवतार ५. अनुगम । २१७. वह संग्रनय सम्मत अर्थपदप्ररूपण क्या है? संग्रहनय सम्मत अर्थपदप्ररूपण - कालानुपूर्वी के ये पांचों द्वार संग्रहनय सम्मत क्षेत्रानुपूर्वी की भांति प्रतिपादनीय हैं। विशेष बात यह है कि क्षेत्रानुपूर्वी में जैसे त्रिप्रदेशावगाढ आदि हैं वैसे यहां पर तीन समय की स्थिति वाला पुद्गल आनुपूर्वी, एक समय की स्थिति वाला पुद्गल अनानुपूर्वी और दो समय की स्थिति वाला पुद्गल अवक्तव्य ऐसा प्रयोग करना चाहिए । [ देखो सूत्र १७५ ] , वह अनुगम है। वह संग्रहनय सम्मत अनोपनिधिको कालापूर्वी है। वह अनीपनिधिकी कालानुपूर्वी है । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अणओगदाराई ओवणिहिय-कालाणुपुवी-पदं औपनिधिको-कालानुपूर्वी-पदम् औपनिधिको कालानुपूर्वी पद। २१८. से कि तं ओवणिहिया कालाणु- अथ किं सा औपनिधिको काला. २१८. वह औपनिधिकी कालानुपूर्वी क्या है ? पुवी ? ओवणिहिया कालाणु- नुपूर्वी ? औपनिधिको कालानुपूर्वी औपनिधिकी कालानुपूर्वी के तीन प्रकार पुवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानु- प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और पुवाणुपुवी पच्छाणुपुव्वी अणाणु- पूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अनानुपूर्वी। पुवी॥ २१९. से कि तं पुवाणुपुवी ? पुवा- अथ कि सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु- २१९. बह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? णुपुवी-समए आवलिया आणा- पूर्वी-समयः आवलिका आनापानः ___पूर्वानुपूर्वी-समय, आवलिका, आन पाण थोवे लवे महत्ते अहोरत्ते स्तोकः लव: मुहूर्तः अहोरात्रं पक्षः [उच्छ्वास] अपान (निःश्वास) स्तोक, लव, पक्खे मासे उऊ अयणे संवच्छरे मासः ऋतुः अयनं संवत्सरः युगं वर्ष- मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, जगे वाससए वाससहस्से वाससय- शतं वर्षसहस्रं वर्षशतसहस्रं पूर्वाङ्ग संवत्सर, युग, सौ वर्ष, हजार वर्ष, लाख वर्ष, सहस्से पव्वंगे पव्वे, तुडियंगे तुडिए, पूर्व, त्रुटिताङ्गं त्रुटितं, अटटाङ्गम् पूर्वाङ्ग, पूर्व, त्रुटिताङ्ग, श्रुटित, अटटाङ्ग, अडडंगे अडडे, अववंगे अववे, अटटम्, अववाङ्गम् अववं, हुहकाङ्ग अटट, अववाङ्ग, अवव, हुहुकांग, हुहुक, हहयंगे हुहुए, उप्पलंगे उप्पले, हुहुकम्, उत्पलाङ्गम् उत्पलं, पद्माङ्ग उत्पलाङ्ग, उत्पल, पद्माङ्ग, पद्म, नलिनाङ्ग, पउमंगे पउमे, नलिणंगे नलिणे, पद्म, नलिनाङ्ग नलिनम्, अर्थनि- नलिन, अर्थनिपुराङ्ग, अर्थनिपुर, अयुताङ्ग, अत्थनिउरंगे अत्थनिउरे, अउयंगे पुराङ्गम् अर्थनिपुरम्, अयुताङ्गम् अयुतं, अयुत, नयुताङ्ग, नयुत, प्रयुताङ्ग, प्रयुत, अउए, नउयंगे नउए, पउयंगे पउए, नयुतानं नयुतं, प्रयुतानं प्रयुतं, चूलिकाङ्ग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकाङ्ग, शीर्षचुलियंगे चुलिया, सीसपहेलियंगे चूलिकाङ्गं चूलिका, शीर्षप्रहेलिकाङ्गं प्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी, सीसपहेलिया, पलिओवमे सागरो- __ शीर्षप्रहेलिका, पल्योपमं सागरोपमम् उत्सर्पिणी, पुद्गलपरिवर्त, अतीतकाल, वमे ओसप्पिणी उस्सप्पिणी ___ अवसप्पिणी उत्सपिणी पुद्गलपरिवर्तः अनागतकाल और सर्वकाल। वह पूर्वानुपूर्वी पोग्गलपरियट्टे तीतद्धा अणाग- अतीताध्वा अनागताध्वा सर्वाध्वा । तद्धा सव्वद्धा। से तं पुवाणु- सा एषा पूर्वानुपूर्वी । पुवी ॥ २२०. से कि तं पच्छाणुपुवी? पच्छा- अथ किं सा पश्चानुपूर्वी ? २२०. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? णुपुव्वी - सव्वद्धा जाव समए। पश्चानुपूर्वी सर्वाध्वा यावत् समयः। पश्चानुपूर्वी-सर्वकाल यावत् समय । वह से तं पच्छाणुपुव्वी॥ सा एषा पश्चानुपूर्वी । पश्चानुपूर्वी है। २२१. से कि तं अणाणपुवी ? अथ किं सा अनानुपूर्वी ? २२१. वह अनानुपूर्वी क्या है ? अणाणुपुवी-एयाए चेव एगाइ- अनानुपूर्वी-एतया चैव एकादिकया अनानुपूर्वी-एक से प्रारम्भ कर एकयाए एगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए एकोत्तरिकया अनन्तगच्छगतया श्रेण्या एक की वृद्धि करें। इस प्रकार अनन्त तक की सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवणो। अन्योन्याभ्यासः द्विरूपोनः। सा एषा संख्या का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणासे तं अणाणुपुव्वी॥ अनानुपूर्वी। कार करें। इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो । वह अनानुपूर्वी है। २२२. अहवा ओवणिहिया कालाणपुव्वी अथवा औपनिधिको कालानुपूर्वी २२२. अथवा औपनिधिको कालानुपूर्वी के तीन तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुव्वा- त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानु- प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुणुपुवो पच्छाणुपुव्वी अणाणु- पूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । पूर्वी और अनानुपूर्वी । पुवी॥ Jain Education Intemational Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्रकरण : सूत्र २१८-२२६ १४३ २२३. से कि तं पुव्वाणुपुवी ? पुवा- अथ किं सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु- २२३. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? णुपुब्यो-एगसमयदिईए दुसमय- पूर्वी एकसमयस्थितिकः द्विसमय- पूर्वानुपूर्वी-एक समय की स्थिति वाले, दिईए तिसमयट्रिईए जाव दस- स्थितिकः त्रिसमयस्थितिक: यावद दो समय की स्थिति वाले, तीन समय की सभयदिईए संखेज्जसमयदिईए दशसमयस्थितिका संख्येयसमय- स्थिति वाले यावत् दस समय की स्थिति वाले, असंखेज्जसमयदिईए। से तं स्थितिकः असंख्येयसमयस्थितिकः। संख्येय समय की स्थिति वाले और असंख्येय पुव्वाणुपुधी॥ सा एषा पूर्वानुपूर्वी। समय की स्थिति वाले पुद्गल । वह पूर्वानुपूर्वी २२४. से कि तं पच्छाणपुव्वी? पच्छा- अथ कि सा पश्चानुपर्छ ? २२४. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? णुपुवी-असंखेज्जसमयदिईए पश्चानुपूर्वी असंख्येयसमयस्थितिकः । पश्चानुपूर्वी--असंख्येय समय की स्थिति जाव एगसमयट्टिईए। से तं यावद् एकसमयस्थितिकः। सा एषा यावत् एक समय की स्थिति वाले पुद्गल । पच्छाणुपुवी ॥ पश्चानुपूर्वी। वह पश्चानुपूर्वी है। २२५. से कि तं अणाणुपुवी? अणा- अथ कि सा अनानुपूर्वी ? अनानु- २२५. वह अनानुपूर्वी क्या है ? णुपुव्वो-एयाए चेव एगाइयाए पूर्वी-एतया चैव एकादिकया एकोत्त- अनानुपूर्वी ---एक से प्रारम्भ कर एक-एक एगुत्तरियाए असंखेज्जगच्छगयाए रिकया असंख्येयगच्छगतया श्रेण्या की वृद्धि करें । इस प्रकार असंख्य तक की संख्या सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवणो। अन्योन्याभ्यास: द्विरूपोन: । सा एषा का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार से तं अणाणपुवी। से तं ओवणि- अनानुपूर्वी । सा एषा औपनिधिको करें। इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से हिया कालाणुपुवी। से तं काला- कालानुपूर्वी । सा एषा कालानुपूर्वी । दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल णुपुवी॥ देने से जो संख्या प्राप्त हो । वह अनानुपूर्वी है । वह औपनिधिकी कालानुपूर्वी है। वह कालानुपूर्वी है। उक्कित्तणाणुपुव्वी-पदं उत्कीर्तनानुपूर्वी-पदम् उत्कीर्तन आनुपूर्वी पद २२६. से कि तं उक्कित्तणाणपुवी? ____ अथ किं सा उत्कीर्तनानुपूर्वी ? २२६. वह उत्कीर्तन आनुपूर्वी क्या है ? उक्कित्तणाणुपुत्री तिविहा उत्कीर्तनानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, उत्कीर्तन आनुपूर्वी के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, पण्णत्ता, तं जहा -पुवाणुपुत्वी तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी जैसे --पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानु पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुव्वी॥ अनानुपूर्वी। २२७. से किं तं पुवाणुपुवी ? पुवा- अथ किं सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु- २२७. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? णपुवी-उसमे अजिए संभवे पूर्वी-ऋषभः अजित: संभवः अभि- पूर्वानुपूर्वी-ऋषभ, अजित, संभव, अभिअभिणंदणे सुमतो पउमप्पभे चंद- नन्दनः सुमतिः पद्मप्रभः सुपार्श्व: नन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, प्पहे सुविही सीनले सेज्जसे वासु- चंद्रप्रभः सुविधि: शीतलः श्रेयांसः सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, पुज्जे विमले अणंते धम्मे संतो कंथ वासुपूज्य: विमलः अनन्तः धर्मः शांतिः अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिअरे मल्लो मुणिसुव्वए णमी कुन्थुः अरः मल्लि: मुनिसुव्रतः नमिः सुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व और वर्धअरिट्रणेमी पासे बद्धमाणे । से तं अरिष्टनेमिः पार्श्वः वर्धमानः । सा मान । वह पूर्वानुपूर्वी है। पुवाणुपुब्बी॥ एषा पूर्वानुपूर्वी। २२८. से कि तं पच्छाणुपुवी ? पच्छा- अथ कि सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चा- २२८. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? णुपवी-वद्धमाणे जाव उसभे। नुपूर्वो-वर्धमान: यावत् ऋषभः । पश्चानुपूर्वी-वर्धमान यावत् ऋषभ । से तं पच्छाणुपुवी॥ सा एषा पश्चानुपूर्वी। वह पश्चानुपूर्वी है। २२६. से कि तं अणाणपवी? अणा- अथ कि सा अनानुपूर्वी ? अना- २२९. वह अनानुपूर्वी क्या है ? णपुव्वो-एयाए चेव एगाइयाए नुपूर्वी - एतया चैव एकादिकया अनानुपूर्वी-एक से प्रारम्भ कर एक-एक एगुत्तरियाए चउवीसगच्छगयाए एकोत्तरिकया चतुर्विशतिगच्छगतया की वृद्धि करें। इस प्रकार चौबीस तक की पूर्वी। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सेढीए अण्णमण्णभासो दुरूवूणो । सेतं अणाणुपुव्वी । सेतं उक्कत्तgat | गणणा goat पदं २३०. से किं तं गणणाणुपुव्वी ? गणणाणुपुत्री तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुgoat अणाणवी || २३१. से किं तं पुव्वाणुपुथ्वी ? पुव्वाणुपुथ्वी- एगो दस सयं सहस्सं दस सहस्साइं सय सहस्सं दससयसहस्साई कोडी दसकोडीओ कोडिसयं दसकोडिसयाइं । से तं पुव्वाणुपुव्वी ॥ जाव २३२. से किं तं पच्छाणुपुव्वी ? पच्छाणुपुव्वी - दसको डिसयाई एगो । से तं पच्छाणुपुवी ॥ २३३. से कि तं अणाणुपुव्वी ? अणाणुपुन्वी - एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए दसकोडिसयगच्छ गयाए सेढीए अण्णमण्णवभासो दुरूवणो । से तं अणाणुपुथ्वी । से तं गणणाणुपुवी ॥ ठाणाणुपुवी-पदं २३४. से किं तं संठाणाणुपुव्वी ? संठाणाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुवी अणावी ॥ २३५. से किं तं पुव्वाणुपुब्वी ? वाणुपुवी - समचउरंसे नग्गोहपरिमंडले साई खुज्जे वामणे हुंडे । तं वा ॥ २३६. से किं तं पच्छाणुपुथ्वी ? पच्छाणुपुथ्वी- हुंडे जाव समचउरंसे । Jain Education Intemational श्रेण्या अन्योन्याभ्यासः द्विरूपोनः । सा एषा अनानुपूर्वी । सा एषा उत्कीर्तनानुपूर्वी गणनानुपूर्वी-पदम् अथ किं सा गणनानुपूर्वी ? गणनानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ कि सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी - एकः दश शतं सहस्रं वशसहस्त्राणि शतसहस्रं दशशतसहस्राणि कोटि : दशकोटयः कोटिशतं दशकोटिशतानि । सा एषा पूर्वानुपूर्वी । अथ कि सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी-वशकोटिशतानि यावद् एकः । सा एषा पश्चानुपूर्वी । अथ fक सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी - एतया चैव एकाविकया एकोतरिकया दशकोटिशतगच्छ्रगतया श्रेण्या अन्योन्याभ्यासः द्विरूपोनः । सा एषा अनानुपूर्वी । सा एषा गणनानुपूर्वी । संस्थानानुपूर्वी-पदम् अथ किं सा संस्थानानुपूर्वी ? संस्थानानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ कि सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी समचतुरखं न्यग्रोधपरिमण्डलं सादि कुब्जं वामनं हुण्डम् । सा एषा पूर्वानुपूर्वी । अथ किस पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी - हुण्डं यावत् समचतुरस्रम् । अगद संख्या का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार करें । इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो। वह अनानुपूर्वी है। वह उत्कीर्तनानुपूर्वी है । गणना आनुपूर्वी पद २३०. वह गणना आनुपूर्वी क्या है ? गणना आनुपूर्वी के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी " २३१. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? पूर्वानुपूर्वी एक, दस, सौ, हजार, दसहजार, लाख, दस लाख, करोड़, दस करोड़, सौ करोड़, दस सौ करोड़ । वह पूर्वानुपूर्वी है । २३२. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? पश्चानुपूर्वी - दस सौ करोड़ यावत् एक । वह पश्चानुपूर्वी है । २३३. वह अनानुपूर्वी क्या है ? अनानुपूर्वी - एक से प्रारम्भ कर एक-एक की वृद्धि करें। इस प्रकार दस सौ करोड़ तक की संख्या का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार करें। इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो । वह अनानुपूर्वी है । वह गणना आनुपूर्वी है । संस्थान आनुपूर्वी पद २३४. वह संस्थान आनुपूर्वी क्या है ? संस्थान आनुपूर्वी के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । २३५. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? पूर्वानुपूर्वी - समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, कुब्ज, वामन और हुण्ड । वह पूर्वानुपूर्वी है । २३६. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? पश्चानुपूर्वी - हुण्ड यावत् समचतुरस्र । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्रकरण : सूत्र २३० - २४२ से तं पच्छा पुथ्वी ॥ २३७. से किं तं अणाणुपुथ्वी ? अणाणुपुथ्वी- एयाए चैव एमाइयाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुथ्वी । से तं संठाणाणुपुव्वी ॥ सामायारियाणवी पदं २३८. से कि तं सामावारियाणुपुथ्वी ? सामावारियाणवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा पुण्वाणुपुव्वी पच्छा पुवी अणाणुपुवी ॥ २३. से किं तं वाणपुथ्वी ? पुण्याणुपुव्वी माहा इच्छा मिच्छा तहक्कारो, आवस्सिया य निसोहिया । आमा पपुच्छा, छंदणाय निमंतणा ॥१॥ उवसंपया य काले, सामावारी भये वसविहा उ सेतं वाणी ॥ २४०. से किं तं पच्छाणुपुथ्वी ? पच्छाणुपुथ्वी- उवसंपया जाव इच्छा से तं पच्छा पुब्बी ॥ २४१. से किं तं अणाणुपुथ्वी ? अणाणुपुव्वी - एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए दसगच्छ्गयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरूवणो । से तं अणाणुव्व । से तं सामायारियाणुपुच्ची ॥ भावाणुपुव्वी-पदं २४२. से कि तं भावाणुपुथ्वी ? भावापुच्चीतिविहा पण्णता, तं जहा स एवा पश्चानुपूर्वी अब कि सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी एतया एकाकिया एकोतरिकया षड्गच्छगतया श्रेण्या अन्योन्याभ्यासः द्विरूपोनः । सा एषा अनानुपूर्वी । सा एषा संस्थानानुपूर्वी । सामाचार्यानुपूर्वी-पदम् अथ कसा सामाचार्यापूर्वी ? सामाचार्यानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । गाथा इच्छा मिच्छा तथाकारः, आवश्यकी च निषोधिका । आप्रच्छना च प्रतिप्रच्छा, छंदना च निमन्त्रणा ॥१॥ उपसम्पदा च काले, सामाचारी भवेद् दशविधा तु । स एषा पूर्वानुपूर्वी । अथ किस पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु- २३९. वह पूर्वानुपूर्वी क्या है ? पूर्वी अथ कि सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी - उपसम्पदा यावद् इच्छा सा एषा पश्चानुपूर्वी । अथ कि सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी - एतया चैव एकाविषया एकोत्तरिकया दशगच्छगतया श्रेण्या अन्योन्याभ्यासः द्विरूपोनः । सा एषा अनानुपूर्वी । सा एषा सामाचार्यानुपूर्वी । भावानुपूर्वी-पदम् अथ किं सा भावानुपूर्वी ? भावानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता तथा तद्यथा यह पश्चानुपूर्वी है। २३७. वह अनानुपूर्वी क्या है ? अनानुपूर्वी- एक से प्रारम्भ कर एक-एक की वृद्धि करें। इस प्रकार छह तक की संख्या का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार करें। इससे जो भंग संख्या प्राप्त हो, उसमें से दो पूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो। वह अनानुपूर्वी है वह संस्थान आनुपूर्वी है। सामाचारी आनुपूर्वी पद २३८. वह सामाचारी आनुपूर्वी क्या है ? सामाचारी आनुपूर्वी के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । १४५ पूर्वानुपूर्वी इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आवश्यकी, नैषेधिकी, आप्रच्छना, प्रतिप्रच्छना, छंदना, निमन्त्रणा और उपसंपदा । सामाचारी के ये दस प्रकार यथा समय समाचरणीय हैं। वह पूर्वानुपूर्वी है। २४०. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? पश्चानुपूर्वी उपसंपदा यावत् इच्छाकार । वह पश्चानुपूर्वी है। २४१. अनापूर्वी क्या है ? अनानुपुर्वी - एक से प्रारम्भ कर एक-एक की वृद्धि करें। इस प्रकार दस तक की संख्या का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार करें। इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो। वह अनानुपूर्वी है । वह सामाचारी आनुपूर्वी है ।" भावानुपूर्वी पद २४२. वह भावानुपूर्वी क्या है ? भावानुपूर्वी के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ -- पुवाणुपुथ्वी पच्छाणुपुथ्वी arrat || २४३. से किं तं पुण्वाणुपुथ्वी ? पुव्वाणुपुथ्वी उदइ उवसमिए लड़ए खओवसमिए पारिणामिए सन्नि वाइए। सेतं पुण्यापुण्वी ॥ २४४. से कि तं पच्छापुथ्वी ? पच्छापृथ्वी सन्निवाइए जब उदइए से तं पुथ्वी ॥ २४५. से कि तं अणापुखी? अणाणुपुव्वी- एयाए चेव एगाइयाए एगुलरियाए छगच्छ्गयाए सेटीए अण्णमण्णभासो दुरूवूणो । से तं अणापुथ्वी से तं भावाणुपुथ्वी सेतं आणुपुथ्वी ॥ ( आणुपुवीत्ति पदं समत्तं । ) पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अब किस पूर्वानुपूर्वी पूर्वा पूर्वी अधिकः पशमिकः खार्थिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिकः सान्नि पातिकः । सा एषा पूर्वानुपूर्वी । २४३. वह पूर्वानुपूर्वी नया है ? ? अथ कि सा परचा ? पश्चानुपूर्वी सान्निपातिकः पावत् अधिक: सा एषा पश्चानुपूर्वी अब कि सा अनानुपूर्वी मना ? अनानुपूर्वी - एतया चैव एकादिरुपा एकोसरिया पगन्धगतया लेण्या अन्योन्याभ्यासः द्विरूपोनः । सा एषा अनापूर्वी सा एवा भावानुपूर्वी सा एवा आनुपूर्वो (आनुपूर्वी इति पदं समाप्तम् । ) अणुओगदाराई - पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूर्वीकदमिक पशमिक, आर्थिक, क्षायोपमिक, पारिणामिक और सान्नि पातिक ।" वह पूर्वानु है। 7 २४४. वह पश्चानुपूर्वी क्या है ? पश्चानुपूर्वी वाल्लिपाति यावत् औद यिक । वह पश्चानुपूर्वी है । २४५. वह अनानुपूर्वी क्या है ? अनानुपूर्वी एक से प्रारम्भ कर एक-एक की वृद्धि करें। इस प्रकार छह तक की संख्या का श्रेणी की पद्धति से परस्पर गुणाकार करें। इससे जो भंगसंख्या प्राप्त हो, उसमें से दो (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) को निकाल देने से जो संख्या प्राप्त हो । वह अनानुपूर्वी है । वह भावानुपूर्वी है। वह आनुपूर्वी है। ( आनुपूर्वी पद समाप्त | ) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र १९६ १. (सूत्र १६६) द्रव्यानुपूर्वी का आधार है-पुद्गल द्रव्य । क्षेत्रानुपूर्वी का आधार है-आकाश प्रदेश । इसी प्रकार कालानुपूर्वी का आधार है-कालपर्याय। कालानुपूर्वी काल द्रव्य का एक पर्याय है। तीन समय, चार समय, पांच समय यावत् असंख्यात समय से उपलक्षित द्रव्य कालानुपूर्वी कहलाते हैं। इसके तीन प्रकार हैं १. आनुपूर्वी-द्रव्य और पर्याय में कथंचित् अभेद होता है--इस अपेक्षा से तीन समय आदि की स्थिति वाले परमाणु और स्कन्ध आनुपूर्वी कहलाते हैं। २. अनानुपूर्वी-एक समय की स्थिति वाले परमाणु और स्कन्ध अनानुपूर्वी कहलाते हैं। ३. अवक्तव्य -इसी प्रकार दो समय की स्थिति वाले परमाणु व स्कन्ध अवक्तव्य कहलाते हैं। सूत्र २०८ २. (सूत्र २०८) तीन समय की स्थिति वाले द्रव्य अनन्त हैं। फिर भी कालावधि की अपेक्षा उनका एकत्व है। कालानुपूर्वी में काल की प्रधानता है तथा द्रव्य-बहुत्व गौण है । इस प्रकार तीन समय की स्थिति वाले द्रव्यों की एक आनुपूर्वी होती है, चार समय की स्थिति वाले द्रव्यों की एक आनुपूर्वी होती है, यावत् असंख्य समय की स्थिति वाले द्रव्यों की एक-एक आनुपूर्वी होती है। निष्कर्ष की भाषा में आनुपूर्वी द्रव्य असंख्य ही होते हैं। द्रव्यों का आधारभूत आकाश असंख्यप्रदेशात्मक है। उनकी वर्तना के हेतु काल के समय भी असंख्य हैं अतः आधारभूत आकाशप्रदेश और वर्तनाहेतुक समय दोनों असंख्येय ही होंगे । इस अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य असंख्येय बतलाए गए हैं। एक समय तथा दो समय की स्थिति वाले द्रव्य लोक में अनन्त हैं। यदि एक समयात्मक तथा द्विसमयात्मक स्थिति को एक रूप माने तो अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य को एक ही मानना होगा । वह प्रत्येक असंख्येय नहीं हो सकता। यदि द्रव्य-भेद के भेद से भिन्नता मानी जाए तो प्रत्येक को अनन्त मानना होगा। इस जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार हो सकता है-एक समय की स्थिति वाले द्रव्यों की भिन्नता अवगाह-भेद के आधार पर विवक्षित है। इसी प्रकार दो समय की स्थिति वाले द्रव्यों की भिन्नता अवगाह-भेद के आधार पर विवक्षित है। लोक में अवगाह-भेद असंख्य हैं । इस प्रकार आधार क्षेत्र के भेद से अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों का असंख्येयत्व ही प्रमाणित होता है।' सूत्र २०९ ३. (सूत्र २०६) चूर्णिकार ने 'देशोन' के स्थान पर 'प्रदेशोन' पाठ मान्य किया है। उनकी व्याख्या है कि आनुपूर्वी द्रव्य लोकव्यापी नहीं हो सकता । अचित्त-महास्कन्ध केवल चतुर्थ समय में लोकव्यापी होता है । आनुपूर्वी द्रव्य के लिए कम से कम तीन समय की स्थिति आवश्यक है । अतः काल की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य को प्रदेशोन कहा गया है।" इसका दूसरा विकल्प यह है-तीन समय आदि की स्थिति वाला कालानुपूर्वी द्रव्य जघन्यतः एक प्रदेश का अवगाहन करता १. ठा. २।१। ४. (क) अहावृ. पृ. ५१ । २. अहावृ. पृ. ५१। (ख) अमवृ. प. ८६ । ३. अहा.पृ. ५१। ५. अचू. पृ. ३६,३७। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अणुओगदाराई है उसी प्रदेश का एक समय की स्थितिवाला अनानुपूर्वी द्रव्य, दो समय की स्थिति वाला अवक्तव्य द्रव्य भी अवगाहन करता है। इस प्रकार अचित्त महास्कन्ध चौथे समय में काल की दृष्टि से आनुपूर्वी द्रव्य बनता है। अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्य भी उसी प्रदेश में अवगाढ़ हैं। जहां वे अवगाढ़ हैं वहां आनुपूर्वी द्रव्य की विवक्षा गौण है । इस अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य को प्रदेश न्यून कहा गया है। अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य के आधार क्षेत्र के विषय में दो मत हैं १. अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य एक द्रव्य की अपेक्षा संख्यातवें भाग, असंख्यातवें भाग, संख्येय भाग, असंख्येय भाग, और देशोन लोक-इन सभी विकल्पों में उपलब्ध हैं। २. अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में उपलब्ध हैं। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने दूसरे मत को मान्य किया है और प्रथम मत को आदेशांतर माना है। अवक्तव्य द्रव्य के विषय में एक और आदेशांतर का उल्लेख किया गया है। उसके अनुसार महास्कन्ध को छोड़कर अन्य द्रव्य की जिज्ञासा हो वहां अवक्तव्य द्रव्य पांचवें विकल्प (देशोन) को छोड़कर शेष चारों विकल्पों में उपलब्ध होता है। __अनानुपूर्वी द्रव्य पांचों विकल्पों में उपलब्ध होता है । अचित्त महास्कन्ध के विस्तार और उपसंहार की प्रत्येक अवस्था एक एक समय की होती है। अचित्त महास्कन्ध की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्य इन पांचों विकल्पों में उपलब्ध हो सकता है। अवक्तव्य द्रव्य के विषय में तीन आदेश हैं१. वह पांचों विकल्पों में उपलब्ध होता है। २. वह केवल लोक के असंख्यातवें भाग में उपलब्ध है। ३. वह देशोन लोक को छोड़कर शेष चार विकल्पों में उपलब्ध है। प्रथम मत के अनुसार एक दो समय की स्थितिवाला विशाल स्कन्ध लोक के कभी संख्यातवें, कभी असंख्यातवें, कभी संख्येय भागों में, कभी असंख्येय भागों में रह सकता है। कोई विशालतम स्कन्ध लोक के देशोन-अपूर्ण भाग में व्याप्त हो सकता है। दूसरे मत के अनुसार अवक्तव्य द्रव्य केवल लोक के असंख्यातवें भाग में उपलब्ध होता है। शेष चारों विकल्प उन्हें मान्य नहीं है। यह मत चूणि और दोनों वृत्तियों का है। हेमचंद्र ने लिखा है जो काल की अपेक्षा द्विसमय की स्थिति वाला है वह क्षेत्र की अपेक्षा द्विप्रदेशावगाढ ही यहां विवक्षित है और वह लोक के असंख्यातवें भाग में ही होगा।' तीसरा मत चणि और दोनों वृत्तियों में मतान्तर के रूप में उल्लिखित है। उसके अनुसार अवक्तव्य द्रव्य का देशोन लोकव्यापित्व असंभव है। सूत्र २११ ४. (सूत्र २११) द्रव्यानुपूर्वी में जैसे द्रव्यमान प्रदेश के आधार पर आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्य की व्यवस्था है वैसे ही क्षेत्रानुपूर्वी में क्षेत्र प्रदेश के आधार पर व कालानुपूर्वी में काल प्रदेश के आधार पर उनकी व्यवस्था की जाती है । अतः कालानुपूर्वी द्रव्य की जघन्य स्थिति तीन समय, अनानुपूर्वी द्रव्य की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक समय तथा अवक्तव्य की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति दो समय की होती है। सूत्र २१२ ५. (सूत्र २१२) ___ तीन आदि समय की स्थिति वाला कोई आनुपूर्वी द्रव्य अपने वर्तमान परिणमन को छोड़कर दूसरे परिणमन में एक समय रहकर फिर तीन आदि समय की स्थिति वाले परिणमन में आ जाता है तब एक समय का अन्तर रहता है। जब वह आनुपूर्वी द्रव्य अपने वर्तमान परिणमन को छोड़कर, दूसरे परिणमन में दो समय रहकर फिर तीन आदि समय की स्थिति वाले परिणमन में जाता है तब दो समय का अन्तर रहता है। दो समय से अधिक परिणामान्तर में अवस्थान होने पर अन्तर नहीं होता क्योंकि तीन समय की १. (क) अचू. पृ. ३६,३७ । २. (क) अचू. पृ. ३६,३७ । (ख) अहावृ.पृ. ५१,५२ । (ख) अमव. प.८६,८७ । ३. वही, प. ८७ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ६, सू० २११-२३५, टि०४-६ १४६ स्थिति होते ही वह आनुपूर्वी हो जाता है।' अनानुपूर्वी (एक समय की स्थितिवाला) द्रव्य परिणामान्तर (वर्ण, गंध व वर्तमान पर्याय से भिन्न वर्ण, गंध, रस में जाकर पुनः मूल पर्याय में आता है) के कारण दो समय की स्थिति में रहकर पुन: एक समय की स्थिति में आता है तब उसका अन्तर जघन्य दो समय का होता है यदि वह परिणामान्तर में जाकर एक समय में ही पुनः मूल पर्याय में आ जाता है तो अन्तर नहीं रहता है। अवक्तव्य द्रव्य परिणामान्तर के कारण एक समय की स्थिति में रहकर दो समय की स्थिति में आता है, इस अवस्था में उसका जघन्य अन्तरकाल एक समय ही होता है। सूत्र २१९ ६. (सूत्र २१६) प्रस्तुत सूत्र में व्यवहारिक काल विवक्षित है। वह सूर्य की गतिक्रिया से निष्पन्न है। समय-जो सब प्रमाणों का आदि-बिन्दु, परम सूक्ष्म, अभेद्य और निरवयव होता है, काल का वह विभाग समय कहलाता (विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य सूत्र ४१६) आवलिका-असंख्य समय । आन-संख्यात आवलिकाओं का एक आन (उच्छ्वास) और संख्यात आवलिकाओं का एक अपान (निःश्वास) होता है। प्रस्तुत आगम के ४१७वें सूत्र में 'प्राण' शब्द का उल्लेख है। उसी के आधार पर यहां अध्याहार कर लेना चाहिए। हरिभद्रसूरि ने उच्छ्वास, नि:श्वास और प्राण तीनों की व्याख्या की है। हेमचंद्र ने आनापान का अर्थ आन और प्राण किया है इसलिए अपान को अनुक्त मानना पड़ा और अपान का अर्थ प्राण करना पड़ा। वास्तव में आन का अर्थ उच्छ्वास और अपान का अर्थ निःश्वास मानना संगत है । स्तोक आदि के विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य सूत्र ४१७ का टिप्पण । सूत्र २२६ ७. (सूत्र २२६) आनुपूर्वी के दस प्रकार बतलाए गए है। ये केवल उदाहरण हैं। समग्र दृष्टि से आनुपूर्वी के सैकड़ों प्रकार हो सकते हैं। प्रस्तुत सूत्र का प्रारम्भिक प्रतिपाद्य है आवश्यक । उत्कीर्तन आवश्यक का दूसरा अध्ययन है। इस अध्ययन में २४ तीर्थङ्करों का उत्कीर्तन किया गया है। हरिभद्र ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि अनुयोग द्वार में आवश्यक सूत्र प्रकृत है। अत: आनुपूर्वी के उदाहरण में सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव का उल्लेख होना चाहिए था। उत्कीर्तनानुपूर्वी का उल्लेख क्यों किया गया? इसका समाधान किया गया कि उत्कीर्तन शब्द एक सूचक है । आनुपूर्वी जैसे आवश्यक की होती है वैसे ही आचारांग आदि प्रत्येक अंग की हो सकती है। इस सूचना को दृष्टि में रखकर उत्कीर्तनानुपूर्वी का निर्देश दिया होगा।' सूत्र २३० ८. (सूत्र २३०) द्रष्टव्य सूत्र ५७४.........."गणना संख्या । सूत्र २३४,२३५ ६. (सूत्र २३४,२३५) संस्थान का क्रम उत्कर्ष से अपकर्ष के निरूपण के आधार पर है। समचतुरस्र सबसे उत्कृष्ट संस्थान है। १. समचतुरस्र संस्थान-जिस शरीर की ऊंचाई और चौड़ाई (आरोह और परिणाह) समान होती है। जिस व्यक्ति के १. (क) अहावृ. पृ. ५३ । (ख) अमवृ.प. ८८। २. अहाव.पृ.५४। ३. वही, पृ. ५४ । ४. अमव. प. ९० : 'आण' त्ति आणः एक उच्छ्वास इत्यर्थः, ता एव सङख्येया निःश्वासः, अयं च सूत्रेऽनुक्तोऽपि द्रष्टव्यः, स्थानान्तरप्रसिद्धत्वात् । १. अहावृ. पृ. ५७ । Jain Education Intemational Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अणुओदाराई सम्पूर्ण अवयव प्रमाणोपेत होते हैं और जिसकी ऊंचाई आत्मांगुल से १०८ अंगुल होती है, वह समचतुरस्र संस्थान कहलाता है ।" २. न्यग्रोध परिमंडल - नाभि से ऊपर के अवयव प्रमाणोपेत होते हैं। नाभि से नीचे के अवयव प्रमाणोपेत नहीं होते, वह न्यग्रोध परिमंडल संस्थान कहलाता है । " ३. सादि - जिसका नाभि से नीचे का भाग लक्षण युक्त न हो, वह सादि संस्थान कहलाता है। नाम स्वाति संस्थान आया है। वहां स्वाति के अर्थ किए हैं- वल्मीक और शाल्मलि । विशेष विवरण के लिए कोश, भाग ४ पृ० १५५ । ४. कुब्ज- नाभि से नीचे का भाग लक्षण युक्त किन्तु मध्यभाग विकृत, स्कन्ध का पृष्ठ भाग बढ़ा हुआ हो, वह कुब्ज संस्थान कहलाता है। ५. वामन - मध्य और गर्दन आदि का ऊपरी भाग लक्षण युक्त, हाथ और पैर आदि का भाग लक्षण हीन होता है वह वामन संस्थान कहलाता है ।" ६. हुण्ड - जिसके सब लक्षण आदि लक्षण के विसंवादी होते है। वह हुण्ड संस्थान कहलाता है ।" विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य ठाणं ६।३१ का पाठ और टिप्पण । समचतुरस्र की विशेष जानकारी के लिए देखें भगवई १।९ का भाष्य । सूत्र २३८-२४१ १०. ( सूत्र २३८- २४१ ) दस प्रकार की सामाचारी के लिए देखें - उत्तरज्भयणाणि, अध्ययन २६।१-७ । सूत्र २४३ ११. ( सूत्र २४३ ) भावानुपूर्वी विवेचन के लिए द्रष्टव्य ० २७२ से २९७ १. अहावृ. पृ. ५७ : समं तुल्यारोहपरिणाहसपूर्णा गोपाङ्गायययस्वांगातोच्छ्रायं समचतुर । २. यही नाभीत उपर्यादिलक्षणयुक्तं अधस्तावनु न भवति तस्मात् प्रमाणाद्धीनतरं न्यग्रोधपरिमंडलम् । ३. अमवृ. प. ९३ : सह आदिना नाभेरधस्तनकाय लक्षणे न वर्तत इति । - दिगम्बर साहित्य में इसका द्रष्टव्य - जैनेन्द्र सिद्धांत ४. अहावू. पू. ५७: नाभीतः अधः आदिलक्षणयुक्तं संक्षिप्तविकृतमध्ये स्कंध पृष्ठदेशमित्यर्थः । ५. वही, पृ. ५७ : लक्षणयुक्तमध्य ग्रीवाद्युपरिहस्तपादयोरप्यादिलक्षणं न्यूनं च लिंगेऽपि वामनं । ६. वही, पृ. ५७ : सर्वावयवाः प्रायः आदिलक्षणविसंवादिनो यस्य तत् हुंडम् । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां प्रकरण ( सूत्र २४६ - २९७ ) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख हमारे व्यवहार का प्रमुख अङ्ग है नामकरण । उसके बिना उपोद्घात की चर्चा आगे नहीं बढती । प्रत्येक पदार्थ की पहचान नाम से होती है । नाम एक अक्षरवाले तथा अनेक अक्षरवाले दोनों प्रकार के होते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में सूत्रकार ने संस्कृत व्याकरण का प्रयोग किया है । "ह्रीः श्रीः धीः " इनमें विसर्ग का प्रयोग है, प्राकृत में विसर्ग का प्रयोग नहीं होता है। नाम के लिंग का निर्देश भी किया गया है । उसे लिङ्गानुशासन का संक्षिप्त रूप कहा जा सकता है । नाम के पांच प्रकारों का संबंध भी व्याकरण से है, जैसे-नामिक नेपालि आख्यातिक औपसगिक और मिथ (२७०) अनुयोगद्वार में दर्शन, व्याकरण, संगीत, साहित्य आदि अनेक विषयों का संस्पर्श है । यह किसी विषय का प्रतिपादक आगम नहीं है किन्तु पूर्वग्रन्थों की व्याख्या का प्रतिपादक आगम है इसलिए इसमें ऐसा होना स्वाभाविक है । 1 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां प्रकरण मूल पाठ संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद उवक्कमाणुओगदारे नाम-पदं उपक्रमानुयोगद्वारे नाम-पदम् उपक्रम अनुयोगद्वार-नाम-पद २४६. से कि तं नामे ? नामे दसविहे अथ किं तद् नाम ? नाम दश- २४६. वह नाम क्या है ? पण्णत्ते, तं जहा-एगनामे दुनामे विधं प्रज्ञप्त, तद्यथा--एकनाम द्विनाम नाम के दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे--एकतिनामे चउनामे पंचनामे छनामे त्रिनाम चतुर्नाम पञ्चनाम षण्णाम नाम, द्विनाम, त्रिनाम, चतुर्नाम, पंचनाम, सत्तनामे अटूनामे नवनामे सप्तनाम अष्टनाम नवनाम दशनाम । षड्नाम, सप्तनाम, अष्टनाम, नवनाम और दसनामे ॥ दसनाम। एगनाम-पदं २४७. से कि तं एगनामे ? एगनामे एकनाम-पदम् अथ कि तद् एकनाम? एक- नाम गाथानामानि यानि कानि अपि, द्रव्याणां गुणानां पर्यवाणाञ्च । तेषाम् आगम-निकषः, नाम इति प्ररूपिता संज्ञा ॥१॥ --तदेतद् एक नाम । एकनाम-पद २४७. वह एक नाम क्या है ? एकनाम-द्रव्यों, गुणों और पर्यायों के जितने नाम हैं, उनकी आगम-निकष पर 'नाम' यह संज्ञा प्ररूपित की गई है। वह एक नाम है। गाहानामाणि जाणि काणि वि, दव्वाण गुणाण पज्जवाणं च । तेसि आगम-निहसे, नामंति परूविया सण्णा ॥१॥ -से तं एगनामे ॥ दुनाम-पदं द्विनाम-पदम् २४८. से कि तं दुनामे ? दुनामे दुविहे अथ कि तद् द्विनाम ? द्विनाम पण्णत्ते, तं जहा-एगक्खरिए य द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-एकाक्षरि- अणेगक्खरिए य॥ कञ्च अनेकाक्षरिकञ्च । द्विनाम-पद २४८. वह द्विनाम क्या है ? द्विनाम के दो प्रकार हैं, जैसे-एक अक्षर वाला और अनेक अक्षर वाला।' २४६. से कि तं एगक्खरिए ? एगक्ख- अथ कि तद् एकाक्षरिकम् ? रिए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा- एकाक्षरिकम् अनेकविधं प्रज्ञप्तं, होः श्री: धीः स्त्री। से तं तद्यथा-ह्रीः श्रीः धीः स्त्री। तदेएगक्खरिए॥ तद् एकाक्षरिकम् । २४९. वह एक अक्षर वाला नाम क्या है ? एक अक्षर वाले नाम के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ह्री, श्री, धी और स्त्री। वह एक अक्षर वाला नाम है। २५०. से कि तं अणेगक्खरिए? अथ कि तद् अनेकाक्षरिकम् ? अणेगक्खरिए अणेगविहे पण्णत्ते, अनेकाक्षरिकम् अनेकविधं प्रज्ञप्त, तं जहा-कण्णा वीणा लता तद्यथा-कन्या वीणा लता माला। माला। से तं अणेगक्खरिए॥ तदेतद् अनेकाक्षरिकम् । २५०. वह अनेक अक्षर वाला नाम क्या है ? अनेक अक्षर वाले नाम के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- कन्या, वीणा, लता और माला । वह अनेक अक्षर वाला नाम है। २५१. अहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते, त अथवा द्विनाम द्विविधं प्रज्ञप्तं, २५१. अथवा द्विनाम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जहा-जीवनामे य अजीवनामे तद्यथा-जीवनाम च अजीवनाम जैसे--जीव नाम और अजीव नाम । य ॥ च। Jain Education Intemational Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई १५६ २५२. से कि तं जीवनामे ? जीवनामे अथ किं तद् जीवनाम ? जीव- अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा- नाम अनेकविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-- देवदत्तो जण्णदत्तो विण्हुदत्तो देवदत्तः यज्ञदत्तः विष्णुवत्तः सोम सोमदत्तो। से तं जीवनामे ॥ दत्तः । तदेतद् जीवनाम । २५३. से कि तं अजीवनामे ? अजीव- अथ किं तद् अजीवनाम ? नामे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा- अजीवनाम अनेकविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा घडो पडो कडो रहो। से तं -घटः पट: कट: रथः । तदेतद् अजीवनामे ॥ अजीवनाम । २५२. वह जीव नाम क्या है ? जीव नाम के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-देवदत्त, यज्ञदत्त, विष्णुदत्त, सोमदत्त । वह जीव नाम है। २५३. वह अजीव नाम क्या है ? अजीव नाम के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-घट, पट, कट, रथ । वह अजीव नाम २५४. अहवा दुनामे दुविहे पष्णते, अथवा द्विनाम द्विविधं प्रज्ञप्तं, २५४. अथवा द्विनाम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे तं जहा-विसेसिए य अविसेसिए तद्यथा-विशेषितञ्च अविशेषि- -विशेषित नाम और अविशेषित नाम । य। तञ्च । १. अविसेसिए दवे, विससिए १. अविशेषितं द्रव्यं, विशेषितं १. द्रव्य अविशेषित नाम है। जीव द्रव्य, जीवदवे य अजीवदव्वे य । जीवद्रव्यञ्च अजीवद्रव्यञ्च । अजीव द्रव्य विशेषित नाम है। २. अविसेसिए जीवदवे, विसेसिए २. अविशेषितं जीवद्रव्यं, विशेषितं २. जीव द्रव्य अविशेषित नाम है। नैरयिक नेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से नरयिक: तिर्यगयोनिक: मनुष्यः जीव द्रव्य, तिर्यक्योनिक जीव द्रव्य, देवे। देवः। मनुष्य जीव द्रव्य, देव जीव द्रव्य विशेषित नाम है। ३. अविसेसिए नेरइए, विससिए ३. अविशेषितं नैरयिकः, विशेषितं ३. नैरयिक अविशेषित नाम है। रत्नप्रभा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए रत्नप्रभाकः शर्कराप्रभाकः का नैरयिक, शर्कराप्रभा का नैरयिक, वालुयप्पभाए पंकप्पभाए बालुकाप्रभाकः पङ्कप्रभाकः धूम- बालुकाप्रभा का नैरयिक, पंकप्रभा का धूमप्पभाए तमाए तमतमाए। प्रभाकः तमाक: तमस्तमाकः । नैरयिक, धूमप्रभा का नैरयिक, तमा का अविसेसिए रयणप्पभापुढविनेरइए, अविशेषितं रत्नप्रभापृथिवी- नैरयिक, तमस्तमा का नैरयिक ये विशेविसेसिए पज्जत्तए य अपज्जत्तए नरयिकः, विशेषितं पर्याप्तकश्च षित नाम हैं । रत्नप्रभा पृथ्वी का नैरयिक य। एवं जाव अविसेसिए तमत- अपर्याप्त कश्च । एवं यावद् अविशेषित नाम है। रत्नप्रभा का पर्याप्तक मापुढविनेरइए, विसेसिए पज्जत्तए अविशेषितं तमस्तमापृथिवी नैरयिक और अपर्याप्तक नैरयिक विशेषित य अपज्जत्तए य। नैरयिकः, विशेषितं पर्याप्तकश्च नाम है। इसी प्रकार तमस्तमा पृथ्वी अपर्याप्तकश्च । तक के नैरयिक अविशेषित नाम है। पर्याप्तक अपर्याप्तक विशेषित नाम है। ४. अविससिए तिरिक्खजोणिए, ४. अविशेषितं तिर्यग्योनिकः, ४. तिर्यक्योनिक अविशेषित नाम है। एकेविसेसिए एगिदिए बेईदिए विशेषितम् एकेन्द्रियः द्वीन्द्रियः न्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तेइंदिए चउरिदिए पंचिदिए। त्रीन्द्रियः चतुरिन्द्रियः पञ्चे- पंचेन्द्रिय विशेषित नाम है। न्द्रियः। ५. अविसेसिए एगिदिए, विसेसिए ५. अविशेषितम् एकेन्द्रियः, विशे ५. एकेन्द्रिय अविशेषित नाम है। पृथ्वीपुढविकाइए आउकाइए षितं पृथिवीकायिक: अप्कायिक: कायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुतेउकाइए वाउकाइए वणस्सइ- तेजस्कायिक: वायुकायिकः कायिक, वनस्पतिकायिक विशेषित नाम काइए। वनस्पतिकायिकः। ६. अविसेसिए पुढविकाइए, ६. अविशेषितं पृथिवीकायिकः, ६. पृथ्वीकायिक अविशेषित नाम है। सूक्ष्म विसेसिए सुहुमपुढविकाइए य विशेषितं सूक्ष्मपृथिवीकायिकश्च पृथ्वीकायिक, बादर पृथ्वीकायिक विशेबादरपुढविकाइए य। अविसे- बादरपृथिवीकायिकश्च । अवि- षित नाम है । सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अविसिए सुहमपुढविकाइए, विसे- शेषितं सूक्ष्मपृथिवीकायिकः, शेषित नाम है। पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वी Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां प्रकरण : सूत्र २५२-२५४ लिए पज्जतयहमपुढविकाइए य अपज्जत्तयसुहुमपुढ विकाइए य । अविसेसिए बादरपुरविकाइए, विसेसिए पज्जतयबादरपुढविकाइए य अपज्जत्तबादरपुढविकाइए य एवं आउकाइए तेउकाइए वाउकाइए वणस्सइकाइए य । अविसेसिय-विसे सिय-पज्जत्तय अपज्जतयमेदेहि भाणिया । ७. अबिसेलिए दिए विसेसिए पज्जत्तयबेइंदिए य अपज्जत्तयबेइदिए य । एवं तेइंदियचउरिवियावि भाणियया । ८. अविसेसिए पंचिदियतिरिक्खजोणिए, विसेसिए जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए थलयरपंचिदियतिरिक्त जोगिए सहपरपचदियतिरिक्खजोगिए । १. अविसेसिए जलयरपंचिदियतिरिक्स जोगिए, विसेसिए सम्मूछिमजलवरपचदियतिरिक्तजोगिए य गम्भववतियजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए य । अविसेसिए सम्मुच्छिमजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए, विसेसिए पज्जतयसम्मूच्छिमजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए य अपज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयर पंचिदियतिरिक्खजोणिए य । अविसेसिए गम्भवतियजलपरपंचिदियतिरिक्स जोगिए, विसेलिए पञ्जलय गरभववकतियजलवरपचवियतिरिक्त जोगिए य अपज्जतयगमवर्कतियजलयरपचदियतिरिक्त जोणिए य । १०. अविसेसिए परपचदियतिरिक्खजोगिए, चउपयथलयरपंचिदियतिरि विसेसिए - विशेषितं पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकश्च अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकश्च । अविशेषितं बादरपृथिवीकायिक, विशेषितं पर्याप्तवादपृथिवीकाविकश्च अपर्याप्तादपृथिवीकाविकश्च । एवम् अष्कायिक: तेजस्कायिकः वायुकायिकः वनस्पतिकायिकश्च । अविशेषितविशेषित- पर्याप्तक अपर्याप्तक भेदः भणितव्याः । ७. अविशेषितं द्वीन्द्रियः, विशेषितं पर्याप्तद्वीन्द्रियश्च अपर्याप्तकद्वीन्द्रियश्च । एवं त्रीद्रयचतुरिन्द्रियाँ अपि भवितव्यो । ८. अविशेषितं पञ्चेन्द्रियतियोनिक, विशेषितं जलचरपञ्चेन्द्रियतियोगि स्थलचरपञ्चेन्द्रियतियनिक वेबरपञ्चेन्द्रियग्योनिकाच ९. अविशेषितं जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक, विशेषितं सम्मूमि जलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योगिकरच गर्भावातिकजलचरपञ्चेन्द्रियतियोगि कश्च । अविशेषितं सम्मूच्छिमजलचरपचेति निक विशेषितं पर्याप्तकसम्मूच्छिमजलचरपचेद्रियतिर्यग्योनिश्च अपकसम्मतबरपञ्चेन्द्रियता अविशेषितं जलचरपन्चे गर्भावक्रान्तिक , विशेषितं पर्याप्तगर्भावक्रान्तिक जलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकश्च अपर्याप्त गर्भाविकान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनि कश्च । १०. अविशेषितं स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योि विशेषितं चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतियंग् १५७ कायिक, अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषित नाम है। बादर पृथ्वीकायिक अविशेषित नाम है। पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक, अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक विशेषित नाम है । इसी प्रकार अप्काविक जावक तेजस्कायिक, वायुकाविक और वनस्पतिकाधिक भी अविशेषित विशेषित, पर्याप्तक और अपर्याप्तक इन भेदों द्वारा प्रतिपादनीय हैं । , ७. द्वीन्द्रिय अविशेषित नाम है। पर्याप्तक द्वीन्द्रिय, अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय विशेषित नाम है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भी प्रतिपादनीय हैं। ८. पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अविशेषित नाम है। जलवर पञ्चेन्द्रिय तिर्ययोगिक, स्वलवर पञ्चेन्द्रिय तिर्वपोनिक सेयर पञ्चेन्द्रिय तिर्वयोनिक विशेषत नाम है । ९. जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अविशेषित नाम है । संमूच्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक, गर्भावक्रान्तिक जलवर पञ्चेन्द्रिय तिर्मयोनिक विशेषत नाम है | संमूमि' जलचर पञ्चेन्द्रियतियोनिक अविशेषित नाम है। पर्याप्तक संमूनि जलचर चेन्द्रिय तिर्वयोनिक, अपर्याप्तक' संमूमि जनवर पञ्चेन्द्रिय नियोनिक विधि नाम है । गर्भावान्तिक जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्-. योनिक अविशेषित नाम है। पर्याप्तक गर्भावान्तिक जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक, अपर्याप्तक गर्भावक्रान्तिक जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योकि विशेषित नाम है । १०. स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अविशेषित नाम है। चतुष्पद स्थलचर पंचेद्रिय तिर्वयोनिक परिसर्प स्थलचर Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अणुओगदाराई पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक विशेषित नाम है। ११. चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अविशेषित नाम है। संमूच्छिम चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक, गर्भावक्रान्तिकः चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्य क्योनिक विशेषित नाम है। संमूच्छिम चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अविशेषित नाम है। पर्याप्तक संमूच्छिम चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक, अपर्याप्तक संमूच्छिभ चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक विशेषित नाम है। गर्भावक्रान्तिक चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अविशेषित नाम है। पर्याप्तक गविक्रान्तिक चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्य क्योनिक, अपर्याप्तक गर्भावक्रान्तिक चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक विशेषित नाम है। क्खजोणिए य परिसप्पथलयर- योनिकश्च परिसर्पस्थलचरपञ्चे. पंचिदियतिरिक्खजोणिए य। न्द्रियतिर्यगयोनिकश्च । ११. अविसेसिए चउप्पयथलयर- ११. अविशेषितं चतुष्पदस्थलचर पंचिदियतिरिक्खजोणिए, विसे- पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकः, विशेसिए सम्मुच्छिमचउप्पयथलयर- षितं सम्मूच्छिमचतुष्पदस्थलपंचिदियतिरिक्खजोणिए य चरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च गम्भवक्कंतियचउप्पयथलयर - गर्भावक्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपंचिदियतिरिक्खजोणिए य। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च । अविसेसिए सम्मुच्छिमचउप्पय- अविशेषितं सम्मूच्छिमचतुष्पदथलयरर्पोचदियतिरिक्खजोणिए, स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विसेसिए पज्जत्तयसम्मुच्छिम- विशेषितं पर्याप्तकसम्मूच्छिमचउप्पयथलयरपंचिदितिरि- चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतियंगक्खजोणिए य अपज्जत्तय- योनिकश्च अपर्याप्तकसम्मूच्छिमसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचि- चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्दियतिरिक्खजोणिए य। योनिकश्च । अविशेषितं गर्भाअविसेसिए गब्भवक्कंतियचउ- वक्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपञ्चेप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्ख - न्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितं जोणिए, विसेसिए पज्जत्तय- पर्याप्तकगर्भावक्रान्तिकचतुष्पदगम्भवक्कंतियचउप्पयथलयर - स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिचिदियतिरिक्खजोणिए य कश्च अपर्याप्तकगर्भावक्रान्तिकअपज्जत्तयगब्भवक्कंतियचउप्प- चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्यथलयरपंचिदियतिरिक्ख योनिकश्च । जोणिए य। १२. अविसेसिए परिसप्पथलयर- १२. अविशेषितं परिसर्पस्थलचरचिदियतिरिक्खजोणिए, विसे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेसिए उरपरिसप्पथलयरपंचि षितम् उरपरिसर्पस्थलचरपञ्चेदियतिरिक्खजोणिए य भुयपरि न्द्रियतिर्यग्योनिकश्च भुजपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्ख - सर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्जोणिए य। एते वि सम्मुच्छिमा योनिकश्च । एते अपि सम्मू च्छिमाः पर्याप्तकाः अपर्याप्तपज्जत्तगा अप्पजत्तगा य, गब्भ काश्च, गर्भावक्रान्तिकाः अपि वक्कतिया वि पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य भाणियव्वा । पर्याप्तकाः अपर्याप्तकाश्च भणितव्याः । १३. अविसेसिए खहयरपंचिदिय- १३. अविशेषितं खेचरपञ्चेन्द्रियतिरिक्खजोणिए, विसेसिए तिर्यग्योनिकः, विशेषितं सम्मूसम्मुच्छिमखहयरपंचिदियति - च्छिमखेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यगरिक्खजोणिए य गब्भवक्कंतिय- योनिकश्च गर्भावक्रान्तिकखेचरखहयरचिदियतिरिक्खजोणिए पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च । य। अविसेसिए सम्मुच्छिमखह- अविशेषितं सम्मूच्छिमखेचरयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेविसेसिए पज्जत्तयसम्मुच्छिम- षितं पर्याप्तकसम्मूच्छिमखेचर १२. परिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अविशेषित नाम है। उर:परिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक, भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक विशेषित नाम है। ये भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक संमूच्छिम तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक गर्भावक्रान्तिक इन भेदों द्वारा प्रतिपादनीय हैं। १३. खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अविशे षित नाम है। संमूच्छिम खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यकयोनिक, गर्भावक्रान्तिक खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक विशेषित नाम है। संमूच्छिम खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अविशेषित नाम है। पर्याप्तक संमूच्छिम खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनिक, Jain Education Intemational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ अपर्याप्तक संमूच्छिम खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्य क्योनिक विशेषित नाम है। गर्भावक्रान्तिक खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अविशेषित नाम है। पर्याप्तक गर्भावक्रान्तिक खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक, अपर्याप्तक गर्भावक्रान्तिक खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक विशेषित नाम सातवां प्रकरण : सूत्र ५४ खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च य अपज्जत्तयसम्मुच्छिमखयर- अपर्याप्तकसम्मूच्छिमखेचरपञ्चेपंचिदियतिरिक्खजोणिए य। न्द्रियतिर्यग्योनिकश्च । अविशेअविसेसिए गब्भवक्कंतियखह- षितं गर्भावक्रान्तिकखेचरपञ्चेयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए, न्द्रियतिर्यग्योनिका, विशेषितं विसेसिए पज्जत्तयगब्भवक्कंति- पर्याप्तकगर्भावक्रान्तिकखेचरयखहयरपंचिदियतिरिक्खजो - पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकश्च णिए य अपज्जत्तयगब्भवक्क- अपर्याप्तकगर्भावक्रान्तिकखेचरतियखहयरपंचिदियतिरिक्ख - पञ्चेन्द्रियतियंगयोनिकश्च । जोणिए य। १४. अविसेसिए मणुस्से, विससिए १४. अविशेषितं मनुष्यः, विशेषितं सम्मुच्छिममणुस्से य गब्भवक्कं- सम्मूच्छिमनुष्यश्च गर्भावतियमणुस्से य। अविसेसिए क्रान्तिकमनुष्यश्च । अविशेषितं सम्मुच्छिममणुस्से, विसेसिए सम्मूच्छिममनुष्यः, विशेषितं पज्जत्तयसम्मुच्छिममणुस्से य पर्याप्तकसम्मूच्छिममनुष्यश्च अपज्जत्तयसम्मुच्छिममणुस्से अपर्याप्तकसम्मूच्छिममनुष्यश्च । य। अविसेसिए गब्भवक्कंतिय- अविशेषितं गर्भावकान्तिकमणुस्से, विसे सिए पज्जत्तय- मनुष्यः, विशेषितं पर्याप्तकगब्भवक्कंतियमणुस्से य अप- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यश्च अपर्याज्जत्तयगब्भवक्कंतियमणुस्से य। प्तकगर्भावक्रान्तिकमनुष्यश्च । १४. मनुष्य अविशेषित नाम है। संमूच्छिम मनुष्य, गर्भावक्रान्तिक मनुष्य विशेषित नाम है। संमूच्छिम मनुष्य अविशेषित नाम है। पर्याप्तक संमूच्छिम मनुष्य, अपर्याप्तक संमूच्छिम मनुष्य विशेषित नाम है । गर्भावक्रान्तिक मनुष्य अविशेषित नाम है। पर्याप्तक गर्भावक्रान्तिक मनुष्य, अपर्याप्तक गर्भावक्रान्तिक मनुष्य विशेषित नाम है। १५. अविसेसिए देवे, विसेसिए १५. अविशेषितं देवः, विशेषितं भवणवासी वाणमंतरे जोइसिए भवनवासी वाणमन्तरः ज्योवेमाणिए य। तिष्क: वैमानिकश्च । १६. अविससिए भवणवासी, विसे- १६. अविशेषितं भवनवासी, विशेषि सिए असुरकुमारे नागकुमारे तम् असुरकुमारः नागकुमारः सुवण्णकुमारे विज्जुकुमारे सुपर्णकुमारः विद्युत्कुमारः अग्गिकुमारे दीवकुमारे उदहि- अग्निकुमारः द्वीपकुमारः उदधिकुमारे दिसाकुमारे वाउकुमारे कुमारः दिशाकुमारः वायुकुमारः थणियकुमारे। सव्वेसि पि स्तनितकुमारः। सर्वेषाम् अपि अविसेसिय-विसे सिय-पज्जत्तय- अविशेषित-विशेषित-पर्याप्तक अपज्जत्तयभेया भाणियब्वा।। अपर्याप्तकभेदा: भणितव्याः । १७. अविससिए वाणमंतरे, विसे- १७. अविशेषितं वाणमन्तरः, विशे सिए पिसाए भूए जक्खे रक्खसे षितं पिशाचः भूतः यक्षः राक्षसः किन्नरे किपुरिसे महोरगे किन्नरः किंपुरुषः महोरगः गंधव्वे । एतेसि पि अविसेसिय- गन्धर्वः । एतेषाम् अपि अविविसेसिय-पज्जत्तय-अपज्जत्तय - शेषित-विशेषित-पर्याप्तकभेया भाणियव्वा। अपर्याप्तकभेदा: भणितव्याः । १५. देव अविशेषित नाम है। भवनवासी, वाणमन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक विशेषित नाम है। १६. भवनवासी अविशेषित नाम है । असुर कुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिग्कुमार, वायुकुमार, स्तनितकुमार विशेषित नाम है। इन सबके भी अविशेषित, विशेषित, पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये भेद प्रतिपाद नीय हैं। १७. वाणमन्तर अविशेषित नाम है। पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व विशेषित नाम है। इनके भी अविशेषित, विशेषित, पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये भेद प्रतिपादनीय हैं। १८. अविसेसिए जोइसिए, विसे- १८. अविशेषितं ज्योतिष्कः, विशे- सिए चंदे सूरे गहे नक्खत्ते षितं चन्द्रः सूरः ग्रहः नक्षत्रं १८. ज्योतिष्क अविशेषित नाम है । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारारूप विशेषित नाम है। Jain Education Intemational Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई इनके भी अविशेषित, विशेषित, पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये भेद प्रतिपाद नीय हैं। १९. वैमानिक अविशेषित नाम है। कल्पोपन्न. कल्पातीतज विशेषित नाम है। २०. कल्पोपन्न अविशेषित नाम है । सौधर्मज, ईशानज, सनत्कुमारज, माहेन्द्रज, ब्रह्मलोकज, लान्तकज, महाशुक्रज, सहस्रारज, आनतज, प्राणतज, आरणज, अच्युतज, विशेषित नाम है। इनके भी अविशेषित, विशेषित, पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये भेद प्रतिपादनीय २१. कल्पातीतज अविशेषित नाम है । ग्रेवेयक, अनुत्तरोपपातिक विशेषित नाम है। १६० ताराहवे। एतेसि पि अविसे- तारारूपः । एतेषाम् अपि अविसिय-विससिय-पज्जत्तय-अपज्ज- शेषित - विशेषित - पर्याप्तकत्तयभेया भाणियवा। अपर्याप्तकभेदा: भणितव्याः। १९. अविसेसिए वेमाणिए, विससिए १९. अविशेषितं वैमानिकः, विशेषितं कप्पोवगे य कप्पातीतगे य। कल्पोपगश्च कल्पातीतगश्च । २०. अविससिए कप्पोवगे, विससिए २०. अविशेषितं कल्पोपगः, विशेषितं सोहम्मए ईसाणए सणंकुमारए सौधर्मकः ईशानक: सनत्कुमारक: माहिदए बंभलोयए लंतयए माहेन्द्रक: ब्रह्मलोककः लांतककः महासुक्कए सहस्सारए आणयए महाशुक्रकः सहस्रारकः आनतक: पाणयए आरणए अच्चुयए। प्राणतकः आरणक: अच्युतकः । एतेसि पि अविसे सिय-विसेसिय- एतेषामपि अविशेषित-विशेषितपज्जत्तय-अपज्जत्तयभेदा भाणि- पर्याप्तक-अपर्याप्तकभेदा: भणियव्वा । तव्याः । २१. अविससिए कप्पातीतए, विस- २१. अविशेषितं कल्पातीतगः, विशेः सिए गेवेज्जए य अणुत्तरोव षितं वेयकश्च अनुत्तरोपपातिवाइए य। कश। २२. अविसेसिए गेवेज्जए, विसेसिए २२. अविशेषितं ग्रंवेयकः, विशेषितम् । हेट्टिम-गेवेज्जए मज्झिम- अधस्तन-प्रेवेयकः मध्यम-वेयक: गेवेज्जए उरिम-गेवेज्जए। उपरितन-प्रेवेयकः । अविशेषितम् अविसेसिए हेट्टिम-गेवेज्जए, अधस्तन-प्रैवेयक:, विशेषितम् विससिए हेट्रिम-हेट्रिम-गेवेज्जए, अधस्तन-अधस्तन-प्रैवेयकः, अधहेट्टिम - मज्झिम - गेवेज्जए, स्तन-मध्यम-प्रैवेयकः, अधस्तनहेट्रिम - उवरिम - गेवेज्जए। उपरितन-वेयकः। अविशेषितं अविससिए मज्झिम-गेवेज्जए, मध्यम-वेयकः, विशेषितं विसेसिए मज्झिम-हेट्रिम मध्यम-अधस्तन-प्रैवेयकः, मध्यमगेवेज्जए, मज्झिम-मज्झिम मध्यम-वेयकः, मध्यम-उपरिगेवेज्जए, मज्झिम-उवरिम तन-प्रैवेयकः। अविशेषितम् गेवेज्जए। अविससिए उवरिम उपरितन-वेयकः, विशेषितम् गेवेज्जए, विसेसिए उवरिम उपरितन - अधस्तन - ग्रेवेयकः, हेट्रिम-गेवेज्जए, उवरिम उपरितन-मध्यम-वेयकः, उपमज्झिम-गेवेज्जए, उवरिम रितन-उपरितन-प्रैवेयक: । एतेषाउरिम-गेवेज्जए। एतेसि पि मपि सर्वेषाम् अविशेषितसव्वेसि अविसेसिय-विसेसिय विशेषित-पर्याप्तक-अपर्याप्तकभेदा: पज्जत्तय-अपज्जत्तयभेया भाणि भणितव्याः। यव्वा । २३. अविससिए अणुत्तरोववाइए, २३. अविशेषितम् अनुत्तरोपपातिकः, विसेसिए विजयए वेजयंतए विशेषितं विजयकः वैजयन्तक: जयंतए अपराजियए सव्वट्ठ- जयन्तकः अपराजितक: सर्वार्थसिद्धए य । एतेसि पि सन्वेसि सिद्धकश्च । एतेषामपि सर्वेषाम् अविसे सिय-विसेसिय-पज्जत्तय- अविशेषित-विशेषित - पर्याप्तकअपज्जत्तयभेदा भाणियव्वा । अपर्याप्तकभेदाः भणितव्याः । २२. ग्रैवेयक अविशेषित नाम है। अधस्तन ग्रेवेयक, मध्यम ग्रेवेयक, उपरितन |वेयक विशेषित नाम है । अधस्तन ग्रैवेयक अविशेषित नाम है । अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक, अधस्तन-मध्यम ग्रेवेयक, अधस्तन-उपरितन ग्रेवेयक विशेषित नाम है। मध्यम ग्रैवेयक अविशेषित नाम है। मध्यमअधस्तन ग्रेवेयक, मध्यम-मध्यम अवेयक, मध्यम-उपरितन |वेयक विशेषित नाम है । उपरितन ग्रैवेयक अविशेषित नाम है। उपरितन-अधस्तन ग्रैवेयक, उपरितनमध्यम ग्रैवेयक, उपरितन-उपरितन अवेयक विशेषित नाम है। इनके भी अविशेषित, विशेषित, पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये भेद प्रतिपादनीय हैं। २३. अनुत्तरोपपातिक अविशेषित नाम है। विजयज, वैजयन्तज, जयन्तज, अपराजितज, सर्वार्थ सिद्धज विशेषित नाम है। ____ इन सबके भी अविशेषित, विशेषित, पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये भेद प्रतिपादनीय हैं। Jain Education Intemational Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ सातवां प्रकरण : सूत्र २५४-२६० २४. अविससिए अजीवदब्वे, विसे- २४. अविशेषितम् अजीवद्रव्यं, विशे- सिए धम्मत्थिकाए अधम्मत्थि- षितं धर्मास्तिकाय: अधर्मास्तिकाए आगासस्थिकाए पोग्गल कायः आकाशास्तिकायः पुद्त्थिकाए अद्धासमए य। गलास्तिकाय: अध्वासमयश्च । २४. अजीव द्रव्य अविशेषित नाम है। धर्मा स्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अध्वासमय विशेषित नाम है। २५. अविसेसिए पोग्गलत्थिकाए, २५. अविशेषितं पुद्गलास्तिकायः, विसेसिए परमाणुपोग्गले दुपए- विशेषितं परमाणुपुद्गलः द्विप्रदेसिए तिपएसिए जाव अणंत- शिक: त्रिप्रदेशिकः यावद् अनन्तपएसिए य । से तं दुनामे। प्रदेशिकश्च । तदेतद् द्विनाम । २५. पुद्गलास्तिकाय अविशेषित नाम है। परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध विशेषित नाम है । वह द्विनाम है। तिनाम-पदं त्रिनाम-पदम् २५५. से कि तं तिनामे ? तिनामे अथ किं तत् त्रिनाम ? त्रिनाम तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वनामे त्रिविधं प्रज्ञप्तं तद्यथा-द्रव्यनाम गुणनामे पज्जवनामे ॥ गुणनाम पर्यवनाम। त्रिनाम-पद २५५. वह त्रिनाम क्या है ? त्रिनाम के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं जैसेद्रव्य नाम, गुण नाम और पर्याय नाम । २५६. से कि तं दध्वनामे ? दब्वनामे अथ किं तद् द्रव्यनाम? द्रव्य- छविहे पण्णत्ते, तं जहा-धम्म- नाम षड्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-धर्मात्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगास- स्तिकायः अधर्मास्तिकाय: आकाशास्थिकाए जीवस्थिकाए पोग्गल- स्तिकायः जीवास्तिकायः पुद्गलात्थिकाए अद्धासमए। से तं दब्व- स्तिकाय: अध्वासमयः। तदेतद् नामे ॥ द्रव्यनाम । २५६. वह द्रव्य नाम क्या है ? द्रव्य नाम के छह प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गल।स्तिकाय और अध्वासमय । वह द्रव्य नाम है। २५७. से कि तं गुणनामे ? गुणनामे अथ कि तद् गुणनाम? गुणनाम पंचविहे पण्णते, तं जहा-वण्ण- पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-वर्णनाम नामे गंधनामे रसनामे फासनामे गंधनाम रसनाम स्पर्शनाम संस्थानसंठाणनामे॥ नाम । २५७. बह गुण नाम क्या है ? गुण नाम के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेवर्ण नाम, गन्ध नाम, रस नाम, स्पर्श नाम और संस्थान नाम। २५८. से कि तं वण्णनामे ? वणनामे अथ किं तद् वर्णनाम? वर्णनाम पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-काल- पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा कालवर्णवण्णनामे नीलवण्णनामे लोहिय- नाम नीलवर्णनाम लोहितवर्णनाम वण्णनामे हालिहवण्णनामे सूक्किल- हारिद्रवर्णनाम शुक्लवर्णनाम । तदेतद् वण्णनामे । से तं वण्णनामे ॥ वर्णनाम । २५८. वह वर्ण नाम क्या है ? वर्ण नाम के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेकृष्णवर्ण नाम, नीलवर्ण नाम, रक्तवर्ण नाम, पीतवर्ण नाम और श्वेतवर्ण नाम । वह वर्णनाम है। २५९. वह गन्ध नाम क्या है ? गन्ध नाम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेसुरभिगन्ध नाम और दुर्गन्ध नाम । वह गन्ध नाम है। २५६.से कि तं गंधनामे ? गंधनामे अथ कि तद् गंधनाम ? गंधनाम विहे पण्णत्ते, तं जहा सुब्भि- द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-सुरभिगंधगंधनामे य दुब्भिगंधनामे य। से नाम च दुरभिगंधनाम च। तदेतद् तं गंधनामे॥ गंधनाम । २६०. से कि तं रसनामे ? रसनामे अथ किं तद् रसनाम ? रस- पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा--तित्त- नाम पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथारसनामे कडुयरसनामे कसायरस- तिक्तरसनाम कटकरसनाम कषायरसनामे अंबिलरसनामे महररसनामे। नाम अम्लरसनाम मधुररसनाम। से तं रसनामे ॥ तदेतद् रसनाम। २६०. बह रस नाम क्या है ? रस नाम के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेतिक्तरस नाम, कटुकरस नाम, कषायरस नाम, अम्लरस नाम और मधुररस नाम वह रस नाम है। Jain Education Intemational Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ २६१. से कि तं फकासनाने ? फासनामे अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहा कक्खडफासनामे मयफासनामे गरुयफासनामे लहफासनाने सीतफासनामे उसिणफासनामे निजफास नामे सुखासनामे से से फास नामे ॥ २६२. से कि तं संठाणनामे ? संठाणनामे पंचविहे पण, तं जहापरिमंडल संठाणनामे वट्टसंठाणनामे तंस संठाणनामे चउरंस संठाणनामे आयतसंठाणनामे । से तं संठाणनामे । से तं गुणनामे ॥ २६३. से किं तं पज्जवनामे ? पज्जवनामे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहाएगगुणकालए दुगुणकालए तिगुणकालए जाव दसगुणकालए संखेज्जगुगकालए असंखेज्जगुणकालए अनंतगुणकालए। एवं नीललोहिय- हालिद्द-सुविकला भाणियव्वा । एगगुणसुभगंधे दुगुणसुभगंधे तिगुणसुगंधे जाव अनंतगुणसुविभगंधे। एवं दुभिगंधो वि भागियो एग । गुणतिले जाव अनंतगुणतिले एवं क-काय अंबिल महरा वि माणिवया। एगगुणकक्सडे जाव अनंतगुणकवलडे । एवं मउय गरय लहुय - सीत- उसिणनिद्ध- - लुक्खा वि भाणियव्या से तं जवना । I २६४. गाहा तं पुण नामं तिविहं, इत्थी पुरिसं नपुंसगं चैव । एएसि तिषि प अंतरिम परूवणं यच्छं ।। १ ।। तत्थ पुरिसस्स अन्ता, आ ई ऊ ओ हवंति चत्तारि । अथ कि तद् स्पर्शनाम ? स्पर्शनाम अष्टविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा कक्खटस्पर्शनाम मृदुकस्पर्शनाम लघुकस्पर्शनाम शीतस्पर्शनाम उष्णस्पर्शनाम स्निग्धस्पर्शनामस्पर्स नाम | तदेतत् स्पर्शनाम । अथ किं तत् संस्थाननाम ? संस्थान नाम पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथापरिमंडलसंस्थाननाम वृत्तसंस्थाननाम व्यस्त्रसंस्थाननाम चतुरस्त्रसंस्थाननाम आयतसंस्थाननाम । तदेतत् संस्थाननाम | तदेतद् गुणनाम | अय कि तत् पर्यवनाम ? पर्यवनाम अनेकविधं प्रज्ञप्तं तद्यथा-एकगुणकालकः द्विगुणकालकः त्रिगुणकालकः यावद्दशगुणकालकः संवेयगुण कालकः असंध्येवगुणकालक अनन्त गुणकालकः । एवं नीललोहित विहार शुक्ला अपि भवितव्याः । एकगुणसुरभिगंध: द्विगुणमुरभिगंध: त्रिगुणसुरभिगंधः यावद् अनन्तगुणसुरभिगंध एवं दुरभिगंध अपि भणितव्यः एकगुणतिक्तः धाव । यावद् अनन्तगुगतिक्तः एवं कटुक-रुपायअम्ल - मधुराः अपि भणितव्या: । एकreneur ureद् अनंतगुणक स्वट एवं मृदु-गुरु-लघु-शीत। उष्ण-स्निग्ध- रुक्षाः अपि भणितव्याः । तदेतत् पर्यवनाम । गाथा--- तद् नाम पुनः त्रिविधं, स्त्री पुरुषं नपुंसकं । एषां त्रयाणाम् अपि च अन्ते प्ररूपणां वक्ष्ये ॥१॥ तत्र पुरुषस्य अन्ताः, आ ई ऊ ओ भवन्ति चत्वारः । अणुओगदारा २६१. वह स्पर्श नाम क्या है ? स्पर्श नाम के आठ प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे - कर्कश स्पर्श नाम, मृदु स्पर्श नाम, गुरु स्पर्श नाम, लघु स्पर्श नाम, शीत स्पर्श नाम, ऊष्ण स्पर्श नाम, स्निग्ध स्पर्श नाम और रूक्ष स्पर्श नाम । वह स्पर्श नाम है । २६२. वह संस्थान नाम क्या है ? संस्थान नाम के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- परिमंडल संस्थान नाम, वृत्त संस्थान नाम, त्यस्र [ त्रिकोण] संस्थान नाम, चतुरस्र [ चतुष्कोण] संस्थान नाम और आयत संस्थान नाम। वह संस्थान नाम है। वह गुण नाम है । २६३. वह पर्याय नाम क्या है ? पर्याय नाम के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- एक गुण काला, दो गुण काला, तीन गुण काला, यावत् दस गुण काला, संख्येय गुण काला, असंख्येय गुण काला और अनन्त गुण काला । इसी प्रकार नील, रक्त, पीत और शुक्ल भी प्रतिपादनीय हैं । एक गुण सुरभि गन्ध, दो गुण सुरभि गन्ध, तीन गुण सुरभि गन्ध यावत् अनन्त गुण सुरभि गन्ध । इसी प्रकार दुर्गन्ध भी प्रतिपादनीय है । एक गुण तिक्त यावत् अनन्त गुण तिक्त । इसी प्रकार कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर भी प्रतिपादनीय हैं। एक गुण कर्कश यावत् अनन्त गुण कर्कश । इसी प्रकार मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष भी प्रतिपादनीय हैं। वह नाम है। २६४. गाथा १. प्रकारान्तर से पर्याय नाम के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- स्त्री, पुरुष और नपुंसक। इन तीनों के अन्त में होने वाले प्रत्ययों की प्ररूपणा करूंगा । २. पुल्लिनवाची शब्दों के अन्त में आई ऊ और ओ ये चार प्रत्यय होते हैं। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीलिंगवाची शब्दों के अन्त में ओकार को छोड़कर आ ई और ऊ ये तीन प्रत्यय होते सातवां प्रकरण : सूत्र २६१-२६८ ते चेव इत्थियाए, हवंति ओकारपरिहोणा ॥२॥ अंतिय इंतिय उंतिय, अंता उ नपंसग्गस्स बोद्धव्वा । एएसि तिण्हंपि य, वोच्छामि निर्दसणे एत्तो ॥३॥ आकारंतो राया, ईकारंतो गिरी य सिहरी य । ऊकारंतो विण्हू, दुमो ओअंतो उ पुरिसाणं ॥४॥ आकारंता माला, ईकारंता सिरी य लच्छी य । ऊकारंता जंबू, बहू य अंता उ इत्थीणं ॥५॥ अंकारंतं धन्न, इंकारंतं नपुंसगं अच्छि। उंकारंतं पोलं, महुं च अंता नपुंसाणं ॥६॥ -से तं तिनामे ॥ ३. नपुंसकलिंगवाची शब्दों के अन्त में अं, इं और उं ये तीन प्रत्यय होते हैं। ___ इसके बाद इन तीनों के उदाहरण बताऊंगा। ४. पुल्लिगवाची शब्दों में, जैसे-रायाआकारान्त, गिरी और सिहरी ईकारान्त, विण्हू-ऊकारान्त और दुमो-ओकारान्त ते चैव स्त्रिया:, भवन्ति ओकारपरिहीनाः ॥२॥ अं इति च इं इति च उं इति च, अन्तास्तु नपुंसकस्य बोद्धव्याः । एतेषां त्रयाणाम् अपि च वक्ष्यामि निदर्शनम् इतः ॥३॥ आकारान्तः राजा, ईकारान्तः गिरिः च शिखरी च । ऊकारान्तः विष्णुः, द्रुमः ओअन्तः तु पुरुषाणाम् ॥४॥ आकारान्ता माला, ईकारान्ता श्री: च लक्ष्मी च । ऊकारान्ता जम्बू, वधूः च अन्तास्तु स्त्रीणाम् ॥५॥ अंकारन्तं धान्यं, इंकारान्तं नपुंसकम् अक्षि । उंकारन्तं पील, मधु च अन्ता नपुंसानाम् ॥६॥ तदेतत् त्रिनाम। ५. स्त्रीलिंगवाची शब्दों में, जैसे-माला -आकारान्त, सिरी और लच्छी-ईकारान्त तथा जंबू और बहू-ऊकारान्त हैं। ६. नपुंसकलिंगवाची शब्दों में, जैसेधन्नं-अंकारान्त, अच्छि-इंकारान्त तथा पीलु और महुं-उंकारान्त हैं। वह त्रिनाम चउनाम-पदं चर्तुनाम-पदम् २६५. से कि चउनामे ? चउनामे अथ कि तत् चतुर्नाम ? चतुर्नाम चउविहे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आगमेन आगमेणं लोवेणं पयईए विगा- लोपेन प्रकृत्या विकारेण । रेणं॥ चतुर्नाम-पद २६५. वह चतुर्नाम क्या है ? चतुर्नाम के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआगम से होने वाला नाम, लोप से होने वाला नाम, प्रकृति से होने वाला नाम और विकार से होने वाला नाम । २६६. से कि त आगमेणं? आगमेणं- अथ कि तद् आगमेनी आगमेन- २६६. वह आगम से होने वाला नाम क्या है ? पद्मानि पयांसि कुडानि। से तं पद्मानि पयांसि कुण्डानि । तदेतद् आगम से होने वाला नाम-पद्मानि, आगमणं ॥ आगमेन । पयांसि, कुण्डानि। [यहां पद्म, पयस् और कुण्ड शब्दों को 'नुम्' का आगम हुआ है।] वह आगम से होने वाला नाम है। २६७. से कि तं लोवेणं ? लोवेणं-ते अत्र तेत्र, पटो अत्र-पटोत्र, घटो अत्र घटोत्र, रथो अत्र= रथोत्र । से तं लोवेणं॥ अथ कि तद् लोपेन ? लोपेन-ते अत्र-तेत्र, पटो अत्र-पटोत्र, घटो अत्र घटोत्र, रथो अत्र = रथोत्र । तदेतद् लोपेन । २६७. बह लोप से होने वाला नाम क्या है? लोप से होने वाला नाम-ते- अत्रतेऽत्र, पटो+अत्रपटोऽत्र, घटो+अत्र घटोऽत्र, रथो+अत्ररथोत्र । [यहां अकार का लोप हुआ है।] वह लोप से होने वाला नाम है। २६८.से कि तं पयईए ? पयईए- अथ कि तत् प्रकृत्या? प्रकृत्या- अग्नी एतौ, पट इमो, शाले एते, अग्नी एतो, पटू इमो, शाले एते, २६८. वह प्रकृति से होने वाला नाम क्या है ? प्रकृति से होने वाला नाम-अग्नी एतौ, Jain Education Intemational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ माले इमे । से तं पयईए॥ माले इमे । तदेतत् प्रकृत्या । अणुओगदाराई पटू इमो, शाले एते, माले इमे। वह प्रकृति से होने वाला नाम है। २६६. से कि तं विगारेणं? विगारेणं अथ कि तद् विकारेण ? विकारेण- २६९. वह विकार से होने वाला नाम क्या है ? -दण्डस्य अग्रं-दण्डाग्रम, सा दण्डस्य अग्र= दण्डान, सा आगता विकार से होने वाला नाम-दण्डस्य+ आगता...सागता, दधि इदं= =सागता, दधि इदं दधीवं, नबी अग्रं-दण्डानम्, सा+आगता-सागता, दधीदम, नदी इहते-नदीहते, ईहते-नदीहते, मधु उदकंमधूदक, दधि+इद-दधीदं, नदी+ईहते-नदीहते, मधु उदकंमधदकम, वधू ऊहते वधू ऊहते-वधूहते। तदेतद् विका- मधु+उदक-मधूदकं और वधू+ऊहते-वधहते । से तं विगारेणं । से तं रेण । तदेतत् चतुर्नाम । वधूहते। [यहां सन्धि-जन्य विकार होने चउनामे ॥ से इन शब्दों की निष्पत्ति हुई है। वह विकार से होने वाला नाम है । वह चतुर्नाम पंचनाम-पदं पञ्चनाम-पदम् २७०. से कि तं पंचनामे ? पंचनामे अथ किं तद् पञ्चनाम? पञ्चनाम पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा–१. पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-१. नामिकं २. नेपातिकं ३. आख्या- नामिकं २. नेपातिकम् ३. आख्यातिक ४. औपसगिक ५. मिश्रम्। तिकम् ४. औपसगिकं ५. मिश्रम् । अश्व इति नामिकम् । खल्विति अश्व इति नामिकम् । खल्विति नेपातिकम्। धावतीत्याख्याति- नेपातिकम् । धावतीत्याख्यातिकम् । कम् । परीत्यौपसगिकम् । संयत परीत्यौपसर्गिकम् । संयत इति इति मिश्रम् । से तं पंचनामे ॥ मिश्रम् । तदेतत् पञ्चनाम । पंचनाम-पद २७०. वह पंचनाम क्या है ? पंचनाम के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेनामिक,' नेपातिक," आख्यातिक औपसर्गिक" और मिश्र।" अश्व यह नामिक है। खलु यह नैपातिक है। धावति यह आख्यातिक है। परि यह औपसर्गिक है। संयत यह मिश्र है । वह पंचनाम है। छनाम-पदं षड्नाम-पदम् २७१. से कि तं छनाम? छनामे अथ कि तत् षड्नाम ? षड्नाम छविहे पण्णत्ते, तं जहा--१. षड्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा--१. औदउदइए २. उवसमिए ३. खइए यिकः २. औपशमिक: ३. क्षायिकः ४. खओवसमिए ५. पारिणामिए ४. क्षायोपशमिकः ५. पारिणामिकः ६. सन्निवाइए। ६. सान्निपातिकः । षट्नाम-पद २७१. वह षट्नाम क्या है ? षट्नाम के छह प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे१. औदयिक, २ औपशमिक, ३. क्षायिक, ४. क्षायोपशमिक, ५, पारिणामिक, ६. सान्निपातिक । २७२. से कि तं उदइए? उदइए अथ किं स औदयिकः ? औदयिकः २७२. बह औदयिक क्या है ? विहे पण्णत्ते, तं जहा - उदए य द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- उदयश्च औदयिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेउदयनिष्फण्णे य॥ उदयनिष्पन्नश्च । उदय और उदयनिष्पन्न । २७३. से कि तं उदए ? उदए- अटण्हं कम्मपयडीणं उदए थे। से तं उदए। अथ किस उदयः? उदयः- अष्टानां कर्मप्रकृतीनाम् उदयः । स एष उदयः। २७३. वह उदय क्या है ? उदय-उदय आठ कर्म प्रकृतियों का होता है। वह उदय है। २७४. से कि तं उदयनिष्फण्णे? अथ कि स उदयनिष्पन्नः ? उदय- २७४. वह उदयनिष्पन्न क्या है ? उदयनिष्फण्णे दुविहे पण्णत्ते, तं निष्पन्नः द्विविध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा उदयनिष्पन्न के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे जहा-जीवोदयनिष्फण्णे य जीवोदयनिष्पन्नश्व अजीवोदय- -जीवोदयनिष्पन्न और अजीवोदयनिष्पन्न । अजीवोदयनिष्फण्णे य॥ निष्पन्नश्च। Jain Education Intemational Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां प्रकरण : सूत्र २६६-२७६ २७५. से कि तं जीवोदयनिष्कण्णे ? जीवोदयनिष्कण्णे अगविहे पण्णत्ते, तं जहा -नेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से देवे, पुढविकाइए आउकाइए तेउकाइए वाउकाइए queeइकाइए तसकाइए, कोहकसाई माणकसाई मायाकसाई लोभकसाई, इत्थवेए पुरिसवेए नपुंसगए कण्हलेसे नीललेसे काउलेसे तेउलेसे पहलेसे सुक्कलेसे, मिच्छदिट्ठी अविरए असण्णी अन्नाणी आहारए छउमत्थे सजोगी संसार असिद्ध अकेवली | से तं जीवोदयनिष्कण्णं ॥ २७६. से किं तं अजीवोदय निष्कण्णे ? अजीवोदयनिष्फण्णे अगविहे पण्णत्तं तं जहा ओरालियं वा सरीरं ओरालियस रोरपओगपरि णामियं वा दव्यं व्यिं वा सरीरं वेउब्वियसरीरपओगपरि णामियं वा दयं एवं आहारयं सरीरं तेयगं सरीरं कम्मयं सरीरं च भाणियव्वं, पओगपरिणामिए वण्णे गंधे रसे फासे । से तं अजीवोदयनिष्कण्णे से तं उदयनिष्कष्णे से तं उददए । 1 २७७. से कि त उवसमिए ? उवसमिए दुबिहे पण्णत्ते तं जहा उवसमे य उवसमनिष्फण्णे य ॥ २७८. से किं तं उसमे ? उनसमे मोहणिज्जरस कम्मस्स उवसमे णं । से तं उवसमे ॥ - २७६ से कि तं उवसमनिष्करणे ? उवसमनिष्कण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा उसंतको उवसंतमाणे , अथ कि स जीवोदयनिष्पन्नः ? जीवोदयः अनेकविध प्रप्त, तद्यथा-नैरयिकः तिर्यग्योनि मनुष्य देवः पृथिवीकाधिक: अका कि तैजस्कायिक: वायुकायिकः वनस्पतिकायिकः सकायिकः, क्रोधकापी मानकषायी मायाकषायी लोभकषायी, स्त्रीवेदः पुरुषवेदः नपुंसक वेदा कृष्णलेश्य: नीसलेश्य: कपोतलेश्यः तेजसलेश्यः पद्मलेश्यः शुक्ललेश्यः, मिथ्यादृष्टि: अविरतः असंज्ञी अज्ञानी आहारकः छद्मस्थः सयोगी संसारस्थ: असिद्धः अकेवली । स एष जीवोदय निष्पन्नः ॥ अथ किं स अजीवोदय मिष्पन्नः ? अजीबोदनिष्यन्नः अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-औदारिकं वा शरीरम् औवारिकशरीरप्रयोगपरिणामितं वा द्रव्यं वैक्रियं वा शरीर सिरीजयोगपरिणामितं वा द्रव्य एवम् आहार शरीरं तैजसं शरीरं कर्मकं शरीरं च भणितव्यं, प्रयोगपरिणामितः वर्णः गंध: रसः स्पर्शः । स एष अजीवोदयनिष्पन्नः । स एष उदयनिष्पन्नः । स एष औदयिकः । अथ कि स औपशमिक: ? औपशमिकः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा उपशमश्च उपशम निष्पन्नश्च । अथ कि स उपशमः ? उपशमःमोहनीयस्य कर्मणः उपशमः । स एष उपशमः । अथ कि स उपशमनिष्पन्नः ? उपशमनिष्पन्न: अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-उपशांतकोषः उपशांतमानः २७५. वह जीवोदय निष्पन्न क्या है ? 1 7 जीवोदय निष्पन्न के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेवैरयिक, तिर्यक्योकि मनुष्य और देव, पृथ्वीकायिक अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक वनस्पतिकाविक और सका यिक फोधकथायी मानकषायी मायाकषायी और सोमपायी, स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक और नपुंसकवेदक, कृष्णलेया वाला नीललेश्या वाला, कापोतलेश्या वाला, तेजोलेश्या वाला, पद्मलेश्या वाला और शुक्ललेश्या वाला, मिथ्यादृष्टि, अविरत जान आहारक, छद्मस्थ, सयोगी, संसारस्थ, असिद्ध और अकेवली । वह जीवोदयनिष्पन्न है । २७६. वह अजीवोदयनिष्पन्न क्या है ? १६५ अजीवोदयनिष्पन्न के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं. जैसे—औदारिक शरीर, औदारिक शरीर के प्रयोग द्वारा परिणामित पुद्गल द्रव्य । वैक्रिय शरीर, वैक्रिय शरीर के प्रयोग द्वारा परिणामित पुद्गल द्रव्य । आहारक शरीर, आहारक शरीर के प्रयोग द्वारा परिणामित पुद्गल द्रव्य । तेजस शरीर, तेजस शरीर के प्रयोग द्वारा परिणामित पुद्गल द्रव्य । कर्मक शरीर, कर्मक शरीर के प्रयोग द्वारा परिणामित पुद्गल द्रव्य । पांचों शरीरों के प्रयोग द्वारा परिणामित वर्ण, गंध, रस और स्पर्श । वह अजीवोदयनिष्पन्न है । वह उदयनिष्पन्न है । वह औदयिक है । २७७. वह औपशमिक क्या है ? औपशमिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेउपशम और उपशमनिष्पन्न । २७८. वह उपशम क्या है ? उपशम - उपशम मोहनीय कर्म का होता है | वह उपशम है । २७९. वह उपशमनिष्पन्न क्या है ? उपशमनिष्पन्न के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—उपशांत क्रोध, उपशांत मान, उपशांत Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ उवसंतमाए उवसंतलोहे उवसंतपेजे उवसंतदोसे उवसंतदंसणमोहणिजे उबसंतचरितमोहणिज्जे उवसमिया सम्मत्तलद्धी उवसमिया चरित्तलद्धी उवसंत कसायछ उमत्थवीयरागे से तं उवसमनिष्पणे । से तं उवसमिए । । २८०. से कि तं खइए ? खइए दुविहे पण्णत्तं तं जहा ए निष्कण्णे य ॥ २८१. से किए? खए-अहं कम्मपयडीणं खए णं । से तं खए || उपशांतमाय: उपशांतलोभः उपशांतप्रेयाः उपशांतदोषः उपशांतदर्शनमोहनीयः उपशांतचरित्रमोहनीयः औपशमिका सम्यक्त्वलब्धि : औपशमिका चरित्रलब्धिः उपशांतकषाय मस्थवीतरागः । स एष उपशमनिष्पन्नः । स एष औपशमिक: । अथ किं स क्षायिकः ? क्षायिकः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा क्षयश्च क्षयfroपन्नश्च । अथ किं सक्षय ? क्षयः - अष्टानां कर्मप्रकृतीनां क्षयः । स एष क्षयः । २८२. से किं तं खयनिष्कण्णे ? खयनिष्कण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा - उप्पण्णनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली, खीणआभिणियोहिय नाणावरणे खोजसुयनाणावरणे लोणओहिनाणावरणे लोणमणपजवनाणावरणे खोणकेवल नाणावरणे अणावरणे निरावरणे लोणावरणे नाणावर निकम्मविप्पक्के, केवलदंसी सव्वदंसी खनि खीणनिद्दानिद्दे खीपयले खीणपयलापयले खोथी गिद्धी खीचनावरण दंसणावरणे खीणअवक्खदंसणा वरणे खीणओहिदंसणावरणे खोणकेवल सणावरणे अनावरणे निरा वरणे खोणावरणे दरिसणावर णिज्जकम्मविपमुक्के, खीणसाय वैयणिज्जे खीणअसायवेयणिज्जे अवेषणे निवेदने खीणवेयणे सुभासुभवेयणिज्जकम्म विप्पमुक्के, खीणकोहे खीणमाणे लोणमाए लोणलोहे खीणपेज्जे खीणदो से खीणदंसणमोहणिजे खीणचरित मोहणिज्जे अमोहे निम्मोहे खीणमोहे मोहणिज्जकम्मविष्यमुक्के, अथ किस क्षयfroपन्नः ? क्षयनिष्पन्नः अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अहं जिनः केवली क्षीणामिनियधिकज्ञानावरणः क्षीणतज्ञानावरणः क्षीणावधिज्ञानावरणः क्षीणमनः पर्यवज्ञानावरण: पानावरण अनावरणः निरावरण: लोणावरणः ज्ञानावरणीय कर्मविप्रमुक्तः केवल सर्व क्षीणनिद्रः क्षीणनिद्रानिद्रः क्षोणप्रचल: क्षीणप्रचलाप्रचलः क्षीणस्त्यानगृद्धिः क्षीणचक्षुर्दर्शनावरणः क्षीणाचक्षुश्रीगावधिदर्शनावरणः अनावरणः लोग केवलदर्शनावरण निरावरण: क्षीणावरण दर्शनावरजीवकर्मविप्रयुक्तः, सीगसातबेदनीयः क्षीणासात वेदनीयः अवेदनः निर्वेदन: क्षीणवेदन: शुभाशुभवेदनीयकर्मविप्रमुक्तः, क्षीणक्रोधः क्षीणमान: क्षीणमाय: लीगलोम क्षीणप्रेषा: सौणदोष क्षीणदर्शनमोहनीयः क्षीणचरित्रमोहनीयः अमोह निर्मोह क्षीणमोह मोहनीयविक्तः, कीननरधिकायुः श्रीगतियो कायुषः क्षीण मनुष्यायुषः क्षीण देवायुषः अनापुषः निरायुषः क्षीणायुष: आयु अणुओगदाराई माया, उपशांत लोभ, उपशांत प्रेय, उपशांत दोष, उपशान्त दर्शन मोहनीय, उपशान्त चारित्र मोहनीय, औमिकी सम्पक्वतथि, औपशमिकी चारित्रलब्धि और उपशान्तकषाय वाला छद्मस्थवीतराग । वह उपशमनिष्पन्न है । वह औपशमिक है । २८०. वह क्षायिक क्या है ? क्षायिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेक्षय और क्षयनिष्पन्न । १८१. वह क्षय क्या है ? क्षय क्षय आठ कर्म प्रकृतियों का होता है । वह क्षय है । २८२. वह क्षयनिष्पन्न क्या है ? क्षयनिष्पन्न के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे - उत्पन्न ज्ञानदर्शन के धारक अर्हत् जिन केवली, श्रीगजाभिनिबधिकहानावरण, क्षीणश्रुतज्ञानावरण क्षीणअवधिज्ञानावरण, क्षीणमनः पर्यवज्ञानावरण, क्षीणकेवलज्ञानावरण, अनावरण, निरावरण, क्षीणावरण, ज्ञानावरणीय कर्म से विप्रमुक्त । केवलदर्शी, सर्वदर्शी, क्षीणनिद्रावाला, क्षीणनिद्रानिद्वावासा क्षीणप्रचलावाला, क्षीपालना, क्षीणस्त्यानदिवाला, क्षीणचक्षुदर्शनावरण क्षीणचक्षुदर्शना वरण क्षीणअवधिदर्शनावरण क्षीणकेवलदर्शनावरण, अनावरण, निरावरण, क्षीणावरण, दर्शनावरणीय कर्म से विप्रमुक्त । क्षीणसात वेदनीय, क्षीणअसातावेदनीय, अवेदन, निर्वेदन, क्षीणवेदन, शुभ-अशुभवेदनीय कर्म से विप्रमुक्त । क्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणलोभ, क्षीणप्रेय और श्रीगद्वेष, भीमदर्शनमोहनीय, क्षीणचारित्रमोहनीय, अमोह, निर्मोह, क्षीणमोह, मोहनीय कर्म से विप्रमुक्त। क्षीरविकारक श्रीमतिर्मयोनिका युष्क, क्षीणमनुध्यायुष्य, अनायुष्क, निरायुष्क, क्षीणायुष्क, आयुष्य कर्म से विप्रमुक्त । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां प्रकरण : सूत्र २८० - २८५ खीणनेरइयाउए खोणतिरिक्ख जोणियाउए खीण मणुस्साउए खीणदेवाउए अणाउए निराउए खोगाउ आकम्मविष्यमुक्के, यह जाइ सरीरंगोवंग बंधन-संघाय संघपण संठाण अगयदिबंद घायविपमुक्के खीणसुभनामे खीणअसुभनामे अणामे निष्णामे खीणनामे सुभासुभनामकम्मविप्प मुक्के, खीणउच्चागोए खोजनीयागोए अगोए निगोए खीणगोए सुभाषगोलकम्मविष्यमुपके, खीणदाणंतराए खीणलाभंतराए खीणभोगंतराए खीणउवभोगंतराए लोणवीरियंतराए अनंतराए निरंत राए वीतराए अंतरायकम्मविष्यमुक्के, सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिब्बुडे अंतगडे सन्यदुक्खप्प होणे से तं निष्कण्णे से तं खइए ॥ २८२. से कि तं खवसमिए ? खओसमिए दुविहे पण तं जहाखओवसमे य खओवसमनिष्कणे य ॥ - २८४. से किं तं खओवसमे ? खओबसमे चउण्हं घाइकमा ब वसमे णं - नाणावर णिज्जस्स दंसणावर णिज्जस्स मोहणिज्जस्स अंतरायस्स खओवसमे णं से तं खओवसमे || 1 २८५. से किं तं खओवसमनिष्फण्णे ? खओवसमनिष्कण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा - खओवसमिया आभिणिवोहियालढो, सओ समिया नाणढी, खओवस मिया ओहिनाणलद्धी, खओवसमिया मणपज्जवनाणलद्धी; खओवसमिया मइअन्नाणलद्धी, खओवसमिया सुयअन्नाणलद्वी, खओवसमिया विभंगनाणलद्धी; खओवसमिया चक्खुदंसणलद्धी, खओ कर्मविप्रमुक्तः, गति-जाति-शरीरअंगोपांग बन्धन संघात संहननसंस्थान अनेक 'बोंदि' वृन्दसंघातविप्रमुक्तः क्षीणशुभनामा अनामा निर्नामा क्षीणनामा शुभाशुभनामकर्मविप्रमुक्तः, सीयोः सोचगोत्र: अगोत्रः निर्गोत्रः क्षीणगोत्र शुभाशुभगोत्रकर्मविप्रमुक्तः श्रीपदानान्तराय: क्षीणलाभान्तरायः क्षीण भोगान्तरायः क्षीणोपभोगान्तरायः क्षीणवीर्यान्तरायः निरन्तराय: क्षीणान्तराय अन्तरायकर्मविप्रमुक्तः, सिद्धः बुद्धः मुक्तः परिनिर्वृतः अंतकृतः सर्वदुःखप्रहीणः । स एष क्षयनिष्यन्न स एष साविकः । अनन्तरायः अथ किस क्षायोपशमिकः ? क्षयोपशमिक द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा--क्षयोपशमश्च क्षयोपशमनिष्पन्नश्च । अथ कि स क्षयोपशमः ? क्षयोघातिकर्मणां पशमः - चतुर्णां क्षयोपशमः - ज्ञानावरणीयस्य वर्शनावरणीयस्य मोहनीयस्य अंतरायस्य क्षयोपशमः स एव क्षयोपशमः । अथ किस क्षयोपशम निष्पन्नः ? अनेकविधः क्षयोपशमविण्यप्र तद्यथा - क्षायोपशमिका प्रज्ञप्तः, अभिबोधिज्ञानसन्धिः क्षायोपशमिका भूतानलब्धिः शामीचशमिका अवधिज्ञानलब्धि:, क्षायोपशमिका मनः पर्यवज्ञानलब्धिः; क्षायोपशमिका मतिअज्ञानलब्धिः क्षायोपशमिका श्रुतअज्ञानलब्धि:, क्षायोपशमिका विभङ्गज्ञानलब्धिः; क्षायोपशमिका चक्षुर्दर्शन लब्धि:, क्षायोप १६७ गति, जाति, शरीर, अगोपांग, बंधन, संघात, संहनन, संस्थान, अनेक शरीर पटल के संघात से विप्रमुक्त, क्षीणशुभनाम, क्षीणअशुभनाम, अनाम, निर्नाम, लीगनाम, शुभ - अशुभ नाम कर्म से विप्रमुक्त । क्षीणउच्चगोत्र, क्षीणनीचगोत्र, अगोत्र, निर्गोत्र, क्षीणगोत्र, शुभाशुभ गोत्र कर्म से विप्रमुक्त। क्षीणानान्तराय, क्षीणलाभान्तराय, लोगभोगान्तराव, क्षीणउपभोगान्तराय, क्षीणवीर्यान्तराय, अनन्तराय, निरन्तराय, क्षीणान्तराय, अन्तराय कर्म से विप्रमुक्त, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत और सब दुःखों से प्रहीण । वह क्षयनिष्पन्न है । वह क्षायिक है । २८३. वह क्षायोपशमिक क्या है ? क्षायोपशमिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—क्षयोपशम और क्षयोपशमनिष्पन्न | २८४. वह क्षयोपशम क्या है ? , क्षयोपशम-ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घाति कर्मों का क्षयोपशम होता है । वह क्षयोपशम है । २८५. वह क्षयोपशम निष्पन्न क्या है ? 1 क्षयोपशम निष्पन्न के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे— आयोपशमिकी अभिनिवोधिकज्ञानलब्धि क्षायोपशमिको श्रुतज्ञानलन्धि, क्षायोपशमिकी अवधिज्ञानलब्धि, क्षायोपशमिकी मनः पर्यवज्ञानलब्धि क्षायोपशमिकी मतिअज्ञानलब्धि, क्षायोपलमिकी अशानलधि क्षायोपशमिकी विभंगज्ञानलब्धि, क्षायोषणमिकी दर्शनायोपशमिकी अच दर्शन, क्षायोपशमिकी अवधिदर्शनलब्धि, क्षायोपशमिकी सम्यक्दर्शनलब्धि, Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ समिया अचदंसणली, खओ यसमिया ओहिदेसनलडी, खओ वसमिया सम्मयंसणली, खओ यसमिया मिच्छादंसणली, खओ वसमिया सम्ममिच्छादंसणलद्धी; खओवसमिया सामाइयचरित्तलद्धी, शमिका अदर्शनला लावीप शमिका अवधिदर्शनलधिः क्षापोपशमिका सम्यग्दर्शनधिः क्षायोप शमिका मिध्यादर्शनल, क्षायोपशमिका सम्यग्मिथ्य । दर्शन लब्धिः ; क्षायोपशमिका सामायिकचरित्रलब्धि, सावकारान चरित्रलब्धिः क्षायोपशमिका परिहारविशुद्धिकचरिलब्धिः क्षायोपशमिका सूक्ष्मसंपरायचरित्रलब्धि:, आयोपशमिका चरित्राचरित्रसन्धि क्षायोपशमिका दानलब्धिः, क्षायोपशमिका लाभलब्धि:, क्षायोपशमिका भोगलव्धिः क्षायोपशमिका उपभोगलब्धिः, क्षायोपशमिका वीर्यलब्धिः; क्षायोपशमिका बालवीर्यसन्ध क्षायोपशमिका पण्डितल सायोपशमिका पण्डितबीलब्धिः क्षायोपशमिका श्रोत्रेन्द्रियलब्धिः क्षायोपशमिका चक्षुरिन्द्रियलव्धि', घ्राणेन्द्रियलब्धि, खओवसमिया क्षायोपशमिका दिली खओवसमिया ओवसमिया खओवसमिया खओवसमिए क्षायोपशमिका जिह्व ेन्द्रियलब्धिः दिली क्षायोपशमिका स्वर्णन्द्रियः जिम्मिलि क्षायोपशमिकः : आचारधरः, क्षायोपफासि दिली; शमिक: सूत्रकृतधरः, क्षायोपशमिकः आयारघरे, खओवसमिए सूयगड- क्षायोपशमिक: व्याख्याप्रज्ञप्तिधरः, स्थानधरः, क्षायोपशमिकः समवायधरः, धरे, खओवसमिए ठाणधरे, खओक्षायोपशमिक: ज्ञातधर्मकथाधरः, समिए समवत्यधरे समवसमिए क्षायोपशमिक उपासकदशाधरः, वियाहपण्णत्तिधरे, खओवसमिए क्षायोपशमिक: अंतकृतदशाधरः, नायाधम्मक हाधरे, खओवसमिए क्षायोपशमिक: अनुत्तरोपपातिकदशाउवासगदसाधरे, खओवसमिए धरः, क्षायोपशमिकः प्रश्नव्याकरणअंतगडदसाधरे, खओवसमिए घरः, क्षायोपशमिकः विपाकश्रतधरः, अणुतरोववाइयदसाधरे, समोवस क्षायोपशमिका दृष्टि मिए पहायागरणवरे, खओवसमिए क्षायोपशमिक नवपूर्वी सापोपविवागसुयधरे, खओवसमिए दिट्ठि- शमिकः दशपूर्वी, क्षायोपशमिक: वायघरे, खओवसमिए नवपुथ्वी, चतुर्दशपूर्वी क्षायोपशमिक मनी, खओवसमिए दसपुवी, खओवस- क्षायोपशमिक : वाचकः । स एष मिए चउद्दस पुण्वी खओवस मिए क्षयोपशमनिष्पन्नः स एव क्षायोप चउद्दसपुव्वी, गणी, खओवसमिए वायए से तं शमिक खओवसमनिष्फण्णे । से तं खओसमिए । । । ओवसमिया द्वावणचरित लढी, खओवसमिया परिहारविडियचरितली खभवसमिया हमसंपरायचरितलडी, लओसमिया चरितावरितलदी; खओवसमिया दाणलद्धी, खओयसमिया लाभली, खओवस मिया भोगलद्धी, खओवसमिया उवभोगलद्धी, खओवसमिया वोरियलद्धी; खओवसमिया बालवोरियलड़ी, खओवसमिया पंडिय वीरियलद्धी, खओवसमिया बालपंडियबोरिवली, खयवसमिया सोइंडियलड़ी, " " अणुओगदाराई क्षायोपशमिकी मिथ्यादर्शनलब्धि, क्षायोपशमिकी सम्पकमध्यावधि समी सामायिकवारिधि, क्षायोपशमिकी मेदोपस्थापनचरित्रसन्धि क्षायोपशमिकी परिहारविशुद्धिकपालि क्षायोपश मिकी सूक्ष्मसंपरायचारित्रलब्धि, क्षायोपशमिश्री पारिषावारिधि क्षायोपशमिकी दानलब्धि, क्षायोपशमिकी लाभलब्धि, क्षायोपशमिकी भोगलब्धि क्षायोपशमिकी उपभोगलब्धि, क्षायोपशमिकी वीर्यलब्धि, क्षायोपशमिकी बालवीर्यलब्धि, क्षायोपशमिकी पण्डित - वीर्यलब्धि, क्षायोपशमिकी बालपण्डितवीर्यलब्धि, क्षायोपशमिक बोलब्धि आयोपशमिकी प्राणेन्द्रियन्धि क्षायोपश मिकी रसनेन्द्रियलब्धि क्षायोपशमिकी स्पर्शनेन्द्रियलब्धि | सायोनमिक आचारधर, क्षायोपशमिक सूत्रकृतधर, क्षायोपशमिक स्थानधर, क्षायोपशमिक समवायधर, क्षायोपशमिक व्याख्याप्रज्ञप्तिधर, क्षायोपशमिक ज्ञाताधर्म कथाधर, क्षायोपशमिक उपासकदशाधर, क्षायोपशमिक अन्तर क्षायोपशमिक अनुपा तिकदशाधर, क्षायोपशमिक प्रश्नव्याकरणघर योनमिक विपाकघर आवोपमिक दृष्टिवादपर क्षायोपशमिक नक्पूर्वी, क्षायोपशमिक दशपूर्वी क्षायोपशमिक चतुर्दशपूर्वी क्षायोपशमिक गणी, क्षायोपशमिक वाचक | वह क्षयोपशमनिष्पन्न है। वह क्षायोपशमिक है । 1 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिक । सातवां प्रकरण : सूत्र २८५-२८६ १६६ २८६. से कि तं पारिणामिए? पारि- अथ किस पारिणामिकः ? पारि- २८६. वह पारिणामिक क्या है ? णामिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- णामिकः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- पारिणामिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे साइ-पारिणामिए य अणाइ-पारि- सादि-पारिणामिकश्च अनादि- -सादि पारिणामिक और अनादि पारिणाणामिए य॥ पारिणामिकश्च । २८७. से कि तं साइ-पारिणामिए ? अथ किस सादि-पारिणामिक: ? २८७. वह सादि पारिणामिक क्या है ? साइ-पारिणामिए अणेगविहे सादि-पारिणामिकः अनेकविधः सादि पारिणामिक के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त पण्णत्ते, तं जहाप्रज्ञप्तः, तद्यथा हैं, जैसे-जीर्ण सुरा, जीर्ण गुड़, जीर्ण घी, जीर्ण गाहागाथा चावल, अभ्र, अभ्रवृक्ष, संध्या, गन्धर्वनगर, जुण्णसुरा जुण्णगुलो, जीर्णसुरा जीर्णगुरुः उल्कापात, दिशादाह, गर्जन, विद्युत्, निर्घात, जुण्णघयं जुण्णतंदुला चेव । जीर्णघृतं जीर्णतंदुलाः चैव । यूपक, यक्षादीप्त, धूमिका, महिका, रजघात, अब्भा य अब्भरुक्खा, अभ्राणि च अभ्रवृक्षाः, चन्द्रग्रहण, सूर्य ग्रहण, चन्द्रपरिवेश, सूर्यपरिसंझा गंधवनगरा य ॥१॥ सन्ध्या गन्धर्वनगराणि च ॥ वेश, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, उदकउक्कावाया दिसादाहा गज्जियं __ उल्कापाता: दिशावाहाः गजितं मत्स्य, कपिहसित, अमोघा, वर्ष (क्षेत्र), वर्षविज्जू निग्घाया जूवया जक्खा- विद्युत निर्घाताः यूपका: यक्षादीप्ताः धर, ग्राम, नगर, घर, पर्वत, पाताल, भवन, लित्ता धूमिया महिया रयुग्धाओ धमिकाः महिकाः रजोद्घाताः नरक, रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, चंदोवरागा सूरोवरागा चंदपरि- चन्द्रोपरागाः सूरोपरागाः चन्द्रपरि पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमा, तमस्तमा । वेसा सरपरिवेसा पडिचंदा पडि- वेषाः सरपरिवेषाः प्रतिचन्द्राः प्रति- __सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मसरा इंदधण उदगमच्छा कवि- सराः इन्द्रधनषि उवकमत्स्याः लोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, हसिया अमोहा वासा वासधरा कपिहसितानि अमोघाः वर्षाणि वर्ष- प्राणत, आरण, अच्युत, अवेयक, अनुत्तर, गामा नगरा घरा पव्वता पायाला धराः ग्रामाः नगराणि गृहाणि पर्वताः ईषत्प्रारभारा, परमाण पुद्गल, द्विप्रदेशिक भवणा निरया रयणप्पभा सक्कर- पातालाः भवनानि निरयाः रत्नप्रभा यावत् अनन्तप्रदेशिक । वह सादि पारिप्पभा वालुयप्पभा पंकप्पमा धूमशर्कराप्रमा बालुकाप्रभा पडूप्रभा माणिक है। प्पभा तमा तमतमा सोहम्मे ईसाणे धूमप्रभा तमा तमस्तमा सौधर्मः सणंकुमारे माहिदे बंभलोए लंतए ईशानः सनत्कुमारः माहेन्द्रः ब्रह्ममहासुक्के सहस्सारे आणए पाणए लोकः लान्तकः महाशुक्रः सहस्रारः आरणे अच्चुए गेवेज्जे अणुत्तरे आनतः प्राणतः आरणः अच्युतः ईसिप्पडभारा परमाणुपोग्गले प्रैवेयक: अनुत्तरः ईषत्प्रारमारा दुपएसिए जाव अणंतपएसिए। से परमाणपुद्गलः द्विप्रवेशिकः यावद् तं साइ-पारिणामिए॥ अनन्तप्रदेशिकः । स एष सावि-पारिणामिकः। २८८. से कि तं अणाइ-पारिणामिए? अथः किस अनादि-पारिणामिकः? २८८. वह अनादि पारिणामिक क्या है ? अणाइ- पारिणामिए-धम्मत्थि- अनादि-पारिणामिकः-धर्मास्तिकायः अनादि पारिणामिक-धर्मास्तिकाय, काए अधम्मत्थिकाए आगासत्थि- अधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायः अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाए जीवस्थिकाए पोग्गलस्थिकाए जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायः अध्वा- काय, पुद्गलास्तिकाय, अध्वासमय, लोक, अद्धासमए लोए अलोए भव- समयः लोक: अलोकः भवसिद्धिकाः अलोक, भवसिद्धिक, और अभवसिद्धिक । सिद्धिया अभवसिद्धिया। से तं अमवसिद्धिकाः। स एष अनादि- वह अनादि पारिणामिक है। वह पारिणाअणाइ-पारिणामिए। से तं पारि- पारिणामिकः। स एष पारिणा- मिक है।" णामिए॥ मिका। २८६. से किं तं सन्निवाइए? सन्नि- अप कि स सान्निपातिकः? सान्नि- २८९. वह सान्निपातिक क्या है ? वाइए-एएसि चेव उदइय-उव- पातिक:-एतेषां चैव औदयिक- सान्निपातिक-इन्हीं औदयिक, औपश Jain Education Intemational Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अणुओगदाराई समिय-ख इय-खओवसमिय- पारि- औपशमिक - क्षायिक- क्षायोपशमिकणामियाणं भावाणं दुगसंजोएणं पारिणामिकानां भावानां द्विकसंयोगेन तिगसंजोएणं चउक्कसंजोएणं त्रिकसंयोगेन चतुष्कसंयोगेन पञ्चकपंचगसंजोएणं जे निप्पज्जइ सव्वे संयोगेन यत् निष्पद्यते सर्व तत् सान्निसे सन्निवाइए नामे । तत्थ णं दस पातिकं नाम । तत्र दश द्विकसंयोगाः, दुगसंजोगा, दस तिगसंजोगा, पंच दश त्रिकसंयोगाः, पञ्च चतुष्कसंयोगाः, चउक्कसंजोगा, एगे पंचकसंजोगे। एकः पञ्चकसंयोगः। मिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भावों में दो के संयोग से, तीन के संयोग से, चार के संयोग से और पांच के संयोग से जो भाव निष्पन्न होते हैं वे सब सान्निपातिक भाव हैं। ___ इन औदयिक आदि भावों में द्विकसंयोगी दस, त्रिकसंयोगी दस, चतुष्कसंयोगी पांच और पञ्चकसंयोगी एक है। तत्र ये एते दश द्विकसंयोगाः ते इमे णं इमे-१. अस्थि नामे उदइए -१. अस्ति नाम औदयिकः उपउवसमनिष्फण्णे २. अत्थि नामे शमनिष्पन्नः २. अस्ति नाम औदयिकः उदइए खयनिप्फण्णे ३. अत्थि नामे क्षयनिष्पन्नः ३. अस्ति नाम औदउदइए खओवसमनिप्फण्णे ४. यिकः क्षयोपशमनिष्पन्नः ४. अस्ति अस्थि नामे उदइए पारिणामिय- नाम औदयिकः पारिणामिकनिष्पन्न: निप्फण्णे ५. अत्थि नामे उवसमिए ५. अस्ति नाम औपशमिकः क्षयखयनिप्फण्णे ६. अत्थि नामे उव- निष्पन्नः ६. अस्ति नाम औपशमिक: समिए खओवसमनिष्फण्णे ७. क्षयोपशमनिष्पन्नः ७. अस्ति नाम अस्थि नामे उवसमिए पारिणा औपशमिक: पारिणामिकनिष्पन्नः मियनिष्फण्णे ८. अस्थि नामे खडए ८. अस्ति नाम क्षायिकः क्षयोपशमखओवसमनिप्फणे ६. अत्थि नामे निष्पन्नः ९. अस्ति नाम क्षायिक: खइए पारिणामियनिष्फण्णे १०. पारिणामिकनिष्पन्नः १०. अस्ति अस्थि नामे खओवसमिए पारि- नाम क्षायोपशमिकः पारिणामिकणामियनिष्फण्णे ॥ निष्पन्नः। २९०. जो दस द्विकसंयोगी नाम हैं वे ये हैं १. औदयिक उपशमनिष्पन्न नाम । २. औदयिक क्षयनिष्पन्न नाम । ३. औदयिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम । ४. औदयिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम । ५. औपशमिक क्षयनिष्पन्न नाम । ६. औपशमिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम । ७. औपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न ८. क्षायिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम । ९. क्षायिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम । १०. क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम। ० . २९१. १. वह औदयिक उपशमनिष्पन्न नाम कौन सा है ? __औदयिक मनुष्य और उपशांत कषाय, यह औदयिक उपशमनिष्पन्न नाम है। २. वह औदयिक क्षयनिष्पन्न नाम कौनसा २६१. १. कयरे से नामे उदइए उव- १. कतरः स नाम औवयिकः उप- समनिप्फण्णे? उदइए त्ति मणुस्से शमनिष्पन्नः ? औदयिकः इति मनुष्यः उवसंता कसाया, एस णं से नामे उपशांता: कषायाः, एष स नाम उदइए उवसमनिप्फण्णे। औदयिकः उपशमनिष्पन्नः । २. कयरे से नामे उदइए खय २. कतरः स नाम औदयिकः क्षयनिप्फण्णे ? उदइए ति मणुस्से निष्पन्न ? औदयिकः इति मनुष्यः खइयं सम्मत्तं, एस णं से नामे उद क्षायिकं सम्यक्त्वं, एष स नाम इए खयनिष्फण्णे। औदयिकः क्षयनिष्पन्नः। ३. कयरे से नामे उदइए खओ- ३. कतरः स नाम औदयिकः वसमनिप्फण्णे ? उदइए त्ति क्षयोपशमनिष्पन्नः ? औदयिकः इति मणुस्से खओवसमियाइं इंदियाई, मनुष्यः क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, एस णं से नामे उदइए खओवसम एष स नाम औदयिकः क्षयोपशमनिष्फण्णे। निष्पन्नः। ४. कयरे से नामे उदइए पारिणा- ४. कतरः स नाम औवयिकः मियनिष्फण्णे? उदइए त्ति मणस्से पारिणामिकनिष्पन्नः ? औदयिक: पारिणामिए जीवे, एस णं से नामे इति मनुष्यः पारिणामिक: जीव:, ___ औदयिक मनुष्य और क्षायिक सम्यक्त्व, यह औदयिक क्षयनिष्पन्न नाम है । ३. वह औदयिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम कौन सा है ? औदयिक मनुष्य और क्षायोपशमिक इन्द्रियां, यह औदयिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम है। ४. वह औदयिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौनसा है ? औदयिक मनुष्य और पारिणामिक जीव, Jain Education Intemational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ यह औदयिक पारिणामिक निष्पन्न नाम है। सातवां प्रकरण : सूत्र २६०-२६२ उदइए पारिणामियनिष्फण्णे। एष स नाम औदयिकः पारिणामिक निष्पन्नः। ५. कयरे से नामे उवसमिए खय- ५. कतरः स नाम औपशमिकः निप्फण्णे? उवसंता कसाया खइयं क्षयनिष्पन्नः ? उपशान्ताः कषायाः सम्मत्तं, एस णं से नामे उवसमिए क्षायिकं सम्यक्त्वं, एष स नाम खयनिष्फण्णे। औपशमिकः क्षयनिष्पन्नः । ५. वह औपशामिक क्षयनिष्पन्न नाम कौन सा है ? उपशांत कषाय और क्षायिक सम्यक्त्व, यह औपशमिक क्षयनिष्पन्न नाम है। ६. कयरे से नामे उवसमिए खओ- ६. कतरः स नाम औपशमिकः वसमनिष्फण्णे ? उवसंता कसाया क्षयोपशमनिष्पन्नः ? उपशान्ताः खओवस मियाइं इंदियाई, एस णं ___ कषायाः क्षायोपशमिकानि इन्द्रिसे नामे उवसमिए खओवसम- याणि, एष स नाम औपशमिक: निष्फण्णे। क्षयोपशमनिष्पन्नः । ७. कयरे से नामे उवसमिए पारि- ७. कतरः स नाम औपशमिकः णामियनिष्फण्णे? उवसंता कसाया पारिणामिकनिष्पन्नः ? उपशान्ताः पारिणामिए जीवे, एस णं से नामे कषाया. पारिणामिकः जीवः, एष स उवसमिए पारिणामियनिष्फण्णे। नाम औपशमिकः पारिणामिक निष्पन्नः । ८. कयरे से नामे खइए खओवसम- ८. कतरः स नाम क्षायिकः क्षयोपनिष्फण्ण? खडयं सम्मत्तं खओ- शमनिष्पन्नः ? क्षायिकं सम्यक्त्वं वसमियाइं इंदियाई, एस णं से क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, एष स नामे खइए खओवसमनिष्फण्णे। नाम क्षायिक: क्षयोपशमनिष्पन्नः । ६. बह औपशमिक क्षयोपशम निष्पन्न नाम कौनसा है ? उपशांत कषाय और क्षायोपशमिक इन्द्रियां, यह औपशमिक क्षयोपशम निष्पन्न नाम है। ७. वह औपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौन सा है ? उपशांत कषाय और पारिणामिक जीव, यह औपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम है । ६. कयरे से नामे खइए पारिणा- ९. कतरः स नाम क्षायिकः पारिमियनिष्फण्णे? खइयं सम्मत्तं __णामिकनिष्पन्नः ? क्षायिकं सम्यक्त्वं पारिणामिए जीवे, एस णं से नामे पारिणामिकः जीवः, एष स नाम खइए पारिणामियनिप्फण्णे। क्षायिक: पारिणामिकनिष्पन्न: । ८. वह क्षायिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम कौन सा है ? क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक इन्द्रियां, यह क्षायिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम है। ९. वह क्षायिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौन सा है ? क्षायिक सम्यक्त्व और पारिणामिक जीव, यह क्षायिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम है। १०. वह क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौनसा है ? क्षायोपशमिक इन्द्रियां और पारिणामिक जीव, यह क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम है। १०. कयरे से नामे खओवसमिए १०. कतरः स नाम क्षायोपशमिकः पारिणामियनिष्फण्णे? खओवस- पारिणामिकनिष्पन्नः ? क्षायोपशमियाइं इंदियाइं, पारिणामिए मिकानि इन्द्रियाणि पारिणामिकः जीवे, एस णं से नामे खओवसमिए जीवः, एष स नाम क्षायोपशमिकः पारिणामियनिष्फण्णे ॥ पारिणामिकनिष्पन्न। २६२. तत्थ णं जेते दस तिगसंजोगा ते तत्र ये एते दश त्रिकसंयोगा: ते इमे २९२. जो दस त्रिकसंयोगी नाम हैं वे ये हैंणं इमे-१. अत्थि नामे उदइए -१. अस्ति नाम औदयिकः औप १. औदयिक औपशमिक क्षयनिष्पन्न उवसमिए खयनिष्फण्णे २. अस्थि शमिकः क्षयनिष्पन्न: २. अस्ति नाम नाम। नामे उदइए उवसमिए खओवसम- औदायिकः औपमिक: क्षयोपशम- २. औदयिक औपशमिक क्षयोपशमनिष्पन्न निष्फण्णे ३. अस्थि नामे उदइए निष्पन्नः ३. अस्ति नाम औदयिक: नाम । उवसमिए पारिणामियनिष्फण्णे औपशमिकः पारिणामिकनिष्पन्नः ३. औदयिक औपशमिक पारिणामिक४. अस्थि नामे उदइए खइए ४. अस्ति नाम औदयिकः क्षायिकः निष्पन्न नाम । खओवसमनिष्फण्णे ५. अस्थि नामे क्षयोपशमनिष्पन्नः ५. अस्ति नाम ४. औदयिक क्षायिक क्षयोपशमनिष्पन्न उदइए खइए पारिणामियनिष्फण्णे औदयिक: क्षायिक: पारिणामिक नाम । Jain Education Intemational Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ६. अत्थि नामे उदइए खओवस- निष्पन्नः ६. अस्ति नाम औदयिक: मिए पारिणामियनिष्फण्णे ७. क्षायोपशमिकः पारिणामिकनिष्पन्न: अत्थि नामे उवसमिए खइए खओ- ७. अस्ति नाम औपशमिकः क्षायिक: वसमनिप्फण्णे ८. अत्थि नामे क्षयोपशमनिष्पन्नः ८. अस्ति नाम उवसमिए खइए पारिणामिय- औपशमिक: क्षायिकः पारिणामिकनिष्फण्णे ६. अस्थि नामे उवसमिए निष्पन्नः ९. अस्ति नाम औपशमिक: खओवसमिए पारिणामियनिप्फण्णे क्षायोपशमिकः पारिणामिकनिष्पन्नः १०. अत्थि नामे खइए खओवस- १०. अस्ति नाम क्षायिकः क्षायोपमिए पारिणामियनिष्फण्णे ॥ शमिकः पारिणामिकनिष्पन्नः । अणुओगदाराई ५. औदयिक क्षायिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम । ६ औदयिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम । ७. औपशमिक क्षायिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम । ८. औपशामिक क्षायिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम । ९. औपशमिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम । १०. क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम । २९३.१. कयरे से नामे उदइए उव- १. कतरः स नाम औदयिका औप- २९३. १. वह औदयिक औपशमिक क्षयनिष्पन्न समिए खयनिष्फण्णे? उदइए त्ति शमिक: क्षयनिष्पन्न: ? औवयिक: नाम कौनसा है ? मणस्से जवसंता कसाया खट्यं इति मनुष्यः उपशान्ताः कषायाः औदयिक मनुष्य, उपशांत कषाय और सम्मत्तं, एस णं से नामे उदइए क्षायिकं सम्यक्त्वं, एष स नाम क्षायिक सम्यक्त्व, यह औदयिक औपशमिक उवसमिए खयनिप्फण्णे। औदयिकः औपशमिकः क्षयनिष्पन्नः। क्षयनिष्पन्न नाम है। २. कयरे से नामे उदइए उवसमिए २. कतरः स नाम औदयिकः खओवसमनिप्फण्णे? उदइए त्ति औपशमिकः क्षयोपशमनिष्पन्नः? मणस्से उवसंता कसाया खओ- औयिकः इति मनष्यः उपशान्ताः वसमियाइं इंदियाई, एस णं से कषायाः क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, नामे उदइए उवसमिए खओ- एष स नाम औदयिकः औपशमिकः वसमनिप्फण्णे। क्षयोपशमनिष्पन्नः। २. वह औदयिक औपशमिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम कौनसा है ? औदयिक मनुष्य, उपशांत कषाय और क्षायोपशमिक इन्द्रियां, यह औदयिक औपशमिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम है। ३. कयरे से नामे उदइए उवसमिए ३. कतरः स नाम औदयिकः पारिणामियनिष्फण्णे? उदइए औपशमिकः पारिणामिकनिष्पन्नः ? त्ति मणस्से उवसंता कसाया औदयिकः इति मनुष्यः उपशान्ताः पारिणामिए जीवे, एस णं से कषायाः पारिणामिकः जीवः, एष स नामे उदइए उवसमिए पारिणा- नाम औदयिकः औपमिकः मियनिष्फण्णे। पारिणामिकनिष्पन्नः । ३. वह औदयिक औपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौनसा है ? ___ औदयिक मनुष्य, उपशांत कषाय और पारिणामिक जीव, यह औदयिक औपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम है। ४. कयरे से नामे उदइए खइए ४. कतरः स नाम औदयिकः खओवसमनिप्फण्णे? उदइए ति क्षायिकः क्षयोपशमनिष्पन्नः ? मणस्से खइयं सम्मत्तं खओवस- औदयिकः इति मनुष्यः क्षायिक मियाइं इंदियाई, एस णं से नामे सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकानि उदइए खइए खओवसम- इन्द्रियाणि, एष स नाम औवयिक: निष्फण्णे। क्षायिकः क्षयोपशमनिष्पन्नः । ४. वह औदयिक क्षायिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम कौनसा है ? औदयिक मनुष्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक इन्द्रियां, यह औदयिक क्षायिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम है। ५. कयरे से नामे उदइए खइए ५. कतरः स नाम औदयिक: पारिणामियनिष्फण्णे? उदइए क्षायिकः पारिणामिकनिष्पन्नः ? त्ति मणुस्से खइयं सम्मत्तं पारि- औदयिकः इति मनुष्यः क्षायिकं ५. वह औदयिक क्षायिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौनसा है ? औदयिक मनुष्य, क्षायिक सम्यक्त्व और Jain Education Intemational Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ पारिणामिक जीव, यह औदयिक क्षायिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम है। सातवां प्रकरण : सूत्र २६३,२६४ णामिए जीवे, एस णं से नामे सम्यक्त्वं पारिणामिकः जीवः, एष उदइए खइए पारिणामिय- स नाम औदयिकः क्षायिक: निप्फण्णे। पारिणामिकनिष्पन्नः । ६. कयरे से नामे उदइए खओवस- ६. कतरः स नाम औदयिक: मिए पारिणामियनिष्फण्णे? क्षायोपशमिक: पारिणामिकउदइए ति मणुस्से खओवस- निष्पन्न: ? औदयिक: इति मनुष्य: मियाइं इंदियाई पारिणामिए मायोपशमिकानि इन्द्रियाणि पारिजीवे, एस णं से नामे उदइए णामिकः जीवः, एष स नाम खओवसमिए पारिणामिय औदयिक:क्षायोपशमिक: पारिणामिकनिष्कण्णे। निष्पन्नः। ६. वह औदयिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौनसा है ? औदयिक मनुष्य, क्षायोपशमिक इन्द्रियां और पारिणामिक जीव, यह औदयिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम ७. कयरे से नाम उवसमिए खइए ७. कतरः स नाम औपशमिकः खओवसमियनिप्फण्णे? उब- क्षायिकः क्षयोपशमनिष्पन्न: ? संता कसाया खइयं सम्मत्तं उपशान्ताः कषायाः क्षायिक सम्यक्त्वं खओवसमियाइं इंदियाई, एस क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, एष स णं से नामे उवसमिए खइए नाम औपशमिकः क्षायिकः क्षयोपखोवसमनिप्फण्णे। शमनिष्पन्नः । ७. वह औपशमिक क्षायिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम कौनसा है ? उपशांत कषाय, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक इन्द्रियां, यह औपशमिक क्षायिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम है। ८. वह औपशमिक क्षायिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौनसा है ? उपशांत कषाय, क्षायिक सम्यक्त्व और पारिणामिक जीव, यह औपशमिक क्षायिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम है। ८. कयरे से नामे उवसमिए खइए ८. कतरः स नाम औपशमिकः पारिणामियनिष्फण्ण ? उवसंता क्षायिकः पारिणामिकनिष्पन्न: ? कसाया खइयं सम्मत्तं पारि- उपशान्ताः कषायाः क्षायिक णामिए जीवे, एस णं से नामे सम्यक्त्वं पारिणामिक: जीव:, एष स उवसमिए खइए पारिणामिय- नाम औपशमिक: क्षायिक: पारिणानिष्फण्णे। मिकनिष्पन्नः । ६. कयरे से नामे उवसमिए खओ- ९. कतरः स नाम औपशमिकः वसमिए पारिणामियनिष्फण्ण? क्षायोपशमिकः पारिणामिकउवसंता कसाया खओवसमियाइं निष्पन्न: ? उपशान्ताः कषायाः इंदियाई पारिणामिए जीवे, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि एस ण से नामे उवसमिए खओ- पारिणामिक: जीवः, एष स नाम वसमिए पारिणामियनिष्फण्णे। औपशमिकः क्षायोपशमिक: पारि णामिकनिष्पन्नः । १०. कयरे से नामे खइए खओवस- १०. कतरः स नाम क्षायिकः क्षायोपमिए पारिणामियनिप्फण्णे? शमिकः पारिणामिकनिष्पन्नः ? खइयं सम्मत्तं खओवसमियाई क्षायिकं सम्यक्त्वं क्षायोपशमिइंदियाई पारिणामिए जीवे, कानि इन्द्रियाणि पारिणामिकः एस णं से नामे खइए खओवस- जीवः, एष स नाम क्षायिक: मिए पारिणामियनिष्फण्णे ॥ क्षायोपशमिक: पारिणामिक निष्पन्नः। ९. वह औपशमिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौनसा है ? उपशांत कषाय, क्षायोपशमिक इन्द्रियां और पारिणामिक जीव, यह औपशमिक क्षायोपशमिक पारिणामिक निष्पन्न नाम है। १०. वह क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौनसा है ? क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक इन्द्रियां और पारिणामिक जीव, यह क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम २६४. तत्थ णं जेते पंच चउक्कसंजोगा तत्र ये एते पंच चतुष्कसंयोगाः २९४. जो पांच चतुष्कसंयोगी नाम हैं वे ये हैं ते णं इमे-१. अस्थि नामे उदइए ते इमे-१. अस्ति नाम औदयिकः १. औदयिक औपशमिक क्षायिक क्षयोउवसमिए खइए खओवसमनिप्फ- औपशमिकः सायिकः क्षयोपशम- पशमनिष्पन्न नाम । अस्ति नाकसंयोगाः - आप Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ -पणे २. अस्थि नामे उदइए उबसमिए खइए पारिणामियनिष्कण्णे ३. अस्थि नामे उदइए उवसमिए खओवसमिए पारिणामियनिष्कण्णे ४. अस्थि नामे उदइए खइए खओवसमिए पारिणामियनिष्कण्णे ५. अस्थि नामे उवसमिए खइए खओ वसमिए पारिणामियनिष्कण्णे ॥ २६५. १. कयरे से नामे उदइए उवसमिए खइए खओवसमनिष्फण्णे? उदइए त्ति मणुस्से उवसंता निष्पन्नः ? कसाया खइयं सम्मत्तं खओवसमियाइं इंदियाई, एस णं से नामे उदइए उद्यमिए खइएसओवसमनिष्फण्णे | २. कयरे से नामे उदइए उवसमिए पारिणामियनिष्कण्णे ? लइए उदइए ति मणुस्से उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं पारिनामिए जीवे, एस से नामे उदइए उवसमिए खइए पारि णामियनिष्फण्णे । ३. कयरे से नामे उदइए उवसमिए खओवसमिए पारिणामियनिष्फण्णे ? उदइए त्ति मणुस्से उवसंता कसाया खओवसमियाई इंदिबाई पारिणामिए जोबे, एस गं से नामे उदइए उवसमिए खओवसमिए पारिणामियनिष्फण्णे | ४. कमरे से नामे उदइएलइए खओवसमिए पारिणामिय निष्फण्णे ? उदइए ति मणस्से सहयं सम्मतं खओवसमियाई इंदिबाई पारिणामिए जीवे एस णं से नामे उदइए खइए सओसमिए पारिणामिय निष्कणे। निष्पन्नः २. अस्ति नाम औदयिकः औपशमिकः क्षायिकः पारिणामिकनिष्यन्नः ३. अस्ति नाम बदयिकः औपशमिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिकनिष्पन्नः ४. अस्ति नाम औवयिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारि णामिक निष्पन्नः ५. अस्ति नाम औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिकनिष्पन्नः । १. कतरः स नाम औदयिकः औपशमिक: क्षायिक: क्षयोपशमऔदयिकः इति उपशान्ताः कषायाः मनुष्यः क्षायिकं सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि एष स नाम औदयिकः औपशमिकः क्षायिक: क्षयोपशमनिष्पन्नः । मनुष्यः शाि २. कतरः स नाम औदयिकः औपशमिकः क्षायिक: पारिणामिकनिष्पन्न: ? औदविक इति उपशान्ता: कषायाः सम्यक्त्वं पारिणामिक: एष स नाम औबयिकः औपशमिकः क्षायिकः पारिणामिक निष्पन्नः । ३. कतरः स नाम औदयिकः औपशमिक: क्षायोपशमिकः पारिणामिकनिष्पन्नः ? औदयिकः इति जीव:, मनुष्यः उपशान्ताः कषायाः सायोपशमिकानि इन्द्रियाणि पारिणामिक: जीवः, एष नाम औदयिकः औपशमिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिकनिष्पन्न: । स ४. कतर: स नाम औदयिक: क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणाविकनिष्पन्नः ? औयिकः इति मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्वं लायोपशमिकानि इन्द्रियाणि पारिणामिकः जीवः, एष स नाम औदयिकः क्षायिकः क्षायोपशमिक: पारिणामिकनिष्पन्नः । अणुओगदाराई २. औदयिक औपशमिक क्षायिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम । ३. औदयिक औपशमिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम । ४. औदयिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक निष्पन्न नाम । ५. औपशमिक क्षायिक पारिणामिक निष्पन्न नाम । क्षायोपशमिक २९५ १. वह औदयिक औपशमिक क्षायिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम कौन सा है ? औदयिक मनुष्य, उपशांत कषाय, सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक यह औदयिक औपशमिक क्षयोपशमनिष्पन्न नाम है । क्षायिक इन्द्रियां, क्षायिक २. वह औदयिक औपशमिक क्षायिक पारिणामिक निष्पन्न नाम कौन सा है ? औदयिक मनुष्य, उपशांत कषाय, क्षायिक सम्यक्त्व और पारिणामिक जीव, यह औदयिक औपशमिक क्षायोपशमिक पारिणामिक निष्पन्न नाम है । ३. वह औदयिक औपशमिक क्षायोपशमिक पारिणामिक निष्पन्न नाम कौन सा है । औदयिक उपशांत कषाय, मनुष्य, क्षायोपशमिक इन्द्रियां और पारिणामिक जीव, यह औदयिक औपशमिक क्षायोपशमिक पारिणामिक निष्पन्न नाम है । ४. वह औदयिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक निष्पन्न नाम कौन सा है । औदयिक मनुष्य, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक इन्द्रियां और पारिणामिक जीव, यह औदयिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक निष्पन्न नाम है । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ सातव ण : सूत्र २६५-२६७ ५. कयरे से नामे उवसमिए खइए ५. कतरः स नाम औपशमिकः । खओवसमिए पारिणामिय- क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणानिप्फण्णे ? उवसता कसाया मिकनिष्पन्न: ? उपशान्ताः खइयं सम्मत्तं खओवसमियाई कषायाः क्षायिकं सम्यक्त्वं इंदियाई पारिणामिए जीवे, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि एस णं से नामे उवसमिए खइए पारिणामिकः जीवः, एष स खओवसमिए पारिणामिय- नाम औपशमिकः क्षायिकः निप्फण्णे ॥ क्षायोपशमिक: पारिणामिफनिष्पन्नः। ५. वह औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौन सा है ? उपशान्त कषाय, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक इन्द्रियां और पारिणामिक जीव, यह औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम है। २६६. तत्थ णं जेसे एक्के पंचगसंजोए तत्र यः एष एकः पञ्चकसंयोगः २९६. जो एक पञ्चक संयोगी नाम है, वह यह से णं इमे-अस्थि नामे उदइए स अयम् --अस्ति नाम औदयिकः उवसमिए खइए खओवसमिए औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः १. औदयिक औपशमिक क्षायिक क्षायोपपारिणामियनिप्फण्णे ॥ पारिणामिकनिष्पन्नः । मिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम । २९७. कयरे से नामे उदइए उवसमिए कतरः स नाम औदयिक: औप- . २९७. वह औदयिक औपशमिक क्षायिक क्षायोपखइए खओवसमिए पारिणामिय- शमिकः क्षायिक: क्षायोपशमिकः शमिक पारिणामिकनिष्पन्न नाम कौनसा निष्फण्णे? उदइए ति मणस्से पारिणामिकनिष्पन्नः ? औदयिक: उबसंता कसाया खइयं सम्मत्तं इति मनुष्य: उपशान्ताः कषायाः औदयिक मनुष्य, उपशांत कषाय, क्षायिक खओवसमियाइं इंदियाइं पारिणा- क्षायिकं सम्यक्त्वं बायोपशमिकानि सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक इन्द्रियां और पारिमिए जीवे, एस णं से नामे उदइए इन्द्रियाणि पारिणामिक: जीवः, एष णामिक जीव, यह औदयिक औपशमिक उवसमिए खइए खओवसमिए स नाम औदयिकः ओपशमिकः क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिकनिष्पन्न पारिणामियनिप्फण्णे। से तं क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक- नाम है। वह सान्निपातिक नाम है । वह षड् सन्निवाइए। से तं छनामे॥ निष्पन्न: । स एष सान्निपातिकः । नाम है। तवेतत् षड्नाम । Jain Education Intemational Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४६, २४७ १. सूत्र (२४६,२४७) वैकल्पिक रूप से उपक्रम के छः प्रकार बतलाए गए हैं। उसमें दूसरा प्रकार है-नाम । इससे पूर्व आनुपूर्वी का निरूपण किया गया है। अब नाम का निरूपण प्रासंगिक है। नाम का अर्थ है -संज्ञाकरण । सूत्रकार ने एक गाथा में नाम की परिभाषा बतलाई है । नामकरण के तीन आधार हैं-द्रव्य, गुण और पर्याय । विश्वकोष में जितने भी नाम हैं वे सब द्रव्यवाची, गुणवाची अथवा पर्यायवाची हैं। टिप्पण एक नाम का प्रतिपादन नामत्व की दृष्टि से किया गया है। किसी भी द्रव्य के गुण या पर्याय का बोध कराने वाले जितने शब्द हैं, वे सब भिन्न-भिन्न होने पर भी नाम कहलाते हैं। एक ही वस्तु के अवस्था भेद के अनुसार जितने अभिधान होते हैं, वे एक 'नाम' शब्द में आ जाते हैं। अभेद की प्रधानता या समग्रता की दृष्टि से 'एक नाम' का प्रतिपादन है । सूत्र २४८ २. ( सूत्र २४८ ) जिसके दो प्रकार बनते हों उसे द्विनाम कहा गया है। इसी प्रकार तीन, चार, पांच आदि प्रकारभेद के आधार पर तीन नाम, चार नाम, पांच नाम ज्ञातव्य हैं । सूत्र २४९ उदाहरण संस्कृत भाषा में है। क्योंकि ह्री, श्री, धी, स्त्री आदि शब्दों का द्व्यक्षर शब्दरूप बनते हैं जो कि रचनाकार को इष्ट नहीं है, इसलिए सूत्र २५४ ४. संमूच्छिम ( सम्मुच्छिम ) जो जन्म न तो देव और नारकों की तरह नियत स्थान में ही होता है और न जिसमें गर्भधारण की आवश्यकता होती है, उसे संमूर्च्छन कहते हैं। इस प्रकार जन्म लेने वाले सारे असंज्ञी जीव संमूच्छिम कहलाते हैं । ५. पर्याप्त (पज्जत्तए) ३. ( सूत्र २४९ ) प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है और इस सूत्र के प्राकृतीकरण किया जाए तो हिरी, सिरी, धीर, इत्थी आदि इनके संस्कृत उदाहरण दिए गए हैं। जन्म के प्रारम्भ में होने वाली पोद्गलिक शक्ति पर्याप्ति कहलाती है। पर्याप्त नाम कर्म के उदय से जो जीव उस जन्म के योग्य सारी पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है वह पर्याप्त कहलाता है । ६. अपर्याप्त (अपजसए) अपर्याप्त नाम कर्म के उदय से जो जीव अपने योग्य पर्याप्तियों (पौद्गलिक शक्तियों) को कहलाता है। जो जीव निश्चित रूप से अपर्याप्त अवस्था में मरता है वह लब्धि अपर्याप्त होता है पर अभी तक हुआ नहीं वह करण अपर्याप्त होता है । सूत्र २६६ ७. ( सूत्र २६६ ) व्याकरण के नियमानुसार एक शब्द में किसी वर्ण के आगमन को आगम कहते हैं । आगम मित्रवत् होता है। मित्र अपने मित्रों १. ( क ) अचू. पृ. ४१ । (ख) अमवृ. प. ९५ । पूर्ण नहीं कर पाता वह अपर्याप्त तथा जो भविष्य में पर्याप्त होगा, Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०७, सू० २४६-२८७, टि०१-१५ १७७ को विस्थापित नहीं करता, किन्तु उन्हीं के साथ घुलमिल जाता है। इसी प्रकार किसी शब्द को हटाए बिना स्थान प्राप्त करना व्याकरण शास्त्र में आगम कहलाता है। सूत्र २६७ ८. (सूत्र २६७) ___ व्याकरण के नियमानुसार पदान्त में स्थित एकार और ओकार के आगे अकार हो तो उसका लोप (अदर्शन) हो जाता है। प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट नाम इसी नियम के उदाहरण हैं । ") ६. (सूत्र २६८) संस्कृत व्याकरण की तीसरी सन्धि के अन्तर्गत प्रकृतिभाव प्रकरण है । इस प्रकरण के नियमानुसार द्विवचनान्त ईकारान्त, ऊकारान्त और एकारान्त शब्दों में सन्धि का अवकाश होने पर भी सन्धि नहीं होती, वे अपनी प्रकृति में स्थित रहते हैं। यहां इस नियम के उदाहरण प्रस्तुत हैं । सूत्र २७० १०. नामिक (नामिक) नाम से होने वाला शब्द नामिक होता है। नाम की परिभाषा वैयाकरणों के अनुसार यह है-“अर्थवदऽधातुविभक्ति वाक्यं नाम" धातु, विभक्ति और वाक्य को छोड़कर कोई भी अर्थवान शब्द नाम कहलाता है। अश्व आदि नाम नामिक कहलाते हैं। ११. नेपातिक (नेपातिक) अमुक-अमुक अर्थों को व्यक्त करने के लिए निश्चित किए गए वे पद, जो सब लिंगों और विभक्तियों में समान होते हैं, निपात कहलाते हैं, जैसे -च, वा, हआदि । १२. आख्यातिक (आख्यातिक) आख्यात नाम है-धातु का। धातु के आगे प्रत्यय लगाकर जो धातु रूप निष्पन्न किया गया है वह आख्यातिक कहलाता है। वाक्या-रचना में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसके अभाव में वाक्य अधूरा रहता है। १३. औपसगिक (औपसगिक) निपातसंज्ञक शब्दों के अन्तर्गत आए हुए कुछ शब्द क्रिया के योग में उपसर्ग संज्ञा प्राप्त कर लेते हैं उनसे बने नाम औपसर्गिक कहलाते हैं। १४. मिश्र (मिश्र) उपसर्ग, धातु, प्रत्यय आदि के योग से जो शब्द रूप बनते हैं वे मिश्र कहलाते हैं। सूत्र २७१-२८७ १५. (सूत्र २७१-२८७) भाव का शाब्दिक अर्थ है होना। इसका पारिभाषिक अर्थ है-मोह के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से होने वाला जीव का स्पन्दन । इसलिए भाव को जीव का स्वरूप कहा गया है। किसी एक पर्याय के आधार पर हम जीव के स्वरूप को नहीं जान सकते, उसके विभिन्न पर्याय ही उसके अस्तित्व को प्रकट करते हैं। भाव के छः प्रकार हैं-१. औदयिक २. औपशमिक ३. क्षायिक ४. क्षायोपशमिक ५. पारिणामिक ६. सान्निपातिक । उमास्वाति के वर्गीकरण में सान्निपातिक भाव का उल्लेख नहीं है। उन्होंने भाव को जीव का स्वतत्त्व या स्वरूप बतलाया है।' जीव का अस्तित्व निरुपाधिक है । उसके उपाधि कर्म के उदय अथवा विलय से होती है, जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव अज्ञानी कहलाता है, उसके क्षयोपशम से जीव मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी कहलाता है। औदयिक भाव से मनुष्य का बाहरी व्यक्तित्व निर्मित होता है। क्षायोपशमिक भाव से उसके आन्तरिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है। व्यक्तित्व की सर्वाङ्गीण व्याख्या के लिए भावों का अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है। १. तसू. २।१। Jain Education Intemational Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ १. औदयिक भाव सत्ता (अबाधाकाल) को छोड़कर उदीरणावलिका का अतिक्रमण कर उदयावलिका में कर्मदलिक का विपाक होना उदय कहलाता है । उदय से होने वाला पर्याय औदयिक भाव है । संसारी जीव के कर्म का उदय निरंतर होता रहता है। २. औपशमिक भाव आत्मा का वह पर्याय जिसमें विपाकोदय और प्रदेशोदय का सर्वथा अभाव होता है उसका नाम है उपशम । क्षयोपशम के प्रकरण में उपशम का जो अर्थ है यह उससे भिन्न है । क्षयोपशम के काल में क्षय और प्रदेशोदय अथवा मंद विपाकोदय चलता रहता है । उपशम भाव में मोहनीय कर्म न तो क्षय होता है न उदय । इसलिए औपशमिक भाव के प्रकरण में उपशम का अर्थ क्षायोपशमिक भाव के उपशम से भिन्न है ।" पूर्ण उपशम केवल मोहनीय कर्म का होता है। इसका हेतु यह है कि मोहनीय कर्म की प्रकृतियां संवेगात्मक और विकारक हैं इसलिए उनका उपशम किया जा सकता है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियां आवारक और अन्तराय कर्म की प्रकृतियां प्रत्युत्पन्न विनाशी और आगामी प्रतिरोधक हैं इसलिए उनका उपशमन नहीं होता । अघाति कर्म का उपशम नहीं होता । जैसे वेदनीय कर्म सात या असात के रूप में निरन्तर भोगा जाता है । आयुष्य कर्म भी निरंतर भोगा जाता है । उपशम की तुलना मनोविज्ञान के Supression से की जा सकती है। आयुर्वेद में दो प्रकार के बेग बतलाए गए हैं शारीरिक वेग और मानसिक वेग । मानसिक वेग रोकना आवश्यक है। शारीरिक वेग नहीं रोकना चाहिए। ३. क्षायिक भाव कर्म के क्षय से होने वाला जीव का पर्याय क्षायिक भाव कहलाता है । ४. क्षायोपशमिक भाव इसमें क्षय और उपशम दो पदों का योग है । उदीर्ण दलिक का क्षय होता रहता है । बन्धावलिका में आने योग्य नहीं है, उन अनुदीर्ण दलिकों का उपशम होता रहता है। यह क्षय और उपशम की प्रक्रिया निरंतर चलती है। क्षयोपशम के साथ जो उपशम पद है उसके दो रूप बनते हैं १. उदयावलिका में आने योग्य कर्मदलिकों को विपाकोदय के अयोग्य बना देना । २. तीव्र रस का मंद रस में परिणमन | क्षयोपशम पातिकर्म (ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्म) का ही होता है। घातिकर्म की प्रकृतियां दो प्रकार की होती हैं १. सर्व घाति अणुओदाराई इसका तात्पर्य है कि क्षयोपशम की प्रक्रिया में उदयावलिका प्राप्त अथवा विद्यमान विवक्षित वर्तमान समय से आवलिका पर्यन्त जो दलिक उदय में १. (क) अचू. पू. ४२ अविहरूमा पोयला संतायत्यात उदीरणावलियमतिक्रान्ता अप्पणी विपागेण उदयावलियाए वट्टमाणा उदिन्नाओत्ति उदयभावो भन्नति । २. देश घाति केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, पांच निद्रा' बारह कषाय और मिथ्यात्व ये प्रकृतियां सर्वघातिनी हैं। चार ज्ञानावरण" (ख) अहावृ. पृ. ६१ । २. (क) अहावू. पू. ६३, ६४ : इह चोदीर्णस्य क्षय: अनुदीर्णस्य च विपाकमधिकृत्योपशम इति गृह्यते, आह औपशमिकोष्येवंभूत एव न तत्रोपशमितस्य प्रदेशानुभवतोऽप्यवेदनावरच वेदनादिति । (ख) अमवृ. प. १०९, ११० । ३. असू. ४।२४ : धारयेत्तु सदा वेगान् हितैषी प्रेत्य चेह च । लोनेयमात्सर्य रागादीनां जितेन्द्रियः ॥ ४. वही, ४११ : वेगान् धारयेद्वातविम्वद्धाम् । कासथमश्वासाच्यविरेतसाम् ॥ ५. क ५, गा. १३, १४ : केवलजुयलावरणा पणनिद्दा बारसाइमकसाया । मिच्छं ति सव्वधाई चउणाणतिदंसणावरणा ॥ संजलण नोकसाया विग्धं इय देसघाइय अघाइ । ६. निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्ध । ७. अनन्तानुबन्धी- क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरण- क्रोध, मान, माया, लोभ । श्रुतज्ञानावरण, ८. मतिज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण | अवधिज्ञानावरण, Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०७, सू० २७१-२८७, टि० १५ १७९ तीन दर्शनावरण' संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ, नव नोकषाय और पांच अन्तराय, ये प्रकृतियां देशघातिनी है। इनके आधार पर क्षयोपशम के भी दो प्रकार बन जाते हैं१. देशघाति कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम २. सर्वघाति कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम देशघाति कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम काल में संबद्ध प्रकृति का मंद विपाकोदय रहता है। मंद विपाक अपने आवार्य गुण के विकास को रोक नहीं सकता । इस अवस्था में सर्वघाति रसवाला कोई भी दलिक उदय में नहीं रहता। सर्वघाति कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम काल में विपाकोदय सर्वथा नहीं रहता, केवल प्रदेशोदय रहता है। केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण इन दो सर्वघाति कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम नहीं होता। शुभ अध्यवसाय, शुभ लेश्या और शुभयोग के द्वारा कर्म प्रकृतियों के तीव्र विपाकोदय को मंद विपाकोदय और विपाकोदय को प्रदेशोदय में बदलने की प्रक्रिया चालू रहती है । औदयिक भाव और क्षायोपशमिक भाव का संघर्ष निरंतर चलता है। क्षयोपशम केवल घातिकर्म का ही होता है अघाति कर्म का नहीं। अघाति कर्म-- वेदनीयकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और आयुष्य कर्म आत्मा के गुणों का घात करने वाले नहीं हैं। आवारक, विकारक और अवरोधक नहीं है। आत्मा के चार मौलिक गुण है-ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति । घाति कर्म इन गुणों का घात करते हैं किन्तु वे सर्वथा घात नहीं करते इसलिए उनका क्षयोपशम होता रहता है । अघाति कर्म का केवल उदय होता है। यदि शुभ कर्म का उदय होता है तो शुभ पुद्गलों का संयोग मिलता है । यदि अशुभ कर्म का उदय होता है तो अशुभ पुद्गलों का संयोग मिलता है। इस औदयिक भाव की प्रक्रिया में क्षयोपशम के लिए कोई अवकाश नहीं है। ५. पारिणामिक भाव प्रतिक्षण परिणमन होना द्रव्य का स्वभाव है। परिणाम का अर्थ है नए-नए पर्यायों में जाना। वह स्वाभाविक और प्रयोगजनित दोनों प्रकार का होता है । परिणाम ही पारिणामिक भाव है। परिणाम शब्द से इकण प्रत्यय स्वार्थ और निष्पत्ति इन दोनों अर्थों में होता है। इसके अनुसार परिणाम और परिणाम से निष्पन्न-दोनों पारिणामिक कहलाता है। इस आधार पर पारिणामिक का अर्थ है-परिणाम से निष्पन्न होने वाला। ६. सान्निपातिक भाव अनेक भावों के सन्निपात–संयोग से होने वाला भाव सान्निपातिक भाव कहलाता है। उदाहरण के लिए द्रष्टव्य २८९-२९७ । शब्द विमर्श सूत्र २७४ उदयनिष्पन्न-जो उदय में आकर किसी अन्य पर्याय को जन्म देता है वह औदयिक भाव उदयनिष्पन्न कहलाता है।' जीवोदयनिष्पन्न - जीव में कर्म के उदय अथवा कर्मविपाक से निष्पन्न पर्याय। हरिभद्रसूरि ने मतान्तर का उल्लेख किया है । उनके अनुसार जीव और कर्म के उदय से होने वाला पर्याय जीवोदयनिष्पन्न कहलाता है।' अजीवोदयनिष्यन्न-जीव में पुद्गल के योग से होने वाला कर्म का वह उदय, जो प्रधानरूप से पौद्गलिक पर्याय निष्पन्न करता है। जीवोदयनिष्पन्न और अजीवोदयनिष्पन्न दोनों भाव जीव से संबद्ध है। प्रथम में जीव का प्राधान्य दूसरे में अजीव का प्राधान्य विवक्षित है। १. चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शना वरण। २. हास्य, रति, अरति, भय, शोक जगप्सा, तीन वेद (स्त्री वेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद)। ३. अच, पृ. ४२ : उबयमिफण्णो णाम उदिण्णेण जेण अण्णो निष्फावितो सो उदयणिफण्णो। ४. अहाव. पृ. ६१ : अन्ये तु जीवोदयाभ्यां निष्फण्णो जीवोदयनिष्पन्न इति व्याचक्षते, इदमप्यदुष्टमेव, परमार्थतः समुदायकार्यत्वात् । ५. अहावृ. पृ. ६१,६२ : इह च वस्तुतः द्वयोरपि द्रव्यात्मकत्वे एकत्र जीवप्राधान्यमन्यत्राजीवप्राधान्यमाश्रीयत इति, ततश्चोपपन्नमेव जीवोदयनिष्पन्नं अजीवोदयनिष्पन्नम् । Jain Education Interational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अणुओगदाराई सूत्र २७५ छद्मस्थ-छद्म का अर्थ है आवरण । जो ज्ञान की आवृत्त अवस्था में होता है वह छद्मस्थ कहलाता है। अकेवली केवल ज्ञान से रहित । छद्मस्थ दशा ज्ञान के आवरण की सूचक है और अकेवली दशा ज्ञान के तारतम्य की सूचक है। केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद ज्ञान का तारतम्य समाप्त हो जाता है। संसारस्थ-जो संसार (जन्ममरण का चक्र) में स्थित है। असिद्ध-जो सिद्ध नहीं हुआ है। असिद्ध शब्द अवस्था विशेष का सूचक है । मुक्त जीव शरीर का त्याग इस मनुष्य लोक में करता है वह सिद्ध लोकाकाश के छोर पर जाकर होता है। जो आत्मा को विभु-सर्वव्यापी मानते हैं उनके अनुसार मुक्त होने पर भी आत्मा की गति नहीं होती । ईश्वरवादी दर्शन में मुक्त होने के पश्चात् आत्मा का ईश्वर में विलय हो जाता है, उन्हें गति का सिद्धान्त मान्य नहीं है । बौद्ध दर्शन में निर्वाण के पश्चात् गति अथवा स्थान विशेष दोनों को अस्वीकार किया गया है। जैन दर्शन आत्मा को देह परिमाण मानता है। मुक्त आत्मा की अवस्थिति लोकाग्र पर मानता है अतः गति और स्थान दोनों सिद्धान्त उन्हें मान्य हैं। सूत्र २७६ प्रयोगपरिणामित द्रव्य-शरीर की रचना प्रारम्भ में पर्याप्ति निर्माण के समय हो जाती है। फिर वह शरीर पुद्गल द्रव्य के वर्ण, गंध आदि का ग्रहण करता रहता है। जिस शरीर के प्रयोग से वर्ण, गंध आदि का ग्रहण तथा सात्मीकरण होता है वह उस शरीर के द्वारा परिणामित द्रव्य कहलाता है । सूत्र २८२ उत्पन्नज्ञानदर्शनधर-आत्मा ज्ञान स्वरूप है। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होने पर ज्ञान अनावृत हो जाता है। वह किसी ग्रन्थ या शास्त्र से प्राप्त नहीं होता। इस अवस्था का वाचक शब्द है- उत्पन्नज्ञानदर्शन। इसे धारण करने वाला उत्पन्नज्ञानदर्शनधर कहलाता है। अर्हत्-ज्ञानदर्शन के उत्पन्न होने पर कोई रहस्य नहीं रहता इसलिए वह अर्हत् कहलाता है।' जिन-णिकार ने जिन का अर्थ कर्मशत्रु-विजेता किया है।' हरिभद्रसूरि ने इसका अर्थ राग आदि का विजेता किया है।" हेमचन्द्र ने इसका अर्थ आवरण -शत्रु का विजेता किया है।' वीतराग रागद्वेष का विजेता होता है। केवली के लिए यह विशेषण कोई विशेष अर्थ नहीं देता। इसका आशय आचारांग के 'अभिभूयअदक्खु' और सूयगडो के 'अभिभूयनाणी' के संदर्भ में समझा जा सकता है। सूत्रकृतांग चूणि में 'अभिभूयनाणी' का अर्थ किया गया है-चार ज्ञान और तीन दर्शनों का अभिभव कर जो दर्शन और ज्ञान अकेला ही प्रकाश करता है वह केवलदर्शन और केवलज्ञान होता है। जिन शब्द इस अवस्था का सूचक है। केवली-प्रारम्भ में ज्ञान अपूर्ण और अनेक भागों में विभक्त रहता है। ज्ञानावरण क्षीण होने पर वह परिपूर्ण और एक हो जाता है । केवली शब्द इस अविभक्त अवस्था का सूचक है। अनावरण-आवरणमुक्त-जैसे निर्मल आकाश में चन्द्र का बिम्ब ।' १. उ. ३६०५६ : ___इह बोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्मइ । २. सौ. १६१८: दीपो यथा नितिमभ्युपेतो नवानि गच्छति नान्तरिक्षाम् । दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् स्नेहायात् केवलमेति शान्तिम् ।। ३. अचू. पृ. ४३ : जस्स न रहो संभवति अरहा। ४. अचू. पृ. ४३ : कम्मारिजित्तणातो जिणो। ५. अहाव. पृ. ६२ : रागाविजेतृत्वाज्जिनः । ६. अमवृ. प. १०७। ७. सू. १।६।५ का टिप्पण। ८. (क) अचू. पृ. ४३ : अणावरणे पड़प्पन्नकालणयवेक्खत्तणओ विसुद्धांबरे चन्द्रबिम्बवत् । (ख) अहावृ. प. ६२ : अनावरणः --- अविद्यमानावरणः सामान्येनावरणरहितत्वात् । (ग) अमवृ. प. १०७। Jain Education Intemational Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ७, सू० २७१-२८७ टि० १५ निरावरण - आगन्तुक आवरण रहित - जैसे राहुग्रास से मुक्त चन्द्रबिम्ब । क्षीणावरण -- जिसका आवरण क्षीण हो चुका है। आवरण का पुनर्भाव नहीं होता। जैसे स्वच्छ किया हुआ जात्यमणि । अवेदन - वेदना रहित । निवेदन - बाहर से आने वाले वेदना के हेतुओं से अप्रभावित । क्षीणवेदन - भविष्य में आने वाली बेदना की संभावना से मुक्त । प्रस्तुत सूत्र में कर्म के क्षय से होने वाले भावों का तथा क्षयजनित अवस्थाओं का उपदर्शन किया गया है । सूत्र २८५ सम्यग्दर्शनलब्धि – सम्यक्त्व, सम्यग्दर्शन, रुचि और श्रद्धा इन चारों का एकार्थक पद के रूप में प्रयोग किया जाता है किन्तु समभिरूढ नय की दृष्टि से विचार करने पर चारों के अर्थ भिन्न है । रुचि का अर्थ है प्रीति । श्रद्धा का अर्थ है - मानसिक अभिलाषा । उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन का अर्थ तस्व श्रद्धान किया है।* सम्यक्त्व का अर्थ है दर्शन सप्तक (अनन्तानुबन्धी चतुष्क, मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय) के क्षय, क्षयोपशम व उपशम से होने वाला विकास । हरिभद्रसूरि ने सम्यग्दर्शन को सम्यक्त्व का कारण बताया है ।" धर्मप्रकरण में तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक्त्व का कार्य बताया गया है। ये दोनों कथन परस्पर सापेक्ष है । सम्यग्दर्शन से सम्यक्त्व तक पहुंचा जा सकता है इसलिए सम्यग्दर्शन को सम्यक्त्व का कारण भी माना जा सकता है। सम्यक्त्व होने पर सहज ही सम्यग्दर्शन होता है इसलिए सम्यग्दर्शन को सम्यक्त्व का कार्य भी माना जा सकता है । क्षायोपशमिक आचारधर - आचारांगसूत्र के सूत्र और अर्थ का अध्येता, धारक अथवा विशेषज्ञ मुनि आयारधर कहलाता है । इसी प्रकार शेष आगम ग्रन्थ को धारण करने वाले मुनि होते थे । भगवान् महावीर के कुछ शिष्य आचारांगधर थे । कुछ सूत्र - कृतांङ्गधर थे । यह वर्णन औपपातिक में मिलता है ।" क्षायोपशमिक गणि गणी और वाचक ये पद अहंता सापेक्ष हैं। गणी में छेद सूत्रों के अध्ययन की विशिष्टता होती है और वाचक आगम परम्परा के अध्यापन के संवाहक होते हैं। अध्ययन और अध्यापन इनका मुख्य कार्य होता है । इसलिए इन्हें क्षायोपशमिक भाव के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। व पुरानी शराब, पुराना गुड़ - परिणमन नए में सहजता से समझा जा सकता है। इस दृष्टि से उदाहरण के रूप में जीर्ण सुरा, जीर्ण गुड़ आदि का प्रयोग किया गया है । निर्घात गर्जारव युक्त विद्युत का कौंधना ।" यूपक – सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रमा की प्रभा का मिश्रण यक्षादीप्त- आकाश में कभी-कभी होने वाला विद्युत् के आकाश में व्यंतरकृत अग्नि-दीपन । " धूमिका रूक्ष, विरल और धूम जैसी आभावाला कुहासा १. (क) अचू. पृ. ४३ : आवरणातो वा णिग्गयं जस्स स निरावरणो सस्सिबिब व राहुतो । (ख) अहावृ. पृ. ६२ । (ग) अमवृ. प. १०७ । २. (क) अचू. पू. ४३ : खोणावरणेत्ति खीणं खवियं विगट्ठ विद्धत्यं सव्वहा अभावे य आवरणं जस्सेवं तमो व रविणो जहा उदयतो । (ख) पू. ६२। (ग) अमवृ. प. १०७ । ३. उ. २८।१६ । तसू. १।२ । ४. सूत्र २८७ जीर्ण में सब में होता रहता है। नए की अपेक्षा जीर्ण का परिवर्तन १८१ । चूर्णिकार ने इसे अमोघा कहा है ।" समान प्रकाश, आकाश में दिखाई देने वाला अग्निपिशाच या יין ५. अहावू. पू. ६३ : सम्यक्त्वकारणं सम्यग्दर्शनम् । ६. धर्म. २ । ७. उसुओ. ४५ । ८. अचु. पृ. ४४ : निनादोपलक्षितो घात इव निर्घातः । मोहो ९. अ. पू. ४४ जूनी १०. अचू. पृ. ४४: जक्खालित्ता- अग्निपिसाचा । ११. (क) अचू. पृ. ४४ धूमिका रूक्षा प्रविरला सा धूमाभा । (ख) अहावृ. पु. ६४ । (ग) अमवृ. प. १११ । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अणओगदाराई महिका-स्निग्ध और सधन कुहासा।' कपिहसित-अकस्मात् आकाश में जाज्वल्यमान और भयंकर शब्द-रूप-परिणति ।' अमोघा सूर्य-बिम्ब के नीचे होने वाली लम्बी-लम्बी श्यामल रेखाएं । तुलना एवं विशेष विमर्श के लिए द्रष्टव्य भगवई भाष्य ३।२५२ । सूत्र २८८ १६. (सूत्र २८८) पुद्गलास्तिकाय को अनादि पारिणामिक बतलाया गया है। प्रस्तुत सूत्र में परमाणु का सादिपारिणामिक के रूप में निर्देश है । इसका हेतु यह है कि परमाणु परमाणु के रूप में असंख्यातकाल से अधिक नहीं रह सकता, उसे उस समय के बाद बदलना होता है। इस परिवर्तन की अपेक्षा से परमाणु को सादि पारिणामिक भाव की कोटि में रखा गया है। इसी प्रकार स्वर्ग, नरक आदि को भी शाश्वत कहा गया है। किन्तु प्रत्येक पौद्गलिक रचना असंख्येय काल के बाद रूपान्तरित होती है। रूपान्तरण की इस दृष्टि से उन्हें सादि पारिणामिक भाव की कोटि में रखा है। सूत्र २९१ १७. (सूत्र २६१) संसारी प्राणी में औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक तीन भाव अनिवार्यतः होते हैं। इस दृष्टि से दो भावों का विकल्प संभव नहीं है । केवल भंग रचना की दृष्टि से इन्हें प्रस्तुत किया गया है।' १. (क) अचू. पृ. ४४ भूमौ पतितंवोपलक्ष्यते महिया। (ख) अहावृ. पृ. ६४। (ग) अमवृ. प. १११॥ २. (क) अचू. पृ. ४४ : कविहसियं-अम्बरतले ससई लक्खिज्जति। (ख) अहावृ. पृ. ६४। (ग) अमव. प. १११। ३. अंसुभ. १९६७-७४। ४. अहाव. पृ. ६४,६५ : इह च यद्यप्यौदयिकौपशमिकमात्रनिर्वृत्तः असंभवी संसारिणां जघन्यतोऽप्यौवयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकमावत्रयोपेतत्वात् तथापि भंगकरचनामात्रदर्शनार्थत्वाददुष्टः। Jain Education Intemational Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रकरण ( सूत्र २९८-३६८) Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत प्रकरण संगीत, काव्यरस, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि अनेक विषयों का समुच्चय है। स्वर प्रकरण स्थानाङ्ग में भी है । आर्यरक्षित ने स्थानाङ्ग से लिया अथवा संकलन काल में देवधिगणि ने अनुयोगद्वार से उद्धृत कर स्थानाङ्ग में संयोजित किया, यह अनुसंधेय है। नव रसों में भयानक रस का अस्वीकार और वीडनक रस का स्वीकार काव्यानुशासन की परम्परा से भिन्न है। रसों के उदाहरण में प्रयुक्त गाथाएं सूत्रकार द्वारा रचित हैं अथवा अन्य ग्रन्थों से उद्धृत हैं, यह भी अनुसंधान का विषय है। कुछ विद्वान मानते हैं कि उत्तराध्ययन के १८ अध्ययन प्राचीन हैं उत्तरवर्ती १८ अध्ययन अर्वाचीन हैं। यहां जन्नइज्ज (२५ वां अध्ययन) का उल्लेख है । इससे ज्ञात होता है कि उत्तरवर्ती अध्ययन अनुयोगद्वार की रचना से पूर्ववर्ती हैं। इस प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में अनेक ऐतिहासिक और कृत्तिका नक्षत्र आदि कालगणना विषयक तथ्यों का उल्लेख है। Jain Education Intemational Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रकरण मूल पाठ सत्तनाम (सरमंडल)-पदं २६८. से कि तं सतनामे ? सत्तनामे सत्त सरा पण्णत्ता, तं जहागाहा.... सज्जे रिसभे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे। धेवए चेव नेसाए, सरा सत्त वियाहिया ॥१॥ संस्कृत छाया सप्तनाम (स्वरमण्डल)-पदम् अथ किं तत् सप्तनाम ? सप्त- नाम-सप्त स्वरा: प्रज्ञप्ता:. तद्यथा गाथा-- षड्ज: ऋषभः गान्धारः, मध्यमः पञ्चमः स्वरः । धैवतः चैव निषादः, स्वरा: सप्त व्याहुता: ॥१॥ हिन्दी अनुवाद सप्त नाम (स्वर मंडल)-पद २९८. वह सप्त नाम क्या है ? सप्तनाम-सप्त स्वर प्रज्ञप्त हैं, जैसेगाथा-१. षडज, २. ऋषभ, ३. गान्धार, ४. मध्यम, ५. पंचम, ६. धैवत ७. निषाद ये सात स्वर हैं। २६६. एएसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त एतेषां सप्तानां स्वराणां सप्त २९९. इन सात स्वरों के सात स्वर स्थान प्रज्ञप्त सरदाणा पण्णत्ता, तं जहा- स्वरस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- सज्जं च अग्गजीहाए, षड्जञ्च अग्रजिह्वया, १. षड्ज का स्थान जिह्वा का अग्रभाग । उरेण रिसभं सरं। उरसा ऋषभं स्वरम । २. ऋषभ का वक्ष । कंठग्गएण गंधारं, कण्ठोद्गतेन गान्धारं, ३. गान्धार का कण्ठ । मज्झजीहाए मज्झिमं ॥१॥ मध्यजिह्वया मध्यमम् ॥१॥ ४. मध्यम का जिह्वा का मध्य भाग । नासाए पंचमं बूया, नासया पञ्चमं ब्रूयात्, ५. पंचम का नासिका। दंतोळेण य धेवतं। दन्तौष्ठेन च धैवतम् । ६. धैवत का दांत और होठ का संयोग । भमुहक्खेवेण नेसायं, धूरक्षेपेण निषाद, ७. निषाद का भ्रू-उत्क्षेप [जहां भौंह का सरढाणा वियाहिया ॥२॥ स्वरस्थानानि व्याहृतानि ॥२॥ उत्क्षेप होता है]। ये सात स्वर स्थान हैं । ३००. सत्त सरा जोवनिस्सिया पण्णता, सप्त स्वराः जीवनिधिता: ३००. जीवनिश्रित (जीव से निकलने वाले) स्वर तं जहाप्रज्ञप्ताः , तद्यथा सात प्रज्ञप्त हैं, जैसे -- सज्ज रवइ मयूरो, षडज रौति मयूरः, १. मयूर षड्ज स्वर में बोलता है। कुक्कुडो रिसभं सरं। कुक्कट: ऋषभ २. कुक्कुट ऋषभ स्वर में बोलता है। हंसो रवइ गंधारं, हंसः रौति गान्धारं, ३. हंस गान्धार स्वर में बोलता है। मज्झिमं तु गवेलगा ॥१॥ मध्यमं तु गवेलकाः ॥१॥ ४. गवेलक [मेमना मध्यम स्वर में बोलता अह कुसुमसंभवे काले, अथ कुसुमसंभवे काले, कोइला पंचमं सरं। कोकिला: पंचमं स्वरम् । ५. बसन्त में कोयल पंचम स्वर में बोलता है। छठं च सारसा कुंचा, षष्ठं च सारसाः क्रौञ्चाः, ६. क्रौंच और सारस धैवत स्वर में बोलते हैं । नेसायं सत्तमं गओ ॥२॥ निषादं सप्तमं गजः ।।२।। ७. हाथी निषाद स्वर में बोलता है। ३०१. सत्त सरा अजीवनिस्सिया पण्णत्ता, तं जहासज्ज रवइ मुयंगो, गोमुही रिसभं सरं। संखो रवइ गंधारं, मज्झिमं पुण झल्लरी ॥१॥ सप्त स्वराः अजीवनिधिता: प्रज्ञप्ता:, तद्यथाषड्जं रौति मृदंगः, गोमुखी ऋषभं स्वरम् । शंङ्खः रौति गान्धारं, मध्यमं पुन: मल्लरी ॥१॥ ३०१. अजीवनिश्रित (अजीव से निकलने वाले) स्वर सात प्रज्ञप्त हैं, जैसे१. मृदङ्ग से षड्ज स्वर निकलता है । २. गोमुखी [नरसिंघा नामक बाजे] से ऋषभ स्वर निकलता है। ३. शंख से गान्धार स्वर निकलता है । Jain Education Intemational Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अणुओगदाराई ४. झल्लरी-झांझ से मध्यम स्वर निकलता चउचलणपइट्ठाणा, गोहिया पंचम सर। आडंबरो धेवइयं, महाभेरी य सत्तमं ॥२॥ चतुश्चरणप्रतिष्ठाना, गोधिका पञ्चमं स्वरम् । आडम्बरः धैवतिक, महाभेरी च सप्तमम् ॥२॥ ५. चार चरणों पर प्रतिष्ठित गोधिका से पंचम स्वर निकलता है। ६. ढोल से धैवत स्वर निकलता है। ७. महाभेरी से निषाद स्वर निकलता है। ३०२. इन सातों स्वरों के सात स्वर लक्षण प्रज्ञप्त हैं, जैसे१. षड्ज स्वर वाले व्यक्ति आजीविका पाते हैं । उनका प्रयत्न निष्फल नहीं होता। उनको गाय, पुत्र और मित्रों की उपलब्धि होती है तथा वे स्त्रियों के प्रिय होते हैं। २. ऋषभ स्वर वाले व्यक्ति को ऐश्वर्य, सेनापतित्व, धन, वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री, शयन और आसन प्राप्त होते हैं। ३०२. एएसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरलक्खणा पण्णत्ता, तं जहासज्जेण लहइ वित्ति, कयं च न विणस्सइ। गावो पुत्ता य मित्ता य, नारीणं होई वल्लहो ॥१॥ रिसभेण उ एसज्ज, सेणावच्चं धणाणि य। वत्थगंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य ॥२॥ गंधारे गोतजुत्तिण्णा, विज्जवित्ती कलाहिया। हवंति कइणो पण्णा, जे अण्णे सत्थपारगा ॥३॥ मज्झिमसरमंता उ, हवंति सुहजीविणो। खायई पियई देई, मज्झिमसरमस्सिओ ॥४॥ पंचमसरमंता उ, हवंति पुहवीपती। सूरा संगहकत्तारो, अणेगगणनायगा ॥५॥ धेवयसरमंता उ, हवंति दुहजीविणो। साउणिया वाउरिया, सोयरिया य मुट्टिया॥६॥ नेसायसरमंता उ, हवंति हिंसगा नरा। जंघाचरा लेहवाहा, हिंडगा भारवाहगा ॥७॥ एतेषां सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरलक्षणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- षड्जेन लभते वृत्ति, कृतं च न विनश्यति । गावः पुत्राश्च मित्राणि च, नारीणां भवति वल्लभः ॥१॥ ऋषभेण तु ऐश्वर्य, सैनापत्यं धनानि च। वस्त्रगन्धमलंकारं, स्त्रियः शयनानि च ॥२॥ गान्धारे गीतयुक्तिज्ञाः, वैद्यवृत्तयः कलाधिकाः। भवन्ति कवयः प्राज्ञाः, ये अन्ये शास्त्रपारगाः ॥३॥ मध्यमस्वरवन्तस्तु, भवन्ति सुखजीविनः । खादन्ति पिबन्ति ददति, मध्यमस्वरमाश्रिताः ॥४॥ पञ्चमस्वरवन्तस्तु, भवन्ति पृथिवीपतयः । शूराः संग्रहकर्तारः, अनेकगणनायकाः ॥५॥ धैवतस्वरवन्तस्तु, भवन्ति दुःखजीविनः । शाकुनिकाः वागुरिकाः, शौकरिकाश्च मौष्टिकाः॥६॥ निषादस्वरवन्तस्तु, भवन्ति हिसका: नराः । जंघाचराः लेखवाहाः, हिण्डका: भारवाहकाः ॥७॥ ३. गान्धार स्वर वाले व्यक्ति गाने में कुशल, चिकित्सा से आजीविका करने वाले, कला में कुशल, कवि, प्राज्ञ और विभिन्न शास्त्रों के पारगामी होते हैं। ४. मध्यम स्वर वाले व्यक्ति सुख से जीते हैं, खाते-पीते हैं और दान करते हैं। ५. पंचम स्वर वाले व्यक्ति राजा, शूर, संग्रहकर्ता और अनेक गणों के नायक होते ६. धैवत स्वर वाले व्यक्ति कष्ट जीवी, पक्षियों, हिरणों और सूअरों को मारने वाले तथा घूसेबाज (मुष्टि मल्ल) होते ७. निषाद स्वर वाले व्यक्ति हिंसक, जंघाचार (तेज गति से चलने वाले दूत), संदेशवाहक, घुमक्कड़ और भारवाही होते हैं । ३०३. एएसि णं सत्तण्हं सराणं तओ एतेषां सप्तानां स्वराणां त्रयः ३०३. इन सात स्वरों के तीन ग्राम प्रज्ञप्त हैं, जैसे गामा पण्णत्ता, तं जहा-- ग्रामा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा षड्ज- ---षड्ज ग्राम, मध्यम ग्राम और गान्धार सज्जगामे मज्झिमगामे गंधार- ग्रामः मध्यमग्राम: गान्धारग्रामः ।। ग्राम । गामे ॥ Jain Education Intemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ षड्जग्रामस्य सप्त मूर्छनाः ३०४. षड्ज ग्राम की सात मूर्च्छनाएं प्रज्ञप्त हैं, प्रज्ञप्ता:, तद्यथा जैसेमङ्गो कौरव्या हरित् च, मंगी, कौरवीया, हरित, रजनी, सारकान्ता, रजनी च सारकान्ता च । सारसी और शुद्धषड्जा। षष्ठी च सारसी नाम्नी, शुद्धषड्जा च सप्तमी ॥१॥ मध्यमग्रामस्य सप्त मूर्च्छनाः ३०५. मध्यम ग्राम की सात मूर्छनाएं प्रज्ञप्त हैं, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा जैसेउत्तरमन्द्रा रजनी, उत्तरमंद्रा, रजनी, उत्तरा, उत्तरायता, अश्वउत्तरा उत्तरायता । क्रान्ता, सौवीरा और अभिरुद्गता । अश्वक्रान्ता च सौवीरा, अभिरु (द्गता) भवति सप्तमी ॥१॥ आठवां प्रकरण : सूत्र ३०२-३०७ ३०४. सज्जगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णताओ, तं जहामंगी कोरव्वीया हरी य, रयणी य सारकंता या छट्ठी य सारसी नाम, सुद्धसज्जा य सत्तमा ॥१॥ ३०५. मज्झिमगामस्स णं सत्त मुच्छ णाओ पण्णत्ताओ, तं जहाउत्तरमंदा रयणी, उत्तरा उत्तरायता। आसकंता य सोवीरा, अभिरु हवति सत्तमा ॥१॥ ३०६. गंधारगामस्स णं सत्त मुच्छ णाओ पण्णत्ताओ, तं जहानंदी य खुड्डिया पूरिमा य चउत्थी य सुद्धगंधारा। उत्तरगंधारा वि य, पंचमिया हवइ मुच्छा उ ॥१॥ सुठुत्तरमायामा, सा छट्टी नियमसो उ नायव्वा । अह उत्तरायता, कोडिमाय सासत्तमो मुच्छा ॥२॥ ३०७. सत्त सरा कओ हवंति? गीयस्स का हवइ जोणी? कइसमया ऊसासा? कइ वा गीयस्स आगारा?॥१॥ गान्धारग्रामस्य सप्त मूच्र्छनाः ३०६. गान्धार ग्राम की सात मूर्छनाएं प्रज्ञप्त हैं, प्रज्ञप्ताः , तद्यथा जैसेनन्दी च क्षुद्रिका पूरिका, नंदी, क्षुद्रिका, पूरिका, शुद्धगान्धारा, उत्तरच चतुर्थी च शुद्धगान्धारा। गान्धारा, सुष्ठुतर आयामा, उत्तरायता और उत्तरगान्धारा अपि च, कोटिमा । पञ्चमिका भवति मूर्छा तु ॥१॥ सु ठूत्तरायामा, सा षष्ठी नियमतस्तु ज्ञातव्या । अथ उत्तरायता, कोटिमा च सा सप्तमी मूर्छा ॥२॥ सप्त स्वराः कुतः भवन्ति ? गीतस्य का भवति योनि: ? कतिसमया: उच्छ्वासा: ? कति वा गीतस्य आकारा:? ॥१॥ सत्त सरा नाभोओ, हवंति गीयं च रुण्णजोणीयं । पायसमा ऊसासा, तिणि य गोयस्स आगारा॥२॥ सप्त स्वरा: नाभितः, भवन्ति गीतं च रुदितयोनिकम । पादसमाः उच्छ्वासाः, त्रयश्च गीतस्य आकारा: ॥२॥ ३०७.१. सात स्वर किनसे उत्पन्न होते हैं ? गीत की योनि [जाति] क्या है? उसका उच्छ्वास काल [परिमाणकाल] कितना होता है और उसके आकार [आकृतियां, स्वरूप] कितने होते हैं ? २. सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं । रुदन गीत की योनि है, जितने समय में किसी छन्द का एक चरण गाया जाता है, उतना उसका उच्छ्वास काल होता है और उसके आकार तीन हैं। ३. गीत का आरम्भ करते समय आदि में मृदु, आरोहण करते समय मध्य में तीव्र और अवरोहण करते समय अन्त में मन्द-ये तीन गीत के आकार हैं। ४. गीत के छह दोष, आठ गुण, तीन वृत्त और दो भणितियां [गीत की भाषा] होती हैं । जो इन्हें जानता है वही सुशिक्षित गायक रंग-मंच पर गाता है। आइमिउ आरभंता, आदिमृदु आरममाणाः, समुन्वहंता य मज्झयारंमि। समुद्वहन्तश्च मध्यकारे। अवसाणे य झवेंता, अवसाने च क्षपयन्त:, तिणि वि गीयस्स आगारा ॥३॥ त्रयोऽपि गीतस्य आकाराः ॥३॥ छद्दोसे अद्वगुणे, षड्दोषाः अष्टगुणाः तिणि य वित्ताई दोणि भणितीओ। त्रीणि च वृत्तानि च मणिती । जो नाही सो गाहिइ, यः ज्ञास्यति स गास्यति, सुसिक्खिओ रंगमज्झमि ॥४॥ सुशिक्षितः रंगमध्ये ॥४॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० भीयं दुयमुप्पिच्छं, उत्तालं च कमसो मुणेयव्वं । काकस्सरमणुणासं, छद्दोसा होंति गीयस्स ॥५॥ भीतं द्रुतं उप्पिच्छ, उत्तालं च क्रमश: ज्ञातव्यम् । काकस्वरमनुनासं, षड्दोषाः भवन्ति गीतस्य ॥५॥ पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं च तहेव मविघटळं। महुरं समं सुललियं, अट्ठ गुणा होंति गीयस्स ॥६॥ पूर्ण रक्तञ्च अलंकृतञ्च व्यक्तञ्च तथैव अविघुष्टम् । मधुरं सम सुललितं, अष्ट गुणाः भवन्ति गीतस्य ॥६॥ अणुओगदाराई ५. गीत के छह दोष होते हैं, इन्हें क्रमशः जानना चाहिएभीत-भयभीत होते हुए गाना । द्रुत-शीघ्रता से गाना। उप्पिच्छ – श्वास मुक्त गाना । उत्ताल-ताल से आगे बढ़कर या ताल के अनुसार न गाना। काक स्वर---कौए की भांति कर्ण कटु स्वर से गाना। अनुनास-नाक से गाना। ६. गीत के आठ गुण होते हैंपूर्ण-स्वर के आरोह, अवरोह आदि से परिपूर्ण होना। रक्त-गाए जाने वाले राग से परिष्कृत होना। अलंकृत-विभिन्न स्वरों से सुशोभित होना । व्यक्त-स्पष्ट स्वर वाला होना । अविघुष्ट-नियत या नियमित स्वर युक्त होना। मधुर--मधुर स्वर युक्त होना । सम-ताल, वीणा आदि का अनुगमन करना। सुललित-ललित, कोमल और लय युक्त होना। ७. गीत के ये आठ गुण और हैं--- उरो विशुद्ध-जो स्वर वक्ष में विशाल होता है। कण्ठ विशुद्ध-जो स्वर कण्ठ में नहीं फटता। शिरो विशुद्ध जो स्वर सिर से उत्पन्न होकर भी नासिका से मिश्रित नहीं होता। मृदु-जो राग कोमल स्वर से गाया जाता उर-कंठ-सिर-विसुद्ध, च गिज्जते मउय-रिभिय-पदबद्ध। समतालपदुक्खेवं, सत्तस्सरसीभरं गीयं ॥७॥ उरः कण्ठ-शिरो-विशुद्धं, च गीयते मृदुक-रिभित-पदबद्धम् । समतालपदोत्क्षेपं, सप्तस्वरसीभरं गीतम् ॥७॥ रिभित-घोलना-बहुल आलाप के कारण खेल सा करते हुए स्वर । पदबद्ध-गेय पदों से निबद्ध रचना । समताल पदोत्क्षेप-जिसमें ताल, झांझ आदि का शब्द और वर्तक का पाद-निक्षेप -ये सब सम हों- एक दूसरे से मिलते Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ आठवां प्रकरण : सूत्र ३०७ अक्खरसमं पदसमं, तालसमं लयसमं गहसमं च । निस्ससिउस्ससियसम, संचारसमं सरा सत्त ॥८॥ अक्षरसमं पदसम, तालसमं लयसमं ग्रहसमञ्च । नि:श्वसितोच्छ्वसितसमं, सञ्चारसमं स्वराः सप्त ॥८॥ निहोसं सारवतं च हेउजुत्तमलंकियं । उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेव य ॥६॥ निर्दोष सारवन्तं हेतुयुक्तमलंकृतम् उपनीतं सोपचारञ्च, मितं मधुरमेव च ॥९॥ ८. सप्तस्वर सीभर-जिसमें सातों स्वर __ अक्षरसम, पदसम, तालसम, लयसम, ग्रहसम, निःश्वसितोच्छ्वसितसम और संचार सम हो। [देखें ठाणं सूत्र ७/४८ गाथा १३ का अनुवाद | ९. गेय पदों के आठ गुण इस प्रकार हैंनिर्दोष-बत्तीस दोष रहित होना । सारवत्-अर्थयुक्त होना। अलंकृत-हेतु युक्त होना । उपनीत–उपसंहार युक्त होना । सोपचार-कोमल, अविरुद्ध और अलज्जनीय का प्रतिपादन करना अथवा व्यंग्य या हंसी युक्त होना। मित-पद और उसके अक्षरों से परिमित होना। मधुर-शब्द, अर्थ और प्रतिपादन की दृष्टि से प्रिय होना। १०. वृत्त-छन्द तीन प्रकार का होता है सम-जिसमें चरण और अक्षर सम हो, चार चरण हों और उनमें लघु-गुरु अक्षर समान हों। अर्द्ध सम---जिसमें चरण या अक्षरों में से कोई एक सम हो या तो चार चरण हो या विषम चरण होने पर भी उनमें लघु गुरु अक्षर समान हों। सर्व विषम-जिसमें चरण और अक्षर सब विषम हो । चौथा प्रकार उपलब्ध नहीं समं अद्धसमं चेव, सम्वत्थ विसमं च । तिणि वित्तप्पयाराई, चउत्थं नोवलब्भई ॥१०॥ समम सर्वत्र विषमं त्रयः चतुर्थः अर्द्धसमञ्चव, च यत् । वृत्तप्रकारा:, नोपलभ्यते ॥१०॥ सक्कया पायया चेव, संस्कृता प्राकृता चैव, भणितीओ होंति दोण्णि वि । भणिती भवत: द्वे अपि । सरमंडलंमि गिज्जंते, स्वरमण्डले गीयमाने, पसत्था इसिभासिया ॥११॥ प्रशस्ते ऋषिभाषिते ॥११॥ केसी गायइ महुरं? कीदृशी गायति मधुरं ? केसी गायइ खरं च रुक्खं च? कीदृशी गायति खरञ्च रूक्षञ्च ? केसी गायइ चउरं? कोदशी गायति चतुरं केसी य विलंबियं?दुतं केसी? कीदृशी च विलम्बितं ? द्रुतं कीदृशी? विस्सरं पुण केरिसी?॥१२॥ विस्वरं पुनः कीदृशी ? ॥१२॥ ११. भणितियां -गीत की भाषाएं दो हैं १. संस्कृत २. प्राकृत ये दोनों प्रशस्त और ऋषिभासित हैं । ये स्वर-मंडल में गाई जाती हैं। १२. मधुर गीत कौन गाती है ? परुष और रूखा गीत कौन गाती है ? चतुर गीत कौन गाती है ? विलम्बित गीत कौन गाती है ? द्रुत -शीघ्र गीत कौन गाती है ? विस्वर गीत कौन गाती है ? १३. श्यामा स्त्री मधुर गीत गाती है। काली स्त्री परुष और रूखा गीत गाती है। गोरी स्त्री चतुर गीत गाती है । काणी स्त्री विलम्बित गीत गाती है। अधी स्त्री द्रुत गीत गाती है । पिंगला स्त्री विस्वर गीत गाती है। सामा गायइ महुरं, श्यामा गायति मधुरं, काली गायइ खरं च रुक्खं च । काली गायति खरञ्च रूक्षञ्च । गोरी गायइ चउरं, गौरी गायति चतुरं, काणा य विलंबियं, दुतं अंधा॥ काणा च विलम्बितं, द्रुतम् अग्धा ॥ विस्सरं पुण पिंगला ॥१३॥ विस्वरं पुनः पिङ्गला ॥१३॥ Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सत्त सरा तओ गामा, मुच्छणा एगवीसई। ताणा एगुणपण्णासं समतं - से तं सत्तनामे ॥ सरमंडलं ।। १४ ।। अट्ठनाम ( वयणविमति ) -पदं ३०८. से किं तं अट्ठनामे ? अट्ठनामेअट्ठविहा वयणविभत्ती पण्णत्ता, तं जहा-गाहा निसे पढमा होइ, वितिया उबएस तइया करणम्मि कया, उत्थी संपवावणे ॥१॥ पंचमी व अवाया, छुट्टी सस्सामिवायणे । समी निहाणत्वे, अद्रुमाऽऽमंतणी भवे ||२|| तत्थ पढमा विभत्ती, निद्देसे - सो इमो अहं वत्ति । बिइया पुण उबएसे भणकुण इमं वतं वत्ति ॥३॥ तइया करणम्मि कया भणियं व कथं व तेण व मए वा । हंदि नमो साहाए, हवइ चउत्थी पयाणम्मि ॥४॥ अवणय गेव्ह य एत्तो, इतो वा पंचमी अवायाणे । छुट्टी तस्स इमस्स व गयस्स वा सामिसंबंधे ॥५॥ सप्त स्वराः त्रयः ग्रामाः, मूर्च्छना एकविंशतिः । ताना एकोनपञ्चाशत् समाप्तं स्वरमण्डलम् ॥१४॥ - तदेतत् सप्तनाम | अष्टनाम ( वचनविभक्ति) -पदम् अथ किं तद् अष्टनाम ? अष्टनाम अष्टविधा वचनविभक्तिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा गाथा निर्देशे प्रथमा भवति, द्वितीया उपदेशने । तृतीया करणे करणे कृता, चतुर्थी संप्रदाने ॥१॥ पञ्चमी च अपादाने, षष्ठी स्वस्वामिवचने । सप्तमी सन्निधानायें अष्टम्यामन्त्रणी भवेत् ॥२॥ तत्र प्रथमा विभक्तिः, निर्देशेस अयम् अहं वा इति । द्वितीया पुनः उपदेशे भण कुरू इदं वा तद् वा ॥३॥ तृतीया करणे कृता भणित वा कृतं वा तेन वा मया वा । हंदि नमः स्वाहा, भवति चतुर्थी प्रदाने ॥४॥ अपनय गृहाण च एतस्मात्, इतः वा पंचमी अपादाने। षष्ठी तस्य अस्य वा, गतस्य वा स्वामिसम्बन्धे ||५|| अणुओगदाराई १४. सात स्वर, तीन ग्राम और इक्कीस मूच्र्छनाएं हैं । प्रत्येक स्वर सात तानों से गाया जाता है इसलिए तान के ४९ भेद हो जाते हैं । इस प्रकार स्वर मण्डल समाप्त होता है। वह सप्त नाम है। अष्ट नाम ( वचन विभक्ति) - पद ३०८ वह अष्ट नाम क्या है ? अष्टनाम वचन विभक्ति के आठ प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे गाथा १. निर्देश में प्रथमा, उपदेश में द्वितीया, करण में तृतीया, सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। २. अपादान में पंचमी, स्वस्वामि वचन [संबंध ] में षष्ठी, संनिधान [आधार ] में सप्तमी और आमंत्रण में अष्टमी विभक्ति होती है। ३. निर्देश में प्रथमा विभक्ति होती है, जैसे सो- वह, इमो - यह, अहं - मैं उपदेश में द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे - इमं भण - यह कह, तं कुणसु-वह कर । ४. करण में तृतीया विभक्ति होती है, जैसेतेण भणियं उसने कहा, मए कयं मैंने किया । हंदि, नमो और स्वाहा के योग में तथा सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है, जैसे -- नमो देवेभ्यः देवता को नमस्कार, स्वाहा अग्नये -- अग्नि के लिए स्वाहा, उपाध्यायाय गां ददाति उपाध्याय को गाय देता है। ५. अपादान में पंचमी विभक्ति होती है, जैसे -- एत्तो अपणय -- इससे दूर कर, इतो गिव्ह -- इससे ग्रहण कर । स्वस्वामि संबंध में षष्ठी विभक्ति होती है, जैसे तस्स इमं उसकी यह वस्तु है, इमस्स इमं वत्थु - इसकी यह वस्तु है, गयस्स इयं वत्थु गए हुए व्यक्ति की यह वस्तु है । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रकरण : सूत्र ३०-३१२ १६३ हवइ पुण सत्तमी तं, इमम्मि आधारकालभावे य । आमंतणी भवे अट्टमी उ जह हे जुवाण ! त्ति ॥६॥ —से तं अटूनामे ॥ भवति पुनः सप्तमी सा, अस्मिन् आधारकालभावे च । आमन्त्रणी भवेत् अष्टमी तु, यथा-हे युवन् ! इति ॥६॥ तदेतद् अष्टनाम। ६. आधार, काल और भाव में सप्तमी विभक्ति होती है, जैसे--इमम्मि--इसमें । आमन्त्रण में अष्टमी विभक्ति होती है, जैसे-हे जुवाण-हे युवक ! वह अष्ट नाम है। नवनाम (काव्यरस)-पदम् अथ किं तद् नवनाम ? नवनाम -नव काव्यरसा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथागाथावीरः शृङ्गारः अद्भुतश्च, रौद्रश्च भवति बोधव्यः । वीडनक: बीभत्स:, हास्य: करुण: प्रशान्तश्च ॥ नव नाम (काव्य रस)-पद ३०९. वह नव नाम क्या है ? नवनाम-काव्य रस के नौ प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेगाथावीर, शृंगार, अद्भुत, रौद्र, व्रीडा, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त। ३१०. वीर रस के लक्षण १. परित्याग [दान], तपश्चरण और शत्रु जनों के विनाश में वीर रस उत्पन्न होता नवनाम (कव्वरस)-पदं ३०९. से कि तं नवनामे ? नवनामे नव कव्वरसा पण्णत्ता, तं जहागाहावीरो सिंगारो अब्भुओ य रोबो य होइ बोधव्वो। वेलणओ बीभच्छो, हासो कलुणो पसंतो य ॥१॥ ३१०. वीररसलक्खणं तत्थ परिच्चायम्मि य, तवचरणे सत्तुजणविणासे य । अणणुसय-धिति-परक्कलिंगो वोरो रसो होइ ॥१॥ वोरो रसो जहासो नाम महावोरो, जो रज्जं पयहिऊण पव्वइओ। काम-क्कोह-महासत्तु पक्खनिग्घायणं कुणइ ॥२॥ ३११. सिंगाररसलक्खणंसिंगारो नाम रसो, रतिसंजोगाभिलाससंजणणो । मंडण-विलास-विब्बोयहास-लीला-रमणलिंगो ॥१॥ सिंगारो रसो जहामहुरं बिलास-ललियं, हिययुम्मादणकरं जुवाणाणं । सामा सदुद्दाम, दाएती मेहलादामं ॥२॥ वीररसलक्षणम् - तत्र परित्यागे च, तपश्चरणे शत्रुजनविनाशे च । अननुशय-धृति-पराक्रमलिङ्गः वीरः रस: भवति ॥१॥ वीरः रसः यथा -- स नाम महावीरः, य: राज्यं प्रहाय प्रवजितः । काम-क्रोध-महाशत्रुपक्षनिर्घातनं करोति ॥२॥ अननुशय [गर्व या पश्चात्ताप न करना], धृति और पराक्रम उसके लक्षण हैं । वीर रस, जैसे२. जो राज्य को छोड़ कर प्रवजित हो गया और काम, क्रोध आदि महाशत्रुओं का निग्रह करता है, वह महावीर है। ३११. शृंगार रस के लक्षण १. रति और संयोग की अभिलाषा से शृंगार रस उत्पन्न होता है। विभूषा, विलास [चक्षु आदि का विभ्रम] बिब्बोक [काम चेष्टा], हास्य, लीला और रमण उसके लक्षण हैं । शृङ्गाररसलक्षणम् - शृङ्गारः नाम रस:, रतिसंयोगाभिलाषसंजननः । मण्डन-विलास-बिब्बोकहास्य-लीला-रमणलिङ्गः ॥ शृङ्गार: रसः यथामधुरं विलास-ललितं, हृदयोन्मादनकरं यूनाम् । श्यामा शब्दोद्दाम, दर्शयति मेखलादाम ॥२॥ शृंगार रस, जैसे--- २. श्यामा स्त्री मधुर, विलास से ललित, युवकों के हृदय को उन्मत्त करने वाला, धुंघरू के शब्दों से मुखर मेखला सूत्र [करधनी] दिखलाती है। ३१२. अब्भुतरसलक्खणं विम्हयकरो अपुवो, ऽनुभूयपुवो य जो रसो होइ। हरिसविसायुप्पत्तिलक्खणो अब्भुओ नाम ॥१॥ अद्भुतरसलक्षणम् - विस्मयकरः अपूर्वः, अनुभूतपूर्वश्च यः रस: भवति । हर्ष विषादोत्पत्तिलक्षणः अद्भुत: नाम ॥१॥ ३१२. अद्भुत रस के लक्षण १. अपूर्व या अनुभूतपूर्व के देखने पर जो विस्मयकारी रस उत्पन्न होता है वह अद्भुत रस है। हर्ष और विषाद उसके लक्षण हैं। Jain Education Intemational Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अम्भूओ रसो जहा अब्भु र मिह एतो, अन्नं कि अस्थि जीवलोगम्मि । जं जिणवयणेणत्था, तिकालजुत्ता वि नज्जंति ॥२॥ २१३. रोहरसलक्खणं रौद्र रसलक्षणम् भयजननरूव- शब्दान्धकारचिन्ता-कवासमुत्यन्नः । सम्मोह-म-विवाद मरणलिङ्गः रसः रौद्रः ॥ भयजणणरूव सद्दंधकारचिता-कहासम्पन्न संमोह- संभम विसायमरणलिंगो रसो रोद्दो ॥१॥ रोड़ो रसो जहा भिउडी - विडंबियमुहा ! संदट्ठोट्ट ! इय हिरमोकिष्णा ! हणसि पसुं असुरणिभा ! रौद्रः रसः यथा भ्रुकुटी - विडम्बितमुख ! संदष्टष्ठ ! इतः रुधिरमवकीर्ण ! | हंसि पशून् अरनिया ! भीमरसिय! अइरोद्द! रोहोसि ॥ २ ॥ भीमरसित अतिरौद्र रौद्रोऽसि ॥ ३१४. वेलणयरसलक्खणं विणओववार-गुज्भ-गुरुवारhastayat बेलणओ नाम रसो, लज्जासंकाकरणलगो ॥१॥ वेलणओ रसो जहा कि लोइयकरणीओ, सज्जनीयतरं लज्जिया मोति । वारेज्जमि गुरुजनो परिवंद जं बहूपोति ॥२॥ ३१५. बीभच्छरस लक्खणं असुइ-कुणव-दुद्दंसणसंजोगभासगंध निष्फण्णो । निव्वेयविहिंसालक्खणो रसो होइ बीभत्सो ॥१॥ बीभत्सो रसो जहा असुइमलभरियनिम्भर, सभावदुग्धसव्वकालं पि । धरणा उसरीरकलि, बहुलकलु विमुंचति ॥ २ ॥ अद्भुतः रसः यथा अद्भुततरमिह इस, अन्यत् किम् अस्ति जीवलोके । यह जिनवचनेनार्या त्रिकालयुक्ता: अपि ज्ञायन्ते ॥ २ ॥ दोडकरलक्षणम्विचार-गुरुदारमर्यादाव्यतिक्रमोत्पन्नः । व्रीडनक नाम रसः, जाकरणलिङ्गः ॥१॥ व्रीडनक: रसः यथा कि 1 लौकिक करणीतः, लज्जनीयतरं लज्जिता अहम् इति वारेज्जम्मि गुरूजनः, परिवन्यते यद्वषतम् ॥२॥ बीभत्सरमलक्षणम् - अशुचिकृ संयोगाभ्यास गंधनिष्पन्नः । निर्वेदविहिनः रसः भवति बीभत्सः ||१|| बीभत्सः रसः यथा - अमरनिर्भर, स्वभावकालम् अपि । धन्यास्तु शरीरल बहुलक विमुञ्चति ॥२॥ अणुओदाई अद्भुत रस, जैसे - २. जिन वचन के द्वारा त्रैकालिक अर्थ जान लिए जाते हैं, इस जीव लोक में इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य होगा । ३१३. रौद्र रस के लक्षण १. भयंकर रूप शब्द, अन्धकार, चिन्ता और कथा से रौद्र रस उत्पन्न होता है । संमोह, संभ्रम, विषाद और मरण उसके लक्षण हैं । रौद्र रस, जैसे २. भृकुटि से विडम्बित मुख वाले ! होट काटने वाले ! रुधिर बिखेरने वाले ! असुर के समान भयंकर शब्द करने वाले ! अतिशय रौद्र ! तूं पशु को मारता है, बड़ा रोद्र है । ३१४. व्रीडा रस के लक्षण १. विनयोपचार, गुहा और गुरु-स्त्री की मर्यादा के अतिक्रमण से व्रीडा रस उत्पन्न होता है। लज्जा और शंका करना उसके लक्षण हैं । व्रीडा रस, जैसे २. गुरुजन लोगों के सामने वधू के वस्त्र को नमस्कार करते हैं । इस लौकिक क्रिया से अधिक लज्जास्पद और क्या है ? मैं तो इससे लज्जित हो रही हूं । ३१५. बीभत्स रस के लक्षण १. अशुचिपदार्थ, शव, बार-बार अनिष्ट दृश्य के संयोग और दुर्गन्ध से बीभत्स रस उत्पन्न होता है । निर्वेद [ अरुचि या उदासीनता ] और अहिसा जीव हिंसा के प्रति होने वाली स्थानि] उसके लक्षण हैं। बीभत्स रस, जैसे २. अशुचि, मल-समूह के निर्भर, सर्वकाल में स्वभाव से दुर्गन्धित, नाना प्रकार के मलों से कलुषित निकृष्ट शरीर को जो छोड़ देते हैं, धन्य हैं । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ आठवां प्रकरण : सूत्र ३१३-३१६ ३१६. हासरसलक्खणं रूव-वय-वेसभासाविवरीयविलंबणासमुप्पन्नो। हासो मणप्पहासो, पगालिगो रसो होइ ।।१।। हास्यरसलक्षणम् - रूप-वयो-वेषभाषाविपरीतविडम्बनासमुत्पन्नः । हास्यः मनःप्रहासः, प्रकाशलिङ्गः रसः भवति ॥१॥ ३१६. हास्य रस के लक्षण १. रूप, वय, वेष और भाषा के विपर्यय की विडम्बना [प्रयोग] से मन को आह्लादित करने वाला हास्य रस उत्पन्न होता है। प्रकाश [मुख, नेत्र आदि का विकास उसका लक्षण है। हास्य रस, जैसे२. स्तनों के भार के कंपन से झुकी हुई कटि प्रदेश वाली श्यामा स्त्री अपने सुप्त देवर को मसिमण्डित करती है और जब वह जागता है तब 'ही-ही' शब्दोच्चारण पूर्वक हंसती है। ३१७. करुण रस के लक्षण - १. प्रिय के विप्रयोग, बंध, वध, व्याधि, विनिपात [पुत्र आदि की मृत्यु और संभ्रम से करुण रस उत्पन्न होता है । ___ शोक, विलाप, म्लानता और रोदन उसके लक्षण हैं। करुण रस, जैसे२. हे पुत्रि ! उसके वियोग में दुश्चिन्ता से क्लान्त और आंसुओं से भरी हुई आंखों वाला तुम्हारा मुख दुर्बल हो गया है। हासो रसो जहा हास्यः रस: यथापासुत्त-मसीमंडिय-पडिबुद्धं प्रसुप्त-मषीमण्डित-प्रतिबुद्धं देयरं पलोयंती। देवरं प्रलोकयन्ती । ही! जह थण-भर-कंपण ही! यथा स्तन-भर-कम्पनपणमियमझा हसइ सामा ।।२।। प्रणमितमध्या हसति श्यामा ॥२॥ ३१७. करुणरसलक्खणं करुणरसलक्षणम्पियविप्पओग-बंध-वह-वाहि- प्रियविप्रयोग-बन्ध-वध-व्याधिविणिवाय-संभमुप्पन्नो । विनिपात-सम्भ्रमोत्पन्नः । सोइय-विलविय-पव्वाय शोचित-विलपित-म्लानरुग्णालगो रसो करुणो ॥१॥ रुदितलिङ्गः रसः करुणः ॥१॥ करुणो रसो जहा करुणः रसः यथा - पज्झाय-किलामिययं, प्रध्यात-क्लान्तकं, बाहागयपप्पुयच्छियं बहुसो। वाष्पागतप्रप्लुताक्षिकं बहुशः । तस्स विओगे पुत्तिय ! तस्य वियोगे पुत्रिके ! दुब्बलयं ते मुहं जायं ।।२।। दुर्बलकं ते मुखं जातम् ॥२॥ ३१८. पसंतरसलक्खणं प्रशान्तरसलक्षणमनिद्दोसमण-समाहाणसंभयो निर्दोषमनः-समाधानसम्भवः जो पसंतभावेणं । व: प्रशान्तभावेन । अविकारलक्खणो सो, अविकारलक्षण: स, रसो पसंतो त्ति नायव्वो ॥१॥ रसः प्रशान्तः इति ज्ञातव्यः ॥१॥ पसंतो रसो जहा प्रशान्त: रस: यथासम्भाव-निविगारं, सद्भाव-निर्विकारं, उवसंत-पसंत-सोमदिट्टीयं । उपशान्त-प्रशान्त-सौम्यदृष्टि: इयम् । ही! जह मुणिणो सोहइ, ही ! यथा मुनेः शोभते, मुहकमलं पोवरसिरीयं ॥२॥ मुखकमलं पोवरश्रीकम् ॥२॥ एए नव कव्वरसा, एते नव काव्यरसा:, बत्तीसदोसविहिसमुप्पन्ना। द्वात्रिंशद्दोषविधिसमुत्पन्नाः । गाहाहि मुणेयव्वा, गाथाभि: ज्ञातव्याः, हवंति सुद्धा व मोसा वा ॥३॥ भवन्ति शुद्धा वा मिश्रा वा ॥३॥ ---से तं नवनामे ।। -तदेतद् नवनाम। दसनाम-पदं दशनाम-पदम् ३१६.से कि तं दसनामे? दसनामे अथ किं तद् दशनाम ? दश- दसविहे पण्णते, तं जहा–१. नाम दशविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-१. गोणे २. नोगोण्णे ३. आयाणपएणं गौणम् २. नोगौणम् ३. आदानपदेन ३१८. प्रशांत रस के लक्षण - १. स्वस्थ मन की समाधि [एकाग्रता] और प्रशान्त भाव से शांत रस उत्पन्न होता अविकार उसका लक्षण है। प्रशांत रस, जैसे२. स्वभाव से निर्विकार, प्रशांत, सौम्यदृष्टियुक्त और पुष्ट कान्ति वाला मुनि का मुखकमल सुशोभित हो रहा है। ३. बत्तीस दोष-विधियों से समुत्पन्न ये नौ काव्य रस उक्त गाथाओं से जानने चाहिए। ये रस किसी काव्य में शुद्ध और किसी में मिश्र [अनेक रसों के मिश्रण वाले होते हैं। वह नव नाम है। दस नाम-पद ३१९. बह दस नाम क्या है ? दस नाम के दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे१. गौण नाम, २. नोगौण नाम ३. आदान Jain Education Intemational wate & Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अणुओगदाराई ४. पडिवक्खपएणं ५. पाहण्णयाए ४. प्रतिपक्षपदेन ५. प्राधान्येन ६. ६. अणाइसिद्धतेणं ७. नामेणं अनादिसिद्धान्तेन ७. नाम्ना ८. ८. अवयवेणं है. संजोगेणं १०. अवयवेन ९. संयोगेन १०. प्रमाणेन । पमाणेणं ॥ पद [आदि पद से होने वाला नाम, ४. प्रतिपक्ष पद से होने वाला नाम, ५. प्रधानता से होने वाला नाम, ५. अनादि सिद्धांत से होने वाला नाम, ७. नाम से होने वाला, ८. अबयव से होने वाला नाम, ९. संयोग से होने होने वाला नाम १०. प्रमाण से होने वाला नाम । ३२०. से कि तं गोण्णे? गोण्णे खमतीति खमणो, तवतीति तवणो, जलतीति जलणो, पवतीति पवणो। से तं गोण्णे ॥ अथ किं तद् गौणम् ? गौणम -क्षमते इति क्षमण: तपतीति, तपन:, ज्वलतीति ज्वलन:, पवतीति पवनः । तदेतद् गौणम् । ३२०. वह गौण [गुण-निष्पन्न] नाम क्या है ? गौण नाम क्षमा करता है इसलिए क्षमण है, तपता है इसलिए तपन है, जलता है इसलिए ज्वलन है और पावन करता है इसलिए पवन है। वह गौण नाम है। ३२१. से किं तं नोगोणे?नोगोण्णे-- अथ कि तद् नोगौणम ? अकृतो सकुंतो, अमुग्गो समुग्गो, नोगौणम्-अकुन्तः शकुन्तः, अमुद्दो समुद्दो, अलालं पलालं, अमुद्गः समुद्गः, अमुद्रः समुद्रः, अकुलिया सकुलिया, नो पलं अलालं पलालम, अकुलिका सकुअसतीति पलासो, अमाइवाहए लिका, नो पलम अशतीति पलाशः, माइवाहए, अबीयवावए बीय- अमाइवाहक: माइवाहकः, अबीजवावावए, नो इंदं गोवयतीति इंद- पक: बीजवापकः, नो इंद्र गोपयतीति गोवए। से तं नोगोण्णे ॥ इंद्रगोपकः । तदेतद् नोगौणम् । ३२१. वह नोगौण नाम क्या है ? नोगौण नाम-कुन्त प्रहरण विशेष युक्त न होने पर भी पक्षी का नाम सकुन्त है । मुद्ग युक्त न होने पर भी पेटी का नाम समुद्ग है। मुद्रा युक्त न होने पर भी सिन्धु का नाम समुद्र है। लाला युक्त न होने पर भी चावल के भूसे का नाम पलाल है। कुलिका युक्त न होने पर भी पक्षिणी का नाम सकुलिका है। पल [मांस] न खाने पर भी ढाक के पेड़ का नाम पलाश है । ___ माइ [विभूति] को वहन करने वाला न होने पर भी एक कीट का नाम माइवाहक बीजवापक न होने पर भी एक कीट का नाम बीजवापक है। इन्द्र की रक्षा न करने पर भी एक कीट का नाम इन्द्रगोपक है। वह नोगौण नाम है। ३२२. से कितं आयाणपएणं? अथ किं तद् आदानपदेन? आयाणपएणं-आवंती चाउरं- आदानपदेन -यावन्त: चतुरङ्गीयम गिज्जं असंखयं जण्णइज्जं पुरिस- असंस्कृतं यज्ञीयं पुरुषकीयम् एडकीयं इज्जं एलइज्जं वीरियं धम्मो वीर्य धर्मः मार्गः समवसरणं याथामग्गो समोसरणं आहत्तहीयं गंथे तथ्यं ग्रन्थः यमकीयम । तदेतद जमईयं । से तं आयाणपएणं ॥ आदानपदेन । ३२२. वह आदानपद [आदि पद] से होने वाला नाम क्या है ? आदान पद से होने वाला नाम---- आवंती-यावत्---आयारो का पांचवां अध्ययन । चाउरंगिज्ज--- चातुरंगीय-उत्तराध्ययन का तीसरा अध्ययन । Jain Education Intemational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रकरण : सूत्र ३२०-३२३ ३२३. से कि तं पडिवक्खपणं ? पडिवलपणं नवेसु गामागरनगर - खेड - कब्बड - मडंब - दोणमुहपट्टणासम-संवाह- सन्निवेसेसु निविस्वमाणे असिवा सिवा, अग्नी सीयलो, विसं महुरं, कल्लालघरेसु अंबिलं साउयं, जे लत्तए से अलत्तए, जे लाउए से अलाउए, जे सुंभए से कुसुंभए, आलवंते विवलीयभासए । से तं पडिवक्ख पणं ॥ -- अथ किं तत् प्रतिपक्षपदेन ? प्रतिप्रक्षपदेन नवेषु ग्रामाकर-नगरलेट-ब-द्रोणमुख-यसनाध संबाध- सन्निवेशेषु निवेश्यमानेषु अशिवा शिवा, अग्निः शीतल, वि मधुरं, कल्यपालगृहेषु अम्लं स्वादुकं, यो लक्तकः स अलक्तकः, यः लाबुक: ल अलाबुक:, यः सुम्भकः स कुसुम्भक, आलपन् विपरीत भाषकः । तदेतत् प्रतिपक्षपदेन । १६७ असंख्यं - असंस्कृत उत्तराध्ययन का चौथा अध्ययन | जण्णइज्जं यज्ञीय - उत्तराध्ययन का पच्चीसवां अध्ययन । पुरिसइ पुरुषकीय एलइज्जं – एडकीय - उत्तराध्ययन का सातवां अध्ययन । वीरियं वीर्य सूत्रकृतांग का आठवां अध्ययन । धम्मो - धर्म --- सूत्रकृतांग का नौवां अध्ययन । मग्गो - मार्ग - सूत्रकृतांग का ग्यारहवां अध्ययन । समोसरणं समवसरण सूत्रकृतांग का बारहवां अध्ययन | आहत्तहीयं - यथातथ्यीय सूत्रकृतांग का तेरहवां अध्ययन | गंथे - ग्रन्थ सूत्रकृतांग का चौदहवां अध्ययन । जमईयं -- यमकीय – सूत्रकृतांग का पन्द्रहवां अध्ययन । यह आदान पद से होने वाला नाम है । ३२३. वह प्रतिपक्ष पद से होने वाला नाम क्या है ? प्रतिपक्ष पद से होने वाला नाम-नए ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बेट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, सम्बाध और संनिवेशों की रचना के समय सियारिन को अशिवा होने पर भी शिवा कहा जाता है । कहीं अग्नि को शीतल और विष को मधुर कहा जाता है । कलाल के घरों में अम्ल सुरा को स्वादु कहा जाता है। जो लत्त लाक्षारस है वह रक्त होने पर भी अलत्तक [अरक्तक], जो लाबु - प्राप्त करता है, धारण करता है वह अलाबु, (दूधी ) । जो सुम्भक शुभ वर्ण युक्त है वह कुसुम्भक और अधिक बोलने वाला विपरीत भाषक [अ [ अभाषक ] कहलाता है। वह प्रतिपक्ष पद से होने वाला नाम है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ अणुओगदाराई ३२४. से कि तं पाहण्णयाए ? अथ किं तत् प्राधान्येन ? पाहण्णयाए.--असोगवणे सत्तव- प्राधान्येन अशोकवनं सप्तपर्णवनं ण्णवणे चंपगवणे चयवणे नागवणे चम्पकवनं चूतवनं नागवनं पुन्नागपुन्नागवणे उच्छवणे दक्खवणे वनम् इक्षुवनं द्राक्षावनं शालवनम् । सालवणे । से तं पाहण्णयाए॥ तदेतत् प्राधान्येन । ३२४. वह प्रधानता से होने वाला नाम क्या है ? प्रधानता से होने वाला नाम-अशोक वन, सप्तपर्ण वन, चम्पक वन, आम्र वन, नाग वन, पुन्नाग वन, इक्षु वन, द्राक्षा वन और शाल वन । वह प्रधानता से होने वाला नाम है ।' ३२५. वह अनादि सिद्धांत से होने वाला नाम क्या ३२५. से कि तं अणाइसिद्धतेणं? अथ किं तद् अनादिसिद्धान्तेन ? अणाइसिद्धतेणं-धम्मत्थिकाए अनादिसिद्धान्तेन - धर्मास्तिकाव: अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए अधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायः जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए जीवास्तिकाय: पुद्गलास्तिकायः अद्धासमए। से तं अणाइ- अध्वासमयः । तदेतव अनादिसिद्धतेणं ॥ सिद्धान्तेन । अनादि सिद्धांत से होने वाला नाम-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशा स्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अध्वासमय । वह अनादि सिद्धांत से होने वाला नाम ३२६. से कि तं नामेणं? नामेणं- अथ किं तद् नाम्ना? नाम्ना- पिउपियामहस्स नामेणं उन्ना- पितपितामहस्य नाम्ना उन्नामितः। मियए। से तं नामेणं ॥ तदेतद् नाम्ना। ३२६. वह नाम से होने वाला नाम क्या है ? नाम से होने वाला नाम-पिता और पितामह के नाम से प्रसिद्ध होने वाला नाम । वह नाम से हाने वाला नाम है।' ३२७.से कितं अवयवेणं? अवयवेणंगाहासिंगो सिही विसाणी, दाढी पक्खी खुरी नही वाली। दुपय चउप्पय बहुपय, नंगूली केसरी ककुही ॥१॥ परियरबंधेण भडं, जाणेज्जा महिलियं निवसणेणं । सित्थेण दोणपाय, कवि च एगाए गाहाए ॥२॥ -से तं अवयवेणं ॥ अथ किं तद् अवयवेन? अवयवेन गाथाशृङ्गी शिखी विषाणी, दंष्ट्री पक्षी क्षुरी नखी वाली। द्विपदं चतुष्पदं बहुपदं, लाङ्गली केशरी कुकम् ॥१॥ परिकरबन्धेन भट, जानीयात् महिलिकां निवसनेन । सिक्थेन द्रोणपाकं, कवि च एकया गाथया ॥२॥ -तदेतद् अवयवेन ॥ ३२७. वह अवयव से होने वाला नाम क्या है ? अवयव से होने वाला नामगाथाशृगी, शिखी, विषाणी, दंष्ट्री, पक्षी, क्षुरी, नखी,वाली, द्विपद, चतुष्पद, बहुपद, लागूली, केसरी और ककुद्मान । परिकर बन्ध [कवच आदि] से सैनिक, घघरी से महिला, एक धान्य कण से द्रौणपाक और एक गाथा से कवि जान लिया जाता है। वह अवयव से होने वाला नाम है।' ३२८.से कि तं संजोगेणं? संजोगे अथ कि तत् संयोगेन ? संयोगः ३२८. वह संयोग से होने वाला नाम क्या है ? चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-- चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-द्रव्य- संयोग से होने वाले नाम के चार प्रकार दव्वसंजोगे खेत्तसंजोगे कालसंजोगे संयोगः क्षेत्रसंयोगः कालसंयोगः प्रज्ञप्त हैं, जैसे-द्रव्य संयोग, क्षेत्र संयोग, भावसंजोगे ॥ भावसंयोगः। काल संयोग और भाव संयोग । ३२६. से कि तं दव्वसंजोगे ? दव संजोगे तिविहे पण्णत्ते, तं जहासचित्ते अचित्ते मीसए॥ अथ कि स द्रव्यसंयोग: ? द्रव्य- ३२९. वह द्रव्य के संयोग से होने वाला नाम क्या संयोगः त्रिविध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा- है ? सचित्तः अचित्तः मिश्रः। द्रव्य संयोग के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-सचित्त, अचित्त और मिश्र । Jain Education Intemational dain Education Intermational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रकरण : सूत्र ३२४-३३४ ३३०. से किं तं सचित्ते ? सचित्तेगोहिं गोमिए महिसीहि माहिलिए, करणीहि करणिए, उट्टीहिं उट्टिए । से तं सचित्ते ॥ ३३१. से कि तं अतेि ? अचितेछत्ते छत्ती, दंडेण दंडी, पण पडी, घडेण घडी, कडेण कडी । से तं अविसे ॥ ३३२. से किं तं मीसए ? मीसएहलेणं हालिए, सगडेणं सागडिए, रहेणं रहिए, नावाए नाविए । से तं मीसए । से तं दव्वसंजोगे || ३३३. से कि तं खेत्तसंजोगे ? खेलसंजोगे- नारहे एरचए हेमबए हेरण्णवए हरिवासए रम्मगवासए देवकुरुए उत्तरकुरुए पुव्वविदेहए अवरविदेहए, अहवा मागहए मालवए सोरट्ठए मरहट्टए कोंकणए कोसलए । से तं खेत्तसंजोगे ॥ ३३४. से कि तं कालसंजोगे ? कालसंजोगे सुसम सुसमए सुसमए सुसम दूसमए दूसम - सुसमए दूसमए इसम दूसमए, अहवा पाउस वासारत्तए सरदए हेमंतए वसंत गिम्हए। से तं कालसंजोगे || अथ किं स सचित्तः ? सचित्तःगोभिः गोमिक, महिषीभि: माहिविक, 'करणीहि औरणिका, उष्ट्र औष्ट्रिक: । स एष सचित्तः । अथ कि स अचित्तः ? अचित्तः -छत्रेण छत्री, दण्डेन दण्डी, पटेन पटी, घटेन घटी, कटेन कटी । स एष सचित्तः । अथ किं स मिश्र ? मिश्रःहलेन हालिकः, शकटेन शाकटिकः, रथेन रथिकः, नावा नाविकः । स एष मिश्रः । स एष द्रव्यसंयोगः । अथ किं स क्षेत्रसंयोग: ? क्षेत्रसंयोग: भारत: ऐरवत: हैमवतः हैरण्यवतः हरिवर्षजः रम्यग्वर्षजः देवकुरुजः उत्तरकुरुजः पूर्वविदेहजः अपरविदेहज, अथवा मागधक: मालवकः सौराष्ट्रक: महाराष्ट्रकः कोंकणक : कौशलक: । स एष क्षेत्रसंयोगः । अथ कि स कालसंयोगः ? कालसंयोग: सुषम-सुमनः सुषमज: सुषम दुःषमजः दुःषम- सुषमजः दुःषमजः दुःषम-दुःषमज, अथवा प्रावृषिजः वर्षारत्रजः शरज्जः हेमन्तजः वसन्तज: ग्रीष्मजः । स एष कालसंयोगः । १६६ ३३०. वह सचित्त के संयोग से होने वाला नाम क्या है ? सचित्त के संयोग से होने वाला नाम गौ का स्वामी गोगिक, महिय का स्वामी माहि षिक, ऊरण का स्वामी औणिक और उष्ट्र का स्वामी अष्ट्रिक (उष्ट्रपाल) कहलाता है। वह सचित्त के संयोग से होने वाला नाम है । ४३१. वह अचित्त के संयोग से होने वाला नाम क्या है ? अचित्त के सयोग से होने वाला नामछत्र के संयोग से छत्री, दण्ड के संयोग से दण्डी, पट के संयोग से पटी, घट के संयोग से घटी और कट के संयोग से कटी कहलाता है । वह अचित्त के संयोग से होने वाला नाम है । ३३२. वह मिश्र के संयोग से होने वाला नाम क्या है ? मिश्र के संयोग से होने वाला नामहल के संयोग से हालिक, शकट के संयोग से शाकटिक, रथ के संयोग से रथिक और नाव के संयोग से नाविक कहलाता है। वह मिश्र के संयोग से होने वाला नाम है ।" वह द्रव्य के संयोग से होने वाला नाम है । ३३३ वह क्षेत्र के संयोग से होने वाला नाम क्या हैं? 1 क्षेत्र के संयोग से होने वाला नाम भारत, ऐरक्त हैमवत हैरण्यवत हरिवर्षज, रम्पवर्षज, देवकुरुज, उत्तरकुरुज, पूर्वविदेहज और अरविदेज | " अथवा मागधक, मालवक, सौराष्ट्रक, महाराष्ट्रक, कोंकणक और कौशलक । वह क्षेत्र के संयोग से होने वाला नाम है ।" ३३४. वह काल के संयोग से होने वाला नाम क्या है ? काल के संयोग से होने वाला नाम सुषम- सुषमज, सुषमज, सुषम-दुषमज, दुषमसुषमज, दुषमज और दुषम-दुषमज । अथवा – प्रावृड्ज, वर्षारात्रज, शरद्ज, हेमन्तज, वसन्तज और ग्रीष्मज । वह काल के संयोग से होने वाला नाम है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अणुओगदाराई ३३५. से कि तं भावसंजोगे? भाव संजोगे दुविहे पण्णत्ते, तं जहापसत्थे य अपसत्थे य॥ अथ कि स भावसंयोगः? भाव- ३३५. वह भाव के संयोग से होने वाला नाम क्या संयोगः द्विविध: प्रज्ञप्त:, तद्यथाप्रशस्तश्च अप्रशस्तश्च । भाव के संयोग से होने वाले नाम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-प्रशस्त और अप्रशस्त । ३३६. से कि तं पसत्थे ? पसत्थे नाणणं नाणी, सणणं दंसणी, चरित्तेणं चरित्ती। से तं पसत्थे ॥ अथ कि स प्रशस्त: ? प्रशस्तः ३३६. वह भाव के संयोग से होने वाला प्रशस्त -ज्ञानेन ज्ञानी, दर्शनेन दर्शनी, नाम क्या है ? चरित्रेण चरित्री। स एष प्रशस्त नाम-ज्ञान से ज्ञानी, दर्शन से प्रशस्तः। दर्शनी और चारित्र से चारित्री। वह भाव के संयोग से होने वाला प्रशस्त नाम है। ३३७. से किं तं अपसत्थे ? अपसत्थे--- कोहेणं कोही, माणणं माणी, मायाए मायी, लोभेणं लोभी। से तं अपसत्थे। से तं भावसंजोगे। से तं संजोगेणं ॥ अथ किं स अप्रशस्त: ? अप्र- शस्त:- क्रोधेन क्रोधी, मानेन मानी, मायया मायी, लोभेण लोभी। स एष अप्रशस्तः । स एष भावसंयोगः । तदेतत् संयोगेन। ३३७. वह भाव के संयोग से होने वाला अप्रशस्त नाम क्या है ? अप्रशस्त नाम-क्रोध से क्रोधी, मान से मानी, माया से मायी, और लोभ से लोभी। वह भाव के संयोग से होने वाला अप्रशस्त नाम है। वह भाव के संयोग से होने वाला नाम है । वह संयोग से होने वाला नाम है। ३३८. वह प्रमाण से होने वाला नाम क्या है ? प्रमाण के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेनाम प्रमाण, स्थापना प्रमाण, द्रव्य प्रमाण और भाव प्रमाण । ३३८. से किं तं पमाणेणं ? पमाणे अथ किं तत् प्रमाणेन ? प्रमाणं चउम्बिहे पण्णते, तं जहा- चतुर्विध प्रज्ञप्त, तद्यथा-नामप्रमाणं नामप्पमाणे ठवणप्पमाणे दव्व- स्थापनाप्रमाणं द्रव्यप्रमाणं भावप्पमाणे भावप्पमाणे॥ प्रमाणम । ३३६. से कि तं नामप्पमाणे? नाम- अथ कि तद् नामप्रमाणम् ? प्पमाणे-जस्स णं जीवस्स वा नामप्रमाणम्-यस्य जीवस्य वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजी- अजीवस्य वा जीवानां वा अजीवानां वाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण ____ वा तदुभयस्य वा तदुभयेषां वा वा पमाणे त्ति नामं कज्जइ । से प्रमाणम् इति नाम क्रियते । तदेतद् तं नामप्पमाणे ॥ नामप्रमाणम् । ३४०. से किं तं ठवणप्पमाणे ? ठवण- अथ कि तत् स्थापनाप्रमाणम् ? प्पमाणे सत्तविहे पण्णत्ते, तं स्थापनाप्रमाणं सप्तविधं प्रज्ञप्तं, जहा तद्यथागाहा गाथा -- नक्खत-देबय-कुले, नक्षत्र-देवता-कुलानि, पासंड-गणे य जीवियाहेउं । पाषण्ड-गणे च जीविकाहेतु। आभिप्पाइयनामे, आभिप्रायिकनाम, ठवणानामं तु सत्तविहं ॥१॥ स्थापनानाम तु सप्तविधम् ॥ ३३९. वह नाम प्रमाण से होने वाला नाम क्या है ? नाम प्रमाण जिस जीव या अजीव का, जिन जीवों या अजीवों का, जिस जीव-अजीव दोनों का, जिन जीवों और अजीवों दोनों का प्रमाण यह नाम किया जाता है। वह नाम प्रमाण से होने वाला नाम है। ३४० वह स्थापना प्रमाण से होने वाला नाम क्या है ? स्थापना प्रमाण से होने वाले नाम के सात प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-गाथानक्षत्र, देवता, कुल, पाषण्ड, गण, जीवन-हेतु, [जीवित रखने के निमित्त] और आभिप्रायिक नाम-इस प्रकार स्थापना नाम के सात प्रकार हैं। ३४१. से किं तं नक्खत्तनामे ? नक्खत्त- अथ किं तद् नक्षत्रनाम ? नक्षत्र- नामे : कत्तियाहि जाए-कत्तिए नाम : कृत्तिकासु जातः कार्तिक: कत्तियादिण्णे कत्तियाधम्मे कृत्तिकादत्तः कृत्तिकाधर्म: कृत्तिका ३४१. वह नक्षत्र नाम क्या है? नक्षत्र नाम-कृत्तिका नक्षत्र में उत्पन्न होने वाला कार्तिक, कृत्तिकादत्त, कृत्तिकाधर्म, Jain Education Intemational Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रकरण : सूत्र ३४२-३३५ कत्तिय सम्मे कत्तियादेवे कत्तियादासे कत्तियासे कत्तियारक्खिए । रोहिणीहि जाए रोहिणिए रोहिणिदिणे रोहिणिधम्मे रोहिणिसम्मे रोहिणिदेवे रोहिणि दासे रोहिणिसेणे रोहिणिरक्खिए । एवं सव्वनक्ले नामा भाणिया । एस्थ संग्रहणिगाहाज १. कत्तिय २. रोहिण ३. मिगसिर ४. अद्दा य ५. पुणव्वसू य ६. पुस्से य । तत्तो व ७. अस्सिलेसा, ८. मघाओ ६,१०. दो फग्गुणीओ य ॥१॥ ११. त्यो १२. चित्ता १३. साती, १४. बिसाहा तह य होइ १५. अणुराहा। १६. जेट्ठा १७. मूलो १८. पुव्वासाढा तह १६. उत्तरा चेव ॥२॥ २०. अभिई २१. सवण २२. घणिट्टा २३. सतभिसया २४,२५. वो य होति भवया । २६. रेवति २७. अस्सिणि २८. भरण, एसा नवखत्तपरिवाडी ॥३॥ - से तं नक्खत्तनामे ॥ शर्मः कृत्तिकादेवः कृत्तिकादासः कृतिकासेनः कृतिकारक्षित रोहिणीसु जात: रोहिणीकः रोहिणीदत्तः रोहिणीधर्मः रोहिणीशर्म : रोहिणीदेव: रोहिणीदास: रोहिणीसेन रोहिणीरक्षित एवं सर्व नक्षत्रे नामानि भणितव्यानि । अत्र संग्रहणीगाया:१. कृतिका २. रोहिणी ३. मृगशिर ४. आर्द्रा च ५. पुनर्वसू च ६. पुष्यश्च । ततश्च ७. अश्लेषा, ८. मघाः ९,१०. द्वे फल्गुन्यौ च ॥१॥ ११. हस्त: १२. चित्रा १३. स्वातिः, १४. विशाखा तथा च भवति १५. अनुराधा । १६. ज्येष्ठा १७ मूलः १८ पूर्वाषाढा तथा १९. उत्तरा चैव ॥२॥ २०. अभिजित २१ व २२. निष्ठा २२. शतभिष २४, २५. भवतः भाद्रपदे । २६. रेवती २७. अश्विनी २८. भरणी, एषा नक्षत्रपरिपाटी ॥३॥ -- तदेतद् नक्षत्रनाम । ३४२. से किं तं देवयानामे ? देवयानामे : अग्गिदेवयाहिं जाएअग्गिए अग्गिदिष्णे अग्गिधम्मे अगिसम्मे अग्गिदेवे अग्गिदासे अग्गिसेणे अग्रिक्लिए एवं सम्यनक्खत्तदेवयानामा भाणियच्चा । एवं पि संग्रहणिगाहाओअत्र अपि संग्रहणीगाथा:१. अग्गि २ पयावइ ३. सोमे, १. अग्निः २. प्रजापति: ३. सोमः, ४. रु ५. अदिती ६. बहस्सई ४. यद्रः ५. अदिति: ६. बृहस्पति : ७. सप्पे । ७. सर्प: ८. पिति 8. भग १०. अज्जम ८. पिता ९. भगः १० अर्थमा ११ सविया, ११. १२. तट्ठा १३. वाऊ य १२. स्वष्टा १३. वायुश्च १४. ईदग्गी ।।१।। : । १४. इन्द्राग्निः ।।१। अथ किं तद् देवतानाम ? देवतानाम: अग्निदेवतासु जात:आग्निक: अग्निदत्तः अग्निधर्म : अग्निशर्मा : अग्निदेव: अग्निवास: अग्निसेन अग्निरक्षित एवं सर्वनक्षत्रदेवतानामानि भणितव्यानि । २०१ कृत्तिकाशमं, कृत्तिकादेव, कृत्तिकादास, कृत्तिकासेन और कृत्तिकारक्षित कहलाता है । रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न होने वाला रोहिणीक, रोहिणीदत्त, रोहिणीधर्म, रोहिणीशर्म, रोहिणीदेव, रोहिणीदास, रोहिणीसेन और रोहिणीरक्षित कहलाता है। इसी प्रकार सब नक्षत्रों के नामों का प्रतिपादन करना चाहिए। यहां सग्रह गाथाएं हैं १. कृत्तिका, २. रोहिणी, ३. हिरा, मृगशिरा, ४. आर्द्रा, ५ पुनर्वसू ६. पुष्य, ७ अश्लेषा, ८. मघा, ९. पूर्वाफाल्गुनी, १०. उत्तराफाल्गुनी, ११. हस्त, १२. चित्रा, १३. स्वाति, १४. विशाखा, १५. अनुराधा, १६. ज्येष्ठा, १७. मूल १८ पूर्वाषाढ़ा १९. उत्तराषाढ़ा २०. अभिजित् २१. श्रवण, २२. धनिष्ठा, २२. २४. पूर्वभाद्र २५ उत्तरभाद्रपदा, २६. रेवती २७. अश्विनी, २८. भरणी । यह नक्षत्र की परिपाटी है। वह नक्षत्र नाम है। ३४२. वह देवता नाम क्या है ? देवता नाम अग्नि देवता में उत्पन्न होने वाला आग्निक, अग्निदत्त, अग्निधर्म, अग्निशर्म, अग्निदेव, अग्निदास, अग्निसेन और अग्निरक्षित कहलाता है । इसी प्रकार सब नक्षत्र के देवों के नामों का प्रतिपादन करना चाहिए। यहां भी संग्रह गाथाएं हैं १. अग्नि, २. प्रजापति, ३. सोम, ४. रुद्र, ५. अदिति, ६. बृहस्पति स पितृ, ९. भग, १०. अयंमा, ११. सविता, १२. त्वष्टा, १३. वायु, १४. इन्द्राग्नि, १५. मित्र १६. इन्द्र, १७. निऋति, १८. अप् १९. विश्व, २०. ब्रह्मा २१. विष्णु, २२. वसु, २३. वरुण, २४. अज, २५. विवधि, २६. , Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई पूषा, २७. अश्व, २८. यम । वह देवता नाम २०२ १५. मित्तो १६. इंदो १७. निरतो, १५. मित्रं १६. इन्द्रः १७. निऋति:, १८. आऊ १६. विस्सो य २०.बंभ १८. आपः १९. विश्वश्च २०. ब्रह्मा २१. विण्हू य। २१. विष्णुश्च । २२. वसु २३. वरुण २४. अय २२. वसुः २३. वरुणः २४. अजः २५. विवद्धी, २५. विद्धिः, २६ पुस्से २७. आसे २६. पूषा २७. अश्वः २८. जमे चेव ॥२॥ २८. यमश्चैव ॥२॥ -से तं देवयनामे ॥ तदेतद् देवतानाम। ३४३. से कि तं कुलनामे ? कुलनामे अथ किं तत् कुलनाम? कुल- -उग्गे भोगे राइण्णे खत्तिए नाम-उग्रः भोजः राजन्यः भत्रियः इक्खागे नाते कोरव्वे । से तं कुल- इक्ष्वाकः ज्ञातः कोरव्यः । तदेतत् नामे ॥ कुलनाम। ३४३. वह कुल नाम क्या है ? कुल नाम-उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, ज्ञात और कौरव । वह कुल नाम ३४४. से कि तं पासंडनामे ? पासंड- अथ कि तत् पाषण्डनाम ? नामे-समणे पंडरंगे भिक्ख पाषण्डनाम-श्रमणः पण्डरङ्गः कावालिए तावसे परिवायगे। से भिक्षुः कापालिकः तापसः परितं पासंडनामे ॥ व्राजकः । तदेतत् पाषण्डनाम । ३४४. वह पाषण्ड नाम क्या है ? पाषण्ड नाम"-श्रमण, पंडरांग, भिक्षु, कापालिक, तापस और परिव्राजक । वह पाषण्ड नाम है। ३४५. से कि तं गणनामे ? गणनामे- अथ किं तद् गणनाम ? गणनाम मल्ले मल्लदिण्णे मल्लधम्मे मल्ल- --मल्लः मल्लदत्तः मल्लधर्मः मल्लसम्मे मल्लदेवे मल्लदासे मल्ल- शर्मः मल्लदेव: मल्लदासः मल्लसेन: सेणे मल्लरक्खिए। से तं गण- मल्लरक्षित: । तदेतद् गणनाम । नामे ॥ ३४५. वह गण नाम क्या है ? गण नाम"-मल्ल, मल्लदत्त, मल्लधर्म, मल्लशर्म, मल्लदेव, मल्लदास, मल्लसेन और मल्लरक्षित । वह गण नाम है। ३४६. से कि तं जीवियानामे ? अथ कि तद् जीविकानाम? जीवियानामे-अवकरए उक्कुरुडए जीविकानाम--अवकरकः उत्कुरुटक: उज्झियए कज्जवए सुप्पए । से तं उज्झितकः 'कज्जवए' सूर्पकः । तदेजीवियानामे ॥ तद् जीविकानाम । ३४६. वह जीवनहेतु नाम क्या है ? जीवनहेतु नाम"-अवकरक, उत्कुरुटक, उज्झितक, कज्जवक और सूर्पक । वह जीवनहेतु नाम है। ३४७. से कि तं आभिप्पाइयनामे ? अथ किं तद् आभिप्रायिकनाम ? ३४७. वह आभिप्रायिक नाम क्या है ? आभिप्पाइयनामे-अंबए निबए आभिप्रायिकनाम- अम्बक: निम्बकः __ आभिप्रायिक नाम -आम, नीम, बबूल, बबुलए पलासए सिणए पीलुए बबुलकः पलाशक: शणक: पीलुकः पलाश, सण, पीलुक और करीर [केर]। वह करीरए । सेतं आभिप्पाइयनामे। करीरकः । तदेतद् आभिप्रायिकनाम । आभिप्रायिक नाम है। वह स्थापना प्रमाण से तं ठवणप्पमाणे॥ तदेतद् स्थापनाप्रमाणम् । से होने वाला नाम है। ३४८. से कि तं दवप्पमाणे? दविप्प- अथ कि तद् द्रव्यप्रमाणम् ? माणे छविहे पण्णत्ते, तं जहा- द्रव्यप्रमाणं षड्विधं प्रज्ञप्त, तद्यथाधम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः आगासस्थिकाए जीवत्थिकाए आकाशास्तिकायः जीवास्तिकायः पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए । से तं पुद्गलास्तिकायः अध्वासमयः । दवप्पमाणे॥ तदेतद् द्रव्यप्रमाणम् । ३४८. वह द्रव्य प्रमाण से होने वाला नाम क्या है ? द्रव्य प्रमाण से होने वाला नाम के छह प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अध्वासमय । वह द्रव्य प्रमाण से होने वाला नाम है। Jain Education Intemational Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रकरण : सूत्र ३४३-३५४ ३४६. से कि तं भावप्पमाणे ? भाव- अथ किं तद् भावप्रमाणम् ? प्पमाणे चउविहे पण्णत्ते, तं ___ भावप्रमाणं चतुविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा जहा-सामासिए तद्धितए धाउए सामासिकं तद्धितजं धातुजं निरुत्तिए॥ निरुक्तिजम् । २०३ ३४९. वह भाव प्रमाण से होने वाला नाम क्या है ? भाव प्रमाण से होने वाला नाम के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-सामासिक, तद्धितज, धातुज और निरुक्तिज । ३५०. से कि तं सामासिए ? सामा- अथ कि तत् सामासिकम् ? सिए-सत्त समासा भवंति, तं सामासिकम् --सप्त समासाः भवन्ति, जहा-- तद्यथागाहा गाथा१. दंदे य २. बहुव्वीही, १. द्वन्दश्च २. बहुव्रीहिः, ३. कम्मधारए ४. दिऊ तहा। ३. कर्मधारयः ४. द्विग्रस्तथा । ५. तप्पुरिस ६. व्वईभावे, ५. तत्पुरुषः ६. अव्ययीभावः, ७. एगसेसे य सत्तमे ॥१॥ ७. एकशेषश्च सप्तमः ।।१।। ३५०. वह सामासिक नाम क्या है ? सामासिक"--समास सात होते हैं, जैसेगाथा द्वन्द्व, बहुव्रीहि, कर्मधारय, द्विगु, तत्पुरुष, अव्ययोभाव और एकशेष । ३५१. से कि तं दंदे ? दंदे-दन्ताश्च अथ कि स द्वन्द्वः? द्वन्द्वः- ओष्ठौ च दन्तोष्ठम, स्तनौ च दन्ताश्च ओष्ठौ च दन्तौष्ठम , स्तनौ उदरं च स्तनोदरम्, वस्त्रं च पात्रं च उदरं च स्तनोदरम , वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रम्, अश्वाश्च महिषाश्च च वस्त्रपात्रम् , अश्वाश्च महिषाश्च अश्वमहिषम, अहिश्च नकुलश्च अश्वमहिषम, अहिश्च नकुलश्च अहिनकुलम् । से तं दंदे ॥ अहिनकुलम् । स एष द्वन्द्वः । ३५१. वह द्वन्द्व समास क्या है ? द्वन्द्व समास-दन्ताश्च ओष्ठौ चदन्तोष्ठम् - [दांत और होठ], स्तनौ च उदरं च--स्तनोदरम् - [स्तन और उदर], वस्त्रं च पात्रं च-वस्त्रपात्रम् - [वस्त्र और पात्र], अश्वाश्च महिषाश्च-अश्वमहिषम् - [अश्व और महिष], अहिश्च नकुलश्च--अहिनकुलम् - [सर्प और नकुल] । वह द्वन्द्व समास ३५२. से कि तं बहव्वीही ? बहुव्वीही अथ किं स बहुव्रीहिः ? बहुव्रीहिः ३५२. वह बहुव्रीहि समास क्या है ? -फुल्ला जम्मि गिरिम्मि कुडय- -फुल्ला: यस्मिन् गिरौ कुटज- बहुव्रीहि समास-जिस पर्वत पर पुष्पित कयंबा सो इमो गिरी फुल्लिय- कदम्बा: स अयं गिरिः फुल्लित- कुटज-कदम्ब के वृक्ष हैं वह पर्वत पुष्पितकुडय-कयंबो । से तं बहुव्वोही॥ कुटज-कदम्बः । स एष बहुव्रीहिः। कुटज-कदम्ब कहलाता है। वह बहुव्रीहि समास है। ३५३. से कि तं कम्मधारए? कम्म- अथ किं स कर्मधारयः? कम- ३५३. वह कर्मधारय समास क्या है ? धारए-धवलो वसहो धवलवसहो, धारयः-धवलः वृषभः धवलवृषभः, कर्मधारय समास-धवल: वृषभ:-धवलकिण्हो मिगो किण्हमिगो, सेतो कृष्णः मृगः कृष्णमृगः, श्वेतः पट: वृषभः, कृष्णः मृग:-कृष्णमृगः, श्वेतः पट:पडो सेतपडो, रत्तो पडो रत्तपडो। श्वेतपट:, रक्तः पट: रक्तपटः। स श्वेतपट:, रक्त: पट:- रक्तपट: । वह कर्मसे तं कम्मधारए॥ एष कर्मधारयः। धारय समास है। ३५४. से किं तं दिगू? दिगू-तिण्णि अथ किं स द्विगुः ? द्विगुः- कड्याणि तिकडयं, तिण्णि मह- त्रीणि कटुकानि त्रिकटु कं, त्रीणि मधुराणि तिमहरं, तिण्णि गुणा तिगुणं, राणि त्रिमधुरं, त्रय: गुणाः त्रिगुणं, तिणि पुराणि तिपुरं, तिण्णि त्रीणि पुराणि त्रिपुरं, त्रीणि सरांसि सराणि तिसरं, तिणि पुक्खराणि त्रिसरः, त्रीणि पुष्कराणि त्रिपुष्करं, तिपुक्खरं, तिणि बियाणि ति- त्रीणि बिन्दुकानि त्रिबिन्दुकं, त्रयः बिदुयं, तिण्णि पहा तिपह, पंच पन्थान: त्रिपथ, पञ्च नद्यः पञ्च ३५४. वह द्विगु समास क्या है ? __द्विगु समास - त्रीणि कटुकानि-त्रिकटुकम्, त्रीणि मधुराणि-त्रिमधुरम्, त्रयः गुणात्रिगुणम्, त्रीणि पुराणि-त्रिपुरम्, त्रीणि सरांसि --त्रिसरः, त्रीणि पुष्कराणि-त्रिपुष्करम्, त्रीणि बिन्दुकानि-त्रिबिन्दुकम्, त्रयः पन्थान:-त्रिपथम्, पंच नद्यः-पंचनदम्, Jain Education Intemational Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अणुओगदाराई नदीओ पंचनदं, सत्त गया सत्त- नदं, सप्त गजाः सप्तगज, नव तुरगाः सप्त गजा:-सप्तगजम्, नव तुरगा:--- गयं, नव तुरगा नवतुरगं, दस नवतुरगं, दश ग्रामाः दशग्राम', दश- नवतुरगम्, दस ग्रामा:-- दसग्रामम्, दस गामा दसगामं, दस पुराणि दस- पुराणि दशपुरं । स एष द्विगुः । पुराणि-दसपुरम् । वह द्विगु समास है। पुरं । से तं दिगू॥ ३५५. से कि तं तप्पुरिसे ? तप्पुरिसे- अथ किं स तत्पुरुषः ? तत्पुरुषः ३५५. वह तत्पुरुष समास क्या है ? तित्थे कागो तित्थकागो, वणे हत्थी तीर्थ काकः तीर्थकाकः, वने तत्पुरुष समास-तीर्थे काक:-तीर्थकाकः वणहत्थी, वणे वराहो वणवराहो, हस्ती वनहस्ती, वने वराहः वन- -घाट पर कौवा, वने हस्ती वनहस्तीवणे महिसो वणमहिसो वणे मयूरो वराहः, वने महिषः वनमहिषः वने वन में हाथी, वने वराहः- वनवराहः-वन वणमयूरो । से तं तप्पुरिसे । मयूरः वनमयूरः। स एष तत्पुरुषः। में सूअर, वने महिषः वनमहिषः-वन में भैसा, वने मयूरः - वनमयूरः---वन में मयूर । वह तत्पुरुष समास है। ३५६. से कि तं अबईभावे ? अव्वई- अथ किं स अव्ययीभावः? ३५६. वह अव्ययीभाव समास क्या है ? भावे-अणगाम अणनदीयं अण- अव्ययीभाव:—अनुग्रामम अनुनदी- अव्ययीभाव समास ग्रामस्य पश्चात् - फरिह अणुचरियं । से तं अव्वई- कम अनुपरिखम् अनुचरिकम । स अनुग्रामम् गांव के पीछे होने वाला, नद्याः भावे॥ एष अव्ययीभावः । पश्चात्-अनुनदि नदी के पीछे होने वाला, परिखायाः पश्चात् अनुपरिखम् - परिखा के पीछे होने वाला, चरिकायाः पश्चात्-अनुचरिकम् "चारिका के पीछे होने वाला। वह अव्ययीभाव समास है। ३५७. से कि तं एगससे ? एगसेसे- अथ किं स एकशेष: ? एकशेषः ३५७. वह एकशेष समास क्या है ? जहा एगो पुरिसो तहा बहवे -यथा एकः पुरुषः तथा बहवः एकशेष समास जैसे एक पुरुष वैसे पुरिसा, जहा बहवे पुरिसा तहा पुरुषाः, यथा बहवः पुरुषाः तथा अनेक पुरुष । जैसे अनेक पुरुष वैसे एक पुरुष । एगो पुरिसो। जहा एगो करिसा- एक: पुरुषः । यथा एक: कार्षापण: जैसे एक कार्षापण वैसे अनेक कार्षापण । जैसे वणो तहा बहवे करिसावणा, जहा तथा बहवः कापिणाः, यथा बहवः अनेक कार्षापण वैसे एक कार्षापण । जैसे बहवे करिसावणा तहा एगो कार्षापणाः तथा एकः कार्षापणः । एक शालि वैसे अनेक शालि । जैसे अनेक करिसावणो। जहा एगो साली यथा एक: शालि: तथा बहवः शालय: शालि वैसे एक शालि । वह एकशेष समास तहा बहवे साली, जहा बहवे साली यथा बहवः शालय: तथा एक: है । वह सामासिक नाम है। तहा एगो साली। से तं एगसेसे। शालिः । स एष एकशेषः । तदेतत् से तं सामासिए॥ सामासिकम । ३५८. से कि तं तद्धितए ? तद्धितए अथ किं तत् तद्धितजम्? ३५८. वह तद्धितज नाम क्या है ? अट्टविहे पण्णत्ते, तं जहा-- तद्धितजम् अष्टविधं प्रज्ञप्तं, तद्यया -- तद्धितज" नाम के आठ प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे - गाथा ---- १. कम्मे २. सिप्प ३. सिलोए, ४. १ कर्म २ शिल्पं ३ श्लोकः, कर्म, शिल्प, श्लोक, संयोग, समीप. संजोग ५. सभीवओ य ६. संजूहे। ४ सयोगः ५ समीपतश्च ६ संयूथः । संयूथ, ऐश्वर्य और अपत्य । ये तद्धित नाम के ७. इस्सरिया ८. वच्चेण य, ७ ऐश्वर्यम् ८ अपत्येन च, आठ प्रकार हैं। तद्धितनामं तु अट्टविहं ॥१॥ तद्धितनाम तु अष्टविधम् ॥१॥ गाहा गाथा ३५६. से कि तं कम्मनामे ? कम्म- अथ किं तत् कर्मनाम ? कर्म- नामे दोसिए सोत्तिए कप्पासिए नाम-दौष्यिकः सौत्रिकः कार्पा- ३५९. वह कर्म नाम क्या है ? कर्म नाम-दौष्यिक- दूष्य [वस्त्र] का Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प्रकरण : सूत्र ३५५-३६५ २०५ भंडवेयालिए कोलालिए। से तं सिकः भाण्डवैचारिकः कौलालिकः । व्यापार करने वाला । सौत्रिक सूत्र (धागे) कम्मनामे॥ तदेतत् कर्मनाम । का व्यापार करने वाला । कासिक-कपास का व्यापार करने वाला । भाण्डवैचारिकबंजारा और कौलालिक-मिट्टी के बर्तनों का का व्यापार करने वाला । वह कर्म नाम है। ३६०. से कि तं सिप्पनामे ? सिप्प- अथ किं तत् शिल्पनाम ? ३६०. वह शिल्प नाम क्या है ? नामे-बत्थिए तंतिए तुन्नाए तंतु- शिल्पनाम-वास्त्रिकः तान्त्रिक: शिल्प नाम-वास्त्रिक [वस्त्र बनाने वाला], वाए पट्टकारे देअडे वरुडे मुंजकारे तुन्नवायः तन्तुवाय: पट्टकारः 'देअ.' तान्त्रिक [बुनकर], तुन्नवाय [रफू करने कट्रकारे छत्तकारे वज्झकारे पोत्थ- बरुट मुजकारः काष्ठकारः छत्र- वाला], तन्तुवाय [जुलाहा], पट्टकार [दुशाला कारे चित्तकारे दंतकारे लेप्पकारे कारः वर्धकारः पुस्तकारः चित्रकारः बनाने वाला], दृतिकार [मशक बनाने कोट्टिमकारे। से तं सिप्पनामे ॥ दन्तकार: लेप्यकार: कुट्टिमकारः । वाला], वरुट [छाब बनाने वाला], मुञ्जकार तदेतत् शिल्पनाम । [मुञ्ज बनाने वाला], काष्ठकार [काष्ठ का काम करने वाला], छत्रकार [छत्र बनाने वाला], वर्धकार [बाध-चर्म रज्जु बनाने वाला], पुस्तककार, चित्रकार, दंतकार [हाथी दांत का शिल्पी], लेप्यकार [प्रतिमा बनाने वाला], कुट्टिमकार, [पक्का फर्श बनाने वाला] । वह शिल्प नाम है। ३६१. से कि तं सिलोगनामे ? अथ कि तत् श्लोकनाम? ३६१. वह श्लोक नाम क्या है ? सिलोगनामे-समणे माहणे सवा- श्लोकनाम-श्रमणः माहन: सर्वातिही। से तं सिलोगनामे ॥ तिथिः । तदेतत् श्लोकनाम । तिथि । वह श्लोक नाम है। ३६२. से कि तं संजोगनामे ? संजोग- अथ किं तत् संयोगनाम ? नामे-रणो ससुरए, रणो संयोगनाम-राज्ञः श्वसुरक:, राज्ञः जामाउए, रणो साले, रणो जामातकः, राज्ञः श्याल:, राज्ञः भाउए, रणो भगिणीवई। से तं भ्रातृकः, राज्ञः भगिनीपतिः । तदेतत् संजोगनामे ।। संयोगनाम । ३६२. वह संयोग नाम क्या है ? संयोग नाम-राजा का श्वसुर, राजा का दामाद, राजा का साला, राजा का भाई, राजा का बहनोई । वह संयोग नाम है। ३६३. से कि तं समोवनामे ? समीव- अथ कि तत् समीपनाम? नामे-गिरिस्स समीवे नगरं समीपनाम - गिरेः समीपे नगरं गिरिनगरं, विदिसाए समीवे नगरं गिरिनगरं, विदिशाया: समीपे नगरं वेदिसं, वेन्नाए समीवे नगरं वेन्ना- वैदिशं, वेन्नायाः समीपे नगरं वेन्नायड, तगराए समीवे नगरं तगरा- तटं, तगरायाः समीपे नगरं तगरायडं । से तं समीवनामे ॥ तटं । तदेतत् समीपनाम । ३६३. वह समीप नाम क्या है ? समीप नाम-गिरी के समीप का नगर--- गिरिनगर । विदिशा के समीप का नगर -वैदिश । वेन्ना के समीप का नगर-वेन्नातट ।२४ तगरा के समीप का नगर-तगरातट ।" वह समीप नाम है। ३६४. से कि तं संजूहनामे ? संजह- अथ किं तत् संयूथनाम ? नामे-तरंगवतिकारे मलयवति- संयुथनाम-तरंगवतीकारः मलयकारे अत्ताणुसट्टिकारे बिंदुकारे। वतीकारः आत्मानुशिष्टिकारः बिन्दुसे तं संजहनामे॥ कारः । तदेतत् संयूथनाम । ३६४. वह संयूथ नाम क्या है ? संयूथ नाम-तरंगवतीकार", मलयवतीकार", आत्मानुशिष्टिकार" और बिन्दुकार। वह संयूथ नाम है। ३६५. से कि तं इस्सरियनामे ? अथ किं तद् ऐश्वर्यनाम ? ३६५. वह ऐश्वर्य नाम क्या है ? Jain Education Intemational Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ है। अणुओगदाराई इस्सरियनामे-राईसरे तलवरे ऐश्वर्यनाम-राजेश्वरः तलवरः ऐश्वर्य नाम-राजा, ईश्वर, कोटवाल, माडंबिए कोडुबिए इन्भे सेट्टी माडम्बिक: कौटुम्बिक: इभ्यः श्रेष्ठी मडम्बाधिपति, कुटुम्बाधिपति, इभ्य, श्रेष्ठी, सत्यवाहे सेणावई । से तं इस्सरिय- सार्थवाहः सेनापतिः । तदेतद् ऐश्वर्य- सार्थवाह और सेनापति । वह ऐश्वर्य नाम नामे ॥ नाम । ३६६. से कितं अवच्चनामे ?अवच्च- अथ कि तद् अपत्यनाम? ३६६. वह अपत्य नाम क्या है? नामे-अरहंतमाया चक्कवट्टिमाया अपत्यनाम अर्हन्माता चक्रवर्तीमाता अपत्य के कारण होने वाला नाम - अर्हत्बलदेवमाया वासुदेवमाया राय- बलदेवमाता वासुदेवमाता राजमाता माता, चक्रवर्तीमाता, बलदेवमाता, वासुदेवमाया गणरायमाया। से तं अवच्च- गणराजमाता। तदेतद् अपत्यनाम । माता, राजमाता, गणराजमाता। वह अपत्य नामे । से तं तद्धितए॥ तदेतत् तद्धितजम् । नाम है । वह तद्धितज नाम है। ३६७. से कि तं धाउए? धाउए-भू अथ किं तद् धातुजम ? धातु- ३६७. वह धातुज नाम क्या है ? सत्तायां परस्मैभाषा, एध वृद्धौ, जम्भू सत्तायां परस्मैभाषा, एध धातुज नाम-भू धातु सत्ता अर्थ में है, स्पर्द्ध संहर्षे, गाध प्रतिष्ठा-लिप्सयोः वृद्धो, स्पर्द्ध सहर्षे, गाध प्रतिष्ठा- यह परस्मैपद है। एध धातु वृद्धि अर्थ में ग्रन्थे च, बाधु लोडने। से तं लिप्सयोः ग्रन्थे च, बाध लोडने। है। स्पर्द्ध धातु संघर्ष अर्थ में है। गाधू धाउए। तदेतद् धातुजम् । धातु प्रतिष्ठा, लिप्सा और ग्रन्थ अर्थ में है। बाधू धातु विलोड़न अर्थ में है। वह धातुज नाम है। ३६८. से कि तं निरुत्तिए? निरुत्तिए अथ किं तद् निरुक्तिजम् ? -मह्या शेते महिषः, भ्रमति च निरुक्तिजम-मयां शेते महिषः, रौति च भ्रमरः, मुहुर्मुहुलसति भ्रमति च रौति च भ्रमरः, मुहुमुसलं, कपिरिव लम्बते त्थेति च महलसति मुसलं, कपिरिव लम्बते करोति कपित्थं, चिच्च करोति त्येति च करोति कपित्थ, चिच्च खल्लं च भवति चिक्खल्लं, ऊध्व. करोति खल्ल च भवति चिक्खल्ल, कर्णः उलकः, खस्य माला मेखला। ऊर्ध्वकणः उलूकः, खस्य माला से तं निरुत्तिए। से तं भावप्प- मेखला । तदेतद् निरुक्तिजम् । तदेतद् माणे । से तं पमाणेणं । से तं दस- भावप्रमाणम् । तदेतत् प्रमाणेन । नामे । से तं नामे। तदेतद् दशनाम । तदेतद् नाम । (नामे त्ति पदं समत्तं ।) (नाम इति पदं समाप्तम् ।) ३६८, वह निरुक्तिज ना। क्या है ? निरुक्तिज नाम - मह्यां शेते (पृथ्वी पर सोता है इसलिए) महिष । भ्रमति च रौति च [भ्रमण और गुंजारव करता है इसलिए] भ्रमर । मुहुर्मुहुः लसति [बार-बार शोभित होता है इसलिए] मुसल । कपिरिव लम्बते त्थेति च करोति [वानर की भांति झूलता है और त्थ इस प्रकार की ध्वनि करता है इसलिए] कपित्थ । चिच्च करोति खल्लं च भवति ["ची ची' करता है और चिपकता है इसलिए] चिक्खल । ऊर्ध्वकर्णः [कान ऊंचे रखता है इसलिए] उलूक । खस्य माला [आकाश की माला है इसलिए] मेखला। वह निरुक्तिज नाम है। वह भाव प्रमाण से होने वाला नाम है । वह प्रमाण है। वह दस नाम है। वह नाम है। [नाम पद समाप्त । Jain Education Intemational Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र २९८-३०७ १. (सूत्र २६८-३०७) स्वर प्रकरण के विशेष विवरण के लिए देखें-ठाणं ७।३९-४८ का टिप्पण । स्थानांग सूत्र में स्वर प्रकरण के क्रम में अक्षरसम के स्थान पर तन्त्रीसम है। सूत्र ३०८ २. आमंत्रण में अष्टमी विभक्ति होती है (अट्ठमाऽऽमंतणी भवे) वृद्ध वैयाकरण सम्बोधन के लिए अष्टमी विभक्ति स्वीकार करते हैं। नए वैयाकरण सम्बोधन में प्रयुक्त विभक्ति को प्रथमा विभक्ति मानते हैं। चूर्णिकार ने लिखा है कि इन विभक्तियों का विस्तृत वर्णन शब्द-प्राभृत अथवा पूर्वं शास्त्रों से उद्धृत व्याकरणों से जानना चाहिए। किन्तु चर्णिकार ने उन व्याकरणों का नामोल्लेख नहीं किया। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके सामने निर्दिष्ट ग्रन्थ विद्यमान थे। किन्तु वर्तमान में वे उपलब्ध नहीं हैं। सूत्र ३०९-३१८ ३. (सूत्र ३०६-३१८) कवि के कर्म, भाव या अभिप्राय का नाम काव्य है। जो रसित होते हैं-अन्तरात्मा के द्वारा अनुभूत होते हैं, वे सहकारी कारणों की सन्निधि से उद्भूत चैतसिक विकार रस कहलाते हैं। विकार और रस में कुछ अन्तर भी है। बाहरी वस्तु के आलम्बन से जो मानसिक विकार होता है वह भाव कहलाता है। उस भाव का प्रकर्ष रस है। रस की भांति रसनीय चित्तवृत्तियां भी रस कहलाती हैं, जैसे-सुख वेदनीय और दुःख वेदनीय कर्मों के रस होते हैं वैसे ही काव्य के रस होते हैं । यह चूणिकार व वृत्तिकार आचार्य हरिभद्र का अभिमत है। कवि-साहित्य में रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। रस की उत्पत्ति विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से होती है । भरत-नाट्यशास्त्र में आठ रस स्वीकार किए गए हैं-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुत । धनञ्जय ने उपर्युक्त आठ रसों के स्थायी भावों का नामोल्लेख करते हुए शान्त रस के स्थायी भाव की भी चर्चा की है, किन्तु उसने यह निर्देश भी किया है कि शान्त रस नाटक के लिए उपयोगी नहीं माना जाता।' काव्यानुशासन में नौ रसों की मान्यता रही है। काव्य में रस का अत्यन्त महत्त्व रहा है जिस प्रकार चन्द्रमा के बिना १. (क) अहाव. पृ. ६८ : वृद्धवैयाकरणवर्शनमिदमिदं- ५. (क) अचू. पृ. ४७ : युगीनानां त्वियं प्रथमैव । मिउमहुररिभियसुभयरणोतिणिद्दोसभूसणाणुगतो। (ख) अमवृ. प. १२३ । सुहदुहकम्मसमा इव कम्म (न्व) स्स रसा भवंति तेणं । २. अचू. पृ. ४७ : वित्थरो सि सद्दपाहुडातो णायव्वो पुत्व (ख) अहावृ. पृ. ६९। णिग्गतेसु वा वागरणादिसु । ३. अमव. प. १२४ : कवेरभिप्रायः काव्यं रस्यन्ते -अन्त रत्युत्साहजुगुप्ताः क्रोधो हासः स्मयो भयं शोकः । रात्मनाऽनुभूयन्त इति रसाः, तत्सहकारिकारणसम्नि शममपि केचित् प्राहुः पुष्टिर्नाट्येषु नैतस्य ॥ धानोद्भूताश्चेतोविकारविशेषा इत्यर्थः । ७. का. २, पृ.८१। ४. वही, बाह्यायलम्बनो यस्तु विकारो मानसो भवेत् । स भावः कथ्यते सद्भिस्तस्योत्कर्षो रसः स्मृतः ।। Jain Education Intemational Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ अणुओगदाराई रात्रि, पति के बिना स्त्री और त्याग के बिना लक्ष्मी सुशोभित नहीं होती, जिस प्रकार अच्छी तरह पकाया हुआ होने पर भी नमक रहित भोजन स्वादिष्ट नहीं होता वैसे ही रस-रहित काव्य अनास्वाद्य होता है। ___ आगे चलकर रसों की संख्या में विस्तार हुआ। पूर्वोक्त नौ रसों में वात्सल्य और भक्ति रस की गणना करने से काव्य परम्परा में ग्यारह रस हो गए। प्रस्तुत आगम में नौ रसों की परम्परा स्वीकृत है, किन्तु आधुनिक काव्यानुशासन की परम्परा से वह कुछ भिन्न है, जैसे --वीर, शृंगार, अद्भुत, रौद्र, ब्रीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त । इन रसों में क्रम-व्यत्यय के साथ एक रस की मान्यता का भी अन्तर है। काव्य शास्त्रों में जो नौ रस हैं उनमें भयानक नामक रस है । प्रस्तुत आगम में भयानक रस नहीं है । इस पर टिप्पण करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है-भयानक रस का अन्तर्भाव रौद्र रस में हो जाता है अतः उसका पृथक् ग्रहण नहीं किया।' नौ रसों के क्रम में भयानक के स्थान पर ब्रीडनक (लज्जा) रस का नाम है। काव्यशास्त्र के किसी भी ग्रन्थ में लज्जा रस की स्वीकृति नहीं मिली है। इस स्थिति में यह विषय आलोच्य है कि अनुयोगद्वार में लज्जा रस का उल्लेख किस आधार पर किया गया है तथा अन्य ग्रन्थकारों ने इसे इस रूप में स्वीकार क्यों नहीं किया ? भाव तीन प्रकार के होते हैं स्थायी भाव, सात्विक भाव और संचारी भाव । रसों की उत्पत्ति, अनुभूति और अभिव्यक्ति में भाव, विभाव, अनुभाव आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस दृष्टि से इन सबकी सूचना चार्ट के माध्यम से दी जा रही है - रस स्थायीभाव संचारीभाव विभाव अनुभाव १. शृंगार रति जुगुप्सा, आलस्य आदि ऋतु, माला, आभूषण आदि मुस्कराहट, मधुरवचन, कटाक्ष आदि २. हास्य हास लज्जा, निद्रा, असूया आदि विकृत आकृति, वाणी, वेश आदि स्मित, हास आदि ३. करुण शोक निर्वेद, मोह, दीनता आदि इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग देवोपलम्भ, निःश्वास, स्वरभेद, आदि अश्रुपात आदि ४. रौद्र उग्रता, मद, चपलता आदि असाधारण अपमान, कलह, नथुने फुलाना, होठ फड़फड़ाना, विवाद आदि कनपटी फड़कना आदि ५. वीर उत्साह गर्व, धृति, असूया, अमर्ष प्रतिनायक का अविनय, शौर्य, धैर्य, दानशीलता, वागदर्प आदि आदि त्याग आदि ६. भयानक भय त्रास, चिंता, आवेग आदि गुरु या राजा का अपराध, भयं- शरीर कंपन, घबराहट, औष्ठशोष, कर रूप देखना, भयंकर शब्द कण्ठशोष आदि सुनना आदि ७. बीभत्स जुगुप्सा अपस्मार, दैन्य, जड़ता घणास्पद तथा अरुचिकर वस्तु अंगसंकोच, थूकना, मुंह फेरना आदि का दर्शन आदि आदि ८. अद्भुत विस्मय वितर्क, आवेग, औत्सुक्य दिव्य वस्तु का दर्शन, देवागमन, नेत्र विस्तार, निनिमेष दर्शन, आदि माया, इंद्रजाल आदि भ्रूक्षेप, रोमाञ्च आदि ९. शांत शम धृति, हर्ष, निर्वेद आदि वैराग्य, संसारभय, तत्त्वज्ञान यम-नियम पालन, अध्यात्म-शास्त्र आदि चिंतन आदि १०. वत्सल वात्सल्य हर्ष, गर्व, उन्माद आदि शिशु-दर्शन आदि स्नेहपूर्वक देखना, हंसना, गोद लेना आदि ११. भक्ति ईश्वर विष- हर्ष, औत्सुक्य, निर्वेद, गर्व राम, कृष्ण, महावीर आदि नेत्र विकास, गद्गद् वाणी, रोमाञ्च यक प्रेम आदि आदि १. अमवृ. प. १२६ : ननु भयजनकरूपादिभ्यः समुत्पन्न: सम्मोहादिलिङ्गश्च भयानक एव भवति कयमस्य रौद्रत्वम् ? सत्यम्, किन्तु पिशाचादिरौद्रवस्तुभ्यो जातत्वाद् रौद्रत्वमस्य विवक्षितमित्यदोषः । Jain Education Intemational lucation international Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ८, सू० ३०६-३१८, टि० ३ २०६ उत्पत्ति अनुयोगद्वार के अनुसार काव्यरसों के आलम्बन और उद्दीपक विभाव तथा लक्षण इस प्रकार हैंरस लक्षण वीर परित्याग, तपश्चरण, शत्रुविनाश अपश्चात्ताप, धैर्य, पराक्रम शृंगार रति, संयोग की अभिलाषा विभूषा, विलास, कामचेष्टा, हास्य, लीला और रमण अद्भुत अपूर्व और अनुभूतपूर्व वस्तु हर्ष और विवाद भयंकर भयंकर रूप आदि, अंधकार, चिन्ता और भयंकर कथा संमोह, संभ्रम, विषाद और मरण ब्रीडनक गुह्य और गुरुस्त्री की मर्यादा का अतिक्रमण लज्जा, शंका बीभत्स अशुचि पदार्थ, शव, अनिष्ट दृश्य और दुर्गन्ध निर्वेद और जीव हिंसा के प्रति होने वाली घृणा हास्य रूप, वय, वेश और भाषा आदि का विपर्यय मुख, नेत्र का विकास करुण प्रिय-वियोग, वध, बंध, विनिपात, व्याधि और संभ्रम शोक, विलाप, म्लान और रोदन शान्त एकाग्रता और प्रशान्त भाव अविकार शृंगार रस के उदाहरण में मेखलादाम (करधनी) के विशेषणों में एक विशेषण है-मधुर । करधनी में प्रियता या सुन्दरता हो सकती है किन्तु माधुर्य कैसे हो सकता है ? यहां माधुर्य का सम्बन्ध शब्दायमान घुघरूओं के स्वरों की मधुरता से है। अद्भुत रस की उत्पत्ति विस्मयकारी वस्तुओं से होती है । वे वस्तुएं अपूर्व (जिनका पहले अनुभव न किया गया हो) भी हो सकती हैं और अनुभूतपूर्व भी। कभी नहीं देखी हुई वस्तु देखने से आश्चर्य होता है वैसे ही एक दो बार देखी हुई वस्तु भी विस्मय का हेतु बन सकती है, इसलिये अपूर्व और अनुभूतपूर्व दोनों स्थितियों में अद्भुत रस की उत्पत्ति स्वीकृत की गई है। लज्जा, शंका, सिर झुकाना, शरीर संकुचित होना आदि लज्जा के लक्षण हैं। मुझे कहीं कोई कुछ कह न दे, सब जगह ऐसी आशंका रखना शंका है। लज्जा रस के सन्दर्भ में अनुयोगद्वार में एक प्राचीन परम्परा का उल्लेख है। विवाह के बाद प्रथम बार शोणित से सना हुआ वधू का अधोवस्त्र गुरुजनों के सामने ले जाया जाता है, वे उसे सतीत्व की कसौटी मानकर नमस्कार करते थे।' बत्तीस दोष सूत्र ३१८ की व्याख्या में बत्तीस दोषों का विवरण प्राप्त नहीं है । सूत्रस्पर्शिक-नियुक्ति-अनुगम के प्रकरण में (सू. ७१४) आवश्यक नियुक्ति में उनकी चर्चा की गयी है-वे इस प्रकार हैं१. असत्य प्रतिपादन १७ स्वसिद्धान्त में अनुपदिष्ट २. हिंसाकारक प्रतिपादन १५. अपद किसी अन्य छन्द के अधिकार में अन्य छन्द का कथन ३. अर्थशून्य केवल शाब्दिक संरचना १९. स्वभाव हीन ४. असंबद्ध प्रतिपादन २०. व्यवहित ५. छलयुक्त प्रतिपादन २१. काल-दोष --काल का व्यत्यय ६. द्रोहपूर्ण उपदेश २२. यति-दोष-अस्थान में विराम ७. निस्सारता २३. छवि-दोष-अलंकार शून्यता ८. आवश्यकता से अधिक अक्षर और पद २४. समयविरुद्ध स्वसिद्धान्त के विरुद्ध ९. अपेक्षित अक्षरों और पदों से हीन २५. वचनमात्र-निर्हेतुक १०. पुनरुक्ति २६. अर्थापत्ति दोष ११. व्याहत पूर्वापर विरोध २७. असमास दोष १२. युक्ति-शून्यता २८. उपमा दोष १३. व्युत्क्रम २९. रूपक दोष १४. वचन-व्यत्यय ३०. निर्देश दोष १५. विभक्ति-व्यत्यय ३१. पदार्थ दोष १६. लिंग-व्यत्यय ३२. सन्धि दोष । बत्तीस दोषों के विस्तृत विवेचन हेतु देखें-बृहत्कल्पभाष्य भाग प्रथम, गाथा २७८ से २८१ की वृत्ति । १. (क) अचू. पृ. ४८ । (ग) अमवृ. प. १२७ । (ख) अहावृ. पृ. ७०। २. आनि. ९८१-८८४ । Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अणुओगदाराई सूत्र ३१९ ४. (सूत्र ३१६) वस्तु की पहचान के लिए नामकरण आवश्यक है । प्रस्तुत सूत्र में नामकरण के आधारों का निर्देश किया गया है। सूत्र ३२१ ५. नोगौण (नोगोण्णे) अयथार्थ नाम या गुणशून्य नाम नोगोण्ण नाम कहा जाता है१. कुन्त-भाला। २. मुद्ग जलवायस, मूंग नामक अन्न, वनमूंग, मोठ, छोटी पेटी। ३. मुद्रा-मर्यादा, अंगूठी, अवयवों की विशेष रचना । ४. लाला-लार। ५. कुलिका-सकुलिका का प्रयोग प्राकृत में होता है । संस्कृत में इसका समानार्थक शब्द शकुनिका है। कुलिया का अर्थ __ है कुड्या-भीत। ६. माई-इसके माता, देवी, माया, भूमि, विभूति आदि अनेक अर्थ होते हैं। ७. इन्द्रगोप–'वीरवधूटी' नाम का कीड़ा जो वर्षा के दिनों में उत्पन्न होता है। सकुंत, समुद्ग, समुद्र, पलाल आदि शब्द उपर्युक्त अर्थों से हीन होने के कारण 'नोगोण्ण' के उदाहरण हैं । सूत्र ३२३ ६. प्रतिपक्षपद से होने वाला नाम (पडिवखपएणं) प्रतिपक्ष के आधार पर किया जाने वाला नाम । जैसे-असिवा (सियारिन) को सिवा कहना । ग्राम आदि की रचना के समय अमंगल शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता। अशिवा शब्द अमांगलिक है। किसी प्रयोजनवश सियारिन का नाम लेना आवश्यक हो तो उसे अशिवा नहीं किन्तु शिवा कहा जाता है। वृत्तिकार के इस कथन से यह प्रतीत होता है कि सियारिन के लिए 'शिवा' शब्द का प्रयोग किसी विशेष परिस्थिति में किया जाता था। बाद में वह उस अर्थ में रूढ हो गया। अशिवा होने पर भी उसका नाम शिवा है इसलिए यह प्रतिपक्ष निष्पन्न नाम है।' अग्नि को शीतल और विष को मधुर किस भाषा में कहा जाता है यह अनुसन्धेय है जैसे कि गुजराती में 'नमक' को 'मीठु' कहते हैं। . यद्यपि मदिरा अम्ल होती है फिर भी उसको अम्ल नहीं कहा जाता। ऐसा माना जाता है कि उसको कलाल के घरों में अम्ल कहने से वह विकृत हो जाती है इसलिए उसे वहां स्वादु कहा जाता है।' तमिल में शोणित का नाम 'अरत्तम' है । इस आधार पर प्रस्तुत वाक्यांश का अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है - जो रक्त है उसका नाम अरक्त है। संभव है कि सूत्रकार ने प्रस्तुत निदर्शन में संस्कृत के रक्त शब्द से बने लत्त और तमिल के अरत्त से बने अलत्त शब्द का प्रयोग किया हो। 'लातीति लाबू' निरुक्त के अनुसार लाबू होने पर भी तुम्बा अलाबु कहलाता है।' १. (क) अहाव. पृ. ७१,७२: प्रामाकरनगरखेटकर्बटमडम्ब द्रोणमुखपत्तनाश्रमसंबाधसन्निवेशेषु निवेश्यमानेषु सत्सु अमांगलिकशब्दपरिहारार्थ असिवा सिवेत्युच्यते । (ख) अमव. प. १३०, १३१ । २. (क) अहाव. पृ. ७२ : अग्नि: शीतला विषं मधुरकं, कलालगृहेषु अम्लं स्वादु मृष्टं न त्वम्लमेव सुरा संरक्षणायानिष्टशब्दपरिहारः। (ख) अमव. प. १३१। ३. (क) अहाव. पृ. २ : जो रक्तो लाक्षारसेन स एवारक्तः प्राकृतशैल्या अलक्तः । (ख) अमवृ. प. १३१ । ४. (क) अहावपृ. ७२ : लाबु 'ला आदान' इति कृत्वा आदानार्थवत् सेत्ति तदलाबुः । (ख) अमवृ. प. १३१: लाति आदत्त, धरति, प्रक्षिप्तं जलादिवस्तु इति निरुक्तेर्लाबु तदेव अलाबु तुम्बकमभिधीयते । Jain Education Intemational Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०८, सू० ३१६-३२७, टि०४-६ २११ चूर्णिकार ने इसकी व्युत्पत्ति काटने और प्राप्त करने इन दोनों अर्थ वाली धातुओं से की है। तुम्बा जल को धारण करता है फिर भी उसका नाम अलाबु है।' शुम्भ (To Shine)-चमकदार रंग होने पर भी उसे कुशुम्भ कहा जाता है। कोई व्यक्ति बहुत अधिक बोलता है किन्तु वह असम्बद्ध प्रलाप करता है। असार बोलने के कारण उसके बोलने का कोई महत्त्व नहीं है। उसे देखकर कुछ लोग कहते हैं—यह बोलना ही नहीं जानता। बोलता है और बोलना नहीं जानता यह विरोधाभास है। 'आलपन् विपरीतभाषक:' यहां विपरीतभाषक का अर्थ है-'भाषकात् विपरीतः' अर्थात् नहीं बोलने वाला या असम्बद्ध बोलनेवाला। नोगौण नाम और प्रतिपक्ष से होने वाले नाम में भेद क्या है ? नोगौण नाम में कुन्त, मुद्ग आदि शब्द-प्रयोग के निमित्त का अभाव है और प्रतिपक्ष नाम प्रतिपक्ष धर्म के प्रतिपादन से प्रतिबद्ध हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ग्राम, आकर, नगर, खेट आदि शब्दों के विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य--ठाणं २।३९० का टिप्पण। भगवई ११४८-५० का भाष्य । सूत्र ३२४ ७. प्रधानता से होनेवाला नाम (पाहण्णयाए) एक स्थान पर अनेक वस्तुओं का अस्तित्व होने पर भी जिन वस्तुओं की प्रधानता होती है, उसके आधार पर होनेवाला नामकरण । जैसे--किसी उपवन में आम, अशोक, नारियल आदि अनेक जाति के वृक्ष हैं, उनमें अशोक जाति के वृक्षों की प्रधानता है, उस वन को अशोक वन कहा जाता है। इसी प्रकार सप्तपर्ण की प्रधानता वाले वन का नाम सप्तपर्ण वन और आम्र की प्रधानता वाले वन का नाम आम्र वन होता है।" सत्र ३२६ ८. नाम से होनेवाला नाम (नामेणं) __ किसी पूर्वज के नाम के आधार पर होनेवाला नामकरण । जैसे -पिता का नाम बन्धुदत्त और पुत्र का नाम भी बन्धुदत्त । नौ-नन्द और विक्रमादित्य के नाम इसी परम्परा के सूचक हैं । सूत्र ३२७ ६. अवयव से होनेवाला नाम (अवयवेणं) अवयव के आधार पर होनेवाला नामकरण। जैसे-शृंग के आधार पर बारहसिंगा का नाम शृंगी और ककुद के आधार पर वृषभ का नाम ककुमान है। परिकरबन्ध निवसन आदि सुभट और महिला के औपधिक अवयव हैं। चावलों की राशि एक वर्ग के रूप में स्थापित की जाए तो एक दाना उसका अवयव होता है । लालित्य आदि काव्य धर्मों से युक्त एक पद्य कवित्व की सूचना देता है। सुभट, महिला, कवि आदि के सूचक होने के कारण नेपथ्य आदि को उपचार से अवयव मानकर यहां निदर्शित किया गया है।' १. अचू. पृ. ४९ : लवतीति लाबु आदानार्थेन वा युक्तं ला प्राधान्यं 'असोगवणे' त्यादि । आदाने इति लाळ तं अलाबु भण्णति । (ख) अहावृ. पृ. ७२। २. (क) अचू. पृ. ४९ : सुभवर्णकारी सोभयतीति संभकस्त- (ग) अमवृ. प. १३१ । थापि कुशुंभकमित्युच्यते। ५. (क) अचू. पृ. ४९ : जो पितुपितामहनाम्नोत्क्षिप्त उन्नमित (ख) आप्टे। उच्यते। ३. (क) अचू. पृ. ४१ : यथावस्थितं अचलितभाषकं विपरीत- (ख) अहावृ. पृ. ७२ : पितुपितुः-पितामहस्य नाम्ना भाषकं ब्रूते असत्यवादिनं, अहवा अत्यर्थ लवनं उन्नामितः उत्क्षिप्तो यथा बंधुवत्त इत्यादि । विबुवानं तं विपरीतभाषकं ब्रूते असत्यवादिन (ग) अमवृ. प. १३१ । मित्यर्थः। ६. अमव. प. १३१ : यदा स नेपथ्यपुरुषाद्यवयवरूपपरिकर(ख) अहावृ. पृ.७२। बन्धादिदर्शनद्वारेण भटमहिलापाककविशब्दप्रयोगं करोति (ग) अमवृ. प. १३१ । तदा भटादीन्यपि नामान्यवयवप्रधानतया प्रवृत्तत्वादवयव४. (क) अचू. पृ. ४९ : प्रधानभाव: प्राधान्यं बहुत्वे वा नामान्युच्यन्त इति । Jain Education Intemational Education Interational Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ १०. मिश्र के संयोग से होने वाला नाम (मीसए) संयोग के आधार पर होने वाला नामकरण । मिश्र संयोग से होने वाले नाम का उदाहरण है हालिक अर्थात् हल से व्यवहार करने वाला । हल आदि अचेतन और बैल आदि सचेतन हैं। इन दोनों के संयोग से बना हुआ नाम मिश्र - संयोग का निदर्शन है ।' राजस्थानी भाषा में प्रचलित हाली शब्द इसी का रूपान्तरण है । सूत्र ३३३ १२. (सूत्र ३४०, ३४१ ) स्थापना निक्षेप विवक्षित अर्थ से आधार पर होने वाला नामकरण है, जैसे ११. क्षेत्र के संयोग से होनेवाला नाम ( खेत्तसंजोगे ) क्षेत्र का संयोग भी नामकरण का हेतु बनता है। जैसे—–भरत क्षेत्र में होनेवाला व्यक्ति भारत कहलाता है। इस प्रकरण में उन देशों और देशवासियों के नाम भी उल्लिखित हैं जो मुख्यत: उस समय जैन मुनियों के बिहार क्षेत्र थे । सूत्र ३४०, ३४१ सूत्र ३३२ १३. कुल नाम (कुलनामे) उग्र भोज आदि कुल प्राचीनकाल के प्रसिद्ध कुल रहे हैं। इनका श्रमण धर्म के साथ गहरा संबंध रहा है। भगवान महावीर की परिषद में इनके आगमन का बार-बार उल्लेख मिलता है। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य ठाणं ६ । ३५ का टिप्पण | सूत्र ३४४ १. ( क ) अचू. पृ. ५० मिश्र हलादिकः । (ख) अहावृ. पृ. ७२ । (ग) अबू शून्य पदार्थ में उस अर्थ का आरोपण करता है। स्थापना प्रमाण नाम नक्षत्र आदि के कृत्तिका नक्षत्र में उत्पन्न होने वाला व्यक्ति कार्तिक या कृत्तिकादत्त कहलाता है । 3 सूत्र ३४३ १४. पाषण्ड नाम ( पासंडनामे ) पाषण्ड का अर्थ है सम्प्रदाय । प्राचीनकाल में मुख्यतया श्रमण सम्प्रदायों के लिए पाषण्ड शब्द का प्रयोग होता था । इस सूत्र में श्रमण परम्परा के सम्प्रदायों का उल्लेख है । दशवेकालिक टीका में श्रमणों के पांच सम्प्रदायों का उल्लेख है निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीवक । हेमचन्द्र ने इस गाथा का भाव उद्धृत किया है।* पंडरंग द्रष्टव्य-सू० २० का टिप्पण । कापालिक शैव की एक शाखा । अणुओगदाराई सूत्र ३४५ १५. गण नाम ( गणनामे) गण के आधार पर होने वाला नामकरण । भगवान महावीर के काल में कई गणराज्य थे । उनमें एक गणराज्य मल्लों का था । ये शक्तिशाली गणराज्य शक्तिशाली 'वज्जी' गणराज्य से सम्बन्ध रखते थे। उसके आधार पर भी नामकरण की परम्परा प्रचलित थी । १३२ हजादीनामचेतनत्वाद् बलीवर्दाना सचेतनत्वान्मिश्रद्रव्यतया भावनीया । २ (क) अहावू. पृ. ७२ : भरते जात: भारतो वाऽस्य निवास इति वा 'तत्र जात:' 'सोऽस्य निवास' इति वा अण् भारत: । (ख) अमवृ. प. १३२ । ३. अमवृ. प. १३१ । ४. वही, प. १३४ : 'निग्गंथसक्कतावस गेरुयआजीव पंचहा समणा' । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ८, सू० ३३२-३५२, टि० १० २१ सूत्र ३४६ १६. जीवनहेतु नाम ( जीवियानामे) जीवित रखने के लिए किया जाने वाला नामकरण। जिस परिवार में उत्पन्न होने वाली सन्तान जन्म के कुछ समय बाद ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती है उस परिवार में बच्चे को जीवित रखने के लिये उसे अवकर ( कूड़े के ढेर ) पर छोड़ा जाता है और उसका नाम उसी आधार पर अवकरक रखा जाता है । उत्कुरु, उज्झित और कज्जव भी कूडे करकट के ढेर से सम्बन्धित शब्द हैं । ये नाम भी अवकरक के समानार्थक हैं। कहीं कहीं बच्चे को सूर्प ( छाज) में रखकर छोड़ने की पद्धति है इससे उसका नाम सूर्पक रखा जाता है । सूत्र ३४७ १७. अभिप्रायक नाम (आभिप्पा इयनामे ) अर्थ विशेष के प्रयोजन को ध्यान में न रखकर स्वेच्छामात्र से होनेवाला नामकरण । ये नाम गुण निरपेक्ष होते हैं, जैसेआम्र, नीम आदि शब्द वृक्ष-विशेष के वाचक हैं किन्तु व्यक्तियों के नामकरण में इन शब्दों का उपयोग करना आभिप्रायिक नाम है । १६. सामासिक ( सामासिए) सूत्र ३४९ १८. (सूत्र ३४९ ) प्रस्तुत प्रकरण में भाव का संबंध शब्दशास्त्र अथवा व्याकरण से है । शब्द- सिद्धि और शब्द संरचना की प्रामाणिकता व्याकरण के द्वारा होती है । इस अपेक्षा से समास, तद्धित आदि को भाव प्रमाण नाम बतलाया गया है । सूत्र ३५० जिन दो या दो से अधिक पदों का परस्पराश्रय भाव से सम्बन्ध होता है वह समास है ।' सूत्र ३५१ २१३ २०. द्वन्द्व (दंबे ) जिस समास में सब पदों की प्रधानता हो, वह द्वन्द्व समास कहलाता है, जैसे 'दन्तोष्ठम्' इसमें दन्त और औष्ठ दोनों पद प्रधान हैं। * सूत्र ३५२ २१. बहुव्रीहि बहुवीही) जिस समास में अन्य पदार्थ की प्रधानता हो वह बहुव्रीहि समास कहलाता है, जैसे—पुष्पिताः कुटजकदम्बा: यस्मिन् असो १. ( क ) अच् पृ. ५०: जीविया णाम जस्स जायमित्तं अब परति सा तं जातिं चैव जयगरादिसु छड्डेइ तं चेव णामं कज्जइ, ततो जीवति । (ख) अहाव. पृ. ७३ । (ग) अमवृ. प. १३४, १३५ । २. (क) अचू. पृ. ५० : अभिप्यायणामं ण किंचि गुणमवे क्खति किंतु यदेव यत्र जनपदे प्रसिद्धं तदेव तत्र जनपदाभिप्रायनाम, जनपदसंववहार इत्यर्थः । (ख) अहावू. पृ. ७३ । (ग) अमवृ. प. १३५ । ३. (क) अचू. पृ. ५० : येषां पदानां सम्यग् परस्पराश्रयभावेनार्थः आश्रीयते स समासः ततो जातो अत्थो सामासितो । (ख) अहाव. पृ. ७३ । (ग) अमवृ. प. १३६ । ४. (क) अहाबू पृ. ७३ 'उमयप्रधानो द्वंद्व' इति द्वन्द्वः दंतीयम् (ख) अमवृ. प. १३६ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अणुओगदाराई 'पुष्पितकुटजकदम्बः' इस पद में पुष्पित, कुटज और कदम्ब ये तीन शब्द हैं। समास होने के बाद यह किसी दूसरे गिरि आदि मुख्य पद का विशेषण बन जाता है।' सूत्र ३५४ २२. द्विगु (दिगू) जिस तत्पुरुष समास में पूर्वपद संख्यावाचक होता है वह द्विगु समास कहलाता है, जैसे-त्रिकटुकम्,त्रिसरम् आदि। 'सर' शब्द के तीन अर्थ हैं - शर, स्वर और सरस् । यहां सरस् अर्थ का ग्रहण किया गया है। सूत्र ३५५ २३. तत्पुरुष (तप्पुरिसे) जिस समास में उत्तरपद की प्रधानता हो वह तत्पुरुष समास कहलाता है, जैसे-राज्ञः पुरुषः-राजपुरुषः। जिस तत्पुरुष समास में विशेषण और विशेष्य में तुल्यार्थ में प्रयोग हो वह कर्मधारय तत्पुरुष समास होता है, जैसे-धवलो बसहो-धवलवसहो।' सूत्र ३५६ २४. अव्ययीभाव (अव्वईभावे) जिस समास में पूर्वपद की प्रधानता हो वह अव्ययीभाव समास कहलाता है, जैसे-ग्रामस्य पश्चात् अनुग्रामम् । इसमें अनु अव्यय के द्वारा अर्थबोध होता है।' सूत्र ३५७ २५. एकशेष (एगसेसे) जिस समास में एक समान रूप वाले अनेक शब्दों में एक शब्द शेष रहता है वह एकशेष समास कहलाता है। जो शब्द शेष रहता है वह अपने तथा लुप्त शब्दों के अस्तित्त्व का बोधक होता है। इस दृष्टि से एकशेष समास द्विवचन और बहुवचन में ही होता है। जहां एक ही शब्द हो वहां लोप और शेष घटित नहीं हो सकते । दो शब्दों में एक का लोप होने पर शेष शब्द द्विवचन में प्रयुक्त होता है जैसे-जिनश्च जिनश्च-जिनौ। तीन या तीन से अधिक शब्दों में एक शेष रहने पर बहुवचन का प्रयोग होता है, जैसे-जिनश्च जिनश्च जिनश्च-जिनाः। इसका उदाहरण है --- 'जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा' जैसे एक पुरुष वैसे बहुत पुरुष। बहुत पुरुषों या व्यक्तियों में एक शेष की बात ठीक है पर एक ही पुरुष में एक शेष की क्या उपयोगिता है ? मलधारी हेमचन्द्र ने इसका आशय इस प्रकार स्पष्ट किया है --'एगो पुरिसो' यह एकवचनान्त प्रयोग अनेक पुरुषों के अस्तित्व का सूचक है क्योंकि यहां एकवचन का प्रयोग पुरुष जाति के लिए किया गया है। जहां अनेक व्यक्तियों के स्वतंत्र अस्तित्त्व की विवक्षा हो वहां बहुवचन का प्रयोग स्वतः सिद्ध है। सूत्र ३५८ २६. तद्धितज (तद्धितए) यहां तद्धित शब्द के द्वारा तद्धित प्रत्यय के हेतुभूत अर्थ का ग्रहण करना चाहिए। तुन्नाय, तन्तुवाय जैसे शब्दों में तद्धित १. (क) अहावृ. पृ. ७३ : 'अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः' ४. (क) अहावृ. पृ. ७३,७४ : ग्रामस्य समीपे ग्रामेणोत्तरपुष्पिताः कुटजकदम्बा यस्मिन् गिरी सोऽयं गिरिः पदेन अव्ययीभावः समासः, ग्रामस्तूपलक्षणमात्रं पुष्पितकुटजकदम्बः । समास: अतः पूर्वपदार्थप्रधानः । २. (क) अहाव. पृ. ७३ : संख्यापूर्वो द्विगुरिति द्विगुसंज्ञा । (ख) अमवृ. प. १३६। (ख) अम. प. १३६ । ५. (क) अहाव. पृ. ७४ : सरूपाणामेकशेष एकविभक्ताविति ३. (क) अहाव. पृ. ७३ : तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्म समानरूपाणां एकविभक्तियुक्तानां एकः शेषो भवति धारयः, धवलश्चासौ वृषभश्च विशेषणविशेष्यबहुल -सति समास एक: शिष्यते, अन्ये लुप्यन्ते । मिति तत्पुरुषः । (ख) अमवृ. प. १३६ । (ख) अमवृ. प. १३६ । ६. अमवृ. प. १३६ । Jain Education Intemational Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०८, सू० ३५४-३६४, टि० २२-३१ का प्रत्यय नहीं है फिर भी उसका हेतुभूत अर्थ यहां विद्यमान है इसलिए उन्हें तद्धितज माना गया है। मलधारी हेमचन्द्र के इस प्रतिपादन का आधार चूर्णिकार द्वारा किया हुआ तद्धित शब्द का निरुक्त है। चूर्णिकार ने लिखा है जो अर्थ जिसके द्वारा जाना जाता है वह उसके ज्ञान का हेतु होने के कारण तद्वित कहलाता है। तद्धित के अर्थ में होनेवाला तद्वित कहलाता है ।' इस व्याख्या के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि सूत्रकार द्वारा उदाहृत नामों में कुछ नाम तद्धित प्रत्यय युक्त हैं और कुछ नाम तद्धित प्रत्ययों के अर्थ से युक्त हैं। तरंगवतीकार आदि नाम कृदन्त प्रत्यय वाले हैं फिर भी उन्हें तद्धितज नामों के साथ प्रस्तुत किया गया है इसका कारण चूर्णिकार द्वारा किया गया व्यापक अर्थ है । कृदन्त और तद्धित दोनों प्रत्ययों के द्वारा शब्द निर्माण होता है । कृदन्त प्रत्यय के द्वारा धातु से और तद्धित प्रत्ययों के द्वारा नामों से शब्द निर्मित होते हैं । किन्तु उस व्यापक अर्थ में ये दोनों समाहित हो जाते हैं। इस आधार पर सूत्रकार द्वारा उल्लिखित सभी नामों की संगति बिठाई जा सकती है । सूत्र ३६३ २७. बंदिश (वेद) मालवा प्रदेश में भोपाल से २४ मील ईशान कोण में स्थित नगर अथवा वेत्रवती नदी के किनारे स्थित भिलसा नगर । भिसा नगर का सम्बन्ध वेस या वेसली नदी के साथ है। भिलसा का एक नाम बेसनगर है । उस नदी के साथ सम्बन्ध प्रमाणित करता कि बेसनगर का मूल नाम वैदिश नगर है । २८. वेन्नाट (वेन्नायडं ) दक्षिणापथ में कृष्णा और वेणा नामक नदियां बहती हैं। उनके आसपास का प्रदेश आभीर देश कहलाता है । आभीर देश में वेणा नदी के किनारे वेणातट नामक नगर है। वहां किसी समय बौद्धों और जैनों की अच्छी बस्ती थी । उनमें परस्पर चर्चा - स्पर्धाएं चलती रहती थीं।' २२. तगरात (तगरायडे) दक्षिणापथ में तगरा नदी के किनारे पर स्थित नगर का नाम तगरातट है । उसका संक्षिप्त नाम तगरा है ।' ई० सन् ९३३ में दिगम्बर आचार्य हरिषेण द्वारा रचित 'बृहत् कथा कोश' में तेरानगर का उल्लेख है आभीराख्यमहादेशे, तेराख्यं नगरं परम् । तदा नीलमहानीलो, प्रयातौ विजिगीषया ॥ यहां 'तेरा' तगरा का ही परिवर्तित रूप है । जैसे तगरा तयरा तइरा-तेरा इस क्रम में तगरा तेरा रूप में परिवर्तित हुआ। दिगम्बर मुनि कनकामर द्वारा रचित अपभ्रंश काव्य 'करकंडुचरिउं' में भी तेरापुर और वहां के गुफा मन्दिर का वर्णन है । हैदराबाद राज्य के उस्मानाबाद जिले में तीर्णा नदी के किनारे तेरा नामक छोटा सा ग्राम है। सम्भव है यह तेरा ग्राम तगरातट का अवशेष हो । ३०. संपूथनाम ( संजू हनामे) १. १२० दिन तद्विप्राप्तिहेतुभूतोऽयते ततो यत्रापि तुप्राए, तंतुवा ि प्रत्ययो न दृश्यते तत्रापि तद्हेतुभूतार्थस्य विद्या तद्वितजत्वं सिद्धं भवति । २१५ संयूथ का अर्थ ग्रन्थ रचना है।' ३१. तरंगवतोकार (तरंगवतिकारे ) यह आचार्य पादलिप्तसूरि द्वारा रचित सबसे प्राचीन कथा ग्रन्थ है । दशवैकालिक चूर्णि आदि में इसका उल्लेख प्राप्त है ।" २. अचू. पृ. ५० : योऽर्थः येनोपलक्ष्यते स तस्य हेतुक: तद्धितमुच्यते, तद्धितातो अत्थे जाते तद्धितिए । सूत्र ३६४ ३. जैआसागु. पृ. १६८ । ४. वही, पृ. २० और १७१ । ५. वही, पृ. ७७,७८ ६. अहावू. पृ. ७४ : संजू हो- प्रन्थसंदर्भकरणम् । ७. (क). पृ. १०९ सामइगे तरंगमाह । (ख) निचू. २, पृ. ४१५ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ अणुओगदाराई वर्तमान में यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है । इसका समय ई० की दूसरी तीसरी सदी सम्मत है। पालिप्तसूरि को राजा सातवाहन की गोष्ठी की शोभा माना गया है। मूलग्रन्थ के १००० वर्ष बाद वीरभट्ट या वीरभद्र आचार्य के शिष्य नेमिचन्द्रगणी ने तरंगवती का संक्षिप्तीकरण १९०० प्राकृत गाथाओं में किया है। जिसका नाम तरंगलोला रखा गया है। इस ग्रन्थ का दूसरा नाम संक्षिप्त तरंगवती भी है। आचार्य नेमिचन्द्र ने तरंगवती के सम्बन्ध में लिखा है ___ पादलिप्त आचार्य ने देशी भाषा में तरंगवती नामक विचित्र और विस्तृत कथा की रचना की। यह रचना विद्वद्भोग्य है इसलिए साधारण लोग न इसे सुनते हैं न कहते हैं, और न इसके संबंध में पूछते भी हैं। ३२. मलयवतीकार (मलयवतिकारे) निशीथचूथि में मलयवती, मगधसेना, तरंगवती आदि को लोकोत्तर कथा माना गया है। ३३. आत्मानुशिष्टिकार (अत्ताणुसट्टिकारे) आत्मानुशिष्टि' ग्रंथ के निर्माता । यह ग्रंथ अभी अनुपलब्ध है। Jain Education Intemational Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां प्रकरण ( सूत्र ३६९-४१२ ) Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख दार्शनिक ग्रन्थों में प्रमाण का प्रयोग ज्ञान अथवा ज्ञान के हेतु के लिए किया गया है। यहां उसका प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है । मान अथवा मापन के जितने साधन हैं उन सबको प्रमाण कहा गया है । उसके चार प्रकार बतलाए गए हैं-१. द्रव्य प्रमाण २. क्षेत्र प्रमाण ३. काल प्रमाण ४. भाव प्रमाण । प्रस्तुत प्रकरण में द्रव्य और क्षेत्र इन दो प्रमाणों का समावेश किया गया है। द्रव्य प्रमाण में तत्कालीन समाज में प्रचलित मान, उन्मान आदि मानदण्डों की व्यावहारिक जानकारी मिलती है। यद्यपि वर्तमान में दण्ड, धनुष्य, युग आदि का मापन के लिए कोई प्रयोग नहीं हो रहा है फिर भी प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन के लिए इनका बहुत उपयोग है। क्षेत्र प्रमाण में तीन अंगुल, तीन प्रकार के पुरुष तथा सूक्ष्म और व्यावहारिक परमाणु का प्रतिपादन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। वर्तमान विज्ञान सम्मत अणु और परमाणु के भेद का सूक्ष्म और व्यावहारिक परमाणु से तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है। Jain Education Intemational Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां प्रकरण मूल पाठ संस्कृत छाया उवक्कमाणुओगदारे पमाण-पदं उपक्रमानुयोगद्वारे प्रमाण-पदम् ३६६. से किं तं पमाणे? पमाणे । अथ किं तत् प्रमाणम् ? प्रमाणं चउन्विहे पण्णते, तं जहा- चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-१. द्रव्य१. दव्वप्पमाणे २. खेत्तप्पमाणे प्रमाण २. क्षेत्रप्रमाणं ३. कालप्रमाणं ३. कालप्पमाणे ४. भावप्पमाणे ॥ ४. भावप्रमाणम् । दव्वप्पमाण-पदं द्रव्यप्रमाण-पदम् ३७०. से कि तं दव्वप्पमाणे? दव्वप्प- । अथ किं तद् द्रव्यप्रमाणम् ? माणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- द्रव्यप्रमाणं द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-- पएसनिप्फण्णे य विभागनिष्फण्णे प्रदेशनिष्पन्नं च विभागनिष्पन्नं च ॥ य ॥ हिन्दी अनुवाद उपक्रम अनुयोगद्वार प्रमाण-पद ३६९. वह प्रमाण क्या है ? प्रमाण के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-- द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र प्रमाण, काल प्रमाण और भावप्रमाण । द्रव्य प्रमाण-पद ३७०. वह द्रव्य प्रमाण क्या है ? द्रव्य प्रमाण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेप्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न । ३७१. से कि तं पएसनिप्फण्णे ? पएस अथ किं तत् प्रदेशनिष्पन्नम् ? ३७१. वह प्रदेशनिष्पन्न क्या है ? निप्फण्णे परमाणपोग्गले दुपए- प्रदेशनिष्पन्नम् -परमाणुपुद्गल: प्रदेशनिष्पन्न--परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक सिए जाव दसपएसिए संखज्जपए- द्विप्रदेशिक: यावद् दशप्रदेशिकः यावत् दसप्रदेशिक, संख्येयप्रदेशिक, असंख्येयसिए असंखेज्जपएसिए अणंतपए- संख्येयप्रदेशिकः असंख्येयप्रदेशिक: प्रदेशिक और अनन्तप्रदेशिक । वह प्रदेशसिए । से तं पएसनिष्फण्णे ॥ अनन्तप्रदेशिकः। तदेतत् प्रदेश निष्पन्न है। निष्पन्नम्। ३७२. से कि तं विभागनिप्फण्णे ? अथ कि तद् विभागनिष्पन्नम्। ३७२. वह विभागनिष्पन्न क्या है ? विभागनिष्फण्णे पंचविहे पण्णत्ते, विभागनिष्पन्नं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, विभागनिष्पन्न के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, तं जहा-१. माणे २. उम्माणे तद्यथा-१. मानम् २. उन्मानम् जैसे-१. मान, २. उन्मान, ३. अवमान, ४. ओमाणे ४. गणिमे ५. पडि- ३. अवमानं ४. गण्यं ५. प्रति ४. गण्य, ५. प्रतिमान । माणे॥ मानम् । ३७३. से कितं माणे? माणे दुविहे अथ किं तद् मानम् ? मानं । ३७३. वह मान क्या हैं ? पण्णत्ते, तं जहा धन्नमाणप्पमाणे द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-धान्यमान मान के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-धान्यय रसमाणप्पमाण य॥ प्रमाणं च रसमानप्रमाणं च । मान प्रमाण और रसमान प्रमाण । ३७४. से कि तं धन्नमाणप्पमाण ? अथ कि तद् धान्यमानप्रमाणम्? धन्नमाणप्पमाणे-दो असतीओ धान्यमानप्रमाणम् -द्वे असती प्रसुतिः पसती, दो पसतीओ सेतिया, द्वे प्रस्ती सेतिका, चतस्रः सेतिका: चत्तारि सेतियाओ कुलओ, चत्तारि कडवः, चत्वारः कुडवाः प्रस्थः, कुलया पत्थो, चत्तारि पत्थया चत्वारः प्रस्थकाः आढकः, चत्वारः आढगं, चत्तारि आढगाई दोणो, आढका: द्रोणः, षष्टिः आढका: सट्टि आढगाइं जहण्णए कुंभे, जघन्यक: कुम्भः, अशीति: आढका: असीइं आढगाई मज्झिमए कुंभे, मध्यमकः कुम्भः, आढकशतं उत्कर्षक: ३७४. वह धान्यमान प्रमाण क्या है? धान्यमान प्रमाण -दो असृति [एक पल का माप] की एक प्रसृति [दो पल का माप] दो प्रसृति की एक सेतिका, चार सेतिका का एक कुडव, चार कुडव का एक प्रस्थ, चार प्रस्थ का एक आढ़क, चार आढ़क का एक द्रोण, साठ आढ़क का एक जघन्य कुम्भ, अस्सी आढ़क का एक मध्यम कुम्भ, सौ आढ़क का Jain Education Intemational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई एक उत्कृष्ट कुम्भ और आठ सौ आढ़क का एक वाह होता है। २२२ आढगसतं उक्कोसए कुंभे, अट्ठ- कुम्भः, अष्टाढकशतिक: वाहः। आढगसतिए वाहे ॥ ३७५. एएणं धन्नमाणप्पमाणेणं कि एतेन धान्यमानप्रमाणेन किं पओयणं? एएणं धन्नमाणप्पमा- प्रयोजनम् ? एतेन धान्यमानप्रमाणेन णणं मुत्तोली-मुरव-इड्डर-अलिद- 'मुत्तोली-मुरव-इड्डर-अलिन्द-ओचार'ओचारसंसियाणं धन्नाणं धन्न- संधितानां धान्यानां धान्यमानप्रमाणमाणप्पमाणनिवित्तिलक्खणं निवृत्तिलक्षणं भवति । तदेतद् धान्यभवइ । से तं धन्नमाणप्पमाणे ॥ मानप्रमाणम् । ३७५. इस धान्यमान प्रमाण का क्या प्रयोजन इस धान्यमान प्रमाण से मुक्तोली [वह कोठी जो ऊपर व नीचे संकीर्ण और बीच में विशाल हो], मुरव [धान्य रखने का पात्र], इड्डर [ढ़कने का बड़ा पात्र], आलिन्दक [कुंडा] और ओचार [बड़ा कोठा] में रखे हुए धान्य के धान्यमान का प्रमाण जाना जाता है। वह धान्यमान प्रमाण है। ३७६. से कि तं रसमाणप्पमाणे? अथ किं तद् रसमानप्रमाणम् ? रसमाणप्पमाणे-धन्नमाणप्प- रसमानप्रमाणम्-धान्यमानप्रमाणात् माणाओ चउभागविवडिए अभि- चतुर्भागविवधितम् अभ्यन्तरशिखायुक्तं तरसिहाजुत्ते रसमाणप्पमाणे रसमानप्रमाणं विधीयते, तद्यथाविहिज्जइ, तं जहा-चउसद्विया ४, चतुःषष्टिका ४, द्वात्रिशिका ८, षोडबत्तीसिया ८, सोलसिया १६, शिका १६, अष्टभागिका ३२, अट्ठभाइया ३२, चउभाइया ६४, चतुर्भागिका ६४, अर्धमानी १२८, अद्धमाणी १२८, माणी २५६। मानी २५६ । द्वे चतुःषष्टिके द्वात्रिदो चउसट्टियाओ बत्तीसिया, दो शिका, द्वे द्वात्रिशिके षोडशिका, द्वे बत्तीसियाओ सोलसिया, दो सोल- षोडशिके अष्टभागिका, द्वे अष्टभागिके सियाओ अट्ठभाइया, दो अट्ठभाइ- चतुर्भागिका, द्वे चतुर्भागिके अर्धमाणी, याओ चउभाइया, दो चउभाइ- द्वे अर्धमाग्यौ माणी । याओ अद्धमाणी, दो अद्धमाणीओ माणी॥ २७६. वह रसमान प्रमाण क्या है ? रसमान प्रमाण-धान्यमान प्रमाण से चार भाग अधिक, आभ्यन्तर शिखा से युक्त रसमान प्रमाण किया जाता है। जैसे-चतुःषष्टिका, द्वात्रिंशिका, षोडशिका, अष्टभागिका, चतुर्भागिका, अर्धमाणी, माणी। चतुःषष्टिका के दो भाग करने से द्वात्रिंशिका, द्वात्रिंशिका के दो भाग करने से षोडशिका, षोडशिका के दो भाग करने से अष्टभागिका, अष्टभागिका के दो भाग करने से चतुर्भागिका, चतुर्भागिका के दो भाग करने से अर्धमाणी और अर्धमाणी के दो भाग करने से माणी होती है। ३७७. एएणं रसमाणप्पमाणेणं कि एतेन रसमानप्रमाणेन कि प्रयो- ३७७. इस रसमान प्रमाण का क्या प्रयोजन है ? पओयणं? एएणं रसमाणप्प- जनम् ? एतेन रसमानप्रमाणेन वारक- इस रसमान प्रमाण से वारक [छोटा माणेणं वारग-घडग-करग-कल- घटक-करक-कलशिका-गर्गरी-दृतिका- घड़ा], घट [घड़ा], करक [झारी], कलशी, सिय-गग्गरि-दइय-करोडिय-कुंडिय- करोटिका-कुण्डिकासंश्रितानां रसानां गगरी, दृति [दीवड़ी], करोटिका[बड़ी कुण्डी] संसियाणं रसाणं रसमाणप्पमाण- रसमानप्रमाणनिवृत्तिलक्षणं भवति । और कुण्डिका में डाले हुए रसों का रसमान निवित्तिलक्खणं भवइ। से तं तदेतद् रसमानप्रमाणम् । तदेतद् प्रमाण जाना जाता है। वह रसमान प्रमाण रसमाणप्पमाणे । से तं माण॥ मानम् । है। वह मान है। ३७८. से कि तं उम्माणे? अथ किं तद् उन्मानम् ? उम्माणे-जण्णं उम्मिणिज्जइ, उन्मानम्-यत् उन्मीयते, तद्यथातं जहा-अद्धकरिसो करिसो, अर्द्धकर्षः कर्षः, अर्द्धपलं पलं, अद्धपलं पलं, अद्धतुला तुला, अर्द्धतुला तुला, अर्द्धभारः भारः। अद्धभारो भारो। दो अद्ध- द्वौ अर्द्धकर्षों कर्षः, द्वौ कषौं अर्द्धकरिसा करिसो, दो करिसा अद्ध- पलम्, द्वे अर्द्धपले पलं, पञ्चोत्तरपलं, दो अद्धपलाई पलं, पंचुत्तर- पलशतिका तुला, दश तुला: अर्द्धमारः, ३७८. वह उन्मान क्या है ? उन्मान-जिससे तोला जाता है, वह उन्मान है, जैसे-अर्धकर्ष [आधा तोला], कर्ष [एक तोला], अर्धपल, पल, अर्धतुला, तुला, अर्धभार, भार। दो अर्धकर्ष का एक कर्ष, दो कर्ष का एक अर्धपल, दो अर्धपल का एक पल, एक सौ पांच पलों की एक तुला, दस Jain Education Intemational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां प्रकरण : सूत्र ३७५-३८३ पलसइया तुला, दस तुलाओ अद्ध- विशतिः तुलाः भारः । भारो, बीसं तुलाओ भारो॥ २२३ तुला का एक अर्धभार [५२३ सेर] और बीस तुला का भार [२ मन २५ सेर] होता है। ३७९. एएणं उम्माणप्पमाणेणं कि एतेन उन्मानप्रमाणेन कि प्रयो- ३७९. इस उन्मान प्रमाण का क्या प्रयोजन है ? पओयणं? एएणं उम्माणप्पमाणेणं जनम् ? एतेन उन्मानप्रमाणेन पत्र- इस उन्मान प्रमाण से पत्र तेजपत्र आदि] पत्त-अगरु-तगर-चोयय-कुंकुम-खंड- अगरु-तगर-'चोयय'-कुंकुम खण्ड-गुड- अगरु, तगर, चोयक [सुगन्धित द्रव्य], कुंकुम, गुल-मच्छंडियादीणं दवाणं मत्स्यण्डिकादीनां द्रव्याणाम् उन्मान- खाण्ड, गुड़, मत्स्य ण्डिका राब] आदि उम्माणप्पमाणनिन्वित्तिलक्खणं प्रमाणनिवृत्तिलक्षणं भवति । तदेतद् द्रव्यों का उन्मान प्रमाण जाना जाता है। वह भवइ । से तं उम्माणे ॥ उन्मानम् । उन्मान है। ३८०. से कि तं ओमाणे? ओमाणे- अथ किं तद् अवमानम् ? अव- जण्णं ओमिणिज्जइ, तं जहा- मानम् यद् अवमीयते, तद्यथा-- हत्थेण वा दंडेण वा धणुणा वा हस्तेन वा दण्डेन का धनुषा वा युगेन जुगेण वा नालियाए वा अक्खेण वा वा नालिकया वा अक्षेण वा मुसलेन मुसलेण वा। वा। गाहा गाथा-- दंडं धणुं जुगं नालियं च, दण्डं धनुः युगं नालिकां च, अक्खं मुसलं च चउहत्थं । अक्षं मुसलं च चतुर्हस्तम् । दसनालियं च रज्जु, दशनालिकां च रज्जु, वियाण ओमाणसण्णाए॥१॥ विजानीहि अवमानसंजया ॥१॥ वत्थुम्मि हत्थमेज्ज, वस्तुनि हस्तमेयं, खित्ते दंडं धणुं च पंथम्मि । क्षेत्रे दण्डं धनुः च पथि। खायं च नालियाए, खातं च नालिकया, वियाण ओमाणसण्णाए ॥२॥ विजानीहि अवमानसंज्ञया ॥२॥ ३८०. वह अवमान क्या है ? अवमान - जिससे अवमान [लम्बाई, चौड़ाई और परिधि का नाप] किया जाता है। जैसे हाथ, दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष और मुसल। गाथा१. दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष और मुसल चार हाथ का होता है । दस नालिका की एक रज्जु होती है । ये अवमान संज्ञा से ज्ञातव्य हैं। २. वास्तु [घर की भूमि] हाथ से मापा जाता है, खेत दण्ड से मापा जाता है, मार्ग धनुष से मापा जाता है और खाई का गड्ढ़ा नालिका से मापा जाता है। ये भी अवमान संज्ञा से ज्ञातव्य हैं। ३८१. एएणं ओमाणप्पमाणेणं कि एतेन अवमानप्रमाणेन किं पओयणं? एएणं ओमाणप्पमाणेणं प्रयोजनम् ? एतेन अवमानप्रमाणेन खाय-चिय-रचिय-करकचिय-कड- खात-चित-रचित-कचित-कट-पटपड-भित्ति-परिक्खेवसंसियागं भित्ति-परिक्षेपसंश्रितानां द्रव्याणाम् दवाणं ओमाणप्पमाणनिग्वित्ति- अवमानप्रमाणनिवृत्तिलक्षणं भवति । लक्खणं भवइ । से तं ओमाणे॥ तदेतद् अवमानम् । ३८१. इस अवमान प्रमाण का क्या प्रयोजन है ? इस अवमान प्रमाण से खोदे हुए, चिने हुए, बनाए हुए, करौत से काटे हुए तथा कट, पट, भित्ति और परिधि- इनसे संबद्ध द्रव्यों का अवमान प्रमाण जाना जाता है । वह अवमान ३८२. से किं तं गणिमे ? गणिमे- अथ किं तद् गण्यम् ? जण्णं गणिज्जइ, तं जहा—एगो गण्यम् यत् गण्यते, तद्यथा-एकः दस सयं सहस्सं दससहस्साई सय- दश शतं सहस्र दशसहस्राणि शतसहस्रं सहस्सं दससयसहस्साई कोडी॥ दशशतसहस्राणि कोटिः । ३८२. वह गण्य क्या है ? गण्य-जो गिना जाता है वह गण्य है, जैसे-एक, दस, सौ, हजार, दस हजार, सौ हजार, दस सौ हजार और कोटि । ३८३. एएणं गणिमप्पमाणेणं कि पओ एतेन गण्यप्रमाणेन किं प्रयो- यण? एएणं गणिमप्पमाणेणं जनम् ? एतेन गण्यप्रमाणेन भृतकभितग-भिति-भत्त-वेयण-आय-व्यय- मति-भक्त-वेतन-आय-व्ययसंश्रितानां संसियाण दव्वाणं गणिमप्पमाण- द्रव्याणां गण्यप्रमाणनिवृत्तिलक्षणं निवित्तिलक्खणं भवइ। से तं भवति । तदेतद् गण्यम् । गणिमे ॥ ३८३. इस गण्य प्रमाण का क्या प्रयोजन है ? ___इस गण्य प्रमाण से भूतक [कर्मकर] भृति [वृत्ति] भक्त [भोजन] वेतन और आय-व्यय से संबद्ध द्रव्यों का गण्य प्रमाण जाना जाता है। वह गण्य है। Jain Education Intemational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अणुओगदाराई ३८४. से कि तं पडिमाणे? पडिमाणे अथ किं तत् प्रतिमानम् ? प्रति- ३८४. वह प्रतिमान क्या है ? --जण्णं पडिमिणिज्जइ, तं जहा- मानम्-यत् प्रतिमीयते, तद्यथा-- । प्रतिमान-जिससे स्वर्ण आदि का तौल गुजा कागणी निप्फावो कम्म- गुञ्जा काकणी निष्पावः कर्ममाषक: किया जाता है, जैसे गुजा [चिरमी], मासओ मंडलओ सुवण्णो। पंच मण्डलक: सुवर्णः । पञ्च गुजाः कर्म- काकणी, निष्पाव [बल्ल नामक चना-राजगंजाओ कम्ममासओ, चत्तारि माषक:, चतस्रः काकण्यः कर्ममाषकः, मास], कर्ममाषक, मण्डलक और सुवर्ण । कागणीओ कम्ममासओ, तिणि त्रयो निष्पावा: कर्ममाषकः, एवं पांच गुञ्जा, चार काकणी और तीन निष्पाव निष्फावा कम्ममासओ, एवं चउ- चतुष्कः कर्ममाषक: । द्वादश कर्म- का एक कर्ममाषक होता है। क्कओ कमममासओ। बारस कम्म- माषकाः मण्डलक:, एवम् अष्ट इस प्रकार चार काकणी से निष्पन्न कर्ममासया मडलओ, एव अडया- चत्वारिंशत्काकिण्यः मण्डलकः । माषक को चतुष्क कर्ममाषक कहते हैं । बारह लोसाए कागणीओ मंडलओ। षोडश MAINET. म. षोडश कर्ममाषकाः सुवर्णः, एवं चतु: कर्ममाषक का एक मण्डलक होता है। सोलस कम्ममासया सुवण्णो, एव षष्टि: काकण्य: सुवर्णः । इस प्रकार अड़तालीस काकणी का एक मण्डलक और सोलह कर्ममाषक का एक चउसठ्ठीए कागणीओ सुवण्णो॥ सुवर्ण होता है। ___ इस प्रकार चौसठ काकणी का एक सुवर्ण होता है। ३५. एणं पडिमाणप्पमाणणं कि एतेन प्रतिमानप्रमाणेन कि ३८५. इस प्रतिमान प्रमाण का क्या प्रयोजन है ? पओयणं? एएणं पडिमाणप्पमा- प्रयोजनम् ? एतेन प्रतिमानप्रमाणेन इस प्रतिमान प्रमाण से स्वर्ण, रजत, मणि, णेणं सवण्ण-रजत-मणि-मोत्तिय- सुवर्ण-रजत-मणि-मौक्तिक-शंख-शिला मौक्तिक, शंख, शिला [राजपट्ट नामक रत्न], संख-सिल-प्पवालादीणं दव्वाणं प्रवालादीनां द्रव्याणां प्रतिमानप्रमाण प्रवाल आदि द्रव्यों का प्रतिमान प्रमाण पडिमाणप्पमाणनिवित्तिलक्खणं निवृत्तिलक्षणं भवति। तदेतत् प्रति जाना जाता है। वह प्रतिमान है। वह भवह। से तं पडिमाणे। से तं मानम् । तदेतद् विभागनिष्पन्नम् । विभागनिष्पन्न है। वह द्रव्य प्रमाण है। विभागनिष्फण्णे । से तं दविप्प- तदेतद् द्रव्यप्रमाणम् । माणे॥ खेत्तप्पमाण-पदं क्षेत्रप्रमाण-पदम क्षेत्र-प्रमाण-पद उससे कि तं खेत्तप्पमाणे? खेत्तप्प- अथ कि तत् क्षेत्रप्रमाणम् ? ३८६. वह क्षेत्र प्रमाण क्या है ? माणे विहे पण्णते, तं जहा- क्षेत्रप्रमाणं द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-- क्षेत्र प्रमाण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेपारासनिएफपणे य विभागनिप्फण्ण प्रवेशनिष्पन्नं च विभागनिष्पन्नं च। प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न । य॥ ३८७. से कि तं पएसनिप्फण्णे? पएस- अथ किं तत् प्रदेशनिष्पन्नम् ? ३८७. वह प्रदेशनिष्पन्न क्या है ? निष्फणे-एगपएसोगाढे दुपएसो- प्रदेशनिष्पन्नम् एकप्रदेशावगाढः प्रदेशनिष्पन्न एक प्रदेशावगाढ़, द्विप्रदेगाढे तिपएसोगाढे जाव दसपएसो- द्विप्रदेशावगाढः त्रिप्रदेशावगाढः यावद् शावगाढ़, त्रिप्रदेशावगाढ़, यावत् दसप्रदेशावगाढे संखेज्जपएसोगाढे असंखेज्ज- दशप्रदेशावगाढः संख्येयप्रदेशावगाढः गाढ़, संख्येयप्रदेशावगाढ़, असंख्येयप्रदेशावगाढ़। पएसोगाढे। से तंपएसनिष्फण्णे॥ असंख्येयप्रदेशावगाढः । तदेतत् प्रदेश- वह प्रदेशनिष्पन्न है। निष्पन्नम्। ३८८.से कि तं विभागनिष्फण्णे? अथ किं तद् विभागनिष्पन्नम् ? ३८८. वह विभागनिष्पन्न क्या है ? विभागनिकणे-- विभागनिष्पन्नम् --- विभागनिष्पन्नगाहा गाथा गाथा--- अंगुल विहत्थि रयणी, अंगुल: वितस्ति: रत्नि:, अंगुल, वितस्ति, रत्नि, कुक्षि, धनुष, कुच्छी धणु गाउयं च बोधव्वं । कुक्षिः धनुः गव्यूतं च बोद्धव्यम् । गव्यूत, योजन, श्रेणी, प्रतर, लोक और जोयण सेढी पयरं, योजनं श्रेणि: प्रतरः अलोक। लोगमलोगे वि य तहेव ॥१॥ लोकालोको अपि च तथैव ।।१।। Jain Education Intemational Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां प्रकरण : सूत्र ३८४ - ३६२ ३८. से कि तं अंगुले ? अंगुले तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-आयंगुले उस्सेहंगुले पमाणं ॥ ३६०. से किं तं आयंगुले ? आयंगुलेजे पं जया मणस्सा भवंति तेसि णं तया अप्पणो अंगुलेणं दुवालस अंगुलाई मुहं नवमुहाई पुरिसे पमाणजुत्ते भवइ, दोणीए पुरिसे माणजुत्ते भवइ, अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ । गाहा - माणम्माणप्यमाणतुत्ता, लक्खणवंजणगुणेह उववेया । उत्तमकुलप्पसूया, उत्तमपुरिसा मुवा ॥१॥ होंति पुण अहिषपुरिसा, अट्ठसयं अंगुलाण उव्विद्धा । छउ अहमपुरिसा, चउरुत्तरा मज्झिमिल्ला उ ॥२॥ होणा वा अहिया वा जे खलु सर-सत-सारपरिहीणा । ते उत्तमपुरिसार्ण, अवसा पेसत्तणमुति ||३|| ३१. एएवं अंगुलरयमाणेनं अंगु लाई पाओ, दो पाया विस्थी, दो विहवीओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छी, दो कुच्छीओ दंडं धणू जुगे नालिया अक्ले मुसले दो धणसह स्साई गाउयं चत्तारि गाउयाई जोय || ३२. एएवं आवंगुलप्यमाणेणं कि पओयणं ? एएवं आयंगुलप्य माणेणं जे णं जया मणुस्सा भवंति तेसि णं तया अप्पणो अंगुलेणं अगड-तलाम-दह-नदी-वावीइ-नदी-वावी पुरखरिणो दोहिया गुंजालियाओ सरा सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ बिलतियाओ आरामुज्जाण काणण-वण-वणसंड-वण राइओ देवकुल- सभापवा बूम खाइय अथ किस अंगुल ? अंगुल त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— आत्मागुलः उत्सेधांगुलः प्रमाणांगुलः । अथ कि स आत्मगुणः ? आत्मगुल ये यदा मनुष्याः भवन्ति तेषां तदा आत्मनो अंगुलेन द्वादश अंला मुखम् नवमुखानि पुरुषः प्रमाणयुक्तो भवति, द्रोणिक: पुरुष: मानयुक्तो भवति, अर्द्धभारं तुलयन् पुरुष: उन्मानयुक्तो भवति । गाथामानोन्यानप्रमाणका क्ष उपेताः । उत्तमकुलप्रसूताः, उत्तमपुरुषाः ज्ञातव्याः ||१|| भवन्ति पुनः अधिकपुरुषाः, अष्टम् गुलानाम् उदाः । षण्णवतिः अधमपुरुषा:, चतुरुत्तराः मध्यमास्तु ॥२॥ हीना वा अधिक वा, ये ते उत्तमपुरुषाणाम्, अवशाः प्रेष्यत्वमुपयान्ति ॥३॥ स्वर-सस्य-सारपरिहीनाः । एतेन अंगुलमान गु पाद:, द्वौ पादौ वितस्तिः, द्वे वितस्ती रजिः ई रत्नी कुलि कुक्षी कुक्षिः, द्व े दण्डं धनुः युगं नालिका अक्षः मुशलः, धनुः स म्पूतं चत्वारि न्यू तानि योजनम् । एतेन आत्मगलमान कि प्रयोजनम् ? एलेन आरमांप्रमाणेन ये यदा मनुष्याः भवन्ति तेषां तदा आत्मनः अंगुलेन 'अगड' - तडाग-द्रहनदी-वापी-पुष्करिणी दीर्घिका गुञ्जालिकाः सरांसि सरपङ्क्तयः सरसरपतय: विलपतय: बारामोद्यानकानन वन-वनषण्ड- वनराजयः देवकुल सभा-प्राखातिका परिचाः, प्राकार अट्टारिक द्वार-गोपुर ३८९. वह अंगुल क्या है ? २२५ अंगुल के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआत्मांगुल, उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल ।" ३९०. वह आत्मांगुल क्या है ? आत्मांगुल - जिस समय जो मनुष्य होते हैं उनके अपने अंगुल से बारह अंगुल का मुख होता है। नव मुख जितना पुरुष प्रमाण युक्त होता है । द्रोणिक पुरुष मान युक्त होता है। अर्धभार जितने तोल वाला पुरुष उन्मान युक्त होता है। गाथा १. मान, उन्मान और प्रमाण से युक्त, लक्षण, व्यञ्जन और क्षान्ति आदि गुणों से उपेत तथा उत्तम कुल में उत्पन्न होने वाले उत्तम पुरुष होते हैं । २. उत्तम पुरुष की ऊंचाई एक सौ आठ [१०८] अंगुल की होती है। अधम पुरुष की ऊंचाई छियानवे (९६) अंगुल की होती है और मध्यम पुरुष की ऊंचाई एक सौ चार [१०४] अंगुल की होती है । ३. जो व्यक्ति स्वर, सत्व और सार से हीन होते हैं वे उक्त प्रमाण से हीन हों या अधिक उत्तम पुरुषों के परतंत्र होकर प्रेष्यत्व को प्राप्त करते हैं ।" ३९१. इस अंगुल प्रमाण से छह अंगुल का पाद [पांव का अग्रभाग ], दो पाद की वितरित दो वितस्ति की रत्नि, दो रत्नि की कुक्षि, दो कुक्षि का दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष और मुसल होता है, दो हजार धनुष का गव्यूत [ एक कोश ] और चार गव्यूत का एक योजन होता है। ३९२. इस आत्मांगुल प्रमाण का क्या प्रयोजन है? 1 इस आत्मांगुल प्रमाण से जिस समय जो मनुष्य होते हैं, उस समय उनके अपने अंगुल से कूप, तालाब, द्रह, नदी, बावड़ी, पुष्करिणी का जालासर सरपंक्तिका सरसरपंक्तिका पंक्तिका आराम, उद्यान, कानन, वन, वनषण्ड, वनराजि, देवकुल, सभा, प्रपा, स्तूप, खाई, परिखा, प्राकार, अट्टालक, चरिका द्वार, गोपुर Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ अणुओगदाराई परिहाओ, पागार-अढालय-चरिय- प्रासाद-गृह-शरण-लयन-आपण शृङ्गादार-गोपुर-पासाय-घर-सरण-लेण- टक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर-चतुमुख-महाआवण-सिंघाडग-तिग-च उक्क- पथ-पथ-शकट-रथ-यान-युग्य-'गिल्लिचच्चर-चउम्मुह-महापह-पह-सगड- थिल्लि'-शिबिका-स्यन्दमानिका: लौहीरह-जाण-जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि- लोहकटाह-'कडुच्छ्य'-आसन-शयनसीय-संदमाणियाओ लोही-लोहक- स्तम्भ-भाण्डाऽमात्रोपकरणादीनि, डाह-कडुच्छुय-आसण-सयण-खंभ- अद्यकालिकानि च योजनानि मीयन्ते। भंडमत्तोवगरणमाईणि, अज्जकालियाई च जोयणाई मविज्जंति ॥ प्रासाद, घर, शरण, लयन, आपण, शृङ्गाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ, पथ, शकट, रथ, यान, युग्य,, गिल्लि, थिल्लि, शिविका, स्यन्दमानिका, लौही, लोहकटाह, करछी, आसन, शयन, स्तम्भ, भाण्ड, अमत्र आदि उपकरण और आजकल के तत्कालीन] योजन नापे जाते हैं।' ३६३. से समासओ तिविहे पण्णत्ते, स: समासत: त्रिविधः प्रज्ञप्तः, ३९३ वह संक्षेप में तीन प्रकार का है, जैसे- सूची तं जहा-सूईअंगुले पयरंगुले घणं- तद्यथा--सूच्यंगुलः प्रतरांगुलः घना- अंगुल, प्रतरअंगुल, और घनअंगुल । गुले । अंगुलायया एगपएसिया सेढी गुलः। अंगलायता एकप्रादेशिकी ___एक अंगुल लम्बी एक प्रदेश वाली श्रेणी सूईअंगुले। सूई सूईए गुणिया श्रेणिः सूच्यंगुलः। सूचिः सूच्या गणिता सूचीअंगुल है। सूचीअंगुल से गुणित सूचीपपरंगुले। पयरं सूईए गुणितं प्रतरांगुलः । प्रतरः सूच्या गुणित: अंगुल प्रतर अंगुल है। सूचीअंगुल से गुणित घणंगुले ॥ घनांगुलः । प्रतरअंगुल धनअंगुल है। ३६४. एएसि णं भंते ! सूई अंगुल- एतेषां भदन्त ! सूच्यंगुल- ३९४. भन्ते ! वह सूचीअंगुल, प्रतरअंगुल और पयरंगुल-घणंगुलाणं कयरे कयरे- - प्रतरांगुल-धनांगुलानां कतरः कतरेभ्यः घनअंगुल में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य हितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा अल्पं वा बहु वा तुल्यं वा विशेषाधिकं अथवा विशेषाधिक है ? विसेसाहिए वा? सब्वत्थोवे सूई- वा? सर्वस्तोक: सूच्यंगुलः, प्रतरांगुल: सूचीअंगुल सबसे छोटा है, प्रतरअंगुल उससे अंगुले, पयरंगुले असंखेज्जगुणे, असंख्येयगुणः, घनांगुलः असंख्येयगुणः। असंख्येय गुना है और घनअंगुल उससे घणंगुले असंखेज्जगुणे। से तं स एष आत्मांगुलः।। असंख्येय गुना है । वह आत्मांगुल है।' आयंगुले ॥ ३६५. से कि तं उस्सेहंगले ? उस्से- अथ कि स उत्सेधांगला ? उत्से- ३९५. वह उत्सेधांगुल क्या है ? हंगुले अणेगविहे पण्णत्ते, तं धांगुल: अनेकविधः प्रज्ञप्तः, उत्सेधांगुल [की कारण सामग्री के अनेक जहातद्यथा प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेगाहा-- गाथा गाथा-- परमाणू तसरेणू, परमाणुः त्रसरेणुः, परमाणु, त्रसरेणु, रथरेण, बालाग्र, लिक्षा, रहरेण अग्गयं च वालस्स। रथरेणु: अग्रकं च बालस्य। यूका और यव। ये क्रमशः आठ-आठ गुण लिक्खा जूया य जवो, लिक्षा यूका च यवः, अधिक हैं।" अट्ठगुणविवड्डिया कमसो॥१। अष्टगुणविधिता क्रमशः ॥१॥ ३६६. से कि तं परमाणु ? परमाणु अथ किं स परमाणुः ? परमाणुः ३९६. वह परमाणु क्या है ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुहमे य द्विविध: प्रज्ञप्त:, तद्यथा-सूक्ष्मश्च परमाणु के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे ---- वावहारिए य ।। व्यावहारिकश्च । सूक्ष्म और व्यावहारिक । ३६७. तत्थ सुहमो ठप्पो । तत्र सूक्ष्म: स्थाप्यः । ३९७. इनमें जो सूक्ष्म है वह स्थापनीय है । ३६८. से कि तं वावहारिए ? वाव- अथ किं स व्यावहारिकः? ३९८. वह व्यावहारिक परमाणु क्या है ? हारिए-अणंताणं सुहमपरमाण- व्यावहारिक: - अनन्तानां सूक्ष्म- व्यावहारिक परमाणु-अनन्त सूक्ष्म परपोग्गलाणं समूदय-समिति-समाग- परमाणुपद्गलानां समुदय-समिति- माणुपुद्गलों के समुदय, समिति और समागम Jain Education Intemational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां प्रकरण : सूत्र ३६३-३६८ मेणं से एगे वावहारिए परमाणु पोग्यले निष्कञ्जइ । १. से णं भंते ! असिधारं वा सुरधारं वा ओगाहेन्ना ? हंता ओगाहेज्जा से गं तर छिम्जेज्ज | तत्थ वा भिज्जेज्ज वा ? नो इणमट्ठे समट्ठे नो लु तत्थ सत्थं कमइ । २. से णं भंते । अगणिकायस्स मज्मणं वीइवएज्जा ? हंता वीइवएज्जा | से णं तत्थ डहेज्जा ? नो इणमट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थ सत्थ कमइ । | ३. से गं भंते! पोक्लबट्टगरस महामेहस्स मज्मणं वीइवएन्जा ? हंता बीइवएज्जा से णं तत्थ उदउल्ले सिया ? नो इणमट्ठे समट्ठे, नो खलु सत्थं कमइ । तत्थ ४. से ण भंते! गंगाए महानईए पडिसोयं हव्वमागच्छेज्जा ? हंता हय्य मागच्छेजा। से णं तत्थ विणिधायमाज्जेज्जा ? नो इणमट्ठे समट्ठे न खलु तत् सत्यं कमइ । ५. से णं भते उदगाव या उदगबंदु वा ओगाहेज्जा ? हंता ओगाहेज्जा | से णं तत्थ कुच्छेज्ज वा परियावज्जेज्ज वा ? नो इणमट्ठे समट्ठे नो खलु तत्थ सत्यं कमइ । गाहा— सत्वे सुतिले वि छेत्तुं भेत्तुं च जं किर न सक्का । तं परमाणं सिद्धा ययंति आई पमाणाणं ॥ १ ॥ समागमेन त एक व्यावहारिकः परमाणुपुद्गलः निष्पद्यते । १. स भदन्त ! असिधारा वा क्षुरधारा वा अवगाहेत? हा अवगाहत । हन्त स तत्र छितवानित वा? नो अयमर्थः समर्थः नोख तत्र शस्त्रं क्रामति । " २. स भदन्त ! अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत् ? हन्त व्यतिजे ? स तत्र दह्येत ? नो अयमर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं क्रामति । ३. स भवन्त ! पुष्करसंवर्तकस्य महामेघस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत् ? हन्त व्यतियजेत्। स त उनका तत्र स्यात ? नो अयमर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं क्रामति । ४. स भदन्त ! गङ्गायाः महानद्याः प्रतिस्रोतः 'हवं' आगच्छेत् ? हन्त 'हवं' आगच्छेत तत्र विनि घातमापद्येत ? नो अयमर्थः समर्थः, तत्र शस्त्रं श्रामति । ५. स भदन्त ! उदकावर्त्त वा उदकबिंदु वा अवगाहेत ? हन्त अवगाहेत । स तत्र कुथ्येत् वा पर्यापद्येत वा ? नो अयमर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं श्रामति । गाथा शस्त्रेण सुतीक्ष्णेन अपि, छेत्तुं भेत्तुं च यः किल न शक्यः । तं परमाणुं सिद्धा वदन्ति आदि प्रमाणानाम् ||१|| २२७ से एक व्यावहारिक परमाणुपुद्गल निष्पन्न होता है । १. भन्ते ! क्या वह परमाणु असिधारा या क्षुरधारा का अवगाहन करता है ? हां करता है । भन्ते ! क्या वह अवगाह्न करने पर छिन्न या भिन्न होता है ? ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि उसमें शस्त्र का संक्रमण नहीं होता । २. भन्ते ! क्या वह परमाणु अग्निकाय के बीचों बीच जाता है ? हां जाता है। भन्ते ! क्या वह वहां जलता है ? ऐसा नहीं होता, क्योंकि उसमें [अग्नि] शस्त्र का संक्रमण नहीं होता । ३. भन्ते ! क्या वह परमाणु पुष्करसंवर्तक आदि महामे के बीचों बीच से जाता है ? हां जाता है । भन्ते ! क्या वह वहां पर उदक से आर्द्र होता है ? ऐसा नहीं होता. क्योंकि उसमें [ उदक ] शस्त्र का संक्रमण नहीं होता । ४. भन्ते ! क्या वह परमाणु महानदी गंगा के प्रतिस्रोत में आता है ? हां आता है । भन्ते ! क्या वह वहां स्खलित होता है ? ऐसा नहीं होता क्योंकि उसमें [ उदक] शस्त्र का संक्रमण नहीं होता । ५. भन्ते ! क्या वह परमाणु उदकावर्त अथवा उदक बिन्दु का अवगाहन करता है ? हां करता है । भन्ते ! क्या वह सड़ान्ध या पर्यायान्तर को प्राप्त होता है ? ऐसा नहीं होता, क्योंकि उसमें [ उदक ] शस्त्र का संक्रमण नहीं होता । गाथा १. सुतीक्ष्ण शस्त्र से भी जिसका छेदन- भेदन नहीं किया जा सकता उस [ व्यावहारिक] परमाणु को सिद्ध पुरुष (केवली) प्रमाणों का आदि बतलाते हैं।" Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ अणुओगदाराई ३६६. अणंताणं वावहारियपरमाणु- अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणु- ३९९. अनन्त व्यावहारिक परमाणुपुदगलों के समु पोग्गलाणं समुदय-समिति-समाग- पुद्गलानां समुदय-समिति-समागमेन दय, समिति और समागम से एक उत्श्लक्ष्णमेणं सा एगा उसण्हसण्डिया इ सा एका उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणका इति वा, श्लक्षिणका, श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, ऊर्ध्व रेणु, त्रसवा, सण्हसण्डिया इवा, उड्ढरेणू श्लक्ष्णश्लक्षिणका इति वा, ऊर्ध्वरेणुः रेणु, रथरेणु (बालाग्र, लिक्षा, यूका, यवइवा, तसरेणू इ वा, रहरेण इ इति वा, त्रसरेणुः इति वा, रथरेणुः मध्य और अंगुल) होता है। वा, (वालग्गे इ वा, लिक्खा इ वा, इति वा (बालानम् इति वा, लिक्षा आठ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका की एक श्लक्ष्णजया इवा, जवमझे इ वा, अंगुले इति वा, यूका इति वा यवमध्यः इति श्लक्ष्णिका, आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका का एक इवा?)। अटू उसण्हसण्हियाओ वा, अंगुलः इति वा ?)। अष्ट ऊर्ध्वरेणु, आठ ऊर्वरेणु का एक त्रसरेणु, सा एगा सहसण्हिया, अट्ठ सह- उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणकाः सा एका श्लक्ष्ण- आठ त्रसरेणु का एक रथ रेणु, आठ रथरेणु सण्हियाओ सा एगा उड्ढरेण, अट्ठ ___श्लक्षिणका, अष्ट श्लक्ष्णश्लक्षिणकाः का देवकुरु और उत्तरकुरु के मनुष्यों का उड्रेणओ सा एगा तसरेणू, अट्ठ सा एका उर्ध्वरेणुः, अष्ट उर्ध्वरेणवः एक बालाग्र, देवकुरु और उत्तरकुरु के तसरेणओ सा एगा रहरेण, अट्ट सा एका त्रसरेणुः, अष्ट त्रसरेणव: मनुष्यों के आठ बालाग्र का हरिवर्ष और रहरेणओ देवकुरु-उत्तरकुरुगाणं सा एका रथरेणः, अष्ट रथरेणव: रम्यवर्ष के मनुष्यों का एक बालाग्र, मणस्साण से एगे वालग्गे, अट्ट देवकुरु-उत्तरजानां मनुष्याणां तदेक हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष के मनुष्यों के देवकुरु-उत्तरकुरुगाणं मणुस्साणं बालाग्रम्, अष्ट देवकुरु-उत्तरकुरु- आठ बालाग्र का हैमवत और हैरण्यवत के वालग्गा हरिवास-रम्मगवासाणं जानां मनुष्याणां बालाग्राणि हरिवर्ष- मनुष्यों का एक बालाग्र, हैमवत और हैरण्यवत मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्ट रम्यकवर्षाणां मनुष्याणां तदेक के मनुष्यों के आठ बालान का पूर्व विदेह और हरिवास-रम्मगवासाणं मणुस्साणं बालानम्, अष्ट हरिवर्ष- अपरविदेह के मनुष्यों का एक बालान, पूर्ववालग्गा हेमवय-हेरण्णवयाणं रम्यकवर्षाणां मनुष्याणां बालाग्राणि विदेह और अपरविदेह के मनुष्यों के आठ मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्ट हैमवत-हैरण्यवतानां मनुष्याणां तदेक बालाग्र का भरत और ऐरवत के मनुष्यों का हेमवय-हेरग्णवयाणं मणुस्साणं बालाग्रम्, अष्ट हैमवत-हैरग्यवतानां एक बालाग्र, भरत और ऐरवत के मनुष्यों के वालग्गा पुव्व विदेह-अवरविदेहाणं मनुष्याणां बालाग्राणि पूर्वविदेह- आठ बालाग्र की एक लिक्षा, आठ लिक्षा की मणस्साणं से एगे वालग्गे, अट्ठ अपरविदेहाना मनुष्याणां तदेकं बाला- एक यूका, आठ यूका का एक यवमध्य और पुवविदेह-अवरविदेहाणं मणुस्साणं ग्रम्, अष्ट पूर्वविदेह-अपरविदेहानां आठ यवमध्यों का एक उत्सेधांगुल होता है। वालग्गा भरहेरवयाणं मणुस्साणं मनुष्याणां बालाग्राणि भरतैरवतानां से एगे वालग्गे, अट्ट भरहेरवयाणं मनुष्याणां तदेकं बालाग्रम्, अष्ट मणुस्साणं वालग्गा सा एगा भरतैरवतानां मनुष्याणां बालाग्राणि लिक्खा, अट्र लिक्खाओ सा एगा सा एका लिक्षा, अष्ट लिक्षा: सा एका जूया, अट्ठ जयाओ से एगे जव- यूका, अष्ट यूकाः स एक: यवमध्यः, मज्झ, अट्ट जवमझा से एगे अष्ट यवमध्याः स एक: उत्सेधांगुलः । उस्सेहंगुले ॥ ४००. एएणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगु- एतेन अंगुलप्रमाणेन षडंगुला: लाइं पादो, बारस अंगुलाई पादः, द्वादश अंगुला: वितस्तिः, विहत्थी, चउवीसं अंगुलाई रयणी, चतुर्विंशति: अंगुलाः रनि:, अष्टअडयालीसं अंगुलाई कुच्छी, चत्वारिंशत् अंगुला: कृक्षिः षण्णछन्नउई अंगुलाई से एगे दंडे इ वा वतिः अंगुला: सः एकः दण्डः इति धण इ वा जुगे इ वा नालिया इ वा धनुः इति वा युगम् इति वा वा अक्खे इ वा मुसले इवा, एएणं नालिका इति वा अक्ष: इति बा धणुप्पमाणेणं दो घणुसहस्साइं। मुसलः इति वा, एतेन धनुःप्रमाणेन गाउयं, चत्तारि गाउयाई द्वधनुस्सहस्र गव्यूतं, चत्वारि गव्यूजोयणं॥ तानि योजनम् । ४००. इस अंगल प्रमाण से छह अंगुल का पाद, बारह अंगुल की वितस्ति, चौबीस अंगुल की रत्नि, अड़तालीस अंगुल की कुक्षि और छियानवें अंगुल का एक दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मुसल होता है। इस धनुष प्रमाण से दो हजार धनुष का एक गव्यूत [कोस] और चार गव्यूत का एक योजन होता है। Jain Education Intemational Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां प्रकरण : सूत्र ३६९-४०६ २२६ ४०१. एएणं उस्सेहंगलेणं कि पओ- एतेन उत्सेधांगलेन कि प्रयोज- ४०१. इस उत्सेधांगुल का क्या प्रयोजन है ? यणं? एएणं उस्सेहंगुलेणं नेरइय- नम् ? एतेन उत्सेधांगुलेन नैरयिक- इस उत्सेधांगुल से नैरयिक, तिर्यक्तिरिक्खजोणिय-मणस्स-देवाणं तिर्यग्योनिक-मनुष्य-देवानां शरीराव- योनिक, मनुष्य और देवों के शरीर की सरीरोगाहणाओ मविज्जति ॥ गाहना मीयन्ते। अवगाहना नापी जाती है । ४०२. नेरइयाणं भंते ! केमहालिया नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्- ४०२. भन्ते ! नैरयिक जीवों के शरीर की अव सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा! महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ? ___गाहना कितनी बड़ी है ? दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भव- गौतम ! द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा गौतम ? शरीरावगाहना के दो प्रकार प्रज्ञप्त धारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। भवधारणीया च उत्तरक्रिया च । हैं, जैसे-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । तत्थ णं जासा भवधारणिज्जा सा तत्र या एषा भवधारणीया सा ___ इनमें भवधारणीय अवगाहना जघन्यत: अंगुल जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयतमभागम्, के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्टत: पांच उक्कोसेणं पंच धणसयाई। तत्थ उत्कर्षेण पंव धनुःशतानि । तत्र या सौ धनुष्य की होती है। णं जासा उत्तरवेउब्विया सा एषा उत्तरवैक्रिया सा जघन्येन उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के जहणणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, अंगुलस्य संख्येयतमभागम्, उत्कर्षेण । संख्यातवें भाग की और उत्कृष्टतः एक हजार उक्कोसेणं धणुसहस्सं ॥ धनुःसहस्रम् । धनुष्य की होती है।१२ ४०३. रयणप्पभापुढवीए नेरइयाणं रत्नप्रभापृथिव्याः नरयिकाणां ४०३. भन्ते ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा __भदन्त ! कियन्महती शरीरावगाहना शरीरावगाहना कितनी बड़ी है ? पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा प्रज्ञप्ता ? गौतम ! द्विविधा प्रज्ञप्ता, गौतम ! अवगाहना के दो प्रकार प्रज्ञप्त पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा तद्यथा-भवधारणीया च उत्तर- हैं, जैसे-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । य उत्तरवेउविया य। तत्थ णं वैक्रिया च । तत्र या एषा भव इनमें भवधारणीय अवगाहना जघन्यतः जासा भवधारणिज्जा सा जहण्णणं __ धारणीया सा जघन्येन अंगुलस्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्टतः अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्को- ___ असंख्येयतमभागम्, उत्कर्षेण सप्त सात धनुष्य, तीन रत्नि और छह अंगुल की सेणं सत्त धणइं तिण्णि रयणीओ धनूंषि तिस्रः रत्नयः षट् च अंगुलाः। होती है। छच्च अंगलाई। तत्थ णं जासा ___ तत्र या एषा उत्तरवैक्रिया सा उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्यतः अंगुल उत्तरवेउब्विया सा जहणणं जघन्येन अंगुलस्य संख्येयतमभागम्, के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्टत: पन्द्रह अंगुलस्स संखेज्ज इभागं, उक्कोसेणं उत्कर्षेण पञ्चदश धनूंषि द्वे रत्नी धनुष्य, दो रत्नि और बारह अंगुल की होती पण्णरस धणइं दोण्णि रयणीओ द्वादश अंगुलाः। बारस अंगुलाई॥ ४०४. एवं सवाणं दुविहा–भवधार- एवं सर्वासा द्विविधा-भव- ४०४ इस प्रकार सब पृथ्वियों के नैरयिकों की दो णिज्जा जहणणं अंगुलस्स असं- धारणीया जघन्येन अंगुलस्य असंख्येय- प्रकार की [शरीरावगाहना] है-भवधारणीय खेज्जइभागं, उक्कोसेणं दुगुणा तमभागम, उत्कर्षेण द्विगुणा द्विगुणा। जघन्यत: अंगुल के असंख्यातवें भाग की और दुगुणा । उत्तरवेउव्विया जहण्णणं __उत्तरवैक्रिया जघन्येन अंगुलस्य उत्कृष्टत: दुगुनी-दुगुनी होती हैं। अंगुलस्त संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं संख्येयतमभागम, उत्कर्षेण द्विगुणा उत्तरवैक्रिय जघन्यतः अंगुल के संख्यादुगुणा दुगुणा ॥ द्विगुणा। तवें भाग की और उत्कृष्टतः दुगुनी-दुगुनी होती है। ४०५. एवं असुरकुमाराईणं जाव एवम् असुरकुमारादीनां यावद् ४०५. इस प्रकार असुरकुमार से अनुत्तरविमान अणत्तरविमाणवासीणं सगसगस- अनुत्तरविमानवासिनां स्वकस्वक- वासी देवों तक अपनी-अपनी शरीरावगाहना रीरोगाहणा भाणियव्वा ॥ शरीरावगाहना भणितव्या। प्रतिपादनीय है। [देखें प्रज्ञापना पद २१] ४०६. से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तं स समासत: त्रिविधः प्रज्ञप्तः, ४०६. उत्सेधांगुल के संक्षेप में तीन प्रकार प्रज्ञप्त जहा-सूइअंगुले पयरंगुले घणं- तद्यथा-सूच्यंगुलः प्रतरांगलः घना- हैं, जैसे -सूचीअंगुल, प्रतरअंगुल और धन Jain Education Intemational Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० अणुओगदाराई गुले। अंगुलायया एगपएसिया गुल: । अंगलायता एकप्रादेशिकी सेढी सूईअंगुले । सूई सूईए गुणिया श्रेणिः सूच्यंगुलः । सूचिः सून्या पयरंगुले। पयरं सूईए गुणितं गुणिता प्रतरांगुलः । प्रतरः सूच्या घणंगुले ॥ गुणित: घनांगुलः । अंगुल । ___एक अंगुल लम्बी एक प्रदेशवाली श्रेणी सूचीअंगुल है । सूचीअंगुल से गुणित सूचीअंगुल प्रतरअंगुल है। सूचीअंगुल से गुणित प्रतरअंगुल घनअंगुल है। ४०७. एएसि णं सूईअंगुल-पयरंगुल- एतेषां सूच्यंगुल-प्रतरांगुल-घना- ४०७. इन सूचीअंगुल, प्रतरअंगुल और धनअंगुल घणंगुलाणं कयरे कयरेहितो अप्पे गुलानां कतर: कतरेभ्यः अल्पं वा में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य अथवा वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए बहु वा तुल्यं वा विशेषाधिकं वा ? विशेषाधिक है? वा? सव्वत्थोवे सूईअंगुले, पयरं- सर्वस्तोकः सूच्यंगुलः, प्रतरांगुल: सूचीअंगुल सबसे छोटा है, प्रतरअंगुल गुले असंखेज्जगुणे, घणंगुले असंख्येयगुणः घनांगुलः असंख्येयगुणः ।। उससे असंख्येय गुना है और धनअंगुल उससे असंखेज्जगुणे । से तं उस्सेहंगुले ।। असंख्येय गुना है । वह उत्सेधांगुल है । ४०८. से कि तं पमाणंगुले? अथ किं स प्रमाणांगुलः ? ४०८. वह प्रमाणांगुल क्या है ? पमाणंगुले-एगमेगस्स णं प्रमाणांगुलः एकैकस्य राज्ञः चातु- प्रमाणांगुल-प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती रणो चाउरंतचक्कवट्टिस्स रन्तचक्रवर्तिनः अष्टसौणिकं काकणी- राजा का काकणी रत्न आठ सुवर्ण जितने असोवण्णिए कागणिरयणे छत्तले रत्नं षट्तलं द्वादशास्रिकम् अष्ट- वजन वाला, छह तल, बारह भुजा और आठ दुवालसंसिए अट्टकण्णिए अहिगर- कणिकं अधिकरणिसंस्थानसस्थितं कोण वाला तथा अहरन के संस्थान से संस्थित णिसंठाणसंठिए पण्णत्ते । तस्स णं प्रज्ञप्तम्। तस्य एका कोटि: होता है। उसकी प्रत्येक भुजा उत्सेधांगुल के एगमेगा कोडी उस्सेहंगुलविक्खंभा, उत्सेधांगुलविष्कम्भा, स धमणस्य समान चौड़ाई वाली है, वह श्रमण भगवान् तं समणस्स भगवओ महावीरस्स भगवतः महावीरस्स अर्धांगुलः, स महावीर का अर्धअंगुल होता है, वह सहस्र अद्धंगुलं, तं सहस्सगुणियं पमाणं- सहस्रगुणित: प्रमाणांगल: भवति । गुना होने पर प्रमाणांगुल होता है।" गुलं भवइ ॥ ४०६. एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई एतेन अंगुलप्रमाणेन षडंगुला: ४०९. अंगुलप्रमाण से छह अंगुल का पाद, बारह पादो, दो पाया विहत्थी, दो पादः, द्वौ पादौ वितस्तिः, द्व वितस्ती अंगुल की वितस्ति, दो वितस्ति की रत्नि, विहत्थीओ रयणी, दो रयणीओ रनिः, द्वे रत्नी कुक्षिः, द्वे कुक्षी दो रत्नि की कुक्षि, दो कुक्षि का धनुष, दो कुच्छी, दो कुच्छीओ धण, दो धण- धनुः, द्वे धनुःसहस्र गव्यूतं, चत्वारि हजार धनुष का गव्यूत और चार गव्यूत का सहस्साइं गाउयं, चत्तारि गाउ- गव्यूतानि योजनम् । एक योजन होता है। याई जोयणं ॥ ४१०. एएणं पमाणंगुलेणं कि पओ- एतेन प्रमाणांगुलेन कि प्रयोज- ४१०. इस प्रमाणांगुल का क्या प्रयोजन है ? यणं? एएणं पमाणंगुलेणं पुढवीणं __ नम्? एतेन प्रमाणांगलेन पृथिवीनां इस प्रमाणांगुल से पृथ्वियां, काण्ड, कंडाणं पातालाणं भवणाणं भवण- काण्डानां पातालानां भवनाना भवन पाताल, भवन, भवनप्रस्तट, नरक, नरकावलि, पत्थडाणं निरयाणं निरयावलियाणं प्रस्तटानां निरयाणां निरयावलिकानां नरकप्रस्तट, कल्प, विमान, विमानश्रेणी, निरयपत्थडाणं कप्पाणं विमाणाणं निरयप्रस्तटानां कल्पानां विमानानां विमानप्रस्तट, टंक, कूट, शैल, शिखरी, विमाणावलियाणं विमाणपत्थडाणं विमानावलिकानां विमानप्रस्तटानां प्राग्भार, विजय, वक्षस्कार, वर्ष, वर्षधर टंकाणं कडाणं सेलाणं सिहरीणं टङ् कानां कूटानां शैलानां शिखरिणां पर्वत, वेला, वेदिका, द्वार, तोरण तथा द्वीपपब्भाराणं विजयाणं वक्खाराणं प्रारभाराणां विजयानां वक्षस्काराणां समुद्रों की लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई वासाणं वासहराणं पन्वयाणं वर्षाणां वर्षधराणां पर्वतानां वेलानां और परिधि मापी जाती है। वेलाणं वेइयाणं दाराणं तोरणाणं वेदिकानां द्वाराणां तोरणानां द्वीपानां दोवाणं समुद्दाणं आयाम-विक्खंभ- समुद्राणाम् आयाम-विष्कम्भ-उच्चत्व Jain Education Intemational Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां प्रकरण : सूत्र ४०७-४१२ २३१ उच्चत्त-उव्वेह-परिक्खेवा मवि- उद्वेध-परिक्षेपा: मीयन्ते । ज्जति ॥ ४११. से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तं स समासत: त्रिविधः प्रज्ञप्तः, ४११. संक्षेप में उसके तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे जहा-सेढीअंगुले पयरंगुले घणं- तद्यथा-श्रेण्यंगुल: प्रतरांगुलः धनां- श्रेणीअंगुल, प्रतरअंगुल और घनअंगुल । गुले। असंखेज्जाओ जोयणकोडा- गलः । असंख्येया योजनकोटीकोट्यः ___ असंख्य कोडाकोड़ योजन की एक श्रेणी कोडीओ सेढी, सेढी सेढोए गुणिया श्रेणिः, श्रेणिः श्रेण्या गुणिता प्रतरः, होती है, श्रेणी को श्रेणी से गुणित करने पर पयर, पयरं सेढोए गुणियं लोगो, प्रतरः श्रेण्या गुणित: लोकः, संख्येयेन प्रतर और प्रतर को श्रेणी से गुणित करने संखेज्जएणं लोगो गुणितो संखेज्जा लोक: गुणित: संख्येया: लोकाः, पर लोक होता है। लोक को संख्येय से लोगा, असंखेज्जएणं लोगो गुणितो असंख्येयेन लोक: गुणित: असंख्येया: गुणित करने पर संख्येय लोक और असंख्येय असंखेज्जा लोगा। लोकाः । से गुणित करने पर असंख्येय लोक होते ४१२. एएसि णं सेढोअंगुल-पयरंगुल- एतेषां श्रेण्यंगुल-प्रतरांगुल-घना घणंगलाणं कयरे कयरेहितो अप्पे गुलानां कतरः कतरेभ्यः अल्पं वा वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए बहु वा तुल्यं वा विशेषाधिकं वा ? वा? सम्वत्थोवे सेढीअंगले, पय- सर्वस्तोक: श्रेण्यंगुलः, प्रतरांगुलः रंगले असंखेज्जगुणे, घणंगुले असंख्येयगुणः, घनांगुल: असंख्येयअसंखेज्जगुणे। से तं पमाणंगले। गुणः । स एष प्रमाणांगुलः । तदेतद् से तं विभागनिष्फण्णे। से तं विभागनिष्पन्नम्। तदेतत् क्षेत्रखेत्तप्पमाणे ॥ प्रमाणम् । ४१२. इन श्रेणीअंगुल, प्रतरअंगुल और घनअंगुल में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? __ श्रेणीअंगुल सबसे छोटा है, प्रतरअंगुल उससे असंख्येय गुना है और घनअंगुल उससे असंख्येय गुना है । वह प्रमाणांगुल है। वह विभागनिष्पन्न है। वह क्षेत्र प्रमाण है। Jain Education Intemational Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र ३६९ १. (सूत्र ३६६) जो मान अथवा माप का साधन है उसका नाम है प्रमाण ।' प्रमाण मीमांसा अथवा तर्कशास्त्र में प्रमाण का सम्बन्ध केवल ज्ञान से होता है। प्रस्तुत प्रकरण में प्रमाण शब्द का व्यापक प्रयोग किया गया है। प्रमेय के चार प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । इस चतुर्विध प्रमेय के आधार पर प्रमाण के भी चार विभाग किए गए हैंप्रमेय प्रमाण द्रव्य द्रव्य क्षेत्र क्षेत्र काल काल भाव भाव सूत्र ३७०-३७२ २. (सूत्र ३७०-३७२) द्रव्य प्रमाण के दो प्रकार हैं-१. प्रदेशनिष्पन्न २. विभागनिष्पन्न । प्रदेशनिष्पन्न प्रमाण अपने प्रदेशों (अवयवों) से निष्पन्न होता है। इसमें मेय और मापक पृथक्-पृथक् नहीं होते । वस्तुगत प्रदेश (अवयव) ही उसके मापक बनते हैं जैसे परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध ।' जिसमें मेय और मापक पृथक्-पृथक् होते हैं उसका नाम है विभागनिष्पन्न । जैसे-१ किलो गेहं, १ क्विटल बाजरा आदि । विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण के पांच प्रकार हैं१. मान-जिससे लम्बाई और चौड़ाई का माप किया जाए। २. उन्मान—जिससे वजन तोला जाए। ३. अवमान-जिससे लम्बाई, चौड़ाई और गहराई का माप किया जाए। ४. गण्य–जिससे गणना की जाए। ५. प्रतिमान—जिससे मूल्यवान् वस्तुएं तोली जाएं। सूत्र ३७३-३७७ ३. (सूत्र ३७३-३७७) मान दो प्रकार का होता है-धान्यमान प्रमाण और रसमान प्रमाण । असृति, प्रसृति, सेतिका, कुडव, प्रस्थक आदि धान्यमान प्रमाण है। इनसे धान्य का माप किया जाता है। द्रव पदार्थों का प्रमाण जानने के लिए चतुःषष्टिका, द्वात्रिशिका आदि का उपयोग होता रहा है । इसे रसमान प्रमाण कहा गया है। १. अहाव. पृ. ७५ : प्रमीयत इति प्रमितिर्वा प्रमीयते वा अनेनेति प्रमाणं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं इत्यादि, प्रमेयभेदात् द्रव्यादयोऽपि प्रमाणम् । २. वही, प्रदेशनिष्पन्न परमाण्वाद्यनंतप्रदेशिकांतं, स्वात्मनिष्पन्नत्वादस्य तथा चाण्यादिमानमिति"विविधो भागः विभागः- विकल्पस्ततोनिवृत्तमित्यर्थः । Jain Education Intemational Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०९, सू० ३६६-३७८, टि०१-४ २३३ असृति प्रसृति ८ पल धान्यमान प्रमाण= एक पल = चार तोला - दो पल = आठ तोला सेतिका = चार पल = सोलह तोला कुडव = सोलह पल = चौसठ तोला प्रस्थक = चौसठ पल = दो सौ छप्पन तोला = ३५ सेर आढक = दो सौ छप्पन पल = एक हजार चौबीस तोला = १२३ सेर द्रोण (४ आढक) = एक हजार चौबीस पल = चार हजार छियानवे तोला = १ मन १११ सेर जघन्य कुम्भ (६० आढक) = पन्द्रह हजार तीन सौ साठ पल = इकसठ हजार चार सौ चालीस तोला = १९ मन ८ सेर मध्यम कुम्भ (८० आढक) = बीस हजार चार सौ अस्सी पल = इक्यासी हजार नौ सौ बीस तोला = २५ मन २४ सेर उत्कृष्ट कुम्भ (१०० आढक) = पच्चीस हजार छह सौ पल = एक लाख दो हजार चार सौ तोला = ३२ मन वाह (८०० आढक) = दो लाख चार हजार आठ सौ पल = आठ लाख उन्नीस हजार दो सौ तोला= २५६ मन रसमान प्रमाणचतुःषष्टिका माणी का चौसठवां भाग १६ तोला द्वात्रिंशिका माणी का बत्तीसवां भाग ३२ तोला षोडशिका १६ पल माणी का सोलहवां भाग ६४ तोला अष्टभागिका ३२ पल माणी का आठवां भाग १२८ तोला (१३ सेर) चतुर्भागिका ६४ पल ___= माणी का चौथा भाग २५६ तोला (३१ सेर) अर्धमाणी १२८ पल = माणी का आधा भाग ५१२ तोला (६३ सेर) माणी = २५६ पल = १०२४ तोला (१२६ सेर) द्रष्टव्य सूत्र ६१४ सूत्र ३७८ ४. (सूत्र ३७८) ऊर्ध्वमानं किलोन्मानं, परिमाणं तु सर्वतः । आयामस्तु प्रमाणं स्यात्, संख्या बाह्या हि सर्वतः ।। शब्दशास्त्र में उद्धृत इस श्लोक के अनुसार उन्मान का अर्थ है-ऊंचाई का माप । प्रस्तुत आगम में उन्मान के प्रकार और उन्मान प्रमाण के प्रयोजन की चर्चा की गई है। उसके अनुसार उन्मान प्रमाण का व्यवहार तौलने के लिए होता है। सामुद्रिक शास्त्र उन्मान शब्द के अर्थ में ऊंचाई, चौड़ाई और परिधि पर विचार करते हैं। वे आयाम और प्रमाण को उन्मान का पर्याय मानते हैं । वहां उन्मान को इस प्रकार परिभाषित किया गया है आपाणितलशिरोऽन्तं, यदिह वपुर्मीयते प्रकर्षेण । प्रवदन्ति तत्प्रमाणं, केप्यायामं पुन: प्राहुः ।। पदतल से लेकर शीर्ष पर्यन्त जो शरीर का नाप है उसे प्रमाण या आयाम कहते हैं।' प्रस्तुत सूत्र में वर्णित उन्मान प्रमाण को निम्न तालिका से समझा जा सकता हैअर्धकर्ष आधा तोला कर्ष एक तोला अर्धपल दो तोला पल चार तोला अर्धतुला दो सौ दस तोला (२१ सेर) तुला चार सौ बीस तोला (५३ सेर) अर्धभार चार हजार दो सौ तोला (१ मन १२१ सेर) भार आठ हजार चार सौ तोला (२ मन २५ सेर) १. ज्योटा. अक्टू. १९७३, पृ.१९-२३ । ।।।।।।।। Jain Education Intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ अणुओगदाराई अनुयोगद्वार के अनुसार अर्द्धभार में एक हजार पचास पल होते हैं। चरक मान के अनुसार १०५० पल के ६५.६२ सेर होते हैं।' मागधमान के अनुसार १०५० पल के ५२.५ सेर होते हैं।' आधुनिक मान के अनुसार एक सेर में ९२८ ग्राम होते हैं । अतः आधुनिक मान में परिवर्तित करने पर चरकोक्त मान के अनुसार अर्धभार में ६५.६२ सेर=६०.८९५ कि. ग्राम होता है और मागधमान के अनुसार ५२.५ सेर=४८.६२० कि. ग्राम होता है। सूत्र ३८० ५. (सूत्र ३८०) अवमान प्रमाण दण्ड, धनुष, युग, नलिका, अक्ष और मूसल-ये छह मानवाची शब्द हैं। छहों शब्द चार हाथ के नाप में प्रयुक्त हैं पर इनका उपयोग भिन्न-भिन्न वस्तुओं के नाप के लिए किया जाता है, जैसे ---वास्तु (भूमि) को हाथ के द्वारा, खेत को दण्ड के द्वारा, मार्ग को धनुष के द्वारा और खाई या गड्ढे को नालिका के द्वारा नापा जाता है।' सूत्र ३८९ ६. (सूत्र ३८६) अंगुल माप का एक प्रकार है। उसके तीन प्रकार बतलाए गए हैं -१. आत्मांगुल २. उत्सेधांगुल ३. प्रमाणांगुल । आत्मांगुल सामयिक होता है । वह समान नहीं होता। वह कभी छोटा व कभी बड़ा हो सकता है। उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल-ये दो निश्चित मापक हैं। उत्सेधांगुल के लिए द्रष्टव्य-सूत्र ३९५ से ३९९ तक। प्रमाणांगुल के लिए द्रष्टव्य-सूत्र ४०८ । अनुसंधान के लिए देखें सूत्र ४०८ का टिप्पण। सूत्र ३९० ७. (सूत्र ३६०) आत्मांगुल के प्रसङ्ग में सूत्रकार ने पुरुष के दो वर्गीकरण किए हैंपहला वर्गीकरण१. प्रमाण युक्त २. मानयुक्त ३. उन्मानयुक्त । दूसरा वर्गीकरण१. उत्तम पुरुष २. मध्यम पुरुष ३. अधम पुरुष । अपनी अंगुल से १२ अंगुल का मुख और ९ मुख जितना [१०८ अंगुल वाला] पुरुष प्रमाणपुरुष होता है।' १. द्रोणिक पुरुष मानयुक्त कहलाता है। सारयुक्त पुद्गलों से निर्मित होने से अर्धभार (५२ सेर) वजन वाला पुरुष उन्मान युक्त कहलाता है।' प्रस्तुत सूत्र के अनुसार उत्तम पुरुष की ऊंचाई १०८ अंगुल, मध्यम पुरुष की १०४ अंगुल और अधम पुरुष की ९६ अंगुल मानी गयी है। कुछ समाज-मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि नेता का कद, शारीरिक वजन, वेशभूषा और रंगरूप ये सब नेतृत्व के सहायक गुण हैं । १. शासं. १०। (ग) अमवृ. प. १४४। २. वही, ११ । ६. (क) अचू. पृ. ५२ : दोणीए जलवोणभरणरेयणमाणुवलं३. अचू. पृ.५१ ___भाओ माणजुत्ते भवति । ४. अहावृ. पृ. ७७ : तत्रात्मांगुलं प्रमाणानवस्थितेरनियतं, (ख) अहावृ. पृ. ७७। उच्छ्यांगुलं त्वंगलं परमाण्वादिक्रमायातमवस्थितं, उस्सेहं (ग) अमवृ. प. १४४। गुलाओ य कागणीरयणमाणमाणीतं, तओवि वद्धमाण- ७. (क) अचू. पृ. ५२: वइरमिव सारपोग्गलोवचियदेहे सामिस्स अद्धंगुलप्रमाणं, ततो य पमाणाओ जस्संगुलस्स तुलारोविते अद्धभारुम्मिते ओमाणजत्ते भवति । पमाणमाणिज्जति तं पमाणांगुलं । (ख) अहावृ. पृ. ७७। ५. (क) अचू. पृ. ५२। (ग) अमवृ. प. १४४॥ (ख) अहावृ. पृ. ७७। Jain Education Intemational Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०९, सू० ३८०-३६०, टि०५-७ २३५ पदतल से शीर्ष पर्यन्त प्रामाणिक नापपाष्णि-एड़ी से अंगुली तक लम्बाई १४ अंगुल पदतल के अग्रभाग की चौड़ाई ६ अंगुल पैर के अंगूठे की लम्बाई २ ॥ तर्जनी अंगुली २ , मध्यमा अंगुली से अंगूठे की लम्बाई १/१६ भाग कम अनामिका मध्यमा से १/२ भाग कम कनिष्ठिका अनामिका से १/६ भाग कम पैरों के टखनों से लेकर घुटनों तक (जंघा) की लम्बाई १८ अंगुल घुटनों से ऊपरी भाग की लम्बाई कटिभाग की लम्बाई नाभि से नाभि तक कटिभाग की परिधि पुरुष के कटिभाग की अर्द्ध परिधि स्त्री के कटिभाग की अर्द्ध परिधि लिङ्ग-स्थान से नाभि तक की लम्बाई नाभि से हृदय तक की लम्बाई हृदय से ग्रीवा तक की लम्बाई पृष्ठ भाग में अस्थिपुच्छ से ग्रीवा तक की लंबाई पुरुष के वक्षःस्थल की अर्द्ध परिधि स्त्री के वक्षःस्थल की अर्ध परिधि मणिबन्ध से मध्यमा अंगुली तक की लम्बाई मणिबन्ध से कोहनी पर्यन्त हाथ की लम्बाई कन्धे से कोहनी पर्यन्त भुजा की लम्बाई गर्दन की लम्बाई गर्दन की परिधि ठुड्डी से ललाट की लम्बाई नेत्र, मुख, नासिका, कान, ललाट और ग्रीवा की लम्बाई ४४ उन्मान का नाप व्यक्ति के अपने पर्वाङगुल से किया जाता है । मध्यमा अंगुली का मध्य पर्व या अङ्गुष्ठ का मध्य पर्व अंगुल प्रमाण का मापक माना जाता है। अंगुल का परिमाण ८ यव-१ अंगुल-1 इंच। २४ अंगुल=१ हाथ–१८ इंच उपर्युक्त अंगुल प्रमाण से एक सौ आठ अंगुल [६ फिट, नौ इंच] की ऊंचाई वाला व्यक्ति उत्तम पुरुष, ९६ अंगुल [६ फिट] की ऊंचाई वाला व्यक्ति मध्यम पुरुष और ८४ अंगुल [५ फिट ३ इंच] की ऊंचाई वाला व्यक्ति अधम पुरुष माना गया है। ___ वर्तमान में आत्मांगुल से १०० अंगुल की ऊंचाई [६ फिट ३ इंच] श्रेष्ठ, ९२ अंगुल [५ फिट ९ इंच] मध्यम और ८४ अंगुल [५ फिट ३ इंच] निम्न मानी गयी है। शब्द विमर्श द्रोणिक पुरुष—पानी से भरी हुयी बड़ी कुण्डिका को द्रोणी कहते हैं। उस कुण्डिका में एक व्यक्ति के प्रवेश करने पर द्रोण जितना पानी बाहर निकल जाए अथवा उतनी खाली द्रोण में प्रवेश करने पर वह भर जाए उसे द्रोणि क पुरुष कहते हैं। __अर्द्धभार एक सौ पांच [१०५] पलों की तुला होती है और दस तुला का अर्द्धभार । अथवा ५२३ सेर का एक अर्द्धभार होता है। लक्षण-शरीर पर शंख, स्वस्तिक आदि चिन्ह । व्यंजन-शरीर पर तिल, मष आदि चिन्ह । Jain Education Intemational Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ अणुओगदाराई स्वर--गंभीरता आदि गुणों से युक्त वह ध्वनि जो सब लोगों द्वारा आदेय होती है। स्वर युक्त व्यक्तियों की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। सत्त्व-दीनता रहित मानसिक दृढ़ता । सार-शुभ पुद्गलों के उपचय से निष्पन्न शारीरिक शक्ति । कौटिलीय अर्थशास्त्र में मान के प्रकारों का विश्लेषण इस प्रकार है१० धान्य माष १ सुवर्ण माष ५ गुजा १ सुवर्ण माष १६ सुवर्ण माष १ सुवर्ण या कर्ष ४ कर्ष १ पल २० तुला १भार १६ द्रोण १ खारी २० द्रोण १ कुम्भ ८ परमाण रथ-चक्रोत्थापित चक्षुग्राह एक रजकण ८ रजकण १ लिक्षा ८ लिक्षा १ यूका ८ यूको १ यवमध्य ८ यवमध्य १ अंगुल ४ अंगुल १धनुर्ग्रह ८ अंगुल १ धनुर्मुष्टि १२ अंगुल १ वितस्ति-१ छाया पुरुष । प्राचीनकाल में प्रसिद्ध चरकोक्तमान और शार्ङ्गधरोक्त मान के साथ वर्तमान मान की तुलनात्मक तालिका इस प्रकार हैचरकोक्तमान वर्तमान मान १ बल्ल ६ रत्ती १ माषक १० रत्ती ३ माषक १ शाण ३० रत्ती-३।। माषा । ४ माषक १ निष्क ५ माषा २ शाण १ द्रंक्षण ६॥ माषा-१०० आना २ द्रंक्षण १ कर्ष १५ माषा-११ तोला ४ कर्ष १ पल ५ तोला-१ छटांक ४ पल १ कुडव ४ छटांक-१ पाव ४ कूडव १ प्रस्थ ८० तोला--१ सेर ४ प्रस्थ १ आढक ४ सेर ४ आढक १ द्रोण १६ सेर २ द्रोण १ सूर्प ३२ सेर २ सूर्प १ भार ६४ सेर ३२ सूर्प १ वाह १०२४ सेर १०० पल १ तुला ६। सेर शार्ङ्गधरोक्त मान (मागध मान) वर्तमान मान ८ सर्षप-१ यव है रत्ती (३ ग्रेन) ४ यव १ रत्ती (२ ग्रेन) १ माषक ६ रत्ती १. कौअ. ११२-११५ । २. शासं १०। Jain Education Intemational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०६, सू० ३६२, टि०८ २३७ ४ माषक-१ शाण ३ माषा २ शाण-१ कोल ६ माषा (३ तोला) २ कोल-१ कर्ष १ तोला २ कर्ष-१ शुक्ति २ तोला २ शुक्ति-१ पल ४ तोला २ पल-१ प्रसृत ८ तोला २ प्रसृत-१ कुडव १६ तोला २ कुडव-१ शराव ३२ तोला २ शराव-१ प्रस्थ ६४ तोला ४ प्रस्थ-१ आढक ३ सेर १६ तोला ४ आढक-१ द्रोण १२ सेर ६४ तोला २ द्रोण - १ सूर्प २५ सेर ४८ तोला २ सूर्प-१ द्रोणी ५१ सेर १६ तोला ४ द्रोणी-१ खारी २०४ सेर ६४ तोला २००० पल-१ भार १०० सेर १०० पल-१ तुला ५सेर सूत्र ३९२ ८. (सूत्र ३९२) योजन का प्रमाण सदा एक जैसा नहीं होता । वह बदलता रहता है। मगध, कलिंग आदि प्राचीन देशों में योजन का माप भिन्न-भिन्न होता है । केवल योजन ही नहीं आत्मांगुल के विषयभूत सभी द्रव्यों का प्रमाण सामयिक होता है। इसलिए प्राचीन मान को वर्तमान के माप से नहीं मापा जाता। शब्द विमर्श अवट-कुआ। तडाग--खोदा हुआ जलाशय।' वापी-चतुष्कोण जलाशय। पुष्करिणी गोलाकार जलाशय, पुष्कर (कमल) युक्त जलाशय।' दीधिका-जिसमें से जल की प्रणालिकाएं निकलती हों वह ऋजु जलाशय । गुजालिका-जिसमें से जल की प्रणालिकाएं निकलती हों वह वक्र जलाशय। सर-नैसर्गिक जलाशय । बांध । सरपंक्तिका--पंक्तिबद्ध नैसर्गिक जलाशय । सरसरपंक्तिका-ऐसे पंक्तिबद्ध जलाशय जिनका पानी एक दूसरे में अभिसरण करता है। इनमें से प्रत्येक में कपाट की व्यवस्था होती है, कपाट खोलने पर पानी आगे चला जाता है। १. अमव. प. १४६ : अवट: कपः। तडाग:-खानितो (ख) अहावृ. पृ. ७८। जलाशयविशेषः । (ग) अमव. प. १४६ । २. (क) अचू. पृ. ५३ : वावी चतुरस्सा । ५. (क) अचू. पृ. ५३ : बंका गुंजालिया। (ख) अहावृ. पृ. ७८ । (ख) अहावृ. पृ. ७८ (ग) अमवृ. प. १४६ । (ग) अमवृ. प. १४६ । ६. अमव. प. १४६ : सरः-स्वयंसम्भूतो जलाशयविशेषः । ३. (क) अचू. पृ.५३ वृत्ता पुक्खरिणी पुष्करसंभवातो वा। ७. अमवृ. प. १४६ : पङिक्तभिर्व्यवस्थापितानि सरांसि सरपङ्क(ख) अहाव. पृ. ७८ । तयः । यासु सर:पङि क्तष्वेकस्मात्सरसोज्यत्र ततोऽपि (ग) अमवृ. प. १४६ । अन्यत्र कपाटसञ्चारकेनोदकं संचरति ता: सर:सर:४. (क) अचू. पृ. ५३ : सारणी रिज़ दीहिया। पतयः । Jain Education Intemational Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अणओगदाराई बिलपंक्तिका-गहरे और लम्बे गड्ढे की श्रेणी । आराम कृत्रिम वन, जिनमें विविध प्रकार के वृक्ष लगाए जाते हैं। कदली लता, माधवी लता आदि से बने प्रच्छन्न स्थानों पर दम्पति रमण करते हैं वे आराम कहलाते हैं।' उद्यान–पहाडी भूमि पर बना हुआ बगीचा जो फूलों और फलों से समृद्ध है, वृक्षसंकुल है। जहां उत्सव के अवसर पर लोग भोजन करने के लिए जाया करते थे। कानन नगर के निकट साधारण कोटि के वृक्षों वाले वे बगीचे जहां केवल स्त्री या पुरुष रमण किया करते थे, जिससे आगे पर्वत या अटवी हो या जिसमें जीर्ण शीर्ण वृक्ष हो।' वन--एक-जातीय वृक्षों से युक्त बगीचा। वनषण्ड - अनेक जाति के उत्तम वृक्षों से आकीर्ण बगीचा । वनराजि एकजातीय या अनेकजातीय वृक्षों की श्रेणी वाला बगीचा।" देवकुल-मन्दिर। स्तूप-स्मृति में बनाया जाने वाला स्तम्भ । खातिका- ऊपर और नीचे से बराबर खुदी हुई खाई।' परिखा-नीचे से संकीर्ण और ऊपर से विस्तृत रूप में खुदी हुई खाई।' प्राकार-कोट, परकोट । अट्टालक-परकोटे के ऊपर बने हुए बूर्ज।। चरिका घर और परकोटे के बीच बना हुआ आठ हाथ चौड़ाई वाला राजमार्ग । इसी मार्ग से हाथी आदि आ जा सकते थे। गोपुर-नगर द्वार, प्रतोली द्वार । दक्षिण भारत में मन्दिरों के आगे बहुत ऊंचे-ऊंचे गोपुर बने हुए मिलते हैं।" प्रासाद -राजा या देवता के भवन प्रासाद कहलाते हैं। अधिक ऊंचाई वाले भवनों को भी प्रासाद कहा जाता है । शरण कुटीर, तृणकुटी आदि । लयन-पर्वत में उत्कीर्ण भवन या गुफा । आपण-हाट, दुकान । १. (क) अचू. पृ. ५३ : विविधं सक्खलतोवसोभितं कद लादिपच्छण्णघरेसु य वीसंभियाण रमणट्ठाणं आरामो। (ख) अहावृ. पृ. ७८ । (ग) अमवृ. प. १४६ । २. (क) अचू. पृ. ५३ : पत्तपुप्फफलछायोवगादिरुक्खुवशोभितं बहुजणविविहवेसुण्णयमाणस्स भोयणवा जाणं उज्जाणं। (ख) अहाव. पृ.७८ । (ग) अमवृ. प. १४६ ॥ ३. (क) अचू. पृ. ५३ : इत्थीण पुरिसाण वा एगे पक्खे भोज्ज जं तं काणणं, अहवा जस्स परतो पम्वयमडवी वा सव्ववणाण य अंते वणांतं काणणं शीर्णो वा । (ख) अहावृ. पृ. ७८। (ग) अमव. प. १४६ । ४. (क) अचू. पृ. ५३ : एगजातियरुक्खेहि वर्ण। (ख) अहावृ. पृ. ७८ । (ग) अमवृ. प. १४६ । ५. (क) अचू. पृ. ५३ : एगजादियअणेगजातियाण वा रुक्खाण पंती वणराई। (ख) अहावृ. पृ. ७८ । (ग) अमव. प. १४६ । ६. (क) अचू, पृ. ५३ : सनखाता खाइया । (ख) अहावृ. पृ. ७८ । (ग) अमवृ. प. १४६ । ७. (क) अचू. पृ. ५३ : अहो संकुडा उवरि विशाला परिहा । (ख) अहावृ.पृ.७८ ।। (ग) अमव. प. १४६ । ८. अमव. प. १४६ : प्राकारोपरि आश्रयविशेषा अट्टालकाः । ९. (क) अचू. पृ. ५३ : अंतो पागाराणं अंतरं, अगृहत्यो रायमग्गो चरिया। (ख) अहाव. पृ. ७८ । (ग) अमवृ. प. १४६ । १०. (क) अचू. पृ. ५३ : दुण्हं दुवाराण अंतरे गोपुरं। (ख) अहावृ. पृ.७८ । (ग) अमव. प. १४६ । Jain Education Intemational Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ६, सू० ३६२, टि०८ शृंगाटक – दुकानों और भवनों की त्रिकोणाकार रचना के कारण उसके बीच में आया हुआ त्रिकोण भूभाग ।' त्रिक-जिस स्थान से तीन पथ निकलते हैं । ' चतुष्क—दुकानों और भवनों की चतुष्क कोणाकार रचना के कारण उनके बीच में आया हुआ चतुष्कोण भूभाग चत्वर जहां चार पथ मिलते हैं। चतुर्मुख चारों ओर मुख प्रवेशद्वाराला देवकुल।" महापथ- राजमार्ग पथ - सामान्य मार्ग । शृंगाटक आदि शब्दों के लिए देखें- भगवती २।३० का भाष्य । युग्य - गोल्ल देश में प्रसिद्ध दो हाथ लम्बी चौड़ी, चतुष्कोण वेदिका वाली शिविका । लाट देश में थिल्ली को जुग्य कहा जाता है । गिल्लि - दो व्यक्तियों द्वारा उठाई जानेवाली शिविका, अथवा अम्बाबाड़ी सहित हाथी का हौदा । थिल्लि दो घोड़ों की वग्धी । उसे लाट देश में थिल्लि कहा जाता है ।" शिविका - पालकी ।" स्यन्दमानिका पुरुष प्रमाण लम्बाई वाली शिविका । " लौही चपाती आदि सेकने का तवा । " लोकटाह सोहे की बड़ी कड़ाही ।" कड़छी कलछी । भाण्ड - मिट्टी का पात्र ।" अमत्र कांस्य पात्र । १. अमवृ. प. १४६ : राजानां देवतानां च भवनानि प्रासादाः उत्सेधबहुला वा प्रासादा: । शरणानि तृणमयावसरिकादीनि । लयनानि उत्कीर्णपर्वतगृहाणि गिरिगुहा । आपणा हट्टाः । नानाहट्टगृहाध्यासितस्त्रिकोणो भूभागविशेषः श्रृंगाटकम् । २. (क) अ. . ५३ तिकोणामामासभूमि पिहसमागमी । (ख) अहावृ. पृ. ७८ ॥ (ग) अमवृ. प. १४६ । ३. ( क ) अहावृ. पृ. ७८ : चउरस्सं चउपहसमागमो चेव । (ख) अमवृ. प. १४६ ॥ ४. (क) अचू. पू. ५३ चच्चरं । (ख) अहावृ. पृ. ७८ । (ग) अमवृ. प. १४६ । ५. (क) अचू. पृ. ५३ : देउलं चतुमुहं । (ख) अहावृ. पृ. ७९ । (ग) अमवृ. प. १४६ । तियचतुरं चतुष्यसमागम ६. (क) अचू. पृ. ५३ : महतो रायमग्गो महाप्पधो । (ख) अहावृ. पृ. ७९ । (ग) अमवृ. प. १४६ । ७. (क) अबू. पू. ५३ गोलसिए चाणं विहत्यमात्रं चतुर सवेदिकमुपशोभितं जायं, साहाणं दिल्ली प (ख) अहावृ. पृ. ७९ । (ग) अमवृ. प. १४६ ८. (क) अचू. पृ. ५३ हस्तिन उपरि कोल्लरं गिलतीव मा दिली. (ख) अहावृ. पृ. ७९ । (ग) अमवृ. प. १४६ । ९. ( क ) अचू. पृ. ५३, ५४ : लाडाणं जं अडपल्लाणं तं अनfeni गिल्ली ति (ख) अहावृ. पु. ७९ । (ग) अमवृ. प. १४६ । १०. (क) अचू. पृ. ५४ उवरि कूडागारछादिया सिबिया । : (ख) अहावृ. पृ. ७९ । (ग) अमवृ. प. १४६ । ११. (क). पृ. ५४ हो स्वप्रमाणावगासदाणत्तणओ संदमणि । २३६ (ख) अहावृ. पृ. ७९ । (ग) अमवृ. प. १४६ । १२. (क) अचू. पृ. ५४ : लोहत्ति कवेली । (ख) अहाव. पृ. ७९ । (ग) अमवू. प . १४६ ॥ जंपाणविसेसो पुरिसस्स १३ (क) अचू. पृ. ५४ : लोहकडाहोत्ति लोहकडिल्लं । (ख) अहावृ. पृ. ७९ । (ग) अमवृ. प. १४६ । १४. (क) अचू. पृ. ५४ : भाण्डं तं च मृन्मयादि । (ख) अहावृ. पृ. ७९ । (ग) अमवृ. प. १४६ । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सूत्र ३९२, ३९४ २. (सूत्र ३९२, ३२४ ) सूची अंगुल - एक अंगुल लम्बी आकाश प्रदेश की रेखा, जिसकी चौड़ाई और मोटाई दोनों एक आकाश प्रदेश जितनी ही हो, उसे सूची अंगुल कहते हैं। सूनी अंगुरखात्मक होता है प्रतर अंगुल -- एक अंगुल लम्बी और एक अंगुल चौड़ी तथा एक आकाश प्रदेश जितनी मोटाई वाली समचतुरस्र आकृति प्रतर अंगुल है । यह तलात्मक होता है। सूची अंगुल एक ही आयाम (dimention) में फैला हुआ होता है। सूची अंगुल से गुणन करने पर प्रतर अंगुल प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रतर अंगुल (सूची अंगुल) (सूची अंगुल) - ( सूची अंगुल)' सूची अंगुल के वर्ग को प्रतर अंगुल कहते हैं । देखें स्थापना - X घन अंगुल एक अंगुल लम्बी, एक अंगुल चौड़ी और एक अंगुल मोटाई वाली घन आकृति घन अंगुल कहलाता है। यह घनात्मक होता है, यह तीनों आयामों में फैला हुआ होता है । प्रतर अंगुल को सूची अंगुल से गुणा करने पर घन अंगुल प्राप्त होता है । इस प्रकारघन अंगुल = ( प्रतर अंगुल) X ( सूची अंगुल) = (सूची अंगुल ) " सूची अंगुल के घन को घन अंगुल कहते हैं। देखें स्थापना अणुओगवाराई आकाश प्रदेश की संख्या की अपेक्षा से सूची अंगुल से प्रतर अंगुल असंख्यात गुणा तथा घन अंगुल प्रतर अंगुल से असंख्यात गुणा होता है । सूत्र ३६५ १०. (सूत्र ३६५ ) उत्सेधांगुल की कारण सामग्री प्रस्तुत सूत्र में उत्सेधांगुल को अनेक प्रकार का कहा गया है किन्तु वास्तव में उसके प्रकार अनेक नहीं हैं । इस विरोधाभास को चूर्णिकार ने समाहित किया है।' उनके अनुसार उत्सेधांत की कारण सामग्री अनेक प्रकार की होती है इसलिए उत्सेधांगुल अनेक प्रकार का होता है। हरिभद्र सूरि के अनुसार कारण में कार्य का उपचार कर उत्सेधांगुल को अनेक प्रकार का कहा गया है।' १. अचू. पृ. ५४ : नो भणामो उस्सेहंगुलमणेगविधं, किन्तु उस्सेहंगुलस्य कारणं अणेगविधं पण्णत्तं । २. अहावृ. पृ. ७९ : उच्छु कारणापेक्षा करणे कार्योपचारानेकविधं प्रज्ञप्तम् । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०९, सू० ३९३-४०२, टि०९-१२ २४१ सूत्र ३९६-३९८ ११. (सूत्र ३६६-३६८) परमाणु के दो प्रकार बतलाए गए हैं१. सूक्ष्म अथवा नैश्चयिक परमाणु । २. व्यावहारिक परमाणु । व्यावहारिक परमाणु अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं के संयोग से बनता है। इसलिए वास्तव में वह अनन्त प्रदेशी स्कन्ध है किन्तु सूक्ष्मता के कारण उसे परमाणु कहा गया है। यह व्यावहारिक परमाणु ही क्षेत्र प्रमाण का आदि कारण बनता है। जैसा कि सूत्र ३९९ में लिखा है "तं परमाणु सिद्धा, वयंति आई पमाणाणं ।" शार्ङ्गधर संहिता में (पृ. ४) परमाणु की जो परिभाषा उपलब्ध है वह बहुत स्थूल है जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः । तस्य त्रिंशत्तमो भागः परमाणु: स कथ्यते ।। मकान के ऊपर की जाली के छोटे-छोटे छिद्रों द्वारा सूर्य की किरणावलियों के समुदाय में जो बहुत ही सूक्ष्म कण दिखाई देते हैं - उस एक कण के ३०वें भाग को परमाणु कहा जाता है। व्यावहारिक परमाणु तलवार आदि शस्त्रों के द्वारा अच्छेद्य, अभेद्य, अग्नि के द्वारा अदाह्य, जल में रहकर भी अनाई और सड़ान से परे हैं। वर्तमान में वैज्ञानिकों ने परमाणु को तोड़ा है। जैन दर्शन का अभिमत है कि परमाणु अविभाज्य है उसे तोड़ा नहीं जा सकता। इन दोनों अवधारणाओं में विरोधाभास प्रतीत होता है। इस विरोध में समन्वय का सूत्र खोजा जा सकता है। सूक्ष्म अथवा नैश्चयिक परमाणु निरवयव होने के कारण अविभाज्य है, उसे तोड़ा नहीं जा सकता है। किन्तु व्यावहारिक परमाणु सावयव है इसलिए उसे तोड़ना संभव हो सकता है। यहां सुतीक्ष्ण शस्त्र के द्वारा छेदन भेदन का निषेध किया गया है यह तत्कालीन शस्त्रों की अपेक्षा से किया गया है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने जिन सुतीक्ष्ण उपकरणों का निर्माण किया है उससे उसका भेदन भी हो सकता है। सूत्र ४०१, ४०२ १२. (सूत्र ४०१, ४०२) शरीर की अवगाहना उत्सेधांगुल से मापी जाती है। पांच स्थावर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यभाग मात्र बतलाई गई है। किन्तु अंगुल का असंख्यभाग सदृश नहीं है । जैसे-- ० अनन्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों के शरीर एक सूक्ष्म वायुकायिक जीव का शरीर । • असंख्य सूक्ष्म वायुकायिक जीवों के शरीर-एक सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव का शरीर । . असंख्य सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवों के शरीर एक सूक्ष्म अप्कायिक जीव का शरीर । ० असंख्य सूक्ष्म अप्कायिक जीवों के शरीर एक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव का शरीर । • असंख्य सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर एक बादर वायुकायिक जीव का शरीर । . असंख्य बादर वायुकायिक जीवों के शरीर-एक बादर तेजस्कायिक जीव का शरीर। ० असंख्य बादर तेजस्कायिक जीवों के शरीर एक बादर अप्कायिक जीव का शरीर । ० असंख्य बादर अप्कायिक जीवों के शरीर-एक बादर पृथ्वीकायिक जीव का शरीर ।' भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यभाग मात्र बतलाई गई है। यह नारकी जीवों की उत्पद्यमान अवस्था की अपेक्षा से है । उसके पश्चात् वह बढ़ जाती है। १. भवधारणीय-जन्म-काल से जीवन पर्यन्त रहने वाला शरीर । २. उत्तरवैक्रिय-निर्माण शरीर । प्रयोजनवश वैक्रिय शक्ति द्वारा निर्मित शरीर। (क) भ. १९३३ । २. अहावृ. पृ. ८०: नारकाणां जघन्या भवधारणीयशरीराव(क) अहाव. पृ. ८० : पृथिवीकायिकादीनां त्वंगुलासंख्येय गाहना अंगुलासंख्येयभागमात्रा उत्पद्यमानावस्थायाम् । भागमात्रतया तुल्यायामप्यवगाहनायां विशेषः । वणऽणंतसरीराण एगाणिलसरीरगपमाणेण । अणलोदगपुढवीणं असंखगुणिया भवे वुड्ढी ॥ Jain Education Interational Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अणुओगदाराई सूत्र ४०८ १३. (सूत्र ४०८) प्रमाणांगुल की लम्बाई उत्सेधांगुल से ४०० गुना अधिक है। उसकी चौड़ाई उत्सेधांगुल से २३ गुना अधिक है। ४०० को २३ से गुणित करने पर १००० होता है। इसे समझने के लिए ४०० अंगुल लम्बी और एक अंगुल चौड़ी श्रेणी की कल्पना करें। एक ऐसी ही दूसरी श्रेणी की कल्पना करें, तीसरी श्रेणी लम्बाई में इतनी ही है पर चौड़ाई में अर्ध अंगुल है अतः उसकी लम्बाई ४०० से आधी २०० अंगुल की हो जाती है। इन तीनों श्रेणियों को एक साथ व्यवस्थापित करने पर उत्सेधांगुल से हजार अंगुल लम्बी और एक अंगुल चौड़ी श्रेणी बन जाती है वह प्रमाणांगुल के नाम से पहचानी जाती है। उक्त परिकल्पना के आधार पर प्रमाणांगुल को उत्सेधांगुल से सहस्रगुना बड़ा बताया गया है। वास्तव में वह ४०० गुना बड़ा है। भगवान महावीर का शरीर उत्सेधांगुल से सात हाथ प्रमाण था। एक हाथ में २४ उत्सेधांगुल होते हैं। इसलिए ७ हाथ के उत्सेधांगुल २४x७-१६८ हुए। १ उत्सेधांगुल-भ० महावीर का अंगुल । १६८ उत्सेधांगुल-१६८४१ = ८४ अंगुल भ० महावीर का शरीर आत्मांगुल यानी भगवान महावीर के अंगुल से ८४ अंगुल याने ३३ हाथ का था। ८४-२४-३३ हाथ । एक मत यह है कि भगवान का शरीर अपने आत्मांगुल से ४३ हाथ अर्थात् २४४४६० १०८ अंगुल का था। इस मत के अनुसार भगवान महावीर का १ अंगुल उत्सेधांगुल ११ के बराबर था। १०८ आत्मांगुल-१६८ उत्सेधांगुल १ आत्मांगुल=48516-११ टीका के अनुसार एक मान्यता यह है कि भगवान महावीर का शरीर अपने अंगुल से ५ हाथ याने २४४५=१२० अंगुल का था। १२० आत्मांगुल=१६८ उत्सेधांगुल १ आत्मांगुल-१६१-५=१३ उत्सेधांगुल इस दृष्टि से भगवान महावीर का १ आत्मांगुल उत्सेधांगुल १३ के बराबर था : टीकाकार कहते हैं इन तीन मान्यताओं में पहली मान्यता के अनुसार भगवान महावीर का १ आत्मांगुल २ उत्सेधांगुल के समान होता है। इस अपेक्षा से अंगुल का प्रमाण समझना चाहिए। उत्सेधांगुल को हजार गुना करने पर एक प्रमाणांगुल होता है इसका न्याय क्या है ? इसका समाधान चूर्णिकार और टीकाकार इस प्रकार देते हैं ___ भरत चक्रवर्ती का एक आत्मांगुल एक प्रमाणांगुल के समान होता है। भरत चक्रवर्ती का शरीर अपने आत्मांगुल से १२० अंगुल था। उत्सेधांगुल से भरत चक्रवर्ती ५०० धनुष के थे। एक धनुष ९६ अंगुल के समान होता है। ५०० धनुष के ४८००० अंगुल होते हैं-१ धनुष-९६ अंगुल, ५०० धनुष-५००४९६-४८००० अंगुल। भरत चक्रवर्ती आत्मांगुल (प्रमाणांगुल) से १२० अंगुल के थे और उत्सेधांगुल से ४८००० अंगुल के थे। इसलिए १ प्रमाणांगुल ४८००० १२० = ४०० अंगुल का होता है। प्रमाणांगुल का बाहल्य (मोटाई) २३ अंगुल का था । इसलिए ४००४ २३% १००० अंगुल हो गए । १००० उत्सेधांगुल का १ प्रमाणांगुल माना है वह बाहल्य की अपेक्षा से है।' शब्द विमर्श काकिणी रत्न काकिणी प्राचीन सिक्के की संज्ञा है। भरत चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में काकिणी रत्न का उल्लेख मिलता है। प्राप्त विवरण के अनुसार इसका संस्थान इस प्रकार बनता है। देखें, ग्राफ१. (क) अहावृ. पृ. ८१। २. उसुजं ३।९२। (ख) अमवृ. प. १५८, १५९ । Jain Education Intemational Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ६, सू० ४०८, टि० १३,१४ १२ कोटि-क १ को २ से को ३ क २ =को ३ से को ६ क ३को ६ से को ७ को क ४=को ७ से को २ क ५ को १ से को ४ क ६ को ४ से को ५ क ७ = को ५ से को क कोसे को १ क ९ को १ से को २ क १० को ४ से को ३ क ११= को ५ से को ६ क १२ को ८ से को ७ क‍ कोर あし त आठ कोण क त काकणी रत्न १. (क) अहाबू. पृ. ८२ काण्डानि रत्नकाण्डादीनि । (ख) अमवृ. प. १५९ । क क क १२॥ कोट को त १ १४. ( सूत्र ४१० ) प्रस्तुत सूत्र में प्रमाणांगुल के प्रयोजन का निर्देश किया गया है। शब्द विमर्श पाताल -- लवणसमुद्र में विद्यमान कलशाकार रसातल । भवन - भवनपति देवों के आवास । सूत्र ४१० पृथ्वी - रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियां जो नरक कहलाती हैं। काण्ड - भूखण्ड, विभाग । को ४ क३ क१० तह को३ (इस स्थापना में 'क' कोटी का सूचक है) क को १ = सामने तल के ऊपर बाएं को २ = सामने तल के नीचे बाएं को ३= सामने तल के नीचे दाएं को ४= सामने तल के ऊपर दाएं को ५= पीछे तल के ऊपर दाएं को ६= पीछे तल के नीचे दाएं को ७ पीछे तल के नीचे बाएं को पीछे तल के ऊपर बाएं afe तर कर को कर‍ को ६ तल -त १ = सामने त २= दाएं त ३ = पीछे त ४= बाएं त ५= ऊपर त ६= नीचे २४३ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ अणुओगदाराई भवन प्रस्तट-भवनों के मध्यवर्ती अन्तराल भाग । नरक प्रस्तट--नरकों के मध्यवर्ती अन्तराल भाग।' कल्प-वैमानिक देवों के आवास । सौधर्म से अच्युत तक के स्वर्ग कल्प कहलाते हैं । विमान ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के आवास और यान विमान कहलाते हैं। टंक --एक दिशा में टूटा हुआ पर्वत । कूट-शिखर ।' शैल-मुंड पर्वत (शिखर रहित)।' परिधि-परिधि । शिखरी–शिखरवाले पर्वत ।' प्राग्भार-कुछ झुके हुए पर्वत ।' विजय --महाविदेह के क्षेत्रखण्ड । वक्षस्कार-गजदन्त के आकारवाले पर्वत । तत्त्वार्थवात्तिक ३।१० में वक्षस्कार के स्थान पर वक्षार शब्द मिलता है। वर्ष-क्षेत्र । वर्षधर पर्वत-क्षेत्रों की सीमा करनेवाले पर्वत । वेला-ज्वार की ऊंचाई और नीचाई। तोरण-प्रवेशद्वार । आयाम लम्बाई। विष्कम्भ चौड़ाई। उच्चत्व-ऊंचाई। उव्वेह-गहराई। सूत्र ४११ १५. (सूत्र ४११) प्रमाणांगुल श्रेणीअंगुल प्रतरअंगुल घनअंगुल अंगल से क्षेत्र को मापा जाता है। अंगुल के तीन प्रकार हैं उत्सेधांगुल, आत्मांगुल और प्रमाणांगुल । १००० उत्सेधांगुल का एक प्रमाणांगुल होता है । प्रमाणांगुल से द्वीप, समुद्र, लोक आदि की लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई और परिधि नापी जाती है । प्रमाणांगुल के तीन भेद हैं-श्रेणीअंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल। श्रेणी से श्रेणी को गुणित करने से प्रतरांगुल का प्रमाण आता है। गणित की भाषा में श्रेणी का वर्ग प्रतर होता है। प्रतर को श्रेणी से गुणित करने पर घनांगुल का प्रमाण आता है। गणित की भाषा में श्रेणी का घनफल घनांगुल का प्रमाण होता है । श्रेणीxश्रेणी xश्रेणी श्रेणी । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है श्रेणी का धन धनांगुल का प्रमाण होता है और घनांगुल का घनमूल श्रेणी अंगुल का प्रमाण होता है। १. अमव. प. १५९ : 'पातालाणं' ति पातालकलशानां । 'भवणाणं' ति भवनपत्यावासादीनां । 'भवणपत्थडाणं' ति भवनप्रस्तटा नरकप्रस्तटान्तरे तेषां । 'निरयपत्थडाणं' ति... नरकप्रस्तटानाम् । २. (क) अहावृ.पृ.८२ : टंका-छिन्नटकानि । (ख) अमवृ. प. १५९ । ३. (क) अहावृ.पृ.८२ : रत्नकूटादयः कूटाः । (ख) अमवृ. प. १५९ । ४. (क) अहाव. पृ. ८२ : शैलाः मुंडपर्वताः । (ख) अमवृ. प. १५९ । ५. (क) अहाव, पु. ८२ : शिखरवन्तः शिखरिणः । (ख) अमवृ. प. १५९ । ६. (क) अहावृ. पृ. ८३ : प्राग्भारा ईषदवनता। (ख) अमवृ. प. १५९ । Jain Education Intemational Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ६, सू० ४११, टि० १५ २४५ प्रस्तुत प्रकरण में श्रेणीअंगुल और घनांगुल को लोक के प्रमाण के द्वारा स्पष्ट किया गया है। प्रमाणांगुल से निष्पन्न असंख्यात कोडाकोडी (१०००००००×१०००००००) योजनों की एक प्रदेशात्मक श्रेणी होती है । प्रतर को श्रेणी से गुणित करने पर लोक का प्रमाण बताया है । प्रस्तुत प्रकरण में घनांगुल का प्रमाण और लोक का प्रमाण एक समान है । लोक का प्रमाण ३४३ धन रज्जु है दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएं इसमें एक मत हैं परन्तु लोक की आकृति के कारण गणित की प्रक्रिया में भिन्नता है । दिगम्बर- परम्परा - दिगम्बर- परम्परा के अनुसार लोक का गाणितिक विवेचन निम्नोक्त है : (देखें चित्र नं. १ ) | 3.३५ 3.52 चित्र नं० १ लोक के तीन परिमाणों (ऊंचाई, लम्बाई चौड़ाई) में से प्रथम परिमाण अर्थात् ऊंचाई १४ रज्जु है।' दूसरा परिमाण अर्थात् चौड़ाई सर्वत्र ७ रज्जु है । तीसरा परिमाण अर्थात् लम्बाई सारे लोक में समान नहीं है। लोक के विभिन्न स्थानों पर लोक की लम्बाई भिन्न-भिन्न है । उसको समझाने के लिए लोक के (ऊंचाई के प्रमाण से ) दो विभागों की कल्पना करनी चाहिए । अर्थात् लोक के दो भाग करने चाहिए, जिसमें से प्रत्येक भाग की ऊंचाई ७ रज्जु है । इन दो भागों में से प्रथम अधस्तन भाग (अधो लोक) नीचे (आधार पर) ७ रज्जु लम्बा है और ऊपर क्रमश: घटता घटता १ रज्जु है । ७ १. पि. १ / १४० से २०० के आधार पर । २. रज्जु जैन-खगोल शास्त्र के माप का नाम है। जिसका विस्तारपूर्वक विवेचन 'विश्व प्रहेलिका' पृ. ११२ से १२३ में किया गया है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ अणुओगदाराई इस प्रकार अधोलोक का आकार समलम्ब चतुर्भुजाधार सम पार्श्व के सदृश होता है, जिसकी ऊंचाई ७ रज्जु, चौड़ाई सर्वत्र ७ रज्जु और लम्बाई नीचे आधार पर ७ रज्जु और ऊपर १ रज्जु है । (देखें चित्र नं. २,३) इस प्रकार के आकार वाले घन का घनफल निकालने के लिए पहले समलम्ब चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकालकर, उसका ऊंचाई से गुणन करना चाहिए। --- - ----- - चित्र नं०२ - ७ चित्र नं. ३ समलम्ब चतुर्भुज का क्षेत्रफल-दो सामानान्तर भुजाओं की लम्बाई क्रमशः ७ रज्जु है और लम्ब की लम्बाई ७ रज्जू है। (देखें चित्र नं. ४) अतः क्षेत्रफल ={३ (७+१)४७} = २८ वर्ग रज्जु । इसलिए घनफल=२८४७-१९६ घन रज्जु इस प्रकार अधोलोक का घनफल १९६ घन रज्जु है । - ७ चित्र नं. ४ Jain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०६, सू० ४०८ टि०१५ २४७ ऊर्ध्व लोक की ऊंचाई ७ रज्जु है, चौड़ाई सर्वत्र ७ रज्जु है और लम्बाई नीचे १ रज्जु, बीच में ५ रज्जु, ऊपर १ रज्जु है। इस प्रकार ऊर्वलोक दो समान समलम्ब चतुर्भुजाधार सम पार्श्व का बना हुआ है। (देखें चित्र नं. ५,६) प्रत्येक समपार्श्व का घनफल-समलम्ब-चतुर्भुज का क्षेत्रफल Xऊंचाई है। ३.५ चित्र नं०५ चित्र नं०६ यहां पर समलम्ब-चतुर्भुज की दो समानान्तर भुजाएं १ रज्जु और ५ रज्जु है तथा ऊंचाई ३३ रज्जु है। (देखें चित्र नं. ७) अतः समलम्ब चतुर्भुज का क्षेत्रफल={9 (५४१)x}=३ वर्ग रज्जु है । अत: ३४७=१४ घन रज्जु । - चित्र नं०७ इस प्रकार ऊर्ध्वलोक का घनफल १४७ घन रज्जु है। अधोलोक और ऊर्ध्व लोक के घनफलों को मिलाने पर समग्र लोक का घनफल निकलता है अतः समग्र लोक का घनफल-१९६+१४७=३४३ घन रज्जु है। श्वेताम्बर परम्परा श्वेताम्बर-परम्परा के आगम-साहित्य में यद्यपि लोक के आयाम, विष्कम्भ आदि के विषय में विस्तृत गाणितिक विवेचन उपलब्ध नहीं है, फिर भी उत्तरवर्ती ग्रन्थों में जो विवेचन किया गया है, उसके आधार पर यहां लोक का गाणितिक विवेचन किया जा रहा है। इन ग्रन्थों के अनुसार लोक की ऊंचाई १४ रज्जु है। १. लोकप्रकाश, सर्ग १२ में यह विवेचन उपलब्ध है। इसके सदश विवेचन का उल्लेख जर्मन विद्वान् फोन ग्लेसनहाप द्वारा लिखित 'देर जैनिजिमुस' पुस्तक में पाया गया। ग्लेसनहाप ने 'लोकस्त्री' (weltfrau) का एक चित्र चन्द्रसूरि के संग्रहणीसूत्र से उद्धृत किया है । इस चित्र में लोक का आयाम, विष्कम्भ और आयतन आदि का किया गया गाणितिक वर्णन 'लोकप्रकाश' के गाणितिक वर्णन से अधिकांश समान है। संग्रहणी का उल्लेख लोकप्रकाश में बहुत स्थलों पर किया गया है। अतः यह अनुमान है कि उससे ही उपाध्याय विनयविजयजी ने सारा विवेचन लिया हो। २. लोप्र. १२१८-१११ तथा देखें, देर निजिमुस पृ. २३२ । Jain Education Intemational Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदा दूसरा परिमाण (चौड़ाई) और तीसरा परिमाग (लम्बाई) विभिन्न ऊंचाइयों पर भिन्न-मित्र है और समान ऊंचाई पर समान है। अर्थात् लोक का यदि कहीं से भी तिर्यक् छेद किया जाये, तो वह समचतुरन (Sqware) होगा (देखें चित्र नं. ८) -४ २४८ भिन्न-भिन्न ऊंचाइयों पर लम्बाई और चौड़ाई क्या है, उसे नीचे दिए गए कोष्ठक में बताया गया है। (चित्र नं. ९ भी देखें) यहां पर लम्बाई-चौड़ाई 'खण्डूक' नामक मान में व्यक्त की गई है । खण्डूक का अर्थ है रज्जु का चतुर्या नीचे से ऊंचाई लम्बाई और चौड़ाई | (कों में) (खण्डूकों में) ० स ४ ४ से ५ ८ से १२ १२ से १६ १६ से २० २० से २४ २४ से २८ २८ से ३० ३० से ३२ ३२ से ३३ ३३ से ३४ ३४ से ३६ ३६ से ३८ ३५ से ४० ४० से ४२ ४२ से ४४ ४४ से ४६ ४६ से ४९ ४९ से ५२ ५२ से ५४ ५४ से ५६ २८ २६ २४ २० १६ १० ८ १० १२ १६ २० २० १६ १२ १० घनफल वर्ग ( वर्ग खण्डूकों में ) | ( घन खण्डूकों में) ७८४ ३१३६ २७०४ २३०४ १६०० १०२४ ४०० ६७६ ५७६ ४०० २५६ ܐ ܘ ܘ ܘܘܐ १६ १६ ३६ ६४ चित्र नं० ८ १०० १४४ २५६ ४०० ४०० २५६ १४४ १०० ६४ ३६ १६ ६४ ३२ ७२ ६४ १०० २८८ ५१२ ८०० ८०० ५१२ २८८ ३०० १९२ ७२ ३२ कुल - १५२९६ ४२ 221 ३८ १६. ४४ १६ ye ४६ ३४ चित्र नं० ९ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ६, सू० ४०८, टि० १५ ऊपर दिए गए कोष्ठक से यह स्पष्ट हो जाता है कि समग्र लोक ५६ लम्बकोणीय - समानान्तर षट् फलक (Rectangular paralleopipel) में विभाजित किया गया है, जिसमें प्रत्येक की लम्बाई-चौड़ाई भिन्न भिन्न है और ऊंचाई १ खण्डूक है । (देखें चित्र नं. १०) प्रत्येक का घनफल अपनी-अपनी लम्बाई, चौड़ाई व ऊंचाई के गुणनफल से निकाला गया है। इन सभी लम्बकोणीयसमानान्तर षट् फलक के घनफलों का योग १५२९६ घन खण्डूक होता है। * १ खण्डूकट्ठे रज्जु है, : १ घन- खण्डूक- ६४ घन रज्जु' * लोक का घनफल = १५२९६ घन-खण्डूक = २३९ घन रज्जु । इस प्रकार लोक का घनफल २३९ घन रज्जु होता है । चित्र नं० १० उक्त गणना के द्वारा लोक का जो घनफल निकाला गया है, वह लोक का वास्तविक घनफल नहीं है, ऐसा लगता है । ग्रन्थकारों ने इसको 'वर्गित लोकमान' ऐसा अभिधान दिया है । 'वर्गित लोकमान' से उसका वास्तविक तात्पर्य क्या है, यह कहना कठिन है । किन्तु लोक के 'घनीकृत लोकमान' की चर्चा भी उन्होंने की है और स्पष्ट रूप से लोक का घनफल ३४३ घन रज्जु स्वीकार किया है । जैसे कि लोकप्रकाश ग्रन्थ में लिखा है : "इस घनीकृत लोक के तीन सौ तैंतालीस घन-रज्जु तत्त्वज्ञों द्वारा माने गए हैं।" अनुयोगद्वार की मलधारीया टीका के आधार पर लोक ३४३ घन रज्जु है । यह व्यवहारनय की अपेक्षा से है ।' गाणितिक प्रक्रिया से ३४३ रज्जु नहीं आते । लोक ऊंचाई में १४ रज्जु है और विविध चौड़ाई - लम्बाई वाला है। अलग-अलग खण्ड करके पुनः जोड़ने से घन चतुरस्र की आकृति का निर्माण करने का प्रयत्न किया है, जिसकी प्रत्येक भुजा ७ रज्जु है । किन्तु स्वीकार किया गया है कि लम्बाई और चौड़ाई छह रज्जु से अधिक रज्जु का असंख्यातवां भाग जितनी है और उन्हें व्यवहार में ७ रज्जु माना जा सकता है ।" व्यवहार नय की दृष्टि में कुछ न्यून वस्तु भी पूर्ण मानी जाती है। इस तरह लम्बाई और चौड़ाई सात रज्जु से कुछ न्यून होने पर भी व्यवहार नय में सम्पूर्ण सात रज्जु माने जा सकते हैं । २४६ लोक का घन प्रमाण ३४३ घनरज्जु है । यह तथ्य सबको मान्य है । ३४३ का घनमूल ७ होता है । इसलिए श्रेणी का प्रमाण ७ रज्जु है । श्रेणी अंगुल को श्रेणी अंगुल से गुणित करने से ७४७ = ४९ वर्ग रज्जु प्रतर का प्रमाण होता है और ४९ वर्ग रज्जु को श्रेणी ७ से गुणित करने से लोक का प्रमाण ४९४७ = ३४३ घन रज्जु आता है। लोक के प्रमाण को संख्यात से गुणित करने से संख्यात लोक का, असंख्यात से गुणित करने पर असंख्यात लोक का और अनन्त से गुणित करने पर अनन्त लोक का प्रमाण आता है। raft अनन्त लोक के बराबर अलोक है और उसके द्वारा जीवादि पदार्थ नहीं जाने जाते हैं तथापि यह प्रमाण इसलिए है कि इससे अलोक का स्वरूप तो ज्ञात हो जाता है । १. लोप्र. १२ १०६ : धनरज्जुश्चतुः षष्टिः खंडूकाः सर्वतः समाः । २. लो. प्र. १२।११०-११५ । ३. लोप्र. १२।१३७ : अस्मिन् घनीकृते लोके प्रज्ञप्ता घनरज्जवः । त्रिचत्वारिंशताद्यानि शतानि त्रीणि तात्विकैः ॥ ४.अ.प. १६० व्यवहारनयमनायाम-विवाह प्रत्येकं सप्तरज्जुप्रमाणो पनो जातः । ५. वही प. : कृतनभः १६० बाहुल्यतस्तावत् सर्वमध्येतच्चतुरस्त्री-खण्डं कियत्यपि प्रदेशे रज्जवसंख्येयभागाधिका: षट् रज्जवो भवन्ति । व्यवहारतस्तु सर्वं सप्तरज्जुबाहल्यमिदमुच्यते । ........ तत्र सर्वत्रास्य घनीकृतलोकस्य सम्बन्धिनी सप्तरज्जुप्रमाणा सा ग्राह्या । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रकरण *(सूत्र ४१३-५०५) Jain Education Intemational Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख समय काल का सूक्ष्मतम विभाग है। प्रस्तुत प्रकरण में समय की बहुत सुन्दर प्रज्ञापना प्राप्त है । काल को गणित और औपमिक इन दो भागों में विभक्त कर सूत्रकार ने काल विषयक व्यापक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है । पल्योपम और सागरोपम के प्रयोजन भी बतलाए गए हैं। सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम के प्रयोजन के प्रसंग में सूत्रकार ने दृष्टिवाद का उल्लेख किया है। [सू० ४४० ] | प्रासंगिक रूप में द्रव्य की चर्चा की है । बद्ध और मुक्त शरीर की चर्चा के प्रसङ्ग का टीकाकारों ने विमर्श किया है। हरिभद्र के अनुसार शरीर जीव अजीव उभयरूपात्मक होता है', इसलिए जीव के प्रसंग में उसका वर्णन अप्रासंगिक नहीं है । मलधारी हेमचन्द्र ने इस विषय को और आगे बढ़ाया है।' उनके अनुसार नारक आदि को असंख्येय बतलाया गया है । वह असंख्येय किस प्रमाणवाला है ? यह स्पष्ट नहीं होता । शरीर विचार में उसे स्पष्ट किया है, इसलिए जीव द्रव्य के प्रकरण के अनन्तर शरीर पर विचार किया गया हैं । १. अहावृ. पृ० ८७ : कः पुनरस्य प्रस्ताव इति, उच्यते, जीवद्रव्याधिकारस्य प्रक्रान्तत्वात्शरीराणामपि च तदुभयरूपत्वादवसर इति । २. अमवृ. प. १८० : नारकादयोऽसंख्येयादिस्वरूपतः सामान्येन प्रोक्ता विशेषतस्तु तदसंख्येकं कियत्प्रमाणमिति न ज्ञायते, औदारिकादिशरीरविचारे च तत्परिज्ञानं सिद्धयति औदारिकादिशरीरस्वरूपबोधश्च विनेयानां संपद्यते इति चेतसि निधाय जीवाजीवद्रव्यविचारप्रस्तावाच्छरीराणां तदुभयरूपत्वासानि विचारवितुं उपक्रम्यते । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ कालप्यमाण-पदं ४१३. से कि तं कालप्यमाणे ? कालव्यमाणे बिहे पण तं जहा परसनिष्पणे व विभागनिष्कण्णे य ॥ ४१४. से कि तं परसनिष्कणे ? पएसनिष्फण्णे - एगसमपट्टिईए दुसमयट्ठिईए तिसमयईिए जाव दससमयईए संखेज्जसमय ट्ठिईए अलेक्जसमपट्टिईए से तं पएसनिष्कण्णे || ४१५. से किं तं विभागनिष्कण्णे ? विभागनिष्कष्णे गाहा समयावलिय-मुहुत्ता, दिवस महोरत- पक्ख - मासा य । संवच्छर-जुग-पलिया, सागर-ओसप्पि परियट्टा || १ || ४१६. से किं तं समए ? समयस्स णं परूवणं करिस्सामिसे जहानामए तुष्णागदारए सिया तरुणे बलवं जुग जुवा अध्यातं विरग्यत्वे पाणि-पाय-पास पितरोपरिणते तलजमलजुल -परिपनिमबाहू चम्मेग-दु-मुट्टिय समाहत - निचित गत्तकाए उरस्सबलसमण्णागए लंघण-पवणजइण- वायामसमत्थे छेए दक्खे पत्तट्ठे कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पो गए एगं महत पडसाहियं वा पट्टसाहियं वा महाय सपराहं हत्थमेतं ओसारेण्जा । दसवां प्रकरण संस्कृत छाया कालप्रमाण-पर्व अथ कि तद् कालप्रमाणम् ? काप्रमाणं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा प्रवेशनिष्यन्नं च विभागनिष्यन्नं च । अथ fक तत् प्रदेशनिध्यम् ? प्रदेश निष्पन्नम् – एकसमयस्थितिक: द्विसमयस्थितिक त्रिसमयस्थितिक: यावत् दशसमयस्थितिक: संख्येयसमयस्थितिकः असंख्येयसमयस्थितिकः । तदेतत् प्रदेशनिष्पन्नम् । अब कि तद् विभागनिन ? विभागनिष्पन्नम् .. गाथा समयावलिका मुहर्त्ता, दिवसम् अहोरात्र पक्ष-मासाश्च । संवत्सर-युगपत्याः, सागर-अवसपि परिवर्त्ताः ॥१ ॥ अथ किं सः समयः ? समयस्य प्ररूपणं करिष्यामि तद यथानाम तुम्नवायदारकः स्यात् तरुणः बलवान् गवान युवा आगात स्थिराग्रहस्तः पाणिपादपा पृष्ठान्तरपरि णतः तलय मलयुगल - परिघनिभबाहुः घटक-पटक समाहत-निचित गात्रकायः औरस्यबलसमन्वागत: लङ्घन-प्लवन - जवन व्यायामसमर्थ: छेकः दक्षः प्राप्तार्थः कुशल: मेधावी निपुण निपुणशिल्पोपगतः एकां महतीं पटशाटिकां वा पट्टाटिकां वा गृहीत्वा मात्रम् अपसारयेत् । तत्र चोदक हिन्दी अनुवाद कालप्रमाण-पद ४१३. वह काल प्रमाण क्या है ? काल प्रमाण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-प्रदेशनिष्पन्न, और विभाग निष्पन्न । ४१४. वह प्रदेशनिष्पन्न क्या है ? प्रदेशनिष्पन्न एक समय की स्थिति वाला, दो समय की स्थिति वाला, तीन समय की स्थिति वाला, यावत् दस समय की स्थिति वाला, संख्येय समय की स्थिति वाला और असंख्येय समय की स्थिति वाला । वह प्रदेशनिष्पन्न है । ४१५. वह विभागनिष्पन्न क्या है ? विभागनिष्पन्न - समय, आवलिका, मुहूर्त, दिवस अहोरात्र, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, 1 पल्य, सागर, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी और परिवर्त ४१७. वह समय क्या है ? मैं समय की प्ररूपणा करूंगा जैसे कोई तुझा [रदार] का पुत्र है, वह तरुण, बलवान् युगवान, युवा, स्वस्थ और सधे हुए हाथों वाला है, उसके हाथ-पांव, पार्श्व, पृष्ठान्तर और ऊरू दृढ़ और विकसित हैं। सम श्रेणी में स्थित दो ताल वृक्ष और परिघा के समान जिसकी भुजाएं हैं। चर्मेष्टक, पाषाण, मुद्गर और मुट्टी के प्रयोगों से जिसके शरीर के पुट्ठे आदि सुदृढ़ हैं। जो आन्तरिक उत्साह बल से युक्त है। लंघन, प्लवन, धावन और व्यायाम करने में समर्थ है, छेक, दक्ष प्राप्तार्थ, कुशल, मेघावी निपुण और सूक्ष्म शिल्प से समन्वित है । 7 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई २५६ तत्थ चोयए पण्णवयं एवं वयासी प्रज्ञापकम् एवम् अवादीत्-येन --जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदार- कालेन तेन तुन्नवायदारकेण तस्याः एणं तीसे पडसाडियाए वा पट्टसा- पटशाटिकायाः वा पट्टशाटिकायाः वा डियाए वा सयराहं हत्थमेत्तं ओसा- 'सयराह' हस्तमात्रम् अपसारितम् रिए से समए भवइ ? नो इण- स समयः भवति ? नायमर्थः समर्थः । मठे समठे। कम्हा? जम्हा संखेज्जाणं तंतुणं कस्मात् ? यस्मात् संख्येयानां समुदय-समिति-समागमेणं एगा तन्तूनां समुदय-समिति समागमेन एका पडसाडिया निष्फज्जइ, उवरिल्ल- पटशाटिका निष्पद्यते, उपरितने तन्तौ म्मि तंतुम्मि अच्छिण्णे हेटिल्ले ___ अच्छिन्ने अधस्तन: तन्तु: न छिद्यते, तंतू न छिज्जइ, अण्णम्मि काले अन्यस्मिन् काले उपरितन: तन्तुः उरिल्ले तंतू छिज्जइ, अण्णम्मि, छिद्यते, अन्यस्मिन् काले अधस्तनः काले हेदिल्ले तंतू छिज्जइ, तम्हा तन्तुः छिद्यते, तस्मात् स समय: न से समए न भवई। एवं वयंत ___ भवति । एवं वदन्तं प्रज्ञापकं चोदक: पण्णवयं चोयए एवं वयासी-जेणं एवम् अवादीत् येन कालेन तेन कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे तुन्नवायदारकेण तस्याः पटशाटिकायाः पडसाडियाए वा पसाडियाए वा वा पट्टशाटिकायाः वा उपरितन: उवरिल्ले तंतू छिण्णे से समए ? न तन्तुः छिन्नः स समयः ? न भवति । भव। वह युवा एक बड़ी पटशाटिका अथवा पट्टशाटिका को लेकर शीघ्र ही एक हाथ प्रमाण जितना वस्त्र फाड़ डालता है। यहां प्रेरक ने प्रज्ञापक से इस प्रकार कहाजितने समय में उस तुन्नवाय के पुत्र ने शीघ्र ही उस पटशाटिका या पट्टशाटिका को एक हाथ फाड़ डाला, क्या वह समय होता है ? ऐसा नहीं होता। क्यों ? __संख्येय तन्तुओं के समुदय, समिति और समागम से एक पटशाटिका तैयार होती है। उस शाटिका के ऊपर वाले तन्तु के छिन्न हुए बिना नीचे वाला तन्तु छिन्न नहीं होता ऊपर का तन्तु दूसरे समय में छिन्न होता है और नीचे का दूसरे समय में, इसलिए वह समय नहीं होता। प्रज्ञापक के ऐसा कहने पर प्रेरक ने इस प्रकार कहा जितने समय में उस तुन्नवाय के पुत्र ने उस पटशाटिका या पट्टशाटिका के ऊपर वाले तन्तु को छिन्न किया, क्या वह समय होता है ? नहीं होता। क्यों? संख्येय पक्ष्मों [सूत्र का सूक्ष्म भाग] के समुदय, समिति और समागम से एक तन्तु निष्पन्न होता है, ऊपर का पक्ष्म छिन्न हुए बिना नीचे का पक्ष्म छिन्न नहीं होता। ऊपर का पक्ष्म दूसरे समय में छिन्न होता है और नीचे का दूसरे समय में, इसलिए वह समय नहीं होता। प्रज्ञापक के ऐसा कहने पर प्रेरक ने इस प्रकार कहा-- जितने समय में उस तुन्नवाय के पुत्र ने उस तन्तु के ऊपर वाले पक्ष्म को छिन्न किया, क्या वह समय होता है ? नहीं होता। क्यों? ___ अनन्त संघातों के समुदय, समिति और समागम से एक पक्ष्म निष्पन्न होता है, ऊपर का संघात जब तक नहीं बिखरता तब तक नीचे का संघात भी नहीं बिखरता। ऊपर का संघात दूसरे समय में बिखरता है और नीचे का दूसरे समय में, इसलिए वह समय नहीं कम्हा ? जम्हा संखेज्जाणं पम्हाणं कस्मात् ? यस्मात् संख्येयानां समुदय-समिति-समागमेणं एगे तंतू पक्ष्मणां समुदय-समिति-समागमेन निष्फज्जइ, उवरिल्ले पम्हे एकः तन्तुः निष्पद्यते, उपरितने अच्छिण्णे हेदिल्ले पम्हे न छिज्जइ, पक्ष्मणि अच्छिन्ने अधस्तनं पक्ष्म न अण्णम्मि काले उवरिल्ले पम्हे छिद्यते अन्यस्मिन् काले उपरितनं छिज्जइ, अण्णम्मि काले हेटिल्ले पक्ष्म छिद्यते, अन्यस्मिन् काले अधपम्हे छिज्जइ, तम्हा से समए न स्तनं पक्ष्म छिद्यते, तस्मात् स समयः भवइ । एवं वयंतं पणणवयं चोयए न भवति । एवं वदन्त प्रज्ञापक एवं वयासी ---जेणं कालेणं तेणं चोदक: एवम् अवादीत्ये न कालेन तुण्णागदारएणं तस्स तंतुस्स तेन तुम्नवायदारकेण तस्य सन्तोः उरिल्ले पम्हे छिण्ण से समए? उपरितनं पक्ष्म छिन्नम् स समय: ? न भवइ। न भवति । कम्हा? जम्हा अणताणं संघायाणं कस्मात् ? यस्माद् अनन्तानां समुदय-समिति-समागमेणं एगे संघातानां समुदय-समिति-समागमेन पम्हे निष्फज्जइ, उवरिलले संघाए एक पक्ष्म निष्पद्यते, उपरितने संघाते अविसंघाइए हेदिल्ले संघाए न अविसंघातिते अधस्तन: संघात: न विसंघाइज्जइ, अण्णम्मि काले विसंघात्यते, अन्यस्मिन् काले उपउवरिल्ले संघाए विसंघाइज्जइ, रितन: संघात: विसंघात्यते अन्यस्मिन् अण्णम्मि काले हेटिल्ले संघाए काले अधस्तन: संघात: विसंघात्यते, Jain Education Intemational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रकरण सूत्र ४१६ ४१७ विसंवाद तम्हा से समए न भवइ । एत्तो वि य णं सुहुमतराए समए पण्णत्तं समणाउसो ! ४१७. असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमिति-समागमेणं सा एगा आव लिया त्ति बुच्चइ संखेज्जाओ आवलिया ऊसासो जाओ आवलियाओ नीसासो । सिलोगा हट्ठस्स अणवगल्लस्स, reafter जंतुणो । एगे तास-नोसासे, एस पाणु त्ति वुच्चइ ॥ १ ॥ सत्त पाणि से थोवे, सत्त योवाणि से लवे । लवाणं सतहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहि ॥२॥ तस्मात् स समय: न भवति । एतस्माद् अपि सूक्ष्मतरक: समय: प्रज्ञप्तः आयुष्मन् श्रमण ! असंख्येयानां समयानां समुदयसमिति-समागमेन सा एका आवलिका इति उच्यते, संख्येयाः आवलिका: उच्छ्वासः, संख्येयाः आवलिकाः निःश्वासः । श्लोका हृष्टस्य अनवकल्यस्य, निरुपक्लिष्टस्य जन्तोः । एक: उच्छ्वास विश्वास: एष प्राणः इति उच्यते ॥१॥ सप्त प्राणाः स स्तोक:, सप्त स्तोकाः स लवः । लवानां सप्तसप्ततिः, एष मुहूर्त्तः व्याहृतः ॥ २॥ गाया गाहा तिथि सहस्सा सत्त प सयाई तेहत्तरि च ऊसासा । एस मुहूतो भणियो सम्बेहि अनंतनाणीहि ॥३॥ एएवं मुहत्तपमाणेणं तसं मुहुत्ता अहोरत्तं, पण्णरस अहोरत्ता पक्खो, दो पला मासो, दो मासा उऊ, तिरिण उऊ अयणं, दो अयणाई संच्छरे, पंच संवच्छराई जुगे, वीसं जुगाई वासस्यं, दस वाससयाई वाससहस्सं सयं वासस हस्ताणं वातसयस हस्से, चउरासीइं वाससहस्साइं से एगे पुव्वंगे, चउरा सोई बंगलसहरसा से एगे पुव्वे, चउरासीइं पुव्वसयसहस्साइं से एगे तुडियंगे, चउरासी बुद्धि यंगस्य सहरसाई से एगे अडंगे, चउरासोई अडडंगसयसहस्साइं से एगे अडडे एवं अवयं अवये, हुहुयंगे हुए, उप्पलंगे उप्पले, पउमंगे पउने, नलिणंगे नलिणे, अत्थनिउरंगे अत्थनिउरे, अउयंगे अए उगे नए उगे पएमा त्रयः सहस्राः सप्त च, शतानि त्रिसप्ततिः च उच्छ्वासाः । एषः भणितः, सर्वे: अनन्तज्ञानिभिः ॥ ३ ॥ एतेन मुहूर्त्तप्रमाणेन त्रिशत् मुहूर्त्ताः अहोरात्रः, पञ्चदश अहो - रात्राः पक्षः, द्वौ पक्षौ मासः द्वौ मासो ऋतु, त्रय ऋतवः अयनं द्वे अयने संवत्सरः, पञ्च संवत्सराः युगं, विंशतिः युगानि वर्षशतं, दश वर्षशतानि वर्षसहस्रं शतं वर्षसहस्राणां वर्षशतसहस्रं चतुरशीतिः वर्षशतसहस्राणि तद् एकं पूर्वाङ्ग चतुरसीति पूर्वाङ्गाणि तद् एवं पूर्वं चतुरशीतिः पूर्वंशतसहस्राणि तद् एवं त्रुटितं चतुरशीतिः पुगि 1 ताणि तद् एवं त्रुटितं चतुर शीतिः त्रुटितशतसहस्राणि तद् एकम् अगं, चतुरशीति जगत सहस्राणि तद् एकम् अटटम् एवम् अथवा अर्थ हुकम् उत्पलाङ्गम् उत्पलं, पद्माङ्ग पद्म, नलिनम् अर्धनिशंगम् २५७ होता । हे आयुष्मान् श्रमण ! समय इससे भी सूक्ष्मतर है।" ४१७. असंख्येय समयों के समुदय, समिति और समागम से एक आवलिका होती है। संख्येय आवलिकाओं का एक उच्छ्वास होता है । संख्येय आवलिकाओं का एक निःश्वास होता है। श्लोक १. हृष्ट, नीरोग और मानसिक क्लेश से मुक्त प्राणी का एक उच्छ्वास निःश्वास प्राण कहलाता है । २. सात प्राण का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव और सतहत्तर लवों का एक मुहूर्त होता है । गाथा ३. तीन हजार सात सौ तिहत्तर [ ३७७३] उच्छ्वासों का एक महत होता है ऐसा सब अनन्तज्ञानियों ने कहा है । इस मुहूर्त्त प्रमाण से तीस मुहूर्त्त का एक दिन रात, पन्द्रह दिन रात का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतु का एक अयन, दो अयन का एक संवत्सर, पांच संवत्सर का एक युग, बीस युग के सौ वर्ष दस सौ वर्ष के हजार वर्ष, सौ हजार वर्ष के लाख वर्ष, चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग, चौरासी लाख पूर्वाङ्गों का एक पूर्व, चौरासी लाख पूर्वो का एक त्रुटिताङ्ग, चौरासी लाख त्रुटिताङ्गों का एक त्रुटित, चौरासी लाख त्रुटितों का एक टटाङ्ग, चौरासी लाख अटटाङ्गों का एक अटट होता है। इसी प्रकार [पूर्वोक्त क्रम से ] अववांग, अवव, हुहुकांग, हुहुक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनाङ्ग, नलिन, अर्थनिकुराङ्ग, अर्थनिकुर, अयुताङ्ग, अयुत, नताङ्ग नत प्रयुता प्रता. चूलिका, शीर्षप्रहेलिकाङ्ग और शीर्षप्रहेलिका । यहां तक गणित है, यहां तक 1 " Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई गणित का विषय है इसके बाद औपमिक काल प्रवृत्त होता है। २५८ चूलियंगे चूलिया, सीसपहेलियंगे अर्थनिकुरम्, अयुतांगम् अयुतं, नयुतांगं सीसपहेलिया। एतावताव गणिए, नयुतं, प्रयुतांगं प्रयुतं, चूलिकांगं एतावए चेव गणियस्स विसए, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांगं शीर्षप्रहेअतो परं ओवमिए। लिका। एतावत्तावद् गणितम् एतावान् चव गणितस्य विषयः, अतः परम् औपमिकम् । ४१८. से कि तं ओवमिए ? ओवमिए अथ किं तद् औपमिकम् ? औप- दुविहे पण्णते, तं जहा-पलि- मिकं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथाओवमे य सागरोवमे य॥ पल्योपमं च सागरोपमं च । ४१८. वह औपमिक क्या है ? औरमिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-- पल्योपम और सागरोपम । ४१६. से कि तं पलिओवमे ? पलि- अथ किं तत् पल्योपमम् ? ओवमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा -- पल्योपमं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथाउद्धारपलिओवमे अद्धापलिओवमे उद्धारपल्योपमम् अध्वापल्योपमं क्षेत्र. खेत्तपलिओवमे य॥ पल्योपमं च। ४१९. वह पल्योपम क्या है ? पल्योपम के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेउद्धार पल्योपम, अध्वा पल्योपम और क्षेत्र पल्योपम । ४२०.से कि तं उद्धारपलिओवमे? अथ कि तब उद्धारपल्योपमम् ? उद्धारपलिओवमे दुविहे पण्णते, तं उद्धारपल्योपमं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा जहा सुहमे य वावहारिए य॥ -सूक्ष्मं च व्यावहारिकं च । ४२०. वह उद्धार पल्योपम क्या है ? उद्धार पल्योपम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे सूक्ष्म और व्यावहारिक । ४२१. तत्ण णं जेसे सुहमे से ठप्पे । सूक्ष्म तत् तत्र यत् तत् स्थाप्यम्। ४२१. इनमें जो सूक्ष्म उद्धार पल्योपम है वह स्थापनीय है। [देखें सूत्र ४२४] । गाहा गाथा ४२२. तत्थ णं जेसे वावहारिए, से तत्र यत् तद् व्यावहारिकम् तद् ४२२. इनमें जो व्यावहारिक उद्धार पल्योपम है जहानामए पल्ले सिया--जोयणं यथानाम पल्य: स्यात् योजनम् वह इस प्रकार है-जैसे कोई कोठा एक आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उडढं आयाम-विष्कम्मेण, योजनम् ऊर्वम् योजन लम्बा, चौड़ा, ऊंचा और कुछ अधिक उच्चत्तणं, तं तिगुणं सविसेसं उच्चत्वेन, तत् त्रिगुणं सविशेष परि- तिगुनी परिधि वाला है। वह पल्य--- परिक्खेवेणं; से ण पल्लेक्षेपेण; स पल्य:--- गाथाएगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय, एकाहिक-द्वयहिक-यहिकाणाम्, १. एक, दो, तीन दिन यावत् उत्कृष्टतः उक्केसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । उत्कर्षेण सप्तरात्रप्ररूढानाम् । सात रात के बड़े हुए करोड़ों बालानों से सम्मठे सन्निचिते, संमृष्टः सन्निचितः डूंस-ठूस कर घनीभूत कर भरा हुआ है। भरिए वालग्गकोडीणं ॥१॥ भृत: बालाग्रकोटिभिः ॥१॥ ते णं वालग्गे नो अग्गी डहेज्जा, तानि बालाग्राणि नो अग्नि: दहेत्, वे बालाग्न न अग्नि से जलते हैं, न हवा से नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, नो वायुः हरेत्, नो कुथ्येयुः, नो परि- उड़ते हैं, न असार होते हैं, न विध्वस्त होते नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए विध्वंस्येरन् नो पूतित्वेन 'हव्वं' हैं और न दुर्गन्ध को प्राप्त होते हैं। उस हव्वमागच्छेज्जा । तओ णं समए- आगच्छेयुः। ततः समये-समये एकक कोठे से प्रत्येक समय में एक एक बालाग्र समए एगमेगं बालग्गं अवहाय बालाग्रम् अपहृत्य यावता कालेन स को निकालने से जितने समय में वह खाली, जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे पल्यः क्षीणः नीरजाः निर्लेपः निष्ठितः रज रहित, निर्लेप और निष्ठित [अन्तिम नीरए निल्लेवे निट्रिए भवइ। से भवति । तदेतद् व्यावहारिकम् उद्धार- रूप से खाली होता है । वह व्यावहारिक तं वावहारिए उद्धारपलिओवमे। पल्योपमम् । उद्धार पल्योपम है। Jain Education Intemational Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रकरण : सूत्र ४१८-४२४ गाहाएएस पलाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया । तं वावहारियस्स उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥ २ ॥ ४२३. एएहिं बावहारियउद्धारपलि ओवम सागरोयमेहि कि ओषणं ? एएहि वावहारियउद्धारपलि ओवम सागरोवमेहिनस्थि किंचि प्पलोयणं केवलं पण्णवण पण्णविज्जति । से तं वावहारिए उद्धारपओिवमे || ४२४. से किं तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे ? हमे उद्धारपलिओदमे से जहानामए पल्ले सिया जोयणं आयाम विक्संभेणं, जोयणं उड़ई उच्चत्तणं तं तिगुणं सविसेसं परिवर्ण से णं पल्लेगाहा एगाहिय बेयाहिय तेयाहिय, उक्को सेणं सत्तरत्तपरूढाणं । सम्म सनिचिते भरिए वालग्गकोडीणं ॥ १ ॥ तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाई खंडाई कज्जइ । ते णं वालग्गा दिट्ठोओगाहणाओ असं खेज्जइभागमेत्ता सुहमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असं खेज्जगुणा ते णं बाल नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, नो पलि विद्वंसेज्जा, नो पूदत्ताए हथ्यमागच्छेन्ना । तओ णं समए - समए एगमेगं बालग्गं अवहाय जाइए काले से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवद्द से तं सुहमे उद्धारपलि ओवमे । गाथाएतेषां पल्यानां कोटिकोटि भवेत् दगुणिता तद् व्यावहारिकस्य उद्धारसागरोपमस्य एकस्य भवेत् परीमानम् ॥२॥ एतं व्यावहारिकउद्वारपस्योपमसागरोपमे कि प्रयोजनम् ? एस व्यावहारिकउद्धारपत्योपम-सागरोपमः नास्ति किचित्प्रयोजनं, केवलं प्रज्ञापनार्थ प्राप्यते तदेतद्व्याव हारिकम् उद्धारपल्योपमम् । अथ किं तत् सूक्ष्मम् उद्धारपल्पोपमम् ? सूक्ष्मम् उद्धारपत्योपम तद् यथानाम पल्यः स्यात् योजनम् आपान विकरमेण योजनम् अम् उच्चत्वेन तत् त्रिगुणं सविशेषं परिक्षेपेण, स पल्यः गाथा एकाहिक - द्वयहिक व्यहिकानाम् उत्कर्षेण सप्तरात्रप्ररूढानाम् । संमृष्ट: सन्निचित: भृतः बालाप्रकोटिभिः ॥ १ ॥ तत्र एकैकस्प बालाग्रस्य असंख्येयानि खण्डानि क्रियन्ते । तानि बालाग्राणि दृष्ट् यवगाहनातः असंख्येयभागमात्राणि सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य शरीरावगाहनात असंख्येयगुणानि । तानि बालाग्राणि नो अग्निः दहेत्, नो वायुः हरेत्, नो कुथ्येयुः, नो परिविध्वंस्येरन्, नो पूतित्वेन 'हवं' आगच्छेयुः । ततः समये समये एकैकं बालाग्रम् अपहृत्य यावता कालेन स पल्यः क्षीण: नीरजा: निर्लेपः निष्ठितः भवति । तदेतत् सूक्ष्मम् उद्धारपायोपमम् । २५६ गाथा - २. इन दसकोडाकोड पल्यों से एक व्यावहारिक उद्धार सागरोपम होता है । ४२३. इन व्यावहारिक उद्धार पल्योपमों और सागरोपमों का क्या प्रयोजन है ? इन व्यावहारिक उद्धार पल्योपमों और सागरोपमों का कोई प्रयोजन नहीं है, केवल प्ररूपणा के लिए प्ररूपणा की जाती है । वह व्यावहारिक उद्धार पत्योपम है । ४२४. वह सूक्ष्म उद्धार पत्योपम क्या है ? सूक्ष्म उद्धार पल्योपम जैसे कोई कोठा एक योजन लम्बा, चौड़ा, ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है। वह पल्य गाथा १. एक, दो, तीन दिन यावत् उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए करोड़ों बालानों से ठूंस-ठूंस कर घनीभूत कर भरा हुआ है । इन बालाग्रों में से प्रत्येक बालाग्र के असंख्य खण्ड किए जाते हैं वे बालाग्र दृष्टि विषय में आने वाले पुद्गलों की अवगाहना के असंख्येय भाग मात्र और सूक्ष्म पनक जीव के शरीर की अवगाहना से असंख्य गुना अधिक हैं । वे बालाग्र न अग्नि से जलते हैं, न हवा में उड़ते हैं, न असार होते हैं, न विश्वस्त होते हैं और न दुर्गन्ध को प्राप्त होते हैं । उस कोठे से प्रत्येक समय में एकएक बालाग्र को निकालने से जितने समय में वह कोठा खाली रज-रहित, निर्लेप और निष्ठित [अन्तिम रूप से वाली] होता है वह सूक्ष्म उद्धार पल्योपम है । 1 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० अणुओगदाराई गाहा--- गाथा गाथाएएसि पल्लाणं, एतेषां पल्यानां, २. इन दस कोडाकोड़ पल्यों से एक सूक्ष्म कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया। कोटिकोटि: मवेत दशगणिता। उद्धार सागरोपम होता है। तं सुहमस्स उद्धारसागरोवमस्स तत् सूक्ष्मस्य उद्धारसागरोपमस्य एगस्स भवे परीमाणं ॥१॥ एकस्य भवेत् परीमाणम् ॥२॥ ४२५. एएहिं सुहमउद्धारपलिओवम- एतः सूक्ष्मउद्धारपल्योपम-साग- ४२५. इन सूक्ष्म उद्धार पल्योपमों और सागरो सागरोवमेहि कि पओयणं? एएहिं रोपमैः कि प्रयोजनम् ? एत: सूक्ष्म- पमों का क्या प्रयोजन है ? सुहमउद्धारपलिओवम-सागरोव- उद्धारपल्योपम-सागरोपमैः द्वीप- ___ इन सूक्ष्म उद्धार पल्योपमों और सागरोमेहिं दीव-समुद्दाणं उद्धारो समुद्राणाम् उद्धारः गृह्यते । पमों से द्वीप-समुद्रों का उद्धार [परिमाण] घेप्पइ॥ किया जाता है। ४२६. केवइया णं भंते ! दीव-समुद्दा कियन्तः भदन्त ! द्वीप-समुद्राः ४२६. भन्ते ! उद्धार से कितने द्वीप-समुद्र प्ररूपित उद्धारेणं पण्णता? गोयमा! उद्धारेण प्राप्ताः? गौतम ! होते हैं ? जावइया णं अडाइज्जाणं उद्धारसा- यावन्तः अर्द्धतृतीयानाम् उद्धारसाग गौतम ! ढाई उद्धार सागरोपमों के जितने गरोवमाणं उद्धारसमया एवइया रोपमाणाम् उद्धारसमया: एतावन्तः उद्धार समय हैं उतने द्वीप-समुद्र उद्धार से णं दीव-समुद्दा उद्धारेणं पण्णत्ता। द्वीप-समुद्राः उद्धारेण प्रज्ञप्ता:। प्ररूपित होते हैं । वह सूक्ष्म उद्धार पल्योपम से तं सुहमे उद्धारपलिओवमे। से तदेतत् सूक्ष्मम् उद्धारपल्योपमम् । है । वह उद्धार पल्योपम है। तं उद्धारपलिओवमे॥ तदेतद् उद्धारपल्योपमम् । ४२७.से कि तं अद्धापलिओवमे? अथ किं तद अध्वापल्योपमम् ? ४२७. वह अध्वा पल्योपम क्या है ? अद्धापलिओवमे दुविहे पण्णत्ते, तं अध्वापल्योपमं विविध प्रज्ञप्त, ____ अध्वा पल्योपम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जहा-सुहुमे य वावहारिए य॥ तद्यथा-- सूक्ष्मं च व्यावहारिक च। जैसे- सूक्ष्म और व्यावहारिक । ४२८. तत्थं णं जेसे सुहमे से ठप्पे । तत्र यत् तत् सूक्ष्म तत् स्थाप्यम्। ४२८. इनमें जो सूक्ष्म अध्वा पल्योपम है वह स्थापनीय है। [देखें सूत्र ४३१] । ४२६. तत्थ ण जेसे वावहारिए: से तत्र यत तद व्यावहारिकम तद ४२९. इनमें जो व्यावहारिक अध्वा पल्योपम है जहानामए पल्ले सिया-जोयणं यथानाम पल्य: स्यात् -- योजनम् वह इस प्रकार है - जैसे कोई कोठा एक योजन आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उडढं आयाम-विष्कम्भेण, योजनम् ऊर्ध्वम् लम्बा, चौड़ा, ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी उच्चत्तणं, तं तिगुणं सविसेसं उच्चत्वेन, तत् त्रिगुणं सविशेष परि- परिधि वाला है । वह पल्य-- परिक्खवेणं, से णं पल्ले -- क्षेपेण, स पल्य: गाथागाहा-- गाथा-- एगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय, १. एक, दो, तीन दिन यावत् उत्कृष्टतः एकाहिक-द्वयहिक-व्यहिकाणाम्, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । उत्कर्षेण सप्तरात्रप्ररूढानाम् । सात रात के बढ़े हुए करोड़ों बालानों से सम्मठे सन्निचिते, लूंस-ठूस कर घनीभूत कर भरा हुआ है। संमृष्ट: सन्निचितः, भरिए वालग्गकोडीणं ॥१॥ भृतः बालाग्रकोटिभिः ॥१॥ ते णं वालग्गे नो अग्गी डहेज्जा, वे बालान न अग्नि में जलते हैं, न हवा में तानि बालाग्राणि नो अग्निः नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, दहेत्, नो वायुः हरेत्, नो कुथ्येयुः, नो उड़ते हैं, न असार होते हैं, न विध्वस्त होते हैं और न दुर्गन्ध को प्राप्त होते हैं। उस कोठे से नो पलिविद्धंसज्जा, नो पूइत्ताए नो परिविध्वंस्येरन, नो पूतित्वेन 'हवं' सौ-सौ वर्ष के बीत जाने पर एक-एक बालाग्र हव्वमागच्छेज्जा। तओ णं वास- आगच्छेयुः। तत: वर्षशते-वर्षशते गते को निकालने से जितने समय में कोठा खाली, सए-वाससए गते एगमेगं वालग्गं एकैकं बालाग्रम् अपहृत्य यावता रज-रहित, निर्लेप और निष्ठित [अन्तिम रूप अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले कालेन स पल्यः क्षीणः नीरजा: निलेपः से खाली] होता है। वह व्यावहारिक अध्वा खोणे नीरए निल्लेवे निट्टिए भवइ। निष्ठित: भवति । तदेतद् ध्यावहारिकम् पल्योपम है। Jain Education Intemational Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ दसवां प्रकरण : सूत्र ४२५-४३१ से तं वावहारिए अद्धापलिओवमे। अध्वापल्योपमम् । गाहा गाथाएएसि पल्लाणं. एतेषां पल्यानां, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया। कोटिकोटिः भवेत् दशगुणिता। तं वावहारियस्स अद्धासागरोवमस्स तद् व्यावहारिकस्य अध्वासागरोपमस्य एगस्स भवे परीमाणं ॥२॥ एकस्य भवेत् परीमाणम् ।।२।। गाथा१. इन दस कोडाकोड़ अध्वा पल्यों से एक व्यावहारिक अध्वा सागरोपम होता है । ४३०. एएहि वावहारियअद्धापलि एतैः व्यावहारिक अध्यापल्योपमओवम-सागरोवमेहि कि पओयणं? सागरोपमैः किं प्रयोजनम् ? एत: एएहि वावहारियअद्धापलिओवम- व्यावहारिक अध्वापल्योपम-सागरोपम: सागरोवमेहि नस्थि किविप्पओयण, नास्ति किंचित प्रयोजनम्, केवलं केवलं पण्णवणळं पण्णविज्जति। प्रज्ञापनार्थ प्रज्ञाप्यते । तदेतद् व्यावसे तं वावहारिए अद्धापलिओवमे। हारिकम अध्वापल्योपमम । ४३०. इन व्यावहारिक अध्वा पल्योपमों और ___सागरोपमों का क्या प्रयोजन है ? इन व्यावहारिक अध्वा पल्योपमों और सागरोपमों का कोई प्रयोजन नहीं है। केवल प्ररूपणा के लिए प्ररूपणा की जाती है। वह व्यावहारिक अध्वा पल्योपम है। ४३१. वह सूक्ष्म अध्वा पल्योपम क्या है ? सूक्ष्म अध्वा पल्योपम-जैसे कोई कोठा एक योजन लम्बा, चौड़ा, ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है । वह पल्य गाथा १. एक, दो, तीन दिन यावत् उत्कृष्टत: सात रात के बढ़े हुए करोड़ों बालारों से लूंस-ठूस कर घनीभूत कर भरा हुआ है। ४३१. से कितं सुहमे अद्धापलिओवमे? अथ कि तत् सूक्ष्मम अध्वा सहमे अद्धापलिओवमे : सं जहा- पल्योपमम ? सूक्ष्मम अध्वापल्योपमं नामए पल्ले सिया -जोयण तद् यथानाम पल्य: स्यात् - योजनम् आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उड्ढं आयाम-विष्कम्भेण, योजनम् ऊर्ध्वम् उच्चत्तणं, तं तिगणं सविसेसं उच्चत्वेन, तत त्रिगणं सविशेष परिक्खेवेणं; से ण पल्ले परिक्षेपेण, स पल्य:गाहा गाथाएगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय, एकाहिक-यहिक-व्यहिकाणाम्, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । उत्कर्षेण सप्तरात्रप्ररूढानाम् । सम्मठे सन्निचिते, संमृष्टः सन्निचितः भृतः भरिए वालग्गकोडोणं ॥१॥ बालाग्रकोटिभिः ॥१॥ तत्थ ण एगमेगे वालग्गे असंखे- तत्र एककस्य बालाग्रस्य असंख्येज्जाइं खंडाई कज्जइ, ते णं यानि खण्डानि क्रियन्ते, तानि बालावालग्गे दिदीओगाहणाओ असंखे ग्राणि दृष्ट्यवगाहनातः असंख्येयज्जइभागमेत्ता सुहमस्स पणग- भागमात्राणि सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य जीवस्स सरीरोगाहणाओ असं- शरीरावगाहनातः असंख्येवगणानि । खेज्जगुणा। ते णं वालग्गे नो तानि बालाग्राणि नो अग्नि: दहेत, अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो वायु: हरेत्, नो कुथ्येयुः, नो परिनो कुच्छेज्जा नो पलिविद्धंसेज्जा, विध्वंस्यरेन्, नो पूतित्वेन 'हव्वं' नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा। आगच्छेयुः। ततः वर्षशते-वर्षशते तओ णं वाससए-वाससए गते गते एकैकं बालाग्रम् अपहृत्य पावता एगमेगं वालग्ग अवहाय जावइएणं कालेन स पल्यः क्षीणः नीरजाः निलंपः कालेणं से पल्ले खोणे नीरए निष्ठितः भवति। तदेतत सूक्ष्मम् निल्लेवे निदिए भवइ । से तं सुहमे अध्वापल्योपमम् । अद्धापलिओवमे। इन बालानों में से प्रत्येक बालाग्र के असंख्य खण्ड किए जाते हैं । वे बालाग्र दृष्टि विषय में आने वाले पुद्गलों की अवगाहना के असंख्येय भाग मात्र और सूक्ष्म पनक जीव के शरीर की अवगाहना से असंख्य गुना अधिक होते हैं। वे बालाग्र न अग्नि में जलते हैं, न हवा में उड़ते हैं, न असार होते हैं, न विध्वस्त होते हैं और न दुर्गन्ध को प्राप्त होते हैं । उस कोठे से सौ-सौ वर्ष के बीत जाने पर एक-एक बालात्र निकालने से जितने समय में वह कोठा खाली, रज-रहित, निर्लेप और निष्ठित अन्तिम रूप से खाली होता है। वह सूक्ष्म अध्वा पल्योपम है। Jain Education Intemational Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ गाहाएएस पल्लाणं, कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया । तं सुहमरस अद्धासागरोयमस्स एगस्स भवे परीमाणं ||२|| ४३२. एएहि सुहुमअद्धापलिओवमसागरोपमेहि कि पओषणं ? एएहि मुहमअद्धापलिओदम-सागरोवमेहि नेरइयतिरिक्त जोणिय-मनुस्स देयाणं आउयाई मविज्जति ॥ ४३३. नेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणेणं दसवाससहस्साई उनको सेणं तेत्तीस सागरोवमाई । जहा पण्णवणाए ठिईपए सव्व - सत्ताणं । से तं सुहुमे अद्धापलिओवमे से तं अदापलिओदमे || 1 ४३४. से किं तं वेतपलिओदमे ? खेत्तपलिओ मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - सुहुमेय वावहारिए य ॥ ४३५. तत्थ णं जेसे सुहुमे से ठप्पे ॥ ४३६. तत्थ णं जेसे वावहारिए से जहानामए पल्ले सिया जोयणं आयाम विक्खभेणं, जोयणं उड़ उच्चतेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं; से णं पल्लेगाहा एगाहिय - बेयाहिय तेयाहिय, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । सम्मट्ठे सन्निचिते, भरिए वालग्गकोडीणं ॥ १ ॥ ते णं वालग्गे नो अग्गी उहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, नो पलिविसज्जा, नो पूइसाए हव्वमागच्छेज्जा । जे णं तस्स आगासपएसा तेहि वालग्गेहि अष्कुन्ना, तओ गं समए समए गाथा एतेषां पानां कोटिकोटि भवेत् दशगुणता तद्व्यावहारिकस्य आवासावरोपमस्य एकस्य भवेत् परीमाणम् ||२|| एतं सूक्ष्म अध्यायस्योपध-साथशेपर्म कि प्रयोजनम् ? एवं सूक्ष्म अध्वा पल्योपम- सागरोपमैः नैरयिकतिर्यग्योनिक मनुष्य देवानाम् आयुठकानि मीयन्ते । नैरयिकाणां भवन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहखाणि उत्क सागरोपमाथि यथा प्रज्ञापनायां स्थितिपदं सर्वसत्त्वानाम् । तदेतत् सूक्ष्मम् अध्वापत्योपमम् । तदेतद् अध्वापल्योपमम् । अथ किं तत् क्षेत्रपल्योपमम् ? क्षेत्रपल्योपमं द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा मुन्यावहारि तत्र यत् तत् सूक्ष्मं तत् स्था प्यम् । तत्र यत् तद् व्यावहारिकम तद् यथानाम पल्य स्यात् योजनम् आयाम-विष्कम्भेण योजनम् ऊम् उच्चत्वेन तत् त्रिगुणं सविशेषं परिक्षेपेण, स पल्य: 1 गाथा एका हिक-द्वयहिक व्यहिकाणाम्, उत्कर्षेण सप्तरात्रप्ररूढानाम् । संसृष्ट समचितः भृतः बालाग्रकोटिभिः || १ || तानि बालाग्राणि नो अग्निः दहेत्, नो वायुः हरेत, नो कुथ्येयुः, नो परिविध्वंश्येरन् नो वृतित्वेन 'हवं आ च्छेयुः । ये तस्य आकाशप्रदेशाः तैः बालाग्रेः 'अप्फुन्ना', ततः समयेसमये एकम् आकाशप्रदेशम् अपहृत्य अणुओगदाराई गाथा १. इन दस कोड़ाकोड़ अध्वा पल्यों से एक सूक्ष्म अध्वा सागरोपम होता है । ४३२. इन सूक्ष्म अध्वा पल्योपमों और सागरोपमों का क्या प्रयोजन है ? इन सूक्ष्म अध्वा पत्योपमों और सागरीपों से वैरयिक, सियोनिक जीव मनुष्य और देवों का आयुष्य मापा जाता है । ४३३. भन्ते ! नैरयिक जीवों की स्थिति कितने काल की प्रज्ञप्त है ? गौतम ! जघन्यतः दस उत्कृष्टतः तेतीस सागरोपम । हजार वर्ष यहां प्रज्ञापना के स्थिति पद [ पद ४] के अनुसार सब जीवों की स्थिति प्रतिपादनीय है । वह सूक्ष्म अध्वापल्योपम है । वह अध्वापल्योपम है । די ४३४. वह क्षेत्रपल्योपम क्या है ? क्षेत्रपल्योपम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेसूक्ष्म और व्यावहारिक । ४३५ . इनमें जो सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम है वह स्थापनीय है। [देखें सूत्र ४२८ ] । ४३६ . इनमें जो व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम है वह इस प्रकार है जैसे कोई कोठा एक योजन लम्बा, चौड़ा. ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है । वह पल्य गाथा १. एक, दो, तीन दिन यावत् उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए करोड़ों वालाग्रों से ठूंस-ठूंस कर घनीभूत कर भरा हुआ है। वे बालाग्र न अग्नि से जलते है, न हवा में उड़ते हैं, न असार होते हैं, न विध्वस्त होते हैं और न दुगन्ध को प्राप्त होते हैं। उस कोठे के जो आकाश प्रदेश उन बालानों से व्याप्त हैं, उनमें से प्रति समय एक-एक आकाश प्रदेश का अपहार करने पर जितने Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रकरण : सूत्र ४३२-४३८ एगमेगं आगासपएसं अवहाय जावइणं काले से पहले खोने नीरए निल्लेवे निट्टिए भव से तं वायहारिए खेत्तपलिओ मे । गाहा— एएस पल्लाणं, कोटाकोटी भवेज्ज दसगुणिया । संवाहारिया वेत्तसागरोयमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥१॥ बावहारियवेतपलिओम सागरोपमेहि कि पवणं ? एएहि वावहारियतपलिओयम सागरोवमेहि नत्थि किचिप्पओयणं केवलं पण्णव पण्णविज्जइ । से तं वावहारिए खेत्तपलिओवमे || ४३७. एएहि तेहि वालग्गेहि अप्फुन्ना वा अणकुन्ना था, तो णं समए- समए एगमेगं आगासपएसं अवहाय यावता कालेन स पल्यः क्षीणः मीरजा: निलॅप निष्ठितः भवति । तदेत व्यावहारिक क्षेत्रोपमम् । गाथा एतेषां पल्यानां कोटिकोटि भवेत् दशमिता तद व्यावहारिकस्य क्षेत्रसामरोपमस्य एकस्य भवेत् परीमाणम् ॥१॥ ४३८. से किं तं सुहुमे खेत्तपलिओ मे ? सुमेवेत्तपलिओदमे से जहा सिया जोयणं नामए पत्ले आयाम - विक्खंभेणं, जोयणं उड़ढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्लेवेणं; से णं पहलेगाहा एगाहिय - बेयाहिय तेयाहिय, उक्कोसेणं सत्तरतपाणं । सम्मट्ठे सन्निचिते, भरिए बालग्गकोटीगं ॥। १॥ तस्य णं एयमेगे वाली असंखेज्जाई खंडाई कज्जइ, ते णं वालग्गा विडीओगाहणाओ असंभागमेला सुहुमस्स पणगजीवस्त सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा । ते णं वालग्गे नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो फुच्छेना नोपलिविइंसेज्जा नो इताए हव्यमागच्छेग्ना । जे तत्र एकैकस्य बालाग्रस्य असंख्येयानि खण्डानि क्रियन्ते । तानि बालाप्राणि दृष्टयवनानातः असंख्येयमागमात्राणि सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य शरीरावगाहनात असंख्येयम्नानि तानि बालाग्राणि नो अग्निः दहेत, नो वायुः हरेत्, नो कुथ्येयुः, नो परिविध्वंस्येरन्, लिन 'ह' आगन्छेयुः। ये तस्य पल्यस्य आकाशप्रदेशाः तैः गं तस्स पहलस्स आगासपएसा वाला 'अन्ना' या 'ग' एवं व्यावहारिक सागरोपमे कि प्रयोजनम् ? एवं व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम-सागरोपमे नास्ति किञ्चिद् प्रयोजनम्, केवलं प्रज्ञापनार्थं प्रज्ञाप्यते । तदेतद् व्याबहारिकक्षेत्रपल्योपमम् । अथ किं तत् सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपमम् ? सूक्ष्मं क्षेत्रस्योपमम् तद् यथानाम पल्यः स्यात् -योजनम् आयाम- विष्कम्भेण, योजनम् ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन तत् त्रिगुणं सविशेषं परिक्षेपेण, स पल्यः गाथा एकाहिक यह व्यहिकाणाम्, उत्कर्षेण सप्तरात्रप्ररूढानाम । संसृष्टः समचितः भृतः बालाग्रकोटिभिः ॥ १ ॥ वा, ततः समय-समये एकैकम् आकाशप्रदेशम् अपहर अपहृत्य कालेन स पल्यः क्षीण: नीरजाः यावता २६३ समय में वह कोठा खाली, रज रहित, नि और निष्ठित [अन्तिम रूप से बानी] होता है वह व्यावहारिक क्षेत्र पत्योषम है। गाथा १. इन दस कोड़ाकोड़ पल्यों से एक व्यावहारिक क्षेत्र सागरोपम होता है । ४३७. इन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपमों और सागरोपमों का क्या प्रयोजन है ? इन व्यावहारिक क्षेत्रस्योपमों और सागरोपमों का कोई प्रयोजन नहीं है। केवल प्ररूपणा के लिए प्ररूपणा की जाती है । वह व्यावहारिक क्षेत्रपस्यो है। ४३८. वह सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम क्या है ? सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम - जैसे कोई कोठा एक योजन लम्बा, चौड़ा, ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है । वह पल्य गाथा - १. एक, दो, तीन दिन यावत् उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए करोड़ों बालाग्रों से ठूंसठूस कर घनीभूत कर भरा हुआ है । इन बालानों में से प्रत्येक बालाग्र के असंख्य खण्ड किए जाते हैं । वे बालाग्र दृष्टि विषय में आने वाले पुद्गलों की अवगाहना से असंख्येय भाग मात्र और सूक्ष्म पनक जीव के शरीर की अवगाहना से असंख्य गुना अधिक होते हैं। वे बालाग्र न अग्नि से जलते हैं, न हवा में उड़ते हैं, न असार होते हैं और न दुर्गन्ध को प्राप्त होते हैं। उस कोठे के जो आकाश प्रदेश उन बालानों से व्याप्त हों या अव्याप्त उनमें से प्रति समय एक-एक आकाश प्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में वह कोठा खाली, रज रहित, निर्लेप और निष्ठित [ अन्तिम Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जावइणं काले से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ । से तं सुहमे खेतपलिओदमे ॥ ४३६. तत्थ णं चोयए पण्णवगं एवं वयासी - अत्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा, जेणं वालग्गेहि अमरपुन्ना ? हंता अस्थि । जहा को दितो ? से जहानामए कोट्ठए सिया कोहंडाणं भरिए, तत्थ णं माउलिंगा पक्खित्ता ते वि माया, तरच णं बिल्ला पखिता ते वि माया, तत्य णं आमलगा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं बयरा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं चणगा पक्खिता ते वि माया, तत्थ णं मुग्गा पक्खित्ता ते वि माया, तत्य णं सरिसवा पक्खित्ता ते वि माया, तरच णं गंगावालुया पक्खित्ता सा वि माया, एवमेव एएणं विट्ठलेणं अस्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा, जेणं तेहि वालहिं अणकुन्ना । गाहा एएसि पलाणं, कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया । तं सुहस्स खेतसागरोयमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥ १ ॥ ४४०. एहि सुमत्तपलिओम सागरोवमेहि कि पजोषणं ? एएहि सुहुमखेत्तपलिओवमसागरोवमेहिं दिट्टिवाए दव्वा मविति ॥ दव्वा ४४१. विहा णं भंते ! पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा जीवदया य अजीवदव्वा य || ४४२. अजीवदव्वा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा निर्लेपः निष्ठितः भवति । तदेतत सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपमम् । तस्य पल्यस्य तत्र चोदकः प्रज्ञापकम् एवम् अवादीत् - अस्ति आकाशप्रदेशा:, ये बालायै: 'अणप्फुन्ना' ? हंत अस्ति । यथा कः दृष्टान्तः ? तद् यथानाम कोष्ठः स्यात् कुतः तत्र मातुलिङ्गाः प्रक्षिप्ताः तेsपि माता:, तत्र बिल्वाः प्रक्षिप्ताः तेऽपि माता:, तत्र आमलकाः प्रक्षिप्ताः तेऽपि माताः, तत्र बदराणिः प्रक्षिप्तानि तानि अपि मातानि, तत्र चणका प्रक्षिप्ताः तेऽपि माता, तत्र मुद्गा: प्रक्षिप्ता तेऽपि माताः, तत्र सर्षपाः प्रक्षिप्ता तेऽपि माता:, तत्र गंगावालुका प्रक्षिप्ता साऽपि माता, एवमेव एतेन दृष्टान्तेन सन्ति तस्य पल्यस्य आकाशप्रदेशा:, ये तैः बालाः 'अणप्फुन्ना' । गाथा एतेषां पल्यानां कोटिकोटि भवेत्ता तत् सूक्ष्मस्य क्षेत्रसागरोपमस्य एकस्य भवेत् परीमाणम् ||१| एवं सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम-सागरो : कि प्रयोजनम् एत पल्योपम - सागरोपमः द्रव्याणि मीयन्ते । दृष्टवा कतिविधानि भदन्त ! द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा जीवद्रव्याणि च अजीवद्रव्याणि च । अजीवद्रव्याणि भदन्त ! कतिवि पानि प्रशप्तानि ? गौतम द्विविधानि अणुओगदाराई रूप से खाली ] होता है । वह सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम है। ४३९. यहां प्रेरक ने प्रज्ञापक से इस प्रकार कहाक्या उस कोठे के वैसे आकाश प्रदेश हैं जो उन बालानों से अव्याप्त हों ? हां है । जैसे कोई दृष्टांत है ? जैसे कोई कोठा कुष्माण्डों [कुम्हड़ों से भरा हुआ है उसमें बिजोरे डाले वे भी समा गए, उसमें बिल्व फल डाले वे भी समा गए उसमें आवंले डाले वे भी समा गए, उसमें बैर डाले वे भी समा गए, उसमें चने डाले वे भी समा गए, उसमें मूंग डाले वे भी समा गए, उसमें सरसों के दाने डाले वे भी समा गए और उसमें गंगा नदी के बालुका- कण डाले वे भी समा गए। इस प्रकार इस दृष्टांत से जाना जाता है कि उस कोठे के वैसे आकाश प्रदेश हैं जो उन बालानों से अव्याप्त रहते हैं । गाथा १. इन दस कोड़ाकोड़ पत्यों का एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम होता है। ४४०. इन सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपमों और सागरोपमों का क्या प्रयोजन है ? इन सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपमों और सागरोपमों से दृष्टिवाद में द्रव्य मापे जाते हैं । ४४१. भन्ते ! द्रव्य के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! द्रव्य के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य | - ४४२. भन्ते ! अजीव द्रव्य के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रकरण : सूत्र ४३६-४४५ २६५ पण्णत्ता, तं जहा-अरूविअजीव- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा --अरूपिअजीवदव्वा य रूविअजीवदव्वा य॥ द्रव्याणि च रूपिअजीवद्रव्याणि च । गौतम ! अजीव द्रव्य के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे--अरूपी अजीव द्रव्य और रूपी अजीव द्रव्य । ४४३. अरूविअजीवदव्वा णं भंते ! अरूपिअजीवद्रव्याणि भदन्त ! कइविहा पण्णत्ता? गोयमा! कतिविधानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! दसविहा पण्णत्ता, तं जहा- दविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाधम्मत्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसा धर्मास्तिकायः, धर्मास्तिकायस्य देशा: धम्मस्थिकायस्स पएसा, अधम्म- धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः, अधर्मास्तिस्थिकाए अधम्मत्थिकायस्स देसा कायः अधर्मास्तिकायस्य देशाः अधर्माअधम्मस्थिकायस्स पएसा, आगास- स्तिकायस्य प्रदेशाः, आकाशास्तिकाय: त्थिकाए आगासस्थिकायस्स देसा आकाशास्तिकायस्य देशाः आकाशाआगासस्थिकायस्स पएसा, अद्धा- स्तिकायस्य प्रदेशाः, अध्वासमयः । समए॥ ४४३. भन्ते ! अरूपी अजीव द्रव्य के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! अरूपी अजीव द्रव्य के दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय के देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय, आकाशास्तिकाय के देश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश और अध्वासमय। ४४४. रूविअजीवदव्वा णं भंते ! कइ- रूपिअजीवद्रव्याणि- भदन्त ! विहा पण्णता ? गोयमा! चउ- कतिविधानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! विहा पण्णता, तं जहा-खंधा चतुविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - खंधदेसा खंधप्पएसा परमाणु- स्कन्धाः स्कन्धदेशाः स्कन्धप्रदेशाः पोग्गला। ते णं भंते ! कि परमाणुपुद्गलाः । तानि भदन्त ! कि संखेज्जा असंखेज्जा अणंता? संख्येयानि असंख्येयानि अनन्तानि ? गोयमा! नो संखेज्जा, नो असं- गौतम ! नो संख्येयानि, नो असंख्येखज्जा, अणंता। यानि, अनन्तानि । ४४४. भन्ते ! रूपी अजीव द्रव्य के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! रूपी अजीव द्रव्य के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-स्कन्ध, स्कन्ध देश, स्कन्ध प्रदेश और परमाणु पुद्गल । भन्ते ! वे द्रव्य संख्येय हैं ? असंख्येय हैं ? अथवा अनन्त हैं ? गौतम ! वे न संख्येय हैं, न असंख्येय हैं, अनन्त हैं। भन्ते ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि रूपी अजीव द्रव्य न संख्येय हैं, न असंख्येय हैं, अनन्त हैं ? ___ गौतम ! अनन्त परमाणु पुद्गल हैं, अनन्त द्विप्रदेशिक स्कन्ध हैं यावत् अनन्त अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध हैं, गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है वे द्रव्य न संख्येय हैं, न असंख्येय हैं, अनन्त हैं। से केणठेणं भंते ! एवं वच्चइ... तत् केनार्थेन भदन्त ! एवम् ते शं नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, उच्यते तानि नो संख्येयानि, नो अणंता? गोयमा! अणंता असंख्येयानि, अनन्तानि ? गौतम ! परमाणपोग्गला अणंता दुपएसिया अनन्ता: परमाणुपुद्गलाः अनन्ताः खंधा जाब अणंता अणंतपएसिया द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः यावद् अनन्ताः खंधा, से तेणठेणं गोयमा! एवं अनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः, तत् तेनार्थेन वुच्चइ-ते णं नो संखेज्जा, नो गौतम ! एवम् ! उच्यते तानि नो असंखेज्जा, अणंता ॥ संख्येयानि, नो असंख्येयानि, अनन्तानि। ४४५. जीवदव्वा णं भंते ! कि जीवद्रव्याणि भदन्त ! कि संख्ये- ४४५ भन्ते ! जीव द्रव्य संख्येय हैं ? असंख्येय संखज्जा असंखेज्जा अणंता? यानि असंख्येयानि अनन्तानि ? हैं ? अथवा अनन्त हैं ? गोयमा! नो संखेज्जा, नो असं- गौतम ! नो संख्येयानि, नो असंख्ये- गौतम ! वे न संख्येय हैं, न असंख्येय हैं, खज्जा, अणंता। यानि, अनन्तानि । अनन्त हैं। से केणटठणं भंते ! एवं वच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवम् भन्ते ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है जीवदव्वा गं नो संखेज्जा, नो उच्यते जीवद्रव्याणि नो संख्येयानि, कि जीव द्रव्य न संख्येय हैं ? न असंख्येय असंखज्जा, अणता? गोयमा! नो असंख्येयानि, अनन्तानि ? गौतम! हैं ? अनन्त हैं ? असंखेज्जा नेरइया, असंखेज्जा असंख्येया: नैरयिकाः, असंख्येयाः ___ गौतम ! नैरयिक जीव असंख्येय हैं, असुरअसुरकुमारा जाव असंखज्जा असुरकुमारा: यावद् असंख्येयाः कुमार से स्तनितकुमार तक के जीव असंख्येय Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई थणियकुमारा, असंखेज्जा पुढवि- स्तनितकुमारा:, असंख्येयाः पृथिवी- हैं, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक काइया, असंखेज्जा आउकाइया, कायिकाः, असंख्येया अप्कायिकाः, और वायुकायिक जीव असंख्येय हैं, वनस्पतिअसंखज्जा तेउकाइया, असंखेज्जा असंख्येया: तेजस्कायिकाः, असंख्येयाः कायिक जीव अनन्त हैं, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, वाउकाइया, अगंता वणस्सइ- वायुकायिकाः, अनन्ताः वनस्पति- चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियतियंग्योनिक, मनुष्य, काइया, असंखज्जा बेइंदिया, असं- कायिकाः, असंख्येया: द्वीन्द्रिया:, वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक जीव खेज्जा तेइंदिया, असंखेज्जा चउ- असंख्येया: त्रीन्द्रिया:, असंख्येयाः असंख्येय हैं, सिद्ध अनन्त हैं । गौतम ! इस हेतु रिदिया, असंखेज्जा पंचिदिय- चतुरिंद्रिया, असंख्येयाः पञ्चेन्द्रिय से ऐसा कहा जाता है कि जीव द्रव्य संख्येय तिरिक्खजोगिया, असंखेज्जा तिर्यग्योनिकाः, असंख्येया: मनुष्याः, नहीं हैं, असंख्येय नहीं हैं, अनन्त हैं। मणुस्सा, असंखेज्जा वाणमंतरा, असंख्येयाः वानमन्तराः, असंख्येयाः असंखेज्जा जोइसिया, असंखेज्जा ज्योतिषिका:, असंख्येयाः वैमानिका:, वेमाणिया, अणंता सिद्धा, से तेण- अनन्ताः सिद्धाः, तत् तेनार्थेन ठेणं गोयमा! एवं वच्चइ- गौतम! एवम् उच्यते--जीवद्रव्याणि जीवदव्वा णं नो संखेज्जा, नो नो संख्येयानि, नो असंख्येयानि, असंखज्जा, अणंता॥ अनन्तानि। ४४६. कइ णं भंते ! सरोरा पण्णत्ता ? कति भदन्त ! शरीराणि ४४६. भन्ते ! शरीर के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा! पंच सरोरा पण्णत्ता, तं प्रज्ञप्तानि ? गौतम! पंच शरीराणि गौतम ! शरीर के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जहा-ओरालिए वेउव्विए आहा- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-औदारिक जैसे-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस रए तेयए कम्मए॥ वैक्रियम् आहारकं तेजसं कर्मकम् । और कार्मण। ४४७. नेरइयाणं भंते ! कइ सरीरा नरयिकाणां भदन्त ! कति ४४७. भन्ते ! नैरयिक जीवों के कितने शरीर पण्णता ? गोयमा ! तओ सरीरा शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! प्रज्ञप्त हैं। पण्णता, तं जहा -वेउविए तेयए त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा गौतम ! उनके तीन शरीर प्रज्ञप्त हैं, जैसे कम्मए॥ वैक्रियं तेजसं कर्मकम् । वैक्रिय, तैजस और कार्मण । ४४८. असुरकुमाराण भंते ! कई असुरकमाराणां भवन्त ! कति ४४८. भन्ते ! असुरकूमार देवों के कितने शरीर सरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! तओ शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! त्रीणि प्रज्ञप्त हैं ? सरीरा पण्णता, तं जहा-वेउ- शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वक्रियं गौतम ! उनके तीन शरीर प्रज्ञप्त हैं, जैसे विए तेयए कम्मए । तंजसं कर्मकम् । -वैक्रिय, तेजस और कार्मण । ४४६. एवं तिण्णि-तिण्णि एए चेव एवं त्रीणि-त्रीणि एतानि चैव ४४९. इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त देवों के सरीरा जाव थणियकुमाराण शरीराणि यावत् स्तनितकुमाराणां तीन-तीन शरीर प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. भाणियव्वा ॥ भणितव्यानि। २५४] ४५०. पुढविकाइयाणं भंते ! कइ पृथिवीकायिकानां भवन्त ! कति ४५०. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितने शरीर सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम! प्रज्ञप्त हैं ? सरीरा पण्णत्ता, तं जहा-ओरा- त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा गौतम ! उनके तीन शरीर प्रज्ञप्त हैं, जैसे लिए तेयए कम्मए॥ – औदारिकं तैजसं कर्मकम् । -औदारिक, तेजस और कार्मण । ४५१. एवं आउ-तेउ-वणस्स इकाइयाण एवम् अप-तेजस्-वनस्पतिकायि- ४५१. इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वि एए चेव तिणि सरीरा भाणि- कानाम् अपि एतानि चैव त्रीणि शरी- बनस्पतिकायिक जीवों के भी ये ही तीन-तीन यव्वा ॥ राणि भणितव्यानि। शरीर प्रतिपादनीय हैं। ४५२. वाउकाइयाणं भंते ! कइ वायुकायिकानां भवन्त ! कति ४५२. भन्ते ! वायुकायिक जीवों के कितने शरीर सरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! प्रज्ञप्त हैं ? Jain Education Intemational Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रकरण : सूत्र ४४६-४५८ २६७ चत्तारि सरीरा पण्णत्ता, तं जहा चत्वारि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा गौतम ! उनके चार शरीर प्रज्ञप्त हैं, जैसे -ओरालिए वेउन्विए तेयए -औदारिकं वैक्रियं तैजसं कर्मकम् । -औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण । कम्मए॥ ४५३. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणां ४५३ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के जहा पुढविकाइयाणं॥ यथा पृथिवीकायिकानाम् । शरीर पृथ्वीकायिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। ४५४. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां यथा ४५४. पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों के शरीर जहा वाउकाइयाणं॥ वायुकायिकानाम् । वायुकायिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। ४५५. मणस्साणं भंते ! कइ सरोरा मनुष्याणां भदन्त ! कति शरी- ४५५. भन्ते ! मनुष्य के कितने शरीर प्रज्ञप्त हैं ? पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरा राणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम! पंच गौतम ! उनके पांच शरीर प्रज्ञप्त हैं, जैसे पपणत्ता, तं जहा--ओरालिए शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- --औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और वेउविए आहारए तेयए कम्मए । औदारिकं वैक्रियम् आहारकं तेजसं कार्मण । कर्मकम् । ४५६. वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं ॥ वानमन्त राणां ज्योतिषिकाणां ४५६. वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के वैमानिकानां यथा नरयिकाणाम् । शरीर नैरयिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय ४५७. भन्ते ! औदारिक शरीर कितने प्रज्ञप्त ४५७. केवइया णं भंते ! ओरालिय- कियन्ति भदन्त ! औदारिक- सरीरा पण्णत्ता? गोयमा! शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्ध- द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा -- ल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं बद्धानि च मुक्तानि च। तत्र यानि जेते बद्धेल्लया ते णं असंखेज्जा, एतानि बद्धानि तानि असंख्येयानि, असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी-ओसप्पि- असंख्येयाभिः उत्सपिण्यवसर्पिणीभिः णोहि अवहोरंति कालओ, खेत्तओ अपहियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः असंखेज्जा लोगा। तत्थ णं जेते लोकाः । तत्र यानि एतानि मुक्तानि मुक्केल्लया ते णं अणंता, अणंताहि तानि अनन्तानि, अनन्ताभि: उत्सपिउस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहि अवही- ण्यवसर्पिणीभिः अपह्रियन्ते कालतः, रंति कालओ. खेत्तओ अणंता क्षेत्रतः अनन्ता: लोकाः, द्रव्यतः लोगा, दब्बओ अभवसिद्धिएहि अभव्यसिद्धिकः अनन्तगुणानि सिद्धाअणंतगुणा सिद्धाणं अणंतभागो॥ नाम् अनन्तभागः । __मौतम ! औदारिक शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं वे असंख्येय हैं । काल की दृष्टि से असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है । क्षेत्र की दृष्टि से वे असंख्येय लोक जितने हैं। उनमें जो मुक्त हैं वे अनन्त हैं। काल की दृष्टि से अनन्त उत्सपिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है । क्षेत्र की दृष्टि से वे अनन्त लोक जितने हैं। द्रव्य की दृष्टि से अभवसिद्धिक जीवों से अनन्तगुना अधिक और सिद्धों के अनन्तवें भाग में हैं। ४५८. केवइया णं भंते ! वेउविय- कियन्ति भदन्त ! वैक्रियशरी- ४५८. भन्ते ! वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? सरीरा पण्णता? गोयमा! राणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विवि- गौतम! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--बद्ध- धानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-बद्धानि च प्रज्ञप्त हैं, जैसे-बद्ध और मुक्त । ल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं मुक्तानि च। तत्र यानि एतानि उनमें जो बद्ध हैं वे असंख्येय हैं, काल की जेते बद्धेल्लया ते णं असंखेज्जा, बद्धानि तानि असंख्येयानि, असंख्ये- दृष्टि से असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पि- याभिः उत्सपिण्यवसर्पिणीभिः अप- में उनका अपहार होता है । क्षेत्र की दृष्टि से णोहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ ह्रियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्ययाः वे प्रतर के असंख्येय भाग में होनेवाली असंख्येय असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयतमभागः । तत्र श्रेणियों के आकाशप्रदेश जितने होते हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अभागो तत्थ णं जेते मुक्केल्लया ते णं अनंता, अणताहि उस्सप्पिणी ओस्सप्पिणीहि अवही रंति कालओ, सेसं जहा ओरा लियस्स सुक्केल्लया तहा एए वि भाणि ॥ ४५६. केवइया गं भंते ! सरीरा पण्णत्ता ? आहारगगोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा बद्धल्लया य मुक्केल्लया व । तत्थ णं जेते बद्धल्लया ते णं सिय अत्थि सिय नत्थि, जइ अत्थि जहणणेणं एगो वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं । नुक्केल्लया जहा ओरोलिय सरीरस्स भाणिया || तहा ४६०. केवइया णं भंते! तेयगसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता, तं जहां बद्धेल्लया य मुक्केल्लया । तत्थ णं जेते बल्लया ते णं अनंता अनंताह उत्सपिणी ओसपिणीहि अवही रंति कालओ, खेत्तओ अनंता लोगा बय सिद्धेहि अनंतगुणः सजीवाणं अनंतभागुणा । तत्य णं जेते मुक्केल्लया ते ण अनंता, अनंताहि उस्सप्पिणी ओसप्पि - णीहि अहीरंति कालओ, खेत्तओ अनंता लोगा, दव्वओ सव्वजीवह अनंतगुणा जीववग्गस्स अनंत भागो || ४६१. वाणं भंते! कम्मगसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा बल्लया य मुक्केल्लया व जहा तेवगतरी तहा कम्मगसरोरा वि भाणि यध्वा || ४६२. मेरा भंते! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! पानि तानि मुनिनानि अनन्ताभिः उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभि: अपह्रियन्ते कालतः, शेषं यथा औदारिकस्य मुक्तानि तथा एतानि अपि भणितव्यानि । तद्यथा कियन्ति भदन्त ! शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? द्विविधानि प्रज्ञप्तानि बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि स्याद् अस्ति स्यात् नास्ति, यदि अस्ति जघन्येन एकं वा द्वे वा त्रीणि वा, उत्कर्षेण सहस्त्रपृथक्त्वम् । मुक्तानि यथा औदारिकशरीरस्य तथा नि आहारकगौतम ! कियन्ति भदन्त ! तैजसशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम डिवि धानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धान तानि अनन्तानि, अनन्ताभिः उत्ससिपिजी अपयन्ते कालतः, क्षेत्रतः अनन्ता: लोकाः, प्रयतः सिद्धेभ्यः नगुमान सर्वजीवानाम् अनन्त मागोनाः । तत्र यानि एतानि कानि तानि अनन्तानि अनन्ताभिः उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः अपहियते कालतः, क्षेत्र अन लोका:, द्रव्यतः सर्वजीवेभ्यः अनन्तगुणानि जीववर्गस्य अनन्तभागः । कियन्ति भदन्त ! कर्मकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । यथा तेजसशरीराणि तथा कर्मकशरीराणि अपि भणितव्यानि । नैरयिकाणां भवन्त ! कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? अणुओदाराई उनमें जो मुक्त हैं वे अनन्त हैं, काल की दृष्टि से अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है । शेष औदारिक मुक्त शरीरों की भांति ये भी प्रतिपादनीय हैं । ४५९. भन्ते ! आहारक शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! आहारक शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- बद्ध और मुक्त । उनमें जो बद्ध हैं वे कभी होते हैं और कभी नहीं होते । यदि होते हैं तो जघन्यतः एक दो अथवा तीन और उत्कृष्टतः दो हजार से नौ हजार तक होते हैं । मुक्त शरीर औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं।" ४६० भन्ते ! तेजस शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! तेजस शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे--बद्ध और मुक्त । उनमें जो बद्ध हैं वे अनन्त हैं। काल की दृष्टि से अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है। क्षेत्र की दृष्टि से वे अनन्त लोक जितने हैं द्रव्य की दृष्टि से सिद्धों से अनन्तगुना अधिक और सब जीवों से अनन्त भाग कम हैं । उनमें जो मुक्त हैं वे अनन्त हैं, काल की दृष्टि से अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है । क्षेत्र की दृष्टि से वे अनन्त लोक जितने हैं । द्रव्य की दृष्टि से सब जीवों से अनन्त गुना अधिक और जीव वर्ग के अनन्तवें भाग जितने हैं । ४६१. भन्ते ! कार्मण शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! कार्मण शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -बद्ध और मुक्त कार्मण शरीर तेजस शरीर की भांति ही प्रतिपादनीय हैं। ४६२. भन्ते ! नैरयिक जीवों के औदारिक शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रकरण : सूत्र ४५६-४६५ तं जहा- बद्धे दुविहा पण्णत्ता, याय मुक्केलाय तत्थ णं जेते बल्लया से णं नरिथ णं जेते मुक्केलया ते जहा जहिया ओरालि यसरीरा तहा भाणि तस्थ यव्वा || ४६३. नेरयाणं भंते! केवडया वेउयसरी पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा बड़े ल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जेते बद्वेल्लया ते गं असंखेज्जा, असंज्जाह उस्सप्पिणी ओसप्पि हि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेडीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो । तासि णं सेढीणं विश्वंभसूई अंगुलपदमवग्गमूलं बिइयग्गमूल पडुपणं अहव णं अंगुल बिइयवग्गमूलघणपमाणमेत्ताओ सेढीओ । तत्थ णं जेते मुक्केल्लया ते णं जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणि यव्वा || ४६४. नेरइयाणं भंते! केवड्या आहारगसरीरा पण्णत्ता ? गोवमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- बद्धे ल्लया व मुक्केल्लया व तस्य णं जेते बल्लया से णं नत्थि । तत्थ णं जेते मुक्केल्लया ते जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा ॥ ४६५. तेयग- कम्मगसरीरा जहा एएसि चैव वेव्वियसरीरा तहा भाणियव्वा || गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि नास्ति । तत्र यानि एतानि मुक्तानि तानि यथा औधिकानि औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र पानि एतानि बद्धानि तानि असंख्ये बानि, असंख्येयाभिः उत्सवियवसणीभिः अपह्रियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयतमभागः । तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचि: प्रथमवर्गमूल द्वितीयवर्गमूलप्रत्युत्पन्नम् अथवा अंगुल द्वितीयवर्गमूलधनप्रमाणमात्रा घेण्यः तत्र यानि एतानि मुक्तानि तानि यथा औधिकानि औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्ति आहारकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि नास्ति । यानि एतानि मुखानि तानि यथा औधिकानि औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । जस-कर्मकशरीराणि तेषां चैव वैक्रियशरीराणि तथा भणितव्यानि । २६६ गौतम ! औदारिक शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—बद्ध और मुक्त । नैरयिक जीवों के बद्ध औदारिक शरीर नहीं होते। जो मुक्त हैं वे औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं [देखें सू ४५७] ४६३. भन्ते ! नैरयिक जीवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं वे असंख्येय हैं काल की दृष्टि से असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है । क्षेत्र की दृष्टि से वे प्रतर के असंख्येय भाग में होने वाली असंख्येय श्रेणियों के आकाश प्रदेश जितने होते हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल प्रमाण प्रतर क्षेत्र में होने वाली श्रेणी के असंख्येय वर्गमूल होते हैं । इसलिए प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणित करने पर जितनी श्रेणियां प्राप्त होती हैं उतने प्रमाण वाली श्रेणियों की विष्कम्भसूची होती है। प्रकारान्तर से अंगुल प्रमाण प्रतर क्षेत्र में होने वाली श्रेणी के द्वितीय वर्गमूल का पन करने पर जो श्रेणियां प्राप्त होती हैं उतने प्रमाग वाली श्रेणियों की विष्कम्भसूची होती है । इनमें जो मुक्त हैं वे औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं ।" [ देखें सू. ४५७ ] । ४६४ भन्ते ! नैरयिक जीवों के आहारक शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! आहारक शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-बद्ध और मुक्त। नैरयिक जीवों के बद्ध आहारक शरीर नहीं होते, उनके जो मुक्त शरीर हैं वे औधिक औदारिक शरीर की भांति ही प्रतिपादनीय हैं । [ देखें सू ४५७ ] । ४९४. तेजस और कार्मण शरीर इन्हीं के ि शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४६३] । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० अणुओगदाराई ४६६. असुरकुमाराणं भंते ! केवइया असुरकुमाराणां भदन्त ! कियन्ति ४६६. भन्ते ! असुरकुमार देवों के औदारिक ओरालियसरीरा पण्णता? औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! जहा नेरइयाण ओरा- गौतम ! यथा नैरयिकाणाम् औदा- गौतम! नरयिक जीवों के औदारिक लियसरीरा तहा भाणियव्वा ॥ रिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४६२] । ४६७. असुरकुमाराणं भंते ! केवइया असुरकुमाराणां भदन्त ! कियन्ति वेउब्वियसरीरा पण्णत्ता? वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, -बधेल्लया य मुक्केल्लया य। तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र तत्थ णं जेते बद्धल्लया ते णं अस- यानि एतानि बद्धानि तानि असंख्येखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी- यानि, असंख्येयाभिः उत्सपिण्यवसपिओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, णीभिः अपहियन्ते कालत:. क्षेत्रतः खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ असंख्ययाः श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयपयरस्स असंखेज्जइभागो। तासि तमभागः। तासां श्रेणीनां विष्कम्भणं सेढोणं विक्खंभसूई अंगुलपढम- सूचिः अंगुलप्रथमवर्गमूलस्य असंख्येयवग्गमूलस्स असंखेज्जइभागो। तमभागः । मुक्तानि यथा औधिकानि मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरा- औदारिकशरीराणि तथा भणिलियसरीरा तहा भाणियव्वा ॥ तव्यानि । ४६७. भन्ते ! असुरकुमार देवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? ___ गौतम ! बक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं वे असंख्येय हैं, काल की दृष्टि से असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है । क्षेत्र की दृष्टि से वे प्रतर के असंख्येय भाग में होने वाली असंख्येय श्रेणियों के आकाश प्रदेश जितने होते हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची–अंगुल प्रमाण प्रतर क्षेत्र में होने वाली श्रेणी के असंख्येय वर्गमूल होते हैं। उनके प्रथम वर्गमूल का असंख्यातवां भाग। मुक्त शरीर औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं।' [देखें सू. ४५७] । ४६८. असुरकुमाराणं भंते ! केवइया असुरकुमाराणां भदन्त ! कियन्ति ४६८. भन्ते ! असुरकुमार देवों के अहारक शरीर आहारगसरीरा पण्णत्ता? आहारकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? कितने प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, ___ गौतम ! उनके आहारक शरीर के दो -बद्धल्लया य मुक्केल्लया य। तद्यथा--बद्धानि च मुक्तानि च । प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- बद्ध और मुक्त। वे जहा एएसि चेव ओरालियसरीरा यथा एतेषां चैव औदारिकशरीराणि इन्हीं के औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादतहा भाणियव्वा ॥ तथा भणितव्यानि । नीय हैं । [देखें सू. ४६६] । ४६६. तेयग-कम्मगसरीरा जहा एएसि तेजस-कर्मकशरीराणि यथा चेव वेउब्वियसरीरा तहा भाणि- एतेषां चैव वैक्रियशरीराणि तथा यव्वा ॥ भणितव्यानि । ४६९. असुरकुमार देवों के तैजस और कार्मण शरीर इन्हीं के वैक्रिय शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४६७] । ४७०. जहा असुरकुमाराणं तहा जाव यथा असुरकुमाराणं तथा यावत् थणियकूमाराणं ताव भाणियव्वं ।। स्तनितकमाराणां तावद् भणितव्यम्। ४७०. स्तनितकुमार पर्यन्त देवों के शरीर असुर कुमार देवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४६६ से ४६९] । ४७१. पुढविकाइयाणं भंते ! केवइया पृथिवीकायिकानां भवन्त! ओरालियसरीरा पण्णत्ता? कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञगोयमा! दुविहा पण्णता, तं जहा प्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञ--बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य। प्तानि, तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि एवं जहा ओहिया ओरालियसरीरा च । एवं यथा औधिकानि औदारिकतहा भाणियव्वा॥ शरीराणि तथा भणितव्यानि । ४७१. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीवों के औदारिक शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! औदारिक शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-बद्ध और मुक्त। वे औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४५७] । Jain Education Intemational Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रकरण : सूत्र ४६६-४७६ ४७२. पुढविकाइयाणं भंते! केवइया वेव्विवसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्व णं जैसे बलया से णं नत्थि मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणि यव्वा || ४७२. आहारगसरीरा वि एवं चेय भाणिया || ४७४. य-कम्मगसरीरा जहा एएसि चैब ओरालियरीश तहा भाणि यव्वा || ४७५. जहा पुढविकाइयाणं एवं आउ काइयाणं तेउकाइयाण य सव्वसरीरा भाणियव्वा ॥ ४७६. बाउकाइयाणं भंते! केवइया ओरालिसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । जहा पुढविकाइयाणं ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा || ४७७. बाउकाइयाणं भंते ! केवइया aroorसरोरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - बल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं असंखेन्जा, समए- समए अवहीर माणा अवहीरमाणा पलिओवमस्स असंखेज्जभागमेत्तणं फालेणं अबहोरंति नो वेब णं अवहिया सिया मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरा लियसरीरय मुक्केल्लया ॥ ४७८. आहारगसरीरा जहा पुढविक। इयाणं वेडव्विसरोरा तहा भाणि यव्वा ॥ ४७६. ते कम्मगसरीरा जहा पुढवि काइयाणं तहा भाणियन्या ॥ पृथिवीकायिकानां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञतानि, तद्यथा बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि नास्ति मुक्तानि यथा अधिकानि औदारिकशरीराणि तथा तव्यानि । भणि आहारकशरीराणि अपि एवं व भणितव्यानि । यथा जस-कर्मशरीराणि एतेषां चे औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । पया पृथिवीकायिकानाम् एवम् अकायिकानां तेजस्कायिकानां च सर्वशरीराणि भणितव्यानि । बायकानां भवन्त किति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - बद्धानि च मुक्तानि च । यथा पृथिवीकायिकानाम् औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । वायुकायिकानां मदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि असंख्येयानि, समय-समये अहियमाणानि अपय माणानि पत्योपमस्य असंख्येयतम भागमात्रेण कालेन अपनी अपहृताः स्यात् । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकशरीरकमुक्तानि । आहारकशरीराणि यथा पृथिवीकायिकानां व क्रियशरीराणि भणितव्यानि । तथा यथा तेजस - कर्मकशरीराणि पृथिवीकायिकानां तथा । २७१ ४७२. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—बद्ध और मुक्त । पृथ्वीकायिक जीवों के बद्ध वैक्रिय शरीर नहीं होते। मुक्त वैक्रिय शरीर औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय है। [देखें ४५७]। ४७३. आहारक शरीर भी इसी प्रकार प्रतिपादनीय हैं। ४७४. पृथ्वीकायिक जीवों के तेजस और कार्मण शरीर भी इन्हीं के औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं । [ देखें सू. ४७१] । ४७५ अप्कायिक और तेजस्कायिक जीवों के सब शरीर पृथ्वीकायिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं । [ देखें सू. ४७१-४७४]। ४७६. भन्ते ! वायुकायिक जीवों के औदारिक शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! औदारिक शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं जैसे- बद्ध और मुक्त | उनके औदारिक शरीर पृथ्वीकायिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं । [ देखें सू. ४७१] । ४७७ भन्ते ! वायुकायिक जीवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- बद्ध और मुक्त | उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्येय हैं, प्रति समय अपहृत करने पर पल्योपम के असंख्येय भाग मात्र काल में अपहृत होते हैं। [यह असत् कल्पना है । ] उनका अपहार किया नहीं गया । मुक्त वैक्रिय शरीर मुक्त औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [ देखें सू. ४५७] । ४७८. वायुकायिक जीवों के आहारक शरीर पृथ्वीकायिक जीवों के वैक्रिय शरीर की भांति प्रतिपादनीय है। [देखें सू. ४७२] । ४७९. तेजस और कार्मण शरीर भी पृथ्वीकायिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अणुओगदाराई ४८०. वणस्सइकाइयाण ओरालिय- वनस्पतिकायिकानाम औदारिक- ४८०. वनस्पतिकायिक जीवों के औदारिक, वैक्रिय वेउब्विय-आहारगसरीरा जहा वैक्रिय-आहारकशरीराणि यथा और आहारक शरीर पृथ्वीकायिक जीवों की पुढ विकाइयाणं तहा भाणियन्वा ॥ पृथिवीकायिकानां तथा भणित- भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें मू. ४७१ ध्यानि । ४८१. वणस्सइकाइयाणं भते ! केवइया वनस्पतिकायिकानां भदन्त ! ४८१. भन्ते ! वनस्पतिकायिक जीवों के तेजस तेयग-कम्मगसरोरा पण्णत्ता? कियन्ति तैजस-कर्मकशरीराणि और कार्मण शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! जहा ओहिया तेयग- प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! यथा औघि- गौतम ! वनस्पतिकायिक जीवों के तेजस कम्मगसरीरा तहा वणस्सइकाइ- कानि तेजस-कर्मकशरीराणि तथा और कार्मण शरीर औधिक तेजस और कार्मण याण वि तेयग-कम्मगसरीरा वनस्पतिकायिकानाम् अपि तैजस- शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. भाणियव्वा । कर्मकशरीराणि भणितव्यानि । ४६०,४६१] । ४८२. बेइंदियाणं भंते ! केवइया द्वीन्द्रियाणां भदन्त ! कियन्ति ४८२. भन्ते ! द्वीन्द्रिय जीवों के औदारिक शरीर ओरालियसरीरा पण्णत्ता? औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? कितने प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! औदारिक शरीर के दो प्रकार -बधेल्लया य मुक्केल्लया य। तद्यथा बद्धानि च मुक्तानि च । प्रज्ञप्त हैं, जैसे—बद्ध और मक्त। जो बद्ध हैं तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं असं- तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि वे असंख्येय हैं, काल की दृष्टि से असख्येय खेज्जा, असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी- असंख्येयानि, असंख्येयाभिः उत्सपि- उत्सर्पिणी और अवसपिणी में उनका अपहार होता है। क्षेत्र की दृष्टि से वे प्रतर के ओस प्पिणोहि अवहीरंति कालओ, ण्यवसर्पिणीभिः अपह्रियन्ते कालतः, असंख्येय भाग में होनेवाली असंख्येय श्रेणियों खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ क्षेत्रत: असंख्ययाः श्रेण्यः प्रतरस्य के आकाश प्रदेश जितने होते हैं। उन श्रेणियों पयरस्स असंखेज्जइभागो। तासि असंख्येयतमभागः । तासां श्रेणीनां की विष्कम्भसूची असंख्येय कोडाकोड़ योजन णं सेढीगं विक्खंभसूई असंखेज्जाओ विष्कम्भसूचिः असंख्येयाः योजन जितनी होती है। अथवा उन श्रेणियों के जोयणकोडाकोडीओ, असंखेज्जाई कोटिकोट्यः, असंख्येयानि श्रेणिवर्ग असंख्येय वर्गमूल जितनी होती है। सेढिवग्गमूलाई। बेइंदियाणं ओरा- मूलानि । द्वीन्द्रियाणाम् औदारिक [प्रकारान्तर से द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध लियसरीरेहि बद्धेल्लएहि पयरो शरीरैः बद्धः प्रतरः अपहियते औदारिक शरीरों का प्रमाण प्रतर (में पूर्णत: अवहीरइ असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी- असंख्येयाभिः उत्सपिण्यवसपिणीभिः समाविष्ट द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिक ओसप्पिणीहि कालओ, खेत्तओ कालतः, क्षेत्रत: अंगुलप्रतरस्य आव- शरीरों) का अपहार करने से प्राप्त होता है । अपहार की यह क्रिया काल की दृष्टि से अंगुलपयरस्स आवलियाए य लिकायाः च असंख्येयतमभागप्रति असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल असंखेज्जइभागपलिभागेणं । मुक्के- भागेन । मुक्तानि यथा औधिकानि जितने काल में सम्पन्न होगी। क्षेत्र की दृष्टि ल्लया जहा ओहिया ओरालिय- औदारिकशरीराणि तथा मणि से वे अंगूल प्रतर या आवलिका के असंख्यात सरीरा तहा भाणियन्वा ॥ तव्यानि। भाग रूप प्रतिभाग जितने होते हैं।" उनके मक्त औदारिक शरीर औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४५७] । ४८३. वेउम्विय-आहारगसरीरा बद्ध- वैक्रिय-आहारकशरीराणि बद्धानि ४८३. द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध वैक्रिय और आहारक ल्लया नथि। मुक्केल्लया जहा नास्ति । मुक्तानि यथा औधिकानि शरीर नहीं होते। उनके मुक्त वैक्रिय और ओहिया ओरालियसरीरा तहा औदारिकशरीराणि तथा भणि- आहारक शरीर मुक्त औधिक औदारिक भाणियव्वा ॥ तव्यानि । शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४५७] । ४८४. तेयग-कम्मगसरोरा जहा एएसि तेजस-कर्मकशरीराणि यथा चेव ओरालियसरीरा तहा भाणि- एतेषां चैव औदारिकशरीराणि तथा यव्वा ॥ भणितव्यानि । ४८४. तेजस और कार्मण शरीर इन्हीं के औदा रिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४८२]1 Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ दसवां प्रकरण : सूत्र ४८०-४६० ४८५. जहा बेइंदियाणं तहा तेइंदिय चरिदियाण वि भाणियब्वं ॥ यथा द्वीन्द्रियाणां तथा त्रीन्द्रिय- ४८५. त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के शरीर चतुरिन्द्रियाणाम् अपि भणितव्यम् । द्वीन्द्रिय जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४८२-४८४] । ४८६. पंचिदियतिरिक्खजोणियाण वि पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकानाम् अपि ४८६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के औदा ओरालियसरीरा एवं चेव भाणि- औदारिकशरीराणि एवं चैव भणि- रिक शरीर इसी भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें यव्वा ॥ तव्यानि। सू. ४८२] । ४८७. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां ४८७. भन्ते ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यगयोनिक जीवों के भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा भदन्त ! कियन्ति बैक्रियशरीराणि वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? पण्णता? गोयमा! दुविहा प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य प्रज्ञप्तानि, तद्यथा -बद्धानि च हैं, जैसे बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं मक्केल्लया य। तत्थ णं जेते मुक्तानि च। तत्र यानि एतानि वे असंख्येय हैं, काल की दृष्टि से असंख्येय बद्धेल्लया ते णं असंखेज्जा- बद्धानि तानि असंख्येयानि- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी-ओस प्पि- असंख्येयाभिः उत्सपिण्यवसपिणीभिः होता है । क्षेत्र की दृष्टि से प्रतर के असंख्येय णीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अपह्रियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः भाग में होने वाली उन श्रेणियों की विष्कम्भ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयतमभागः, सूची के अंगुल प्रमाण प्रतर क्षेत्र के प्रथम असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढीणं तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिः अंगुल- वर्गमूल का असंख्यातवां भाग है। विक्खंभसूई अंगुलपढभवग्गमूलस्स प्रथमवर्गमूलस्य असंख्येयतमभागः । उनके मुक्त वैक्रिय शरीर औधिक औदाअसंखेज्जइभागो । मुक्केल्लया जहा मुक्तानि यथा औधिकानि औदारि- रिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें ओहिया ओरालिया । सू. ४५७] । ४८८. आहारगसरीरा जहा बेइंदि- आहारकशरीराणि यथा द्वीन्द्रि- ४८८. आहारक शरीर द्वीन्द्रिय जीवों की भांति याणं ।। याणाम् । प्रतिपादनीय हैं । [देखें सू. ४८३] । ४८६. तेयग-कम्मगसरोरा जहा ओरा- तेजस-कर्मकशरीराणि यथा औदा- ४८९. तेजस और कार्मण शरीर औदारिक शरीर लिया । रिकाणि । की भांति प्रतिपादनीय हैं । [देखें सु. ४८७] । काणि । ४६०. मणस्साणं भंते ! केवइया ओरा- मनुष्याणां भदन्त ! कियन्ति ४९०. भन्ते ! मनुष्यों के औदारिक शरीर कितने लियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा! औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? प्रज्ञप्त हैं ? दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धे- गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! औदारिक शरीर के दो प्रकार ल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । प्रज्ञप्त हैं, जैसे बद्ध और मुक्त। उनमें जो जेते बद्धेल्लया ते ण सिय संखेज्जा तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि स्यात् बद्ध हैं वे कभी संख्येय होते हैं, और कभी सिय असंखेज्जा। जहण्णपए संख्येयानि स्यात् असंख्येयानि । असंख्येय होते हैं। संखेज्जा संखेज्जाओ कोडोओ जघन्यपदे संख्येयानि संख्येया: जघन्य पद में मनुष्यों के बद्ध औदारिक एगणतीसं ठाणाई, तिजमलपयस्स कोट्य: एकोनत्रिंशत् स्थानानि, शरीर संख्येय होते हैं। [संख्यय का प्रमाण उरि चउजमलपयस्स हेटा, अहव त्रियमलपदस्य उपरि चतुर्यमलपदस्प इस प्रकार है]-संख्येय करोड़, उनतीस अंक णं छटो वग्गो पंचमवग्गपडु- अधः, अथवा षष्ठः वर्ग: पंचमवर्ग- जितनी [आगमिक संज्ञा के अनुसार त्रियमल प्पण्णो, अहव णं छण्णउइछेयण- प्रत्युत्पन्नः, अथवा षण्णवतिछेदनक- पद से अधिक और चतुर्यमल पद से कम गदायिरासी। उक्कोसपए असं- दायिराशिः । उत्कर्षपदे असंख्येयानि होते हैं। अथवा पांचवें वर्ग से गुणित छट्टे खेज्जा....असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी---असंख्येयाभिः उत्सपिण्यवसपि वर्ग, अथवा जो राशि आधे-आधे रूप में छिन्न ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, णीभिः अपहियन्ते कालतः, क्षेत्रत: करने पर छियानवे बार छिन्न हो सके उतने खेत्तओ उक्कोसपए रूवपक्खित्तेहि उत्कर्षपदे रूपप्रक्षिप्त: मनुष्यैः श्रेणिः होते हैं।" मणुस्सेहि सेढी अवहीरइ, असंखे- अपहियते, असंख्येयाभिः उत्सपिण्यव- उत्कृष्ट पद में मनुष्यों के बद्ध औदारिक Jain Education Intemational Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहि सर्पिणीभिः कालतः, क्षेत्रतः कालओ, खेत्तओ अंगुलपढमवग्ग- अंगुलप्रथमवर्गमूलं तृतीयवर्गमूलमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पण्णं। प्रत्युत्पन्नम् । मुक्तानि यथा औघिमुक्केल्लया जहा ओहिया ओरा- कानि औदारिकाणि । लिया ॥ अणुओगदाराई शरीर असंख्येय होते हैं। काल की दृष्टि से उनका अपहार असंख्येय उत्सपिणी और अवसर्पिणी में किया जाता है। क्षेत्र की दृष्टि से उत्कृष्ट पद में होनेवाले मनुष्यों में एक मनुष्य का प्रक्षेप करने पर उनके द्वारा एक आकाश प्रदेश की श्रेणी का अवहार होता है। इस कार्य में असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का काल लगता है। क्षेत्र खण्ड का अवहार किया जाए तो श्रेणी के अंगुल प्रमाण क्षेत्र में होने वाली प्रदेश राशि के प्रथम वर्गमूल को तृतीय वर्गमूल से गुणित करने पर जो प्रदेश राशि प्राप्त होती है उतने मनुष्य होते हैं। मुक्त शरीर औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४५७] । ४९१. मणस्साणं भंते? केवइया वेउ- मनुष्याणां भदन्त ! कियन्ति ४९१. भन्ते ! मनुष्यों के वैक्रिय शरीर कितने ब्वियसरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? प्रज्ञप्त हैं ? विहा पण्णत्ता, तं जहा बद्धं- गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त ल्लया य मुक्कल्ला य । तत्थ णं तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र हैं, जैसे-बद्ध और मुक्त। मनुष्यों के बद्ध जेते बद्धेल्लया ते णं संखेज्जा, यानि एतानि बद्धानि तानि संख्ये- वैक्रिय शरीर संख्येय हैं, एक-एक समय में समए-समए अवहीरमाणा-अवहीर- यानि, समये-समये अपहियमाणानि- एक एक शरीर का अपहार करने पर माणा संखेज्जेणं कालेणं अवही- अपह्रियमाणानि संख्येयेन कालेन असंख्येय काल में उनका अपहार होता है रंति, नो चेव णं अवहिया सिया। अपह्रियन्ते, नो चैव अपहृतानि स्युः। किन्तु उनका अपहार किया नहीं जाता। मक्केल्लया जहा ओहिया ओरा- मुक्तानि यथा औधिकानि औदारि- मुक्त वैक्रिय शरीर औधिक औदारिक लिया ॥ काणि । शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४६२. मणस्साणं भंते ! केवइया मनुष्याणां भदन्त ! कियन्ति ४९२. भन्ते ! मनुष्यों के आहारक शरीर कितने आहारगसरीरा पण्णत्ता? आहारकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! आहारक शरीर के दो प्रकार ----बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ तद्यथा--बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र प्रज्ञप्त हैं, जैसे-बद्ध और मुक्त। मनुष्यों के णं जेते बद्धल्लया ते णं सिय अस्थि यानि एतानि बद्धानि तानि स्याद् बद्ध आहारक शरीर कभी होते हैं और कभी सिय नत्थि, जइ अस्थि जहण्णणं अस्ति स्याद् नास्ति, यदि अस्ति नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्यतः एक दो एगो वा दो वा तिणि वा, उक्को- जघन्येन एक वा द्वे वा त्रीणि वा, अथवा तीन और उत्कृष्टत: दो हजार से नौ सेणं सहस्सपुहत्तं। मुक्केल्लया उत्कर्षेण सहस्रपृथक्त्वम्। मुक्तानि हजार तक होते हैं। जहा ओहिया ओरालिया। यथा औधिकानि औदारिकाणि। . मुक्त शरीर औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय है। [देखें सू. ४५९] । ४६३. तेयग-कम्मगसरीरा जहा एएसि तैजस-कर्मकशरीराणियथा ४९३. मनुष्यों के तैजस और कार्मण शरीर इन्हीं चेव ओरालिया तहा भाणि- एतेषां चैव औदारिकाणि तथा के औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय यव्वा ॥ मणितव्यानि । हैं। [देखें सू. ४९०] । Jain Education Intemational Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां प्रकरण : सूत्र ४६१-४६६ ४६४. वाणमंतराणं ओरालिपसरा जहा नेरद्रयाणं || ४६५. वाणमंतराणं भंते! केवइया वेव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा बलाय मुक्केला व तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं असं खेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओपिहि अवहरति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस असंवेज्जइभागो। तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई संखेज्जजोयणसपवग्गपलिभागो पपरस्स । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया ॥ ४६६. आहारगसरीरा दुविहा वि जहा असुरकुमाराणं ॥ ४६७. वाणमंतराणं भंते ! फेवदया तेयग-कम्मगसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा एएस चैव वेउविसरीरा तहा तेयग-कम्मगसरोरा वि भाणियव्वा ॥ ओरालियरीरा ४८. जोइसियाणं जहा नेरयाणं || केवइया पण्णत्ता ? ४६६. जोइसियाणं भंते ! वेव्वियसरीरा गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता तं जहा - बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं असंखेम्जा, असंज्जाह उस्स पिणो-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ परस्स असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खमसूई बेछपणंगुल सयवग्ग पसिनागो पयरस्स । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया ॥ वानमन्तराणाम् औदारिकशरीराणि बबा नैरविणाम्। वानमन्तराणां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथाबद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि असंख्येयानि, असंख्येयाभिः उत्सपिण्यवसर्पिणीभिः अपह्रियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयतमभागः । तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचि संख्येययोजनशतवर्गप्रतिभाग: प्रतरस्य । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकाणि । आहारकशरीराणि द्विविधानि अपि यथा असुरकुमाराणाम् । वानमन्तराणां भदन्त ! कियन्ति तेजस - कर्मकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! यथा एतेषां चैव वैक्रियशरीराणि तथा तेजस-कर्मकशरीराणि अपि मणितव्यानि । ज्योतिविकायाम औदारिकशरीराणि यथा नरयिकाणाम् । तद्यथा ज्योतिषिकाणां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रतप्तानि बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि असंख्येयानि, असंख्येयाभिः उत्सव अपह्रियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयतमभागः, तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचि: द्विशतषट्पञ्चाशदङ्गुलवर्गप्रतिभागः प्रतरस्य । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकाणि । २७५ ४९४. वानमंतर देवों के औदारिक शरीर नैरयिकों की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सु. ४५२ ] । ४९५. भन्ते ! वानमंतर देवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे बद्ध और मुक्त | उनमें जो बद्ध हैं वे असंख्येय हैं, काल की दृष्टि से असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है । क्षेत्र की दृष्टि से प्रतर के असंख्येय भाग में होने वाली असंख्येय श्रेणियां होती हैं उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची प्रतर के संख्य सौ योजन के वर्ग रूप प्रतिभाग जितनी होती है । मुक्त शरीर औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं।" [देखें सू. ४५७]। ४९६. आहारक शरीर के दोनों प्रकार असुरकुमार देवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४६८]। ४९७. भन्ते ! वानमंतर देवों के तेजस और कार्मण शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! तेजस और कार्मण शरीर भी इन्हीं के वैयि शरीर को भाति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४९५] ४९८. ज्योतिष्क देवों के औदारिक शरीर नैरयिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४६२] । ४९९. भन्ते ! ज्योतिष्क देवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -बद्ध और मुक्त । ज्योतिष्क देवों के बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्येय हैं काल की दृष्टि से असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है । क्षेत्र की दृष्टि से असंख्य श्रेणी प्रतर का असंख्यातवां भाग है। उन श्रेणियों की विकी दो सौ पप्पन अंगुल वर्ग रूप प्रतिभाग जितनी होती है।" मुक्त शरीक औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय है। देखें सु. ४५७] । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ५००. आहारगसरीरा जहा नेरइयाणं तहा भाणियव्वा ॥ ५०१. तेयग- कम्मगसरीरा जहा एएस चेव वेउब्विया तहा भाणियया ॥ ५०२. बेमाणियाणं भंते! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा। जहा नेरइयाणं तहा ॥ ५०३. माणिवाणं भंते! केवडया वेव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता तं जहा -- बल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पणी-ओसप्पिणीह अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ परस्स असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलबीयवग्गमूलं तइयवग्गमूलपष्पणं, अहवणं अंगुलतइया मूलघणप्यमाणमेत्ताओ सेटीओ । मुक्केलया जहा ओहिया ओरालिया || ५०४. आहारगसरीरा जहा नेरइयाणं ॥ ५०५. यग कम्मगसरीश जहा एएसि चेव वेउब्वियसरीरा तहा भाणि यव्वा । से तं सुहुमे खेत्तपलिओवमे । से तं खेत्तपलिओवमे । से तं पलिओवमे । से तं विभाग निष्कण्णे से से कालप्यमाणे ॥ आहारकशरीराणि यथा रविकाणां तथा भणितव्यानि । यथा तंज- कर्मशरीराणि एतेषां चैव वैक्रियाणि तथा भणितव्यानि । वैमानिकानां भदन्त ! कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! यथा नैरयिकाणां तथा । वैमानिकानां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि असंख्येयानि, असंख्येयाभि: उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः अपह्रियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयतमभागः, तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचि: अंगुल द्वितीयवर्गमूलं तृतीय वर्ग - मूलप्रत्युत्पन्नम्, अथवा अंगुल तृतीयवर्गमूलधनप्रमाणमात्राः श्रेण्यः । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकाणि । आहारकशरीराणि यच रवि काणाम् । तेजस - कर्मकशरीराणि यथा एतेषां चंद मंत्रियशरीराणि तथा भणितव्यानि । तदेतत् सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपमम् । तदेतत् पत्योपमम् । तबेतद् विभागनिष्पन्नम् । तदेतत् कालप्रमाणम् । अणुओगदाराई ५००. ज्योतिष्क देवों के आहारक शरीर नैरयिकों की भांति प्रतिपादनीय है। [देखें सू. ४६४] । ५०१. तेजस और कार्मण शरीर इन्हीं के वैक्रिय शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४९९] ५०२. भन्ते ! वैमानिक देवों के औदारिक शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! उनके औदारिक शरीर नरयिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। [ देखें सू. ४५२] । ५०३. भन्ते ! वैमानिक देवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- बद्ध और मुक्त। वैमानिक देवों के बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्येय हैं, काल की दृष्टि से असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है। क्षेत्र की दृष्टि से असंख्येय श्रेणी प्रतर का असंख्यातवां भाग । उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची (यानी केवल एक आयाम में लम्बाई मात्र में व्याप्त श्रेणियों की संख्या) इस प्रकार प्राप्त होती है एक अंगुल ( प्रमाण प्रतर के आकाश प्रदेशों) के द्वितीय वर्गमूल को अंगुल के तृतीय वर्गमूल को गुणित करने पर जो राशि प्राप्त होती है, ( वह श्रेणियों की संख्या है ।) अथवा अंगुल के तृतीय वर्ग मूल के घन प्रमाण जितनी श्रेणियां वैमानिक देवों के मुक्त वै शरीर औधिक ओदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीम है। [देखें सू. ४५७] ५०४. इनके आहारक शरीर नैरयिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं । [ देखें सू. ४६४ ] । ५०५ इनके तेजस और कार्मण शरीर इन्हीं के वैक्रिय शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं । [देखें . ५०३] वह सूक्ष्म क्षेत्र पस्योपम है। यह क्षेत्र पत्वोषम है। वह पयोषम है। वह विभागनिष्पन्न है । वह काल प्रमाण है । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र ४१६ १. (सूत्र ४१६) समय काल की सबसे छोटी इकाई है। जैसे परमाणु अविभाज्य है वैसे ही समय भी अविभाज्य है इसलिए समय को कालाणु कहा गया है । समय की सूक्ष्मता को प्रदर्शित करने के लिए सूत्रकार ने कुशल जुलाहे का निदर्शन दिया है। शब्द विमर्श युगवान् युग का अर्थ है सुषमा दुःषमा आदि कालखण्ड । जो स्वस्थ कालखण्ड में उत्पन्न होता है उसे युगवान् कहते हैं।' पृष्ठ्यन्तर-पसलियां। ऊरु-सक्थि (साथल)। परिष-अर्गला। चर्मेष्टक-चमड़े से वेष्टित व्यायाम करने का उपकरण । लंघन--long jumpe प्लवन--High jump | जवण-धावन (Running or galloping)। छेक ----प्रयोग को जानने वाला।' दक्ष- शीघ्र कार्य करने वाला। प्राप्तार्थ अधिकृत विषय में पूर्णता प्राप्त । कुछ विद्वान् इसका अर्थ प्राज्ञ भी करते हैं।' कुशल-चिन्तन पूर्वक कार्य करने वाला । आलोचना पूर्वक काम करने वाला। मेधावी ---एक बार श्रुत या दृष्ट कार्य को निष्पन्न करने की कला को जानने वाला ।' निपुण -उपाय पूर्वक क्रिया का प्रारम्भ करने वाला। निपुणशिल्पोपगत सूक्ष्म शिल्प को जानने वाला। पट शाटिका --साधारण सूती-वस्त्र । पट्ट शाटिका रेशमी-वस्त्र । सूत्र ४१७ २. (सूत्र ४१७) प्रस्तुत सूत्र में निरूपित संख्या गणित के क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या है। पूर्वश्रुत के पारगामी मुनि इसका विभिन्न प्रयोजनों से उपयोग करते थे। १. (क) अहाव. पृ. ८२ : युगः --सुषमवुःषमादिकाल: सोऽस्य (ख) अमवृ. प. १६३ । भावेन न कालदोषतयाऽस्यास्तीति युगवान् । ६. (क) अहावृ. पृ. ८३ : मेधावी-सकृत्भुतदृष्टकर्मज्ञः । (ख) अमवृ. प. १६३। (ख) अमवृ. प. १६३ । २. (क) अहावृ. पृ. ८३: छेकः प्रयोगज्ञः। ७. (क) अहावृ. पृ. ८३ : निपुणः-उपायारम्भकः । (ख) अम. प. १६३ । (ख) अमवृ. प. १६३ । ३. (क) अहाव. पृ.८३ : दक्षः शीघ्रकारी। ८. (क) अहाव. पृ. ८३ : निपुणशिल्पोपगतः-सूक्ष्मशिल्प(ख) अमवृ. प. १६३ । समन्वितः। ४. (क) अहावृ. पृ.८३ प्राप्तार्थ-अधिगतकर्मनिष्ठां गतः । (ख) अमवृ. प. १६३ । (ख) अमवृ. प. १६३। ९. अचू. पृ. ५७॥ ५. (क) अहावृ. पृ.८३ : कुशलः-आलोचितकारी। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ अणुओगदाराई शीर्षप्रहेलिका से आगे भी संख्येय काल होता है किन्तु उसका उपयोग अतिशयज्ञानी ही कर सकता है, अनतिशयज्ञानी के लिए वह व्यवहार्य नहीं, इसलिए उसका औपम्य काल में समावेश किया गया है और इसीलिए शीर्षप्रहेलिका के पश्चात् पल्योपम का उपन्यास किया गया है। चूर्णिकार ने पाठ रचना को ध्यान में रखकर शीर्षप्रहेलिका से आगे के संख्येय काल को औपम्य काल में प्रक्षिप्त बतलाया है।' ___ अनुयोगद्वार सूत्र के सूत्र ५७५, ५८४-५८६ में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट संख्येय काल का वर्णन मिलता है अतः औपम्य काल में इनका प्रक्षेप अनिवार्य नहीं है । इस संव्यवहार काल से प्रथम पृथ्वी के नैरयिकों, भवनपतियों, व्यंतरों, भरत तथा ऐरवत के सुषमदुःषमा काल के पश्चिम भाग के मनुष्यों और तिर्यञ्चों के आयुष्य का माप किया जाता है।' चूणि की यह व्याख्या औपनिधिकी कालानुपूर्वी (सू. २१९) के सन्दर्भ में प्राप्त है। कालप्रमाण के प्रकरण में चूर्णिकार ने इस विषय पर और प्रकाश डाला है। अन्तर्महुर्त से पूर्व कोटि तक की संख्या का उपयोग मनुष्यों और तिर्यचों के धर्माचरण काल के सन्दर्भ में आयुष्य परिमाण के लिए किया जाता था । किसी मनुष्य का जीवनकाल करोड़ पूर्व का हो और वह नौ वर्ष की अवस्था में मुनि बने तो वह कुछ न्यून करोड़ पूर्व तक धर्म की आराधना करता है। त्रुटित से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक की संख्या का उपयोग नरक, भवनपति और व्यन्तर देवों का आयुष्य-परिमाण जानने के लिए किया जाता था। इनका उपयोग पूर्वगत यविकों में आयुष्य श्रेणी के लिए किया जाता था। अन्यत्र भी इच्छानुसार इसका उपयोग किया जाता था। चूर्णिकार ने यह भी बतलाया है कि जहां तक अंक स्थान स्थापित किए जा सकते थे वहां तक गणित के ज्ञान का निरूपण किया गया है। वल्लभी बाचना में शीर्षप्रहेलिका के अंकों की संख्या २५० है । अनुयोगद्वार माथुरी वाचना का आगम है उसमें शीर्षप्रहेलिका के अंकों की संख्या १९४ है । देखें ठाणं २।३८७-३८९ तथा समवाओ ८४११५ के टिप्पण। १. आवलिका-असंख्य समय। २. आन-संख्येय आवलिका का एक उच्छवास अथवा एक नि:श्वास । ३. प्राण-एक उच्छ्वास निःश्वास । ४. स्तोक = सात प्राण। ५. लव-सात स्तोक । ६. मुहूर्त सतहत्तर लव या ४८ मिनट । ७. अहोरात्र=३० मुहूर्त । ८. पक्ष-१५ दिन । ९. मास-२ पक्ष । १०. ऋतु=२ मास । ११. अयन-तीन ऋतुएं या ६ मास । १२. संवत्सर-२ अयन या १२ मास: १३. युग-५ संवत्सर। १४. सौ वर्ष=२० युग। १५. पूर्वांग-८४ लाख वर्ष । १६. पूर्व-पूर्वांग x पूर्वांग= सत्तर लाख करोड़, छप्पन हजार करोड़ वर्ष (७०५६००००००००००)। १७. त्रुटितांग पूर्व x पूर्वांग अर्थात् पूर्व को ८४ लाख वर्षों से गुणा करने पर जितनी संख्या प्राप्त हो उतने वर्ष । त्रुटितांग से आगे शीर्षप्रहेलिका तक जितनी संख्या है वह उत्तरोत्तर चौरासी लाख से गुणित होने पर होती है । इस प्रकार शीर्षप्रहेलिका तक अंकों की संख्या होगी-७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ इस संख्या के आगे १४० शून्य होते हैं । यह पूरी संख्या १९४ अंकों की है. इसमें ५४ अंक और उसके ऊपर १४० शून्य हैं।' १. अचू. पृ. ४० : किं च सीसपहेलियाए य परतो अस्थि संखेज्जो कालो सो य अणतिसईणं अववहारिउत्तिकाउं, ओवम्मि पक्खितो, तेण सीसपहेलियाए परतो पलितोवमादि उवण्णत्था । २. वही, पढमपुढविणेरइयाणं भवणवंतराणं भरहेरवतेसु य सुसमवूसमाए पच्छिमे भागे णरतिरियाणं आऊ उवमिज्जंति । ३. वही, पृ. ५७ : यदृच्छातः एतावताव गणियं अंकट्टवआए। ४. अमव. प. ९१ : चतुरशीति लक्षस्वरूपेण गुणाकारेण यथोत्तरं वृद्धा द्रष्टव्यास्तावद्यावदिदमेव शीर्षप्रहेलिकांगं चतुरषीत्यालक्षर्गुणितं-शीर्षप्रहेलिका भवति -अस्याः स्वरूपमंकतोऽपि दर्श्यते ७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७ ९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ अग्रे च चत्वारिंशत् शून्यशतं १४०। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ मुहूर्त मुहूर्त मुहूर्त मुहर्त वर्ष पूर्व प्र० १०, सू० ४१७, टि०२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कालगणना के सन्दर्भ में एक तुलनात्मक तालिका प्रस्तुत की गई है।' क्रमांक | ति.प./४। । अनु. | जं.प./ दि.। | जं.प./श्वे./पृ. ज्यो. क./८-१०, २८५-३०९ सू. ११४-१३७ १३।४-१४ ३९,४० अनु. सू. २९-३१, ६२-७१ पृ. ३४२.३४३ १. समय समय समय समय समय २. आवलि आवलिका आवली आवली उच्छ्वास ३. उच्छवास आन उच्छ्वास आनप्राण स्तोक ४. प्राण (निश्वास) प्राणु स्तोक स्तोक लव | स्तोक स्तोक लव लव नालिका लव लव नाली नाली अहोरात्र अहोरात्र मुहूर्त दिवस पक्ष पक्ष दिवस अहोरात्र मास मास मास पक्ष पक्ष ऋतु ऋतु संवत्सर मास मास अयन अयन पूर्वांग ऋतु ऋतु वर्ष संवत्सर पूर्व अयन अयन युग युग लतांग १४. वर्ष दशवर्ष वर्षशत लता १५. युग युग वर्षशत वर्षसहस्र महालतांग वर्षदशक वर्षसहस्र वर्षशतसहस्र महालता वर्षशत वर्षशत दशवर्षसहस्र पूर्वांग नलिनांग वर्षसहस्र वर्षसहस्र वर्षशतसहस्र नलिन दशवर्षसहस्र पूर्वांग त्रुटितांग महानलिनांग २०. वर्षलक्ष वर्षशतसहस्र पूर्व त्रुटित महानलिन पूर्वांग पर्वांग अडडांग पद्मांग २२. पूर्व पूर्व अडड पद्म नियुतांग त्रुटितांग नयुतांग अववांग महापद्मांग २४. नियुत त्रुटित नयुत अवव महापद्य अटटांग कुमुदांग हूहूअंग कमलांग कुमुद अटट हूहू कमल पद्मांग अववांग पद्मांग उत्पलांग महाकमलांग पद्म अवव पद्म उत्पल महाकमल नलिनांग हूहूकांग नलिनांग पद्मांग कुमुदांग नलिन नलिन पद्म कुमुद ३१. कमलांग उत्पलांग कमलांग नलिनांग महाकुमुदांग कमल उत्पल कमल नलिन महाकुमुद त्रुटितांग पद्मांग त्रुटितांग अत्थिनेपुरांग त्रुटितांग त्रुटित पद्म त्रुटित अत्थिनेपूर त्रुटित अटटांग नलिनांग अटटांग आडअंग (अयुतांग) महात्रुटितांग अटट नलिन अटट आड (अयुत) महाटित अममांग अर्थनिकुरांग अममांग नयुतांग अडडांग ३८. अमम अर्थनिकुर अमम अडड हाहांग अयुतांग हाहांग प्रयुतांग महाअडडांग | हाहा अयुत हाहा प्रयुत महाअडड नयुतांग हूहअंग चुलितांग ऊहांग नयुत चूलित ४३. लतांग प्रयुतांग लतांग शीर्षप्रहेलिकांग महाऊहांग ४४. लता प्रयुत लता शीर्षप्रहेलिका महाऊह पूर्वांग पर्व कुमुदांग कुमुद नयुत हूहूवंग ४२. १. जैसिको. २, पृ. २१६ । Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अणुओगदाराई सूत्र ४१८-४४० ३. (सूत्र ४१८-४४०) जैन काल मीमांसा में काल को दो भागों में विभक्त किया गया है- गणित विषयक काल और औपमिक काल । गणित विषयक काल का अन्तिम बिंदू शीर्षप्रहेलिका है। इससे आगे गणित का प्रयोग नहीं किया जाता। औपमिक कालखण्ड को उपमा के द्वारा समझाया गया है। पल्य और सागर ये दो उपमान हैं। पल्य की उपमा से प्रमित काल पल्योपम और सागर की उपमा से प्रमित काल सागरोपम कहलाता है । देखें चार्ट औपम्यकाल पल्योपम सागरोपम उद्धार अद्धा क्षेत्र सूक्ष्म (सू. ४२४-४२६) व्यावहारिक (सू. ४२२,४२३) । सूक्ष्म (सू. ४३८-४४०) व्यावहारिक (सू. ४३६,४३७) व्यावहारिक (सू. ४३१,४३२) (सू. ४२९,४३०) दस कोटाकोटी पल्योपम=एक सागरोपम । सागरोपम के भेदोपभेद पल्योपमवत् ज्ञेय हैं। सूत्र ४१९ शब्द विमर्श उद्धारपल्योपम' ---जिस कालखण्ड में बालाग्र अथवा बालखण्ड का उद्धार किया जाता है, उसकी संज्ञा उद्धार पल्योपम है।' अद्धापल्योपम-अद्धा कालवाचक शब्द है। इस कालखण्ड में सौ वर्ष से बालाग्र अथवा बालखण्ड का उद्धार किया जाता है (निकाला जाता है) इसलिए इसकी संज्ञा अद्धा पल्योपम है। इसका वैकल्पिक अर्थ है कि इससे आयु का कालमान किया जाता है इसलिए इसकी संज्ञा अद्धा पल्योपम है। उद्धार और अद्धा दोनों कालखण्डों में बालाग्र निकाले जाते हैं फिर भी प्रथम का नामकरण उद्धार को प्रधान मान कर किया गया है तथा दूसरे का नामकरण काल को प्रधान मान कर किया गया है।' क्षेत्रपल्योपम–जो कालखण्ड आकाश-प्रदेशों के अवहार से मापा जाता है उसकी संज्ञा है क्षेत्रपल्योपम ।' सूत्र ४२० सूक्ष्म-जिसमें बालान के सूक्ष्म खण्ड करने की कल्पना की जाती है वह सूक्ष्म उद्धार पल्योपम कहलाता है। व्यावहारिक --जिसमें स्थूल बालाग्र का अवहरण किया जाता है, वह व्यावहारिक उद्धार पल्योपम होता है। १. (क) अचू. पृ. ५७ : बालग्गाण बालखण्डाण वा उद्धार इमातो र इयाण आणिज्जति अतो अद्धापलितोवमं । त्तणतो उद्धारपलितं भग्ण ति । .. (ख) अहाव. पृ.८४ । (ख) अहावृ.पृ. ८४। ३. (क) अचू. पृ.५७ : अणुसमयखेत्तपल्लपदेसावहारत्तणतो २. (क) अचू. पृ. ५७ : अद्धा इति काल: सो य परिमाणतो खेत्तपलितोवर्म। वाससयं बालग्गाण खण्डाण वा समुद्धरणतो अद्धा (ख) अहावृ. पृ. ८४ । पलितोवमं भण्णति । अहवा अद्धा इति आउद्धा सा Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १० सू० ४१६-४४६, टि० ३,४ सूत्र ४२२ पल्य- कोठा, कोष्ठागार, लाटदेश में धान्य का पात्र । क्षीण कुछ बालाग्रों के शेष रहने की अवस्था । नीरजस् - बालानों के शेष (समाप्त) होने की अवस्था । निर्लेप बालाग्र के सूक्ष्म अवयव के भी न रहने की अवस्था । निष्ठित निर्लेप होने के पश्चात् उसे निष्ठित कहा जा सकता है । सूत्र ४२४ बालाग्र - ( वालग्गे) सूत्रकार ने बालाग्र के परिमाण का प्रतिपादन विषयवस्तु व क्षेत्र इन दो दृष्टिकोणों से किया है। १. एक मनुष्य अपनी आंखों से किसी पौद्गलिक वस्तु को देखता है उसके असंख्येय भाग जितना बालाग्र होता है। बालाग्र का यह प्रमाण विषयवस्तु अथवा ज्ञेय की संरचना की अपेक्षा से है । २. बाला सूक्ष्म पनक के जीवों की शरीरावगाहना के असंख्येय गुण क्षेत्र जितनी अवगाहना वाला होता है। बालाग्र का यह प्रमाण क्षेत्र की अपेक्षा से निर्दिष्ट है । इसका तात्पर्य हैं कि सूक्ष्मपनक जीव की शरीरावगाहना का जो क्षेत्र है, बालाग्र का परिमाण उससे असंख्येयगुण होता है । चूर्णिकार ने बालाग्र को पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव के शरीर जितने परिमाण वाला बताया है ।" सूत्र ४४६ ४. ( सूत्र ४४६ ) हरिभद्रसूरि ने ओरालिय शरीर के चार मूल बतलाए हैं उदार, उराल, उरल और ओरालिय । इसका आधार सूत्र चूर्णि है । * उदार का अर्थ है प्रधान । तीर्थंकर और गणधर का शरीर ओरालिय शरीर होता है । इस अपेक्षा से यह उदार अथवा प्रधान शरीर है। इस प्रधानता के आधार पर ओरालिय का संस्कृत रूप बनता है औदारिक । " उराल का अर्थ है विशाल । ओरालिय शरीर की ऊंचाई एक हजार योजन से अधिक होती है। यद्यपि वैक्रिय शरीर की ऊंचाई कुछ अधिक एक लाख योजन प्रमाण होती है किंतु वह अवस्थित नहीं है; वह उत्तरवेक्रिय काल में होती है। वैक्रिय शरीर की स्वाभाविक ऊंचाई ५०० धनुष्य प्रमाण होती है ।" उरल - भिण्डी की तरह जिसका आकार बड़ा और प्रदेश का उपचय अल्प होता है उसकी संज्ञा है उरल । ओरालिय शरीर आकार में बृहत् और प्रदेशोपचय की दृष्टि से स्वल्प होता है। उराल - जो ओरालिय शरीर मांस, अस्थि, स्नायु आदि अवयवों से बद्ध होता है । " सिद्धसेन गणी ने औदारिक शरीर के दो अर्थ बतलाएं हैं, १. बृहत् और २ असार । २८१ वैक्रिय शरीर जो शरीर नाना रूपों का निर्माण करने में सक्षम होता है उसकी संज्ञा है वैक्रिय शरीर ! नारक और देव के वह १. पृ. १५९ । 1: २. अचू. पृ. ५८ ते बालग्गा असंखखंडीकता, किंपमाणा भवंति ? एरिसा ते बालग्गखंडा, पमाणेत्ति बायरविकाइपजससरोरप्रमाणा इत्यर्थः । : ३. अहावृ. पृ. ८७ शीर्यत इति शरीरं तत्थ ताव उदारं उरालं उरलं उरालियं वा उदारियं । ४. अचू. पू. ६० । ५. अहावृ. पृ. ८७ : तित्थगरगणधरसरोराई पडुच्च उदारं, उदारं नाम प्रधानं । ६. वही, उरालं नाम विस्तरालं, विशालंति वा जं भणितं होति कहे ? सातिरेगजोवण सहस्समवद्वियप्यमाणमोरालिय अणमेहमि गरिव वेउब्वियं होज्जा लक्खमहिय, अवट्टियं पंचधणसते, इमं पुण अवद्वितपमाणं अतिरेगजोयणसहस्सं वनस्पत्यादीनामिति । ७. वही, उरलं नाम स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाच्च भिण्डवत् । वही, उरालं नाम मांसास्थिनाय्वाद्यवयवबद्धत्वात् । ९. भा. पृ. १९५ । ८. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ अणुओगदाराई स्वाभाविक होता है। मनुष्य और तिर्यञ्चों के यह लब्धिजन्य होता है । वायुकाय के भी वैक्रिय शरीर होता है। आहारक शरीर ___ आहारक लब्धि के द्वारा निर्मित शरीर आहारक शरीर कहलाता है। श्रुतकेवली विशिष्ट प्रयोजन उत्पन्न होने पर इसका निर्माण करते हैं। तेजस शरीर यह ऊष्मामय शरीर है। इसका कार्य है पाचन और दीपन । यह शरीर तेजोलब्धि का भी हेतु बनता है। कार्मण शरीर कर्म का विकार कार्मण शरीर है। इसका निर्माण अष्टविध कर्म पुद्गलों से होता है। यह शेष सब शरीरों का मूल कारण है। सिद्धसेन गणी ने कार्मण शरीर के विषय में मतान्तर का उल्लेख किया है। उनके अनुसार कार्मण शरीर समस्त कर्म राशि का आधारभूत तथा नए कर्मों के प्रसव में समर्थ है। इसलिए कर्म ही कार्मण शरीर है, यह व्युत्पत्ति मात्र है। जैसे चक्षु आदि इन्द्रियां शरीर में होती हैं किंतु इन्द्रियां भिन्न हैं शरीर भिन्न है वैसे ही कर्म कार्मण शरीर में होते हैं पर कर्म भिन्न हैं कार्मण शरीर भिन्न है। ___कर्म की उत्पत्ति बन्धन नामकर्म और राग द्वेष के निमित्त से होती है। शरीर की उत्पत्ति शरीर नामकर्म के उदय से होती है। इसी तरह इनका विपाक भी भिन्न है। ज्ञानावरणादि कर्म का विपाक अज्ञान उत्पन्न करता है। कार्मण शरीर का विपाक कार्मण शरीर को ही परिपुष्ट करता है। सिद्धसेन गणी ने कार्मण शरीर को कर्म से निष्पन्न तथा कर्म ही कार्मण शरीर है इन दोनों पक्षों को अनेकांत दृष्टि से संगत बतलाया है। 'तत्त्वार्थसूत्र' ६।१० की व्याख्या में सिद्धसेन गणी ने कार्मण शरीर को अपने योग्य द्रव्यों से निर्मित स्वसंस्थान वाला बतलाया है। इसका निष्कर्ष है कि कार्मण शरीर कर्माशय के रूप में उत्पन्न होता है और वह कर्म के लिए आधारभूत बनता है।' चूर्णिकार ने इन पांच शरीरों की क्रम व्यवस्था पर विचार किया है। उनके अनुसार पांचों शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म, अधिक प्रदेशवाले और अनेक प्रमाणों से गम्य हैं।' सूत्र ४५७ ५. (सूत्र ४५७) औदारिक शरीर दो प्रकार के होते हैं-बद्ध और मुक्त । बद्ध शरीर जीवयुक्त होता है और जीवरहित शरीर मुक्त कहलाता है । बद्ध शरीर असंख्येय होते हैं। काल की दृष्टि से उनका अनुमापन इस प्रकार है-एक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का कालमान बीस कोड़ाकोड़ सागरोपम होता है। प्रतिसमय एक-एक शरीर का अवहार करते चलें तो असंख्येय उत्सपिणी और अवसपिणी में उनका अवहरण होगा । इसका फलितार्थ यह है कि असंख्येय उत्सपिणी और अवसर्पिणी के जितने समय होते हैं, उतने ही बद्ध औदारिक शरीर होते हैं। क्षेत्र की दृष्टि से बद्ध औदारिक शरीर असंख्येय लोक जितने हैं । औदारिक शरीर वाले जीव अनन्त हैं फिर भी उनके शरीर असंख्येय हैं । प्रत्येक शरीरी (एक शरीर में एक जीव) जीव असंख्येय हैं। उनके शरीर भी असंख्येय हैं । साधारण शरीरी (एक शरीर में अनन्त जीव) जीव एक शरीर में अनन्त होते हैं अतः उनके शरीर असंख्येय ही होते हैं । इस प्रकार बद्धशरीर असंख्येय हैं। १. अहाव. पृ. ८७ : वैक्रियं विविधा विशिष्टा वा क्रिया ४. वही, कर्मणो विकारः कार्मणं, अष्टविधकर्मनिष्पन्न सकलविक्रिया, विक्रियायां भवं वैक्रियं, विविधं विशिष्टं वा शरीरनिबंधनं च। कुर्वति तदिति वैकुविकं । ५. तभा. पृ. १९५, १९६ । २. वही, आयत इत्याहारकं, गृह्यते इत्यर्थः, कार्यपरिसमा- ६. तमा. पृ. २१ । प्तेश्च पुनर्मुच्यते याचितोपकरणवत् । ७. अचू. पृ. ६१: परं परं प्रदेशसूक्ष्मत्वात परं परं प्रदेश३. वही, तेजोभावस्तैजसं, रसाद्याहारपाकजननं लब्धिनिबंधनं बाहुल्यात परं परं प्रमाणोपलब्धित्वात प्रथित एवौदारिकादिक्रमः। Jain Education Intemational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १०, सू० ४५७-४६०, टि०५-७ २८३ जीव की अवगाहना असंख्यप्रदेशात्मक आकाश में होती है उससे अल्प प्रदेशों में उसकी अवगाहना नहीं होती। एक जीव को अपनी-अपनी अवगाहना के अनुसार आकाश प्रदेशों में स्थापित करने पर असंख्येय लोक भर जाते हैं। ___आकाश के एक एक प्रदेश पर एक-एक जीव को स्थापित करने पर भी असंख्येय लोक भर जाते हैं किन्तु यह सिद्धान्त सम्मत नहीं है। जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है कि जीव की अवगाहना आकाश के एक दो प्रदेशों में नहीं होती। उसकी अवगाहना के लिए कम से कम आकाश के असंख्येय प्रदेश आवश्यक है । यह कथन संख्या को उदाहरण से समझाने के लिए है। मुक्त औदारिक शरीर अनन्त हैं । बद्ध औदारिक शरीर असंख्येय हैं, इस अवस्था में मुक्त औदारिक शरीर अनन्त कैसे हो सकते हैं ? बद्ध शरीर का सम्बन्ध वर्तमान से है, मुक्त शरीर का संबंध दीर्घकालीन अतीत से है। एक जीव ने औदारिक वर्गणा के जिन पुद्गलों को औदारिक शरीर काय प्रयोग के रूप में परिणत किया और वे एक अवधि के पश्चात् मुक्त हो गये वे मुक्त पुद्गल औदारिक शरीर काय प्रयोग अवस्था को छोड़कर अन्य रूप में परिणत नहीं होते हैं तब तक उनकी संज्ञा मुक्त औदारिक शरीर रहती है इस प्रकार प्रत्येक औदारिक शरीर अनन्त भेद वाला हो जाता है। बद्ध औदारिक शरीर पर काल और क्षेत्र दो दृष्टियों से विचार किया गया है और मुक्त औदारिक शरीर पर काल, क्षेत्र और द्रव्य इन तीन दृष्टियों से विचार किया गया है। अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के जितने समय होते हैं, काल की दृष्टि से मुक्त औदारिक शरीर उतने ही हैं। क्षेत्र की दृष्टि से मुक्त औदारिक शरीर अनन्त लोक प्रमाण हैं। प्रज्ञापना में प्रतिपाति सम्यम् दृष्टि जीवों को अभव्य जीवों से अनन्त गुण अधिक और सिद्धों से अनन्त भागहीन बतलाया गया है। क्या मुक्त औदारिक शरीर की तुलना उनसे की जा सकती है ? इस विषय में चूर्णिकार का मत यह है-मुक्त औदारिक शरीरों की संख्या अनियत है । कभी वे प्रतिपाति सम्यग् दृष्टि जीवों से अधिक हो जाते हैं, कभी कम, कभी समान । इसलिए प्रतिपाति सम्यग्दृष्टि जीवों से उनकी तुलना नहीं होती। मुक्त औदारिक शरीर क्षेत्र की दृष्टि से अनन्त लोक प्रमाण बतलाए गये हैं फिर उनका समावेश एक लोक में कैसे हो सकता है ? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। इसका समाधान परिणति-वैचित्य के सिद्धान्त से किया जा सकता है। एक आकाश प्रदेश में एक परमाणु भी रहता है और उसी आकाश प्रदेश में अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी रह सकता है। यदि पुद्गल द्रव्य में सूक्ष्म परिणति की क्षमता नहीं होती तो अनन्त परमाणुओं और अनन्त स्कन्धों के लिए अनन्त लोक अपेक्षित होते, किन्तु सूक्ष्म परिणति की क्षमता के कारण वे एक लोक में समाए हुए हैं । चूणि कार और वृत्तिकार ने उक्त समस्या का समाधान प्रदीप के प्रकाश के दृष्टान्त से किया है जैसे एक प्रदीप के प्रकाश में अनेक प्रदीपों के प्रकाश समाविष्ट हो जाते हैं इसी प्रकार एक औदारिक शरीर के अवगाहन क्षेत्र में अनेक औदारिक शरीरों का अवगाहन हो जाता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादन का व्युत्क्रम किया गया है। प्रतिपादन की सामान्य शैली द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस क्रम पर आधारित है । प्रस्तुत सूत्र में काल, क्षेत्र और द्रव्य इस क्रम का अनुसरण किया गया है । प्रकृत विषय काल है इसलिए काल का प्रथम निरूपण स्वाभाविक है। चूणि और वृत्ति के अनुसार शरीर के पुद्गलों का कालान्तरावस्थायित्व बतलाया गया है इसलिए काल को प्रधान माना गया है। सूत्र ४५९ ६. (सूत्र ४५९) बद्ध आहारक शरीर के विषय में दो विशेष उल्लेख ज्ञातव्य हैं१. आहारक शरीर का अन्तर काल जघन्य एक समय उत्कृष्टत: छह महीने बतलाया गया है इसलिए वह निरन्तर नहीं होता। २. बद्ध आहारक शरीर संख्या की दृष्टि से बहुत अल्प होते हैं। जघन्यतः एक दो तीन और उत्कृष्टतः सहस्र पृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार) होते हैं। सूत्र ४६० ७. (सूत्र ४६०) बद्ध तेजस शरीर सब जीवों से अनन्त भाग न्यून है। इस न्यूनता का कारण सिद्ध जीव बनते हैं। सिद्ध सब जीवों के अनन्त १. अचू. पृ. ६२, ६३ । २.(क) अचू. पृ. ६३ । (ख) अहावृ. पृ. ८९। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ अणुओगदाराई भाग जितने हैं उनके तेजस शरीर नहीं होता इसलिए बद्ध तेजस शरीर सब जीवों से अनन्त भाग न्यून बतलाये गये हैं।' तैजस शरीर द्रव्य से सर्व जीवों से अनन्तगुणा अथवा सर्व जीववर्ग के अनन्तवें भाग जितने होते हैं। किसी एक राशि को उस राशि से गुणित करने को वर्ग कहते हैं। जीव राशि को जीव राशि से गुणित करने पर जो राशि प्राप्त होती है उसे जीव वर्ग राशि कहते हैं । सर्वजीव राशि अनन्त है। सरलता से समझने के लिए हम जीवराशि को कल्पना से दस हजार मान कर चलते हैं और अनन्त को १०० मान लेते हैं १००००४१००=१०००००० (दस लाख) यह सर्व जीवों के अनन्त गुण की राशि हुई। ऊपर सर्व जीव राशि को १०००० (दस हजार) माना था। उसका वर्ग किया १००००x१००००=१०००००००० (दस करोड़) यह जीव वर्ग का प्रमाण है। अनन्त को १०० माना था इसलिए अनन्तवें भाग के लिए उक्त राशि में १०० का भाग दिया। १००००००००-१००-१०००००० दस लाख । ऊपर कथित दोनों प्रक्रियाओं से दोनों का फलित एक समान है। सूत्र ४६३ ८. (सूत्र ४६३) नरयिकों के वैक्रिय शरीरों का प्रमाण क्षेत्र से प्रतर के असंख्यातवें भाग में रहने वाली असंख्यात श्रेणियां हैं। उन श्रेणियों की विष्कंभसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणित करने वाली राशि जितनी हैं अथवा अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के धन के प्रमाण जितनी हैं। श्रेणी को श्रेणी से गुणित करने से प्रतर की राशि आती है। श्रेणियां असंख्यात हैं। असंख्यात असंख्यात प्रतरराशि। प्रतर का असंख्यातवां भाग=असंख्यात असंख्यात-असंख्यात श्रेणियां । असंख्यात किसी राशि को उसी राशि से गुणा करने पर वर्ग (वर्गफल) आता है। जिस राशि से गुणा किया था वह उस वर्गफल का वर्गमूल होता है। श्रेणियां असंख्यात हैं । कल्पना से मान लें वे २५६ हैं। २५६ का प्रथम वर्गमूल १६ द्वितीय वर्गमूल ४ और तृतीय वर्गमूल २ होता है। देखें यंत्र-- |१|२| ३ ४/+क्रम २|४|१६ | २५६ | स्वर्गमूल | ऊपर लिखित प्रथम वर्गमूल १६ को द्वितीय वर्गमूल ४ से गुणा किया। १६४४=६४ श्रेणियां । प्रकारान्तर से कथित द्वितीय वर्गमूल ४ का घन किया ४४४४४= ६४ श्रेणियां । दोनों प्रक्रियाओं का फलित एक समान है केवल कथन की भिन्नता है। असंख्यात के स्थान पर कल्पित २५६ श्रेणियों की विष्कंभसूची ६४ होती है। सूत्र ४६७ ९. (सूत्र ४६७) असुरकुमारों के वैक्रिय शरीर क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतर के असंख्यातवें भाग रूप असंख्यात श्रेणियों जितने हैं। उन श्रेणियों की विष्कंभसूची अंगुल के प्रथमवर्गमूल के असंख्यातवें भाग जितनी है। कल्पना से मान लें वे असंख्यात श्रेणियां १६ हैं। उनका प्रथम वर्गमूल ४ होता है । देखें यंत्र |१|२ ३|+-क्रम २|४|१६|-वर्ग मूल | असंख्यात के स्थान पर मानी गई १६ श्रेणियों का वर्गमूल ४ है। विष्कंभसूची इस ४ का असंख्यातवां भाग जितनी होगी। १. (क) अचू. पृ. ६३। (ख) अहाव. पृ. ९०। Jain Education Intemational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०१०, सू० ४६३-४६०, टि०८-१३ २८५ सूत्र ४८२ १०. क्षेत्र की दष्टि से......श्रेणियों के असंख्येय वर्गमूल जितनी होती है (खेत्तओ....."असंखेज्जाई सेढिवग्गमूलाई) ____ क्षेत्र की अपेक्षा से बद्ध औदारिक शरीर प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों की राशि प्रमाण हैं । उन श्रेणियों की विष्कंभसूची असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण है। इतने प्रमाण वाली विष्कभसूची असंख्यात श्रेणियों के वर्गमूल रूप है। आकाश श्रेणी में रहे हुए समस्त प्रदेश असंख्यात होते हैं। कल्पना से समझे वे ६५५३६ हैं। ये ६५५३६ असंख्यात के बोधक हैं। १/२ ३ ४ ५ क्रम | २४ | १६ | २५६ | ६५५३६ | स्वर्गमूल | इस संख्या का प्रथम वर्गमूल क्रम नम्बर ४ के नीचे २५६ है। द्वितीय वर्गमूल क्रम नं. ३ के नीचे १६ है। तृतीय वर्गमूल क्रम नं. २ के नीचे ४ है। चतुर्थ वर्गमूल क्रम नं. १ के नीचे २ है। इन बर्गमूलों का योग किया (२५६+१६+४+२, २७८ । असंख्यात के स्थान पर कल्पित संख्या ६५५३६ की २७८ प्रदेश वाली विष्कंभसूची होगी। ११. क्षेत्र की दृष्टि से वे अंगुल प्रतर या आवलिका के असंख्यात भागरूप प्रतिभाग जितने होते हैं (खेत्तओ अंगुलपयरस्स आवलियाए य असंखेज्जइभागपलिभागेणं) क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतर के जितने प्रदेश हैं उनको एक-एक द्वीन्द्रिय जीवों से भरा जाए। फिर उन प्रदेशों से आवलिका के असंख्यातवें भाग रूप समय में एक एक द्वीन्द्रिय जीव को निकाला जाए तो आवलिका के असंख्यात भाग लगते हैं। इतने प्रदेश अंगुल प्रतर के हैं। उस प्रतर के जितने प्रदेश हैं उतने द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिक शरीर हैं। ऊपर कथित संख्या में और नीचे कथित संख्या में कोई भेद नहीं है केवल कथन शैली की भिन्नता है। सूत्र ४८७ १२. क्षेत्र की दृष्टि से....."असंख्यातवां भाग (खेत्तओ....... असंखेज्जइभागो) पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों के वैक्रिय शरीर क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतर के असंख्यातवें भाग में असंख्यात श्रेणियों के प्रदेश राशि प्रमाण है । उन श्रेणियों की विष्कंभसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग जितनी है। कल्पना से मान लें वे असंख्यात श्रेणियां १६ हैं । उनका प्रथम वर्गमूल ४ होता है। असंख्यात के स्थान पर मानी गई १६ श्रेणियों का वर्गमूल ४ है। विष्कभसूची इस ४ का असंख्यातवां भाग जितनी होगी। |१|| ३| क्रम | २| ४ | १६ | स्वर्गमूल । सूत्र ४९० १३. जघन्य पद में....."छियानवे बार छिन्न हो सके उतने होते हैं (जहण्णपए......"छण्णउइछेयणगदायिरासी) संख्यात के भी संख्यात भेद होते हैं। इसलिए संख्यात कहने से निश्चित संख्या का बोध नहीं होता। निश्चित संख्या का कथन करने के लिए संख्यात कोटाकोटि कहा गया है। इसको और स्पष्ट करने के लिए २९ स्थान (अंक दशमलव) कहे गए हैं। ३ यमल पद से अधिक और ४ यमल पद से कम कहा गया है। ८ अंकों का (दशमलव) एक यमल पद होता है । २९ अंकों (दशमलव) के ३ यमल पद से ५ अंक अधिक होते हैं और ४ यमल पद से कम हैं। प्रकारान्तर से कहा गया है पांचवें वर्ग और छठे वर्ग के गुणनफल जितना है। इसे सरलता से इस प्रकार समझा जा सकता है--एक का वर्ग एक ही आता है। उसके कितने ही वर्ग करो एक ही आयेगा। इसलिए वर्गफल के लिए २ की संख्या को ग्रहण किया जाता है। २४२-४ पहला वर्गफल । ४४४=१६ दूसरा वर्गफल । १६४१६=२५६ तीसरा वर्गफल ।२५६४२५६ =६५५३६ चौथा वर्गफल। ६५५३६४६५५३६-४२९४९६७२९६ पांचवां वर्गफल । ४२९४९६७२९६४४२९४९६७२९६ =१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ छट्ठा वर्गफल । अब पांचवें और छठे वर्गफल को गुणा किया ४२९४९६७२९६४ १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६=७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ । इस राशि में २९ अंक हैं। Jain Education Intemational Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ अणुओगदाराई प्रकारान्तर से तीसरी व्याख्या मिलती है कि उस राशि के छियानवे छेदनकदायी होते हैं। जो आधे आधे करते छियानवे बार छेदन को प्राप्त हो और अंत में एक बच जाए उसे छियानवे छेदनकदायी राशि कहते हैं। इसको इस प्रकार समझें प्रथम वर्गफल (२४२)=४ का छेदन करने से २ छेदनक होते हैं। दूसरा वर्गफल (४४४)=१६ का छेदन करने से ४ छेदनक होते हैं । प्रथम ८, द्वितीय ४, तृतीय २ और चतुर्थ १।। तीसरा वर्गफल १६४१६=२५६ के आठ छेदनक होते हैं। चौथा वर्गफल २५६४२५६-६५५३६ के १६ छेदनक होते हैं। पांचवा वर्गफल ६५५३६४६५५३६%४२९४९६७२९६ के ३२ छेदनक होते हैं। छट्ठा वर्गफल ४२९४९६७२९६४४२९४९६७२९६-१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ के ६४ छेदनक होते हैं। फलित की भाषा में अगले अगले वर्गफल में पूर्व से दुगने छेदनक होते जाते हैं। पांचवें वर्गफल के ३२ छेदनक और छठे वर्ग के ६४ छेदनक । इन दोनों का योग करने से ३२+६४९६ छेदनक होते हैं। प्रकारान्तर से एक के अंक को स्थापित कर उत्तरोत्तर उसे छियानवे बार दुगुना दुगुना करने पर जितनी राशि आती है वह छियानवे छेदनकदायी राशि कहलाती है। इस छियानवे छेदनकदायी राशि का प्रमाण उतना ही होगा जितना कि पांचवे वर्गफल और छठे वर्गफल का गुणा करने से आता है। सूत्र ४९५ १४. (सूत्र ४६५) वानमन्तर देवों के बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्यात हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतर के असंख्यातवें भाग में रहने वाली जो असंख्यात श्रेणियां हैं, उन श्रेणियों के जितने प्रदेश हों, उतने प्रदेश प्रमाण वानमन्तरों के बद्ध वैक्रिय शरीर हैं। उन असंख्यात श्रेणियों की विष्कंभसूची तिर्यंच पञ्चेन्द्रियों की बद्ध औदारिक शरीर की विष्कंभसूची से असंख्यात गुण हीन जानना चाहिए। सूत्र ४९९ १५. क्षेत्र की दृष्टि से ......"दो सौ छप्पन अंगुल वर्ग रूप प्रतिभाग जितनी होती है (खेत्तओ......"बेछप्पण्णंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स) क्षेत्र की अपेक्षा से ज्योतिष देवों के बद्ध शरीर प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों के समान हैं। उनकी विष्कंभसूची २५६ (दो सौ छप्पन) प्रतरांगुलों के वर्गमूलरूप प्रतिभाग (अंश) है । २५६ का वर्गमूल १६ है । देखें यंत्र-- | १|२| ३ | ४|-क्रम २|४|१६|२५६ |+-वर्गमूल सूत्र ५०३ १६. क्षेत्र की दृष्टि से....."प्रमाण जितनी श्रेणियां हैं (खेत्तओ.......पमाणमेत्ताओ सेढीओ) क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतरांगुल के असंख्यातवें भाग में रहने वाली असंख्यात श्रेणियों जितने वैमानिक देवों के बद्ध वैक्रिय शरीर हैं। उनकी विष्कंभसूची अंगुल के दूसरे वर्ग को तीसरे वर्ग से गुणित करने के समान हैं। मान लें वे असंख्यात श्रेणियां २५६ हैं । इनका वर्ग मूल निकाला-- |१|| ३| ४|-क्रम |२|४|१६|२५६/ वर्गमूल दो सौ छप्पन का प्रथम वर्गमूल १६ द्वितीय वर्गमूल ४ और तृतीय वर्गमूल २ होता है। इसमें दूसरे वर्गमूल ४ को तीसरे वर्गमूल २ से गुणा किया। ४४२८ हुए । असंख्यात के स्थान पर मानी गई २५६ श्रेणियों की ८ विष्कंभसूची हुई। प्रकारान्तर से कहा गया है कि तृतीय वर्गमूल के घन रूप है। २५६ का तृतीय वर्गमूल २ है। उसका घनफल २४२४२ - आता है। दोनों प्रक्रियाओं में २५६ की विष्कंभसूची ८ अंगुल आती है। केवल कथन के प्रकार की भिन्नता है। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रकरण (सूत्र ५०६-६१४) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख भावप्रमाण के प्रकरण में आर्यरक्षितसूरि ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इस प्रमाण चतुष्टयी का निरूपण किया है। माना जाता है कि आर्यरक्षित जैन मुनि बनने से पहले नैयायिक दर्शन की परम्परा के पण्डित थे। इसलिए न्याय-सम्मत प्रमाण चतुष्टयी का प्रस्तुत आगम में समावेश कर दिया। नैयायिक दर्शन के आधुनिक ग्रन्थों से यह प्रतिपादन कुछ भिन्न है। पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने इसका तुलनात्मक वर्णन किया है। इस प्रकरण के विवेचन में इसका विमर्श किया गया है। सूत्रकार ने लौकिक आगमों की सूची प्रस्तुत की है । नन्दी में भी यह सूची प्राप्त है। संभावना की जा सकती है कि नन्दीकार ने अनुयोगद्वार की सूची का अनुसरण किया है। नय को समझने के लिए वसति, प्रस्थक और प्रदेश ये तीन दृष्टान्त दिए गए हैं। यह नय वर्णन अन्यत्र आगम साहित्य में उपलब्ध नहीं होता है। संख्या संख्येय, असंख्येय और अनन्त की विशिष्ट जानकारी भी इसमें उपलब्ध है। इस प्रकार प्रमाण निरूपण की दृष्टि से यह प्रकरण बहुत महत्त्वपूर्ण है। १. आयुजैद. पृ. १३६-१५६ । Jain Education Intemational Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रकरण हिन्दी अनुवाद भाव प्रमाण-पद ५०६. वह भाव प्रमाण क्या है ? भाव प्रमाण के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-गुण प्रमाण, नय प्रमाण और संख्या प्रमाण ।' ५०७. वह गुण प्रमाण क्या है ? गुण प्रमाण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेजीवगुण प्रमाण और अजीवगुण प्रमाण । ५०८. वह अजीवगुण प्रमाण क्या है ? अजीवगुण प्रमाण के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-वर्गगुण प्रमाण, गन्धगुण प्रमाण, रसगुण प्रमाण, स्पर्शगुण प्रमाण और संस्थानगुण प्रमाण । मूल पाठ संस्कृत छाया भावप्पमाण-पदं भावप्रमाण-पदम् ५०६. से कि तं भावप्पमाणे? भाव- अथ किं तद् भावप्रमाणम् ? प्पमाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- भावप्रमाणं त्रिविधं प्रज्ञप्त, तद्यथागुणप्पमाणे नयप्पमाणे संख- गुणप्रमाणं नयप्रमाणं संख्याप्रमाणम् । प्पमाणे॥ ५०७. से कि तं गुणप्पमाणे? गुणप्प- अथ किं तद् गणप्रमाणम् ? गुण- माणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- प्रमाणं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा--जीवजीवगुणप्पमाणे य अजीवगुणप्प- गुणप्रमाणञ्च अजीवगुणप्रमाणञ्च । माणे य॥ ५०८. से कि तं अजीवगुणप्पमाणे? अथ किं तद् अजीवगुणप्रमाणम् ? अजीवगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते, अजीवगुणप्रमाणं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तं जहा वण्णगुणप्पमाणे गंध- तद्यथा-वर्णगणप्रमाणं गंधगुणप्रमाणं गुणप्पमाणे रसगुणप्पमाणे फास- रसगुणप्रमाणं स्पर्शगुणप्रमाणं संस्थान गुणप्पमाणे संठाणगुणप्पमाणे। गुणप्रमाणम् । ५०६.से कि तं वण्णगुणप्पमाणे? अथ किं तद् वर्णगुणप्रमाणम् ? वण्णगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते, वर्णगुणप्रमाणं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तं जहा-कालवण्णगुणप्पमाणे तद्यथा कालवर्णगुणप्रमाणं नीलवर्णनीलवण्णगुणप्पमाणे लोहियवण्ण- गुणप्रमाणं लोहितवर्णगुणप्रमाणं गुणप्पमाणे हालिद्दवण्णगुणप्पमाणे हारिद्रवर्णगुणप्रमाणं शुक्लवर्णगुणसुक्किलवण्णगुणप्पमाणे । से तं प्रमाणम् । तदेतद् वर्णगुणप्रमाणम् । वण्णगुणप्पमाणे ॥ ५१०. से कि तं गंधगुणप्पमाणे? गंध- अथ किं तद् गन्धगुणप्रमाणम् ? गुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा गन्धगुणप्रमाणं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा -सुन्भिगंधगुणप्पमाणे दुढिमगंध- सुरभिगन्धगुणप्रमाणं दुरभिगन्ध- गुणप्पमाणे । से तं गंधगुणप्प- गुणप्रमाणम् । तदेतद् गन्धगुणमाणे॥ प्रमाणम् । ५११. से कि तं रसगुणप्पमाणे? रस- अथ किं तद् रसगुणप्रमाणम् ? गुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते, तं रसगुणप्रमाणं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, जहा तित्तरसगुणप्पमाणे कडुय- तद्यथा-तिक्तरसगुणप्रमाणं कटुकरसगुणप्पमाणे कसायरसगुणप्प- रसगुणप्रमाणं कषायरसगुणप्रमाणम् माणे अंबिलरसगुणप्पमाणे महुर- अम्लरसगुणप्रमाणं मधुररसगुणप्रमारसगुणप्पमाणे । से तं रसगुणप्प- णम् । तदेतद् रसगुणप्रमाणम् । माणे॥ ५०९. वह वर्णगुण प्रमाण क्या है ? ___वर्णगुण प्रमाण के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-कृष्णवर्ण गुण प्रमाण, नीलवर्ण गुण प्रमाण, रक्तवर्ण गुण प्रमाण, पीतवर्ण गुण प्रमाण और शुक्लवर्ण गुण प्रमाण । वह वर्णगुण प्रमाण है। ५१०. वह गन्धगुण प्रमाण क्या है? गन्धगुण प्रमाण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-सुरभिगन्ध गुण प्रमाण और दुरभिगन्ध गुण प्रमाण। वह गन्धगुण प्रमाण है। ५११. वह रसगुण प्रमाण क्या है ? रसगुण प्रमाण के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-तिक्तरस गुण प्रमाण, कटुरस गुण प्रमाण, कषायरस गुण प्रमाण, अम्लरस गुण प्रमाण और मधुररस गुण प्रमाण। वह रसगुण प्रमाण है। Jain Education Intemational Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अणुओगदाराई ५१२. से कि तं फासगुणप्पमाणे? अथ किं तत् स्पर्शगुणप्रमाणम् ? ५१२. वह स्पर्शगुण प्रमाण क्या है ? फासगुणप्पमाणे अट्टविहे पण्णत्ते, स्पर्शगुणप्रमाणम् अष्टविधं प्रज्ञप्त, स्पर्शगुण प्रमाण के आठ प्रकार प्रज्ञप्त हैं, तं जहा... कक्खडफासगुणप्पमाणे तद्यथा- कक्खटस्पर्शगुणप्रमाणं मृदुक- जैसे--कर्क शस्पर्श गुण प्रमाण, मृदुस्पर्श गुण मउयफासगुणप्पमाणे गरुयफास- स्पर्शगुणप्रमाणं गुरुकस्पर्शगुणप्रमाणं प्रमाण, गुरुस्पर्श गुण प्रमाण, लघुस्पर्श गुण गुणप्पमाणे लहुयफासगुणप्पमाण लघुकस्पर्शगुणप्रमाणं शोतस्पर्शगुण- प्रमाण, शीतस्पर्श गुण प्रमाण, उष्णस्पर्श सीयफासगुणप्पमाणे उसिणकास- प्रमाणम् उष्णस्पर्शगुणप्रमाणं स्निग्ध- गुण प्रमाण, स्निग्धस्पर्श गुण प्रमाण और गुणप्पमाणे सिणिद्ध फासगुणप्पमाणे ___ स्पर्शगुणप्रमाणं रूक्षस्पर्शगुणप्रमाणम् । रूक्षस्पर्श गुण प्रमाण । वह स्पर्श गुण प्रमाण लुक्खफासगुणप्पमाणे । से तं फास- तदेतत् स्पर्शगुणप्रमाणम् । गुणप्पमाणे ॥ ५१३. से कि तं संठाणगुणप्पमाणे? अथ कि तत् संस्थानगुणप्रमा- ५१३. वह संस्थानगुण प्रमाण क्या है ? संठाणगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते, णम् ? संस्थानगुणप्रमाणं पञ्चविधं संस्थानगुण प्रमाण के पांच प्रकार प्रज्ञप्त तं जहा-परिमंडलसंठाणगुणप्प- प्रज्ञप्तं, तद्यथा परिमण्डलसंस्थान- हैं, जैसे-परिमण्डलसंस्थान गुण प्रमाण, माणे वट्टसंठाणगुणप्पमाणे तंस- गुणप्रमाणं वृत्तसंस्थानगुणप्रमाणं वृत्तसंस्थान गुण प्रमाण, व्यस्र [त्रिकोण] संठाणगुणप्पमाणे चउरंससंठाण- व्यस्रसंस्थानगुणप्रमाणं चतुरस्रसंस्थान- संस्थान गुण प्रमाण, चतुरस्र (चतुष्कोण) गुणप्पमाणे आययसंठाणगुणप्प- गुणप्रमाणम् आयतसंस्थानगुणप्रमाणम् । संस्थान गुण प्रमाण और आयतसंस्थान गुण माणे। से तं संठाणगुणप्पमाणे । तदेतत् संस्थानगुणप्रमाणम् । तदेतद् प्रमाण । वह संस्थानगुण प्रमाण है। वह से तं अजीवगुणप्पमाणे ॥ अजीवगुणप्रमाणम् । अजीवगुण प्रमाण है। ५१४. से किं तं जीवगुणप्पमाणे? अथ किं तद् जीवगुणप्रमाणम् ? ५१४. वह जीवगुण प्रमाण क्या है ? जीवगुणप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जीवगुणप्रमाणं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा जीवगुण प्रमाण के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जहा नाणगुणप्पमाणे दंसणगुण- – ज्ञानगुणप्रमाणं दर्शनगुणप्रमाणं जैसे-ज्ञानगुण प्रमाण, दर्शनगुण प्रमाण और प्पमाणे चरित्तगुणप्पमाणे॥ चरित्रगुणप्रमाणम् । चारित्रगुण प्रमाण। ५१५. से कि तं नाणगुणप्पमाणे? अथ किं तज्ज्ञानगुणप्रमाणम् ? ५१५. वह ज्ञानगुण प्रमाण क्या है ? नाणगुणप्पमाणे चउन्विहे पण्णत्ते, ज्ञानगुणप्रमाणं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा ज्ञानगुण प्रमाण के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, तं जहा-पच्चक्खे अणुमाणे ओव- --प्रत्यक्षम् अनुमानम् औपम्यम् जैसे प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम । म्मे आगमे । आगमः। ५१६. से कि तं पच्चक्खे ? पच्चक्खे अथ किं तत् प्रत्यक्षम् ? प्रत्यक्षं ५१६. वह प्रत्यक्ष क्या है ? विहे पण्णत्ते, तं जहा इंदिय- द्विविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा इन्द्रियप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेपच्चक्खे नोइंदियपच्चक्खे य॥ नोइन्द्रियप्रत्यक्षञ्च । इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष । ज्ञान ५१७.से कि तं इंदियपच्चक्खे? अथ किं तद् इन्द्रियप्रत्यक्षम् ? ५१७. वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष क्या है ? इंदियपच्चक्खे पंचविहे पण्णत्ते, तं इन्द्रियप्रत्यक्षं पञ्चविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा इन्द्रिय प्रत्यक्ष के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जहा-सोइंदियपच्चक्खे चक्खि- -श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष जैसे- श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष, चक्षरिन्द्रिय प्रत्यक्ष, दियपच्चक्खे घाणिदियपच्चक्खे घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्षं जिह्वेन्द्रियप्रत्यक्ष घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष, रसनेन्द्रिय प्रत्यक्ष और जिभिदियपच्चक्खे फासिदिय- स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्षम् । तदेतद् इन्द्रिय- स्पर्शनेन्द्रिय प्रत्यक्ष । वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। पच्चक्खे । से तं इंदियपच्चक्खे ॥ प्रत्यक्षम् । ११.से कि तं नोइंदियपच्चक्खे ? अथ किं तद नोडन्द्रियप्रत्यक्षम अथ किं तद् नोइन्द्रियप्रत्यक्षम् ? ५१८. वह नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष क्या है ? नोइंदियपच्चक्खे तिविहे पण्णत्ते, नोइन्द्रियप्रत्यक्षं त्रिविधं प्रज्ञप्त, नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, तं जहा-ओहिनाणपच्चक्खे मण- तद्यथा अवधिज्ञानप्रत्यक्ष मनःपर्यव- जैसे-अवधिज्ञान प्रत्यक्ष, मनःपर्यवज्ञान पज्जवनाणपच्चक्खे केवलनाण- ज्ञानप्रत्यक्षं केवलज्ञानप्रत्यक्षम् । तदेतद् प्रत्यक्ष और केवलज्ञान प्रत्यक्ष । वह नोइन्द्रिय Jain Education Intemational Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ प्रत्यक्ष है। वह प्रत्यक्ष है। ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ५१२-५२४ पच्चक्खे । से तं नोइंदियपच्चक्खे। नोइन्द्रियप्रत्यक्षम् । तदेतत् प्रत्यक्षम् । से तं पच्चक्खे ॥ ५१६. से कि तं अणमाणे? अणुमाणे अथ किं तद् अनुमानम् ? अनुमानं तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-पुत्ववं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-पूर्ववत् शेषसेसवं दिटुसाहम्मवं॥ वत् दृष्टसाधर्म्यवत् । ५१९. वह अनुमान क्या है ? अनुमान के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेपूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् । ५२०. से कि तं पुत्ववं? पुन्ववं अथ किं तत् पूर्ववत् ? पूर्ववत् - गाहा-- गाथा -- माता पुत्तं जहा नळं, माता पुत्रं यथा नष्टं, जुवाणं पुणरागतं। युवान पुनरागतम् । काई पच्चभिजाणेज्जा, काचित् प्रत्यभिजानीयात्, पुलिंगेण केणई ॥१॥ पूर्वलिङ्गेन केनचित् ॥१॥ तं जहा- खतेण वा वणेण वा तद्यथा-क्षतेन वा व्रणेन वा लंछणण वा मसेण वा तिलएण लाञ्छनेन वा मशेन वा तिलकेन वा । वा । से तं पुव्ववं ॥ तदेतत् पूर्ववत् । ५२१. से कि तं सेसवं ? सेसवं पंचविहं अथ कि तत् शेषवत् । शेषवत् पण्णत्तं, तं जहा-कज्जेणं कार- पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-कार्येण णणं गुणणं अवयवेणं आसएणं ।। कारणेन गुणेन अवयवेन आश्रयेण । ५२०. वह पूर्ववत् क्या है ? पूर्ववत् यह है कोई माता अपने खोए हुए पुत्र को युवावस्था में वापिस लौटा हुआ देखकर किसी पूर्व लिंग से पहचान लेती है मेरा पुत्र है, यह अनुमान कर लेती है, जैसे-क्षत से, व्रण से, चिह्न से, मष से अथवा तिल से । वह पूर्ववत् है। ५२१. वह शेषवत् क्या है ? शेषवत् के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेकार्य से, कारण से, गुण से, अवयव से और आश्रय से। ५२२. से कि तं कज्जेणं? कज्जेणं- अथ कि तत् कार्येण? कार्येण - संखं सद्देणं, भेरि तालिएणं, वसभं शङ्ख शब्देन, भेरी ताडितेन, वृषभ ढिकिएणं, मोरं केकाइएणं, हयं ढिकिएणं', मयूरं केकायितेन, हेयं हेसिएणं, हत्थि गुलगुलाइएणं, रहं हेषितेन, हस्तिनं गुलगुलायितेन, रथं घणघणाइएणं । से तं कज्जेणं ॥ घनघनायितेन । तदेतत् कार्येण । ५२२. वह कार्य से शेषवत् क्या है ? कार्य से शेषवत्-शब्द से शंख का, ताड़ना से भेरी का, रंभाने से वृषभ का, केका से मोर का, हिनहिनाहट से घोड़े का, चिंघाड़ने से हाथी का और झंकार से रथ का अनुमान किया जाता है। वह कार्य से शेषवत् [अनुमान] ५२३. से कितं कारणेणं? कारणेणं अथ कि तत् कारणेन ? कारणेन -तंतवो पडस्स कारणं न पडो --तन्तवः पटस्य कारणं न पट: तन्तुतंतुकारणं, वीरणा कडस्स कारणं कारणं, वीरणं कटस्य कारणं न कट: न कडो वीरणकारणं, मप्पिडो वीरणकारणं, मृत्पिण्डः घटस्य कारणं घडस्स कारणं न घडो मप्पिड- न घटः मृत्पिण्डकारणम् । तदेतत् कारणं । से तं कारणेणं॥ कारणेन । ५२३. वह कारण से शेषवत् क्या है ? कारण से शेषवत्-तन्तु वस्त्र के कारण हैं, वस्त्र तन्तुओं का कारण नहीं होता। वीरण (कुश आदि के तृण) चटाई का कारण है, चटाई वीरण का कारण नहीं होती। मृत्पिण्ड घट का कारण है, घट मृत्पिण्ड का कारण नहीं होता। वह कारण से शेषवत् ५२४. से कि तं गुणणं? गुणेणं- सुवणं निकसेणं, पुप्फ गंधेणं, लवणं रसेणं, मइरं आसाएणं, वत्थं फासेणं । से तं गुणेणं ।। अथ किं तद् गुणेन ? गुणेन--- सुवर्ण निकषेण, पुष्पं गन्धेन, लवणं रसेन, मदिराम आस्वादेन, वस्त्रं स्पर्शेन । तदेतद् गुणेन। ५२४. वह गुण से शेषवत् क्या है ? गुण से शेषवत्-निकष से सुवर्ण , गन्ध से पुष्प, रस से लवण, आस्वाद से मदिरा और स्पर्श से वस्त्र का अनुमान किया जाता है। वह गुण से शेषवत् है। Jain Education Intemational Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ५२५. से किं तं अवयवेणं ? अवयवेणं -महिसं सिगेणं, कुक्कुडं सिहाए, हस्थि विसाणेणं, वराहं दाढाए, मोरं पिछेणं, आसं सरेणं वग्यं नहेणं, चमर वालछेणं, दुपयं मणुस्सयादि चउप्पयं गवमादि, बहुपये गोहियादि वानरं नंगुलेणं, सोहं केसरेणं, वसहं ककुहेणं, महिलं वलयबाहाए । गाहा परिवरबंधेण भर्द जाणेज्जा महिलियं निवसणेणं । सित्येन दोणपा कवि च एगाए गाहाए ॥१॥ - से तं अवयवेणं ॥ ५२६. से किं तं आसएणं ? आसएणं -अग्ग धूमेणं सलिलं बलागाहि वृद्धि अम्मविकारेणं, कुलपुतं सोलसमायारेणं । इङ्गिताकारः क्रियाभिर्भाषितेन च । नेत्र-वक्त्रविकारश्च, गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥ १॥ सेतं आसए से तं सेसवं ॥ ५२७. से किं तं दिट्ठसाहम्मवं ? दिट्ठसाहम्मवं दुविहं पण्णत्तं तं जहा सामझवि च विसेसदि - च ॥ ५२८. से कि ते सामन्नदिट्ठ ? सामन्नविट्ठे जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा, जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो । जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावना, जहा बहवे करिसायणा से तं तहा एगो करिसावणो । सामन्नदिट्ठ || ५२६. से कि तं विसेसदि ? विसेसदिट्ठे से जहानामए के पुरिसे बहूणं पुरिसाणं मज्भे पुण्वदिट्ठ अथ किं तद् अवयवेन ? अवयवेन महिषं व गेण कुक्कुटं शिखया, हस्तिनं विषाणेन, वराहं दंष्ट्रया, मयूरं पिच्छे अश्यं परेण ध्यानं नचेन, चमरी बालगुच्छेन मनुष्यादि चतुष्पदं गवादि, बहुपय 'योम्हियादि वानरं लाड पुलेन, सिंहं केसरेण, वृषभं ककुदेन, महिलां वलयबाहुना । गाथा परिकर भ जानीयात् महिला दिवस | सिक्थेन पार्क, कवि च एकया गाथया ॥१॥ - तदेतद् अवयवेन । अथ किं तद् आश्रयेण ? आश्रयेण मग्निं धूमेन सलिल बलाकाभि:, वृष्टिम् अविकारेण कुलपुत्रं शीखसमाचारेण । " इङ्गिताकारितैज्ञेय:, क्रियाभिर्भाषितेन च । नेत्र-वत्रविकारश्च तं मनः ॥ १ तदेतद्येण तदेतत् शेषवत् । अथ कि तद् दृष्टा? दृष्टसाधम्यंवत् द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा सामान्यदृष्टविशेष । ? अथ किं तत् सामान्यदृष्टम् सामान्यदृष्टम् - यथा एकः पुरुषः तथा बहवः पुरुषाः, यथा बहवः पुरुषाः तथा एकः पुरुषः । यथा एक: कार्षापणाः तथा बहवः कार्षापणाः, यथा बहवः कार्षापणाः तथा एक: कार्षापणः । तदेतत् सामान्यदृष्टम । अथ कि तद् विशेषदृष्टम् ? विशेषदृष्टम् तद् यथानाम कश्चित्पुरुष: बहूनां पुरुषाणां मध्ये - अणुओगदराई ५२५. वह अवयव से शेषवत् क्या है ? अवयव से शेषवत् सींग से भैंसा, शिखा से कुकुट, विषाण से हाथी से राह पिच्छ से मोर, खुर से घोड़ा, नख से व्याघ्र, बाल-गुच्छ से चमरी गाय, द्विपद से मनुष्य आदि, चतुष्पद से गाय आदि, बहुपद से कनखजूरा आदि, पूंछ से बन्दर, अयाल से सिंह मूह से बैन और बल वाली भुजा से महिला का अनुमान किया जाता है । गाथा- कवच आदि हथियारों के बन्धन से योद्धा, घघरी से विवाहित स्त्री, एक चावल सिक्थ से द्रोण-पाक और एक गाथा से कवि जाना जाता है । वह अवयव से शेषवत् है । ५२६. वह आश्रय से शेषवत् क्या है ? आश्रय से शेषवत् - धूम से अग्नि, बलाका से पानी, अभ्रविकार से वर्षा और शील समाचरण से कुल पुत्र का अनुमान किया जाता है । इंगित और आकार - रूप, ज्ञेय, क्रिया वचन, नेत्र और मुख के विकार से अन्तर्गत मन का ग्रहण किया जाता है । वह आश्रय से शेषवत् है । वह शेषवत् है । ५२७. वह दृष्टसाधर्म्यवत् क्या है ? दृष्टसाधर्म्यवत् के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- सामान्यदृष्ट और विशेषदृष्ट ५२७. वह सामान्यदृष्ट क्या है ? सामान्यदृष्ट— जैसे एक पुरुष है वैसे अनेक पुरुष हैं, जैसे अनेक पुरुष हैं जैसे एक पुरुष हैं। जैसे एक कार्यापण है वैसे अनेक कारण है, जैसे अनेक कार्यापण पैसे एक कार्षापण है । वह सामान्यदृष्ट है । ५२९. वह विशेषदृष्ट क्या है ? विशेषदृष्ट— जैसे कोई पुरुष अनेक पुरुषों के बीच उपस्थित पूर्वदृष्ट पुरुष को पहचान Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ५२५-५३४ परिसं पच्चभिजाणेज्जा-अयं से पुर्वदृष्टं पुरुषं प्रत्यभिजानीयात्पुरिसे, बहणं वा करिसावणाणं मज्झे अयं स पुरुषः, बहूनां वा कार्षापणानां पुव्वदिष्ठं करिसावणं पच्चभिजा- मध्ये पूर्वदृष्टं कार्षापणं प्रत्यभिजानी ज्जा-अयं से करिसावणे । से तं यात्-अयं स कार्षापणः। तदेतद् विसेसदिळं। से तं दिवसाह- विशेषदृष्टम् । तदेतद् दृष्टसाधर्म्य वत् । लेता है-'यह वह पुरुष है' । अनेक कार्षापणों के बीच में रखे हुए किसी पूर्वदृष्ट कार्षापण को पहचान लेता है-'यह वह कार्षापण है'। वह विशेषदृष्ट है । वह दृष्टसाधर्म्यवत् है। ५३०. तस्स समासओ तिविहं गहणं तस्य समासत: त्रिविधं ग्रहणं भवइ, तं जहा-तोयकालगहणं भवति, तद्यथा-अतीतकालग्रहणं पडुप्पण्णकालगहणं अणागयकाल- प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम् अनागतकालगहणं॥ ग्रहणम् । ५३०. (काल की दृष्टि से) अनुमान का ग्रहण तीन प्रकार से होता है, जैसे-अतीत काल ग्रहण, वर्तमान काल ग्रहण और अनागत काल ग्रहण । ५३१. से कि तंतीयकालगहणं? तोय- अथ किं तद् अतीतकालग्रहणम् ? कालगहणं-उत्तिणाणि वणाणि अतीतकालग्रहणम् -उत्तणानि वनानि निप्फण्णसस्सं वा मेइणि, पुण्णाणि निष्पन्नशस्यां वा मेदिनी, पूर्णानि च य कुंड-सर-नदि-दह-तलागाणि कुण्ड-सरः-नदी-द्रह-तडागानि दृष्ट्वा पासित्ता तेणं साहिज्जइ, जहा- तेन साध्यते, यथा --सुवृष्टिः आसीत्। सुवट्ठी आसी। से तं तोयकाल- तदेतद् अतीतकालग्रहणम् । गहणं ॥ ५३१. वह अतीत काल ग्रहण क्या है ? ___ अतीत काल ग्रहण-उगे हुए घास वाले वन को, पके हुए धान्य वाली पृथ्वी को, तथा कुण्ड, सरोवर, नदी, द्रह और जल से भरे हुए तालाब को देखकर जैसे कोई कहता हैअच्छी वर्षा हुई थी। वह अतीत काल ग्रहण ५३२. से कि तं पड़प्पण्णकालगहणं? अथ किं तत् प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम्। ५३२. वह वर्तमान काल ग्रहण क्या है ? पडुप्पण्णकालगहणं साहुं गोयर प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम् -साधं गोचराग्र- वर्तमान काल ग्रहण-गोचरी के लिए गए ग्गगयं विच्छड्डियपउरभत्तपाणं गतं विच्छदितप्रचुरभक्तपानं दृष्ट्वा हुए साधु के पास गृहस्थों द्वारा प्रदत्त प्रचुर पासित्ता तेणं साहिज्जइ, जहा- तेन साध्यते, यथा-सुभिक्षं वर्तते। भक्तपान को देखकर जैसे कोई कहता हैसुभिक्खे वट्टइ। से तं पडुप्पण्ण- तदेतत् प्रत्युत्पन्न कालग्रहणम् । सुकाल है। वह वर्तमान काल ग्रहण है। कालगहणं॥ ५३३. से कि तं अणागयकालगहणं? अथ किं तद् अनागतकालग्रहणम् ? अणागयकालगणं-- अनागतकालग्रहणम् - गाहा--- गाथाअब्भस्स निम्मलत्तं, अभ्रस्य निर्मलत्वं, कसिणा य गिरी सविज्जया मेहा। कृष्णाश्च गिरयः सविद्युताः मेघाः । थणियं वाउब्भामो, स्तनितं वातोभ्रामेण, संझा निद्धा य रत्ता य ॥१॥ सन्ध्या स्निग्धा च रक्ता च ।।१।। वारुणं वा माहिदं वा अण्णयरं वा वारुणं वा माहेन्द्रं वा अन्यतरद् वा पसत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहि- प्रशस्तम् उत्पातं दृष्ट्वा तेन साध्यते, ज्जइ, जहा-सुवट्ठो भविस्सइ। से यथा -सुवृष्टिः भविष्यति। तदेतद् तं अणागयकालगहणं ॥ अनागतकालग्रहणम् । ५३३. वह अनागत काल ग्रहण क्या है ? अनागत काल ग्रहण यह हैगाथा-- आकाश की निर्मलता पर्वतों की कालिमा, सविद्युत् मेघ, गर्जन, वायु की प्रदक्षिणा, स्निग्ध और रक्त संध्या । वरुण-उत्पात, माहेन्द्र-उत्पात या किसी अन्य प्रशस्त उत्पात [उल्कापात, दिग्दाह आदि] को देखकर जैसे कोई कहता है-सुवृष्टि होगी। वह अनागत काल ग्रहण है। ५३४. एएसि चेव विवज्जासे तिविह एतेषां चैव व्यत्यासे त्रिविधं गहणं भवइ, तं जहा-तीयकाल- ग्रहणं भवति, तद्यथा – अतीतकालगहणं पडुप्पण्णकालगहणं अणागय- ग्रहणं प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम् अनागतकालगहणं॥ कालग्रहणम् । ५३४. इन उक्त उदाहरणों के विपर्यास में अनुमान का ग्रहण तीन प्रकार से होता है, जैसेअतीत काल ग्रहण, वर्तमान काल ग्रहण और अनागत काल ग्रहण । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अणुओगदाराइ ५३५. से कि तं तीयकालगहणं? तीय- अथ किं तद् अतीतकालग्रहणम् ? ५३५. वह अतीत काल ग्रहण क्या है? कालगहणं नित्तिणाई वणाई अतीतकालग्रहणम् -निस्तृणानि वनानि ___ अतीत काल ग्रहण .. घास रहित वन, अनिष्फण्णसस्सं वा मेइणि, अनिष्पन्नशस्यां वा मेदिनी, शुष्काणि अनिष्पन्न धान्य वाली पृथ्वी, सूखे हुए कुण्ड, सुक्काणि य कुंड-सर-नदि-दह-तला- च कुण्ड-सरः-नदी-द्रह-तडागानि सरोवर, नदी, द्रह और तालाब को देखकर गाई पासित्ता तेणं साहिज्जइ, दृष्ट्वा तेन साध्यते, यथा --- जैसे कोई कहता है वर्षा अच्छी नहीं हुई जहा कवटी आसी। से तं तीय- कुवृष्टिः आसीत् । तदेतद् अतीतकाल- थी। वह अतीत काल ग्रहण है। कालहणं ॥ ग्रहणम् । ५३६. से कि तं पड़प्पण्णकालगहण? अथ किं तत् प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम्? ५३६. वह वर्तमान काल ग्रहण क्या है ? पडप्पण्णकालगहणं-साहुं गोयर- प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम्-साधु गोचराग्र- वर्तमान काल ग्रहण --गोचरी के लिए गए ग्गगयं भिक्खं अलभमाणं पासित्ता गतं भिक्षा अलभमानं दृष्ट्वा तेन हुए साधु को भिक्षा की प्राप्ति न होते हुए तेणं साहिज्जइ, जहा-दुभिक्खे साध्यते, यथा- दुर्भिक्षं वर्तते । तदेतत् देखकर जैसे कोई कहता है दुष्काल है। वट्टइ । से तं पडुप्पण्णकालगहणं ॥ प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम् । वह वर्तमान काल ग्रहण है। ५३७. से कि तं अणागयकालगहण ? अथ किं तत् अनागतकालग्रहणम् ? अणागयकालगहणं-अग्गेयं वा अनागतकालग्रहणम् -आग्नेयं वा वायव्वं वा अण्णयरं वा अप्पसत्थं वायव्यं वा अन्यतरद् वा अप्रशस्तम् उप्पायं पासित्ता तेणं साहिज्जइ, उत्पातं दृष्ट्वा तेन साध्यते, यथाजहा-कुवटी भविस्सइ। से तं कृवृष्टि: भविष्यति । तदेतद् अनागतअणागयकालगहणं । से तं अणु- कालग्रहणम् । तदेतद् अनुमानम् । ५३७. वह अनागत काल ग्रहण क्या है ? अनागत काल ग्रहण-आग्नेय, वायव्य या अन्य किसी अप्रशस्त उत्पात को देखकर जैसे कोई कहता है वर्षा अच्छी नहीं होगी। वह अनागत काल ग्रहण है । वह अनुमान है। ५३८. से कि तं ओवम्मे? ओवम्म अथ किं तद् औपम्यम् ? औपम्यं ५३८. वह उपमान क्या है ? विहे पण्णत्ते, तं जहा-साहम्मो- द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-साधम्र्यो उपमान के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -- वणीए य वेहम्मोवणीए य॥ पनीतञ्च वैधोपनीतञ्च । साधोपनीत और वधोपनीत । ५३६. से कि तं साहम्मोवणीए? अथ कि तत् साधोपनीतम? ५३९. वह साधोपनीत क्या है ? साहम्मोवणीए तिविहे पण्णत्त, तं साधोपनीतं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा साधोपनीत के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जहा-किचिसाहम्मे पायसाहम्मे -किञ्चित्साधयं प्रायःसाधर्म्य जैसे-किञ्चित् साधर्म्य, प्रायः साधर्म्य और सव्वसाहम्मे ॥ सर्वसाधर्म्यम् । सर्व साधर्म्य । ५४०. से कि तं किचिसाहम्मे ? किचि- अथ किं तत किञ्चित्साधर्म्यम? ५४०. वह किञ्चित् साधर्म्य क्या है ? साहम्मे जहा मंदरो तहा सरि- किञ्चित्साधर्म्यम् - यथा मन्दरस्तथा किञ्चित् साधर्म्य जैसा मेरू है वैसा सवो, जहा सरिसवो तहा मंदरो। सर्षपः, यथा सर्षपस्तथा मन्दरः । सर्षप है, जैसा सर्षप है वैसा मेरू है। जैसा जहा समुद्दो तहा गोप्पयं, जहा यथा समुद्रस्तथा गोष्पदं, यथा गोष्पदं समुद्र है वैसा गोष्पद है, जैसा गोष्पद है वैसा गोप्पयं तहा समुद्दो। जहा आइ- तथा समुद्रः। यथा आदित्यस्तथा समुद्र है। जैसा सूर्य है वैसा जुगनू है, जैसा च्चो तहा खज्जोतो, जहा खज्जोतो खद्योतः, यथा खद्योतस्तथा आदित्यः । जुगनू है वैसा सूर्य है। जैसा चन्द्रमा है वैसा तहा आइच्चो। जहा चंदो तहा यथा चन्द्रस्तथा कुन्दः, यथा कुन्द- कुन्द है, जैसा कुन्द है वैसा चन्द्रमा है। वह कंदो, जहा कंदो तहा चंदो। से तं स्तथा चन्द्रः। तदेतत् किञ्चित किञ्चित् साधर्म्य है। किचिसाहम्मे ॥ साधर्म्यम् । ५४१. से कि तं पायसाहम्मे ? पाय- अथ किं तत् प्रायःसाधर्म्यम् ? ५४१. वह प्रायः साधर्म्य क्या है ? साहम्मे-जहा गो तहा गवओ, प्रायःसाधर्म्यम्-यथा गौस्तथा गवयः, प्रायः साधर्म्य -- जैसी गाय है वैसा गवय जहा गवओ तहा गो। से तं पाय- यथा गवयस्तथा गौः। तदेतद् प्राय:- है, जैसा गवय है वैसी गाय है। वह प्रायः साहम्मे ॥ साधर्म्यम्। साधर्म्य है। Jain Education Intemational Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ४३५-५४८ २६७ ५४२. से कि तं सव्वसाहम्मे ? सव्व- अथ कि तत् सर्वसाधर्म्यम् ? सर्व- ५४२. वह सर्व साधर्म्य क्या है ? साहम्मे ओवम्म नत्थि, तहा वि साधर्म्य औपम्यं नास्ति, तथापि तस्य सर्व साधर्म्य--सर्व साधर्म्य में उपमा नहीं तस्स तेणेव ओवम्म कीरइ, जहा- तेनैव औपम्यं क्रियते, यथा-अर्हद्भिः होती फिर भी उस उपमेय को उसी उपमान अरहंतेहि अरहंतसरिसं कयं, चक्क- अर्हत्सदृशं कृतम्, चक्रवतिना चक्र- के द्वारा उपमित किया जाता है, जैसे-अर्हत् वट्रिणा चक्कवट्टिसरिसं कयं, बल- तिसदृशं कृतम्, बलदेवेन बलदेव- ने अर्हत् जैसा कार्य किया। चक्रवर्ती ने देवेण बलदेवसरिसं कयं, वासुदेवेण सदृशं कृतम्, वासुदेवेन वासुदेवसदृशं चक्रवर्ती जैसा कार्य किया। बलदेव ने बलदेव वासुदेवसरिसं कयं, साहुणा साहु- कृतम, साधुना साधुसदृशं कृतम् । जैसा कार्य किया। वासुदेव ने वासुदेव जैसा सरिसं कयं। से तं सव्वसाहम्मे। तदेतत् सर्वसाधर्म्यम् । तदेतत् साधो- कार्य किया। मुनि ने मुनि जैसा कार्य किया। से तं साहम्मोवणीए॥ पनीतम् । वह सर्व साधर्म्य है। वह साधोपनीत है। ५४३. से कि त वेहम्मोवणीए? बेह- अथ किं तद् वैधोपनीतम् ? ५४३. वह वैधोपनीत क्या है ? म्मोवणीए तिबिहे पण्णत्ते, तं जहा वैधोपनीतं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा वैधोपनीत के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, -किचिवेहम्मे पायवेहम्मे सव्व- किञ्चिद्वधर्म्य प्राय:वैधयं सर्व- जैसे-किञ्चित् वैधर्म्य, प्रायः वैधर्म्य और वेहम्मे ॥ वैधय॑म् । सर्व वैधर्म्य । ५४४. से कि तं किचिवेहम्मे ? किंचि- अथ किं तत् किञ्चिदवैधय॑म् ? ५४४. वह किञ्चित् वैधर्म्य क्या है ? वेहम्मे जहा सामलेरो न तहा किञ्चिद्वधर्म्यम् यथा शाबलेयः न किञ्चित् वैधयं जैसा शाबलेय [चितबाहुलेरो, जहा बाहुलेरो न तहा तथा बाहुलेयः, यथा बाहुलेयः न कबरा] है वैसा बाहुलेय [काला] नहीं है, सामलेरो। से तं किचिवेहम्मे ॥ तथा शाबलेयः। तदेतत किञ्चिद्- जैसा बाहुलेय है वैसा शाबलेय नहीं है। वह वैधर्म्यम् । किञ्चित् वैधर्म्य है। ५४५. से कि तं पायवेहम्मे ? पाय- अथ कि तत् प्राय:वैधर्म्यम् ? ५४५. वह प्रायः वैधयं क्या है ? वेहम्मे---जहा वायसो न तहा प्राय:वैधय॑म् -यथा वायसः न तथा प्रायः वैधर्म्य जैसा वायस [कौवा] है पायसो, जहा पायसो न तहा पायसः, यथा पायसः न तया वायसः। वैसा पायस [खीर] नहीं है, जैसा पायस है वायसो। से तं पायवेहम्मे ॥ तदेतत् प्राय:वैधय॑म् । वैसा वायस नहीं है। वह प्रायः वैधर्म्य है। ५४६. से कि तं सव्ववेहम्मे ? सव्व- अथ कि तत् सर्ववैधर्म्यम् ? सर्व- ५४६. वह सर्व वैधयं क्या है? वेहम्मे ओवम्म नत्थि, तहा वि वैधयें औपम्यं नास्ति, तथापि सर्व वैधर्म्य सर्व वैधर्म्य में उपमा नहीं तस्स तेणेव ओवम्मं कोरइ, जहा- तस्य तेनैव औपम्यं क्रियते, यथा-- होती फिर भी उस उपमेय को उसी उपमान नीचेण नीचसरिसं कयं, काकेण नीचेन नीचसदृशं कृतम्, काकेन काक- के द्वारा उपमित किया जाता है, जैसे - नीच कागसरिसं कयं, साणेण साण- सदृशं कृतम्, शुना श्वसदृशं कृतम् । ने नीच जैसा कार्य किया, कौवे ने कौवे जैसा सरिसं कयं । से तं सव्ववेहम्मे । से तदेतत् सर्ववैधर्म्यम् । तदेतद् वैधयो- कार्य किया । कुत्ते ने कुत्ते जैसा कार्य किया । तं वेहम्मोवणीए । सेतं ओवम्मे ॥ पनीतम् । तदेतद् औपम्यम् । वह सर्व वैधर्म्य है। वह वैधोपनीत है। वह उपमान है। ५४७. से कि तं आगमे ? आगमे दुविहे अथ किं स आगम: ? आगमः ५४७. वह आगम क्या है ? पण्णते, तं जहा-लोइए लोगृत्त- द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-लोकिकः आगम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे --- रिए य॥ लोकोत्तरिकश्च । लौकिक और लोकोत्तरिक । ५४८. से कि तं लोइए आगमे ? लोइए अथ किस लौकिकः आगमः ? ५४८. वह लौकिक आगम क्या है ? आगमे--जण्णं इमं अण्णाणिएहि लौकिक: आगमः यः अयम् अज्ञा- __ लौकिक आगम-अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि मिच्छदिट्टीहि सच्छंदबुद्धि-मइ- निकैः मिथ्यादृष्टिभिः स्वच्छन्दबुद्धि- और स्वच्छन्द बुद्धि तथा मति द्वारा विरचित विगप्पियं, तं जहा-१. भारहं २. मति-विकल्पितः, तद्यथा-१. भारत आगम लौकिक हैं, जैसे-- १. भारत, २. रामायणं ३,४. हंभीमासुरुत्तं ५. २. रामायणं ३,४. भंभी आसुरोक्तं रामायण, ३. भंभी, ४. आसुरोक्त, ५. कौटकोडिल्लयं ६.घोडमुहं ७. सग- ५. कौटिल्यकं ६. घोटमुखं ७. शक- लीय अर्थशास्त्र, ६. घोटमुख, ७. शकभद्रिका, T R . .. Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अणुओगदाराई भहियाओ८. कप्पासियं ६. नाग- भद्रिका ८. कासिकं ९. नागसूक्ष्म सुहमं १०. कणगसत्तरी ११. वेसियं १०. कनकसप्ततिः ११. वैशिकं १२. १२. वइसेसियं १३. बुद्धवयणं १४. वैशेषिकं १३. बुद्धवचनं १४. कापिलं काविलं १५. लोगाययं १६. सट्रि- १५. लोकायतं १६. षष्टितन्त्रं १७. तंतं १७. माढरं १८. पुराणं १६. माठरं १८. पुराणं १९. व्याकरणं वागरणं २०. नाडगादि । अहवा- २०. नाटकादि । अथवा-द्विसप्ततिः बावत्तरिकलाओ चत्तारि वेया कला: चत्वारः वेदाः साङ्गोपाङ्गाः । संगोवंगा । से तं लोइए आगमे ॥ स एष लौकिक: आगमः। ८. कासिक, ९. नागसूक्ष्म, १०. कनकसप्तति [सांख्यकारिका], ११. वैशिक, १२. वैशेषिक, १३. बुद्धवचन, १४. कापिल, १५. लोकायत, १६. पष्टितन्त्र, १७. माठर, १८. पुराण, १९. व्याकरण और ३०. नाटक आदि । अथवा बहत्तर कलाएं और अंग-उपांग सहित चार वेद । वह लौकिक आगम है। ५४६. से कितं लोगृत्तरिए आगमे? अथ किस लोकोत्तरिकः ५४९. वह लोकोतरिक आगम क्या है? लोगुत्तरिए आगमे जणं इमं आगमः ? लोकोत्तरिकः आगमः यः लोकोतरिक आगम -समृत्पन्न ज्ञान, दर्शन अरहतेहि भगवंतेहि उप्पण्णनाण- अयम् अर्हद्भिः भगवद्भिः उत्पन्नज्ञान- के धारक, अतीत वर्तमान और भविष्य के दसणधरेहि तीय-पडप्पण्णमणागय- दशनधरः अतीत-प्रत्युत्पन्नमनागतजः ज्ञाता, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीन लोक के द्वारा जाणएहि सव्वणहि सव्वदरिसोहि सर्वज्ञः सर्वदशिभिः त्रैलोक्य'चहिय' अभिलषित, प्रशंसित और पूजित तीर्थंकर तेलोक्कचहिय-महिय-पूइएहि पणीयं : महितपूजितः प्रणीतं द्वादशाङ्गं गणि- भगवान् द्वारा प्रणीत द्वादशांग गणिपिटक दुवालसंगं गणिपिडगं, तं जहा -- पिटकं, तद्यथा--१. आचारः २. लोकोत्तरिक आगम है। जैसे-१. आचार, सूत्रकृतं ३. स्थानं ४. समवायः ५. १. आयारो २. सूयगडो ३. ठाणं २. सूत्रकृत, ३. स्थान, ४. समवाय, ५. व्याख्याप्रज्ञप्तिः ६. ज्ञातधर्मकथा ७. ४. समवाओ ५. वियाहपण्णत्ती ६. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञाताधर्मकथा, ७. उपाउपासकदशाः ८. अन्तकृतदशा: ९. नायाधम्मकहाओ ७. उवासग सकदशा, ८ अन्तकृतदशा, ९. अनुत्तरोपअनुत्तरोपपातिकदशाः १०. प्रश्नदसाओ ८. अंतगडदसाओ ६.. पातिकदशा, १०.प्रश्नव्याकरण, ११. विपाकअणुत्तरोववाइयदसाओ १०. पण्हाव्याकरणानि ११. विपाकश्रुतं १२. श्रुत और १२. दृष्टिवाद। वह लोकोत्तरिक दृष्टिवादः। स एष लोकोत्तरिकः वागरणाई ११. विवागसुयं १२. आगम है। आगमः। दिट्ठिवाओ। से तं लोगुत्तरिए आगमे॥ ५५०. अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते, तं अथवा आगम: त्रिविधः प्रज्ञप्तः, ५५०. अथवा आगम के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जहा सुत्तागमे अत्थागमे तदु- तद्यथा सूत्रागमः अर्थागमः तदुभया- जैसे सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम । भयागमे । पमः। ५५१. अहवा आगमे तिविहे पण्णते, अथवा आगमः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, ५५१. अथवा आगम के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, तं जहा–अत्तागमे अणंतरागमे तद्यथा-आत्मागमः अनन्तरागमः जैसे-आत्मागम, अनन्तरागम और परंपरागमे । तित्थगराणं अस्थस्स परम्परागमः। तीर्थकराणाम् अर्थस्य परम्परागम । तीर्थंकरों के अर्थ आत्मागम है, अत्तागमे । गणहराणं सुत्तस्स आत्मागमः। गणधराणां सूत्रस्य गणधरों के सूत्र आत्मागम है और अर्थ अत्तागमे, अत्थस्स अणंतरागमे । आत्मागमः, अर्थस्य अनन्तरागमः । अनन्तरागम है। गणधर शिष्यों के सूत्र गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे, गणधरशिष्याणां सूत्रस्य अनन्तरागमः अनन्तरागम है और अर्थ परम्परागम है। अत्थस्स परंपरागमे। तेण परं अर्थस्य परम्परागमः । ततः परं सूत्रस्य उसके बाद सूत्र और अर्थ दोनों ही आत्मागम सुत्तस्स वि अत्थस्स वि नो अत्ता- अपि अर्थस्य अपि नो आत्मागमः, नो नहीं है, अनन्तरागम नहीं है, परम्परागम है । गमे, नो अणंतरागमे, परंपरागमे। अनन्तरागमः, परम्परागमः । स एष वह लोकोत्तरिक आगम है । वह आगम है। से तं लोगुत्तरिए आगमे । से तं लोकोत्तरिकः आगमः। स एष वह ज्ञानगुण प्रमाण है। आगमे । से तं नाणगुणप्पमाणे॥ आगमः । तदेतद् ज्ञानगुणप्रमाणम् । ५५२. से कि तं दंसणगुणप्पमाणे? अथ किं तद् दर्शनगुणप्रमाणम् ? दसणगुणप्पमाणे चउविहे पण्णत्ते, दर्शनगुणप्रमाणं चतुर्विधं प्रज्ञप्त, ५५२. वह दर्शनगुण प्रमाण क्या है ? दर्शनगुण प्रमाण के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, Jain Education Intemational Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ५४६-५५४ तं जहा-चक्खुदंसणगुणप्पमाणे तद्यथा-चक्षुर्दशनगुणप्रमाणम् अचक्षुअचक्खुदंसणगणप्पमाणे ओहि- दर्शनगुणप्रमाणम् अवधिदर्शनगुणदसणगुणप्पमाणे केवलदसणगुणप्प- प्रमाणं केवलदर्शनगुणप्रमाणम् । माणे । चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स चक्षुर्दर्शनं चक्षुर्वर्शनिनः घट-पट-कटघड-पड-कड-रहादिएसु दम्वेसु । रथादिकेषु द्रव्येषु । अचक्षुर्दर्शनम् अचक्खुबंसणं अचक्खुदंसणिस्स अचक्षदर्शनिनः आत्मभावे । अवधिदर्शआयभावे। ओहिदसणं ओहिस- नम् अवधिदर्शनिनः सर्वरूपिद्रव्येषु न णिस्स सव्वरूविदव्वेहिं न पुण पुनः सर्वपर्यवेषु । केवलदर्शनं केवलसव्वपज्जवेहि । केवलदंसणं केवल- दर्शनिनः सर्वद्रव्येषु सर्वपर्यवेषु च । दंसणिस्स सव्वदध्वेहि सव्वपज्ज- तदेतद् दर्शनगुणप्रमाणम् । वेहि य । से तं दंसणगुणप्पमाणे ॥ जैसे-चक्षुदर्शनगुण प्रमाण, अचक्षुदर्शनगुण प्रमाण अवधिदर्शनगुण प्रमाण और केवलदर्शन गुण प्रमाण। चक्षुदर्शनी के घट, पट, कट [चटाई], रथ आदि द्रव्यों में चक्षुदर्शन होता है। ___ अचक्षुदर्शनी के आत्म-भाव में-ज्ञाता के साथ ज्ञेय का संश्लेष होने पर अचक्षुदर्शन होता है। ___ अवधिदर्शनी के सब रूपी द्रव्यों में अवधिदर्शन होता है पर सब पर्यायों में नहीं होता। केवलदर्शनी के सब द्रव्य और सब पर्यायों में केवलदर्शन होता है। वह दर्शन गुण प्रमाण है। अश ५५३. वह चारित्रगुण प्रमाण क्या हैं ? चारित्रगुण प्रमाण के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे सामायिक चारित्र गुण प्रमाण, छेदोपस्थापनीय चारित्र गुण प्रमाण, परिहारविशुद्धिक चारित्र गुण प्रमाण, सूक्ष्मसंपराय चारित्र गुण प्रमाण और यथाख्यात चारित्र गुण प्रमाण । सामायिक चारित्र गुण प्रमाण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -इत्वरिक और यावत्कथिक । ५५३. से किं तं चरित्तगणप्पमाणे? अथ किं तत् चरित्रगुणप्रमाणम् ? चरित्तगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते, चरित्रगुणप्रमाण पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तं जहा सामाइयचरित्तगुणप्प तद्यथा- सामायिकचरित्रगुणप्रमाणं माणे छेदोवढावणियचरित्तगुणप्प छेदोपस्थापनीयचरित्रगुणप्रमाणं परिमाणे परिहारविसुद्धियचरित्तगुण- हारविशुद्धिकचरित्रगुणप्रमाणं सूक्ष्मप्पमाणे सुहमसंपरायचरित्तगुणप्प सम्परायचरित्रगुणप्रमाणं यथाख्यातमाणे अहक्खायचरित्तगणप्पमाण। चरित्रगुणप्रमाणम् । सामाइयचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे सामायिकचरित्रगणप्रमाणं द्विविधं पण्णत्ते, तं जहा-इत्तरिए य प्रज्ञप्तं, तद्यथा-इत्वरिकञ्च यावत्कआवकहिए य। थिकञ्च । छेदोवढावणियचरित्तगुणप्पमाणे छैदोपस्थापनीयचरित्रगुणप्रमाणं दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-साइयारे द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा सातिय निरइयारे य। चारञ्च निरतिचारञ्च । परिहारविसुद्धियचरित्तगणप्पमाणे परिहारविशुद्धिकचरित्रगुणप्रमाणं दुविहे पण्णते, तं जहा-निव्विस- द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-निविश्यमाणए य निन्विट्ठकाइए य । मानकञ्च निविष्टकायिकञ्च । सुहमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे सूक्ष्मसम्परायचरित्रगुणप्रमाणं विहे पण्णत्ते, तं जहा-संकि- द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-सक्लिश्यलिस्समाणए य विसुज्झमाणए य। मानकञ्च विशुद्धयमानकञ्च । अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे यथाख्यातचरित्रगुणप्रमाणं द्विविध पण्णत्ते तं जहा पडिवाई य प्रज्ञप्तं, तद्यथा प्रतिपाति च अप्रतिअपडिवाई य। पाति च। अहवा-छउमथिए य केवलिए अथवा छानस्थिकञ्च केवलिय। से तं चरित्तगणप्पमाणे । से तं कञ्च । तदेतद् चरित्रगुणप्रमाणम् । जीवगुणप्पमाणे । से तं गुणप्प- तदेतद् जीवगुणप्रमाणम् । तदेतद् माणे॥ गुणप्रमाणम् । ५५४. से कि तं नयप्पमाण? नयप्प- अथ कि तद् नयप्रमाणम् ? माणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- नयप्रमाणं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा छेदोपस्थापनीय चारित्र गुण प्रमाण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- सातिचार और निरतिचार। परिहारविशुद्धिक चारित्र गुण प्रमाण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -निविश्यमानक और निविष्ट कायिक । सूक्ष्मसम्पराय चारित्र गुण प्रमाण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-संक्लिश्यमानक और विशुद्घमानक । यथाख्यात चारित्र गुण प्रमाण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे--प्रतिपाती और अप्रतिपाती। अथवा छाद्मस्थिक और कैवलिक । वह चारित्रगुण प्रमाण है।' वह जीवगुण प्रमाण है । वह गुण प्रमाण है। ५५४. वह नय प्रमाण क्या है ? नय प्रमाण के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे Jain Education Intemational Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० पत्थगदिट्ठतेणं एसवितेणं ॥ वसहिदिट्ठतेणं ५५५. से कि तं परवगविठ्ठलेणं ? पत्वगदितेणं से जहानामए केइ पुरिसे परसुं गहाय अडविहुतो गच्छेजा, तं च के पासिता एजा कह भयं गच्छसि ? वएज्जा अविसुद्धो नेगमो भणति - पत्थगस्स गच्छामि । तं च केचिदमाणं पासिता एग्जा कि भयं दिसि? विसुद्धो नेगमो भणति पत्वगं छिदामि । तं च केंद्र तच्छेमाणं पासिता बएग्जा कि भवं तच्छेसि ? विशुद्धताओ नेगमो भवतिपत्थगं तच्छेमि । तं च के उक्किरमाणं पासिता वएज्जा - किं भवं उक्किरसि ? विसुद्धतराओ नेगमो भणति पत्थ उक्किरामि । ―➖ तं च केइ लिहमाणं पासित्ता वएज्जा - किं भवं लिहसि ? विसुद्वतराओ नेगमो भणति पत्थगं लिहामि । एवं विसुद्ध तरागस्स नेगमस्स नामाउडिओ पत्थओ । एवमेव ववहारस्स वि। संगहस्स चिओ मिजो मेज्जसमारूढो पस्थओ | उज्जुसुयस्स पत्थओ वि पत्थओ, मेज्जं पि परथओ तिन्हं सहनपाणं पत्थगाहिगार जाणओ पत्थओ, जस्स वा वसेणं पत्थओ निप्फजड़ से तं परथगवितेणं ॥ प्रस्थकदृष्टान्तेन प्रदेशदृष्टान्तेन । वसतिदृष्टान्तेन वथानाम अथ कि तत् प्रस्वते? प्रस्वयते तद् कश्चित्पुरुषः परशुं गृहीत्वा अटवीमुखो गच्छेत् तं च कश्चित् दृष्ट्वा क्व भवान् वदेत् गति? अविशुद्धः नैगमः भणति प्रस्थकस्य गच्छामि। तं च कश्चित् छिन्दन्तं वा वदेत् किं भवान् छिनत्ति ? विशुद्धः संगमः भगति प्रस्थकं । तं च कश्चित् तक्षन्तं दृष्ट्वा वदेत् किं भवान् तक्षति ? विशुद्धतरक: नंगमः भणति - प्रस्थकं तक्षामि । तं च कश्चित् उत्किरन्तं दृष्ट्वा वदेत् कि भवान् उत्किरति ? विशुद्धतारकः नंगमः भणति प्रस्थकम् उत्किरामि । तं च कश्चिल्लिखन्तं दृष्ट्वा वदेत् किं भवान् लिखति ? विशुडतरक: गम: भगति प्रत्यक लिखामि । एवं विशुद्धतरकस्य नैगमस्य आकुट्टितनामा प्रस्थकः । एवमेव व्यवहारस्य अपि । संग्रहस्य चितः मित: मेयसमारूढः प्रस्थकः । ऋजु सूत्रस्य प्रस्थकोऽपि प्रस्थकः, मेयमपि प्रस्वकः प्रयाणां शब्दनपानां प्रस्थकाधिकारज्ञः प्रस्थकः, यस्य वा वशेन प्रस्थको निष्पद्यते । तदेतत् प्रस्थकदृष्टान्तेन । अणुओगदाराई -प्रस्थक दृष्टान्त, वसति दृष्टान्त और प्रदेश दृष्टान्त के द्वारा [ वह प्रतिपादित होता है ] प्रज्ञप्त है । ५५५. वह प्रस्थक दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण क्या है ? प्रस्थक दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण जैसे कोई पुरुष कुल्हाड़ी लेकर अटवी की ओर जाता है, उसे देखकर कोई कहता है आप कहां जाते हैं ? अविशुद्ध नैगमनय कहता है प्रस्थक के के लिए जाता हूं । उस [वृक्ष] को काटते हुए देखकर कोई कहता है आप क्या काटते हैं ? विशुद्ध नैगमनय कहता -प्रस्थक काटता हूं। उसे तराशते हुए देखकर कोई कहता है। आप क्या तराशते हैं ? विशुद्धतर नैगमनय कहता है - प्रस्थक तराशता हूं । उसे उकेरते हुए देखकर कोई कहता हैआप क्या उकेरते हैं ? विशुद्धवार नैगमनय कहता है प्रस्थक उकेरता हूं । उसे लिखते हुए देखकर ( प्रमार्जित करते हुए देखकर ) कोई कहता है आप क्या लिख रहे हैं ? विशुद्धतर गमनय कहता है प्रस्थ लिख रहा हूं । इस प्रकार विशुद्धतर नैगमनय नामांकित होने पर उसे प्रस्थक मानता है। इसी प्रकार व्यवहारनय भी [पूर्वोक्त सभी अवस्थाओं को प्रस्थक ] मानता है । संग्रनय धान्य से व्याप्त और पूरित होने परमेय समारूढ़ प्रस्थक को प्रस्थक मानता है । ऋजुसूत्रनय प्रस्थक को भी प्रस्थक मानता है और मेय को भी प्रस्थक मानता है । तीन शब्द नय प्रस्थक के अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति को प्रस्थक मानते हैं । अथवा जिसके बल [प्रस्थक के अर्थ का ज्ञाता व उसमें उपयुक्त ] से प्रस्थक निष्पन्न होता है [ वह ] प्रस्थक कहलाता है। वह प्रस्थक दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण है । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ५५५-५५६ ३०१ ५५६. से कि तं वसहिदिठंतेणं? अथ कि तद् वसतिदृष्टान्तेन? ५५६. वह वसति दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय वसहिदिळंतेणं से जहानामए वसतिदृष्टान्तेन-तद् यथानाम 'प्रमाण क्या है? केइ पुरिसे कंचि पुरिसं वएज्जा- कश्चित्पुरुषः कञ्चित् पुरुष वदेत् वसति दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय कहि भवं वससि ? अविसुद्धो क्व भवान् वसति ? अविशुद्धः नंगमः प्रमाण-जैसे कोई पुरुष किसी पुरुष से कहता नेगमो भणति-लोगे वसामि। भणति-लोके वसामि । लोकस्त्रि- है आप कहां रहते हैं ? लोगे तिविहे पण्णते, तं जहा- विध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा ऊर्ध्वलोकः अविशुद्ध नैगमनय कहता है—लोक में उडलोए अहेलोए तिरियलोए, अधोलोकः तिर्यग्लोकः, तेषु सर्वेषु रहता हूं। तेस सम्वेस भवं वससि ? विसुद्धो भवान बसति ? विशद्धः नैगमः भणति ___ लोक के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेनेगमो भणति तिरियलोए -तिर्यग्लोके वसामि । तिर्यग्लोके ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक । क्या वसामि । तिरियलोए जंबुद्दीवाइया जम्बूद्वीपादिकाः स्वयम्भूरमणपर्यव- आप उन सब में रहते हैं ? सयंभरमणपज्जवसाणा असंखेज्जा सानाः असंख्येया: द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः, विशुद्ध नैगमनय कहता है तिर्यक्लोक दीव-समुद्दा पण्णत्ता, तेसु सव्वेसु तेष सर्वेष भवान वसति ? विशुद्ध- . में रहता हूं। भवं वससि ? विसुद्धतराओ नेगमो तरकः नैगमः भणति -जम्बूद्वीपे तिर्यक्लोक में जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभणति--जंबुद्दीवे वसामि। जंबु- वसामि। जम्बूद्वीपे दश क्षेत्राणि भूरमण तक असंख्येय द्वीप और समुद्र हैं। हीवे दस खेत्ता पण्णत्ता, तं जहा प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भरत: ऐरवतः क्या आप उन सबमें रहते हैं ? भरहे एरवए हेमवए हेरण्णवए हैमवतः हैरण्यवतः हरिवर्षः रम्यक- विशुद्धतर नैगम नय कहता है जम्बूद्वीप हरिवस्से रम्मगवस्से देवकुरा वर्षः देवकरुः उत्तरकुरः पूर्व- में रहता हूं। उत्तरकुरा पुव्वविदेहे अवरविदेहे, विदेहः अपरविदेहः, तेषु सर्वेषु जम्बूद्वीप में दस क्षेत्र हैं, जैसे- भरत, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्ध- भवान् वसति ? विशुद्धतरकः नैगमः ऐरवत, हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, तराओ नेगमो भणति-भरहे भणति-भरते बसामि। भरतः देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्व विदेह और अपरवसामि । भरहे दुविहे पण्णत्ते, तं द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा--दक्षिणार्द्ध- विदेह । क्या आप उन सबमें रहते हैं ? जहा-दाहिणड्ढभरहे य उत्तर- भरतश्च उत्तरार्द्धभरतश्च, तयोः विशुद्धतर नैगमनय कहता है-भरत में भरहे य, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? सर्वयोः भवान् वसति ? विशुद्धतरक: रहता हूं। विसुद्धतराओ नेगमो भणति- नैगमः भणति-दक्षिणार्द्धभरते भरत के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -- दाहिणडढभरहे वसामि। दाहि- वसामि । दक्षिणार्द्धभरते अनेकानि दक्षिणार्ध भरत और उत्तरार्ध भरत। क्या णडढभरहे अणेगाई गामागर- ग्रामाकर-नगर-खेट-कर्बट-मडम्ब-द्रोण- आप उन दोनों में रहते हैं ? नगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह- मुख-पत्तनाथम-सम्बाध - सन्निवेशाः, विशुद्धतर नैगमनय कहता है-दक्षिणार्ध पट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसाई, तेसु तेषु सर्वेषु भवान् वसति ? विशुद्धतरकः भरत में रहता हूं? सम्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराओ नैगमः भणति-पाटलिपुत्रे वसामि । दक्षिणाधं भरत में अनेक ग्राम, आकर, नेगमो भणति-पाडलिपुत्ते पाटलिपुत्रे अनेकानि गृहाणि, तेषु सर्वेषु नगर, खेड, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, वसामि। पाडलिपुत्ते अणेगाइं भवान् वसति ? विशुद्धतरकः नैगमः आश्रम, संबाह और सन्निवेश हैं। क्या आप गिहाई, तेसु सन्वेसु भवं वससि ? भणति - देवदत्तस्य गृहे वसामि । उन सबमें रहते हैं ? विसुद्धतराओ नेगमो भणति- देवदतस्य गृहे अनेके कोष्ठकाः, तेषु विशुद्धतर नैगमनय कहता है-पाटलिपुत्र देवदत्तस्स घरे वसामि । देवदत्तस्स सर्वेष भवान् वसति ? विशुद्धतरकः में रहता हूं। घरे अणेगा कोटगा, तेसु सन्वेसु नंगमः भणति-गर्भगृहे बसामि । एवं पाटलिपुत्र में अनेक घर हैं, क्या आप उन भवं वससि ? विसुद्धतराओ नेगमो विशुद्धतरकस्य नैगमस्य वसन् वसति । सब घरों में रहते हैं ? भणति-गब्भघरे वसामि। एवं एवमेव व्यवहारस्य अपि। संग्रहस्य __ विशुद्धतर नैगमनय कहता है-देवदत्त के विसुद्धतरागस्स नेगमस्स वसमाणो संस्तारकसमारूढः वसति । ऋजु- घर में रहता हूं। वसइ। एवमेव ववहारस्स वि। सूत्रस्य येषु आकाशप्रदेशेष अवगाढ- देवदत्त के घर में अनेक कोठे हैं, क्या आप संगहस्स संथारसमारूढो वसइ। स्तेषु वसति । त्रयाणां शब्दनयानाम् उन सबमें रहते हैं ? उज्जुसुयस्स जेसु आगासपएसेसु आत्मभावे वसति । तदेतद् वसति- विशुद्धतर नैगमनय कहता है-गर्भगृह में ओगाढो तेसु वसइ। तिण्हं सद्द- दृष्टान्तेन । रहता हूं। इस प्रकार विशुद्धतर नैगम नय जो Jain Education Intemational Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ अणुओगदाराई नयाणं आयभावे वसइ। से तं वसहिदिळंतेणं॥ व्यक्ति जिस स्थान में, जब निवास करता है उसे उसमें रहनेवाला मानता है। इसी प्रकार व्यवहारनय भी नैगमनय की भांति वास को मानता है। संग्रहनय बिछौने पर लेटे हुए व्यक्ति को ही वास करने वाला मानता है। ऋजुसूत्रनय व्यक्ति जितने आकाश प्रदेशों में अवगाहन किए हुए होता है, उनमें वास करने वाला मानता है। तीन शब्द नयों की दृष्टि में व्यक्ति आत्मभाव [अपने स्वरूप] में रहता है । वह वसति दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण है। ५५७. से कि तं पएसदिट्ठतेणं? अथ किं तत् प्रदेशदृष्टान्तेन ? पएसविट्ठतेणं- नेगमो भणति- प्रदेशदृष्टान्तेन नैगमः भणतिछण्हं पएसो, तं जहा-धम्मपएसो षण्णां प्रदेशः, तद्यथा-धर्मप्रदेशः अधम्मपएसो आगासपएसो जीव- अधर्मप्रदेश: आकाशप्रदेशः जीवप्रदेशः पएसो खंधपएसो देसपएसो। एवं स्कन्धप्रदेशः देशप्रदेशः । एवं वदन्तं वयंत नेगम संगहो भणति–जं नंगमं संग्रहः भणति-यद् भणसि भणसि छह पएसो तं न भवइ। षण्णां प्रदेशः तन्न भवति । कम्हा? जम्हा जो देसपएसो कस्मात् ? यस्मात् यः देशप्रदेशः सो तस्सेव दव्वस्स, जहा को स तस्यैव द्रव्यस्य, यथा क: दृष्टान्त:? दिटठंतो? दासेण मे खरो कीओ दासेन मे खरः क्रीतः दासोऽपि मे दासो वि मे खरो वि मे, तं मा खरोऽपि मे, तस्मान्मा भण-षण्णां भणाहि-छह पएसो, भणाहि प्रदेशः, भण पञ्चानां प्रदेशः, तद्यथा पंचण्हं पएसो, तं जहा-धम्म- धर्मप्रदेशः अधर्मप्रदेशः आकाशपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो प्रदेशः जीवप्रदेशः स्कन्धप्रदेशः। एवं जीवपएसो खंधपएसो। एवं वयंतं वदन्तं संग्रह व्यवहारः भणति-यद् संगहं ववहारो भणति-जं भणसि भणसि पञ्चानां प्रदेशः तन्न भवति । पंचण्हं पएसो तं न भवइ। ५५७. वह प्रदेश दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण क्या है ? प्रदेश दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण-नंगमनय कहता है-"छहों का प्रदेश" जैसे--धर्म का प्रदेश, अधर्म का प्रदेश, आकाश का प्रदेश, जीव का प्रदेश, स्कन्ध का प्रदेश और देश का प्रदेश । नैगमनय के ऐसा कहने पर संग्रहनय कहता है-"तुम कहते हो छहों का प्रदेश" वह उचित नहीं है। किसलिए? इसलिए कि जो देश का प्रदेश है वह उसी द्रव्य का है । जैसे कोई दृष्टान्त हैं ? [आचार्य ने कहा-इसका दृष्टांत यह है] मेरे दास ने गधा खरीदा, दास भी मेरा है और गधा भी मेरा है। इसलिए यह मत कहो कि "छहों का प्रदेश" यह कहो कि "पांचों का प्रदेश", जैसे-धर्म का प्रदेश, अधर्म का प्रदेश, आकाश का प्रदेश, जीव का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश । संग्रहनय के ऐसा कहने पर व्यवहारनय कहता है-तुम जो पांचों का प्रदेश कहते हो वह उचित नहीं है। किसलिए? __यदि पांच मित्रों का कोई सामान्य [सबके अधिकार में] द्रव्य समूह है, जैसे-हिरण्य, सुवर्ण, धन या धान्य । वैसे ही यदि पांचों का प्रदेश सामान्य है तो यह कहना उचित हो सकता है, जैसे - "पांचों का प्रदेश" इसलिए मत कहो “पांचों का प्रदेश" यह कहो, "पांच कम्हा? जइ पंचण्हं गोट्ठियाणं कस्मात् ? यदि पञ्चानां गोष्ठिकेइ दध्वजाए सामण्णे, तं जहा- कानां किञ्चिद् द्रव्यजातं सामान्यं, हिरणे वा सुवण्णे वा धणे वा तद्यथा-हिरण्यं वा सुवर्णं वा धनं धण्णे वा तो जुत्तं वत्तुं जहा पंचण्हं वा धान्यं वा ततो युक्तं वक्तुं यथा पएसो, तं मा भणाहि-पंचण्हं पञ्चानां प्रदेशः, तन्मा भणपएसो, भणाहि-पंचविहो पएसो, पञ्चानां प्रदेशः, भण-पञ्चविधः तं जहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो प्रदेशः, तद्यथा-धर्मप्रदेशः अधर्म Jain Education Intemational Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ५५७ आगासपएसो जीवपएसो खंध- प्रदेशः आकाशप्रदेशः जीवप्रदेशः पएसो। एवं वयंतं ववहारं उज्जु- स्कन्धप्रदेशः। एवं वदन्तं व्यवहारम् सओ भणति-जं भणसि पंचविहो ऋजसूत्रः भणति -यद् भणसि पञ्चपएसो, तं न भवइ। विधः प्रदेशः, तन्न भवति । कम्हा? जइ ते पंचविहो पएसो कस्मात् ? यदि ते पञ्चविध: --एवं ते एक्केक्को पएसो पंचविहो प्रदेशः एवं ते एकैक: प्रदेशः पञ्च--एवं ते पणवीसतिविहो पएसो विधः-एवं ते पञ्चविंशतिविधः भवइ, तं मा भणाहि-पंचविहो __ प्रदेशः भवति, तन्मा भण-पञ्चपएसो, भणाहि-भइयव्वो पएसो विधः प्रदेशः, भण-भाज्यः प्रदेशः --सिय धम्मपएसो सिय अधम्म- --स्याद् धर्मप्रदेशः स्यादधर्मप्रदेशः पएसो सिय आगासपएसो सिय स्यादाकाशप्रदेशः स्याज्जीवप्रदेशः जीवपएसो सिय खंधपएसो। एवं स्यात् स्कन्धप्रदेशः। एवं वदन्तम् वयंत उज्जुसुयं संपइ सहो भणति ऋजुसूत्रं सम्प्रति शब्द: भणति-यद् -जं भणसि भइयव्वो पएसो, तं भणसि भाज्यः प्रदेशः, तन्न भवति । न भवइ। कम्हा? जइते भइयव्वो पएसो, कस्मात् ? यदि ते भाज्यः प्रदेशः एवं ते--१. धम्मपएसो विसिय एवं ते -१. धर्मप्रदेशोऽपि-स्याद् धम्मपएसो सिय अधम्मपएसो धर्मप्रदेशः स्यादधर्मप्रदेश: स्यावाकाशसिय आगासपएसो सिय जीवपएसो प्रदेश: स्याज्जीवप्रदेशः स्यात्स्कन्धसिय खंधपएसो, २. अधम्मपएसो प्रदेशः, २. अधर्मप्रदेशोऽपि स्याद् वि सिय धम्मपएसो सिय धर्मप्रदेशः स्यादधर्मप्रदेशः स्यादाकाशअधम्मपएसो सिय आगासपएसो प्रदेशः स्याज्जीवप्रदेशः स्यात्स्कन्धसिय जीवपएसो सिय खंधपएसो, प्रदेश , ३. आकाशप्रदेशोऽपि-स्याद् ३. आगासपएसो वि-सिय धम्म- धर्मप्रदेशः स्यादधर्मप्रदेशः स्यादाकाशपएसो सिय अधम्मपएसो सिय प्रदेश: स्याज्जीवप्रदेशः स्यात् स्कन्धआगासपएसो सिय जीवपएसो प्रदेशः, ४. जीवप्रदेशोऽपि स्याद् सिय खंधपएसो, ४. जीवपएसो वि धर्मप्रदेशः स्यादधर्मप्रदेशः, स्यादाकाश-सिय धम्मपएसो सिय अधम्म- प्रदेशः, स्याज्जीवप्रदेशः, स्यात् स्कन्धपएसो सिय आगासपएसो सिय प्रदेशः, ५. स्कन्धप्रदेशोऽपि-स्याद् जीवपएसो सिय खंधपएसो, ५. धर्मप्रदेशः स्यादधर्मप्रदेश स्यादाकाशखंधपएसो वि-सिय धम्मपएसो प्रदेशः स्याज्जीवप्रदेशः स्यात् स्कन्धसिय अधम्मपएसो सिय आगास- प्रदेशः । एवं ते अनवस्था भविष्यति, पएसो सिय जीवपएसो सिय खंध- तन्मा भण-भाज्य: प्रदेशः, भणपएसो। एवं ते अणवत्था भवि- धर्म: प्रदेशः स प्रदेशः धर्मः, अधर्म: स्सइ, तं मा भणाहि-भइयव्वो प्रदेश: स प्रदेश: अधर्मः, आकाशः पएसो, भणाहि-धम्मे पएसे से प्रदेशः स प्रदेश: आकाशः, जीवः पएसे धम्मे, अधम्मे पएसे से पएसे प्रदेशः स प्रदेशः नोजीवः, स्कन्धः अधम्मे, आगासे पएसे से पएसे प्रदेशः स प्रदेशः नोस्कन्धः । एवं आगासे, जीवे पएसे से पएसे नो- बदन्तं शब्दं सम्प्रति समभिरुढो भणति जीवे, खंधे पएसे से पएसे नोखंधे। -यद् भणसि धर्मः प्रदेश: स प्रदेश: प्रकार का प्रदेश" जैसे-धर्म का प्रदेश, अधर्म का प्रदेश, आकाश का प्रदेश, जीव का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश। व्यवहार नय के ऐसा कहने पर ऋजुसूत्रनय कहता है-तुम जो पांच प्रकार का प्रदेश कहते हो वह उचित नहीं है। किसलिए? यदि तुम्हारे मन में पांच प्रकार का प्रदेश है तो इस प्रकार प्रत्येक प्रदेश के पांच प्रकार होने पर वह प्रदेश पच्चीस प्रकार का होता है। इसलिए मत कहो “पांच प्रकार का प्रदेश" यह कहो प्रदेश भाज्य [विकल्पनीय] है, स्यात् धर्म का प्रदेश है, स्यात् अधर्म का प्रदेश है, स्यात् आकाश का प्रदेश है, स्यात् जीव का प्रदेश है, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश है। ऋजुसूत्र के ऐसा कहने पर सम्प्रति शब्द नय कहता है तुम जो कहते हो कि प्रदेश भाज्य है वह उचित नहीं है। किसलिए? तुम्हारे मत में प्रदेश भाज्य है तो इस प्रकार १. धर्म का प्रदेश भी स्यात धर्म का प्रदेश, स्यात् अधर्म का प्रदेश, स्यात् आकाश का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। २. अधर्म का प्रदेश भी स्यात् धर्म का प्रदेश, स्यात् अधर्म का प्रदेश, स्यात् आकाश का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। ३. आकाश का प्रदेश भी स्यात् धर्म का प्रदेश, स्यात् अधर्म का प्रदेश, स्यात् आकाश का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। ४. जीव का प्रदेश भी स्यात् धर्म का प्रदेश, स्यात् अधर्म का प्रदेश, स्यात् आकाश का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। ५. स्कन्ध का प्रदेश भी स्यात् धर्म का प्रदेश, स्यात् अधर्म का प्रदेश, स्यात् आकाश का प्रदेश, स्यात् जीव का प्रदेश, स्यात् स्कन्ध का प्रदेश हो सकता है। इस प्रकार अनवस्था हो जाएगी, इसलिए मत कहो प्रदेश भाज्य है, यह कहो-जो Jain Education Intemational Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ एवं वर्षतं स संपद समभिरूडो भणति जं भणसि धम्मे पएसे से पसे नोखंधे, तं न भवइ । " कम्हा ? एत्थ दो समासा भवंति तं जहा तप्पुरिसे य कम्मधारए य । तं न नज्जइ । कपरेणं समासेणं भणसि ? कि तप्पुरिसेणं ? कि कम्मधारएण जई तप्पुरिसेणं भणसि तो मा एवं भणाहि अह कम्मधारएणं भणसि तो विसेसओ भणाहि धम्मे य से पए से य सेसे पएसे धम्मे, अधम्मे य से पए से य सेसे पएसे अधम्मे, आगासे य से पएसे य सेसे पएसे आगासे, जीवेय से एसे य सेसे पसे नोजीवे, खंधे य से पसे य सेसे पसे नोखंधे । एवं वयंतं समभिरुडं संपइ एवंभूज भणति -जं जं भगसि तं तं सव्वं कसिणं पडिपुण्णं निरवसेसं एगग्गहण - यं । देवि मे अवत्थू, पएसे वि मे अवत्थू । से तं पएसदिट्ठतेणं से तं नयप्यमाणेणं ॥ । ५५८. से कि तं संखप्यमाणे ? संखप्प माणे अडविहे पण्णसे, तं जहा १. नामसंखा २ वा ३ दव्वसंखा ४. ओवम्मसंखा ५. परिमाणसंखा ६. जाणणासंखा ७. गणनासंखा ८. भावला ॥ धर्मः यावत् स्कन्धः प्रदेश: स प्रदेश: नोस्कन्धः, तन्न भवति । " कस्मात् ? अत्र द्वौ समासौ भवतः, तद्यया तत्पुरुषश्च कर्मधारयश्च । तन्न ज्ञायते कतरेण समासेन भयसि ? कि तत्पुरुषेण ? कि कर्मधारयेण ? यदि तत्पुरुषे भगसि कर्मवं भण, अप कर्मधारयेण भणसि, ततः विशेषतः भण - धर्मश्च स प्रदेशश्य स एव प्रदेशः धर्मः अधर्मश्व स प्रदेशश्च स एष प्रदेशः अधर्मः, आकाशरच स प्रदेशश्च स एष प्रदेश: आकाश:, जीवश्च स प्रदेशश्च स एष प्रदेशः नोजीव:, स्कन्धश्च स प्रदेशश्च स एष प्रदेश: नोस्कन्धः । एवं वदन्तं समभिरूढं सम्प्रति एवम्भूतः भणति यद् यद् भणसि तत्तत् सर्वं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण निरवशेष एकग्रहणगृहीतम् । देशोऽपि मे अवस्तु, प्रदेशोऽपि मे अवस्तु । तदेतत् प्रदेशदृष्टान्तेन । तदेतद् नयप्रमाणेन । + अथ किं तत् संख्याप्रमाणम् ? संख्याप्रमाणम् अष्टवि प्रज्ञप्तं, तद्यथा-- १. नामसंख्या २. स्थापनासंख्या ३. द्रव्यसंख्या ४. औपम्यसंख्या ५. परिमाणसंख्या ६. ज्ञानसंख्या ७. गणनासंख्या ८. भावसंख्या । अणुओगदारा धर्मात्मक प्रदेश है वह प्रदेश धर्म है। जो अधर्मात्मक प्रदेश है वह प्रदेश अधर्म है। जो आकाशात्मक प्रदेश है वह प्रदेश आकाश है । जो जीवात्मक प्रदेश है वह प्रदेश नो जीव है । जो स्कन्धात्मक प्रदेश है वह प्रदेश नोस्कन्ध है । शब्दtय के ऐसा कहने पर सम्प्रति समभिरूढ़नय कहता है-तुम जो कहते हो, जो धर्मात्मक प्रदेश है वह प्रदेश धर्म है यावत् जो स्कन्धात्मक प्रदेश है वह प्रदेश नोस्कन्ध है, वह उचित नहीं है। किसलिए ? यहां दो समास होते हैं, जैसे-- तत्पुरुष और कर्मधारय । अतः यह नहीं जाना जाता कि किस समास से कहते हो ? क्या तत्पुरुष समास से कहते हो ? क्या कर्मधारय समास से कहते हो ? यदि तत्पुरुष समास से कहते हो तो यह मत कहो । यदि कर्मधारय समास से कहते हो तो विशेषण सहित कहो प्रदेश जो धर्म [ धर्मात्मक] है वह प्रदेश धर्म है । प्रदेश जो अधर्म [अ] अधर्म है। प्रदेश जो [आकाशात्मक] है वह प्रदेश आकाश है। प्रदेश जो जीव [जीवात्मक] है वह नोप्रदेश जीव है। प्रदेश जो स्कन्ध [ स्कन्धात्मक ] है वह नोप्रदेश स्कन्ध है । समभिरूढ़ के ऐसा कहने पर सम्प्रति एवंभूतनय कहता है-जिस धर्मास्तिकाय आदि के सम्बन्ध में तुम जो कहते हो वह सब कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निरवयव और एक शब्द के द्वारा अभिधेय है क्योंकि मेरी दृष्टि में देश भी वास्तविक नहीं है और प्रदेश भी वास्तविक नहीं है। वह प्रदेश दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादनीय नय प्रमाण है । वह नयप्रमाण है । ५५८. वह संख्या प्रमाण क्या है ? संख्या प्रमाण के आठ प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—१. नाम संख्या, २. स्थापना संख्या, ३. द्रव्य संख्या, ४. औपम्य संख्या, ५. परिमाण संख्या, ६. ज्ञान संख्या, ७. गणना संख्या, ८. भाव संख्या ।" Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ५५८-५६४ ३०५ ५५६. से कि तं नामसंखा ? नामसंखा अथ कि सा नामसंख्या? नाम-५५९. वह नाम संख्या क्या है ? -जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स संख्या-यस्य जीवस्य वा अजीवस्य ___ नाम संख्या-जिस जीव या अजीव का, वा जीवाण वा अजीवाण वा तदु- वा जीवानां वा अजीवानां वा तदु- जिन जीवों या अजीवों का, जिस जीव अजीब भयस्स वा तदुभयाण वा संखा ति भयस्स वा तदुभयेषां वा संख्या इति दोनों का, जिन जीवों और अजीवों दोनों का, नाम कज्जइ । से तं नामसंखा ॥ नाम क्रियते । सा एषा नामसंख्या। संख्या यह नाम किया जाता है। वह नाम संख्या है। ५६०. से कि तं ठवणसंखा? ठवण- अथ किं सा स्थापनासंख्या ? ५६०. वह स्थापना संख्या क्या है? संखा-जण्णं कट्टकम्मे वा चित्त- स्थापनासंख्या यत् काष्ठकर्मणि वा स्थापना संख्या-काष्ठाकृति चित्राकृति, कम्मे वा पोत्थकम्मे वा लेप्पकम्मे चित्रकर्मणि वा पुस्तकर्मणि वा लेप्य- वस्त्राकृति या लेप्याकृति में गूंथकर, वेष्टितवा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा कर्मणि वा ग्रन्थिमे वा वेष्टिमे वा कर, भरकर या जोड़कर बनाई हुई पुतली में संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा पूरिमे वा संघातिमे वा अक्षे वा बरा- अक्ष या कौड़ी में एक या अनेक सद्भावएगो वा अणेगा वा सब्भावठवणाए टके वा एको वा अनेके वा सद्भाव- स्थापना या असद्भाव-स्थापना के द्वारा वा असम्भावठवणाए वा संखा ति स्थापनया वा असद्भावस्थापनया वा संख्या का रूपांकन या कल्पना की जाती है। ठवणा ठविज्जइ। से गं ठवण- संख्या इति स्थापना स्थाप्यते। सा वह स्थापना संख्या है। संखा॥ एषा स्थापनासंख्या। ५६१. नाम-दृवणाणं को पइविसेसो ? नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषः? ५६१. नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ? नामं आवकहियं, ठवणा इत्तरिया नाम यावत्कथिफम्, स्थापना इत्व- नाम यावज्जीवन होता है तथा स्थापना वा होज्जा आवकहिया वा॥ रिका वा भवेत् यावत्कथिका वा। स्वल्पकालिक भी होती है और यावज्जीवन भी। ५६२. से कि तं दव्वसंखा? दव्वसंखा अथ किं सा द्रव्यसंख्या ? द्रव्य- ५६२. वह द्रव्य संख्या क्या है ? दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-आग- संख्या द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा द्रव्य संख्या के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेमओ य नोआगमओ य॥ आगमतश्च नोआगमतश्च । आगमत: और नोआगमतः । ५६३. से कि तं आगमओ दव्वसंखा? अथ कि सा आगमतो द्रव्य- ५६३. वह आगमतः द्रव्य संख्या क्या है ? आगमओ दव्वसंखा-जस्स णं संख्या ? आगमतो द्रव्यसंख्या -यस्य आगमतः द्रव्य संख्या--जिसने संख्या यह संखा ति पदं सिक्खियं ठियं जियं संख्या इति पदं शिक्षितं स्थितं चितं पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, चित कर मियं परिजियं नामसमं घोससमं मितं परिचितं नामसमं घोषसमम् लिया, मित कर लिया, परिचित कर लिया, अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वा- अहीनाक्षरम् अनत्यक्षरम् अव्याविद्धा- नामसम कर लिया, घोषसम कर लिया, इद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं क्षरम् अस्खलितम् अमीलितम् अव्य- जिसे वह हीन, अधिक या विपर्यस्त-अक्षर अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्ण- त्यानेडितं प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्णघोष रहित, अस्खलित, अन्य वर्गों से अमिश्रित, बोसं कंठो?विप्पमुक्कं गुरुवायणो- कठौष्ठविप्रमुक्तं गुरुवाचनोपगतं सा अन्य ग्रन्थ-वाक्यों से अमिश्रित, प्रतिपूर्ण, वगयं, से णं तत्थ वायणाए पुच्छ- तत्र वाचनया प्रच्छनया परिवर्तनया प्रतिपूर्ण घोषयुक्त, कण्ठ और होठ से निकला णाए परियट्टणाए धम्मकहाए, नो धर्मकथया, नो अनुप्रेक्षया । कस्मात् ? हुआ तथा गुरु की वाचना से प्राप्त है। वह अणुप्पेहाए। कम्हा? अणुवओगो अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा । उस (संख्या शब्द) के अध्यापन, प्रश्न, परादब्वमिति कटु ॥ वर्तन और धर्मकथा में प्रवृत्त होता है तब आगमतः द्रव्य संख्या है। वह अनुप्रेक्षा में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि द्रव्य निक्षेप अनुपयोग (चित्त की प्रवृत्ति से शून्य) होता है । ५६४. नेगमस्स एगो अणुवउत्तो आग- नैगमस्य एकः अनुपयुक्तः आग- ५६४. नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति मओ एगा दव्वसंखा, दोणि अणु- मत: एका द्रव्यसंख्या, द्वौ अनुपयुक्तौ आगमतः एक द्रव्य संख्या है, दो अनुपयु अ lain Education Intemational Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ वउत्ता आगमओ दोण्णीओ दव्वसंखाओ, तिष्णि अणुवत्ता आगओ तिणीओ दव्वसंखाओ, एवं जावइया अणुवउत्ता तावइयाओ ताओ नेगमस्स आगमओ दव्वसंखाओ। एवमेव वबहारस्स वि। संगहस्स एगो वा अणेगा वा अणुवउत्तो वा अणुवत्ता वा आगमओ दवा वा दव्यसंखाओ वा सा एगा दव्वसंखा । उज्जुसुयस्स एगो अणुवत्तो आगमओ एगा दव्वसंखा, पुहत्तं नेच्छइ । तिन्हं सद्दन याणं जाणए अणुवत्ते अवत्थू कम्हा? ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ । से तं आगमओ दव्यसंखा ॥ । ५६५. से कि तं नोआगमओ दय्यसंखा ? नोआगमओ दव्वसंखा तिविहा पण्णत्ता तं जहा जाणव सरीरदव्वसंखा भवियसरीरदव्व संखा जाणगसरीर-भवियसरीर बतिरिता दध्वसंखा ॥ ५६६. से कि तं जाणगसरीरव्यसंखा ? जाणगसरीरदन्यसंखासंखा ति पयत्वाहिगारणाणगरस जं सरीरयं ववगय-चुय चाविय चत्तदेहं जीवविप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं वा निसीहियागयं वा सिद्ध सिलातलगयं वा पासित्ता गं कोइ वएज्जा - अहो णं इमेणं सरीरसमुस्सएर्ण जिणदिट्ठेणं भावेणं संखा ति पयं आघवियं पण्णवियं परुवियं खियं नियंसि उवदंतियं जहा को दितो ? अयं महकमे आसी, अयं धपकने आसी । से तं जाणगसरीरदव्वसंखा ।। आगमतो द्वे द्रव्यसंख्ये, त्रयः अनुपयुक्ताः आगमतः तिस्रः द्रव्यसंख्या:, एवं यावन्तः अनुपयुक्ताः तावत्यः ताः नैगमस्य आगमतो द्रव्यसंख्याः । एवमेय व्यवहारस्यापि संग्रहस्य एको वा अनेके वा अनुपयुक्तो वा अनुप युक्ताः वा आगमतो द्रव्यसंख्या वा द्रव्यसंख्याः वा सा एका द्रव्यसंख्या । ऋजुसूत्रस्य एकः अनुपयुक्त: आगमतः एका द्रव्यसंख्या, पृथक्त्वं नेच्छति । त्रयाणां शब्दनयानां ज्ञ. अनुपयुक्त: अवस्तु । कस्मात् ? यदि ज्ञः अनुपयुक्तो न भवति । सा एषा आगमतो द्रव्यसंख्या 1 अथ कि सा नोआगमतो द्रव्यसंख्या ? नोआगमतो द्रव्यसंख्या त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा ज्ञशरीरद्रव्यसंख्या भव्यशरीरद्रव्यसंख्या ज्ञशरीर भव्यशरीर-व्यतिरिक्ता द्रव्यसंख्या । अथ कि सा ज्ञशरीरद्रव्यसंख्या ? गरीयसंख्या संख्या इति पदार्थाधिकारज्ञस्य यत् शरीरकं व्यपगत च्युत-च्यावित त्यक्तदेहं जीवविप्रहीणं शय्यागतं वा संस्तारगतं वा frutधिकागतं वा सिद्धशिलातलगतं वा दुवा]] कोऽपि वदेत् अहो अनेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिनदिष्टेन भावेन संख्या इति पदम् आख्यातं प्रज्ञापितं प्ररूपितं दर्शितं निर्देशितम् उपशितम् । यथा कः दृष्टान्त ? अयं मधुकुनः आसीत्, अयं घृतकुम्भः आसीत् । सा एषा ज्ञशरीरद्रव्यसंख्या । अणुओगदाराई व्यक्ति आगमतः दो द्रव्य संख्या है। तीन अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः तीन द्रव्य संख्या हैं इस प्रकार जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं नैगमनय की अपेक्षा उतनी ही आगमतः द्रव्य संख्या हैं । इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा भी जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं उतनी ही आगमतः द्रव्य संख्या हैं । संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति है अथवा अनेक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, आगमतः एक द्रव्य संख्या है अथवा अनेक द्रव्य संख्या हैं, वह एक द्रव्य संख्या है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य संख्या है। भिन्नता उसे इष्ट नहीं है । तीन शब्द न शब्द समभि एवंभूत] की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता अवस्तु है, क्योंकि यदि कोई ज्ञाता है तो वह अनुपयुक्त नहीं होता । वह आगमतः द्रव्य संख्या है । ५६५. वह नोआगमतः द्रव्य संख्या क्या है ? नोआगमतः द्रव्य संख्या के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे ज्ञशरीर द्रव्य संख्या, भव्यशरीर द्रव्य संख्या, ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य संख्या । ५६६. वह ज्ञशरीर द्रव्य संख्या क्या है ? ज्ञशरीर द्रव्य संख्या -- संख्या इस पद के अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति का जो शरीर अचेतन, प्राण से च्युत, किसी निमित्त से प्राण च्युत किया हुआ, उपचय रहित, जीव विप्रमुक्त है उसे शय्या, बिछौने, श्मशानभूमि या सिद्धशिलातल पर देखकर कोई कहे आश्चर्य है ! इस पौद्गलिक शरीर ने जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार संख्या इस पद का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया है । जैसे कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहा—इसका दृष्टान्त यह है ] यह मधुघट था, यह घृतघट था । वह ज्ञशरीर द्रव्य संख्या है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ५६५-५६८ ५६७. से किं तं भवियसरीरदव्वसंखा ? भवियसरीरदव्वसंखा जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खते इमेणं चेव आदत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिण बिट्ठेणं भावेणं संखा ति पयं सेय काले सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खड़ । जहा को वितो? अयं महकमे भविस्स, अयं धयकुंभे भविस्स । से तं भवियसरीरला ॥ ५६८. से कि तं जाणगसरीर भविय सरीर तिरिता व्यसंखा ? जाणगसरीर भविय सरीर वतिरिता दयातिविहा पण्णत्ता, तं जहा - एगर्भाविए बद्धाउए अभिमुनामगोते य । एगमविए णं भंते ! एगभविए ति कालओ केवच्चिरं होइ ? जहणणं तोह उनकोसेणं पुव्यकोडी | बढाउए णं भंते ! बढाउए सि कालओ केवच्चिरं होइ ? जहणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडीतिभागं । अभिमुनामगोते णं भंते! अभिमुनामगोते ति कालओ केवच्चिरं होइ ? जहणंग एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहतं । इयाणि को नओ कं संखं नेगम-संग्रह-ववहारा इच्च ? तिविहं सं इच्छंति, तं जहा एमनविय बढाउ अभिमुनाम गोत्तं च । उज्जुसुओ दुविहं संखं इच्छा, तं जहा -- बद्धाउयं च अभिमुहनाम गोतं च । तिणि सहनया अभिमुहनामगोलं इच्छति से तं जाणन संखं । सरीर-भवियसरीर वतिरित्ता दव्वसंखा से तं नोआगमओ दखसंख्या से तं दवा ॥ अथ कि सा भव्यशरीरद्रव्यसंख्या ? भव्यसरीरद्रव्यसंख्या- - यः जीवः योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन चैव आदत्तकेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिनदिष्टेन भावेन संख्या इति पदम् एष्यत्काले शिक्षिष्यते, न तावत् शिक्षते । यथा कः मुष्टान्त ? अयं मधुम्म भविष्यति, अयं तमः भविष्यति । सा एषा भव्यशरीरद्रव्यसंख्या । अथ कि सा ज्ञशरीर भव्य शरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यसंख्या ? ज्ञशरीरभव्यशरीर व्यतिरिक्ता: उपसंचा त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-एकभविकः बद्धायुष्कः afts: aayee अभिमुखनामगोत्रश्च । एकमविक: भदन्त ! एकभविक: इति कालतः कियच्चिरं भवति ? जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कण पूर्वकोटि: eator : मदन्त ! बद्धायुष्कः इति कालतः किञ्चिरं भवति ? जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण पूर्वकोटि-भागम् । अभिमुखनामदोत्र: भदन्त ! नामगोत्रः इति कालतः पिश्विरं भवति ? जघन्येन एवं समयम्, उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्तम् । इदानीं कः नयः कं शंखम् नैगम-संग्रह-व्यवहारा: पति? त्रिविधं शंखम् इच्छन्ति, तद्यथा-एकमविषं बायुम् अभिमुखनाम गोत्रञ्च । सूत्र: द्विविधं शंखइति तद्यथा - बद्धायुष्कञ्च अभिमुखनामगोत्रञ्च । त्रयः शब्दनयाः अभिमुखनामगोत्रं शंखम् इच्छन्ति सा एषा शरीर। भव्यशरीर-व्यतिरिक्ता द्रव्यसंख्या । सा एषा नोआगमतो द्रव्यसंख्या । सा एषा द्रव्यसंख्या । ३०७ ५६७. वह भव्य शरीर द्रव्य संख्या क्या है ? भव्य शरीर द्रव्य संख्या - गर्भ की पूर्णावधि से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त पौगलिक शरीर से संख्या इस पद को जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में सीखेगा, वर्तमान में नहीं सीखता है तब तक वह भव्य शरीर द्रव्य संख्या है जैसे कोई दुष्टान् है ? [आचार्य ने कहा - इसका दृष्टान्त यह है ] यह मधुघट होगा, यह घृतघट होगा । वह भव्यशरीर द्रव्य संख्या है । ५६८. वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य शंख क्या है ? ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यशंख के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे एकभविक, वावुक और अभिमुखनामगोत्र । भन्ते । एकभविक कितने काल तक एकभविक रहता है ? जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः करोड़ पूर्व भन्ते ! बद्धायुष्क कितने समय तक बद्धायुष्क रहता है ? जघन्यतः अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्टतः करोड़ पूर्व का तिहाई भाग । भन्ते । अभिमुखनामगोत्र वाला कितने समय तक अभिमुखनामगोत्र वाला रहता है ? जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त्त । अब यह प्रस्तुत है कि किस नय को कौनसा शंख इष्ट हैं ? नैगम, संग्रह और व्यवहार को त्रिविध शंख इष्ट हैं। जैसे एकभविक Paror और अभिमुखनामगोत्र वाला । ऋजुसूत्र को द्विविध शंख इष्ट है, जैसे बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र वाला । तीन नयों को अभिमुखनामी वाला शंख इष्ट है। वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य शंख है । वह नोआगमतः द्रव्यसंख्या है ।" वह द्रव्य संख्या है। パ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा --- ३०८ अणुओगदाराई ५६६. से कि तं ओवम्मसंखा? ओव- अथ कि सा औपम्यसंख्या? ५६९. वह औपम्यसंख्या क्या है ? म्मसंखा चउब्विहा पण्णता, तं औपम्यसंख्या चतुविधा प्रज्ञप्ता, औपम्य संख्या के चार प्रकार प्रज्ञप्त है, जहा-१. अस्थि संतयं संतएणं तद्यथा--१. अस्ति सत्कं सत्केन जैसे-१. सत् को सत् से उपमित किया उवमिज्जइ २. अत्थि संतयं असंत- उपमीयते २. अस्ति सत्कम् असत्केन जाता है, २. सत् को असत् से उपमित किया एणं उवमिज्जइ ३. अस्थि असंतयं उपमीयते । ३. अस्ति असत्कं सत्केन जाता है, ३. असत् को सत् से उपमित किया संतएणं उवमिज्जइ ४. अस्थि उपमीयते ४. अस्ति असत्कम् असत्केन जाता है, ४. असत् को असत् से उपमित असंतयं असंतएणं उवमिज्जइ। उपमीयते। किया जाता है। तत्थ १. संतयं संतएणं उवमिज्जइ, तत्र १. सत्कं सत्केन उपमीयते, १ इनमें सत् सत् से उपमित किया जाता जहा संता अरहंता संतएहि यथा--सन्तः अर्हन्त: सत्कः पुरवरः, है, जैसे -सत् अर्हत् का वक्ष सत् पुरवर के पुरवरेहि, संतएहि कवा.हिं संतएहि सत्क: कपाटः सत्क: वक्षोभिः उपमी- कपाट के द्वारा उपमित किया जाता है, वच्छेहि उवमिज्जंति, जहा--- यन्ते, यथा-- जैसे -- गाहा गाथा - पुरवर-कवाड-वच्छा, पुरवर-कपाट-वक्षाः, १. सभी चौबीस तीर्थकर पुरवर-कपाट के फलिहभुया दुंदुहि-त्थणियघोसा। परिघभुजाः दुन्दुभि-स्तनितघोषाः । समान वक्ष, परिघ के समान भुजा और दुन्दुभि सिरिवच्छंकियवच्छा, श्रीवत्साङ्कितवक्षस:, एवं मेघगर्जन के समान घोषवाले तथा श्रीवत्स सब्वे वि जिणा चउव्वीसं ॥१॥ सर्वेऽपि जिना: चतुर्विशतिः ॥१॥ से अंकित वक्ष वाले होते हैं। २. संतयं असंतएणं उवमिज्जइ, २. सत्कम् असत्केन उपमीयते, २. सत् असत् से उपमित किया जाता है, जहा संताई नेरइय-तिरिक्ख- यथा सत्कानि नैरयिक-तिर्यग जैसे --- सत् नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य जोणिय-मणुस्स-देवाणं आउयाई योनिक-मनुष्य-देवानां आयूंषि और देवों का आयुष्य असत् पल्योपम और असंतएहि पलिओवम-सागरोवमेहि असत्केत पल्योपम-सागरोपमैः उप- सागरोपम से उपमित किया जाता है। उवमिज्जति । मीयन्ते। ३. असंतयं संतएणं उवमिज्जइ, ३. असत्कं सत्केन उपमीयते, ३. असत् सत् से उपमित किया जाता है, जहायथा जैसे--- गाहागाथा --- गाथापरिजरियपेरंतं, परिजोर्णपर्यन्तं, २. जिसका पर्यन्त भाग जीर्ण और वन्त चलंतबेट पडतनिच्छोरं। चलद्वन्तं पतनिःक्षीरम् । विचलित हो गया है, जो वृक्ष से गिरने वाला पत्तं वसणप्पत्त, पत्रं व्यसनप्राप्तं, है, जिसका दूध सूख गया है वह कष्ट में पड़ा कालप्पत्तं भणइ गाहं ॥२॥ कालप्राप्त भणति गाथाम् ॥२॥ हुआ पक्का पत्ता [किशलयों से निम्न निर्दिष्ट] गाथा कहता है---- जह तुब्भे तह अम्हे, यथा यूयं तथा वयं, ३. जैसे तुम हो वैसे ही हम थे, जैसे हम तुम्हे वि य होहिहा जहा अम्हे । यूयमपि च भविष्यथ यथा वयम् । हैं वैसे ही तुम हो जाओगे। यह बात गिरता अप्पाहेइ पडतं, कथयति पतत्, हुआ पीला पत्ता किशलयों से कहता है । पंडयपत्तं किसलयाणं ॥३॥ पाण्डुपत्रं किशलयेभ्यः ॥३॥ नवि अस्थि न वि य होही, नाऽपि अस्ति नापि च भविष्यति, ४. किशलयों और पीले पत्तों में न कभी उल्लावो किसल-पंडुपत्ताणं । उल्लापः किशलय-पाण्डुपत्रयोः । वार्तालाप हुआ और न होगा। भव्य-जनों को उवमा खलु एस कया, उपमा खलु एषा कृता, बोध देने के लिए यह उपमा की गई है। भवियजण-विबोहणढाए॥४॥ भव्यजन-विबोधनार्थम् ॥४॥ ४. असंतयं असंतएणं उवमिज्जइ ४. असत्कम् असत्केन उपमीयते ४ असत् असत् से उपमित किया जाता --जहा खरविसाणं तहा ससवि- -यथा खरविषाणं तथा शशविषा है-जैसे गधे का सींग वैसे खरगोश का साणं । से तं ओवम्मसंखा॥ णम् । सा एषा औपम्पसंख्या । सींग। वह औपम्य संख्या है। ५७०. से कि तं परिमाणसंखा? परि- अथ कि सा परिमाणसंख्या ? ५७०. वह परिमाण संख्या क्या है ? माणसंखा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा परिमाणसंख्या द्विविधा प्रज्ञप्ता, परिमाण संख्या के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, Jain Education Intemational Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ५६६-५७५ ३०६ -कालियसुयपरिमाणसंखा दिदि- तद्यथा कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या जैसे- कालिकश्रुत परिमाण संख्या और वायसुयपरिमाणसंखा य॥ दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या च । दृष्टिवादश्रुत परिमाण संख्या । ५७१. से कि तं कालियसुयपरिमाण- अथ कि सा कालिकश्रुतपरिमाण- ५७१. वह कालिकश्रुत परिमाण संख्या क्या है ? संखा? कालियसुयपरिमाणसंखा संख्या ? कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या कालिकश्रुत परिमाण संख्या के अनेक अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा--- अनेकविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पर्यव प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पर्यव संख्या, अक्षर पज्जवसंखा अक्खरसंखा संघाय- संख्या अक्षरसंख्या संघातसंख्या पद- संख्या, संघात संख्या, पद संख्या, पाद संख्या, संखा पयसंखा पायसंखा गाहासंखा संख्या पादसंख्या गाथासंख्या श्लोक- गाथा संख्या, श्लोक संख्या, वेष्टक संख्या, सिलोगसंखा वेढसंखा निज्जुत्ति- संख्या वेष्टकसंख्या नियुक्तिसंख्या अनु- नियुक्ति संख्या, अनुयोगद्वार संख्या, उद्देशक संखा अणुओगदारसंखा उद्देसग- योगद्वारसंख्या उद्देशकसंख्या अध्ययन- संख्या, अध्ययन संख्या, श्रुतस्कन्ध संख्या और संखा अज्झयणसंखा सुयखंधसंखा संख्या श्रुतस्कन्धसंख्या अंगसंख्या । अंग संख्या । वह कालिकश्रुत परिमाण संख्या अंगसंखा। से तं कालियसुयपरि- सा एषा कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या । माणसंखा ॥ ५७२. से कि तं दिट्टिवायसुयपरिमाण- अथ कि सा दृष्टिवादश्रुतपरि- ५७२. वह दृष्टिवादश्रुत परिमाण संख्या क्या संखा? दिदिबायसुयपरिमाणसंखा माणसंख्या ? दृष्टिवादश्रुतपरिमाण- है ? अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा- संख्या अनेकविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - दृष्टिवादश्रुत परिमाण संख्या के अनेक पज्जवसंखा अक्खरखा संघाय- पर्यवसंख्या अक्षरसंख्या संघातसंख्या प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -पर्यव संख्या, अक्षर संखा पयसंखा पायसंखा गाहासंखा पदसंख्या पादसंख्या गाथासंख्या संख्या, संघात संख्या, पद संख्या, पाद संख्या, सिलोगसंखा वेढसंखा निज्जुत्ति- श्लोकसंख्या वेष्टकसंख्या नियुक्तिसंख्या गाथा संख्या, श्लोक संख्या, वेष्टक संख्या, संखा अणओगदारसंखा पाहुडसंखा अनुयोगद्वारसंख्या प्राभृतसंख्या प्राभू- नियुक्ति संख्या, अनुयोगद्वार संख्या, प्राभृत पाहुडियासंखा पाहडपाहुडियासंखा तिकासंख्या प्राभृतप्राभृतिकासंख्या संख्या, प्राभूतिका संख्या, प्राभूतप्राभूतिका वत्थुसंखा । से तं दिट्ठिवायसुयपरि- वस्तुसंख्या। सा एषा दृष्टिवादश्रुत- संख्या और वस्तु संख्या। वह दृष्टिवादश्रुत माणसंखा । से तं परिमाणसंखा ॥ परिमाणसंख्या। सा एषा परिमाण- परिमाण संख्या है। वह परिमाण संख्या संख्या। ५७३. से कि तं जाणणासंखा? अथ कि सा ज्ञानसंख्या ? ज्ञान- ५७३. वह ज्ञान संख्या क्या है ? जाणणासंखा-जो जं जाणइ, त संख्या-यो यज्जानाति, तद्यथा - ज्ञान संख्या--जो जिसे जानता है। [वह जहा-सई सद्दिओ, गणियं गणि- शब्दं शाब्दिक:, गणितं गणितज्ञः, उसे जानने के कारण अभेदोपचार से ज्ञान यओ, निमित्तं नेमित्तिओ, कालं निमित्तं नैमित्तिकः, कालं कालज्ञानी, संख्या है।] जैसे -शब्द को जानने वाला कालनाणी, वेज्जयं वेज्जो। से तं वैद्यक वैद्य. । सा एषा ज्ञानसख्या । शाब्दिक, गणित को जानने वाला गणितज्ञ, जाणणासंखा॥ निमित्त को जानने वाला नैमित्तिक, काल को जानने वाला कालज्ञानी, वैद्यक को जानने वाला वैद्य होता है । वह ज्ञान संख्या है। ५७४. से कि तं गणणासंखा? गणणा- अथ कि सा गणनासंख्या ? ५७४. वह गणना संख्या क्या है ? संखा एक्को गणणं न उवेइ, गणनासंख्या-एक: गणन न उपति, गणना संख्या-'एक' गणना संख्या में दुप्पभिइ संखा, तं जहा-संखेज्जए द्विप्रभूति: संख्या, तद्यथा--सख्येय- नहीं है। दो से लेकर संख्या चलती है, जैसे असंखेज्जए अणंतए॥ कम् असंख्येयकम् अनन्तकम् । -संख्येय, असंख्येय, अनन्त । ५७५. से कि तं खेज्जए ? संखेज्जए अथ किं तत् संख्येयकम् ? ५७५. वह संख्येय क्या है ? तिविहे पण्णते, तं जहा--जहण्णए संख्येयकं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा संख्येय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेउक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए॥ जघन्यकम् उत्कर्षकम् अजघन्योत्कर्ष- जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्य-अनुत्कृष्ट कम् । [मध्यम] । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० अणुओगदाराई ५७६. से कि तं असंखेज्जए? असं- अथ किं तद् असंख्येयकम् ? ५७६. वह असंख्येय क्या है ? खेज्जए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- असंख्येयकं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा असंख्येय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेपरित्तासंखेज्जए जुत्तासंखेज्जए परीतासंख्येयकं युक्तासंख्येयकम् परीत असंख्येय, युक्त असंख्येय और असंख्येय असंखेज्जासंखेज्जए॥ असंख्येयासंख्येयकम् । असंख्येय। ५७७. से कि तं परित्तासंखेज्जए? अथ किं तत् परीतासंख्येयकम् ? ५७७. वह परीत असंख्येय क्या है ? परित्तासंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते, तं परीतासंख्येयकं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, परीत असंख्येय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जहा–जहण्णए उक्कोसए अजह- तद्यथा-जघन्यकम् उत्कर्ष कम् जैसे-जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्यण्णमणुक्कोसए॥ अजघन्योत्कर्षकम् । अनुत्कृष्ट । ५७८. से कि तं जुत्तासंखेज्जए? जुत्ता- अथ किं तद् युक्तासंख्येयकम् ? ५७८. वह युक्त असंख्येय क्या है ? संखेज्जए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा युक्तासंख्येयकं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा __ युक्त असंख्येय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, -जहण्णए उक्कोसए अजहण्ण- -जघन्यकम् उत्कर्षकम् अजघन्योत्- जैसे-जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्यमणक्कोसए॥ कर्षकम् । अनुत्कृष्ट । ५७६. से कितं असंखेज्जासंखेज्जए? अथ कि तद असंख्येयासंख्येय- ५७९. वह असंख्येय असंख्येय क्या है ? असंखेज्जासंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते, कम् ? असंख्येयासंख्येयकं त्रिविधं । असंख्येय असंख्येय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त तं जहा -जहण्णए उक्कोसए प्रज्ञप्तं, तद्यथा--जघन्यकम् उत्कर्ष- हैं, जैसे-जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्यअजहण्णमणुक्कोसए । कम् अजघन्योत्कर्षकम् । अनुत्कृष्ट । ५८०. से कि तं अणतए? अणंतए अथ किं तद् अनन्तकम् ? ५८०. वह अनन्त क्या है ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा परि- अनन्तकं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा--- अनन्त के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे ...ताणतए जुत्ताणतए अणंताण- परीतानन्तकं युक्तानन्तकम् अनन्ता- परीत अनन्त, युक्त, अनन्त और अनन्तानन्त । नन्तकम् । ५८१. से कि तं परित्ताणतए? परि- अथ कि तत् परीतानन्तकम् ? ५८१. वह परीत अनन्त क्या है ? ताणतए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा परीतानन्तकं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा परीत अनन्त के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, -जहण्णए उक्कोसए अजहण्ण- -जघन्यकम् उत्कर्षकम् अजघन्योत्- जैसे-जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्यमणुक्कोसए॥ कर्षकम् । अनुत्कृष्ट । ५८२. से कि तं जुत्ताणतए ? जुत्ताणं- अथ कि तद् युक्तानन्तकम् ? ५८२. वह युक्त अनन्त क्या है ? तए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- युक्तानन्तकं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - युक्त अनन्त के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे जहष्णए उक्कोसए अजहण्णमणु- जघन्यकम् उत्कर्षकम् अजघन्योत्- - जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्य-अनुत्कृष्ट । क्कोसए॥ कर्षकम् । तए॥ ५८३. से कि तं अणंताणतए? अणं- अथ किं तद् अनन्तानन्तकम् ? ५८३. वह अनन्त-अनन्त क्या है? ताणंतए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-- अनन्तानन्तकं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा अनन्त, अनन्त के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जहण्णए अजहण्णमणुक्कोसए। जघन्यकम् अजघन्योत्कर्षकम् । जैसे जघन्य और अजघन्य-अनुत्कृष्ट । ५८४. जहण्णयं संखेज्जयं केत्तियं जघन्यकं संख्येयकं कियद् भवति? ५८४ जघन्य संख्येय कितना होता है ? होइ ? दोरूवाई। द्विरूपे । ___ दो की संख्या जघन्य संख्येय है। ५८५. तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ततः परम् अजघन्योत्कर्षकाणि ५८५. उसके बाद उत्कृष्ट संख्येय से पहले की ठाणाई जाव उक्कोसयं संखेज्जयं स्थानानि यावद् उत्कर्षकं संख्येयकं न संख्या अजघन्य-अनुत्कृष्ट संख्येय है। न पावई ॥ प्राप्नोति । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ५७६-५८६ ५८६. उक्कोसयं संखेज्जयं केत्तियं उत्कर्षकं संख्येयकं कियद् ५८६. उत्कृष्ट संख्येय कितना होता है ? होइ? उक्कोसयस्स संखेज्जयस्स भवति ? उत्कर्षकस्य संख्येयकस्य उत्कृष्ट संख्येय की प्ररूपणा करूंगा: जैसे परूवणं करिस्सामि : से जहानामए प्ररूपणां करिष्यामि : तद् यथानाम - कोई पल्य [कोठा] एक लाख योजन की पल्ले सिया एग जोयणसयसहस्सं पल्यः स्याद् एकं योजनशत- लम्बाई चौड़ाई वाला है, उसकी परिधि तीन आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि जोयण- सहस्रं आयाम-विष्कम्भेण, त्रीणि लाख, सोलह हजार, दो सौ सताईस योजन, सयसहस्साइं सोलस सहस्साई योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढा तेरह दोणि य सत्तावोसे जोयणसए द्वे च सप्तविंशतिः योजनशते त्रयश्च अंगुल से कुछ अधिक है। वह पल्य सरसों से तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणु- क्रोशा: अष्टाविंशतिः च धनुःशतं भरा हुआ है, उन सरसों से द्वीप और समुद्रों सयं तेरस य अंगुलाई अद्धं अंगुलं त्रयोदश च अमुलानि अर्द्धमङगुलं का उद्धार [परिमाण] जाना जाता है। एक च किचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं च किञ्चिद् विशेषाधिक परिक्षेपेण सरसों द्वीप में और एक समुद्र में फिर एक पण्णत्ते। से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं प्रज्ञप्तम्। स पल्यः सिद्धार्थकैः द्वीप में और एक समुद्र में इस क्रम से उन्हें भरिए । तओ णं तेहि सिद्धत्थरहिं भृतः। ततः तं: सिद्धार्थकैः द्वीप- गिराते जाने से जितने द्वीप और समुद्र उन दीव-समुद्दाणं उद्धारो घेप्पइ । एगे समुद्राणामुद्धारः गृह्यते । एको द्वीपे सरसों के दानों से व्याप्त होते हैं। यह इतने दोवे एगे समुद्दे-एगे दीवे एगे समुद्दे एकः समुद्रेएको द्वीपे एकः समुद्रे एवं प्रमाण वाला क्षेत्र अनवस्थित पल्य [सरसों से एवं पक्खिप्पमाहि-पक्खिप्प- प्रक्षिप्यमाण:-प्रक्षिप्यमाणः यावन्तो भरा हुआ बुद्धि से परिकल्पित किया गया है] माहि जावइया दीव-समुद्दा तेहि द्वीप-समुद्राः तै: सिद्धार्थकः 'अप्फुण्णा', प्रथम श्लाका सरसों का एक दाना [श्लाका सिद्धत्थएहि अप्फुण्णा, एस णं एतद् एतावत् क्षेत्र पल्ये प्रथमा- पल्य में डाला जाता है।] इन शलाकाओं एवइए खेत्ते पल्ले पढमा सलागा। शलाका। एतावतीनां शलाकानाम [सरसों के दानों] से प्रचुर संख्या वाले एवइयाणं सलागाणं असंलप्पा असंलाप्या: लोकाः भृताः तथापि शलाका पल्य आकण्ठ भरे जाएं फिर भी लोगा भरिया तहा वि उक्कोसयं उत्कर्षकं संख्येयकं न प्राप्नोति । उत्कृष्ट संख्येय लब्ध नहीं होता। संखेज्जयं न पाव। जहा को दिळंतो? से जहाना- यथा क: दृष्टान्तः ? तद् यथा- जैसे कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहा मए मंचे सिया आमलगाणं भरिए, नाम मञ्चः स्याद् आमलकानां भृतः, ---इसका दृष्टान्त यह है] जैसे कोई एक तत्थ एगे आमलए पक्खित्ते से तत्र एकम् आमलकं प्रक्षिप्तं तन्मा. मञ्च [मचान] आंवलों से भरा हुआ है। माते, अण्णे वि पक्खित्ते से वि तम, अन्यदपि प्रक्षिप्तं तदपि मातम्, वहां एक आंवला डाला वह समा गया, दूसरा माते, एवं पक्खिप्पमाहि-पक्खि- अन्यदपि प्रक्षिप्तं तदपि मातम, एवं डाला वह भी समा गया, तीसरा डाला वह प्पमाहिं होही से आमलए जम्मि प्रक्षिप्यमाणः-प्रक्षिप्यमाणः भविष्यति भी समा गया, इस प्रकार उन्हें डालते डालते पक्खित्ते से मंचे भरिज्जिहिइ, तद् आमलकं यस्मिन् प्रक्षिप्ते स ऐसा आंवला भी होगा जिसके डालने से होही से आमलए जे तत्थ न मञ्च: भरिष्यति, भविष्यति तद् मञ्च भर जाएगा, उसके बाद वहां आंवला माहिइ॥ आमलकं यत्तत्र न मास्यति । नहीं समाएगा। ५८७. एवामेव उक्कोसए संखेज्जए एवमेव उत्कर्ष के संख्येयके रूपे के रूप रूवं पक्खित्तं जहण्णयं परित्ता- प्रक्षिप्ते जघन्यकं परीतासंख्येयकं संखेज्जयं भवइ॥ भवति ।। ५८७. इसी प्रकार उत्कृष्ट संख्येय में एक का प्रक्षेप । । करने पर जगन्य परीत-असंख्येय होता है। ५८८. तेण परं अजहण्णमणुककोसयाई ततः परम् अजघन्योत्कर्षकाणि ५८८. जघन्य परीत-असंख्येय से आगे उत्कृष्ट ठाणाई जाव उककोसयं परित्ता- स्थानानि यावद् उत्कर्षक परीता- परीत-असंख्येय से पूर्व बीच के सभी स्थान संखेज्जयं न पावइ॥ संख्येयकं न प्राप्नोति ॥ अजघन्य-अनुत्कृष्ट परीत-असंख्येय होते हैं। ५८६. उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं उत्कर्षक परीतासंख्येयकं कियद ५८९. उत्कृष्ट परीत-असंख्येय कितना होता है ? केत्तियं होइ? जहण्णयं परित्ता- भवति ? जघन्यक परीतासंख्येयक जघन्य परीत-असंख्येय को जघन्य परीत Jain Education Intemational Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई संखेज्जयं जहण्णयपरित्तासंखे- जघन्यकपरीतासंख्येयकमात्राणां राशी- असंख्येय प्रमाण राशियों को परम्पर गुणित ज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्ण- नाम् अन्योन्याभ्यास: रूपोन: उत्कर्षक करने पर जो राशि आती है, उससे एक कम भासो रूवणो उक्कोसयं परित्ता- परीतासंख्येयकं भवति । उत्कृष्ट परीत-असंख्येय होता है। संखेज्जयं होइ। अहवा जहएणयं जुत्तासंखेज्जयं अथवा जघन्यकं युक्तासंख्येयक अथवा एक कम जघन्य युक्त-असंख्येय रूवणं उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं ____ रूपोनम् उत्कर्षकं परीतासंख्येयकं उत्कृष्ट परीत- असंख्येय होता है। होइ॥ भवति । ५६०. जहण्णयं जुत्तासंखेज्जयं केत्तियं जघन्यकं युक्तासंख्येयकं कियद् ५९०. जघन्य युक्त-असंख्येय कितना होता है? होइ? जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं भवति ? जघन्यकं परीतासंख्येयक जघन्य परीत-असंख्येय और जघन्य परीतजहण्णपरित्ता संखेज्जयमेत्ताणं जघन्यकपरीतासंख्येयकमात्राणां राशी- असंख्येय प्रमाण राशियों को परस्पर गुणित रासीणं अण्णमणभासो पडिपुण्णो नाम् अन्योन्याभ्यास: प्रतिपूर्ण करने पर जो राशि आती है, वह प्रतिपूर्ण जहण्णयं जुत्तासंखेज्जयं होइ। जघन्यकं युक्तासंख्येयकं भवति । राशि जघन्य युक्त-असंख्येय होता है। अहवा उक्कोसए परित्तासंखेज्जए अथवा उत्कर्षके परीतासंख्येयके अथवा उत्कृष्ट परीत-असंख्येय में एक का रूवं पक्खित्तं जहण्णयं जुत्तासंखे- रूपे प्रक्षिप्ते जघन्यकं युक्तासंख्येयक प्रक्षेप करने पर जघन्य युक्त-असंख्येय होता ज्जयं होइ । आवलिया वि तत्तिया भवति । आवलिकाः अपि तावन्त्यः है। एक आवलिका की समय-राशि भी चेव ॥ चैव । उतनी होती है। ५६१. तेण परं अजहण्णमणक्कोसयाई ततः परम् अजघन्योत्कर्षकाणि ५९१. जघन्य युक्त-असंख्येय से आगे उत्कृष्ट युक्त ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्तासंखे- स्थानानि यावद् उत्कर्षकं युक्ता- असंख्येय से पूर्व बीच के सभी स्थान अजघन्यज्जयं न पावइ॥ संख्येयकं न प्राप्नोति । अनुत्कृष्ट युक्त असंख्येय होते हैं । ५६२. उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं केत्तियं उत्कर्षकं युक्तासंख्येयकं कियद् ५९२. उत्कृष्ट युक्त-असंख्येय कितना होता है ? होइ ? जहण्णएणं जुत्तासंखेज्जएणं भवति ? जघन्यकेन युक्तासंख्येयकेन जघन्य युक्त-असंख्येय को आवलिका से आवलिया गुणिया अण्णमण्ण- आवलिका गुणिता अन्योन्याभ्यास: गुणित करने पर अथवा जघन्य युक्त-असंख्येय सभासो रूवणो उक्कोसयं जुत्ता- रूपोनः उत्कर्षकं युक्तासंख्येयक और जघन्य युक्त-असंख्येय प्रमाण राशियों को संखेज्जयं होइ। भवति। परस्पर गुणित करने पर जो राशि आती है, उससे एक कम उत्कृष्ट युक्त-असंख्येय होता है। अहवा जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयं अथवा जघन्यकम् असंख्येया- अथवा एक कम जघन्य असंख्येय-असंख्येय रूवणं उस्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं संख्येयक रूपोनम् उत्कर्षकं युक्ता- उत्कृष्ट युक्त-असंख्येय होता है। होइ॥ संख्येयकं भवति । ५६३. जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयं जघन्यकम् असंख्येयासंख्येयकं ५९३. जघन्य असंख्येय-असंख्येय कितना होता है ? केत्तियं होइ? जहण्णएणं जुत्ता- कियद् भवति ? जघन्यकेन युक्ता. जघन्य युक्त-असंख्येय को आवलिका से संखेज्जएणं आवलिया गुणिया संख्येयकेन आवलिका गुणिता अन्यो- गुणित करने पर अथवा जघन्य युक्त-असंख्येय अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो न्याभ्यास: प्रतिपूर्णः जघन्यकम् और जघन्य युक्त-असंख्येय प्रमाण राशियों को जण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयं होइ। असंख्येयासंख्येयकं भवति । परस्पर गुणित करने पर जो राशि आती है वह प्रतिपूर्ण राशि जघन्य असंख्येय-असंख्येय होती है। अहवा उक्कोसए जुत्तासंखेज्जए अथवा उत्कर्षके युक्तासंख्येयके अथवा उत्कृष्ट युक्त-असंख्येय में एक का रूवं पक्खितं जहण्णयं असंखेज्जा- रूपे प्रक्षिप्ते जघन्यकम् असंख्येया- प्रक्षेप करने पर जघन्य असंख्येय-असंख्येय संखेज्जयं होइ॥ संख्येयकं भवति । होता है। ५६४. तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ततः परम् अजघन्योत्कर्षकाणि ५९४. जघन्य असंख्येय-असंख्येय से आगे उत्कृष्ट Jain Education Intemational Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्रकरण सूत्र ५६०-६०० ठाणाई जाव उक्कोस असंखेज्जासंजय न पावइ ॥ ५६५. उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं केत्तियं होइ ? जहणणयं असंतेजा संखेज्जयं जहणय असंवेज्जासंस्थेव संखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्ण मण्णभासो रूवणो उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं होइ । जहवा जहणयं परितानंतयं रूवणं उक्कोस असंखेज्जासंखे जयं होइ ॥ ५६. जण परित्ताणंतयं केलियं होइ ? जहष्णवं असंखेज्जासंखे ज्जयं जहण्णय असंवेज्जासंसेजयमेतानं रामीण अण्णमण्णाभासो पडिपुण्णो जहण्णयं परित्ताणंतयं होइ । अहवा उक्कोसए असंखेज्जासंबेज्जए जए एवं पक्तिं जहणयं परि ताणंतयं होइ ॥ ५६७ तेण परं अजहणमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उनकोसवं परित्ताणं तयं न पावइ ॥ ५६८. उक्कोसयं परित्ताणंतयं केत्तियं होइ ? जहणयपरित्ताणंतयमेताणं रासीर्ण अण्णमण्णश्मासो हवणो उक्कोसयं परित्ताणंत होइ । अहवा जहण्णयं जुत्तातयं स्वणं उनकोसयं परितार्णतयं होई ॥ तातयं केत्तियं होइ ? जहणणयं परितातयं जहष्णवपरितार्णतयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णमासो परिपुष्णो जह पण तातयं होइ। अहवा उक्कोसए परित्ताणंतए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं जुत्ताणंतयं होइ । अभवसिद्धिया वि तलिया चैव ॥ ५८. जहणयं स्थानानि यावद् उत्कर्षकम् असंख्येयासंख्येयकं न प्राप्नोति । उत्कर्षकम् असंख्येये कियद् भवति ? अन्यकम् असंख्येयाजघन्यकासंख्येया संख्येयकमात्राणां राशीनाम् अन्योन्याभ्यासः रूपोन: उत्कर्षकम् असंख्येयासंख्येयकं भवति । अथवा जघन्यकं परीतानन्तकं रूयोनम् उत्कर्षकम् असंध्येयासंख्येयकं भवति । जघन्यकं परीतानन्तर्क कियद् भवति ? जघन्यकम् असंख्येयासंख्येयकं जयकासंख्येयासंख्येयकमात्राणां राशीनाम अन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्णः जघन्यकं परीतानन्तक भवति । अथवा उत्कर्ष के असंख्येयासंख्येयके रूपे प्रक्षिप्ते जयपरीतानन्तकं भवति । ततः परम् अजघन्योत्कर्षकाणि स्वानानि यावद् उत्कर्षकं परीतानन्तकं न प्राप्नोति । उत्कर्षकं परीतानन्तर्क कियद् भवति ? जघन्यकं परीतानन्तकं जयन्यरूपरीतानन्तरमात्राणां राशीनाम् अन्योन्याभ्यासः रूपोनः उत्कर्ष कं परीतानन्तकं भवति । अथवा जघन्यकं युतानन्तकं रूपोनम् उत्कर्षक परीतानन्तकं भवति । जघन्यकं तकिय भवति ? जघन्यकं परीतानन्तकं जयम्यकपरीतानन्तकमात्राणां राशीनाम् अन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्ण : जघन्यकं युक्तानन्तकं भवति । अथवा उत्कर्ष के परीतानन्तके रूपे प्रक्षिप्ते जघन्यकं युक्तानन्तकं भवति । अथवसिद्धिकाः अपि तावन्तः चैव । ३१३ असंख्येय असंख्येय से पूर्व बीच के सभी स्थान अजघन्य -- अनुत्कृष्ट असंख्येय असंख्येय होते हैं । ५९५. उत्कृष्ट असंख्येय- असंख्येय कितना होता है ? जघन्य असंख्येय असंख्येय और जघन्य असंख्येय असंख्येय प्रमाण राशियों को परस्पर गुणित करने पर जो राशि आती है, उससे एक कम उत्कृष्ट असंख्येय असंख्येय होता है । अथवा एक कम जघन्य परीत-अनन्त उत्कृष्ट असंख्येय असंख्येय होता है।" ५९६. जघन्य परीत-अनन्त कितना होता है ? जघन्य असंख्येय असंख्येय और जघन्य असंख्येय असंख्येय प्रमाण मात्र राशियों को परस्पर गुणित करने पर जो राशि आती है, यह प्रतिपूर्ण राशि जपन्यपरीत अनन्त होती है । अथवा उत्कृष्ट असंख्येय असंख्येय में एक का प्रक्षेप करने पर जघन्य परीत- अनन्त होता है। ५९७. जघन्य परीत-अनन्त से आगे उत्कृष्ट परीतअनन्त से पूर्व बीच के सभी स्थान अजघन्यअनुत्कृष्ट परीत- अनन्त होते हैं । ५९८. उत्कृष्ट परीत- अनन्त कितना होता है ? जघन्य परीत- अनन्त और जघन्य परीतअनन्त प्रमाण राशियों को परस्पर गुणित करने पर जो संख्या आती है, उससे एक कम उत्कृष्ट परीत- अनन्त होता है । अथवा एक कम जघन्य युक्त-अनन्त उत्कृष्ट परीत अनन्त होता है । ५९९. जघन्य युक्त अनन्त कितना होता है ? जघन्य परीत - अनन्त और जघन्य परीतअनन्त प्रमाण राशियों को परस्पर गुणित करने पर जो राशि आती है वह प्रतिपूर्ण राि जघन्य युक्त-अनन्त होती है । अथवा उत्कृष्ट परीत- अनन्त में एक का प्रक्षेप करने पर जघन्य युक्त-अनन्त होता है । अभयसिद्धिक जीव भी उतने ही होते हैं। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ६००. तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्ताणंतयं न पावइ || ६०१. उक्कोसयं जुत्ताणंतयं केत्तियं होइ ? जहण्णएणं जुत्ताणंतपणं अभवसिद्धिया गुणिया अण्णमण्णभासो रुवणो उक्कोस जुत्ताणंतयं होइ । अहवा जहणयं अनंताणंतयं स्वर्ण उनकोसयं जुत्ताणंतयं होइ ॥ ६०२. जहुरणयं अनंतानंतयं केलियं होइ ? जहणयं जुत्ताणंतएणं अमवसिद्धिया गुणिया अण्णमण्णभासो पsिपुण्णो जहण्णयं अणंताणंतयं होइ । अहवा उक्कोसए जुत्ताणंतए रूवं पखितं जहणणयं अनंताणंत होइ ॥ ६०३. ते परं अजहरणमगुक्कोसयाई ठाणाई से तं गणणाखा ॥ 1 ६०४. से कि तं भावसंखा ? भावसंखा -जे इमे जोवा संखगइनामगोत्ताइं कम्माई वेदेति । से तं भावसंखा । से सं संयम से तं भावप्य माणे से तं पमाणे ॥ ( पमाणे ति पर्व समतं ) ॥ ततः परम् अजघन्योत्कर्षकाणि स्थानानि यावद् उत्कर्षकं युक्तानन्तकं न प्राप्नोति । उत्कर्ष युस्कानन्तर्क कियद भवति ? जघन्यकेन युक्तानन्तकेन अवसिद्धिका गुणिताः अन्योन्याभ्यासः रूपोन: उत्कर्षकं युक्तानन्तकं भवति । अथवा जघन्यकम् अनन्तानन्तकं रूपोनम् उत्कर्ष कं युक्तानन्तकं भवति । जयपथम् अनन्तानन्तर्क भवति ? जयम्यकेन युक्तान्तकेन अभवसिद्धिकाः गुणिताः अन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्ण : जघन्यकम् अनन्तानन्तकं भवति । अथवा उत्कर्ष युक्तान् रूपे प्रक्षिप्ते जधन्यकम् अनन्तानन्तकं भवति । ततः परम् अजघन्योत्कर्षकाणि स्थानानि । सा एषा गणनासंख्या । अथ किं ते भावशंखा: ? भावशंखाः ये इमे जीवाः शंखगतिनामगोत्राणि कर्माणि वेदयन्ति । ते एते भावाः। तदेतत संख्यामाम् । तदेतद् भावप्रमाणम् । तदेतत् प्रमाणम् । (प्रमाणमिति परं समाप्तम्) । अणुओगदाराई ६००. जघन्य युक्त अनन्त से आगे उत्कृष्ट युक्त-अनन्त से पूर्व बीच के सभी स्थान अजघन्यअनुत्कृष्ट युक्त होते हैं। ६०१. उत्कृष्ट युक्त-अनन्त कितना होता है ? जघन्य युक्त-अनन्त को अभवसिद्धिक जीवों की संख्या से गुणित करने पर अथवा जघन्य युक्त - अनन्त और जघन्य युक्त-अनन्त प्रमाण राशियों को परस्पर गुणित करने पर जो संख्या आती है, उससे एक कम उत्कृष्ट युक्त-अनन्त होता है । अथवा एक कम जघन्य अनन्त - अनन्त उत्कृष्ट युक्त-अनन्त होता है । ६०२. जघन्य अनन्त-अनन्त कितना होता है ? जघन्य युक्त-अनन्त से अभवसिद्धिक जीवों को गुणित करने पर अथवा जघन्य युक्त-अनन्त और जघन्य युक्त-अनन्त प्रमाण राशियों को परस्पर गुणित करने पर जो राशि आती है वह प्रतिपूर्ण राशि जघन्य अनन्त - अनन्त होती है। अथवा उत्कृष्ट युक्त-अनन्त में एक का प्रक्षेप करने पर जघन्य अनन्त अनन्त होता है। ६०३. जघन्य अनन्त अनन्त से आगे सभी स्थान अजघन्य - अनुत्कृष्ट अनन्त अनन्त होते हैं । वह गणना संख्या है।" ६०४. वह भाव शंख क्या हैं ? जो जीव शंख गति नाम गोत्र कर्म का वेदन करते हैं। वह भाव शंख हैं। वह संख्या प्रमाण है । वह भाव प्रमाण है । वह प्रमाण है । ( प्रमाण-पद समाप्त) । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र ५०६ १. (सूत्र ५०६) भाव का शब्दार्थ है होना इसका तात्पयार्थ है— वस्तु का परिणाम अथवा परिणमन । जिससे वस्तु का मान किया जाता है वह है - प्रमाण । भाव से वस्तु की प्रमिति की जाती है इसलिए भाव को प्रमाण कहा गया है । गुण प्रमाण द्रव्य की प्रमिति गुण से होती है इसलिए गुण को प्रमाण कहा जाता है। तीन नाम के सूत्र '२५५' में गुण और पर्याय का पृथक् उल्लेख है । प्रस्तुत सूत्र में पर्याय का उल्लेख नहीं है। आगम युग में द्रव्य और पर्याय ये दो नाम ही उपलब्ध हैं । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के ये दो विभाग हैं। गुणार्थिक जैसा कोई विभाग नहीं है। नय प्रमाण दार्शनिक युग में नय को प्रमाणांश माना गया। इस अवधारणा के अनुसार सकलादेश प्रमाण होता है। नय विकलादेश है। इसलिए वह प्रमाण नहीं प्रमाणांश है । अनुयोगद्वार का प्रतिपादन प्रमाण और प्रमाणांश व्यवस्था से पूर्ववर्ती है इसलिए यहां नय प्रमाण रूप में स्वीकृत है । संख्या प्रमाण संख्या प्रमाण का हेतु है इसलिए इसे प्रमाण की कोटि में रखा गया है ।" ५०७ से ५५३ । ५५४ से ५५७ । १. गुण प्रमाण के लिए द्रष्टव्य सूत्र २. नय प्रमाण के लिए द्रष्टव्य सूत्र ३. संख्या प्रमाण के लिए द्रष्टव्य सूत्र ५५८ से ६०४ । सूत्र ५१५-५५१ २. (सूत्र ५१५ - ५५१) आर्यरक्षित ने ज्ञानगुण प्रमाण के चार प्रकार बतलाए हैं। प्राचीन आगम साहित्य में प्रमाण का कोई वर्गीकरण नहीं है । नंदी में प्रमाण का वर्गीकरण उपलब्ध है, किन्तु वह अनुयोगद्वार से उत्तरकालीन है। आगम युग में पञ्चविध ज्ञान को ही प्रमाण माना जाता था । अनेकान्त और स्याद्वाद के लिए नयवाद का प्रयोग होता था। दार्शनिक युग में प्रमाण व्यवस्था की अपेक्षा अनुभव हुई । इस अपेक्षा की पूर्ति के लिए उमास्वाति ने ज्ञान और प्रमाण को पृथक् रूप में प्रतिष्ठित किया। तथा प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो विभाग बतलाए । सिद्धसेन ने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष इस विभाग परम्परा का अनुकरण किया है। इनके अनुसार अनुमान और आगम परोक्ष प्रमाण के ही भेद हैं । नंदी सूत्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो विभाग मिलते हैं ।" दार्शनिक युग में इस विभागद्वय का ही अनुसरण हुआ है। दर्शनयुग के आचार्यों ने अनुमान को परोक्ष के अन्तर्गत माना है। उपमान को प्रत्यभिज्ञा से स्वतंत्र स्वीकार नहीं किया तथा उपमान प्रमाण का निरसन भी किया है। प्रमाण चतुष्टयी पर पण्डित सुखलाल सिंघवी व दलसुखभाई मालवणिया ने विस्तार से विचार किया है ।" आरक्षित ने अनुयोगद्वार में न्यायदर्शन सम्मत प्रमाण चतुष्टयी को स्थान दिया है किन्तु उसका स्वरूप न्यायदर्शन से सर्वथा भिन्न है । देखें यंत्र - १. अहावू. पृ. ९९ : नीतयो नया: अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्तियः तद्विषया वा ते एवं प्रमाणं प्रमाणं । , २. ही संख्या [सेच प्रमाणहेतुत्वात्संवेदनापेक्षया स्वतस्तदात्मकत्वाच्च प्रमाणं संख्याप्रमाणं । ३. तसू. १।१०। ४. न्या. ४ । ५. नसुनं. ४ । २. (क) प्रमी. (भाटि) पू. १९ (ख) आयुर्ज. १३६ - १६५। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ प्राचीन न्याय | निर्विकल्प नव्य न्याय लौकिक I इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष 1 पूर्ववत् श्रोत्रेन्द्रिय प्र चक्षुरिन्द्रियप्र. घ्राणेन्द्रिय प्र. रसनेन्द्रिय प्र. स्पर्शनेन्द्रिय प्र. प्रत्यक्ष 1 सामान्य लक्षण सविकल्प कार्येण I अलौकिक I ज्ञान लक्षण नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष कारणेन गुणेन I साधर्म्यापनीत 1 किञ्चित् साधयपनीत प्रायः साधर्म्यापनीत न्यायदर्शनीय प्रमाण व्यवस्था शेषवत् अवधिज्ञान मनः पर्यवज्ञान केवलज्ञान 1 अनुमान प्रमाण 1 पूर्ववत् I अवयवेन अनुमान योगज अनुयोगद्वारगत प्रमाण व्यवस्था शेषवत् प्रमाण दृष्टार्थं शब्द आश्रयेण | शब्द 1 1 औपम्य 1 लौकिक अणुओगवाराई उपमान सामान्यदृष्ट सामान्यतोदृष्ट T अदृष्टार्थशब्द आगम 1 | दृष्टसाधर्म्यवत् 1 लोकोत्तर | विशेषदृष्ट | वैधर्म्यापनीत I 1 | सर्व साधर्म्यपनीत किञ्चित् वैधर्म्यापनीत प्रायः वैधर्म्यापनीत सर्व वैधम्र्योपनीत Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ११, सू० ५१५-५५१, टि० २ ३१७ प्रत्यक्ष प्रमाण न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष के दो प्रकार किए गए हैं१. निर्विकल्प प्रत्यक्ष-(Indeterminate perception)। २. सविकल्प प्रत्यक्ष--(Determinate perception)। गौतम के न्याय सूत्र में ये दो विभाग उपलब्ध नहीं हैं। वात्स्यायन भाष्य में भी नहीं है। सर्वप्रथम वाचस्पति मिश्र की न्यायवार्तिक टीका में इनका उल्लेख मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि प्राचीन न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष का कोई विभाग नहीं था। आर्य रक्षित ने प्रत्यक्ष के दो विभाग किए१. इन्द्रिय प्रत्यक्ष २. नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष । नव्य न्याय में भी इसके स्थान पर लौकिक प्रत्यक्ष (Normal perception) व अलौकिक प्रत्यक्ष (Supernatural perception) यह विभाग मिलता है । इस पर आर्यरक्षित का प्रभाव परिलक्षित होता है। वैशेषिक दर्शन में भी प्रत्यक्ष केवल इन्द्रियज्ञान तक सीमित है। गंगेश उपाध्याय ने अलौकिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत योगज प्रत्यक्ष को स्वीकार किया है। अनुमान प्रमाण-- ___अनुमान की व्याख्या में कई दार्शनिकों का मतभेद है। प्रस्तुत आगमकार आर्यरक्षित की परम्परा आधुनिक परम्परा से भिन्न है। इस आगम के अतिरिक्त अन्य किसी जैन आगम में अनुमान के संबंध में इतनी विस्तृत चर्चा उपलब्ध नहीं होती। यहां इसके तीन भेद स्वीकार किए गए हैं १. पूर्ववत् २. शेषवत् ३. दृष्टसाधर्म्यवत् ।। १. पूर्ववत् अनुमान-पूर्व परिचित किसी लिंग के द्वारा वस्तु का प्रत्यभिज्ञान करना पूर्ववत् अनुमान है।' पूर्ववत् अनुमान की यह परिभाषा इसे प्रत्यभिज्ञा के निकट ले जाती है। संभव है प्राचीन युग में प्रत्यभिज्ञा को ही अनुमान कहा गया हो। उपायहृदय नामक बौद्ध ग्रन्थ में भी पूर्ववत् अनुमान की परिभाषा इसी प्रकार की गई है। जिस समय नैयायिक दार्शनिकों ने अनुमान और प्रत्यभिज्ञा में भेद रेखा खींची उस समय उन्हें अनुमान की परिभाषा में भी परिवर्तन करना आवश्यक प्रतीत हुआ । इसलिए अर्वाचीन ग्रन्थों में पूर्ववत् अनुमान की जो परिभाषा है वह अनुयोगद्वार से भिन्न प्रकट की है। पूर्ववत् अनुमान के इस अर्थभेद का मुख्य कारण है पूर्ववत् शब्द की व्युत्पत्ति का भेद । यह शब्द दो प्रकार से व्युत्पन्न होता है । वत् सदृशार्थक प्रत्यय है इसका अर्थ है-पूर्व जैसा । प्रत्यभिज्ञा इन्द्रियप्रत्यक्ष व पूर्व अर्थ की स्मृति से होती है अतः उक्त परिभाषा में समानार्थक वत् प्रत्यय का ग्रहण मानना चाहिए। दूसरे प्रकार में मत्वर्थीय वतु प्रत्यय के योग से पूर्ववत् शब्द निष्पन्न होता है इसका अर्थ है पूर्ववान् । प. दलसुखभाई मालवणिया ने इस विषय पर काफी विचार किया है। कुछ दार्शनिकों ने कारण से कार्य के अनुमान को और कुछ ने कार्य से कारण के अनुमान को पूर्ववत् माना है, यह उनके दिए हुए उदाहरणों से प्रतीत होता है। मेघोन्नति से वृष्टि का अनुमान करना, यह कारण से कार्य का अनुमान है। इसे पूर्ववत् का उदाहरण मानने वाले माठर, वात्स्यायन और गौडपाद हैं। अनुयोगद्वार सूत्र के मत से कारण से कार्य का अनुमान शेषवत् अनुमान का एक प्रकार है। किन्तु प्रस्तुत उदाहरण का समावेश शेषवत् के 'आश्रयेण' भेद के अन्तर्गत है। नैयायिकों के अनुसार पूर्ववत् और शेषवत् की परिभाषा इस प्रकार है १. पूर्ववत् अनुमान पूर्व अर्थात् कारण से कार्य का अनुमान करना पूर्ववत् अनुमान है, जैसे-मेघ-घटा को देखकर वर्षा का अनुमान करना। २. शेषवत् अनुमान–शेष अर्थात् कार्य को देखकर कारण का अनुमान करना शेषवत् अनुमान है, जैसे-उफनती हुई नदी को देखकर वर्षा के होने का अनुमान करना । १. (क) अचू. पृ. ७५ : पूर्वोपलब्धेनैव लिगेण नाणकरणं । २. आयुज. पृ. १४९ । (ख) अहाव. पृ. १००। ३. वही। (ग) अमवृ. प. १९६ । Jain Education Intemational Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ अणुओगदाराई अनुयोगद्वार में कारण, कार्य, गुण, अवयव और आश्रय आदि से होने वाले अनुमान को शेषवत् अनुमान के रूप में स्वीकार किया गया है । पं० दलसुखभाई मालवणिया ने शेषवत् का अध्ययन इस प्रकार प्रस्तुत किया है-उपायहृदय में शेषवत् का उदाहरण दिया गया है। शेषवत् यथा : "सागर सलिलं पीत्वा तल्लवणरसमनुभूय शेषमपि सलिलं तुल्यमेव लवणमिति"-अवयव के ज्ञान से संपूर्ण अवयवी का ज्ञान शेषवत् है, यह उपायहृदय का मत है। माठर और गौडपाद का भी यही मत है । उनका उदाहरण भी वही है जो 'उपायहृदय' में है। Tring-mu (पिङ्गल) का भी शेषवत् के विषय में यही मत है। किन्तु उसका उदाहरण उसी प्रकार का दूसरा है कि एक चावल के दाने को पका हुआ देखकर सभी को पक्व समझना । ___अनुयोगद्वार में शेषवत् के पांच भेदों में से चतुर्थ 'अवयवेन' के अनेक उदाहरणों में उपायहृदय निर्दिष्ट उदाहरण का स्थान नहीं है। किन्तु पिङ्गल-सम्मत उदाहरण का स्थान है। न्यायभाष्यकार ने कार्य से कारण के अनुमान को शेषवत् कहा है और उसके उदाहरणरूप में नदीपुर से वृष्टि के अनुमान को बताया है। माठर के मत से तो यह पूर्ववत् अनुमान है । अनुयोगद्वार में 'कार्येण' ऐसा एक भेद शेषवत् का माना गया है। ___ मतान्तर से न्याय भाष्य में परिशेषानुमान को शेषवत् कहा गया है ऐसा माठर आदि किसी अन्य ने नहीं कहा। स्पष्ट है कि यह कोई भिन्न परम्परा है। अनुयोगद्वार में शेषवत् के जो पांच भेद बताए गए हैं, उनका मूल क्या है, यह कहा नहीं जा सकता।' ३. दृष्टसाधर्म्यवत्-प्रस्तुत आगम में दृष्टसाधर्म्यवत् के दो भेद किए गए हैं-सामान्यदृष्ट और विशेषदृष्ट । दृष्टसाधर्म्यवत् का अर्थ और निदर्शन इस प्रकार है-पूर्वदृष्ट पदार्थ की समानधर्मिता के आधार पर ज्ञातव्य पदार्थ का अनुमान करना। सामान्यदृष्ट दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान है, जैसे- पूर्वदृष्ट एक रूपये के सिक्के के आधार पर उस प्रकार के दूसरे सिक्कों को देखकर एक रूपये का अनुमान करना। विशेषदृष्ट दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान अनेक वस्तुओं में से किसी पूर्वदृष्ट वस्तु के वैशिष्ट्य का प्रत्यभिज्ञान कर उसे पृथक् रूप से स्थापित करता है, जैसे-यह वही पुरुष है, यह वही सिक्का है आदि। इनके आधार पर भी यह ज्ञात होता है कि प्राचीन समय में प्रत्यभिज्ञान आदि को अनुमान के रूप में स्वीकृति प्राप्त थी। अनुयोगद्वार में उक्त दो भेद उपमान और प्रत्यभिज्ञान से भिन्न नहीं हैं। न्याय दर्शन में दृष्टसाधर्म्यवत् के स्थान पर सामान्यतोदृष्ट नाम प्राप्त होता है। जिस पदार्थ को जानने के लिए सामान्य ज्ञान अथवा व्याप्ति के बल पर अनुमान किया जाता है वह सामान्यतोदृष्ट है, जैसे सूर्य चन्द्रमा आदि की गति का ज्ञान सामान्य पुरुष की गति के द्वारा अनुमानित किया जाता है । इच्छा आदि के द्वारा आत्मा का अनुमान किया जाता है। अनुयोगद्वार, माठर और गौडपाद ने सिद्धान्तत: सामान्यतोदृष्ट का लक्षण एक ही प्रकार का माना है, भले ही उदाहरणभेद हो । माठर और गौडपाद ने उदाहरण दिया है कि "पुष्पिताम्रदर्शनात्, अन्यत्र पुष्पिता आम्रा" इति । यही भाव अनुयोगद्वार का भी है, जब शास्त्रकार ने कहा कि "जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा" आदि ।' उपमान प्रमाण सादृश्य और वैसाश्य के आधार पर किया जाने वाला ज्ञान, प्रसिद्ध वस्तु के साधर्म्य अथवा वैधर्म्य के आधार पर अप्रसिद्ध वस्तु का ज्ञान । आगम प्रमाण आगम-आप्तवचन । न्याय दर्शन में आप्त के उपदेश को शब्द प्रमाण माना गया है। शब्द प्रमाण के दो भेद किये गए हैं१. दृष्टार्थ शब्द-जो इस लोक में प्रत्यक्ष दिखाई देता है वह दृष्टार्थ शब्द है। २. अदृष्टार्थ शब्द-जो अर्थ पारलौकिक विषय से संबंध रखता है वह अदृष्टार्थ शब्द है। आर्यरक्षित ने आगम का वर्गीकरण भिन्न प्रकार से किया है। उसके तीन वर्गीकरण हैंपहला वर्गीकरण १. लौकिक आगम २. लोकोत्तर आगम । दूसरा वर्गीकरण १. सूत्रागम २. अर्थागम ३. तदुभयागम । १. आयुज. पृ. १५३ । ३. न्यासू. १।१७ : आप्तोपदेशः शब्दः । २. वही, पृ. १५५। Jain Education Intemational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ प्र० ११, सू० ५१५-५५१, टि० २ तीसरा वर्गीकरण १. आत्मागम २. अनन्तरागम ३. परम्परागम । शब्द विमर्श सूत्र ५४२ ___ सर्वसाधर्म्य-अर्हत् ने अर्हत् जैसा कार्य किया। तीर्थ प्रवर्तन आदि उत्कृष्टतम कार्य अर्हत् ही कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं कर सकते। इसलिए अर्हत् को अर्हत् से ही उपमित किया जाता है।' सूत्र ५४४ शाबलेय-चितकबरी गाय का बछड़ा।' बाहुलेय-काली गाय का बछडा ।' सूत्र ५४५ प्रायःवैधर्म्य वायस-पायस-वायस 'कौवा' काला होता है, पायस 'खीर' सफेद होती है। वायस सचेतन है, पायस अचेतन है। इन दोनों में अनेक धर्मों की अपेक्षा से विसंवाद होने पर भी दोनों शब्दों में अक्षर-नामगत दो वर्णों की समानता है और अस्तित्व की दृष्टि से साम्य है अतः यह प्राय:वैधयं का दृष्टान्त है।' सर्ववैधर्म्य-नीच ने नीच जैसा कार्य किया यह सर्वर्वधर्म्य का दृष्टान्त है पर इसमें प्रतीति सर्वसाधर्म्य को होती है। सर्ववैधर्म्य के उदाहरण में इसका प्रयोग विशेष अर्थव्यंजना का संकेत करता है। वह व्यंजना इस प्रकार है-नीच व्यक्ति जैसा महापाप नहीं कर सकता वैसा इसने किया है। अथवा अतीत में किसी नीच ने जैसा कार्य नहीं किया वैसा इसने किया है। अब तक हुई सभी प्रवृत्तियों से विलक्षण होने के कारण यह सर्ववैधर्म्य है। यहां वैधर्म्य का अर्थ वैलक्षण्य है। सूत्र ५५० तदुभयागम-जिसमें सूत्र और व्याख्या दोनों एक साथ संकलित हो वह तदुभयागम है। आगमों में ऐसे अनेक स्थल प्राप्त हैं । निदर्शन रूप में 'आयार चूला' (१५।१४) का निम्न निर्दिष्ट पाठ प्रस्तुत किया जा सकता है "तओ णं समणे भगवं महावीरे पंचधातिपरिवुडे" यह सूत्रागम है। इसकी व्याख्या यह है-तं जहा-खीरधाईए, मज्जणधाईए, मंडावणधाईए, अंकधाईए"सूत्र संक्षिप्त होता है। व्याख्या में उसका विस्तार होता है। सूत्र ५५१ आत्मागम, अनन्तरागम, परम्परागम-गुरु के उपदेश बिना स्वतः प्राप्त आगम आत्मागम कहलाता है। तीर्थकर आगमों के अर्थ के उत्स हैं -अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । तीर्थंकर अर्थ का प्रतिपादन करते हैं। तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित अर्थागम को गणधर सूत्र में ग्रथित करते हैं इसलिए तीर्थंकरों के लिए अर्थागम आत्मागम है। गणधरों के लिए सूत्रागम आत्मागम है और अर्थागम अनन्तरागम है। अनन्तर अर्थात् अव्यवहित रूप से प्राप्त । गणधर तीर्थंकरों से बिना किसी व्यवधान के अर्थागम प्राप्त करते हैं। गणधरों के शिष्य सूत्रागम की प्राप्ति अव्यवहित रूप से करते हैं, अत: वह उनके अनन्तरागम और अर्थागम परम्परागम है। उनके बाद सब मुनियों के सूत्रागम और अर्थागम दोनों ही परम्परागम होते हैं। १. अहावृ. पृ. १०२ : अहंता अर्हता सदृशं तीर्थप्रवर्तनादि कृतमित्यादि स एव तेनोपमीयये। २. अमवृ. प. २०१ : शबलाया गोरपत्यं शाबलेयो। ३. वही, बाहुलाया अपत्यं बाहुलेयो। ४. (क) अचू. पृ. ७५ । (ख) अहाव. पृ.१०२ । (ग) अमवृ. प. २०१॥ ५. आनि. १९२। Jain Education Intemational Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ३. ( सूत्र ५५३ ) चारित्र गुण प्रमाण कर्मक्षय के लिए की जाने वाली चेष्टा का नाम है चारित्र ।" सामायिक चारित्र - वास्तव में चारित्र सामायिक ही है । कुछ विशिष्ट प्रयोग तथा विकास की विशिष्ट भूमिका के आधार पर चारित्र के पांच प्रकार किए गए हैं।' सूत्र ५५३ हरिभद्रसूरि ने चारित्र-विभाग के दो कारण बतलाए हैं--अर्थ व संज्ञाकरण सामायिक चारित्र में सावद्य योग की विरति है । वह प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के समय अल्पकालिक (इत्वरिक) होता है। शेष तीर्थंकरों के समय जीवन पर्यन्त ( यावत्कथिक ) होता है।' छेदोपस्थापनीय चारित्र पूर्व पर्याय को छेदकर महाव्रतों में उपस्थापित करना छेदोपस्थापनीय चारित्र है। परिहारविशुद्धि चारित्र - परिहार-तप अथवा साधना का विशेष प्रयोग है । यह अठारह मास का प्रयोग है। इसे नौ साधु मिलकर करते हैं। प्रयोग की सम्पन्नता पर उनके सामने तीन विकल्प रहते हैं १. पुनः परिहारविशुद्धि का स्वीकार । २. जिनकल्पता का स्वीकार । ३. गण में प्रवेश | " स्थितकल्प के अनुसार यह प्रयोग पुरुषयुग (सुधर्मा और जम्बू) तक चला । ४. ( सूत्र ५५४-५५७ ) नय सूक्ष्मसम्पराय चारित्र - सामायिक विकास की वह भूमिका है जहां लोभ का अंश शेष रहता है, सूक्ष्मसम्पराय चारित्र कहलाता है। श्रेणी का आरोहण करते समय विशुद्धमान और औपशमिक श्रेणी से अवरोहण करते समय यह संविश्यमान होता है।" यथाख्यात चारित्र — वीतराग चारित्र । अणुओगदराई १. अहावृ. पृ. १०३ : चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं क्षयोपशमरूपं तस्य भावश्चारित्रं, अशेषकर्मक्षपाय चेष्टा इत्यर्थः । २. वही, सर्वमप्येतदविशेषतः सामायिकमेव सत् छेदादिविशेषविशेष्यमाणमर्थतः संज्ञातश्च नानात्वं लभते । ३. (क) अहावृ. पृ. १०३,१०४ : तत्र सावद्ययोगविरतिमात्रं सामायिकं तच्चेश्वरं यावत्कथितं च तत्र स्वल्पकालमिरवरं, तदाचचरमासीयोरेवानारोपितव्रतस्य शैक्षकस्य यावत्कथाssत्मनः तावत्कालं यावत्कथं, जावजीवमित्यर्थः यावत्कथमेव तम्मध्यमासीर्थेषु विदेहवासन पेति । सूत्र ५५४-५५७ नय प्रमाण - अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करने वाले और अन्य धर्मों का निराकरण न करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा जाता है । द्रव्य में जितने धर्म, चिन्तन और अभिव्यक्ति के जितने प्रकार हैं उतने ही नय हैं। चिन्तन के विषयभूत धर्म अनन्त हैं अतः नय भी अनन्त हैं। मुख्य वर्गीकरण की अपेक्षा वे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो वर्गों में समाहित हो जाते हैं। अभेद को प्रधानता देनेवाला नय द्रव्यार्थिक और भेद को प्रधानता देने वाला नय पर्यायार्थिक कहलाता है । द्रव्यार्थिक जय के तीन भेद है १ नंगम २ संग्रह ३. व्यवहार । , (ख) अमवृ. प. २०५ । ४. महा. पृ. १०४ पूर्वपर्यावस्थ छेदो महाव्रतेषु चोपस्थापनमात्मनः तच्छेदोपस्थापनमुच्यते । ५. वही, कल्पपरिसमाप्तीच यी गतिरेषा भूपस्तमेव कल्पं प्रतिपद्येरन् जिनकल्पं वा गणं वा प्रतिगच्छेयुः । ६. वही, स्थितकल्पे चैते पुरुषयुगद्वयं भवेयुनेंतरत्रेति । ७. अहावृ. पृ. १०४, १०५ । ८. प्रन. ७।११ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ११, ० ५५३-५५७, टि० ३,४ पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं १. ऋजुसूत्र २. शब्द ३. समभिरूढ ४ एवंभूत । इस प्रकार नय सात होते हैं ।" प्रमाण का विषय है- अनन्तधर्मात्मक अखण्ड वस्तु और अप्रमाण है, किन्तु प्रमाणांश है ।' उत्तरवर्ती दार्शनिक ग्रन्थों में नय को प्रमाण नहीं माना गया। नय का विषय है उसका एक धर्मं । इस दृष्टि से नय न प्रमाण है और न प्रस्तुत आगम में प्रमाण का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है और आर्य रक्षित के काल में नय के प्रमाणांश होने का सिद्धान्त स्थापित नहीं हुआ था । नय प्रमाण को समझाने के लिए सूत्रकार ने तीन दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं १. प्रस्थक दृष्टान्त २. वसति दृष्टान्त ३. प्रदेश दृष्टान्त । आगम साहित्य में ये दृष्टान्त केवल प्रस्तुत आगम में ही मिलते हैं । कषायपाहुड़ में ऋजुसूत्र नय के प्रकरण में प्रस्थक के दृष्टान्त का उल्लेख हुआ है तथा शब्दनय की विचारणा में भी प्रस्थक का उल्लेख किया गया है। जिनभद्रगणी ने नैगमनय के प्रकारों की व्याख्या में निलयन, प्रस्थक और ग्राम इन तीन दृष्टान्तों का प्रयोग किया है।* विद्यानन्द स्वामी ने प्रस्थ के संकल्प को नैगमनय का विषय बताया है । " माइल्लधवल ने अप्रस्थ को प्रस्थ कहने वाले को भावी नैगमनय का विषय बतलाया है । " जैसे कोई पुरुष कुठार लेकर वन की ओर जाता है, उससे कोई पूछता है आप किसलिए जाते हैं ? वह उत्तर देता है-प्रस्थ लेने जाता हूं। पुराने समय में अनाज मापने के लिए लकड़ी का एक पात्र होता था, उसे प्रस्थ कहते थे । वन से लकड़ी काटकर उसका प्रस्थ बनवाने का उसका संकल्प है, जो प्रस्थ अभी बना ही नहीं है उसमें प्रस्थ का व्यवहार करके वह कहता है कि मैं प्रस्थ लेने जा रहा हूं । इस प्रकार का वचन व्यवहार भावी नैगमनय का विषय है । ६ गमनय की दृष्टि से प्रस्थक पर विचार करते समय सूत्रकार ने गमनय के तीन प्रकारों अविशुद्ध विशुद्ध और विशुद्धतर का उल्लेख किया है | आगम साहित्य में अन्यत्र इसका उल्लेख नहीं मिलता। विद्यानन्द स्वामी ने नंगमनय के शुद्ध और अशुद्ध प्रकारों की व्याख्या की है। नयचक्र : आलापपद्धति और द्रव्यानुयोगतर्कणा में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के शुद्ध, अशुद्ध विभाग बतलाए गए हैं। " प्रस्थक दृष्टान्त नंगमनय कोई व्यक्ति प्रस्थक निर्माण हेतु काष्ठ लाने के लिए जंगल में जाता है। काष्ठ कारण है और प्रस्थक कार्य है । कारण में कार्य का उपचार करने से वह कहता है – मैं प्रस्थक के लिए जाता हूं यह अविशुद्ध नैगमनय है । काष्ठ काटते समय 'मैं प्रस्थक काट रहा हूं।' यह निरूपण विशुद्ध नैगमनय का है। यहां भी कारण में कार्य का उपचार है उक्त नैगमनय में गमन क्रिया और प्रस्थक में अति व्यवधान है। इसलिए उसे अविशुद्ध माना गया है। काष्ठ-कर्तन और प्रस्थक में 'कुछ निकटता है इसलिए इसे विशुद्ध नय माना गया है। काष्ठ को तरासना, उकेरना और प्रमार्जित करना प्रस्थक निर्माण क्रिया के ही अंग हैं। इन क्रियाभों से प्रस्थक का अति नैकट्य होने के कारण विशुद्धतर नय की दृष्टि से प्रतिपादित किया गया है । विशुद्ध नैगमनय के अनुसार एक व्यक्ति प्रस्थक हेतु काष्ठ लाने के लिए जंगल में जाता है और वह कहता है मैं प्रस्थक १. नसुअ. ७१५ । २. नच. परि. २ पृ. २३१ : नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्पात्प्रमाणकदेशस्तु सर्ववायविरोधः ॥ ३. कपा. पृ. २२४ । ४. विभा २१८७,२१८८ लोनिया वा निगमा तेसो भयो वा अहवा जं नेगगमोडणेगपहो णेगमो तेणं ॥ सो वयुद्धमे लोग सिद्धिसओ गंतव्यो । बिडिगा निलयण पत्यय-गामोन्मादसिद्धो ॥ ३२१ ५. तश्लोवा. ४, श्लो. १८, १९ : संकल्पो निगमस्तत्र भवोयं तत्प्रयोजनः । तथा प्रस्थादिसंकल्पः तदभिप्राय इष्यते ॥ नन्वयं भाविनी संज्ञां समाश्रित्योपचर्यते । अप्रस्थादिषु तद्भारतं ॥ ६. नच. २०५ । ७. तश्लोवा. ४, श्लो. ३७-४८ । ८. (क) नच. १९० - २०४ । (ख) नय. (आलापपद्धति) पू. २१४, २१५ । (ग) व्रत. ५०९ - १९, ६।२-९ । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ अणुओगदाराई लाने जा रहा हूं वह काठ को छेद रहा है और कहता है-मैं प्रस्थक छेद रहा हूं। वह काष्ठ को छील रहा है, उकेर रहा है और प्रमार्जित कर रहा है और कहता है मैं प्रस्थक को छील रहा हूं, उकेर रहा हूं और प्रमाजित कर रहा हूं। ये तीनों व्यपदेश कारण में कार्य का उपचार कर किए जाते हैं। नैगमनय के उक्त तीनों भेदों का आधार प्रस्थक निर्माण की दूरी और निकटता है । प्रथम क्रिया में केवल प्रस्थक का संकल्प है। दूसरी में प्रस्थक के उपादान का ग्रहण है और तीसरी क्रिया में प्रस्थक का निर्माण किया जा रहा है । इस प्रकार जैसे-जैसे निर्माण का व्यवधान कम होता जाता है वैसे-वैसे दृष्टिकोण विशुद्ध होता जाता है। व्यवहारनय व्यवहारनय लोक-व्यवहार को मान्य करता है इसलिए इसका दृष्टिकोण नैगमनय के समान ही है। संग्रहनय संग्रहनय, नैगम और व्यवहारनय से विशुद्धतर है। इसके अनुसार चित (धान्य से व्याप्त) मित (धान्य से परिपूर्ण) और मेय-समारूढ (मेय से युक्त) प्रस्थक को प्रस्थक कहा जाता है। संग्रहनय विशेष को मान्य नहीं करता इसलिए उसमें अर्थक्रियाकारित्व-काल की अवस्था वाला प्रस्थक ही प्रस्थक है।' ऋजसूत्रनय ऋजुसूत्रनय पर्याय को ग्रहण करता है। यह स्वरूप की निष्पत्ति के बाद अपनी क्रिया में हेतुभूत प्रस्थक को भी प्रस्थक मानता है और उसके द्वारा मापे गए धान्य आदि को भी प्रस्थक मानता है। व्यवहार में प्रस्थक और उसके द्वारा मापी गई वस्तु दोनों के लिए प्रस्थक शब्द का प्रयोग इष्ट है। ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में अतीत नष्ट और अनागत अनुत्पन्न होने से असत् होते हैं। यह वर्तमानग्राही होने के कारण संग्रहनय की अपेक्षा विशुद्धतर है। कषाय पाहुड़ के अनुसार जिस समय धान्य मापा जाता है उस समय प्रस्थक को प्रस्थक कहा जाता है।' शब्दनय शब्दनय भाव प्रधान होते हैं इसलिए वे अर्थ को मान्य नहीं करते। उनके मतानुसार प्रस्थक के अर्थ का ज्ञाता ही वास्तव में प्रस्थक कहलाता है। इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करने वाला सूत्र है 'जस्स वा वसेणं पत्थओ निष्फज्जई। प्रस्थक प्रमाण के दो नियम हैंप्रस्थक के अर्थ का ज्ञान होना। प्रस्थक के अर्थ में उपयुक्त (दत्तचित्त) होना। इन दो नियमों का अनुसरण किए बिना मानात्मक प्रस्थक निष्पन्न नहीं होता अतः प्रस्थक का ज्ञाता और उसमें उपयुक्त व्यक्ति ही प्रस्थक होता है। शब्दनयत्रयी के अनुसार सब वस्तु अपनी आत्मा में हैं, बाह्य जगत् में नहीं, जैसे जीव में चेतना । प्रस्थक प्रमाण है, प्रमाण नियमत: ज्ञान होता है इसलिए काष्ठ-पात्र प्रस्थक नहीं हो सकता। अतः प्रस्थक का ज्ञान और उपयोग ही वास्तव में प्रस्थक है।' जिनभद्रगणी ने शब्दनयत्रयी के अभिप्राय पर विस्तार से विमर्श किया है। उनके अनुसार जो मान है वह प्रमाण है । प्रमाण परिच्छेदात्मक होता है और वह जीव का स्वभाव है, वह जीव से भिन्न नहीं होता अतः काष्ठ पात्र प्रमाण नहीं हो सकता। १. (क) अहावृ. पृ. १०५। ४. कपा. पृ. २२४,२२५ : यदैव धान्यानि मिमीते तदैव (ख) अमवृ. प. २०६। प्रस्थः, प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रस्थव्यपदेशात् । २. अहाव. पृ. १०५ : सामान्यमात्रयाही संग्रह : चितो. ५. अहाव. पृ. १०६ : त्रयाणां शब्दसमभिरूढवम्भूतानां प्रस्थधान्येन व्याप्तः, स च देशतोऽपि भवत्यत आह ---मित:--- कार्थाधिकारज्ञः प्रस्थकः, तदव्यतिरिक्तो ज्ञाता तल्लक्षण: पूरितः अनेनैव प्रकारेण मेयं समारूढं । एव गृह्यते, भावप्रधानत्वाच्छब्दादिनयानां, यस्य वा बलेन ३. (क) वही, ऋजुवर्तमानसमयाभ्युपगमावतीतानागतयोवि प्रस्थको निष्पद्यते इति, स चापि प्रस्थकज्ञानोपयोगमन्तरेण नष्टानुत्पन्नत्वेनाकुटिलं सूत्रयति ऋजसूत्रस्तस्य न निष्पद्यत इत्यतोऽपि तज्ज्ञोपयोग एव परमार्थत. प्रस्थकनिप्फण्णस्वरूपार्थक्रियाहेतुः प्रस्थकोऽपि प्रस्थको मिति च। वर्तमानस्तस्मिन्नव मानादि प्रस्थकः । (ख) अमवृ. प. २०६। ७. विभा. २२४३-४६ । Jain Education Intemational Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ११, सू० ५५४-५५७, टि०४ ३२३ शब्दनयत्रयी के अभिप्राय की बौद्धों के विज्ञानाद्वैत और वेदान्त के ब्रह्माद्वैतवाद और प्रत्ययवाद की अवधारणा से तुलना की जा सकती है। वसति दृष्टान्तनैगमनय वसति के प्रसंग में नैगमनय के आठ विकल्प प्रस्तुत किए गए हैं । १. मैं लोक में रहता हूं। यह वक्तव्यता सत्य है क्योंकि उत्तरदाता का निवास स्थान लोक में ही है किन्तु यह दृष्टिकोण ___ वास्तविक वसति से बहुत दूर है इसलिए यह अविशुद्ध दृष्टिकोण है । २. मैं तिर्यग्लोक में रहता हूं। यह वास्तविक वसति से कुछ निकट है इसलिए यह विशुद्ध दृष्टिकोण है। ३. मैं जम्बूद्वीप में रहता हूं। यह वास्तविक वसति से और अधिक निकटतर है इसलिए यह विशुद्धतर दृष्टिकोण है। इसी प्रकार भारतवर्ष, दक्षिणार्ध-भरत, पाटलिपुत्र, देवदत्तगृह और गर्भगृह में क्रमशः वास्तविक वसति की निकटता बढ़ती जाती है और उत्तरोत्तर विशुद्धतरता भी बढ़ती जाती है । व्यवहारनय व्यवहारनय की वक्तव्यता भी नैगमनय के समान है। संग्रहनय संग्रहनय निर्विकल्प होता है इसलिए उसके दृष्टिकोण से उत्तरदाता कहता है मैं बिछौने पर रहता हूं। ऋजुसूत्रनय ___मैं जिन आकाश प्रदेशों में अवगाढ हूं वहां रहता हूं यह ऋजुसूत्रनय का दृष्टिकोण है । शब्दनयत्रयी मैं आत्म-स्वरूप में रहता हूं। वास्तव में प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप में ही रहता है। इसलिए शब्दनयत्रयी का दृष्टिकोण वास्तविक वसति का दृष्टिकोण है।' प्रदेश दृष्टान्त प्रकृष्ट देश का नाम प्रदेश है । निरंश देश, निविभागी भाग, अविभागी परिच्छेद ये प्रदेश के पर्यायवाची शब्द हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और एक जीव ये अखण्ड द्रव्य हैं । देश उसका कल्पित भाग है तथा प्रदेश उसका परमाणु जितना भाग है। नंगमनय नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को मान्य करता है। इसलिए धर्म आदि छहों के प्रदेश को स्वीकृत करता है। संग्रहनय संग्रहनय के अनुसार देश कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है इसलिए वह 'देश का प्रदेश' इस विकल्प को स्वीकार नहीं करता। धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों से सम्बन्धित देश का जो प्रदेश है वह उन द्रव्यों का ही प्रदेश है क्योंकि वह देश उससे भिन्न नहीं है। इसलिए छहों का प्रदेश नहीं होता। पांचों का होता है । 'पांचों का प्रदेश' यह संग्रहनय की स्वीकृति है। व्यवहारनय __व्यवहारनय कहता है-एक ही प्रदेश पांचों द्रव्यों से सम्बन्धित हो तब यह कथन उचित हो सकता है। जैसे पांच भाइयों का सोना, घर, बगीचा आदि । यहां पांचों द्रव्यों के प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं इसलिए द्रव्य और लक्षण की संख्या के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रदेश पांच प्रकार का होता है। ऋजुसूत्रनय व्यवहारनय के अभिमत से अपनी असहमति व्यक्त करता हुआ ऋजुसूत्रनय कहता है--पांच प्रकार का प्रदेश मानने से १. (क) अहावृ. पृ. १०६ । (ख) अमव. प. २०८। Jain Education Intemational Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ अणुओदारा प्रकार मानने से प्रदेश के उसके पच्चीस भेद हो जाएंगे। प्रत्येक प्रदेश के पांच प्रकार पांच द्रव्य प्रदेशों से गुणित होने पर पच्चीस होते हैं । इसलिए यह कहना उचित होगा कि प्रदेश धर्म आदि पांच विभागों से विकल्पनीय है । इस पांच भेद घटित हो जाते हैं । शब्दनय - प्रदेश की विकल्प - स्वीकृति पर आपत्ति करता हुआ शब्दनय कहता है विकल्प की स्थिति में धर्मास्तिकाय का प्रदेश अधर्मास्तिकाय का हो जाएगा। अधर्मास्तिकाय का प्रदेश धर्मास्तिकाय का हो जाएगा। जैसे कोई व्यक्ति कभी राजा का सेवक हो जाता है और कभी अमात्य हो जाता है । नियत व्यवस्था के अभाव में प्रदेश के साथ भी यही घटित होगा । इसलिए अनवस्था के प्रसंग को टालने के लिए यह मानना उचित है कि जो धर्मात्मक प्रदेश है- धर्मास्तिकाय से अभिन्न प्रदेश है वह प्रदेश धर्म है । इसी प्रकार अधर्म और आकाश का प्रदेश है। जीव और स्कन्ध संख्या में अनन्त हैं । इनका प्रदेश जीवत्व और स्कन्धत्व से अभिन्न न होने के कारण जीवात्मक प्रदेश नोजीव है, स्कन्धात्मक प्रदेश नोस्कन्ध है । यहां 'नो' शब्द देशवाचक है। सकल जीव में व्याप्त नहीं है इसलिए वह उसके एक भाग में है अर्थात् जीव का एक देश है । एक जीव का प्रदेश समभिरूढनय धर्म-प्रदेश शब्द में दो समास संभावित हैं । 'धर्मे प्रदेश : ' इस विग्रह वाक्य में तत्पुरुष समास होता है जैसे वने - हस्ती, तीर्थेकाक: यह सप्तमी तत्पुरुष समास है। यदि विग्रह वाक्य में प्रथमा विभक्ति की विवक्षा करते हैं जैसे- 'धर्मश्चासौ प्रदेशश्च' तो कर्मधारय समास होता है, जैसे नीलं च तद् उत्पलं च तद् । तत्पुरुष समास भेद और अभेद दोनों में होता है जैसे कुण्डे बदराणि घटे रूपम् राज्ञः पुरुषः, राज्ञः शरीरम् । कुण्डे बदराणि राज्ञः पुरुषः भेदपरक समास है । घटे रूपम् और राज्ञः शरीरम् अभेदपरक है । धर्मे प्रदेश :- इसमें तत्पुरुष समास होने से भेद और अभेद का सन्देह हो सकता है । इसलिए समभिरूढनय विशेषण सहित कर्मधारय को स्वीकार करता है । एवंभूतनय एवंभूतनय का अभिमत है द्रव्य अखण्ड होता है । उसमें देश और प्रदेश की कल्पना करना व्यर्थ है । इसलिए देश भी अवास्तविक है, प्रदेश भी अवास्तविक है। सातों नय ज्ञानात्मक है। ज्ञान जीव का गुण है। इसलिए इनका अन्तर्भाव गुणप्रमाण में भी हो सकता है। किंतु वहां ज्ञान बहुत अधिक विवेचना के विषय नय-प्रमाण के रूप में बताया के भेदों में प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों की चर्चा है। 'नय-प्रमाण इन से भिन्न रूप में प्रसिद्ध हैं', हैं और इनकी जिनागमों में अपनी स्वतंत्र उपयोगिता है। इसलिए इनको जीव-गुण-प्रमाण से पृथ गया है । तीनों दृष्टान्तों का तात्पर्यार्थ द्रव्य और वस्तु की विचारणा के अनेक मार्ग हैं। वह विचारणा कभी स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतर तथा कभी अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर होती है । द्रव्य के अनेक पर्याय हैं । स्थूल विचार के द्वारा स्थूल पर्याय, सूक्ष्म विचार के द्वारा सूक्ष्म पर्याय और सूक्ष्मतर विचार के द्वारा सूक्ष्मतर पर्याय का ग्रहण होता है । स्थूल विचार को सापेक्ष दृष्टि से अशुद्ध, सूक्ष्म विचार को सापेक्ष दृष्टि से शुद्ध और सूक्ष्मतर विचार को सापेक्ष दृष्टि से शुद्धतर कहा जाता है । नैगमनय की दृष्टि में प्रस्थक का संकलन भी प्रस्थक है, प्रस्थक का निर्माण भी प्रस्थक है किंतु तीन शब्दनयों की दृष्टि में प्रस्थक कोई काष्ठ पात्र नहीं है, वह प्रस्थक का ज्ञान और उपयोग है । इस दृष्टान्त का तात्पर्य है कि ज्ञेय एक अवस्था में ज्ञाता से भिन्न होता है और एक अवस्था में ज्ञाता से अभिन्न हो जाता है। इस अनेकान्तात्मक दृष्टि से ही वस्तु को समग्र दृष्टिकोणों से जाना जा सकता है । वसति दृष्टान्त ' के द्वारा आधार और आधेय की मीमांसा की गई है। शब्दनयत्रयी के अनुसार सब द्रव्य निरालम्ब अथवा स्वप्रतिष्ठ होते हैं। किसी द्रव्य के लिए आधार आवश्यक नहीं होता । नैगमनय की दृष्टि में आधार और आधेय का संबंध आवश्यक है । इसीलिए आधारभूमि के अनेक विकल्प किए गए हैं। प्रदेश दृष्टान्त में अवयव और अवयवी के संबंध की मीमांसा की गयी है। एवंभूतनय द्रव्य के अवयवों को अस्वीकार करता है । नैगमनय अवयव और अवयवी के संबंध को मान्य करता है । इस प्रकार नय वस्तु के विभिन्न धर्मों और विभिन्न नियमों को सापेक्ष दृष्टि से जानने की प्रक्रिया है। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ११ सू० ५५७-५६८, टि० ४-६ ३२५ सूत्रकार ने तीन दृष्टान्तों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। इस प्रकार के अनेक दृष्टांत प्रस्तुत किए जा सकते हैं। विभिन्न दार्शनिकों के अभ्युपगमों को समझने के लिए यह विधा बहुत उपयोगी है। यदि नय पद्धति से दार्शनिक अध्ययन की परम्परा रहे तो खण्डन मण्डन की विधि अपने आप समाप्त हो सकती है । शब्द विमर्श- कृत्स्न- देश, प्रदेश की कल्पना से रहित । प्रतिपूर्ण - आत्मस्वरूप की दृष्टि से अविकल । निरवशेष - अवयव रहित । एकग्रहणगृहीत - एक शब्द के द्वारा वाच्य । ५. (सूत्र ५५८ ) जिससे वस्तु का परिच्छेद और निर्णय होता है उसे संख्या कहा जाता है। इसका प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है। गणना संख्या का एक प्रकार है। वैशेषिक जाती है उसका नाम है संख्या । प्राकृत 'संखा' शब्द से संस्कृत में संख्या और बहुवचनान्त शंख दोनों शब्दों का बोध होता है। संखा प्रमाण की चर्चा में यथासंभव दोनों अर्थ घटित हो सकते हैं। कहां 'संख्या' शब्द की संगति है और कहां 'शंख' शब्द की यह प्रकरण के अनुसार ज्ञातव्य है । 2 सूत्र ५५८ ६. ( सूत्र ५६८ ) औपम्य संख्या - उपमा के माध्यम से वस्तु-बोध होता है इसलिए उसका नाम औपम्य संख्या है । द्रष्टव्य सूत्र ५६९ । परिमाण संख्या -- इससे आगम का ग्रन्थाग्र ( ग्रंथ परिमाण) जाना जाता है । द्रष्टव्य सूत्र ५७०-५७२ । ज्ञान संख्या इससे विषय-वस्तु के ज्ञान के आधार पर जानने वाले का बोध होता है । द्रष्टव्य सूत्र ५७३ । गणना संख्या - गिनती करना। द्रष्टव्य सूत्र ५७४-६०३ । भाव शंख - तिर्यञ्च गति, द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर आदि शंख गति नाम गोत्र का विपाकतः वेदन करने वाले जीव भाव शंख हैं । द्रष्टव्य सूत्र ६०४ । सूत्र ५६८ तद्व्यतिरिक्त द्रव्यशंख के तीन प्रकार माने गए हैं। वे इस प्रकार हैं १. एकमविक जो जीव वर्तमान जीवन पूरा कर अगले भव में शंख रूप में उत्पन्न होगा, वह शंखत्व का आयुष्य न बंधने पर भी एकभविक शंख कहलाता है। शंख भव की प्राप्ति के बीच में एक वर्तमान भव है इस अपेक्षा से उसे एकभविक कहा गया है। संख्या शब्द गणना का पर्यायवाची नहीं है । दर्शन के अनुसार जिसके आधार पर गणना की पातञ्जल योग भाष्य में भी एकभविक का उल्लेख मिलता है । भाष्यकार के अनुसार कर्माशय एकभविक है । वह प्रधानतः एक जन्म में संचित होता है। वर्तमान जन्म का कर्माशय है, वह प्रधानतः पूर्ववर्ती जन्म में संचित होता है । वह कर्माशय एक भव में संचित होता है इसलिए इसे एकभविक कहा जाता है ।' जो जीव पृथ्वी आदि के भव में अन्तर्मुहूर्त्त जीकर अनन्तर भव में शंख बनता है, वह अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाला एकभविक शंख होता है जो जीव मत्स्य आदि किसी भव में पूर्वकोटि जीकर फिर शंख के रूप में उत्पन्न होता है वह पूर्वकोटि की आयुवाला एकभविक शंख है । १. नसुअ. ५७४ । २. भादप. २, पृ. ६६ : गणव्यवहारे तु हेतुः संख्याभिधीयते । ३. पायो. ३०१३ का भाष्य तस्माज्जन्म प्रायणान्तरे कृतः पुण्यापुण्यकर्माशयप्रयो विचित्र: प्रधानोपसर्जन मावेनावस्थित प्रायेणाभिव्यक्त एक प्रघट्टकेन मिलित्वा मरणं प्रसाध्य संमूच्छित एकमेव जन्म करोति । तच्च जन्म तेनैव कर्मणा लग्या भवति तस्मिन्नाधितेय कर्मणा भोग: सम्पद्यत इति । असी कर्माशयो कमयुगात् त्रिविपाकोऽभिधीयत इति । अत एकभविकः कर्माशयः उक्त इति । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ २. बद्धायुष्क जिस जीव ने शंख (द्वीन्द्रिय जंतु ) का आयुष्य बांध लिया है पर अभी उस जीवन में उत्पन्न नहीं हुआ है। वह बद्धायुष्क कहलाता है । उसकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि त्रिभाग है। इसका तात्पर्य है कि वर्तमान आयुष्य का एक तिहाई भाग शेष रहता है। तब आयुष्य का बंध होता है इसलिए उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि त्रिभाग बतलाई गई है । २. अभिमुखनामगोत्र शंख भव प्राप्त जीवों के जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त्त पश्चात् द्वीन्द्रिय जाति नाम और नीच गोत्र कर्म उदय में आते हैं। जब तक इनका उदय नहीं होता है, वे जीव अभिमुखनामगोत्र कहलाते हैं । अभिमुखनामगोत्रता भावी जन्म की अत्यन्त निकटता में होती है, इसलिए इसकी स्थिति जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त्त ग्रहण की गई है। नैगमनय और व्यवहारनय लोक व्यवहार को मान्य करते हैं तथा अशुद्ध संग्रहनय भी नैगमनय और व्यवहारनय का अनुसरण करता है इसलिए ये तीनों प्रकार के शंख को मान्य करते हैं । आर्य मंगु ने भी तीन प्रकार के शंख माने हैं। ऋजुसूत्रनय के अभिप्राय से अतिप्रसंग का निवारण करने के लिए आर्य समुद्र दो प्रकार के शंख को मान्य करते हैं। तीनों शब्द नय शुद्धतर होने के कारण केवल एक ही शंख को स्वीकृत करते हैं, आर्य सुहस्ती का भी यही मत है । ' ७. जैसे तुम हो वैसे ही हम थे [जह तुम्भे तह अम्हे ] ८. सूत्र ५६९ उक्त तथ्य राजस्थानी भाषा में निम्न निर्दिष्ट रूप में प्रतिपादित है पान पडता देख ने हंसी ज्यूं कुंपलिया । J मो बीती तो बीतसी, धीरी बापड़ियां ॥ सूत्र ५७० - ५७२ (सूत्र ५७०-५७२) परिमाण संख्या में कालिकश्रुत और दृष्टिवादश्रुत का परिमाण बताया गया है। कालिकत में ग्रन्थ विभाग के लिए उद्देशक, अध्ययन और श्रुतस्कन्ध बतलाए गए हैं वैसे ही दृष्टिवादश्रुत में ग्रन्थ विभाग के लिए प्राभूत, प्राकृतिका, प्राभृतप्राभृतिका और वस्तु बतलाए गए है। कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार में श्रुतज्ञान के २० भेद बतलाए गए हैं। उनमें दस भेद इस प्रकार हैं १ पर्याय २. अक्षर ३ पद ४. संघात ५. प्रतिपत्ति ६. अनुयोग ७. प्राभृत ८. प्राभृतप्राभृत ९ वस्तु १०. पूर्व । इन दस भेदों के साथ 'समास' पद जोड़ने पर पर्याय समास आदि दस भेद और बन जाते हैं । शब्द विमर्श अणुओगदाराई पर्यव - पर्याय, धर्मं । प्रत्येक अक्षर के अनन्त पर्याय होते हैं । नन्दी में आचारांग आदि के अनन्त पर्याय बतलाए गए हैं। नन्दी चूर्णिकार ने अकार के स्वपर्याय अठारह बतलाए हैं और परपर्याय अनन्त बतलाए हैं । * अक्षर-अक्षरों की संख्या चौसठ हैं।" संघात - चूर्णि और हरिभद्र की वृत्ति में संघात की कोई व्याख्या उपलब्ध नहीं है। हेमचन्द्र ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है दो, तीन, चार आदि अक्षरों के संयोग से निष्पन्न शब्द । गोम्मटसार में संघात की विस्तृत जानकारी मिलती है एक पद के पर्य १. बृभा. १, पृ. ४४ । २. (क) कग्रं. १, गा. ७ : पज्जप अश्रपयसंचाया पडिवति तह व अशुभगो । पाहुड पाहुडपाहुड वत्थू पुग्वा य ससमासा ॥ (ख) गोजी. ३१७,३१८ । ३. अमवृ. प. २१६ : पर्यवा: पर्याया धर्मा इति यावत् तद्रूपा ४. नसु. पृ. ५४,५५ एत्थ अकारस्स अकारजाती सामण्णतो सपज्जाया अट्ठारस, सेसा परपज्जाया । ५. कपा. पृ. ८९ : सुदणाणे पादेवकवण्णसमूहो चउसट्ठी । ६. अमवृ. प. २१६ : द्वाद्यक्षरसंयोगरूपाः संघाताः । संख्येयाः Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ११, २०५६६-५७४, टि०७-६ ३२७ आगे क्रम से एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते संख्यात हजार पदों की वृद्धि हो जाए उसको संघात श्रुतज्ञान कहते हैं।' पद स्यादि और तिबादि विभक्त्यन्त शब्द रूप एवं धातुरूप । कषायपाहुड में पद के तीन प्रकार बतलाए गए हैं१. अर्थ पद जितने अक्षरों से अर्थ का बोध होता है उन अक्षरों के समूह को अर्थपद कहा जाता है।' २.प्रमाण पद-श्लोक के अष्ट अक्षरात्मक समवाय को प्रमाण पद कहा जाता है। ३. मध्यम पद-सोलह सौ चौंतीस करोड तिरासी लाख सात हजार आठ सो अट्ठासी (१६३४८३०७८८८) अक्षरों के समवाय को मध्यम पद कहा जाता है।" पाद-श्लोक का चतुर्थ भाग ।' कषायपाहुड़ में निर्दिष्ट प्रमाण पद से इसकी तुलना की जा सकती है। गाथा-आर्या छन्द । श्लोक-अनुष्टुप् आदि । वेष्टक–वेढा नामक छन्द ।' नियुक्ति निर्वचन, शब्द और अर्थ की सम्यक् योजना । अनुयोगद्वार-व्याख्या के अंग सत्पद-प्ररूपण आदि अथवा उपक्रम, नय, निक्षेप आदि। उद्देश --एक दिन की वाचना, परिच्छेद, विभाग । अध्ययन- ग्रन्थ का एक विभाग। श्रुतस्कन्ध-अध्ययन-समूह। अंग-कालिकश्रुत का एक विभाग। प्राभृत-वस्तु का एक अध्याय । प्राभृतिका अध्याय का एक प्रकरण । प्राभृतप्राभृतिका-अध्याय का अवान्तर प्रकरण । वस्तु-अनेक प्राभृतों का समुदाय । गोम्मटसार में इनका विस्तृत विवेचन मिलता है। सूत्र ५७४ ८. (सूत्र ५७४) संख्या का अर्थ होता है -विभाग । एक का गणना में विभाग नहीं होता इसलिए 'एक' को गणना संख्या नहीं माना गया है। लेन देन के व्यवहार में 'एक' वस्तु प्रायः गणना का विषय नहीं बनती है। असंव्यवहार्य और अल्प होने के कारण एक (१) को गणना संख्या में नहीं गिना जाता । गणना में भेद कम से कम दो में होता है, एक में नहीं। इसलिए एक संख्या होने पर भी गणना संख्या के अन्तर्गत नहीं आती।" ___गणना संख्या में वही गिना जाता है, जिसका वर्ग करने से वृद्धि होती है। 'एक' का वर्ग करने से १४१=१ एक ही आता है अर्थात् वर्ग करने पर भी वृद्धि नहीं होती इसलिए 'एक' गणना संख्या में नहीं गिना जाता है।" १. गोजी. ३३७ : एयपदादो उरि, एगेगेणक्खरेण वड्ढतो। संखेज्जसहस्सपदे, उड्ढे संघादणाम सुदं । २. अमवृ. प. २१६ : सुप्तिङन्तानि समयप्रसिद्धानि वा संख्ये यानि पदानि । ३. कपा. पृ. ९१ : जत्तिएहि अक्खरेहि अत्योवलद्धी होदि तेसिमक्खराणां कलावो अत्थपदं णाम । ४. वही, पमाणपदं अटक्खरनिप्पण्णं । ५. (क) वही, पृ. ९२ : सोलहसयचोत्तीसकोडि-तियासी दिलक्ख-अट्ठहत्तरिसय-अट्ठासी दिअक्खरेहि एग मज्झिमपदं होदि। (ख) गोजी. ३३६ । ६. अमव. प. २१६ : गाथदिचतुर्थांशरूपाः संख्येयाः पादाः । ७. वही, छन्दोविशेषरूपाः संख्येया: वेष्टकाः । ८. वही, व्याख्योपायभूतानि सत्पदप्ररूपणतादीन्युपक्रमादीनि वा संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि । ९. गोजी. ३४०-३४४ ॥ १०. (क) अहाव. पृ. १०९: एकत्वसंख्याविषयत्वेऽपि वा प्रायोऽसंव्यवहार्यत्वादल्पत्वाद् आह द्विप्रभूति: संख्या। (ख) अमव. प. २१७॥ ११. लोप्र. ४१३१०-३१२ । Jain Education Intemational Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ अणुओगदाराई सूत्र ५७५-५८६ १०. (सूत्र ५७५-५८६) संख्यात संख्यात जघन्य अजघन्य अनुत्कृष्ट (मध्यम) उत्कृष्ट जघन्य-संख्यात- दो की संख्या जघन्य संख्यात है। अजघन्य अनुत्कृष्ट (मध्यम) संख्यात-तीन से लेकर उत्कृष्ट संख्यात से एक कम । उत्कृष्ट संख्यात-असत् कल्पना से उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप इस प्रकार हैचार पल्यों (कुण्डों) की कल्पना की गई है--(१) अनवस्थित (२) शलाका (३) प्रति शलाका (४) महाशलाका । २ अनवशलाका प्रति महास्थित | शलाका | शलाका प्रारंभ में अनवस्थित पल्य जंबूद्वीप प्रमाण १ लाख योजन लंबा और चौड़ा है। गहराई में रत्नप्रभा पृथ्वी के रत्नकांड से भी नीचे स्थित वज्रकाण्ड पर्यन्त एक हजार योजन और ऊंचाई में पद्मवरवेदिका जितना साढे आठ योजन है। अर्थात् तल से शिखा तक ऊंचाई/गहराई १००८ योजन है। शलाका पल्य, प्रतिशलाका पल्य और महाशलाका पल्य-ये तीनों लंबाई और चौडाई में १ लाख योजन तथा गहराई और ऊंचाई में १००८३ योजन है। अनवस्थित कुंड को सर्षप के दानों से भरा गया (शिखा सहित), इतना भरा कि उसमें एक दाना भी और न समा सके । फिर देवों के द्वारा एक-एक दाना क्रमशः द्वीप और समुद्र में डाला गया। पहला दाना जंबूद्वीप में, दूसरा दाना लवण समुद्र में, तीसरा धातकीखण्ड में-इस क्रम से द्वीप और समुद्र में डालकर अनवस्थित पल्य को खाली किया। एक बार भरकर खाली करने पर १ दाना शलाका पल्य में डाला गया। अंतिम दाना जिस समुद्र या द्वीप में डाला गया, उसकी लंबाई और चौडाई जितना दूसरी बार अनवस्थित पल्य बनाया गया। उसे भरा गया, फिर खाली किया गया। पहली बार जिस समुद्र या द्वीप में गिराया गया था उससे आगे के द्वीप-समुद्र में क्रमशः एक-एक दाना डालकर खालो किया गया। भरने और खाली करने की प्रक्रिया चलती रहती है। दाना डालने की प्रक्रिया भी क्रमशः आगे-आगे के द्वीप-समुद्रों में होती है। खाली करने पर अंतिम दाना जिस जिस समुद्र या द्वीप में गिराया जाता है । उसी प्रमाण का अगली बार अनवस्थित पल्य बनाया जाता है। स्थापना अनवस्थित पल्य एक बार खाली करने पर १ दाना शलाका पल्य में डालने की प्रक्रिया से शलाका पल्य को भरा जाता है। उस (शलाका पल्य) को शिखा सहित पूर्ण भर कर आगे के द्वीप-समुद्रों में दाना डालकर खाली किया जाता है। परिणाम स्वरूप १ दाना तीसरे प्रतिशलाका पल्य में डाला जाता है। नया अनवस्थित पल्य अन्तिम द्वीप-समुद्र के लम्बाई चौड़ाई के परिमाण वाला बनाकर भरा जाता है । जब शलाका पल्य खाली किया जाता है तब अनवस्थित पल्य भरा रहता है। शलाका पल्य खाली करने के बाद अनवस्थित पल्य को खाली किया जाता है। फिर पूर्व क्रम से पुनः शलाका पल्य को भरा जाता। Jain Education Intemational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ११, सू० ५७५-५६५, टि० १०,११ ३२६ शलाका पल्य के बार-बार भर कर एवं खाली कर एक-एक दाने से प्रतिशलाका पल्य भरा जाता है। जब प्रतिशलाका पल्य शिखा सहित पूर्ण भर जाता है तब उसे आगे-आगे के द्वीप-समुद्रों में दाना डालकर खाली किया जाता है। परिणाम स्वरूप १ दाना महाशला का पल्य में डाला जाता है । प्रतिशलाका पल्य खाली करते समय अन्तिम द्वीप समुद्र के परिमाण वाला अनवस्थित पल्य बनाया जाता है । वह अनवस्थित पल्य और शलाका पल्य भरे रहते हैं। प्रतिशला का पल्य खाली करने के बाद उससे आगे के द्वीप-समुद्रों में शलाका पल्य खाली किया जाता है फिर उससे आगे अनवस्थित पल्य खाली किया जाता है। पुनः अनवस्थित पल्य से शलाका पल्य भरा जाता है और शलाका पल्य से प्रतिशलाका पल्य भरा जाता है। प्रतिशलाका पल्य को बार-बार भर कर एवं खाली कर एक-एक दाने से महाशलाका पल्य भरा जाता है। शिखा सहित महाशलाका पल्य भर जाने के बाद उसे भरा हुआ ही रखा जाता है। फिर पूर्व प्रक्रिया के अनुसार शलाका पल्य से प्रतिशलाका पल्य भरा जाता है और अनवस्थित पल्य से शलाका पल्य भरा जाता है । अनवस्थित पल्य को खाली करके शलाका पल्य को शिखा सहित भरने वाला अनवस्थित पल्य का जो अंतिम दाना था और वह जिस समुद्र या द्वीप में गिराया गया था उस (द्वीप या समुद्र) की लंबाई और चौड़ाई जितना अन्तिम अनवस्थित पल्य बनाया जाता है । उसे भी शिखा सहित पूर्ण भरा जाता है।' भरे हुए महाशलाका पल्य, प्रतिशलाका पल्य, शलाका पल्य और अनवस्थित पल्य के दानों को एकत्रित करके द्वीप और समुद्रों में जितने दाने डाले गए थे उन दानों को उसमें मिलाया जाता है। जितनी संख्या होती है उससे एक कम संख्या उत्कृष्ट संख्यात की संख्या होती है। सूत्र ५८७-५५९ ११. (सूत्र ५८७-५६५) असंख्यात असंख्यात परीत युक्त असंख्यात जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट असंख्यात के मुख्य तीन भेद हैं-(१) परीत-असंख्यात (२) युक्त-असंख्यात (३) असंख्यात-असंख्यात । इनके प्रत्येक के तीनतीन भेद किए गए हैं १. जघन्य २. मध्यम ३ उत्कृष्ट । इस प्रकार असंख्यात के नौ भेद हो जाते हैं। १. जघन्य परीत-असंख्यात --उत्कृष्ट संख्यात के मान में एक बढाने से जघन्य परीत-असंख्यात होता है। जघन्य परीत-असंख्यात-उत्कृष्ट संख्यात+१ पल्य भरेगा। इस प्रक्रिया में १०० बार शलाका पल्य भरना होगा, १० बार प्रतिशलाका पल्य भरना होगा। इसका चित्र इस प्रकार बन सकता है १. इस प्रक्रिया में कल्पना से महाशलाका पल्प १ बार भरा जाता है, प्रतिशलाका पल्य १० बार भरा जाता है, शलाका पल्य १०० बार भरा जाता है और पूर्व अनबस्थित पल्य १००० बार भरा जाता है। मानलो प्रथम अनवस्थित कुंड १० सरसों के दानों से भरा था। १० अनवस्थित कंड भरकर खाली करने पर प्रतिशलाका पल्य भरेगा यानि १०४१०=१०० बार अनवस्थित पल्य भरकर खाली करने पर प्रतिशलाका पल्य भरेगा। १० बार प्रतिशलाका पल्य भरकर खाली करने पर महाशलाका पल्य भरेगा । यानी १०० १०=१००० बार अनवस्थित पल्य भर कर खाली करने पर महाशलाका १००० १०० | बार बार अनवस्थित पल्य शलाका पल्य प्रतिशलाका पल्य महाशलाका पल्य २. (क) अमवृ. प. २१८,२१९ । (ख) त्रिसा. गा. १४-३५ । (ग) तिप. ४।३१०-३१२ । (घ) कनं. ४. पृ. २१३-२१७ । Jain Education Intemational Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई २. मध्यम परीत-असंख्यात-जघन्य परीत और उत्कृष्ट परीत के बीच की सारी संख्याएं मध्यम परीत-असंख्यात की संख्याएं हैं। (जघन्य परीत-असंख्यात+१) 5 (मध्यम परीत-असंख्यात) [(उत्कृष्ट परीत-असंख्यात)-१] ३. उत्कृष्ट परीत-असंख्यात -जघन्य युक्त-असंख्यात से एक कम उत्कृष्ट परीत-असंख्यात होती है। उत्कृष्ट परीत-असंख्यात-[(जघन्य युक्त-असंख्यात)-१] ४. जघन्य युक्त-असंख्यात -जघन्य परीत-असंख्यात को जघन्य परीत-असंख्यात से अभ्यसित (गुणा) करने से जघन्य युक्तअसंख्यात की संख्या आती है। अभ्यसित (गुणा) का अर्थ है-जिस संख्या को अभ्यास-गुणित करना हो, उस संख्या को उतनी ही बार स्थापित करके परस्पर गुणन करने पर उसकी 'अभ्यास-गुणित' संख्या प्राप्त होती है।' गणित की भाषा में उस संख्या की घात करना। जघन्य युक्त-असंख्यात (जघन्य परीत-असंख्यात) (जघन्य परीत-असंख्यात) तात्पर्य यह हुआ कि जघन्य परीत-असंख्यात को जघन्य परीत-असंख्यात से जघन्य परीत-असंख्यात में से एक कम करने पर जो संख्या आवे, उतनी बार गुणन करना । उदाहरण के लिए मानले जघन्य परीत असंख्यात ५ है-५४५४५४५४५-३१२५ जघन्य युक्त-असंख्यात होगा। (जघन्य परीत-असंख्यात) जघन्य युक्त-असंख्यात= (जघन्य परीत-असंख्यात)" जघन्य युक्त-असंख्यात ही एक आवलिका के समयों का परिमाण है। ५. मध्यम युक्त-असंख्यात-जघन्य युक्त-असंख्यात और उत्कृष्ट युक्त असंख्यात के बीच की सारी संख्याएं मध्यम युक्तअसंख्यात की संख्याएं होती हैं। [(जघन्य युक्त असंख्यात)+१]८ मध्यम युक्त-असंख्यात [(उत्कृष्ट युक्त-असंख्यात)-१] ६. उत्कृष्ट युक्त-असंख्यात-जघन्य असंख्यात-असंख्यात से एक कम संख्या उत्कृष्ट युक्त-असंख्यात होती है। उत्कृष्ट युक्त असंख्यात-[(जघन्य असंख्यात असंख्यात) १] ७. जघन्य असंख्यात-असंख्यात -जवन्य युक्त-असंख्यात को जघन्य युक्त-असंख्यात से अभ्यसित (गुणा) करने पर जघन्य असंख्यात-असंख्यात की संख्या आती है । अथवा उत्कृष्ट युक्त-असंख्यात में एक जोड़ने पर जघन्य असंख्यात-असंख्यात की संख्या होती है। (जघन्य युक्त-असंख्यात) जघन्य असंख्यात-असंख्यात-(जघन्य युक्त-असंख्यात) लोकप्रकाश में इसकी दूसरी परिभाषा मिलती है'-- जघन्य युक्त-असंख्यात का वर्ग करने से जघन्य असंख्यात-असंख्यात का मान प्राप्त होता है । अर्थात् ---- (जघन्य असंख्यात-असंख्यात)=(जघन्य युक्त-असंख्यात) ८ मध्यम असंख्यात-असंख्यात - जघन्य असंख्यात-असंख्यात और उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात के बीच की सारी संख्याएं मध्यम असंख्यात-असंख्यात की संख्याएं होती है। [(जघन्य असंख्यात-असंख्यात)+१]८मध्यम असंख्यात-असंख्यातर[(उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात)-१] ९. उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात-इसकी परिभाषा चार प्रकार से मिलती है १. जघन्य असंख्यात-असंख्यात को अभ्यसित (गुणा) करके एक कम करने पर उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात की संख्या का १. लोप्र. ११६५ : ३. (क) लोप्र. ११८६-१८७ । यावत् प्रमाणो यो राशिर्भवेत् स्वरूपसंख्यया । जघन्ययुक्तासंख्यातं वगितं रूपजितम् । सन्न्यस्य तावतो वारान् गुणितोऽभ्यास उच्यते । उत्कृष्टयुक्तसंख्यातं प्राप्तरूपैः प्ररूपितम् ॥ उद्धृत -विश्वप्रहेलिका, पृ. २७९ । एकरूपेण युक्तं तदसंख्यासंख्यक लघु । २. कनं. ४. गा. ७८ : (यह अभिप्राय मूलतः कर्मग्रन्थ का है) रूवजयं तु परित्ता-संखं लहु अस्स रासि अब्भासे । (ख) कग्रं. ४. गा. ८० जुत्तासंखिज्जं लहु आवलिया समयपरिमाणं ॥ इय सुत्तत्तं अन्ने वग्गियमिक्कसि चउत्थयमसंखं । होइ असंखासंखं लह, रूपं जुयं तु तं ममं ॥ ducation Intemational Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ६, सू० २११-२५९४०३, मान होता है।' ( जघन्य असंख्यात असंख्यात ) - १] उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यात - [ ( जघन्य असंख्यात असंख्यात ) २. जघन्य असंख्यात असंख्यात का वर्ग करने से जो राशि प्राप्त हो, उसका पुनः वर्ग किया जाता है । लब्ध राशि का वर्ग करने से जो राशि प्राप्त हो उसमें निम्न असंख्यात मान वाली दस राशियां जोड़कर पुनः उक्त प्रकार से तीन बार वर्ग किया जाता है । लब्ध राशि में से एक घटाने पर उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यात का मान प्राप्त होता है। जोड़ी जानेवाली राशियां ये हैं १. लोकाकाश के प्रदेश | २. धर्मास्तिकाय के प्रदेश । ३. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश । ४. एक जीव के प्रदेश । ५. द्रव्यार्थिक निगोद । ६. अनन्तकाय को छोड़कर शेष प्रत्येकशरीरी जीव । ७. स्थिति बंध के कारणभूत अध्यवसाय स्थान | ८. अनुभाग बंध के कारणभूत अध्यवसाय स्थान । ९. मनोयोग, वचनयोग और काययोग के अविभाज्य विभाग । १०. उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के समय । ३. तीसरी परिभाषा इस प्रकार हैं - जघन्य असंख्यात असंख्यात को तीन बार वर्गित संवर्गित करने से जो राशि प्राप्त हो उनमें इन छह राशियों को मिलाना चाहिए। १. धर्मं द्रव्य के प्रदेश । २. अधर्म द्रव्य के प्रदेश । ३. लोकाकाश के प्रदेश । ४. एक जीव के प्रदेश । ५. अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीव । ६. प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीव । इन छह राशियों को मिलाने के बाद उसको पुनः तीन बार वर्गित संवर्गित करना चाहिए। इस प्रकार प्राप्त हुई राशि में इन चार राशियों को मिलाना चाहिए। १. उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के समय । २. स्थिति बंध के अध्यवसाय स्थान | ३. अनुभाग बंध के अध्यवसाय स्थान | ४. मन, वचन व काययोग के उत्कृष्ट अविभागी प्रतिच्छेद । इससे जो राशि प्राप्त हो उसको पुनः तीन बार वर्गित संवर्गित करना चाहिए। इस प्रकार प्राप्त हुई राशि में से एक घटाने पर उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यात का मान होता है। गणित की प्रक्रिया के लिए द्रष्टव्य - विश्व प्रहेलिका, पृष्ठ २८४, २८५ ॥ १. (क) अमवृ. प. २२१ (ख) लोप्र. १।१७५ : जघन्या संख्यासंख्यातं भवेदभ्यासताडितम् । एकरूपो नितं ज्येष्ठासंख्या संख्यातकं स्फुटम् ॥ २. किसी संख्या के तीन बार वर्ग करने की विधि - सर्वप्रथम उस संख्या का वर्ग करना। फिर वर्गजन्य संख्या का वर्ग करना, फिर वर्गजन्य संख्या का वर्ग करना । उदाहरणार्थ ---४ संख्या है । ४x४ = १६ वर्गजन्यसंख्या, फिर १६x १६ = २४६ वर्गजन्य संख्या, फिर २५६४२५६= ६५५३६ । ३. षखं. ३ । प्रस्तावना पृ. ३३ । ४. किसी भी राशि को एक बार वर्गित संवर्गित करने का अर्थ है- उस राशि को एक बार स्वधातित करना। दो बार वर्गित संवगत करने का अर्थ है—एक बार वर्गितसंवर्गित करने से प्राप्तराशि को स्वधातित करना। तीन बार वर्गित संगित करने का अर्थ है दो बार वर्गितसंर्वागत करने से प्राप्त राशि को स्वघातित करना । उदाहरणार्थ- कोई राशि २ है । २=२x२=४ एक बार वर्गित राशि हुई । ४*= (४४)=४×४×४×४= २५६= दो बार वगत संवर्गित राशि हुई । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ अणुओगदाराई ४. चौथी परिभाषा इस प्रकार है-जघन्य असंख्यात-असंख्यात को जघन्य असंख्यात-असंख्यात बार वगित-संवगित करना चाहिए। उससे प्राप्त राशि को उतनी बार वगित-संवगित करना चाहिए उससे जो राशि प्राप्त हो उसको उतनी बार वगितसंवगित करना चाहिए। इस प्रकार प्राप्त राशि में पूर्वोक्त ६ राशियों को मिलाना चाहिये । इस राशि को पून: शलाका त्रयनिष्ठापनविधि से वगित-संवर्गित करना चाहिये । इस प्रकार प्राप्त राशि में पूर्वोक्त चार राशियों को मिलाना चाहिए। इससे प्राप्त राशि को पुनः शलाका त्रयनिष्ठापन विधि से वगित-संवगित करना चाहिए। इस प्रकार उत्पन्न राशि में से एक घटाने पर उत्कृष्ट असंख्यातअसंख्यात का मान प्राप्त होता है।' सूत्र ५९६-६०३ १२. (सूत्र ५६६-६०३) अनन्त-- अनन्त परीत युक्त अनन्त जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट १. जघन्य परीत अनन्त -जघन्य असंख्यात-असंख्यात राशि को जघन्य असंख्यात-असंख्यात राशि से अभ्यसित (गुणा) करने से प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य परीत-अनन्त का मान होता है। जघन्य परीत-अनन्त-(जघन्य असंख्यात-असंख्यात) (जघन्य असंख्यात-असंख्यात) अथवा उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात में एक मिलाने से जघन्य परीत-अनन्त का मान होता है। गणित की भाषा में जघन्य परीत-अनन्त (उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात+१) २. मध्यम परीत-अनन्त --जघन्य परीत-अनन्त और उत्कृष्ट परीत-अनन्त के बीच की सारी संख्याएं मध्यम परीत- अनन्त का मान होता है। मध्यम परीत-अनन्त=(जघन्य परीत-अनन्त+१) से (उत्कृष्ट परीत-अनन्त-१) ३. उत्कृष्ट परीत-अनन्त-जघन्य परीत-अनन्त राशि को जघन्य परीत-अनन्त से अभ्यसित (गुणा) करके उसमें से एक कम करने से उत्कृष्ट परीत-अनन्त का प्रमाण होता है। उत्कृष्ट परीत-अनन्त-[(जघन्य परीत-अनन्त) (जघन्य परित-अनन्त)-१] ४. जघन्य युक्त-अनन्त जघन्य परीत-अनन्त राशि को जघन्य परीत-अनन्त से अभ्यसित (गुणा) करने से प्राप्त प्रतिपूर्ण संख्या जघन्य युक्त-अनन्त संख्या होती है। जघन्य युक्त-अनन्त =(जघन्य परीत-अनन्त) (जघन्य परीत-अनन्त) अथवा उत्कृष्ट परीत-अनन्त मे एक मिलाने से जघन्य युक्त-अनन्त की राशि होती है। जघन्य युक्त-अनन्त= उत्कृष्ट परीत-अनन्त+१ अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव भी जघन्य युक्त-अनन्त जितने ही होते हैं। ५. मध्यम युक्त-अनन्त-जघन्य युक्त-अनन्त और उत्कृष्ट युक्त-अनन्त के बीच की सारी संख्याएं मध्यम युक्त-अनन्त की होती हैं। मध्यम युक्त-अनन्त-(जघन्य यूक्त-अनन्त+१) से (उत्कष्ट यूक्त-अनन्त-१) १. (क) विप्र.पृ. २८१-२८६ । जघन्य परीत-अनन्त (ख) तिप. ४।३११ । = उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात+१ (ग) त्रिसा. गा. ३८-४५ । (जघन्य असंख्यात-असंख्यात) २. इस परिभाषा में 'उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात' का मान =[(जघन्य असंख्यात-असंख्यात) - १]+१ जो पूर्व परिभाषा (१) से प्राप्त है रखने पर इसकी (जघन्य असंख्यात-असंख्यात) =(जघन्य असंख्यात-असंख्यात) वैकल्पिक परिभाषा इस प्रकार बनेगी, जो ऊपर दी गई Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ११, ०५६-६०३, टि० १२ ३३३ ६. उत्कृष्ट युक्त अनन्त - जघन्य युक्त अनन्त की राशि को जघन्य युक्त-अनन्त की राशि से अभ्यसित (गुणा ) करके एक कम करने से उत्कृष्ट युक्त अनन्त की राशि आती है । उत्कृष्ट युक्त-अनन्त [(जय बुक्तग ७. जघन्य अनन्त अनन्त जघन्य युक्त-अनन्त की राशि को जघन्य युक्त-अनन्त राशि से अभ्यसित (गुणा ) करने पर प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य अनन्त अनन्त की संख्या होती है। ( जघन्य युक्त-अनन्त) जघन्य अनन्त अनन्त= : ( जघन्य युक्त अ - अनन्त) अथवा उत्कृष्ट युक्त अनन्त में एक का योग करने से जधन्य अनन्त - अनन्त की राशि होती है । जघन्य अनन्त-अनन्त= ( उत्कृष्ट युक्त - अनन्त + १) अन्य ग्रन्थों के आधार पर जघन्य अनन्त अनन्त की परिभाषा इस प्रकार मिलती है— जघन्य युक्त-अनन्त को वर्ग करने से जघन्य अनन्त - अनन्त का मान प्राप्त होता है । जघन्य अनन्त-अनन्त (जघन्य युक्त-अनन्त) ' अनन्त । ( जघन्य युक्त - अनन्त ) ] -१ ८. मध्यम अनन्त अनन्त - जघन्य अनन्त - अनन्त से आगे सभी स्थान मध्यम अनन्तानन्त के हैं ।' मध्यम अनन्त अनन्त ( जधन्य अनन्त अनन्त + १ ) से लेकर आगे सभी स्थान अर्थात् - मध्यम अनन्त अनन्त जघन्य अनन्त लोकप्रकाश में इसकी परिभाषा दूसरे प्रकार से मिलती है जघन्य अनन्तानन्त और उत्कृष्ट अनन्तानन्त के बीच की सारी संख्याएं मध्यम अनन्तानन्त की है ।' [ ( जघन्य अनन्तानन्त ) + १] मध्यम अनन्त अनन्त र [ उत्कृष्ट अनन्त - अनन्त ) - १] ९. उत्कृष्ट अनन्त अनन्त - श्वेताम्बर आगम परंपरा के अनुसार इसका अस्तित्व नहीं है । दिगम्बर परंपरा के अनुसार तथा कर्म ग्रन्थ में इसकी परिभाषाएं भिन्न-भिन्न रूप से मिलती हैं। दिगम्बर परम्परा में भी वर्गित संवर्गित की परिभाषा के भेद से और प्रक्षेपित राशियों के भेद से इसके तीन रूप हो जाते हैं। यहां चारों परिभाषाएं दी जा रही हैं । १. जघन्य अनन्त अनन्त का तीन बार वर्ग ( अर्थात् अष्ट घात) करना चाहिए। किसी संख्या का तीन बार वर्ग करना हो तो उस संख्या का वर्ग करना, फिर वर्गजन्य संख्या का वर्ग करना, फिर वर्गजन्य संख्या का वर्ग करना । उदाहरणार्थ ४ का तीन वार वर्ग करना है । ४ का वर्ग ४४४ = १६, फिर १६ का वर्ग १६४१६ = २५६, फिर २५६ का वर्ग २५६४२५६ =६५५३६ । दूसरे शब्दों में इसे अष्टघात भी कह सकते हैं । ४४×××४×४४४४४४४=६५५३६= ४० तीन बार वर्ग करने के बाद उसमें निम्न अनन्त मान वाली छह राशियां मिलानी चाहिए - १. सिद्धजीव २. निगोद के जीव द्रव्य ६ लोकाकाश और अलोकाकाश के J . ३ वनस्पतिकायिक ४ तीनों काल (भूत, वर्तमान भविष्यत्काल) के समय ५. सर्व प्रदेश | इनको मिलाकर फिर सर्वराशि का तीन बार वर्ग करके उस राशि में केवलद्विक को मिलाने पर उत्कृष्ट अनन्त अनन्त की संख्या का परिमाण होता है। क्योंकि इससे आगे की संख्या की कोई वस्तु नहीं है।' अनुयोगद्वार वृत्तिकार के अनुसार इस मान के पदार्थ का अभाव होने से यह मान व्यवहार में उपयोगी नहीं है । केवलज्ञान व केवलदर्शन की अनन्त पर्यायों २. जघन्य अनन्त - अनन्त को वर्गित संवर्गित करके उत्पन्न राशि में उपरोक्त छह राशियां मिलानी चाहिए । उत्पन्न राशि को पुनः तीन बार वर्गित संवर्गित करके उसमें धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य संबंधी अगुरुलघु-गुण के अविभाग - प्रतिच्छेद मिला देने चाहिए । अजहण्णमणुक्कोसयाई १. ( क ) नसुअ. ६०३ : तेण परं ठाणाई । (ख) लोप्र. १।१८०, १८१ । २. (क) लोप्र. १२०१ प्राग्वदेतदपि शेषं मध्यस्कृष्टका वधिः । (ख) तिप. ४।३१३ । ३. क. ४. पृ. २२२ । ४. (क) क ४. गा. ८४-८६ : तवग्गे पुण जाय, ताणंत लहु तं च तिक्खुतो । बय तह विन होइत सेवे विप हमे ॥ तं सिद्धा निगोजीया, बगाई कालपुग्गला चेव । समलोगन पुर्ण तिमि केवलम ॥ खिसे तातं वेद, जितु वह इयमत्यवियारो, लिहिलो देविवसूरीहि ॥ (ख) अमवृ. प. २२३, २२४ ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई इस प्रकार उत्पन्न राशि को पुनः तीन बार वगित-संगित करने से उत्कष्ट अनन्त-अनन्त का मान होता है।' इस प्रकार प्राप्त मान केवलज्ञान-प्रमाण होता है। ३. तीसरी परिभाषा में और दूसरी परिभाषा में केवल इतना ही अन्तर है कि यहां उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त का मान प्राप्त करने में शलाकात्रय निष्ठापन विधि से वगित-संवगित किया जाता है। ४. चौथी परिभाषा और तीसरी परिभाषा में केवल इतना ही अन्तर है कि तीसरी परिभाषा से उत्कृष्ट प्राप्त राशि में पुनः केवलज्ञान तथा केवलदर्शन के अनन्त बहुभाग को मिलाया जाता है। ___ इस प्रकार उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त की परिभाषा में मतभेद होते हुए भी सभी परम्पराओं का इस विषय में तो मतैक्य है ही कि उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त संख्या के मान का कोई पदार्थ नहीं है। जहां अनन्तानन्त का उल्लेख है वहां पर मध्यम अनन्त-अनन्त का ग्रहण ही अभीष्ट हैं।' २. तिप.४१३१३ । १. त्रिसा. गा. ४९-५१ । ३. विप्र.पृ. २८८-२९३ । Jain Education Intemational Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्रकरण (सूत्र ६०५-६१७) Jain Education Intemational Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत प्रकरण में वक्तव्यता पर नय दृष्टि से विचार किया गया है। प्रत्येक विषय पर नय दृष्टि से विचार करना दृष्टिवाद की अपनी विशेषता है । अनुयोगद्वार दृष्टिवाद का व्याख्यासूत्र है । इसलिए आर्यरक्षित ने यथावकाश नय का प्रयोग किया है। समवतार की प्रक्रिया में संकोच और विस्तार का सुन्दर निदर्शन है । भाव जगत् में सबसे अधिक अभिव्यक्त होने वाला भाव है क्रोध । क्रोध का समवतार मान में होता है, उसका अन्तिम छोर द्रव्य में हो जाता है। विस्तार के कोण से चले तो द्रव्य का एक विभाग है जीवास्तिकाय । जीवास्तिकाय का एक जीव, उसका अन्तिम छोर है क्रोध । इसके आधार पर भाव जगत् की प्रक्रिया का गहन अध्ययन किया जा सकता है । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्रकरण मूल पाठ सस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद उवक्कमाणुओगदारे वत्तव्वया-पदं उपक्रमानुयोगद्वारे वक्तव्यता- उपक्रम अनुयोगद्वार-वक्तव्यता-पद पदम् ६०५. से कि तं वत्तव्वया? वत्तव्वया अथ कि सा वक्तव्यता? वक्त- ६०५. वह वक्तव्यता क्या है ? तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-ससमय- व्यता त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा वक्तव्यता के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेवत्तव्वया परसमयवत्तव्वया ससमय- स्वसमयवक्तव्यता परसमयवक्तव्यता स्वसमय वक्तव्यता, परसमय वक्तव्यता और परसमयवत्तव्वया ॥ स्वसमय-परसमयवक्तव्यता । स्वसमय परसमय वक्तव्यता। ६०६. से कि तं ससमयवत्तव्वया ? अथ कि सा स्वसमयवक्तव्यता? ६०६. वह स्वसमय वक्तव्यता क्या है ? ससमयवत्तब्वया-जत्थ णं ससमए स्वसमयवक्तव्यता यत्र स्वसमयः स्वसमय वक्तव्यता-जहां स्वसमय [अपने आघविज्जइ पण्णविज्जइ परू- आख्यायते प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते वय॑ते सिद्धान्त] का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, विज्जइ वंसिज्जइ निदंसिज्जइ निदर्श्यते उपदश्यते । सा एषा स्व- दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। उवदंसिज्जइ। से तं ससमय- समयवक्तव्यता । वह स्वसमय वक्तव्यता है। वत्तव्वया ॥ ६०७. से कि तं परसमयवत्तव्वया ? अथ कि सा परसमयवक्तव्यता? ६०७. वह परसमय वक्तव्यता क्या है ? परसमयवत्तव्वया-जत्थ णं पर- परसमयवक्तव्यता- यत्र परसमय: परसमय वक्तव्यता--- जहां परसमय [अन्यसमए आघविज्जइ पण्णविज्जइ आख्यायते प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते वय॑ते तीथिकों के सिद्धान्त] का आख्यान, प्रज्ञापन, परूविज्जइ दंसिज्जइ निदंसिज्जइ निवय॑ते उपदयते । सा एषा पर- प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया उवदंसिज्जइ । से तं परसमय- समयवक्तव्यता । जाता है । वह परसमय वक्तव्यता है। वत्तव्वया ॥ ६०८. से किं तं ससमय-परसमय- अथ किं सा स्वसमय-परसमय- ६०८. वह स्वसमय परसमय वक्तव्यता क्या है ? वत्तव्वया ? ससमय-परसमय- वक्तव्यता ? स्वसमय-परसमयवक्त स्वसमय परसमय वक्तव्यता-जहां स्वसमय वत्तव्वया-जत्थ ससमए परसमए व्यता -यत्र स्वसमयः परसमय: और परसमय दोनों का आख्यान, प्रज्ञापन, आधविज्जइ पण्णविज्जइ परू- आख्यायते प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते वय॑ते प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया विज्जइ दंसिज्जइ निदंसिज्जइ निदर्श्यते उपदर्यते। सा एषा स्व- जाता है। वह स्वसमय परसमय वक्तव्यता है ? उवदंसिज्जइ। से तं ससमय- समय-परसमयवक्तव्यता। परसमयवत्तव्वया ॥ ६०९. इयाणि को नओ कं वत्तव्वयं इदानीं क: नयः का वक्तव्यता- ६०९. अब यह प्रस्तुत है कि किस नय को कौन इच्छइ ? तत्थ नेगम-ववहारा मिच्छति ? तत्र नैगम-व्यवहारौ सी वक्तव्यता इष्ट है ? तिविहं वत्तव्वयं इच्छंति, तं जहा. त्रिविधां वक्तव्यतामिच्छतः, तद्यथा-- नगम और व्यवहार को त्रिविध वक्तव्यता ससमयवत्तव्वयं परसमयवत्तव्वयं स्वसमयवक्तव्यतां परसमयवक्तव्यतां इष्ट है, जैसे-स्वसमय वक्तव्यता, परसमय ससमय-परसमयवत्तव्वयं । उज्जु- स्वसमय-परसमयवक्तव्यताम् । ऋज- वक्तव्यता और स्वसमय परसमय वक्तव्यता। सुओ दुविहं वत्तव्वयं इच्छइ, तं सूत्रः द्विविधां वक्तव्यतामिच्छति, ऋजुसूत्र को द्विविध वक्तव्यता इष्ट है, जैसे जहा-ससमयवत्तव्वयं परसमय- तद्यथा-स्वसमयवक्तव्यतां परसमय- -स्वसमय वक्तव्यता और परसमय वक्तवत्तव्वयं। तत्थ णं जासा ससमय- वक्तव्यताम् । तत्र या असौ स्वसमय- व्यता। उनमें जो स्वसमय वक्तव्यता है वह Jain Education Intemational Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० , वत्तव्वया सा ससमयं पविट्ठा । जासा परसमयवत्तव्वया सा परसमयं पविट्ठा। तम्हा दुबिहा वत्तव्वया, नत्थि तिविहा वत्तव्वया । तिब्णि सहनवा एवं ससमयबसवयं इच्छति नत्थि परसमयबत्तव्वया । कम्हा ? जम्हा परसमए अणट्ठे अहेऊ असम्भावे अकिरिया उम्म अणुवएसे मिच्छादंसणमिति कट्टु, तम्हा सव्वा ससमवत्तव्वया, नत्थि परसमयवत्तव्वया, नत्थि ससमय। से तं परसमयवतव्वया वत्तव्वया ॥ उववकमाणुओगदारे अत्याहियार पर्व ६१०. से कि तं अस्वाहिवारे ? अत्या हिगारे जो जस्स अञ्झयणस्स अत्याहिगारो, तं जहागाहा १. सावज्जजोगविरई २. उक्कित्तण ३. गुणवओ य पश्विती। ४. खलियरस निदना ५. वर्णतिमिच्छ ६. गुणधारणा चैव ॥१॥ - सेतं अत्यहिगारे | उवक माणुओगदारे समोवार पद वक्तव्यता सा स्वसमयं प्रविष्टा । या असौ परसमयवक्तव्यता सा परसमयं प्रविष्टा । तस्माद् द्विविधा वक्तव्यता, नास्ति त्रिविधा वक्तव्यता । श्रयः शब्दनया: एकां स्वसमयवक्तव्यतामिच्छन्ति, नास्ति परसमयवक्तव्यता । कस्मात् ? यस्मात् परसमयः अनर्थः हेतुः असद्भावः अकिया उन्मार्गः अनुपदेश: मिथ्यादर्शनमिति कृत्वा, तस्मात् सर्वा स्वसमयवक्तव्यता, नास्ति परसमयवक्तव्यता, नास्ति स्वसमय-परसमयवक्तव्यता । सा एषा वक्तव्यता ॥ उपक्रमानुयोगद्वारे अर्थाधिकार पदम अथ किस अर्थाधिकारः ? अर्थाधिकारः -- यः यस्य अध्ययनस्य अर्थाधिकार:, तद्यथा गाथा १. सावद्ययोगविरतिः २. उत्कीर्तनं ३. गुणवतश्च प्रतिपत्तिः । ४. स्खलितस्य निन्दनं ५. व्रणचिकित्सा ६. गुणधारणा चैव ॥ gan - स एष अर्थाधिकारः । उपक्रमानुयोगद्वारे समवतारपदम् अथ कि स समवतारः ? समयतारः षड्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ६११. से कि त समोयारे ? समोयारे छव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - १. नामसमोवारे २. ठवणसमोयारे ३. दव्वसमोयारे ४ खेत्तसमोयारे ५. कालसमोयारे ६. भावसमो- क्षेत्रसमवतारः ५. कालसमवतारः यारे ॥ १. नामसमवतारः २. स्थापनासमवतारः ३. द्रव्यसमवतारः ४. ६. भावसमवतार: । ६१२. नामदुवणाओ गयाओ जाय। से तं भवियसरीरदव्वसमोयारे ॥ ६१३. से किं तं जाणगसरीर - भवियसरीर वतिरिते दध्वसमोयारे ? जाणगसरीर-मवियसरीरवतिरिते दव्वसमोयारे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- आयसमोयारे परसमोयारे समवतार नामस्थापने गते यावत् । स एष भव्यशरीरद्रव्यसमवतारः । अथ कि स ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारः । ज्ञशरीरभव्यशरीर-व्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- आत्मपरसमवतारः तदुभय अणुओगदाराई स्वसमय में प्रविष्ट है और जो परसमय वक्तव्यता है वह परसमय में प्रविष्ट है इसलिए वक्तव्यता दो प्रकार की है, तीन प्रकार की नहीं । तीन शब्द नयों को एक स्वसमय वक्तव्यता इष्ट है । परसमय वक्तव्यता इष्ट नहीं है । किसलिए ? 1 इसलिए कि परसमय अन्य हेतु प सद्भावशून्य किया शून्य उन्मार्ग अनुपदेश और मिथ्या दर्शन है। इसलिए स्वसमय वक्तव्यता है, परसमय वक्तव्यता नहीं है और स्वसमय परसमय वक्तव्यता भी नहीं है। वह वक्तव्यता है ।" उपक्रम अनुयोगद्वार - अर्थाधिकार पद ६१०. वह अर्थाधिकार क्या है ? अर्थाधिकार - जिस अध्ययन का जो [ प्रतिपाद्य विषय है वह उसका ] अर्थाधिकार है, जैसे- गाथा १. सावययोग विरति २. उत्कीर्तन ३. गुणवान की प्रतिपत्ति, ४. स्खलित की निन्दा, ५. व्रण चिकित्सा, ६. गुण धारणा । वह अर्थाधिकार है ।" उपक्रम अनुयोगद्वार - समवतार-पद ६११. वह समवतार क्या है ? समवतार के छः प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेनाम समवतार, स्थापना समवतार, द्रव्य समवतार, क्षेत्र समवतार, काल समवतार और भाव समवतार । ६१२. नाम, स्थापना पूर्ववत् ज्ञातव्य हैं [ देख सू. ९- १७ ] । वह भव्यशरीर द्रव्य समवतार है । ६१३. वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार क्या है ? ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआत्मसमवतार, परसमवतार और तदुभय Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्रकरण : सूत्र ६१०-६१४ तदुभयसमोयारे । सव्वदन्वा वि णं आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति, परसमोपारेण जहा कुंडे बदराणि तदुभयसमोयारेणं जहा घरे यंत्रो आयभावे जहा घडे गीवा आयभावे य ॥ य, ६१४. अहवा जाणवसरीर-मवियसरीरवतिरिते दण्वसमोयारे दुविहे पण्णले, तं जहा आवसमोयारे य तदुभयसमोवारे य । चउसट्टिया आयसमोवारेणं आयभावे समोपरद, तदुभयसमोयारेणं बसी सियाए समोयरइ आयभावे य । बसोसिया आयसमोयारेणं आव भावे समोर, तदुभयसमोयारेणं सोलसियाए समोयरइ आयभावे य। सोलसिया आयसमोवारेणं आयभावे समोवरह, तदुभयसमो यारेणं अट्ठभाइयाए समोवरइ आयभावे य अट्टमाइया आय समोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं चउभाइयाए समोयरइ आयभावे य । चउभाइया आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं अद्धमाणीए समोवर आयभावे य अद्धमाणी आवसमोवारेणं आयभावे समोवर, तदुभयसमोयारेणं माणीए समोयरइ आयभावे य । से तं जाणगसरीर-मवियसरीर-यतिरिले दम्ब समोयारे से तं नोआग1 मओ दव्वसमोयारे । से तं दव्वसमोयारे ॥ समवतार: । सर्वद्रव्याणि अपि आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरन्ति, परसभयता रेण यथा कुण्डे बदराणि, तदुभयसमवतारेण यथा गृहे स्वम्मः आत्मभावे च यथा घटे ग्रीवा आत्मभावे च । अथवा ज्ञशरीर भव्यशरीर-व्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा आत्मसमवतारश्च तदुभयसमवतारश्च चतुष्टिका आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारे द्वात्रिशिकायां सम वतरति आत्मभावे च । द्वात्रिंशिका आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण षोडशिकाय समवतरति आत्मभावे च । षोडशिका आत्मसमचतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमवतारेण अष्टभागिकायां समवतरति आत्मभावे च । अष्टभागिका आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण चतुर्भागिकायां समवतरति आत्मभावे च । चतुर्भागिका आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति, अर्धमाण्यां तदुभयसमवतारेण समवतरति आत्मभावे च । अर्द्धमाणी आत्मसमवतारेच आत्मभावे समयतरति तदुभयसमचतारेण माध्या समवतरति आत्मभावे च स एष शशरीर भव्य शरीर-व्यतिरिक्तो प्राथसमवतारः । स एष नोआगमतो द्रव्यसमवतार: । स एष द्रव्यसमवतारः । ३४१ समवतार । सब द्रव्य आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित होते हैं । परसमवतार के द्वारा परभाव में समवतरित होते हैं, जैसे कुण्ड में बैर । तदुभयसमवतार के द्वारा दोनों में समवतरित होते हैं, जैसे- खंभा घर में और आत्म भाव में समवतरित है। जैसे- ग्रीवा घट में और आत्मभाव में समवतरित है। ६१४. अथवा ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआत्मसमवतार और तदुभयसमवतार । चतुषष्टिका आत्म समवतार के द्वारा आत्म भाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा द्वात्रिंशिका और आत्मभाव में समवतरित है । द्वात्रिंशिका आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है के द्वारा षोडशिका समवतरित है । वह तदुभयसमवतार और आत्मभाव में षोडशिका आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा अष्टभागिका और आत्मभाव में समयतरित है। अष्टभागिका आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा चतुर्भागिका और आत्मभाव में समवतरित है । चतुर्भागका आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा अर्धभाणी और आत्मभाव में समवतरित है। अर्धमाणी आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा माणी और आत्मभाव में समबतरित है । वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार है । वह नोआगमतः द्रव्य समवतार है । वह द्रव्य समवतार है।* Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ६१५. से कि तं खेतसमोयारे ? खेत्त- अथ कि स क्षेत्रसमवतारः ? समोयारे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--- क्षेत्रसमवतारः द्विविधः प्रज्ञप्तः, आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे तद्यथा आत्मसमयतारश्च तदुभयय। भरहे वासे आयसमोयारेणं समवतारश्च । भरतः वर्षः आत्मआयभावे समोयरई, तदुभयसमो- समवतारेण आत्मभावे समवतरति, यारेणं जंबुद्दीवे दोवे समोयरइ तदुभयसमवतारेण जम्बूद्वीपे द्वीपे आयभावे य । जंबुद्दीवे दीवे आय- समवतरति आत्मभावे च । जम्बूद्वीपे समोयारेणं आयभावे समोयरइ, द्वीपे आत्मसमवतारेण आत्मभावे तदुभयसमोयारेणं तिरियलोए समवतरति, तदुभयसमवतारेण तिर्यग - समोयरइ आयभावे य । तिरियलोए लोके समबतरति आत्मभावे च। आयसमोयारेणं आयभावे समोय- तिर्यग्लोक: आत्मसमवतारेण आत्मरइ, तदुभयसमोयारेणं लोए भावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण समोयरइ आयभावे य । लोए लोके समवतरति आत्मभावे च । आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, लोक: आत्मसमवतारेण आत्ममावे तदुभयसमोयारेणं अलोए समोयरइ समवतरति, तदुभयसमवतारेण अलोके आयभावे य । से तं खेत्तसमो समवतरति आत्मभावे च । स एषयारे॥ क्षेत्रसमवतारः। अणुओगदाराई ६१५. वह क्षेत्र समवतार क्या है ? क्षेत्र समवतार के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार । भारत वर्ष आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा जम्बूद्वीप नामक द्वीप और आत्मभाव में समवतरित है। जम्बूद्वीप नामक द्वीप आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा तिर्यगलोक और आत्मभाव में समवतरित है। तिर्यगलोक आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा लोक और आत्मभाव में समवतरित लोक आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा अलोक और आत्मभाव में समवतरित है । वह क्षेत्र समवतार है। ६१६. से कि त कालसमोयारे ? अथ किं स कालसमवतारः ? कालसमोयारे दुविहे पण्णत्ते, तं कालसमवतारः द्विविधः प्रज्ञप्तः, जहा आयसमोयारे य तदुभय- तद्यथा आत्मसमवतारश्च तदुभयसमोयारे य । समए आयसमोया- समवतारश्च । समयः आत्मसमवतारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभय- रेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमोयारेणं आवलियाए समोयरइ समवतारेण आवलिकायां समवतरति आयभावे य। आवलिया आय- आत्मभावे च । आवलिका आत्मसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, समवतारेण आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमोयारेणं आणापाणए तदुभयसमवतारेण आनापाने समवसमोयरइ आयभावे य। एवं जाव तरति आत्मभाव च। एवं यावत् सागरोवमे आयसमोयारेणं आय- सागरोपम: आत्मसमवतारेण आत्मभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं भावे समवतरति, तदुभयसमवतारेण ओसप्पिणस्सप्पिणीसु समोयरइ अवसपिठ्युत्सपिण्योः समवतरति आयमावे य । ओसप्पिणस्स- आत्मभावे च । अवसपिण्युत्सपिण्यौ प्पिणीओ आयसमोयारेणं आय- आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं तरतः, तदुभयसमवतारेण पुद्गलपोग्गलपरियटे समोयरइ आयभावे परिवत्तें समवतरतः आत्मभावे च । य। पोग्गलपरियट्टे आयसमो- पुद्गलपरिवर्तः आत्मसमवतारेण यारेणं आयभावे समोयरइ, तदु- आत्मभावे समवतरति, तदुभयसमवभयसमोयारेणं तीतद्धा अणागत- तारेण अतीताध्वा-अनागताध्व्योः द्धासु समोयरइ आयभावे य । समवतरति आत्मभावे च । अतीतातीतबा अणागतद्धाओ आयसमो- ध्वा-अनागताध्वानी आत्मसमवतारेण ६१६. वह काल समवतार क्या है ? काल समवतार के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार। समय आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा आवलिका और आत्मभाव में समवतरित है। आवलिका आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा आनापान और आत्मभाव में समवतरित है । इस प्रकार यावत् सागरोपम आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा अवसर्पिणीउत्सर्पिणी और आत्मभाव में समवतरित है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वे तदुभयसमवतार के द्वारा पुद्गलपरिवर्त' और आत्मभाव में समवतरित हैं। पुद्गलपरिवर्त आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा अतीतकाल, अनागतकाल और आत्मभाव में समवतरित है। अतीतकाल और अनागतकाल आत्मसम Jain Education Intemational Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्रकरण : सूत्र ६१५-६१७ यारेणं आयभावे समोर समोयारेण सम्बद्वाए समोवर आयभावे य । से तं कालसमोयारे ॥ भयभावे समवतरतः, तदुभयसमवतारेग सर्वाध्वनि समवतरतः आत्मभावे च । स एष कालसमव तारः । ६१७. से किं तं भावसमोयारे ? भाव-: समोयारे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा आसमोयारे य तदुभयसमोयारे य। कोहे आयसमोयारेणं आयभावे समोवर, तदुभयसमोवारेणं माणं समोयरइ आयभावे य । माणे आयसमोयारेणं आयभावे समो परद, तदुभयसमोवारेणं मायाए समोवर आयभावे य माया आयसमोयारेनं आयभाये समो वरद, तदुभयसमोवारेणं सोने समोयरइ आयभावे य । लोभे आयसमोयारेणं आयभावे समो यरइ, तदुभयसमोयारेणं रागे समोयरइ आयभावे य । रागे आयसमोयारेणं आयभावे समो यर तद्भवसमोवारेणं मोहणिजे समोयर आयभावे यमोजे आयसमोयारेणं आयभावे समोपरद, तदुभवसमोयारेणं अद्रुकस्य पगडीसु समोयरइ आयभावे य । अनुकम्मपगडीओ आवसमोयारेण आयभावे समोयरइ, तदुभयसमो - यारेणं छविहे भावे समोयरइ आयभावे । छविहे भावे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं जीवे समोवर आयभावे य । जोवे आपसमोयारेणं आवभावे समोपरद, तदुभयसमो यारे जोवत्यिकार समोयर आयभावे य । जीवत्यिकाए आयसमोवारेणं आयभावे समोपरड, तदुभयस मोयारे सव्वदच्ये समो यर आयभावे य । अथ कि स भावसमवतार: भावसमवतारः ? द्विविध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा - आत्मसमवतारश्च तदुभयसमवतारश्च । क्रोधः आत्मसमवतारेग आत्मयाचे समवतरति तद्भयसमवतारेण माने समवतरति आत्मभावे च । मानः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमयतारेण मायायां समवतरति आत्मभावे च । माया आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमवतारेण सोने समवतरति आत्मभावे च । लोभः आत्मसमवतारेण आरमभावे समयतरति तदुभयसमवतारेण रागे समवतरति आत्मभावे च । रागः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमचतारेण मोहनीये समरति आत्ममायेच मोहनीयम् आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति समवतारेण अष्टकर्मप्रकृतिषु समवतरति आत्मभावे च । अटक प्रकृतयः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरन्ति तदुभयसमव तारेण षड्विधे भावे समवतरन्ति आत्मभावे च । षड्विधः भावः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति समयसमवतारेण जीवे समयरति आत्मभावे च । जीवः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमचतारेण जीवास्तिकाये समवतरति आत्मभावे च जीवास्तिकाय आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमचतारेण सर्वद्रव्येषु समवतरति आत्मभावे च । " " ३४३ वतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है । वे तदुभयसमवतार के द्वारा सर्वकाल और आत्मभाव में समवतरित हैं। वह काल समवतार है। ६१७. वह भाव समवतार क्या है ? भाव समवतार के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार । क्रोध आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमव पर के द्वारा मान और आत्मभाव में समवतरित है। मान आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयस मवतार के द्वारा माया और आत्मभाव में समवतरित है । माया आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वार लोभ और आत्मभाव समवतरित है। लोभ आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है । वह तदुभयसमवतार के द्वारा राग और आत्म भाव में समवतरित है । राग आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभय समवतार के द्वारा मोहनीय कर्म और आत्मभाव में समवतरित है। मोहनीय कर्म आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा आठ कर्म प्रकृतियों और आत्मभाव में समवतरित है। आठ कर्म प्रकृतियां आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है । वे तदुभयसमवतार के द्वारा छह प्रकार के भावों और आत्मभाव में समवतरित हैं। छह प्रकार के भाव आत्मसभवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित हैं। वे तदुभयसमवतार के द्वारा जीव और आत्मभाव में समवतरित हैं। जीव आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है । वह तदुभयसमवतार के द्वारा जीवास्तिकाय और आत्मभाव में समवतरित है। जीवास्तिकाय आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा सब द्रव्यों और आत्मभाव में समवतरित है । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणुओगदाराई ३४४ एत्थ संगहणिगाहा अत्र सङ्ग्रहणीगाथाकोहे माणे माया, क्रोधः मान: माया, लोभे रागे य मोहणिज्जे य । लोभः रागश्च मोहनीच्यच । पगडी भावे जीवे, प्रकृतिः भावः जीवः, जीवत्थिय सव्वदव्वा य ॥१॥ जीवास्तिकः सर्वद्रव्याणि च ॥ -से तं भावसमोयारे। से तं -स एष भावसमवतारः। स एष समोयारे । से तं उवक्कमे। समवतारः । स एष उपक्रमः। (उपक्रम इति प्रथमं द्वारं समति- (उपक्रम इति प्रथमं द्वारं समतिक्रान्तम् । )॥ क्रान्तम् ।) यहां संग्रहणी गाथा है क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, मोहनीय कर्म, कर्म प्रकृति, भाव, जीव, जीवास्तिकाय और सब द्रव्य - पूर्ववती उत्तरवर्ती में समवतरित हैं। वह भाव समवतार है । वह समवतार है । वह उपक्रम है। [उपक्रम प्रथम द्वार समाप्त ।] Jain Education Intemational Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. ( सूत्र ६०५ - ६०८ ) टिप्पण एक विषय की प्ररूपणा, प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन वक्तव्यता कहलाती है ।" १. स्वसमय वक्तव्यता अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करना स्वसमय वक्तव्यता है, जैसे—अस्तिकाय पांच हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि । धर्मास्तिकाय गति सहायक द्रव्य है । यह असंख्य प्रदेशात्मक अखण्ड तत्त्व है । ' सूत्र ६०५-६०८ २. परसमय वक्तव्यता — अन्य तीर्थिकों के सिद्धान्त का प्रतिपादन परसमय वक्तव्यता है । जैसे संत पंचमहभूषा, इहमेगेसि आहिया ३. उभयसमय वक्तव्यता -- अपने तथा अन्यतीर्थिक दोनों के सिद्धान्त का प्रतिपादन करना उभयसमय वक्तव्यता है, जैसेअगारमावसंता वि, आरण्णा वा वि पव्वया । इमं दरिगमावण्णा सवदुनया विमुच्यति ॥ " कोई व्यक्ति गृहस्थ हो, तापस हो अथवा प्रव्रजित शाक्य आदि हो, हमारे दर्शन का आश्रय लेकर वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । सांख्य दर्शन को मानने वाले व्यक्तियों द्वारा यह प्रतिपादन परसमय वक्तव्यता है और जैनों द्वारा यह प्रतिपादन स्वसमय वक्तव्यता है । इसलिए इसमें उभयसमय वक्तव्यता है। आत्मा एक है-इसे एक उदाहरण के रूप में लें - परसमय की दृष्टि से इसकी व्याख्या करने वाले कहते हैं-आत्मा एक है एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ , एक ही आत्मा प्रत्येक प्राणी में प्रतिष्ठित है। वह एक होने पर भी अनेक रूप में जानी जाती है । जैसे- चन्द्रमा एक है । जल से भरे हुए अनेक पात्रों में उसके स्वतन्त्र अस्तित्व की प्रतीति होती है, वैसे ही आत्मा एक होने पर भी अनेक रूपों में दिखाई देता है । स्वसमय की दृष्टि से इसका विवेचन होगा - सब जीवों में शुद्धोपयोग रूप लक्षण समान है । 'उपयोगलक्षणो जीवः' जीव का लक्षण उपयोग है। उपयोग सब जीवो में है इस सारूप्य की दृष्टि आत्मतत्त्व एक है । उभयसमय वक्तव्यता का यह प्रसंग तुलनात्मक अध्ययन ( Comparative study) का संकेत देता है । दिगम्बर साहित्य में 'समय' शब्द आत्मा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इस अर्थ के स्वसमय वक्तव्यता- आत्मवाद । (ख) अहावृ. पृ. ११७ । १. (क) अचू. पू. ८५ अज्झयणाइसु सुतपगारेण सुत्तविभागेण वा इच्छा परूविज्जंति सा वत्तव्वया भवति । (ख) अहावू. पृ. ११७ । (ग) अमवू. पृ. २२५ । २. (क) अचू. पृ. ८५ : जत्थ पंति यत्राध्ययने सूत्रे धर्मास्ति कायद्रव्यादीनां आत्मसमयस्वरूपेण प्ररूपणा क्रियते यथा गतिलक्षणो धर्मास्तिकायेत्यादि सा स्वसमयवक्तव्यता । अनुसार (ग) अमवृ. प. २२५ । ३. (क) अधू. पृ. ८५ यत्र पुनरध्ययनादिषु जीवद्रव्यादीनां एकान्तग्राहेण नित्यत्वमनित्यत्वं वा परसमय रूपेण प्ररूपणा क्रियते । (ख) अहावृ. पृ. ११७ । (ग) अमवृ. प. २२५ । ४. सू. १।१।७ ॥ ५. वही, १।१।१९ । ६. ब्रउ. श्लो. १२। ७. स. गा. २ की बू. पृ. ९ : जीवो नाम पदार्थः स समयः । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ परसमय वक्तव्यता - पुद्गलवाद । स्वपरसमय वक्तव्यता - आत्मपुद्गलवाद । २. (सूत्र ६०६ ) संख्या के प्रकरण में नैगम, संग्रह और व्यवहार तीनों नयों का उल्लेख है।' हेमचन्द्र ने तीनों की व्याख्या की है। हरिभद्र ने केवल नैगम और व्यवहार की व्याख्या की है। प्रस्तुत सूत्र में नैगम और व्यवहार दो नयों का उल्लेख है । हरिभद्र ने नैगम और व्यवहार का उल्लेख किया है।" संग्रहनय सामान्यग्राही नैगम के अन्तर्गत विवक्षित है इस अपेक्षा से उसका उल्लेख नहीं किया गया है। - यह हेमचन्द्र का मत है । " सूत्र ६०९ ऋजुसूत्र वर्तमान पर्याय का ग्राहक है। इसे प्रथम दो वक्तव्यता इष्ट है। वर्तमान क्षण में केवल स्वसमय का प्रतिपादन होगा या केवल परसमय का । उभयसमय वक्तव्यता के प्रसंग में स्वसमय सम्बन्धी बातें प्रथम भेद में आ जाती हैं और परसमय सम्बन्धी द्वितीय भेद में । इसलिए वक्तव्यता तीन प्रकार की नहीं होती । तीन शब्द नय ( शब्द, समभिरूढ व एवंभूत) विशुद्धतर हैं। ये केवल स्वसमय वक्तव्यता को स्वीकार करते हैं। परसमय की अस्वीकृति में उपस्थित किये गए हेतु ये हैं १. अनर्थ - स्वसमय के अनुसार आत्मा (अस्तित्वधर्मा) है। "आत्मा नहीं है" यह प्रतिपादित करने के कारण परसमय अनर्थ है। २. अहेतु - आत्मा के अस्तित्व का प्रतिषेध करने के लिये हेतु दिया जाता है। 'अत्यन्तानुपलब्धेः' यह हेतु नहीं हेत्वाभास है । आत्मा का गुण है ज्ञान । ज्ञान प्रत्यक्ष है अतः आत्मा का नास्तित्व प्रमाणित करने वाला हेतु अहेतु है । ३. असद्भाव - जो सद्भूत अर्थ को अस्वीकार करता है। ४. अक्रिया - जो दर्शन एकान्त शून्यता का प्रतिपादक होने के कारण क्रिया करने वाले का प्रतिषेधक है । क्रिया करने वाले के अभाव में क्रिया की संगति भी नहीं हो सकती । ५. उन्मार्ग जो परस्पर विरोधी तथ्यों का प्रतिपादन करता है । ६. अनुपदेश -- सर्व क्षणिकवादी प्रत्येक पदार्थ को क्षणक्षयी मानते हैं। प्रथम क्षण जो आत्मा है, वह दूसरे क्षण में विनष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में कौन किसे उपदेश दे सकता है ? ७. मिथ्यादर्शन - मिथ्या दृष्टिकोण | ४ ( सूत्र ६११-६१४ ) एकान्तवादी दर्शन दुर्नय हैं। इसलिए शब्द नय इन्हें स्वीकार नहीं करता । एकान्त आग्रह टूटने की स्थिति में वे स्याद् पद की सापेक्षता में स्वसमय वक्तव्यता के अन्तर्गत आ जाते हैं । निष्कर्ष की भाषा में आवश्यक का प्रकरण चल रहा है। वह स्वसमय वक्तव्यता है । कुप्रावचनिक आवश्यक परसमय वक्तव्यता है । सूत्र - ६१० ३. ( सूत्र ६१० ) अध्ययन के अधिकार का क्षेत्र व्यापक है । वक्तव्यता का क्षेत्र सीमित है । अर्थाधिकार आदि पद से लेकर अन्तिम पद तक अनुवृत्त होता है । वक्तव्यता एक विषय के साथ सम्पन्न हो जाती है । सूत्र ६११-६१४ अनुभोगदाराई समवतार का अर्थ है अन्तर्भाव । समवतार के तीन प्रकार हैं १. नसुअ. ५६८ । २. अमवृ. प. २१४ । ३. अहाव. पृ. १०९ । ४. वही, पृ. ११७ ॥ ५. अमवृ. प. २२५ । ६. अहावृ. पृ. ११८ । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ प्र० १२, सू०६०६-६१६, टि० २-५ १. आत्मसमवतार ___जीव द्रव्य जीवभाव से अव्यतिरिक्त होता है इसलिए इसका समवतार जीवभाव में होता है। यदि जीव का अजीव में समवतार हो तो स्वभाव परित्याग के कारण वह अवास्तविक हो जाएगा। यह नैश्चयिक दृष्टिकोण है। २. परसमवतार परभाव में होने वाला समवतार व्यावहारिक होता है, जैसे-कुण्डे में बेर । यद्यपि बेर अपने स्वभाव में स्थित है फिर भी कुण्डे में आधेय के रूप में स्थित हैं। ३. तदुभयसमवतार __ स्तम्भ गृह का ही एक अंश है इसलिए उसका समवतार गृह में भी होता है और आत्मभाव में तो है ही। वैकल्पिक रूप में समवतार के दो ही प्रकार बतलाए गए हैं--- १. आत्मसमवतार २. तदुभयसमवतार । आत्मभाव में समवतार हुए बिना परभाव में समवतार नही हो सकता । अपने आप में अविद्यमान गर्भ मां के उदर में अवस्थित नहीं हो सकता। हेमचन्द्र ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि आत्मसमवतार सर्वत्र व्याप्त है तब परसमवतार नहीं हो सकता केवल तदुभयसमवतार ही होगा। इस प्रश्न के उत्तर में उनका समाधान है कि परसमवतार में आत्मसमवतार अविवक्षित है। तदुभयसमवतार में आत्मसमवतार विवक्षित है। वास्तव में सब समवतार ही हैं जिनका सूत्रकार ने वैकल्पिक रूप में उल्लेख किया है। चतुःषष्टिका आदि की जानकारी के लिए द्रष्टव्य सूत्र ३७६ । सूत्र ६१६ ५. पुद्गलपरिवर्त (पोग्गलपरियट्टे) पुद्गलपरावर्तन क्षेत्र काल भाव बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तन के मुख्यतः चार भेद हैं -द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं, बादर और सूक्ष्म । कुल मिलाकर पुद्गलपरावर्तन के आठ प्रकार होते हैं। लोक में अनन्त परमाणु बिखरे पड़े हैं। उनमें एक जाति वाले पुद्गल समूह को वर्गणा कहते हैं । औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, भाषा, उच्छ्वास, मन और कर्म ये आठ प्रकार की वर्गणाएं हैं । पुद्गलपरावर्तन में आहारक शरीर को छोड़कर शेष सात वर्गणाओं का ग्रहण और परित्याग होता है। आहारक शरीर चौदह पूर्व के धारक लब्धिमान् मुनि को प्राप्त होता है। ऐसे मुनि अर्धपुद्गलपरावर्तन से अधिक संसार परिभ्रमण नहीं करते । इस कारण पुद्गलपरावर्तन में आहारक शरीर का ग्रहण नहीं किया जाता है। बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्तन :-सर्वलोक में रहने वाले सर्वपरमाणुओं को एक जीव औदारिक आदि सातों ही वर्गणाओं के पुद्गलों को ग्रहण कर जितने समय में छोड़े उतने समय को बादर द्रव्य पुद्गल परावर्तन कहते हैं । १. अहाव, पृ. ११८, ११९: सर्वव्याण्यात्मसमवतारेणात्म यथा कुण्डे बदराणि, स्वभावव्यवस्थितानामेवान्यत्रभावात् । भावे समवतरन्ति–वर्तन्ते, तदव्यतिरिक्तत्वाद्, यथा जीव- ३. वही, आत्मसमवताररहितस्य परसमवताराभावात्, न द्रव्याणि जीवमावे इति, भावान्तरसमवतारे तु स्वभाव हात्मन्यवर्तमानो गर्भो जनन्युदरादौ वर्तत इति । त्यागादवस्तुत्वप्रसंगः। ४. अमव. प. २२८ । २. वही, पृ. ११९ : व्यवहारतस्तु परसमवतारेण परभावे, Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ अणुओगदाराई सूक्ष्म द्रव्य पुद्गलपरावर्तन :-ऊपर कथित सातों ही वर्गणाओं का एक जीव अनुक्रम से स्पर्श कर परित्याग करता है । लोक में जितने भी औदारिक वर्गणा के पुद्गल हैं सब से पहले जीव उनका स्पर्श करता है। औदारिक वर्गणा के पुद्गलों का स्पर्श करते समय बीच में अन्य वर्गणाओं के पुद्गलों का स्पर्श होता है उनकी गणना नहीं की जाती है । औदारिक वर्गणा के सारे पद्गलों का स्पर्श करने के बाद वैक्रिय शरीर की सारी वर्गणाओं का स्पर्श करता है। सातों वर्गणाओं को इस क्रम से स्पर्श करने में जितना समय लगता है उसे सूक्ष्म द्रव्य पुद्गलपरावर्तन कहा जाता है। बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन:-मेरु पर्वत से आरम्भ होकर अलोक तक आकाशप्रदेशों की असंख्यात श्रेणियां समस्त दिशाओं और विदिशाओं में फैली हुई हैं। उन सब आकाश प्रदेशों को एक जीव जन्म और मृत्यु से स्पर्श करता है । बाल के अग्र भाग जितना स्थान भी नहीं छोड़ता, उसे बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन कहते हैं । सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन : -मेरु पर्वत से लेकर अलोक तक आकाश प्रदेशों की असंख्यात श्रेणियां निकली हुई हैं। उनमें से प्रत्येक श्रेणी पर अनुक्रम से जन्म-मरण करते-करते लोक के अन्त यानी अलोक तक बीच के एक भी प्रदेश को छोड़े बिना सब प्रदेशों का स्पर्श करे । एक के बाद उससे लगी हुई दूसरी श्रेणी पर, तत्पश्चात् तीसरी श्रेणी पर और फिर चौथी श्रेणी पर, इस प्रकार असंख्यात आकाश श्रेणियों में अनुक्रम से जन्म-मरण करके स्पर्श करे। तब सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन होता है। एक श्रेणी का स्पर्श करते-करते और अनुक्रम से उसे पूरा करने से पहले अगर अन्य श्रेणी का स्पर्श करे या उसी श्रेणी के आगे-पीछे का स्पर्श करे तो वह श्रेणी गिनती में नहीं आती। अन्य श्रेणी का स्पर्श व्यर्थ समझना चाहिए। श्रेणी का स्पर्श करना तभी सार्थक है जब मेर से आरम्भ करके अनुक्रम से सब आकाश प्रदेशों को लोक के अन्त तक स्पर्श करें। बादर काल पुद्गलपरावर्तन :-समय, आवलिका, श्वासोच्छ्वास, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, पूर्व (सत्तर लाख छप्पन हजार वर्ष), पल्य, सागर, अवसर्पिणीकाल, उत्सर्पिणीकाल, कालचक्र--- इन सब कालों को जन्ममरण के द्वारा स्पर्श करने पर बादर काल पुद्गलपरावर्तन होता है। सूक्ष्म काल पुदगलपरावर्तन :-- समय से लेकर कालचक्र पर्यन्त अनुक्रम से जन्म-मरण करके स्पर्श करे । जैसे पहले अवसर्पिणी काल लगे तो उसके पहले समय में जन्म लेकर मरे । फिर दूसरी बार जब अवसर्पिणी काल लगे तो उसके दूसरे समय में जन्म लेकर मरे । इस प्रकार करते-करते जब आवलिका का काल पूरा हो तब तक ऐसा करें। उसके बाद जो अवसर्पिणी काल आए तब उसकी पहली आवलिका में जन्म लेकर मरे, इस तरह समय के अनुसार स्तोक पूरा होने तक आवलिका में अनुक्रम से जन्म ले और मरे । इसी प्रकार स्तोक, लव आदि सब कालों में अनुक्रम से जन्म-मरण करके स्पर्श करे तब काल से सूक्ष्म पुदगलपरावर्तन होता है। बादर भाव पुद्गलपरावर्तन :... पांच वर्ण (काला, पीला, नीला, लाल और श्वेत) दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श-इन बीस प्रकार के समस्त पुद्गलों का जन्म-मरण करके स्पर्श करे तो भाव से बादर पुद्गलपरावर्तन होता है। सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्तन :-लोक में जितने भी काले वर्ण के पुद्गल हैं उन सबका अनुक्रम से जन्म-मरण करके स्पर्श करे । जैसे पहले एक गुण काले पुद्गल का स्पर्श करे, फिर दो गुण काले पुद्गल का स्पर्श करे, इस प्रकार अनन्त गुण काले पुद्गल का स्पर्श करे, काले वर्ण के पुद्गल का स्पर्श करते-करते यदि बीच में अन्य वर्ण (पीला, नीला आदि) वाले पुद्गल का स्पर्श करे तो उनकी स्पर्शना गिनती में नहीं गिनी जाती। जहां तक स्पर्शना हुई थी वहां से आगे स्पर्शना करने पर वह गिनती में आती है। इस प्रकार अनुक्रम से वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के २० प्रकारों का आरम्भ से अन्त तक स्पर्शना करने पर भाव से सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तन कहलाता है। उपर्युक्त आठ प्रकार के परावर्तन करने पर एक पुद्गलपरावर्तन होता है। कर्मग्रन्थ के अनुसार पुद्गलपरावर्तन कर्मग्रन्थ में पुद्गलपरावर्तन के चार भेद हैं - १. द्रव्य पुद्गलपरावर्तन २. क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन ३. काल पुद्गलपरावर्तन ४. भाव पुद्गलपरावर्तन । इनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं बादर और सूक्ष्म । यह पुद्गलपरावर्तन अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल के बराबर है। यह लोक अनेक प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं से भरा हुआ है । उन वर्गणाओं में आठ वर्गणाएं ग्रहण योग्य बतलाई गई हैं अर्थात् वे जीव के द्वारा ग्रहण की जाती हैं। जीव उन्हें ग्रहण करके उनसे अपना शरीर, वचन, मन वगैरह की रचना करता है। वे वर्गणाएं हैं-औदारिक ग्रहणयोग्य वर्गणा, वैक्रिय ग्रहणयोग्य वर्गणा, आहारक ग्रहणयोग्य वर्गणा, तैजस ग्रहणयोग्य वर्गणा, भाषा ग्रहणयोग्य वर्गणा, आनापान ग्रहणयोग्य वर्गणा, मनोग्रहणयोग्य वर्गणा और कार्मण ग्रहणयोग्य वर्गणा । Jain Education Intemational Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १२,०६१६, ०५ ३४६ बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्तन :- जिसने समय में एक जीव समस्त परमाणुओं को अपने औदारिक, वैयि तेजस, भाषा, आनापान, मन और कार्मण शरीर रूप परिणमा कर उन्हें भोग कर छोड़ देता है उसे बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। यहां आहारक शरीर को छोड़ दिया है, क्योंकि आहारक शरीर एक जीव के अधिक से अधिक चार बार ही हो सकता है । अतः वह पुद्गल परावर्तन के लिए उपयोगी नहीं है। सूक्ष्म द्रव्य पुदगलपरावर्तन :- जितने समय में एक जीव समस्त परमाणुओं को औदारिक आदि सात वर्गणाओं में से किसी एक वर्गणा रूप परिणमा कर उन्हें ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने समय को सूक्ष्म द्रव्य पुद्गपरावर्तन कहते हैं। बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्तन में तो समस्त परमाणुओं को सात रूप से भोगकर छोड़ देता है और सूक्ष्म में उन्हें केवल किसी एक रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि यदि समस्त परमाणुओं को एक औदारिक शरीर रूप परिणमाते समय मध्य-मध्य में कुछ परमाणुओं को वैक्रिय आदि शरीर रूप ग्रहण करके छोड़ दे या समस्त परमाणुओं को वैक्रिय शरीर परिणमाते समय मध्य-मध्य में कुछ परमाणुओं को औदारिक आदि शरीर रूप से ग्रहण करके छोड़ दे तो वे गणना में नहीं लिए जाते । जिस शरीर का परिणमन चालू है, उसी शरीर रूप से जो पुद्गल परमाणु ग्रहण करके छोड़े जाते हैं, उन्हीं का सूक्ष्म में ग्रहण किया जाता है । बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन :- कोई एक जीव भ्रमण करता करता आकाश के किसी एक प्रदेश में मरा। वही जीव पुनः आकाश के किसी दूसरे प्रदेश में मरा, फिर तीसरे में मरा। इस प्रकार जब वह लोकाकाश के समस्त प्रदेशों में मर चुकता है तो उतने काल को बादर क्षेत्र पुगनपरावर्तन कहते हैं। सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन :कोई जीव भ्रमण करता-करता आकाश के किसी एक प्रदेश में मरण करके पुनः उस प्रदेश के समीपवर्ती दूसरे प्रदेश में मरण करता है। पुनः उसके निकटवर्ती तीसरे प्रदेश में मरण करता है। इस प्रकार अनन्तर - अनन्तर प्रदेश में मरण करते-करते जब समस्त लोकाकाश के प्रदेशों में मरण कर लेता है तब सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन होता है । इन दोनों क्षेत्र पुद्गलपरावर्तनों में केवल इतना ही अन्तर है कि बादर में तो क्रम का विचार नहीं किया जाता । उसमें व्यवहित प्रदेश में मरण करने पर भी यदि वह प्रदेश पूर्वस्पृष्ट नहीं है तो उसका ग्रहण होता है। वहां क्रम से या बिना क्रम से समस्त प्रदेशों में मरण कर लेना ही पर्याप्त समझा जाता है । किन्तु सूक्ष्म में समस्त प्रदेशों में क्रम से ही मरण करना चाहिए । अक्रम से जिन प्रदेशों में मरण करता है उनकी गणना नहीं की जाती। इससे स्पष्ट है कि पहले से दूसरे में समय अधिक लगता है । बादर काल पुद्गलपरावर्तन :- जितने समय में एक जीव अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के सभी समयों में क्रम या बिना क्रम के मरण कर चुकता है, उतने काल को बादर काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं । सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन :- कोई एक जीव किसी विवक्षित अवसर्पिणी काल के पहले समय में मरा, पुनः उसके दूसरे समय में मरा, पुन: तीसरे समय में मरा; इस प्रकार क्रमवार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के सब समयों में जब मरण कर चुकता है तो उसे सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। यहां भी समयों की गणना क्षेत्र की तरह क्रमवार ही की जाती है, व्यवहित की गणना नहीं की जाती । आशय यह है कि कोई जीव अवसर्पिणी के प्रथम समय में मरा, उसके बाद एक समय कम बीस कोटी कोटी सागर के बीत जाने पर जब पुनः अवसर्पिणी काल प्रारम्भ हो उस समय यदि वह जीव उसके दूसरे समय में मरे तो वह द्वितीय समय गणना में लिया जाता है । मध्य के शेष समयों में उसकी मृत्यु होने पर भी वे गणना में नहीं लिए जाते । किन्तु यदि वह जीव उक्त अवसर्पिणी के द्वितीय समय में मरण को प्राप्त न हो किन्तु अन्य समय में मरण करे तो उसका भी ग्रहण नहीं किया जाता है। अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के बीतने पर भी जब कभी अवसर्पिणी के दूसरे समय में ही मरता है तब उस समय का ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार तीसरे, चौथे आदि समयों में मरण करके जितने समय में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के समस्त समयों में मरण कर चुकता है उस काल को सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। बादर भाव पुद्गलपरावर्तन :-तरतमभेद को लिए हुए अनुभाग बन्ध स्थान असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के बराबर हैं। उन अनुभाग बन्ध स्थानों में से एक-एक अनुभाग बन्ध स्थान में क्रम से या अक्रम से मरण करते करते जीव जितने समय में समस्त अनुभाग बन्ध स्थानों में मरण कर चुकता है उतने समय को बादर भाव पुद्गलपरावर्तन कहते हैं । सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्तन: - सबसे जघन्य अनुभाग बन्ध स्थान में वर्तमान कोई जीव मरा। उसके बाद उस स्थान के अनन्तरवर्ती दूसरे अनुभाग बन्ध स्थान में वह जीव मरा। उसके बाद उस स्थान के अनन्तरवर्ती तीसरे अनुभाग बन्ध स्थान में मरा। इस प्रकार क्रम से जब समस्त अनुभाग बन्ध स्थानों में मरण कर लेता है तो सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्तन कहलाता है। यहां पर भी कोई जीव सबसे Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० अणुओगदाराई जघन्य अनुभाग बन्ध स्थान में मरण करके उसके बाद अनन्तकाल बीत जाने पर भी जब प्रथम अनुभाग स्थान के अनन्तरवर्ती दूसरे अनुभाग बन्ध स्थान में मरण करता है तभी वह मरण गणना में लिया जाता है किन्तु अक्रम से होने वाले अनन्तानन्त मरण भी गणना में नहीं लिए जाते। इसी तरह कालान्तर में द्वितीय अनुभाग बन्ध स्थान के अनन्तरवर्ती तीसरे अनुभाग बन्धस्थान में जब मरण करता है, तो वह मरण गणना में लिया जाता है। दिगम्बर साहित्य में दिगम्बर साहित्य में ये परावर्त पञ्चपरिवर्तन के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके नाम क्रमशः द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन हैं । द्रव्यपरिवर्तन के दो भेद हैं--- १. नोकर्मद्रव्य परिवर्तन । २. कर्मद्रव्य परिवर्तन । नोकर्मद्रव्य परिवर्तन :-एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया और दूसरे आदि समयों में उनकी निर्जरा कर दी । उसके बाद अनन्त बार अगृहीत पुद्गलों को ग्रहण करके, अनन्त बार मिश्र पुद्गलों को ग्रहण करके और अनन्त बार गृहीत पुद्गल को ग्रहण करके छोड़ दिया। इस प्रकार वे ही पुद्गल जो एक समय में ग्रहण किये थे उन्हीं भावों से उतने ही रूप, रस, गन्ध और स्पर्श को लेकर जब उसी जीव के द्वारा पुनः नोकर्म-रूप से ग्रहण किए जाते हैं तो उतने काल के परिमाण को नोकर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं। कर्मद्रव्य परिवर्तन :-एक जीव ने एक समय में आठ प्रकार के कर्मरूप होने के योग्य कुछ पुद्गल ग्रहण किये और एक समय अधिक एक आवली के बाद उनकी निर्जरा कर दी। पूर्वोक्त क्रम से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से जब उसी जीव के द्वारा ग्रहण किए जाते हैं तो उतने काल को कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं। नोकर्मद्रव्य परिवर्तन और कर्मद्रव्य परिवर्तन को मिलाकर एक द्रव्य परिवर्तन या पुद्गलपरिवर्तन होता है। और दोनों में से एक को अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन कहते हैं। क्षेत्र परिवर्तन :-सब से जघन्य अवगाहना का धारक सूक्ष्म निगोदिया जीव लोक के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ और मर गया । वही जीव उसी अवगाहना को लेकर वहां दुबारा उत्पन्न हुआ और मर गया । इस प्रकार घनांगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र में जितने प्रदेश होते हैं, उतनी बार उसी अवगाहना को लेकर वहां उत्पन्न हुआ और मर गया। उसके बाद एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते जब समस्त लोकाकाश के प्रदेशों को अपना जन्मक्षेत्र बना लेता है तो उतने काल को एक क्षेत्र परिवर्तन कहते हैं। काल परिवर्तन :-एक जीव उत्सर्पिणी काल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूरी करके मर गया। वही जीव दूसरी उत्सपिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूरी हो जाने के बाद मर गया । वही जीव तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ और उसी तरह मर गया। इस प्रकार वह उत्सर्पिणी काल के समस्त समयों में उत्पन्न हुआ और इसी प्रकार अवसर्पिणी काल के समस्त समयों में उत्पन्न हुआ। उत्पत्ति की तरह मृत्यु का भी क्रम पूरा किया । अर्थात् पहली उत्सर्पिणी के प्रथम समय में मरा, दूसरी उत्सपिणी के दूसरे समय में मरा । इसी तरह पहली अवसर्पिणी के पहले समय में मरा, दूसरी अवसर्पिणी के दूसरे समय में मरा । इस प्रकार जितने समय में उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल के समस्त समयों को अपने जन्म और मृत्यु से स्पृष्ट कर लेता है, उतने समय का नाम काल परिवर्तन है। भव परिवर्तन :-नरक गति में सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष है। कोई जीव उतनी आयु को लेकर नरक में उत्पन्न हुआ । मरने के बाद नरक से निकलकर पुनः उसी आयु को लेकर दूसरी बार नरक में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्ष में जितने समय होते हैं उतनी बार उसी आयू को लेकर नरक में उत्पन्न हुआ। उसके बाद एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर नरक में उत्पन्न हुआ, फिर दो समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर नरक में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते नरक गति की उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर पूर्ण की । उसके बाद तिर्यक् गति को लिया । तिर्यक् गति में अन्तर्मुहुर्त की आयु लेकर उत्पन्न हुआ और मर गया। उसके बाद उसी आयु को लेकर पुनः तिर्यग् गति में उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त में जितने समय होते हैं उतनी बार अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर उत्पन्न हुआ, उसके बाद पूर्वोक्त प्रकार से एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते तिर्यग् गति की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य पूरी की। तिर्यग्गति की ही तरह मनुष्यगति का काल पूरा किया और नरक गति की तरह देवगति का काल पूरा किया। देवगति में केवल इतना अन्तर है कि ३१ सागर की आयु पूरी करने पर ही भव परिवर्तन पूरा हो १. कनं. ५, पृ. २७२-२८१। २. ससि. २।१०। Jain Education Intemational Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १२, सू० ६१७ टि०५,६ जाता है । क्योंकि ३१ सागर से अधिक आयु वाले देव नियम से सम्यग्दृष्टि होते हैं और वे एक या दो मनुष्य भव धारण करके मोक्ष चले जाते हैं । इस प्रकार चारों गति की आयु को भोगने में जितना काल लगता है उसे भव परिवर्तन कहते हैं। भाव परिवर्तन :-कर्मों की एक-एक स्थिति बन्ध के कारण असंख्यात लोक प्रमाण कषायाध्यवसाय स्थान हैं। और एकएक कषाय स्थान के कारण असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसाय स्थान हैं। किसी पञ्चेन्द्रिय संशी पर्याप्तक मिथ्यादष्टि जीव ने ज्ञानावरण कर्म का अन्तः कोटी-कोटी सागर प्रमाण जघन्य स्थिति बन्ध किया। उसके उस समय सबसे जघन्य कषाय स्थान और सबसे जघन्य अनुभाग स्थान तथा सबसे जघन्य योग स्थान था। दूसरे समय में वही स्थितिबन्ध, वही कषाय स्थान और वही अनुभाग स्थान रहा किन्तु योग स्थान दूसरे नम्बर का हो गया। इस प्रकार उसी स्थितिबन्ध, कषाय स्थान तथा अनुभाग स्थान के साथ श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण समस्त योग स्थान को पूर्ण किया। योग स्थानों की समाप्ति के बाद स्थिति बन्ध और कषाय स्थान तो वही रहा किन्तु अनुभाग स्थान दूसरा बदल गया । उसके भी पूर्ववत् समस्त योगस्थान पूर्ण किये । इस प्रकार अनूभागाध्यवसाय स्थानों के समाप्त होने पर उसी स्थिति बन्ध के साथ दूसरा कषायस्थान हुआ। उसके भी अनुभाग स्थान और योगस्थान पूर्ववत् समाप्त किये । पुनः तीसरा कषायस्थान हुआ। उसके भी अनुभागस्थान और योग स्थान पूर्ववत् समाप्त किये । इस प्रकार समस्त कषायस्थानों के समाप्त हो जाने पर उस जीव ने एक समय अधिक अन्तः कोटी-कोटी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध किया। उसके भी कषाय स्थान, अनुभाग स्थान और योगस्थान पूर्ववत् पूर्ण किये। इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते ज्ञानावरण की तीस कोटी-कोटी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति पूरी की। इस तरह जब वह जीव सभी मूल प्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियों की स्थिति पूरी कर लेता है तब उतने काल को भाव परिवर्तन कहते हैं। इन सभी परिवर्तनों में क्रम का ध्यान रखा गया है । अक्रम से जो क्रिया होती है वह गणना में नहीं ली जाती। अर्थात् सूक्ष्म पुद्गलपरिवर्तनों में जो व्यवस्था है वही व्यवस्था यहां भी समझनी चाहिए।' सूत्र ६१७ ६. (सूत्र ६१७) लोक द्रव्यमय-पञ्चास्तिकायमय है। पञ्चास्तिकाय का एक भाग है जीवास्तिकाय । जीवास्तिकाय का एक भाग है जीव । प्रत्येक जीव में भाव होता है । भाव का हेतु है कर्मप्रकृति । कर्म का मुख्य स्रोत है मोह। मोह का हेतु है राग। राग का हेतु है लोभ । लोभ का हेतु है माया। माया का हेतु है मान । मान का हेतु क्रोध है । जब हम व्यापक से व्याप्य की ओर चलते हैं तब पञ्चास्तिकाय से क्रोध तक जाते हैं। जब हम व्याप्य से व्यापक की ओर जाते हैं तो क्रोध से पञ्चास्तिकाय तक आ जाते हैं। भाव समवतार की प्रक्रिया में विश्व को अन्तर और बाह्य दोनों रूप में समझने का अवसर मिलता है। १.कग्रं ५, पृ. २८१-२८४ । Jain Education Intemational Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रकरण (सूत्र ६१८-७१५) Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत प्रकरण में निक्षेप के तीन प्रकारों का निरूपण किया गया है। नामनिष्पन्न निक्षेप के वर्णन में सामायिक पद की विस्तृत चर्चा की गई है। उस चर्चा में सामायिक विषयक छह श्लोक हैं। ये श्लोक संकलन काल में अथवा देवधिगणी के उत्तरकाल में प्रासंगिक गाथाओं के रूप में जुड़े हैं, ऐसी संभावना की जा सकती है । आवश्यकनिर्युक्ति में प्रथम चार श्लोक उपलब्ध हैं । किन्तु 'नोआगमओ भावसामाइए' का इन श्लोकों और गाथाओं के अतिरिक्त कोई निरूपण नहीं है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि आर्यरक्षित ने स्वयं इन गाथाओं का प्रयोग किया है। स्थानाङ्ग सूत्र में सात नयों के नाम मिलते हैं । किन्तु उनके निरुक्त या लक्षण वहां नहीं हैं। प्रस्तुत प्रकरण में चार गाथाओं में इनके लक्षण निर्दिष्ट हैं। ये गाथाएं आर्यरक्षित कृत हैं अथवा आवश्यकनिर्यक्ति से उद्धृत है, यह विमर्शनीय है । प्रतीत होता हैं प्रसंगवश ये गाथाएं आवश्यक नियुक्ति से उद्धृत की गई हैं। इस लघुकाय प्रकरण में अनेक महत्त्वपूर्ण विषय हैं जो बहुत मननीय हैं । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रकरण मूल पाठ सस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद निक्खेवाणुओगदार-पदं निक्षेपानुयोगद्वार-पदम् निक्षेप अनुयोगद्वार-पद ६१८. से कि त निक्खेवे ? निक्खेवे अथ किं स निक्षेपः? निक्षेपः ६१८. बह निक्षेप क्या है ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा ओह- त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ओघनिष्पन्नः निक्षेप के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे - निप्फण्णे नामनिष्फण्णे सुत्तालावग- नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नः । ओघ निष्पन्न, नाम निष्पन्न और सूत्रालापक निष्फण्णे ॥ निष्पन्न । निक्खेवाणओगदारे ओहनिष्फण्ण-पदं निक्षेपानुयोगद्वारे ओघनिष्पन्न- निक्षेप अनुयोगद्वार ओघनिष्पन्न-पद पदम् ६१६. से किं तं ओहनिष्फण्णे? ओह- अथ कि स ओघनिष्पन्नः ? ओघ- ६१९. वह ओघ निष्पन्न निक्षेप क्या है ? निप्फण्णे चउम्बिहे पण्णत्ते, तं निष्पन्नश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा ओघ निष्पन्न निक्षेप के चार प्रकार प्रज्ञप्त जहा--अज्झयणे अज्झीणे आए अध्ययनम् अक्षीणम् आय: क्षपणा। हैं, जैसे-अध्ययन, अक्षीण, आय और झवणा ॥ क्षपणा। ६२०. से कि तं अज्झयणे? अज्झयणे अय किं तद् अध्ययनम् ? अध्ययनं ६२०. वह अध्ययन क्या है ? चउविहे पण्णते, तं जहा- चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-नामाध्ययनं अध्ययन के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेनामज्झयणे ठवणज्झयणे दव्व- स्थापनाध्ययनं द्रव्याध्ययनं भावा नाम अध्ययन, स्थापना अध्ययन, द्रव्य ज्झयणे भावज्झयणे॥ ध्ययनम् । अध्ययन और भाव अध्ययन । ६२१. नाम-दृवणाओ गयाओ॥ नाम-स्थापने गते। ६२१. नाम स्थापना पूर्ववत् ज्ञातव्य हैं। [देखे सू. ९-११] । ६२२. से कि तं दवज्झयणे? दव- अथ कि तद् द्रव्याध्ययनम् ? ६२२. वह द्रव्य अध्ययन क्या है ? ज्झयणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- द्रव्याध्ययनं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - ___ द्रव्य अध्ययन के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, आगमओ य नोआगमओय॥ आगमतश्च नोआगमतश्च । जैसे—आगमत और नोआगमतः । ६२३. से कि तं आगमओ दब्वज्झयणे? अथ किं तद् आगमतो द्रव्याध्यय- ६२३. वह आगमतः द्रव्य अध्ययन क्या है? आगमओ दब्यज्झयणे-जस्स णं नम्? आगमतो द्रव्याध्ययनम् .. यस्य आगमतः द्रव्य अध्ययन --जिसने अध्ययन अज्झयणे ति पदं सिक्खियं ठियं अध्ययनम् इति पदं शिक्षितं स्थितं यह पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, चित जियं मियं परिजियं नामसमं घोस- चितं मितं परिचितं नामसमं घोष- कर लिया, मित कर लिया, परिचित कर समं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं समम् अहीनाक्षरम् अनत्यक्षरम् लिया, नामसम कर लिया, घोषसम कर अम्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अव्याविद्धाक्षरम् अस्खलितम् लिया, जिसे वह होन, अधिक या विपर्यस्त अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्ण- अमीलितम् अव्यत्यानंडितं प्रतिपूर्ण अक्षर रहित, अस्खलित, अन्य वर्णों से घोसं कंठोढविप्पमुक्कं गुरुवायणो- प्रतिपूर्णघोषं कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं गुरु- अमिश्रित, अन्य ग्रन्थों के वाक्यों से अमिश्रित, वगयं, से णं तत्थ वायणाए वाचनोपगतं, तत् तत्र वाचनया प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोषयुक्त, कण्ठ और होठ से पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए, प्रच्छनया परिवर्तनया धर्मकथया, नो निकला हुआ तथा गुरु की वाचना से प्राप्त नो अणुप्पेहाए। कम्हा? अणुव- अनुप्रेक्षया । कस्मात् ? अनुपयोगो है। वह उस [अध्ययन पद] के अध्यापन, प्रश्न, ओगो दवमिति कटु ॥ द्रव्यमिति कृत्वा। परावर्तन और धर्म कथा में प्रवृत्त आगमतः Jain Education Intemational Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ६२४. नेगमस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एगे दव्वन्यणे, दोणि अणुवत्ता आगमओ दोणि दव्यज्भषणाई, तिणि अणुवउत्ता आगमओ तिष्णि दव्वज्भयणाई, एवं जावइया अणुवत्ता तावइयाई ताई नेगमस्स आगमओ भय गाई। एवमेव यवहारस्त वि संगहस्स एगो वा अणेगा वा अणुउत्तो वा अणुवत्ता वा आगमओ दवणे वा दव्ययणाणि वा से एगे दव्वज्भयणे । उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एगे दब्वभषणे, पुहतं नेच्छइ तिन्हं सद्दनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थू । कम्हा ? जइ जाणए अणुवउसे न भव से तं आगमओ दवणे || 1 ६२५. से किं तं नोआगमओ दव्वज्भयणे ? नोआगमओ दव्वज्भयणे तिविहे पण ते तं जहा जानग सरीरदश्वश्कपणे भवियसरीर बम्बम्भपणे जाणगसरीर-मविय सरीर-वतिरित्ते दव्वज्भयणे || नंगमस्य एको अनुपयुक्तः आगमतः एकं प्राध्ययनम् अनुपयुक्तौ आगमतो द्वे द्रव्याध्ययने, त्रयः अनुपपुरता आगमत: त्रीणि प्रच्याध्ययनानि एवं यावन्तो अनुपयुक्ताः तावन्ति तानि नैगमस्य आगमतो व्याध्ययनानि एवमेव व्यवहारस्यापि । संग्रहस्य एकः वा अनेके वा अनुपयुक्तः वा अनुपयुक्ताः वा आगमतो द्रव्याध्ययनं वा द्रव्याध्ययनानि वा तद् एकं द्रव्याध्ययनम् । ऋजुसूत्रस्य एकः अनुपयुक्तः आगमतः एकं द्रव्याध्ययनम्, पृथक्त्वं नेच्छति । त्रयाणां शब्दनयानां अनुपयुक्त अवस्तु कस्मात् ? यदि शः अनुपयुक्त न भवति । तदेतद् आगमतो द्रव्याध्ययनम् । । و अथ किं तद् नोआगमतो द्रव्याध्ययनम् ? नोआगमतो द्रव्याध्ययनं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा ज्ञशरीरद्रव्याध्ययनं भव्यशरीरद्रव्याध्ययनं हरारीर भव्यशरीर-व्यतिरिक्तं इव्याध्ययनम् । ६२६. से किं तं जाणगसरीरदव्व अथ किम्बशरीरस्याध्ययनम् ? ज्भयणे ? जाणगसरीरदव्वज्भयणे ज्ञशरीरद्रव्याध्ययनम् अध्ययनम् - अज्झयणे ति पयत्थाहिगार जाणगस्स जं सरीरयं ववगय-चुयचाविय चतदेहं जीवविष्वज सेज्जागयं वा संथारगयं वा निसोहियागयं वा सिद्ध सिलातलगयं वा पासिता णं कोई बएन्जाअहो णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिट्ठेणं भावेणं अज्झयणेत्ति इति पदार्थाधिकारज्ञस्य यत् शरीरक व्यपगत च्युत-च्यावित त्यक्तदेहं जीवविग्रही शय्यागतं वा संस्तारतं वा निषीधिकागतं या सिद्धशिलातलगतं वाट्या कोऽपि वदेत् अहो अन शरीरसमुच्कृपेण जिनविष्टेन भाग अध्ययनम् इति पदम् आख्यातं प्रज्ञापितं प्ररूपितं दर्शितं निर्दाशतम अणुओगदाराई द्रव्य अध्ययन है । वह अनुप्रेक्षा में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि द्रव्य निक्षेप अनुपयोग (चित्त की प्रवृत्ति से होता है। ६२४. नैगम नय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य अध्ययन है, दो अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः दो द्रव्य अध्ययन हैं, तीन अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः तीन द्रव्य अध्ययन हैं। इस प्रकार जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं नैगमनय की अपेक्षा उतने ही आगमतः द्रव्य अध्ययन हैं । इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा भी जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं उतने ही आगमत: द्रव्य अध्ययन हैं । संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति है अथवा अनेक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, आगमतः एक द्रव्य अध्ययन है अथवा अनेक द्रव्य अध्ययन हैं, वह एक द्रव्य अध्ययन है । ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य अध्ययन है । भिन्नता उसे इष्ट नहीं है । " तीन नव [शब्द समभिरूद, एवंभूत] की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता अवस्तु है क्योंकि यदि कोई ज्ञाता है तो वह अनुपयुक्त नहीं होता । वह आगमतः द्रव्य अध्ययन है । ६२५. वह नोआगमतः द्रव्य अध्ययन क्या है ? नोआगमतः द्रव्य अध्ययन के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—ज्ञशरीर द्रव्य अध्ययन, भव्यशरीर द्रव्य अध्ययन, ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य अध्ययन । ६२६. वह ज्ञशरीर द्रव्य अध्ययन क्या है ? जशरीर द्रव्य अध्ययन इस अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति का जो शरीर अचेतन, प्राण से च्युत, किसी निमित्त से प्राणच्युत किया हुआ, उपचय रहित और जीव विप्रमुक्त है उसे शय्या, बिछौने श्मशानभूमि या सिद्धशिलातल पर देखकर कोई कहे - आश्चर्य है इस पौद्गलिक शरीर ने जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार अध्ययन इस पद का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन " Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रकरण : सूत्र ६२४-६३१ ३५६ पयं आघवियं पण्णवियं परूवियं उपदशितम् । यथा को दृष्टान्त: ? किया है। जैसे-कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य दंसियं निदंसियं उवदंसियं । जहा अयं मधुकुम्भः आसीत्, अयं घृतकुम्भ: ने कहा- इसका दृष्टान्त यह है] यह मधुघट को दिळंतो? अयं महुकुंभे आसी, आसीत् । तदेतद् ज्ञशरीरद्रव्या- था, यह घृतघट था। वह ज्ञशरीर द्रव्य अयं घयकंभे आसी। से तं जाणग- ध्ययनम् । अध्ययन है। सरीरदब्वज्झयणे ॥ ६२७. से कि तं भवियसरीरदब्व- अथ कि तद् भव्यशरीरद्रव्याध्यय- ६२७. वह भव्यशरीर द्रव्य अध्ययन क्या है ? भयणे? भवियसरीरदव्वज्झयणे नम् ? भव्यशरीरद्रव्याध्ययनम-यो भव्यशरीर द्रव्य अध्ययन गर्भ की पूर्णावधि -जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खंते जीवो योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन चैव से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त पौद्गलिक इमेणं चेव आदत्तएणं सरीर- आदत्तकेन शरीरसमुच्छयेण जिनदिण्टेन शरीर से अध्ययन इस पद को जिन द्वारा समुस्सएणं जिणदिट्टेणं भावेणं भावेन अध्ययनम् इति पदम् एष्यत्- उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में सीखेगा, अज्झयणे ति पयं सेयकाले काले शिक्षिष्यते, न तावत् शिक्षते । वर्तमान में नहीं सीखता है तब तक वह भव्यसिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खइ। यथा कः दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भः शरीर द्रव्य अध्ययन है । जैसे कोई दृष्टान्त जहा को दिळंतो? अयं महकंभे भविष्यति, अयं घृतकुम्भः भविष्यति । है ? [आचार्य ने कहा-इसका दृष्टान्त यह भविस्सइ, अयं घयकभे भविस्सइ। तदतद् भव्यशरारद्रव्याध्ययनम् । है] यह मधुघट होगा, यह घृतघट होगा। वह से तं भवियसरीरदव्वज्झयणे ।। भव्यशरीर द्रव्य अध्ययन है। ६२८. से कि तं जाणगसरीर-भविय- अथ किं तद् ज्ञशरीर-भव्यशरीर- ६२८. वह ज्ञशरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सरीर-वतिरित्ते दव्वज्झयणे? व्यतिरिक्तं द्रव्याध्ययनम् ? ज्ञशरीर- अध्ययन क्या है ? जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ते __भव्यशरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्याध्ययनम् - ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य दव्वज्झयणे-पत्तय-पोत्थय- पत्रक-पुस्तक-लिखितम् । तदेतद् अध्ययन-पत्र और पुस्तकों में लिखित लिहियं । सेतं जाणगसरीर-भविय- ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्या- अध्ययन । वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त सरीर-वतिरित्ते दव्वज्झयणे। से ध्ययनम् । तदेतद् नोआगमतो द्रव्या- द्रव्य अध्ययन है। वह नोआगमतः द्रव्य तं नोआगमओ दवज्झयणे। से ध्ययनम् । तदेतद् द्रव्याध्ययनम् । अध्ययन है। वह द्रव्य अध्ययन है। तं दवज्झयणे॥ ६२६. से कि तं भावज्झयणे? अथ किं तद् भावाध्ययनम् ? भावज्झयणे दुविहे पण्णते, तं भावाध्ययनं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथाजहा-आगमओ य नोआगमओ आगमतश्च नोआगमतश्च । ६२९. वह भाव अध्ययन क्या है ? भाव अध्ययन के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-आगमतः और नोआगमतः । ६३०.से कि तं आगमओ भावज्झयणे? अथ कि तद् आगमतो भावाध्ययनम्। ६३०. वह आगमतः भाव अध्ययन क्या है? आगमओ भावज्झयणे-जाणए आगमतो भावाध्ययनम् ज्ञः उप आगमत: भाव अध्ययन-जो जानता है उवउत्ते। से तं आगमओ युक्तः। तदेतद् आगमतो भावा और उसके अर्थ में उपयुक्त है। वह आगमतः भावज्झयणे ॥ ध्ययनम् । भाव अध्ययन है। ६३१. से कि तं नोआगमओ भाव अथ कि तद् नोआगमतो भावा- ६३१. वह नोआगमतः भाव अध्ययन क्या है ? ज्झयणे ? नोआगमओ भाव- ध्ययनम् ? नोआगमतो भावाध्यय नोआगमतः भाव अध्ययनज्झयणेगाहागाथा गाथाअज्झप्पस्साणयणं, अध्यात्मस्यानयनं, जिससे अध्यात्म [चित्त] का आनयन होता कम्माणं अवचओ उवचियाणं । कर्मणामपचयः उपचितानाम् । है, पूर्व संचित कर्म क्षीण होते हैं और नए अणुवचओ य नवाणं, अनुपचयश्च नवानां, कर्मों का संचय नहीं होता इसलिए आचार्य तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥१॥ तस्मादध्ययनमिच्छन्ति ।।१।। को उसे अध्ययन कहना इष्ट है। वह Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० अणुओगदाराई से तं नोआगमओ भावज्झयणे । से तदेतद् नोआगमतो भावाध्ययनम् । तं भावज्झयणे। से तं अज्झयणे॥ तदेतद् भावाध्ययनम् । तदेतद् अध्ययनम। नोआगमत: भाव अध्ययन है।' वह भाव अध्ययन है। वह अध्ययन है। ६३२. से कितं अज्झीणे? अझोणे अथ किं तद् अक्षीणम् ? अक्षीणं ६३२. वह अक्षीण क्या है ? चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-नाम- चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-नामाक्षीणं अक्षीण के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेज्झोणे ठवणझीणे दव्वज्झीणे स्थापनाक्षीणं द्रव्याक्षीणं भावाक्षीणम् । नाम अक्षीण, स्थापना अक्षीण, द्रव्य अक्षीण भावज्झीणे ॥ और भाव अक्षीण । ६३३. नाम-ढवणाओ गयाओ॥ नाम-स्थापने गते । ६३३. नाम स्थापना पूर्ववत् ज्ञातव्य हैं। [देखें सू. ९-११]। ६३४. से कि तं दव्वज्झीणे? दव्व- अथ किं तद् द्रव्याक्षीणम्। ६३४. वह द्रव्य अक्षीण क्या है ? झोणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-- द्रव्याक्षीणं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा द्रव्य अक्षीण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआगमओ य नोआगमओ य॥ आगमतश्च नोआगमतश्च । आगमत: और नोआगमतः । ६३५. से कितं आगमओ दव्वज्झीणे? अथ किं तद् आगमतो द्रव्या- अथ किं तद् आगमतो द्रव्या ६३५. बह आगमत: द्रव्य अक्षीण क्या है ? आगमओ दव्वझीणे-जस्स णं क्षीणम् ? आगमतो द्रव्याक्षीणम् - आगमत: द्रव्य अक्षीण-जिसने अक्षीण अज्झोणे त्ति पदं सिक्खियं ठियं यस्य अक्षीणम् इति पदं शिक्षितं यह पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, चित जियं मियं परिजियं नामसमं घोस- स्थितं चितं मितं परिचितं नामसमं कर लिया, मित कर लिया, परिचित कर समं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं घोषसमम् अहीनाक्षरम् अनत्यक्षरम् लिया, नामसम कर लिया, घोषसम कर अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अव्याविद्धाक्षरम् अस्खलितम् अमीलि लिया, जिसे वह हीन, अधिक या विपर्यस्त अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्ण- तम् अव्यत्यानेडितं प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्ण अक्षर रहित, अस्खलित, अन्य वर्गों से घोसं कंठो?विप्पमुक्कं गुरुवायणो- घोषं कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं गुरुवाचनोपगतं, अमिश्रित, अन्य ग्रन्थों के वाक्यों से अमिश्रित, धगयं, से णं तत्थ वायणाए तत् तत्र वाचनया प्रच्छनया परिवर्त प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोष युक्त, कण्ठ और होठ पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए, नया धर्मकथया, नो अनुप्रेक्षया । से निकला हुआ तथा गुरु की वाचना से प्राप्त नो अणुप्पेहाए । कम्हा? अणुव- कस्मात् ? अनुपयोगो द्रव्यमिति । है । वह उस [अक्षीण पद] के अध्यापन, प्रश्न, ओगो दवमिति कटु ॥ कृत्वा । परावर्तन और धर्मकथा में प्रवृत्त आगमतः द्रव्य अक्षीण है। वह अनुप्रेक्षा में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि द्रव्य निक्षेप अनुपयोग (चित्त की प्रवृत्ति से शून्य) होता है। ६३६. नेगमस्स एगो अणुवउत्तो आग- नेगमस्य एकः अनुपयुक्तः आगमत: ६३६. नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति मओ एगे दव्वज्झोणे, दोणि एक द्रव्याक्षीणम्, द्वौ अनुपयुक्तो आगमत: एक द्रव्य अक्षीण है। दो अनुपयुक्त अणुवउत्ता आगमओ दोण्णि दब्व- आगमतोद्वे द्रव्याक्षीणे, त्रयः अनुप- व्यक्ति आगमतः दो द्रव्य अक्षीण हैं, तीन ज्झीणाई, तिणि अणुवउत्ता युक्ताः आगमत: त्रीणि द्रव्याक्षीणानि, अनुपयुक्त व्यक्ति आगमत: तीन द्रव्य अक्षीण आगमओ तिण्णि दव्वज्झीणाई, एवं यावन्तः अनुपयुक्ता: तावन्ति हैं। इस प्रकार जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं एवं जावइया अणुवउत्ता तावइयाइं तानि नंगमस्य आगमतो द्रव्याक्षी- नंगमनय की अपेक्षा उतने ही आगमतः द्रव्य ताई नेगमस्स आगमओ दव्वज्झी- णानि। एवमेव व्यवहारस्यापि । अक्षीण हैं। णाई। एवमेव ववहारस्स वि। सङ्ग्रहस्य एकः वा अनेके वा ___ इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा भी संगहस्स एगो वा अणेगा वा अण- अनुपयुक्तः वा अनुपयुक्ताः वा आगमतो जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं उतने ही आगमतः वउत्तो वा अणुवउत्ता वा आगमओ द्रव्याक्षीणं वा द्रव्याक्षीणानि वा तद् द्रव्य अक्षीण हैं। दव्यज्झीणे वा दव्वज्झीणाणि वा एक द्रव्याक्षीणम् । ऋजुसूत्रस्य एकः संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति से एगे दव्वज्झीणे। उज्जस्यस्स अनुपयुक्तः आगमत: एक द्रव्याक्षीणम्, है अथवा अनेक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, आगमत: Jain Education Intemational Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रकरण सूत्र ६३२-६३९ एगो अणुवउतो आगमओ एगे दीर्ण, पुहतं नेच्छतिरहं अणुवउत्ते सहनयाणं जाणए अवत्थू । कम्हा ? जइ जाणए अणुवडते न भव से तं आगमओ दम्बरणे ॥ ६३७. से कि तं नोआगमओ दयभीगे ? नोब्रागमओ दव्वणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा जाणगसरीरदव्वज्भोणे भवियसरीर दव्वज्भोणे दरभोणे जाणगसरीर-भविय सरीरवतिरिते दध्वम्भीणे || वा ६३९. से कि तं भवियसरीरदस्यपणे ? भवियसरीरदव्वीणेजे जीवे जोणिजम्मणनिक्खते इमेणं चेव आदत्तएणं सरीरस मुस्सएणं जिण दिट्ठेणं भावेणं अज्झीणे त्ति पयं सेयकाले सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्ख । जहा को दिट्ठतो ? अयं महकुंभे भविस्ns अयं धयकुंभे भविस्सइ । से तं भवियसरीरदव्व प्रभो ॥ पृथक्त्वं नेच्छति । त्रयाणां शब्दनयानां अनुपयुक्त अवस्तु कस्मात् ? यदि ज्ञः अनुपयुक्तः न भवति । तदेतद् आगमतो द्रव्याक्षीणम् । अथ ६३८. से कि तं जाणगसरीरदव्यज्झोणे ? जाणगसरीरदव्वज्झीणे- क्षीणम् ? अम्भो ति पत्थाहिगारजाण गस्स जं सरीरयं ववगय-चुयचाविय चत्तदेहं जीवविप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं निसीहियागयं वा सिद्धसिलातलगयं या पासिता णं कोइ वएन्जा अहो णं इमेणं सरीरसमुस्सएवं जिणदिणं भावेणं अम्भीणे ति पयं आचवियं पण्णवियं परूवियं सियं नियंसि उबरंसि जहा कोवितो? अयं महकुंभे आसी अयं चयमे आसो से तं जाणग सरीरदव्वीणे || अथ किं तद् नोआगमतो द्रव्यासोणम् ? नागमतो इम्पालीगं त्रिविधं प्रज्ञप्तं यद्यथा— ज्ञशरीरद्रव्याक्षीणं भव्यशरीरद्रव्याक्षीणं शरीर भव्य शरीर-व्यतिरिक्तं इत्या क्षीणम् । किं तज्ज्ञशरीरद्रव्याशरीरद्रव्यासीनम् अक्षीणम् इति पदार्थाधिकारज्ञस्य यत् शरीरकं व्यपगत च्युत-च्यावित-त्यक्तदेहं जीवविप्रहीणं शय्यागतं वा संस्तारगतं वा निषीधिकागतं वा सिद्धशिलातलगतं वा दृष्ट्वा कोऽपि वयेत् अहो मनेन शरीरसमुष्टपेय मिनविष्टेन भावेन अक्षीणम् इलि पदम् आख्यातं प्रज्ञापितं प्ररूपित वशितं निशितम् उपदशितम् यथा कष्टान्त ? अयं मधुकुम्भः आसीत् अयं घृतकुम्भः आसीत् । तदेतद् [शशरीरत्याक्षीणम् । अथ कि तद् भव्यशरीरद्रव्याश्रीगम ? भव्यशरीरहन्दाक्षीणमयः जीवः योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन चैव आदसकेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिनविष्टेन भावेन अक्षोणम् इति पदम् एष्यत्काले शिक्षिष्यते, न तावत शिक्षते । यथा कः दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्म भविष्यति, अयं घृतकुम्भः भविष्यति । मध्यशरीर व्याक्षीणम् । ३६१ एक द्रव्य अक्षीण है अथवा अनेक द्रव्य अक्षीण हैं, वह एक द्रव्य अक्षीण है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य अक्षीण है। भिन्नता उसे इष्ट नहीं है । तीन शब्दनयों [शब्द समभिरु एवंभूत] की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता अवस्तु है क्योंकि यदि कोई है तो वह अनुपयुक्त नहीं होता । वह आगमतः द्रव्य अक्षीण है । ६३७. वह नोआगमतः द्रव्य अक्षीण क्या है ? नोआगमतः द्रव्य अक्षीण के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- ज्ञशरीर द्रव्य अक्षीण, भव्यशरीर द्रव्य अक्षीण, ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीण । ६३८ वह ज्ञशरीर द्रव्य अक्षीण क्या है ? ज्ञशरीर द्रव्य अक्षीण-अक्षीण इस पद के अधिकार को जानने वाले व्यक्ति का जो शरीर अचेतन, प्राण से च्युत, किसी निमित्त से प्राण च्युत किया हुआ, उपचय रहित और जीव विप्रमुक्त है उसे शय्या, बिछौने, श्मशानभूमि या सिद्धशिलातल पर देखकर कोई कहे आश्चर्य है इस पौद्गलिक शरीर ने जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार "अक्षीण" इस पद का आख्यान, प्रज्ञापन प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया है। जैसे कोई दृष्टान्त है? [आचार्य ने कहा- इसका दृष्टान्त यह है ] यह मधुघट था, यह घृतघट था। वह ज्ञशरीर द्रव्य अक्षीण है । ६३९. वह भव्यशरीर द्रव्य अक्षीण क्या है ? भव्यशरीर द्रव्य अक्षीण-गर्भ की पूर्णावधि से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त पौद्गलिक शरीर से अक्षीण इस पद को जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में सीखेगा, वर्तमान में नहीं सीखता है तब तक वह भव्यशरीर द्रव्य अक्षीण है । जैसे—कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहा इसका दृष्टांत यह है यह मधुघट होगा, यह घृतघट होगा। वह भव्यशरीर द्रव्य अक्षीण है । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ६४०. से कि तं जाणगसरीर भविय सरीर-वतिरित्ते दवणे ? जाणगसरीर भविय सरीर वतिरित्ते दव्वज्भोणे - सव्यागाससेढी । से तं जाणगसरीर-भवियसरीर वतिरित्ते दव्वज्भीणे । नोआगमओ दव्बरोणे दव्वीणे ॥ से तं से तं ६४१. से कि तं भावज्भोणे ? भावउणे दुहे पण्णले तं जहा आगमओ य नोआगमओ य ॥ - ६४२. से कि तं आगमओ भावज्भोणे? आगमओ भावज्झीणे-जाणए उबले । से तं आगमओ भावकीर्ण || ६४३. से कि तं नोआगमओ भावकोणे ? नोआगमओ भावम्भोणे गाहा जह दीवा दोवसयं, पप्पए सो य दिप्पए दीयो । दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति ||१|| से तं नोआगमओ भावकीर्ण। से तं भावक्झोणे से तं अवझीणे ।। ६४४. से कि तं आए ? आए चउण्यिहे पण्णत्ते, तं जहानामाए उवणाए दबाए भाषाए । ६४५. नाम-दुवणाओ गयाओ ॥ ६४६. से किसे दबाए ? दवाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - आगमओ य नोआगमओ य ॥ ६४७ से कि तं आगमओ दबाए ? आगममो दबाए जस्स णं आए त्ति पदं सिलिये ठियं जयं म परिजियं नामसमं घोससमं अथ किं तद् ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्याक्षीणम् ? ज्ञशरीरभव्यशरीर व्यतिरिक्तं द्रव्याक्षीणम् - सर्वाकाशश्रेणिः । तदेतद् ज्ञशरीरभव्यशरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्याक्षीणम् । तदेतद् नोआगमतो द्रव्याक्षीणम् । याक्षोणम् । तदेत अब कि तद् भावाशीणम् ? भावाक्षीणं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा आगमतश्च नोआगमतश्च । अथ कि तद् आगमतो भावाक्षीणम ? आगमतो भावाक्षीणम् ज्ञः उपयुक्तः । तदेतद् आगमतो मायाक्षीणम् । अथ कि तद् नोआगमतो भावाक्षीणम् ? नोभागमतो भावाशीणम् गाथा या दीपा प्रदीप्यते स च दीप्यते दीपः । दीपसमा आचार्या:, दीप्यन्ते परञ्च दीपयन्ति ॥ तदेतद् नोआगमतो भावाक्षीणम् । तदेतद् भावाक्षीणम् । अक्षीणम् । तदेतद् अथ किस आय ? आयश्चतुविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा नामाय: स्थापनाय द्रव्यायः भावाय: । नाम स्थापने गते । अथ कि स द्रव्यायः ? द्रव्यायः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा आगमतश्च नोआगमतश्च । अथ कि स आगमतो द्रव्यायः ? आगमतो द्रव्याय: यस्य आयः इति पदं शिक्षितं स्थितं चितं मितं परिचितं नामसमं घोषसमम् अहीनाक्षरम् अणुओगदारा ६४०. वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीण क्या है ? ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीण सर्व लोक- अलोक रूप सम्पूर्ण आकाश की श्रेणी अक्षीण होती है। वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीण है । वह नोआगमतः द्रव्य अक्षीण है । वह द्रव्य अक्षीण है। * ६४१. वह भाव अक्षीण क्या है ? भाव अक्षीण के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआगमतः और नोआगमतः । ६४२. वह आगमतः भाव अक्षीण क्या है ? आगमतः भाव अक्षीण-जो जानता है और उसके अर्थ में उपयुक्त है। वह आगमतः भाव अक्षीण है ।" ६४३. वह नोआगमतः भाव अक्षीण क्या है ? नोआगमतः भाव अक्षीणगाथा जैसे दीप से सैंकड़ों दीप प्रदीप्त होते हैं फिर भी वह स्वयं दीप्त रहता है, बुझ नहीं जाता । दीप की भांति आचार्य दूसरों को प्रदीप्त करते हैं फिर भी स्वयं प्रदीप्त रहते हैं। वह नोआगमतः भाव अक्षीण है। वह भाव अक्षीण है । वह अक्षीण हैं । ६४४. वह आय क्या है ? आय के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—नाम आय, स्थापना आय, द्रव्य आय और भाव आय । ६४५. नाम स्थापना पूर्ववत् ज्ञातव्य हैं। [देखें सू. ९-११] । ६४६. वह द्रव्य आय क्या है ? द्रव्य आय के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआगमतः और नोआगमतः । ६४७. वह आगमतः द्रव्य आय क्या है ? आगमतः द्रव्य आय- जिसने आय यह पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, चित कर लिया, मित कर लिया, परिचित कर लिया, Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रकरण : सूत्र ६४०-६५० अहीणश्वरं अणवक्रं अवादद्धक्खरं अक्वलियं अमिलियं अवच्यामेलियं परिपुष्णं परिपुरण पोसं कंठोट्टयमुक् गुरुयायणो वगयं से णं तस्य वाचणाए पुच्छणा परियट्टणाए धम्मकहाए, नो अणुहाए । कम्हा ? अणुवओगो दव्यमिति कट्टु ॥ ६४८. नेगमस्स एगो अवडतो आगमओ एगे दबाए, दोणि अणवत्ता आगमओ दोण्णि दव्वाया, तिष्णि अणुवउता आगमओ तिण दव्वाया, एवं जावइया अणुवउत्ता तावइया ते नेगमस्स आगमओ दव्वाया । एवमेव ववहारस्स वि । संग्रहस्त एगो वा अणेगा वा अणुयतो वा अणुवत्ता वा आगमओ दवाए वा दव्वाया वा से एगे दव्वाए । उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एगे दव्वाए, पुहत्तं नेच्छइ । तिन्हं सहनयाणं जाणए अणुवउसे अवत्थू कम्हा ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ । से तं आगमओ दव्वाए ॥ ६४६. से कि तं नागमओ दवाए ? नोआगमओ दवाए तिविहे पण्णले, तं जहा जाणगसरीरदव्वाए भवियसरीरदवाए जाणगसरीर-मवियसरीर वतिरिते दव्वाए || ६५०. से कि तं जाणणसरीरदग्याए ? जाण सरीरदव्वाए - आए त्ति पयत्याहिगार जाणगस्स जं सरीरयं अनत्यक्षरम् अव्याविद्धाक्षरम् अस्खलितम् अमोलिनम् अव्यत्याअंडितं प्रतिपूर्ण प्रतिपोषण्ठोष्ठ वित्रमुक्तं गुरुवाघनोपगतं स तत्र वाचनया प्रच्छनया परिवर्तनया धर्मकथया, नो अनुप्रेक्षया । कस्मात् ? अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा । नैगमस्य एक: अनुपयुक्तः आगमतः एको द्रव्याय:, द्वौ अनुपयुक्तौ आगमतो द्वौ द्रव्यायो, त्रयः अनुप युक्ता: आगमतस्त्रयः द्रव्यायाः एवं यावन्तः अनुपयुक्ता: तावन्तस्ते नैगमस्य आगमतो द्रव्यायाः । एवमेव व्यवहारस्यापि । सङ्ग्रहस्य एकः वा अनेके वा अनुपयुक्तः वा अनुपयुक्ताः वा आगमतो द्रव्यायः वा द्रव्याया: वा स एको द्रव्याय: । ऋजुसूत्रस्य एक: अनुपयुक्त: आगमतः एको द्रव्याय:, पृथक्त्वं नेच्छति । त्रयाणां शब्दनयानां ज्ञः अनुपयुक्तः अवस्तु । ? यदि ज्ञः अनुपयुक्त: कस्मात् भवति । स एष आगमतो द्रव्यायः । न अथ किस नोआगमतो द्रव्यायः ? नोआगमतो द्रव्यायस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा ज्ञशरीरद्रव्यायः भव्यशरीरद्रव्याय: ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्तो द्रव्यायः । अथ कि स ज्ञशरीरद्रव्याय ? ज्ञशरीरद्रव्यायः- आयः इति पदार्थाधिकारज्ञस्य यत् शरीरकं व्यपगत नामसम कर लिया, घोषसम कर लिया, जिसे वह हीन, अधिक या विपर्यस्त अक्षर रहित अस्थतियों से मिश्रित, अन्य ग्रन्थों के वाक्यों से अमित प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्ण घोषयुक्त कण्ठ और होठ से निकला हुआ तथा गुरु की वाचना से प्राप्त है। वह उस [आय पद ] के अध्यापन, प्रश्न, परावर्तन, और धर्मकथा में प्रवृत्त आगमतः द्रव्य आय है । वह अनुप्रेक्षा में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि द्रव्य निक्षेप अनुपयोग (चित्त की प्रवृत्ति से शून्य) होता है । ६४८. नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य आय है. दो अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः दो द्रव्य आय हैं, तीन अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः तीन द्रव्य आय हैं। इस प्रकार जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं नैगमनय की अपेक्षा उतने ही आगमतः द्रव्य आय हैं। इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा भी जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं उतने ही आगमतः द्रव्य आय हैं। संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति है अथवा अनेक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं । आगमतः एक द्रव्य आय है अथवा अनेक द्रव्य आय हैं, वह एक द्रव्य आय है। ऋजुसूत्रनय जुन की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य आय है। भिन्नता उसे इष्ट नहीं है । तीनों श दनयों [शब्द, समभिरूढ़ एवंभूत ] की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता अवस्तु है, क्योंकि यदि कोई ज्ञाता है तो वह अनुपयुक्त नहीं होता। वह आगमतः द्रव्य आय है । ६४९. वह नोआगमतः द्रव्य आय क्या है ? नोआगमतः द्रव्य आय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे ज्ञशरीर द्रव्य आय, भव्यशरीर द्रव्य आय, जशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आय । ६५०. वह जशरीर द्रव्य आय क्या है ? ज्ञशरीर द्रव्य आय -आय इस पद के अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति का जो शरीर -- Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ यगय प चावयवत्तदेहं जीवयात जीवविप्रहीणं विपन सेज्जायं वा संचारमयं वा संस्कारगत वा नियीवा निसोहियागयं वा सिद्धसिला धिकागतं वा सिद्धशिलातलगतं वा सलग वा पासिता णं कोई दृष्ट्वा कोऽपि वदेत् अही अने बएन्जा अहो णं इमेणं सरीर- शरीरसमुरायेण निविष्टेन भावेन समुस्सएणं जिणदिणं भावेणं आयः इति पदम् आख्यातं प्रज्ञापितं आए ति पयं आपवियं पण्णविप्ररूपितं दश निशितम् उपदर्श तम् या का ? अर्थ मधुकुम्भः आसीत्, अयं घृतकुम्भः आसीत् स एव नगरी-द्रयाः । परुवियं दंतियं नियंखियं उवदंसियं जहा को दिट्ठतो ? अयं महुकुंभे आसी, अयं वकुंभे आसी से तं जाणगसरीरदव्वाए | 1 ६५१. से किं तं भवियसरोरदव्वाए ? भवियसरीरदव्वाए जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खते इमेणं चेव आदत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिण दिट्ठेणं भावेणं आए ति प सेय काले सिविखस्स, न ताव सिक्ख जहा को दिट्ठतो ? अयं महुकुंभे भविस्स, अयं चवकुंभे भविस्स से तं भवियसरीरवस्याए || ६५२. से कि तं जाणगसरीर भविय सरोरवतिरितं दबाए ? जाणग सरीर भवियसरीर वतिरित्ते दव्वाए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा लोइए कुप्पावयणिए लोगुत्तरिए ॥ ६५३. से किं तं लोइए ? लोइए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - सचित्ते अचित्ते मी ॥ ६५४. से किं तं सचित्ते ? सचित्ते तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-दुपयाणं चप्पा अपया दुपधाणं दासाणं दासीणं चध्वयाणं आसाणं हवीणं, अपयाणं अंवाणं अंबाडगाणं आए से तं सचिते ॥ ६५५. से कि तं अचित्ते ? अविलेसुवण रयय-मणि-मोतिय-संख सिलवालसरपणाणं संत-सार अथ कि स भव्यशरीरद्रव्यायः ? भव्यशरीरद्रव्यायः- यः जीवो योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन चैव आदत्तकेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिनदिष्टेन भावेन आयः इति पदम् एष्यत्काले शिक्षितेन तावत् शिक्षा कः वृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भः भविष्यति, अयं घृतकुम्भ: भविष्यति । स एष भव्यशरीरद्रव्यायः । अथ कि स ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यायः ? ज्ञशरीरभव्यशरीर-व्यक्तिरिक्तो द्रव्यायस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - लौकिक: प्राचनिकः सोकोतरिक: । अथ किं स लौकिकः ? लौकिकस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-- सचित्तः अचित्तः मिश्रकः । अथ कि स सचित्तः ? सचित्तस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - द्विपदानां चतुष्पदानाम् अपदानाम् । द्विपदानाम् - दासानां दासीनाम्, चतुष्पदानाम्नां हस्तिनाम् अपक्षनाम् आम्राणाम्, आम्रातकानाम् आय: । स एष सचित्तः । - अथ किं स अचित्तः ? अचित्त:सुवर्ण रजत-मणि मौक्तिक शङ्ख-शिलाप्रवाल- रक्तरत्नानां अणुओगदाराई अचेतन प्राण से च्युत, किसी निमित्त से प्राण च्युत किया हुआ, उपचय रहित और जीव विप्रमुक्त है उसे शय्या बिझने मानभूमि या सिद्धशिलातल पर देखकर कोई कहेआश्चर्य है इस पौद्गलिक शरीर ने जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार आय इस पद का आख्यान, प्रज्ञापन प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया है। जैसे कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहा इसका दृष्टान्त यह है ] यह मधुघट था, यह घृतघट था। वह ज्ञशरीर द्रव्य आय है । ६५१. वह भव्यशरीर द्रव्य आय क्या है ? भव्यशरीर द्रव्य आय - गर्भ की पूर्णावधि से निकला हुआ जीव इस प्राप्त पौद्गलिक शरीर से आय इस पद को जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में सीखेगा, वर्तमान में नहीं सीखता है तब तक वह भव्यशरीर द्रव्य आय है। जैसे कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहा - इसका दृष्टान्त यह है ] यह मधुपट होगा, यह पृतपट होगा। वह भव्यशरीर द्रव्य आय है । ६५२. वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आय क्या है ? ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे लौकिक, कुप्रावचनिक और लोकोत्तरिक । ६५३. वह लौकिक द्रव्य आय क्या है ? लौकिक द्रव्य आय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- सचित्त, अचित्त और मिश्र । ६५४. वह सचित्त लौकिक द्रव्य आय क्या है ? सचित्त लौकिक द्रव्य आय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे द्विपद चतुष्पद और अपद । द्विपद- दास, दासी की आय । चतुष्पद - अश्व, हाथी की आय । - आम और आम्रातक [ आमेड़ा ] की आय । वह सचित्त लौकिक द्रव्य आय है । अपद ६५५ वह अचित्त लौकिक द्रव्य आय क्या है ? अचित्त लौकिक द्रव्य आय- सुवर्ण, रजत, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल, रक्तरत्न Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रकरण : सूत्र ६५१-६६१ सावएज्जरस आए से तं अचित्ते ॥ ६५६. से किं तं मीसए ? मीसएदासाणं दासीणं आसाणं हत्थीणं समाभरिया उज्जाकियाणं आए। से तं मीसए । से तं लोइए ॥ ६५७. से किं तं कुप्पावयणिए ? कुप्पातिविहे पण्णत्ते, तं जहासचिते अचिते मीसए || ६५८. से कि तं सचित्ते ? सचित्त तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- दुपयाणं चप्पयाणं अपयाणं । दुपधाणं दासाणं दासीणं, चउप्पयाणं आसाणं कृत्बीण, अपयाणं अंबाणं अंबाडगाणं आए । से तं सचित्ते ॥ ६५६. से कि त अविले ? अविसुवण्ण-रयय-मणि- मोत्तिय संखसिलवाल रत्तरयणानं संत-सारसावएज्जस्स आए। से तं अचित्ते ॥ ६६०. से कि तं मोसए ? मोसए दासाणं दासीणं आसाणं हत्थीणं समाभरिया उज्जालंकियाणं आए । से तंमीसए । सेतं कुप्पावयणिए । ६६१. से कि तं लोगुत्तरिए ? लोगुत्तरिए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा -- सचिले अपिले मोसए । स्वापतेयस्य आयः । स एष अचित्तः । अथ किं स मिश्रक: ? मिश्रक:दासानां दासीनाम् अश्वानां हस्तिनां समामृतातो द्यालंकृतानाम् यः स एष मिश्रकः । स एष लौकिकः । अथ किं स कुप्रावचनिक: ? कृप्रावयनिस्त्रिविध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा सचित्तः अचित्तः मिश्रकः । अथ किस सचित्तः ? सचित्तस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा द्विपदानां चतुष्पदानाम् अपदानाम्। द्विपदानाम् - दासानां दासीनाम्, चतुष्पदानाम् अश्वानां हस्तिनाम् अपदानाम् - आम्राणाम् आम्रतिकानाम् आय: । स एष सचित्तः । अथ किस अचित्त ? अचित्तः सुवर्ण रजत-मणि-मोतिक शिना प्रबाल-समान सत्-सार-स्वापतेयस्य आय: । स एष अचित्तः । . अथ कि स मिश्रक: ? मिश्रक:वासानां दासीनाम् अश्वानां हस्तिनां समानृतातोयाकृतानाम् आया स एष मिश्रकः । स एष कुप्रावचनिकः । अथ किं स लोकोत्तरिक: ? लोकोत्तरिकस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा— सचित्तः अचित्तः मिश्रकः । ३६५ तथा श्रेष्ठ, सुगन्धित द्रव्य एवं दान भोग आदि के लिए स्वापतेय (स्वाधीनता पूर्वक व्यय किए जाने वाले धन ) की आय है । " ६५६. वह मिश्र लौकिक द्रव्य आय क्या है ? मिश्र लौकिक द्रव्य आय -आभरण और आतोद्य [पटह, झल्लरी आदि ] से अलंकृत दास, दासी, अश्व, हाथी आदि की आय । वह मिश्र लौकिक द्रव्य आय है । वह लौकिक द्रव्य आय है । ६५७. वह कुप्रावचनिक द्रव्य आय क्या है ? कुप्रावचनिक द्रव्य आय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- सचित्त, अचित्त और मिश्र । ६५८. वह सचित्त कुप्रावचनिक द्रव्य आय क्या है ? सचित्त कुप्रावचनिक द्रव्य आय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- द्विपद, चतुष्पद और अपद । द्विपद दास, दासी की आय । चतुष्पद अश्व, हाथी की आय । अपद- आम, आम्रातक [ आमेड़ा ] की आय। वह सचित्त कुप्रावचनिक द्रव्य आय है । ६५९. वह अचित्त कुप्रावचनिक द्रव्य आय क्या है ? अति प्राचनिक द्रव्य आय सुवर्ण रजत, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल, रक्तरत्न तथा श्रेष्ठ, सुगन्धित द्रव्य एवं दान भोग आदि के लिए स्वापतेय (स्वाधीनता पूर्वक व्यय किए जाने वाले धन ) की आय । वह अचित्त कुप्रावचनिक द्रव्य आय है । ६६०. वह मिश्र कुप्रावचनिक द्रव्य आय क्या है ? मिश्र कुप्रावचनिक द्रव्य आय --- आभरण और आतोय [पट, तरी आदि से अकृतदासदासी अश्व-हाथी आदि की आय । वह मिश्र कुप्रावचनिक द्रव्य आय है । वह कुप्रावनिक द्रव्य आय है । ६६१. वह लोकोत्तरिक द्रव्य आय क्या है ? लोकोत्तरिक द्रव्य आय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे – सचित्त, अचित्त और मिश्र 1 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई ३६६ ६६२. से कि तं सचित्ते ? सचित्ते- अथ कि स सचित्त:? सचित्त:- सोसाणं सिस्सिणीणं आए। सेत शिष्याणां शिष्याणाम् आयः। स एष सचित्ते॥ सचित्तः। ६६२. वह सचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य आय क्या है ? सचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य आय--शिष्यों और शिष्याओं की आय । वह सचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य आय है। ६६३. से कि तं अचित्ते? अचित्त- अथ कि स अचित्तः? अचित्तः- पडिग्गहाणं वत्थाणं कंबलाणं प्रतिग्रहाणां वस्त्राणां कम्बलानां पायपुंछणणं आए। से तं पादप्रोञ्छनानाम् आय: । स एष अचित्ते ॥ अचित्तः । ६६३. वह अचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य आय क्या है ? अचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य आय--पात्र, वस्त्र, कम्बल और पादप्रोञ्छन की आय । वह अचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य आय है। ६६४. से कितं मीसए? मीसए- अथ कि स मिश्रकः ? मिश्रक:- सीसाणं सिस्तिणियाणं सभंडमत्तो- शिष्याणां शिष्याणां सभाण्डामत्रोपवगरणाणं आए। से तं मीसए। करणानाम् आय: । स एष मिथकः । से तं लोगुत्तरिए। से तं जाणग- स एष लोकोत्तरिकः। स एष सरीर-भवियसरोर-वतिरित्ते ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्तो दवाए। से तं नोआगमतो द्रव्यायः । स एष नोआगमतो द्रव्यायः । दवाए । से तं दवाए। स एष द्रव्यायः । ६६४. वह मिश्र लोकोत्तरिक द्रव्य आय क्या है ? मिश्र लोकोत्तरिक द्रव्य आय - भाण्ड, पात्र, उपकरण सहित शिष्यों और शिष्याओं की आय। वह मिश्र लोकोत्तरिक द्रव्य आय है। वह लोकोत्तरिक द्रव्य आय है। वह ज्ञशरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आय है। वह नोआगमतः द्रव्य आय है । वह द्रव्य आय है । ६६५. से कि तं भावाए ? भावाए अथ कि स भावाय: ? भावायः ६६५. वह भाव आय क्या है? दुविहे पण्णत्ते, तं जहा आगमओ द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा आगमतश्च भाव आय के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेय नोआगमओ य॥ नोआगमतश्च । आगमत: और नोआगमतः । ६६६. से कि तं आगमओ भावाए ? अथ कि स आगमतो भावाय: ? ६६६ वह आगमतः भाव आय क्या है ? आगमओ भावाए-जाणए उव- आगमतो भावाय: उपयुक्तः । स आगमतः भाव आय ---जो जानता है और उत्ते । से तं आगमओ भावाए॥ एष आगमतो भावायः । उसके अर्थ में उपयुक्त है। वह आगमत: भाव आय है। ६६७. से कि तं नोआगमओ भावाए ? अथ कि स नोआगमतो मावायः? ६६७. वह नोआगमतः भाव आय क्या है ? नोआगमओ भावाए दूविहं पण्णत्ते, नोआगमती भावाय: द्विविधः प्रज्ञप्तः, नोआगमत: भाव आय के दो प्रकार प्रज्ञप्त तं जहा-पसत्थे य अपसत्थे य॥ तद्यथा प्रशस्तश्च अप्रशस्तश्च । हैं, जैसे -प्रशस्त और अप्रशस्त । ६६८. से कि तं पसत्थे ? पसत्थे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-नाणाए दंसणाए चरित्ताए । से तं पसत्थे । अथ किं स प्रशस्त ? प्रशस्त. ६६८. वह प्रशस्त भाव आय क्या है? स्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा--ज्ञानायः । प्रशस्त भाव आय के तीन प्रकार प्रज्ञप्त दर्शनायः चरित्रायः। स एष हैं, जैसे-ज्ञान की आय, दर्शन की आय और प्रशस्तः । चारित्र की आय । वह प्रशस्त भाव आय है। ६६६. से कि तं अपसत्थे ? अपसत्थे अथ कि स अप्रशस्त: ? ६६९. वह अप्रशस्त भाव आय क्या है ? चउविहे पण्णत्ते, तं जहा- अप्रशस्तश्चतुविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-- अप्रशस्त भाव आय के चार प्रकार प्रज्ञप्त कोहाए माणाए मायाए लोभाए। क्रोधाय: मानाय: मायायः लोभायः । हैं, जैसे- क्रोध की आय, मान की आय, से तं अपसत्थे। से तं नोआगमओ स एष अप्रशस्तः । स एष नोआगमतो माया की आय और लोभ की आय। वह भावाए। से तं भावाए। से तं भावायः । स एष भावायः । स एष अप्रशस्त भाव आय है। वह नोआगमत: भाव आए। आयः । आय है । वह भाव आय है। वह आय है। ६७०. से कि तं झवणा? झवणा अथ किसा क्षपणा? क्षपणा ६७०. वह क्षपणा क्या है ? चउम्विहा पण्णत्ता, तं जहा- चतुविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नाम- क्षपणा' के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे Jain Education Intemational Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रकरण : सूत्र ६६३-६७४ ३६७ नामझवणा ठवणझवणा क्षपणा स्थापनाक्षपणा द्रब्यक्षपणा दव्वझवणा भावझवणा॥ भावक्षपणा। नाम क्षपणा, स्थापना क्षपणा, द्रव्य क्षपणा और भाव क्षपणा। ६७१. नाम-ट्ठवणाओ गयाओ। नाम-स्थापने गते। ६७१. नाम स्थापना पूर्ववत् ज्ञातव्य हैं ।[देखें, सू० ६७२. से कि तं दविज्झवणा? वन्व ज्झवणा दुविहा पण्णत्ता, तं जहाआगमओ य नोआगमओय ।। अथ कि सा द्रव्यक्षपणा ? ध्य- ६७२. वह द्रव्य क्षपणा क्या है ? क्षपणा द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा द्रव्यक्षपणा के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआगमतश्च नोआगमतश्च । आगमत: और नोआगमतः । ६७३. से कि तं आगमओ दव्व- अथ कि सा आगमतो द्रव्य- ६७३. वह आगमतः द्रव्य क्षपणा क्या है ? ज्झवणा? आगमओ दव्वझवणा क्षपणा? आगमतो द्रब्यक्षपणा--- आगमतः द्रव्य क्षपणा-जिसने क्षपणा यह ---जस्स णं झवणे त्ति पदं सिक्खियं यस्य क्षपणा इति पद शिक्षितं स्थितं पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, चित कर ठिय जियं मियं परिजियं नामसमं चित मितं परिचितं नामसमं घोष- लिया, मित कर लिया, परिचित कर लिया, घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं समम् अहीनाक्षरम् अनत्यक्षरम् नामसम कर लिय, घोषसम कर लिया, जिसे वह अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमि- अध्याविद्धाक्षरम् अस्खलितम अमीलि- हीन, अधिक या विपर्यस्त अक्षर रहित, अस्खलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं तम् अव्यत्यानंडितं प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्ण लित, अन्य वर्गों से अमिश्रित, अन्य ग्रन्यों के पडिपुण्णघोस कंठो?विप्पमुक्कं घोष कण्ठोष्ठविप्रमुक्त गुरुवाधनोपगतं, वाक्यों से अमिश्रित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोषगुरुवायणोवगयं, से णं तत्थ वाय- सा तत्र वाचनया प्रच्छनया परिवत्तं- युक्त, कण्ठ और होठ से निकला हुआ तथा गुरु णाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्म- नया धर्मकथया, नो अनुप्रेक्षया । की वाचना से प्राप्त है । वह उस [क्षपणा पद] कहाए, नो अणुप्पेहाए। कम्हा? कस्मात् । अनुपयोगो द्रव्यमिति के अध्यापन, प्रश्न, परावर्तन और धर्मकथा में अणवओगो दव्वमिति क१ ॥ कृत्वा । प्रवृत्त आगमत: द्रव्यक्षपणा है। वह अनुप्रेक्षा में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि द्रव्य निक्षेप अनुपयोग (चित्त की प्रवृत्ति से शून्य) होता है। ६७४. नेगमस्स एगो अणुवउत्तो आग- नगमस्य एको अनुपयुक्त: आग- ६७४. नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति मओ एगा दव्वझवणा, दोण्णि मत: एका द्रव्यक्षपणा, द्वौ अनुपयुक्ती आगमत: एक द्रव्य क्षपणा है। दो अनुपयुक्त अणुवउत्ता आगमओ दोण्णीओ आगमतो द्वे द्रव्यक्षपणे, त्रयः व्यक्ति आगमत: दो द्रव्य क्षपणा है। तीन दव्वझवणाओ, तिणि अणवउत्ता अनुपयुक्ताः आगमतः तिस्रः द्रव्य- अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः तीन द्रव्य क्षपणा आगमओ तिण्णीओ दव्वझव- क्षपणाः, एवं यावन्तः अनुपयुक्ताः है। इस प्रकार जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं णाओ, एवं जावइया अणव उत्ता तावत्यः ताः नैगमस्य आगमतो द्रव्य- नैगमनय की अपेक्षा उतने ही आगमतः द्रव्य तावइयो ताओ नेगमस्स आगमओ क्षपणा: । एवमेव व्यवहारस्यापि । क्षपणा है। दव्वझवणाओ। एवमेव ववहार- संग्रहस्य एक: वा अनेके वा अनुप- इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा भी स्स वि । संगहस्स एगो वा अणेगा युक्तः वा अनुपयुक्ताः वा आगमतो जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं उतने ही आगमतः वा अणुवउत्तो वा अणुवउत्ता वा द्रव्यक्षपणा वा द्रव्यक्षपणाः वा सा द्रव्य क्षपणा है। आगमओ दव्वझवणा वा दव- एका व्यक्षपणा । ऋजुसूत्रस्य एकः ___संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति है ज्झवणाओ वा सा एगा दव्वज्झ- अनुपयुक्तः आगमत: एका द्रव्य अथवा अनेक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, आगमतः वणा। उज्जुसुयस्स एगो अणवउत्तो क्षपणा, पृथक्त्वं नेच्छति । त्रयाणां एक द्रव्य क्षपणा है अथवा अनेक द्रव्य क्षपणा आगमओ एगा दव्वझवणा, शब्दनयाना शः अनुपयुक्तः अवस्तु । हैं, वह एक द्रव्य क्षपणा है। पुहत्तं नेच्छइ। तिण्हं सद्दनयाणं कस्मात् ? यदि ज्ञः अनुपयुक्तः न ___ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त जाणए अणुवउत्ते अवस्थु । कम्हा? भवति । सा एषा आगमतो द्रव्य व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य क्षपणा है। भिन्नता जह जाणए अणुवउत्ते न भवइ। अपणा । उसे इष्ट नहीं है। से तं आगमओ वव्वझवणा॥ तीन शब्दनयों [शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत] Jain Education Intemational Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराई की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता अवस्तु है क्योंकि यदि कोई ज्ञाता है तो वह अनुपयुक्त नहीं होता। वह आगमतः द्रव्य क्षपणा है। ६७५. से कि तं नोआगमओ दव्व- अथ कि सा नोआगमतो द्रव्य- ६७५. वह नोआगमतः द्रव्य क्षपणा क्या है ? ज्झवणा? नोआगमओ दव्व- क्षपणा ? नोआगमतो द्रव्यक्षपणा नोआगमत: द्रव्य क्षपणा के तीन प्रकार झवणा तिबिहा पण्णता, तं त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-शरीर- प्रज्ञप्त हैं, जैसे-जशरीर द्रव्य क्षपणा, भव्यजहा-जाणगसरीरदब्वझवणा अध्यक्षपणा भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा शरीर द्रव्य क्षाणा, ज्ञशरीर भव्यशरीर भवियसरीरदब्वझवणा जाणग- ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्ता द्रव्य- व्यतिरिक्त द्रव्य क्षपणा । सरीर-भवियसरीर-वतिरित्ता क्षपणा। दवझवणा॥ ६७६. से कि तं जाणगसरीरदब्व- अथ कि सा ज्ञशरीरद्रव्य- ६७६. वह ज्ञशरीर द्रव्य क्षपणा क्या है ? ज्झवणा? जाणगसरीरदव्वझवणा क्षपणा? ज्ञशरीरद्रव्यक्षपणा-क्षपणा जशरीर द्रव्य क्षपणा-क्षपणा इस पद के -झवणे ति पयत्थाहिगारजाण- इति पदार्थाधिकारजस्य यत् शरीरकं अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति का जो गस्स जं सरीरयं ववगय-चुय- व्यपगत च्युत-च्यावित-त्यक्तदेहं जीव- शरीर अचेतन, प्राण से च्युत, किसी निमित्त से चाविय-चत्तदेहं जीवविप्पजद विहीणं शय्यागतं वा संस्तारगतं वा प्राण-च्युत किया हुआ, उपचय रहित और जीव सेज्जागयं वा संथारगयं वा निषीधिकागतं वा सिद्धशिलातलगतं विप्रमुक्त है उसे शय्या, बिछौने, श्मशानभूमि निसीहियागयं वा सिद्धसिलातलगयं वा दृष्ट्वा कोऽपि वदेत्-अहो अनेन या सिद्धशिलातल पर देखकर कोई कहेवा पासित्ता णं कोइ वएज्जा- शरीरसमुच्छ्येण जिनदिष्टेन भावेन आश्चर्य है इस पौद्गलिक शरीर ने जिन द्वारा अहो णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं क्षपणा इति पवम् आख्यातं प्रज्ञापितं उपदिष्ट भाव के अनुसार क्षपणा इस पद का जिणदिठेणं भावेणं झवणे त्ति पयं प्ररूपितं दर्शितं निदशितम् उपदशि आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन आघवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं तम्। यथा को दृष्टान्त: ? अयं मधु- और उपदर्शन किया है। जैसे-कोई दृष्टान्त निदंसियं उवदंसियं। जहा को कुम्भः आसीत्, अयं घृतकुम्भः है? [आचार्य ने कहा -- इसका दृष्टान्त यह दिळंतो? अयं महुकुंभे आसी, आसीत् । सा एषा ज्ञशरीरद्रव्य- है] यह मधुघट था, यह घृतघट था। वह अयं घयकुंभे आसी। से तं जाणग- क्षपणा । ज्ञशरीर द्रव्य क्षपणा है। सरीरदव्वझवणा॥ ६७७. से कि तं भवियसरीरदब्व- अथ किं सा भव्यशरीरद्रव्य- ६७७. वह भव्यशरीर द्रव्य क्षपणा क्या है ? झवणा? भवियसरीरदव्व- ' क्षपणा? भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा- ___ भव्यशरीर द्रव्य क्षपणा-गर्भ की पूर्णावधि झवणा-जे जोवे जोणिजम्मण- यो जीयो योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त पौद्गलिक निक्खते इमेणं चेव आदत्तएणं चंव आदत्तकेन शरीरसमुच्छयेण जिन- शरीर से क्षपणा इस पद को जिन द्वारा सरीरसमुस्सएणं जिणदिळेणं दिष्टेन भावेन क्षपणा इति पदम् उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में सीखेगा, भावेणं झवणेत्ति पयं सेयकाले एष्यत्काले शिक्षिष्यते, न तावत् वर्तमान में नहीं सीखता है तब तक वह भव्यसिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खइ। शिक्षते। यथा को दृष्टान्त: ? अयं शरीर द्रव्य क्षपणा है । जैसे-कोई दृष्टान्त जहा को दिळंतो? अयं महुकुंभे मधुकुम्भः भविष्यति, अयं घृतकुम्भः है ? [आचार्य ने कहा- इसका दृष्टान्त यह भविस्सइ, अयं घयकुंभे भविस्सइ। भविष्यति। सा एषा भव्यशरीर- है] यह मधुघट होगा, यह घृतघट होगा। वह से तं वयसरोरदव्वझवणा॥ द्रव्यक्षपणा । भव्यशरीर द्रव्य क्षपणा है। ६७८. से कि तं जाणगसरीर-भविय- अथ कि सा शरीर-भव्यशरीर- ६७८. वह ज्ञशरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सरीर-वतिरित्ता दवझवणा? व्यतिरिक्ता द्रव्यक्षपणा ? शरीर- क्षपणा क्या है ? जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ता भव्यशरीर-व्यतिरिक्ता व्यक्षपणा ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य दव्वझवणा तिविहा पण्णत्ता, त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा--लौकिकी क्षपणा के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे Jain Education Intemational Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रकरण सूत्र ६७५-६०४ तं जहा - लोइया कुप्पावयणिया कुप्रावचनिका लोकोत्तरिका । लोगुतरिया ॥ ६७६. से कि तं लोइया ? लोइया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा सचित्ता अचित्ता मीसया | ६८०. से किं तं सचित्ता ? सचित्ता तिविहा पण्णत्ता, तं जहा -दुपयाणं चप्पाणं अपवाणं दुषयाणं दासाणं दासीणं, चउप्पयाणं आसाणं हरवीणं, अपवानं अंबानं अंबाडगाणं भवणा । से तं सचिता ॥ ६८१. से कि तं अचित्ता ? अचित्तासुवण्ण रयय-मणि- मोत्तिय संखसिलवाल रतरवणार्ण सार-सावएज्जस्स झवणा । अचिता ॥ संतसे तं ६८२. से कि तं मोसवा ? मोसयादासाणं दासीणं आसाणं हत्थीणं समाभरिया उज्जाल कियाणं भवणा । से तं मीसया । से तं लोइया ॥ ६८३. से कि तं कुप्पावयणिया ? कुप्पावयणिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा -- सचित्ता अचित्ता मोसया || ६८४. से कि तं सविता ? सविता तिबिहा पण्णत्ता, तं जहा दुपधानं चउपयानं अपयाणं दुपयानं दासाणं दासीणं, चप्पयानंआसाणं हत्यीणं, अपयाणं अंबानं अंबाडगाणं भवणा । से तं सचिता ॥ अथ कि सा लौकिकी ? लौकिकी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा सचित्ता अचित्ता मिश्रका | अथ कि सा सचित्ता ? सचित्ता त्रिविधा प्रज्ञप्ता तद्यथा - द्विपदानां चतुष्पदानाम् अपदानाम् । द्विपदानाम वासानां दासीनाम्, चतुष्पदानाम् अश्वानां हस्तिनाम अपदानाम् आम्राणाम् आम्रातकानाम् क्षपणा । सा एषा सचित्ता । अथ कि सा अचित्ता ? अचित्तासुवर्ण रजत-मणि-मौलिक-शशिला प्रवाल- रक्तरत्नानां सत्-सारस्वः पतेयस्य क्षपणा । सा एषा अचित्ता । अथ कि सा मिश्रका ? मिश्रका दासानां दासीनाम् दासीनाम् अश्वानां हस्तिनां समामृतातोाकृतानां क्षपणा । सा एषा मिश्रका सा एवा लौकिकी । 1 अथ कि सा कुप्रावचनिका ? कुप्रावचनिका त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - सचित्ता अचित्ता मिश्रका 1 अथ कि सा सचित्ता ? सचित्ता शिविधा प्रज्ञप्ता तद्यथा द्विपदानां चतुष्पदानाम् अपदानाम् । द्विपदा नाम् दासानां दासीनाम् चतुष्पदानाम् अश्वानां हस्तिनाम्, अपदानाम् - आम्राणाम् आम्रातकानां क्षपणा । सा एषा सचित्ता । ३६६ लौकिक, कुप्रावयनिक और सोकोरिक ६७९. वह लौकिक द्रव्य क्षपणा क्या है ? लौकिक द्रव्य क्षपणा के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- सचित्त, अचित्त और मिश्र । ६८०. वह सचित्त लौकिक द्रव्य क्षपणा क्या है ? सचित्त लौकिक द्रव्य क्षपणा के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे द्विपद, चतुष्पद और अपद । द्विपद- दास, दासी को क्षीण करना चतुष्पद - अश्व, हाथी को क्षीण करना । अपद -आम और आम्रातक ( आमेड़ा) को क्षीण करना । वह सचित्त लौकिक द्रव्य क्षपणा है । ६८१. वह अचित्त लौकिक द्रव्य क्षपणा क्या है ? अचित्त लौकिक द्रव्य क्षपणा - सुवर्ण, रजत, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल, रक्तरत्न तथा श्रेष्ठ, सुगन्धित द्रव्य एवं स्वापतेय (दान भोग आदि के लिए स्वाधीनता पूर्वक व्यय किये जाने वाले धन ) को क्षीण करना । वह अचित्त लौकिक द्रव्य क्षपणा है । ६८२. वह मिश्र लौकिक द्रव्य क्षपणा क्या है ? मिश्र लौकिक द्रव्य क्षपणा आभरण और आलोय (पटह, भल्लरी आदि] से अलंकृत दास-दासी, अश्व हाथी आदि को क्षीण करना । वह मिश्र लौकिक द्रव्य क्षपणा है। वह लौकिक द्रव्य क्षपणा है । ६८३. वह कुप्रावचनिक द्रव्य क्षपणा क्या है ? कुप्रावचनिक द्रव्य क्षपणा के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- सचित्त, अचित्त और मिश्र । ६८४. वह सचित्त कुप्रावचनिक द्रव्य क्षपणा क्या है ? सचित्त कुप्रावचनिक द्रव्य क्षपणा के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- द्विपद, चतुष्पद और अपद । द्विपद-दास दासी को क्षीण करना । चतुष्पद - अश्व, हाथी को क्षीण करना । अपद-आम, आम्रातक [ आमेड़ा ] को क्षीण करना। वह सचित्त कुप्रावचनिक द्रव्य क्षपणा है । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० अणुओगदाराई ६८५. से कितं अचित्ता ? अचित्ता- अथ किं सा अचित्ता? अचित्ता ६८५. वह अचित्त कुप्रावनिक द्रव्य क्षपणा क्या सुवण्ण-रयय-मणि-मोत्तिय-संख- -सुवर्ण-रजत-मणि-मौक्तिक-शंखसिल-पवाल-रत्तरयणाणं संत- शिला-प्रवाल-रक्तरत्नानां सत्-सार- ___ अचित्त कुप्रावचनिक द्रव्य क्षपणा-सुवर्ण, सार-सावएज्जस्स झवणा। से तं स्वापतेयस्य क्षपणा। सा एषा रजत, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल, अचित्ता। अचित्ता। रक्तरत्न तथा श्रेष्ठ, सुगन्धित द्रव्य एवं स्वापतेय (दान भोग आदि के लिए स्वाधीनता पूर्वक व्यय किए जाने वाले धन) को क्षीण करना। वह अचित्त कुप्रावनिक द्रव्य क्षपणा है। अप ६८६. से कितं मोसया? मोसया- अथ कि सा मिश्रका ? मिश्रका ६८६. वह मिश्र कुप्रावनिक द्रव्य क्षपणा क्या है ? दासाणं दासीणं आसाणं हत्थीणं - दासानां दासीनाम् अश्वानां । मिश्र कुप्रावनिक द्रव्य क्षपणा-आभरण समाभरियाउज्जालंकियाणं झवणा। हस्तिनां समामृतातोद्यालङ्कृताना और आतोद्य [पटह, झल्लरी आदि] से से तं मीसया। से तं कुप्पावय- क्षपणा। सा एषा मिश्रका । सा अलंकृत दास-दासी, अश्व-हाथी आदि को णिया ।। एषा कुप्रावचनिका। क्षीण करना। वह मिश्र कुप्रावनिक द्रव्य क्षपणा है। वह कुप्रावनिक द्रव्य क्षपणा है। है? ६८७. से कि तं लोगुत्तरिया ? लोगुत्त- अथ कि सा लोकोत्तरिका? ६८७. वह लोकोत्तरिक द्रव्य क्षपणा क्या है ? रिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- लोकोतरिका त्रिविधा प्रज्ञप्ता, लोकोत्तरिक द्रव्य क्षपणा के तीन प्रकार सचित्ता अचित्ता मोसया ॥ तद्यथा-सचित्ता अचित्ता मिश्रका । प्रज्ञप्त हैं, जैसे-सचित्त, अचित्त और मिश्र । ६८८. से कि तं सचित्ता? सचित्ता- अथ कि सा सचित्ता? सचित्ता ६८८. वह सचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य क्षपणा क्या सीसाणं सिस्सिणीणं झवणा । से -शिष्याणां शिष्याणां क्षपणा। सा तं सचित्ता॥ एषा सचित्ता। सचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य क्षपणा-शिष्य और शिष्याओं को क्षीण करना । वह सचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य क्षपणा है। ६८९. से कि तं अचित्ता? अचित्ता- अथ कि सा अचित्ता? अचित्ता ६८९. वह अचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य क्षपणा क्या पडिग्गहाणं वत्थाणं कंबलाण पाय- --प्रतिग्रहाणां वस्त्राणां कम्बलानां पुंछणाणं झवणा। से त अचित्ता॥ पादप्रोञ्छनानां क्षपणा। सा एषा अचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य क्षपणा–पात्र, वस्त्र, अचित्ता। कम्बल और पादप्रोञ्छन को क्षीण करना। वह अचित्त लोकोत्तरिक द्रव्य क्षपणा है। ६६०. से किं तं मीसया? मीसया- अथ कि सा मिश्रका ? सीसाणं सिस्सिणियाण सभंडमत्तो- मिश्रका -शिष्याणां शिष्याणां वगरणाणं झवणा । से तं मीसया। सभाण्डामत्रोपकरणानां क्षपणा । से तं लोगुत्तरिया। से तं जाणग- सा एषा मिश्रका । सा एषा लोकोसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ता वन्व- तरिका। सा एषा शरीर-भव्यझवणा। से त नोआगमओ शरीर-व्यतिरिक्ता द्रव्यक्षपणा। सा दव्वझवणा।से तं दव्वज्झवणा॥ एषा नोआगमतो द्रव्यक्षपणा। सा एषा द्रव्यक्षपणा। ६९०. वह मिश्र लोकोत्तरिक द्रव्य क्षपणा क्या है ? मिश्र लोकोत्तरिक द्रव्य क्षपणा-भाण्ड, पात्र, उपकरण सहित शिष्यों और शिष्याओं को क्षीण करना। वह मिश्र लोकोतरिक द्रव्य क्षपणा है। वह लोकोत्तरिक द्रव्य क्षपणा है। वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य क्षपणा है। वह नोआगमत: द्रव्य क्षपणा है। वह द्रव्य क्षपणा है। Jain Education Intemational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रकरण : सूत्र ६८५-६६६ ३७१ ६६१. से कि तं भावझवणा? भाव- अथ कि सा भावक्षपणा ? भाव- ६९१. वह भाव क्षपणा क्या है ? झवणा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- क्षपणा द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा -- भाव क्षपणा के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेआगमओ य नोआगमओ य॥ आगमतश्च नोआगमतश्च । आगमतः और नोआगमत.। ६६२. से कि तं आगमओ भाव- अथ कि सा आगमतो भाव- ६९२. वह आगमतः भाव क्षपणा क्या है ? झवणा? आगमओ भावज्भवणाक्षपणा ? आगमतो भावक्षपणा-शः आगमतः भाव क्षपणा - जो जानता है -जाणए उवउत्ते। से तं उपयुक्तः । सा एषा आगमतो भाव- और उसके अर्थ में उपयुक्त है। वह आगमतः आगमओ भावझवणा॥ क्षपणा। भाव क्षपणा है। ६६३. से कि तं नोआगमओ भाव- अथ कि सा नोआगमतो भाव- ६९३. वह नोआगमतः भाव क्षपणा क्या है ? ज्झवणा? नोआगमओ भाव. क्षपणा ? नोआगमतो भावक्षपणा नोआगमतः भाव क्षपणा के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-प्रशस्त और अप्रशस्त । द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- प्रशस्ता ज्झवणा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा च अप्रशस्ता च । पसत्था य अपसत्था य ॥ ६६४. से कि तं पसत्था ? पसत्था अथ कि सा प्रशस्ता? प्रशस्ता ६९४. वह प्रशस्त भाव क्षपणा क्या है ? चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा चतुविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- क्रोध- प्रशस्त भाव क्षपणा के चार प्रकार प्रज्ञप्त कोहझवणा माणझवणा माय- क्षपणा मानक्षपणा मायाक्षपणा हैं, जैसे---क्रोध को क्षीण करना, मान को ज्झवणा लोभज्झवणा। से तं लोभक्षपणा । सा एषा प्रशस्ता। क्षीण करना, माया को क्षीण करना और लोभ पसत्था ।। को क्षीण करना । वह प्रशस्त भाव क्षपणा है। ६६५. से कि तं अपसत्था? अपसत्था अथ कि सा अप्रशस्ता? ६९५. वह अप्रशस्त भाव क्षपणा क्या है ? तिविहा पण्णत्ता, तं जहा नाण- अप्रशस्ता त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - अप्रशस्त भाव क्षपणा के तीन प्रकार प्रज्ञप्त ज्झवणा सणझवणा चरित्त- ज्ञानक्षपणा दर्शनक्षपणा चरित्र- हैं, जैसे-ज्ञान को क्षीण करना, दर्शन को झवणा। से तं अपसत्था। से तं क्षपणा । सा एषा अप्रशस्ता । सा क्षीण करना और चारित्र को क्षीण करना। नोआगमओ भावझवणा। से तं एषा नोआगमतो भावक्षपणा। सा वह अप्रशस्त भाव क्षपणा है। वह नोआगमतः भावझवणा। से तं झवणा । से एषा भावक्षपणा । सा एषा क्षपणा। भाव क्षपणा है। वह भाव क्षपणा है। वह तं ओहनिप्फण्णे ॥ स एष ओघनिष्पन्नः । क्षपणा है । वह ओघ निष्पन्न निक्षेप है। निक्खेवाणुओगदारे नामनिप्फण्ण-पदं निक्षेपानुयोगद्वारे नामनिष्पन्न- निक्षेप अनुयोगद्वार नामनिष्पन्न-पद पदम् ६६६. से कि तं नामनिष्फण्णे? नाम- अथ किस नामनिष्पन्नः ? नाम- ६९६. वह नाम निष्पन्न निक्षेप क्या है ? निप्फणे-सामाइए। निष्पन्न: - सामायिकम् । नाम निष्पन्न निक्षेप-सामायिक यह नाम निष्पन्न निक्षेप है। ६६७. से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तत् समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञप्त, ६९७. संक्षेप में उसके चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे तं जहा नामसामाइए ठवण- तद्यथा- नामसामायिकं स्थापना- -नाम सामायिक, स्थापना सामायिक, द्रव्य सामाइए दव्वसामाइए भावसामा- सामायिकं द्रव्यसामायिकं भावसामा- सामायिक और भाव सामायिक । यिकम् । ६६८. नाम-ट्ठवणाओ गयाओ। नाम-स्थापने गते । ६९८, नाम स्थापना पूर्ववत् ज्ञातव्य हैं । [देखें, सू. ६६६. से किं तं दव्वसामाइए ? दव सामाइए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाआगमओ य नोआगमओ य॥ अथ कि तद् द्रव्यसामायिकम् ? द्रव्यसामायिकं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा--आगमतश्च नोआगमतश्च । ६९९. वह द्रव्य सामायिक क्या है ? द्रव्य सामायिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -- आगमतः द्रव्य सामायिक और नोआगमतः द्रव्य सामायिक। Jain Education Intemational Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ अणुओगदाराइ ७००.से कि तं आगमओ दव्वसामा- अथ कि त आगमतो द्रव्यसामा- ७००. वह आगमत: द्रव्य सामायिक क्या है ? इए? आगमओ दव्वसामाइए- यिकम् ? आगमतो द्रव्यसामायिकम् - आगमतः द्रव्य सामायिक-जिसने सामाजस्स णं सामाइए ति पदं यस्य सामायिकम् इति पदं शिक्षितं यिक यह पद सीख लिया, स्थिर कर लिया, सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं स्थित चितं मितं परिचितं नामसमं चित कर लिया, मित कर लिया, परिचित कर नामसमं घोससमं अहीणक्खरं घोषसमम् अहीनाक्षरम् अनत्यक्षरम् लिया, नामसम कर लिया, घोषसम कर अणच्चक्खरं अध्वाइद्धक्खरं अक्ख- अध्याविद्धाक्षरम् अस्खलितम् लिया, जिसे वह होन, अधिक या विपर्यस्त लियं अमिलियं अवच्चामेलियं अमीलितम् अध्यत्यानेडितं प्रतिपूर्ण अक्षर रहित, अस्खलित, अन्य वर्णों से पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठोट- प्रतिपूर्णघोषं कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं गुरु- अमिश्रित, अन्य ग्रन्थों के वाक्यों से अमिश्रित, विप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं, से णं वाचनोपगतं, तत्वाचनया प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोषयुक्त, कण्ठ और होठ से वायणाए पुच्छणाए परियट्ट- प्रच्छनया परिवर्तनया धर्मकथया, नो निकला हुआ तथा गुरु की वाचना से प्राप्त है। णाए धम्मकहाए, नो अणुप्पेहाए। अनुप्रेक्षया। कस्मात् ? अनुपयोगो वह उस [सामायिक पद] के अध्यापन, प्रश्न, कम्हा? अणुवओगो दवमिति द्रव्यमिति कृत्वा। परावर्तन और धर्म कथा में प्रवृत्त आगमतः कटु ॥ द्रव्य सामायिक है । वह अनुप्रेक्षा में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि द्रव्य निक्षेप अनुपयोग होता ७०१. नेगमस्स एगो अणुवउत्तो आग- नैगमस्य एको अनुपयुक्तः आगमतः ७०१. नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति मओ एगे दव्वसामाइए, दोणि एक द्रव्यसामायिकम्, द्वौ अनुपयुक्ती आगमतः एक द्रव्य सामायिक है, दो अनुपयुक्त अणव उत्ता आगमओ दोण्णि दव्व- आगमतो द्वे द्रव्यसामायिके, त्रयः व्यक्ति आगमत: दो द्रव्य सामायिक हैं, तीन सामाइयाई, तिणि अणुव उत्ता अनुपयुक्ता: आगमत: त्रीणि द्रव्य- अनुपयुक्त व्यक्ति आगमत: तीन द्रव्य सामायिक आगमओ तिणि दव्वसामाइयाई, सामायिकानि । एवं यावन्ता अनुप- हैं। इस प्रकार जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं एवं जावइया अणुवउत्ता तावइयाई युक्ताः तावन्ति तानि नैगमस्य नैगमनय की अपेक्षा उतने ही आगमत: द्रव्य ताई नेगमस्स आगमओ दव्वसामा- आगमतो द्रव्यसामायिकानि । एवमेव सामायिक हैं। इयाई। एवमेव ववहारस्स वि। व्यवहारस्यापि । संग्रहस्य एकः वा इसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा भी संगहस्स एगो वा अणंगा वा अणु- अनेके वा अनुपयुक्तः वा अनुपयुक्ताः जितने अनुपयुक्त व्यक्ति हैं उतने ही आगमतः वउत्तो वा अणुवउत्ता वा आगमओ वा आगमतो द्रव्यसामायिकं वा द्रव्य द्रव्य सामायिक हैं। दव्वसामाइए वा दव्वसामाइयाणि सामायिकानि वा तद् एकं द्रव्य- ___ संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति वा से एगे दव्वसामाइए। उज्जु- सामायिकम् । ऋजुसूत्रस्य एकः है अथवा अनेक अनुपयुक्त व्यक्ति हैं, आगमतः सुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ अनुपयुक्तः आगमतः एक द्रव्यसामा- एक द्रव्य सामायिक है, अथवा अनेक द्रव्य एगे दव्वसामाइए, पुहत्तं नेच्छइ। यिक, पृथक्त्वं नेच्छति । त्रयाणां सामायिक हैं, वह एक द्रव्य सामायिक है। तिण्हं सद्दनयाणं जाणए अणवउत्ते शब्दनयानां ज्ञः अनुपयुक्तः अवस्तु । ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त अवत्थ । कम्हा? जइ जाणए कस्मात् ? यदिशः अनुपयुक्तः न व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य सामायिक है। अणुवउत्ते न भवइ। से तं आग- भवति । तदेतद् आगमतो द्रव्यसामा भिन्नता उसे इष्ट नहीं है। मओ दव्वसामाइए। तीन शब्दनयों [शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत] की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता अवस्तु है, क्योंकि यदि कोई ज्ञाता है तो वह अनुपयुक्त नहीं होता। वह आगमतः द्रव्य सामायिक है। यिकम् । ७०२. से कि तं नोआगमओ देव- अथ कि तद् नोआगमतो द्रव्य- ७०२. वह नोआगमत: द्रव्य सामायिक क्या है ? सामाइए? नोआगमओ दव्व- सामायिकम् ? नोआगमतो द्रव्य- नोआगमतः द्रव्य सामायिक के तीन प्रकार सामाइए तिविहे पण्णत्ते, तं सामायिकं त्रिविधं प्राप्तं, तद्यथा- प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ज्ञशरीर द्रव्य सामायिक, जहा-जाणगसरीरदब्वसामाइए शरीराव्यसामायिकं भव्यशरीर- भव्यशरीर द्रव्य सामायिक, शशरीर-भव्य Jain Education Intemational Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ तेरहवां प्रकरण : ७००-७०५ भवियसरीरदब्वसामाइए जाणग- द्रव्यसामायिकं ज्ञशरीर-भव्यशरीरसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ते दवा व्यतिरिक्त द्रव्यसामायिकम् । सामाइए ॥ शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सामायिक । ७०३. से कि तं जाणगसरीरदव्व- अथ कि तद् ज्ञशरीरद्रव्यसामायि- ७०३. वह ज्ञशरीर द्रव्य सामायिक क्या है ? सामाइए? जाणगसरीरदव- कम् ? ज्ञशरीरद्रव्यसामायिकम् ---- ज्ञशरीर द्रव्य सामायिक-सामायिक इस सामाइए सामाइए त्ति पयत्था- सामायिकम् इति पदार्थाधिकारज्ञस्य पद के अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति का हिगारजाणगस्स जं सरीरयं यत् शरीरकं व्यपगत-स्युत-च्यावित- जो शरीर, अचेतन, प्राण से च्युत, किसी ववगय-चय-चाविय-चत्तदेहं जोव- स्यक्तदेहं जीवविहीणं शय्यागतं वा निमित्त से प्राण च्युत किया हुआ, उपचय रहित विप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं संस्तारगतं वा निषीधिकागतं वा और जीव विप्रमुक्त है । उसे शय्या, बिछौने, वा निसीहियागयं वा सिद्धसिला- सिद्धशिलातलगतं वा दृष्ट्वा कोऽपि श्मशानभूमि या सिद्धशिलातल पर देखकर तलगयं वा पासित्ता णं कोइ वदेत् - अहो अनेन शरीरसमुच्छयेण कोई कहे आश्चर्य है इस पौद्गलिक शरीर वएज्जा अहो णं इमेणं सरीर- जिनदिष्टेन भावेन सामायिकम् इति ने जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार समुस्सएणं जिणदिठेणं भावेणं पदम् आख्यातं प्रज्ञापितं प्ररूपितं सामायिक इस पद का आख्यान, प्रज्ञापन, सामाइए त्ति पयं आवियं पण्ण- दर्शित निदर्शितम उपदशितम् । यथा प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया वियं परूवियं दंसियं निदंसियं को दृष्टान्त: ? अयं मधुकुम्भ: है। जैसे कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने उवदंसियं। जहा को दिठ्ठतो? आसीत्, अयं घृतकुम्भः आसीत् । कहा ---इसका दृष्टान्त यह है] यह मधुघट अयं महकमे आसी, अयं घयकभे तदेतद् ज्ञशरीरद्रव्यसामायिकम् । था, यह घृतघट था। वह ज्ञशरीर द्रव्य आसी। से तं जाणगसरीरदब्व सामायिक है। सामाइए॥ ७०४. से कि तं भवियसरीरदब्व- अथ कि तद् भव्यशरीरद्रव्यसामा- ७०४. वह भव्यशरीर द्रव्य सामायिक क्या है ? सामाइए ? भवियसरीरदब्वया- यिकम् ? भव्यशरीरद्रव्यसामायिकम्- भव्यशरीर द्रव्य सामायिक-गर्भ की सामाइए-जे जीवे जोणिजम्मण- यो जीवो योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन चैव पूर्णावधि से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त निक्खते इमेणं चेव आदत्तएणं आदत्तकेन शरीरसमुच्छ्येण जिनदिष्टेन पौद्गलिक शरीर से सामायिक इस पद को सरीरसमुस्सएणं जिणदिलैणं ___ भावेन सामायिकम् इति पदम् एष्यत्- जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार से भावेगं सामाइए त्ति पयं सेयकाले ___ काले शिक्षिष्यते, न तावत् शिक्षते। भविष्य में सीखेगा, वर्तमान में नहीं सीखता है सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खइ। यथा को दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्मः तब तक वह भव्यशरीर द्रव्य सामायिक है । जहा को दिळंतो? अयं महकमे भविष्यति, अयं घृतकुम्भः भविष्यति । जैसे-कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहाभविस्सइ, अयं घयकंभे भविस्सह। तदेतद् भव्यशरीरद्रव्यसामायिकम् । इसका दृष्टान्त यह है] यह मधुघट होगा, यह से तं भवियसरीरदव्वसामाइए। घृतघट होगा। यह भव्यशरीर द्रव्य सामायिक है। ७०५. से कि तं जाणगसरीर-भविय अथ किं तद् शशरीर-भव्यशरीर- ७०५. वह ज्ञशरीर भव्पशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सरीर-वतिरित्ते दव्वसामाइए? व्यतिरिक्तं द्रव्यसामायिकम् ? सामायिक क्या है ? जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्ते ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्य ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य दव्वसामाइए-पत्तय-पोत्थय सामायिकम् - पत्रक - पुस्तक-लिखि- सामायिक --पत्र और पुस्तकों में लिखित लिहियं से तं जाणगसरीर-भविय- तम् । तदेतद् ज्ञशरीर-भव्यशरीर- सामायिक । वह ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त सरीर-वतिरित्ते दव्वसामाइए। व्यतिरिक्तं द्रव्यसामायिकम् । तदेतद् द्रव्य सामायिक है। वह नोआगमत: द्रव्य से तं नोआगमओ दव्वसामाइए। नोआगमतो द्रव्यसामायिकम् । तदेतद् सामायिक है। वह द्रव्य सामायिक है। से तं दव्वसामाइए। द्रव्यसामायिकम्। Jain Education Intemational Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ? ७०६. से किं तं भावसामाइए भावसामाइए दुविहे पण्णले सं जहा- आगमओ व नोआगमओ य ॥ ७०७. से किं तं आगमओ भावसामाइए ? आगमओ भावसामाइए जाणए उब उसे से तं आगमओ भावसामाइए || 1 ७०८. से किं तं नोआगमओ भावसामाइए ? नोआगमओ भावसामाइए - माहा जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे नियमे तवे । तरस सामाइ होइ इइ केवलिभासि ॥१॥ जो समोसव्वभूएसु, तसे थावरे य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥२॥ जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सम्बजीवाण । न हणइ न हणावइ य, सममणती तेण सो समणो ||३|| थिय से कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसु चैव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ || ४ || उरग गिरि-जल सागरनहतल-तरणसमो व जो होइ ममर-मि-धरण जलरुह-रविपवणसमो य सो समणो ||५|| तो समणो जइ सुमो, भावेण य जइ न होइ पावमणो । सयणे य जणे य समो, समयमाणावा ॥ ६ ॥ सेतं नोआगमन भावसामाइए। से तं भावसामाइए । से तं सामाइए से तं नामनिष्ठण्णे । अब कि तद् भावसामायिकम् ? भावसामायिकं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा -आगमतश्च नोआगमतश्च । अथ किं तद् आगमतो भावसामाकिम् ? आगमतो भावसामायिकम् - ज्ञ उपयुक्तः । तदेत आयतो भाव सामायिकम् । अथ किं तद् नोआगमतो भावसामायिकम् ? नोआगमतो भावसामायिकम् गाथा - यस्य समानीतः आत्मा, संयमे नियमे तपसि । तस्य सामायिकं भवति, इति यः समः सर्वभूतेषु, भाषितम् ॥१॥ सेषु स्थावरेषु च । तस्य सामायिकं भवति, इति विमतिम् ॥२॥ यथा मम न प्रियं दु खं, ज्ञात्वा एवमेव सर्वजीवानाम् । न हन्ति न घातयति च, सममणति तेन स समणः ॥३॥ नास्ति च तस्य कश्चिद् द्वेष्यः, प्रियो वा सर्वेषु चैव जीवेषु । एतेन भवति समना, एष अन्योऽपि पर्यायः || ४ || उरग- गिरि-ज्वलन-सागरनभस्तल - तरुगणसमश्च यो भवति । मर-मृ-धरण जलरह-रविपवनसमश्च स भ्रमणः ||५|| ततः श्रमणो यदि सुमनाः, भावेन च यदि न भवति पापमनाः । स्वजने च जने च समः, समश्च मानापमानयोः ॥ ६ ॥ समोआगमतीभावसामायिकम्। तदेतद भावसामायिकम्। तदेतत सामायिकम् । स एष नामनिष्पन्नः । अणुओगदारा ७०६. वह भाव सामायिक क्या है ? भाव सामायिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे आगमतः और नोआगमतः । ७०७ वह आगमतः भाव सामायिक क्या है ? आगमतः भाव सामायिक जो जानता है और उसके अर्थ में उपयुक्त है। वह आगमतः भाव सामायिक है । ७०८. वह नोआगमतः भाव सामायिक क्या है ? नोआगमतः भाव सामायिक " गाथा १. जिसकी आत्मा समानीत है" और संयम, नियम और तप में जागरूक है उसके सामायिक होता है, यह केवली द्वारा भाषित है । २. जो त्रस और स्थावर सब जीवों के प्रति सम है, उसके सामायिक होता है, यह केवली द्वारा भाषित है । ३. जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं, यह जानकर जो किसी प्राणी की न घात करता है और न करवाता है । इस प्रकार समता में गतिशील होने के कारण वह समण कहलाता है । ४. सब जीवों में कोई उसका द्वेष्य- अप्रिय और प्रिय नहीं है। सब जीवों में सम मन वाला होने के कारण वह समन ( समना ) कहलाता है । वह श्रमण का दूसरा पर्यायवाची नाम है । .१२ ५. जो श्रमण सर्प, गिरि, अग्नि, समुद्र, आकाश, वृक्ष, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान होता है, वह समण है । ६. यदि वह सुमन होता है, भाव से पाप मन वाला नहीं होता, स्वजन और अन्य जन में तथा मान और अपमान में सम होता है तो वह समण है । वह नोआगमतः भाव सामायिक है । वह भाव सामायिक है । वह सामायिक है । वह नाम निष्पन्न निक्षेप है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रकरण : ७०६-७१३ निक्खेवाणुओगदारे निष्कण्ण-पदं सुतालाब ७०६. से किं तं सुत्तालावग निष्कण्णे ? सुत्तालाव गनि फण्णे इयाणि सुत्तालागनिष्कण्णे निक्खेवे इच्छावेद से य पत्तलक्खणे विन निक्खिप्पड कम्हा ? लाघवत्यं । अओ अस्थि are अणुओगदारे अणुगमेति । तत्थ निक्खित्ते इहं निखित्ते भवइ, इहं वा निक्खित्ते तत्य निक्खित्ते भवइ, तम्हा इहं न farares तह चैव निक्खिप्पि स्स से तं निश्लेवे ॥ अणुगमाणुओगदार पद ७१०. से कि तं अणुगमे ? अनुगमे विहे पण्णत्तं तं जहा सुतायुगमे यनिज्जुत्तिअणुगमे य ॥ ७११. से कि तं नितिअनुगमे ? निगमे तिविहे पण ते तं जहा निक्लेवनिति अणुग मे उवग्याय नियुक्ति अणुगमे फासियनिज्जुत्तिअणुगमे ॥ सुत ७१२. से कि त निक्लेव निज्जुलिअणुगमे ? निक्खेव निज्जुत्तिअणुगमे अगए । से तं निक्लेव निज्जुत्तिअनुगमे ॥ ७१३. से कि तं वग्धायनिज्जुतिअणुगमे ? उदग्धायनिज्जुत्ति अनुगमे इमाहि दोहि दारगाहाहि अगंतव्वे, तं जहा१. उसे २. निसे य, ३. निग्गमे ४. खेत्त ५. काल ६. पुरिसे य ७. कारण ८. पच्चय ६. लक्खण, १०. नए ११. समोयारणा १२. मए ॥१॥ १३. किं १४. कइविहं १५. कस्स १६. कहि, निक्षेपशनुयोगद्वारे सूत्रालापकनिष्पन्न-पदम् अब किस सूत्रालायक ? सूत्रालापकनिष्पन्नः इदानीं सूत्रालापक निष्पन्नः निक्षेपः एषयति, स च प्राप्तलक्षणोऽपि न निक्षिप्यते, कस्मात् ? लाघवार्थम् अस्ति तृतीयः अनुयोगद्वारं अनुगमः इति । तत्र निक्षिप्त: इह निक्षिप्तः भवति, इह वा निक्षिप्तः तत्र निक्षिप्त: भवति, तस्माद् इह न निक्षिप्यते तत्र चैव निक्षेप्स्यते । स एष निक्षेपः । सूत्रालापक- निक्षेप अनुयोगद्वार सूत्रालापक निष्पन्न पद ७०९. वह सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप क्या है ? सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप यहां सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप के प्रतिपादन का अवसर है, उसका लक्षण प्राप्त होने पर भी वह निक्षिप्त नहीं किया जा रहा है। इसका हेतु क्या है ? पाठ का विस्तार न हो इस दृष्टि से । इससे आगे तृतीय अनुयोगद्वार अनुगम है, वहां निक्षिप्त यहां निक्षिप्त है और यहां निक्षिप्त वहां निचिप्त है इसलिए इसे वहां निक्षिप्त न कर वहीं निक्षिप्त किया जाएगा । वह निक्षेप है । अनुगमानुयोगद्वार पदम् अथ कि स अनुगम: ? अनुगमो द्विविधः प्रज्ञप्तः तथा सूत्रानु गमश्च निर्युक्त्यनुगमश्च । अथ किं स निर्युक्त्यनुगमः ? निर्मुक्त्यनुगमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमः उपोद्घातनिगमः सूत्रपशिष निर्मुक्त्यनुमः । अथ किस निक्षेप निर्युक्त्यनुगमः ? निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमेः अनुगतः । स एष निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमः । अथ कि स उपोद्घातनिर्युक्त्यगुगमः ? उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम:आभ्यां द्वाभ्यां द्वारगाथाभ्यामनु गन्तव्य, तद्यथा१२. निरथ, ३. निर्गमः ४. क्षेत्रं ५. काल: ६. पुरुषश्च । ७. कारणं ८. प्रत्ययः ९. लक्षणं, १०. नयः ११,१२. समवतारणाऽनुमतम् ॥१॥ १३. किं १४. कतिविधं १५. कस्य १६. क्य अनुगम अनुयोगद्वार-पव ७१०. वह अनुगम क्या है ? ३७५ अनुगम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेसूत्र अनुगम और निति अनुगम ७११. वह नियुक्ति अनुगम क्या है ? निर्युक्ति अनुगम के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे निशेष निति अनुगम, उपोदयात नियुक्ति अनुगम और सूस्पतिक नियुक्ति अनुगम ७१२. वह निक्षेप नियुक्ति अनुगम क्या है ? निक्षेप निर्मुक्त अनुगम" [० ६१० में] बताया जा चुका है। वह निक्षेप नियुक्ति अनुगम है । ७१३. वह उपोद्घात नियुक्ति अनुगम क्या है ? उपोद्घातनिर्युक्ति अनुगम " - वह इन दो द्वार गाथाओं से ज्ञातव्य हैं, जैसे-१.२. ३. निम, ४. क्षेत्र, ५ काल, ६. पुरुष, ७. कारण, ८. प्रत्यय, ९. लक्षण, १०. नय, ११. समवतार, १२. अनुमत, १३. क्या, १४. कितने प्रकार का, १५. किसका १६. कहां, १७. किनमें, १८. कैसे १९. कितने काल तक, २०. कितने, २१. अन्तर काल, २२. अविरह काल, २३. भव, २४. आकर्ष २५. स्पर्शन, २६. निरुक्ति । इन छब्बीस हेतुओं से उपोद्घात 1 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ १७. केसु १८. कहं १६. केचिचरं हवइ कालं । २०. २१. संतर २२. मविरहियं २३. भवा २४ गरिस २५. फासण २६. निरुली ॥२॥ -सेतं उदग्धापनिज्युलिअणुगमे । ७१४. से कि तं सुतकासिनिम्बुतिअणुगमे ? सुत्तफासिय निज्जुत्तिअणुगमे सुत्तं उच्चारेयव्वं अक्खलियं अमिलिये अवस्थामेलियं पडणं परिपुरण पोसं कंठोडविण्य मुवर्क गुरुवायणोवगयं । तओ नज्जिहिति ससमयपयं वा परसमयपयं वा बंधपयं या मोक्लप वा सामाइयपयं वा नोसामाइयपयं वा । तओ तम्मि उच्चारिए समाणे केसिचि भगवंता के अत्याहि गारा अहिगया भवंति, केसिचि य hs अणहिगया भवति, तओ तेसि अहिगयानं अस्वाणं अहिगमण हुयाए पदेणं पदं वण्णहस्सामिगाहा संहिता य पदं चैव पदस्थ पदविग्गहो । चालणा य पसिद्धी य छहं विद्धिलक्खणं ॥ १ ॥ से तं सुत्तफासिय निज्जुत्तिअणुगमे । से तं निज्जुत्तिअणुगमे । से तं अणुगमे ।। नयाणुओगद्वार-पवं ७१५. से किं तं नए ? सत्त मूलनया पण्णत्ता, तं जहा- नेगमे संगहे ववहारे उज्जुसुए सद्दे समभिरूढे एवंभूए । तत्थ -- गाहानेगेहि माहि मिणइ ति नेगमस्स य मिती सेसाणं पि नयाणं, लक्खणमिणमो सुणह वोच्छे ||१|| ॥१॥ १७. केषु १८. कथं १९. कियच्चिरं भवति कालम् । २०. कति] २१.२२. सान्तरमविरहितं, २३,२४. भवाकषौं २५. स्पर्शनं २६. निरुक्तिः ॥ २॥ स एष उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः । अय कि सूपकनिर्मुय ७१४. वह सूत्रस्थतिक नियुक्ति अनुगम क्या है? नुगम: ? सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्यनुगम: - सूत्रम उच्चारयितव्यम् अस्खलितम् अमीलितम् अव्ययातिं प्रतिपूर्ण प्रतिपुर्णपोष कण्ठौष्ठवप्रयुक्तं गुरुवाचनोपगतम् । ततो ज्ञास्यते स्वसमयपदं वा परसमयपदं वा बन्धपदं वा मोक्षपदं वा सामायिकपदं वा नोसामाधिकपर्व वा । ततस्तस्मिन्नुप्रचारिते सति केषाचित् भगवतां केचिद अर्थाधिकाराः अधिगताः भवन्ति, केषाञ्चिन्च केचिद् अनधिगताः भवन्ति, ततः तेषाम् अनधिगतानामर्थानाम् अधिगमनार्थाय पदेन पदं वर्णयिष्यामि - स्पतिक नियुक्ति अनुगम अस्खलित अन्य वर्णों से अमिश्रित अन्य ग्रंथों के वाक्यों से अमिश्रित प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोषयुक्त, कण्ठ और होठ से निकला हुआ, गुरु की वाचना से प्राप्त सूत्र का उच्चारण करना चाहिए। इससे स्वसमय पद, परसमय पद, वन्ध पद, मोक्ष पद, सामायिक पद और नोसामायिक पद जाना जाएगा । इसके बाद सूत्र का उच्चारण करने पर कुछ साधुओं को कई अधिकार ज्ञात हो जाते हैं और कुछ साधुओं को वे ज्ञात नहीं होते, इसलिए उनके अज्ञात अर्थों को ज्ञात कराने के लिए प्रत्येक पद की व्याख्या करूंगा गाथा संहिता च पदं चैव, पदार्थ पदविग्रहः । चालना च प्रसिद्धिश्च, विद्विलक्षणम् ॥ स एवं पशिक नियुक्त्यनुमः । स एवं निर्माययुगमः । स एष अनुगमः ॥ नयानुयोगद्वार पदम् अथ कि स नयः ? सप्त मूलनयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा नैगम: सङ्ग्रहः व्यवहारः ऋजुसूत्रः शब्दः समभिरूढः एवम्भूतः । तत्र - गाथा -- निः मिनोतीति नैगमस्य निरुक्तिः । शेषाणामपि नयानां, लक्षणमिदं शृणुत वक्ष्ये ॥१॥ अणुओगदाराई नियुक्ति अनुगम जाना जाता है। यह उपोदपात निर्मुक्ति अनुगम है। गाथा १. संहिता, पद, पदार्थ, पदविग्रह, चालना, और प्रसिद्धि - व्याख्या के ये छह लक्षण हैं । वह सूत्रस्परिक निर्युक्ति अनुगम है। वह निर्युक्ति अनुगम है । वह अनुगम है । नव अनुयोगद्वार पद ७१५. वह नय क्या है ? मूल नय सात प्रज्ञप्त हैं, जैसे - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । गाथा १. नैकैः मानैः मिमीते इति नैगमः- जो अनेक प्रमाणों से वस्तु का ज्ञान करता है वह निगम है । यह नेगम पद की निरुक्ति है । शेष नयों के लक्षण भी बताऊंगा । उन्हें सुनी। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रकरण : सूत्र ७१४, ७१५ संगहिय-पिंडियत्थं, संगवणं समासओ बेंति । वच्चs विणिच्छियत्थं, ववहारो सव्यदध्वसु ॥ २ ॥ पपणाही उज्जुसुओ नयविही मुणेयव्वो । इच्छइ विसेसियतरं, पचचुप्पण्णं नओ सद्दो ॥ ३ ॥ वत्थूओ संकमणं, होइ अवस्थ नए समभिरुदे । वंजण अस्थ-तदुभयं एवंभूओ विसेसे ||४| 1 नायमि गियिव्वे afrografम्म चेव अत्थम्मि | जइयव्वमेव इइ जो, उवएसो सो नओ नाम ॥५॥ सर्व्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता । तं सव्वनयवि जं चरणगुणट्ठिओ साहू ॥ ६ ॥ - से तं नए ॥ सङ्ग्रहीत पिण्डितार्थं, सहवचनं समासतो ते वति विनिश्वयार्थ, व्यवहारः सर्वद्रव्येषु ॥ २ ॥ नाही ऋजु सूत्र: नयविधिः ज्ञातव्यः । इच्छति विशेषिततरं, - प्रत्युत्पन्नं नयः शब्दः ॥ ३॥ वस्तुन: सङ्क्रमणं, भवति अवस्तु नये समभिरूठे । भ एवम्भूतः विशेषयति ॥४॥ जाते ह अग्रहीतव्ये व अर्थ यतितव्यमेव इति यः, उपदेश: स नयः नाम ॥ ५॥ सर्वेषामपि नयानां बहुविध वक्तव्यतां निशम्य । सर्वनयविशुद्ध यच्चरणगुणस्थितः साधुः ॥ ६ ॥ स एष नयः । ३७७ २. संग्रह नय संगृहीत और पिण्डित अर्थ को संक्षेप में बताता है । व्यवहार नय सब द्रव्यों के विनिश्चित अर्थ का अनुगमन करता है । ३. ऋजुसूत्र नयविधि प्रत्युत्पन्न का ग्रहण करती है । शब्द नय को ऋजुसूत्र की अपेक्षा विशेषित प्रत्युत्पन्न इष्ट है । ४. समभिरूढ़ के अनुसार वस्तु का संक्रमण एक शब्द का दूसरे पर्यायवाची शब्द में गमन अवस्तु हो जाता है । एवंभूत नय शब्द और अर्थ इन दोनों को विशेषित करता है - जल आहरण की क्रिया में परिणत घट को ही घट शब्द के द्वारा वाच्य मानता है । ५. अर्थ को भलीभांति जान लेने पर उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण में प्रयत्न करना चाहिए, यह जो उपदेश है, वह नय है । ६. सभी नयों की अनेक प्रकार की वक्तव्यता सुनकर जो चारित्र और क्षमा आदि गुणों में स्थित है, साधु है वह सर्व नय सम्मत होता है ।" वह नय है । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र ६१८ १. (सूत्र ६१८) निक्षेप अनुयोगद्वार के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं - १. ओघ निष्पन्न--ओघ का अर्थ है सामान्य । ओघ निष्पन्न का अर्थ है श्रुत के सामान्य निर्देश से होने वाला, जैसेअध्ययन (द्रष्टव्य सूत्र ६१९)। २. नाम निष्पन्न-सामान्य रूप में निर्दिष्ट अध्ययन का नामोल्लेख करना नाम निष्पन्न है, जैसे-सामायिक (द्रष्टव्य सूत्र ६९६)। ३. सूत्रालापक निष्पन्न-सूत्र के पद विभाग से होने वाला, (द्रष्टव्य सूत्र ७०९)। सूत्र ६१९ २. अध्ययन (अज्झयणं) 'अझप्पस्स आणयण' इस निरुक्त के अनुसार तथा प्राकृत व्याकरण की विधि से प्पकार, स्सकार, आकार और णकार इन मध्यवर्ती चार अक्षरों का लोप होने पर अज्झयण (अध्ययन) शब्द निष्पन्न होता है। अध्यात्म का अर्थ है-चित्त । प्रशस्त चित्त को सामायिक आदि अध्ययन में योजित करने के कारण यह अध्ययन है।' सूत्र ६३१ ३. (सूत्र ६३१) अध्ययन में ज्ञान और क्रिया दोनों की समन्विति के लिए नोआगमतः शब्द प्रयुक्त है। अध्ययन की उपयोगिता है-अध्यात्म का आनयन, पूर्व संचित कर्मों का क्षय और नये कर्मों का अबन्ध । अध्ययन का यही रूप प्रशस्त है। पठन पाठन में अध्ययन शब्द का प्रयोग होता है। यह प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार का हो सकता है। इसलिए भाव-अध्ययन को इष्ट बताया गया है।' सूत्र ६४० ४. (सूत्र ६४०) अक्षीण -जिसका कभी क्षय नहीं हो। लोक और अलोक के समग्र आकाश की श्रेणियां कभी क्षीण नहीं होती। एक-एक प्रदेश का अपहार करते जाने पर भी आकाश प्रदेशों का कभी अन्त नहीं होता, इसलिए वे अक्षीण हैं। आकाश द्रव्य से सम्बन्धित होने के कारण वह द्रव्य अक्षीण है। सूत्र ६४२ ५. (सूत्र ६४२) चूणिकार और हरिभद्र ने भाव अक्षीण के प्रसंग में एक परम्परा का उल्लेख किया है। एक चतुर्दश पूर्व विद् मुनि, जो आगम ग्रन्थों के विषय में एकाग्रचित्त है, वह अन्तर्महर्त मात्र में असीम पर्यायों को जान लेता है। एक-एक पर्याय को एक-एक समय १, अहावृ. पृ. ११९,१२० : अज्झप्पस्साणयणमित्यादि इह नरुक्तेन विधिना प्राकृतस्वभावाच्च अज्झप्पस्स-चित्तस्स आणयणं पगारस्सगारागारणगारलोवाओ अज्झयणं । २. वही, पृ. १२०। Jain Education Intemational ation Intermational Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १३, ०६१-६७०, ४०१-६ ३७६ में अवहृत किया जाय तो अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी में भी उनका अवहार नहीं हो सकता । इसे आगमतः भाव अक्षीण कहा जाता है।" ६. ( सूत्र ६४३ ) एक दीप से दूसरे दीपक को प्रज्वलित किया। एक-एक कर सैकड़ों, हजारों दीपक जलाने पर भी मूल दीपक का तेज कम नहीं होता । यह दृष्टांत है । इस दृष्टान्त का दान्तिक है आचार्य । आचार्य स्वयं श्रुतज्ञान के आलोक से आलोकित होते हैं । वे अपने ज्ञान का आलोक दूसरों को भी बांटते हैं। दिन-रात बांटते रहने पर भी उनका ज्ञान कभी क्षीण नहीं होता । शिष्यों को ज्ञान देने पर भी स्वयं का ज्ञान विनष्ट नहीं होता, प्रत्युत बढ़ता है । चूर्णिकार ने 'नो' शब्द का अर्थ मिश्र किया है। उनके अनुसार आचार्य की आगम ग्रन्थ में जो दत्तचित्तता है वह आगम है । उनकी वाणी और शरीर का प्रयोग नोआगम है इस प्रकार नोआगम मिश्र शब्द का द्योतक है । सूत्र ६५४ ७. आय (आए) प्राप्ति, लाभ आदि आय के पर्यायवाची हैं । ' ८. ( सूत्र ६५५ ) सूत्र ६४३ अचित्त लौकिक द्रव्य आय के सन्दर्भ में कुछ शब्द विमर्शनीय हैंशिला मैनसिल E. क्षपणा ( झवणा ) सूत्र ६५५ संत - सत् (श्री गृह आदि में विद्यमान ) सार सुगन्धित द्रव्य स्वापतेय - टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र ने स्वापतेय शब्द का प्रयोग द्रव्य (धन) अर्थ में किया है। अभिधान चिन्तामणि में स्वापतेय को धन का पर्यायवाची शब्द माना गया है। प्रस्तुत प्रसंग में धन के विशेष प्रकारों का उल्लेख करने के बाद सामान्य अर्थ के वाचक स्वापतेय शब्द का प्रयोग अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है। चूर्णिकार और वृत्तिकार हरिभद्र का अभिमत इस अस्वाभाविकता को समाप्त कर देता है । 'सावएज्जं स्वाधीनं' 'दानक्षेपग्रहमोक्षभोगेसु' जो अर्थ अपने अधीन है. जिसका दान, भोग आदि के लिए स्वाधीनतापूर्वक व्यय किया जा सके वह स्वापतेय है ।' विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य भगवती ५ / ३३ का भाष्य । सूत्र ६७० क्षपणा, अपचय, निर्जरा ये पर्यायवाची शब्द हैं। ' १. (क) अबू.पू. बोट्सव्वध रस्सागमोबउत्तरस अंत गृहसमेतोवयोगकाले अस्योमोयोगपन्नाने ते समयावहारेण अताहि विपिनीओसपिपीह गोवहिज्जेति ते अतो भणितं आगमतो भावअज्मीणं । (ख) अहावृ. पृ. १२० । २. (क) अचू. पृ. ८८: णोआगमतो भावज्झीणं वायणायरियस उपयोगभावो भागमो बहकाययोगा अ गोआगमो एवं णोआगमो भवति । (ख) महा. पृ. १२० नोभागमतो चेहाचार्योपयोगस्य नोआगमत्वान्मिश्रवचनश्च आगमत्वाद्वाक्काययोश्च नोशब्द इति वृद्धा व्याचक्षते । ३. अहावृ. पृ. १२० : आयो लाभ इत्यनर्थान्तरम् । ४. अचि. २०१९१ : वित्तं रिक्थं स्वापतेयं राः सारः विभवो वसुः । ५. (क) अचू. पृ. ८८ सावतेजं स्वाधीनं दानक्षेपग्रहमोक्षभोगेषु । (ख) अहावृ. पृ. १२० ॥ ६. अमवृ. प. २३६ । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० अणुओगदाराई सूत्र ७०८ १०. नोआगमतः भाव सामायिक (नोआगमओ भावसामाइए) सूत्रकार ने भाव सामायिक का स्वरूप विश्लेषण करते हुए आन्तरिक वृत्तियों पर विशेष बल दिया है। वर्तमान में प्रचलित परिभाषा के अनुसार गृहस्थ का सामायिक 'सामायिक' कहलाता है अथवा कुछ मुनियों द्वारा सम्पादित अल्पकालीन ध्यान साधना के प्रयोग को सामायिक कहा जाता है । यह एक दृष्टिकोण है। सामायिक दो प्रकार का होता है-यावज्जीवन और आन्तौहूर्तिक । यावज्जीवन सामायिक मुनियों के होता है । इस सामायिक में क्रियाकाण्ड की प्रधानता नहीं, उदात्त वृत्तियों की प्रधानता होती है। अल्पकालीन सामायिक परिपूर्ण सामायिक का पूर्वाभ्यास है। वास्तविक सामायिक का स्वरूप प्रस्तुत आगम की चार गाथाओं में वर्णित है। सामायिक और सामायिक करने वाले में अभेदोपचार करके यहां श्रमण का भी विवेचन किया गया है। ११. जिसकी आत्मा समानीत है (जस्स सामाणिओ अप्पा) __ प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में सामाणिओ की संस्कृत छाया सामानिक की गई है। किन्तु आवश्यक सूत्र की मलयगिरीया वृत्ति में इस शब्द की छाया 'समानीत:' की गई है जो अर्थ की दृष्टि से उचित प्रतीत होती है । समानीत--सकार का दीर्धीकरण और इकार का ह्रस्वीकरण होने पर समानीतः का सामाणिओ रूप निष्पन्न होता है। सामाणिअ शब्द में 'ण' का लोप और 'य' श्रुति करने पर सामाइय शब्द की निष्पत्ति संभव लगती है। प्रस्तुत संदर्भ में प्रयुक्त संयम शब्द का अर्थ मूलगुण और नियम शब्द का अर्थ उत्तरगुण है। १२. श्रमण (समणो) नोआगमत: भाव सामायिक के सन्दर्भ में श्रमण के लिए कुछ उपमाएं निर्दिष्ट हैं १. उरग सम -परकृत आश्रय में रहने के कारण मुनि सर्प के समान है। चूर्णिकार ने उरग के स्थान पर उदक्त शब्द का ग्रहण किया है। २. गिरि सम परीषह और उपसर्ग उपस्थित होने पर निष्प्रकम्प रहने के कारण मुनि पर्वत के समान है। ३. ज्वलन सम तपस्या के तेज से युक्त होने के कारण मुनि अग्नि के समान है, जैसे-अग्नि तृणों (ईंधन) से तृप्त नहीं होती वैसे ही मुनि सूत्रार्थ से तृप्त नहीं होते। ४. सागर सम गंभीर ज्ञानादि गुण रत्नों से परिपूर्ण और अपनी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करने के कारण मुनि समुद्र के समान है। ५. नमस्तल सम--सर्वत्र निरालम्बन होने के कारण मुनि आकाश के समान है। ६. तरुगण सम-सुख और दुःख में किसी प्रकार की विकृति का प्रदर्शन न करने के कारण मुनि वृक्ष समूह के समान है। ७. भ्रमर सम-अनियत भिक्षावृत्ति के कारण मुनि भौरे के समान है। ८. मृग सम-संसार के भय से उद्विग्न रहने के कारण मुनि हिरण के समान है। ९. धरणि सम-सब प्रकारों के कष्टों को सहने के कारण मुनि पृथ्वी के समान है। १०. जलरूह सम - काम भोग के कर्दम से उत्पन्न होने पर भी उससे निर्लेप रहने के कारण मुनि कमल के समान है। ११. रवि सम-पद्रव्यात्मक लोक को समान रूप से प्रकाशित करने के कारण अथवा अज्ञान-अंधकार का विघात करने के कारण मुनि सूर्य के समान है। १२. पवन सम-अप्रतिबद्ध-विहारी होने के कारण मुनि वायु के समान है। तुलना के लिए द्रष्टव्य-सूयगडो २।२।६४ । ओवाइयं सूत्र २७ । पण्हावागरणाई १०।११। सामायिक के प्रसङ्ग में श्रमण का निरूपण प्रासङ्गिक प्रतीत नहीं होता। आवश्यकनियुक्ति में सामायिक के स्वामित्व का प्रतिपादन करने वाले दो श्लोक हैं किन्तु श्रमण का प्रतिपादन करने वाली चार गाथाएं नहीं हैं। हरिभद्र और हेमचन्द्र ने सामायिक और श्रमण के संबंध प्रदर्शन का प्रयत्न किया है फिर भी प्रश्न शेष रहता है। यह कल्पना करना अस्वाभाविक नहीं होगा कि ये चार गाथाएं प्रासङ्गिक रूप से प्रतियों में लिखी गई थीं। कालान्तर में वे मूल पाठ के रूप में प्रक्षिप्त हो गयीं। १. अमव. प. २३८ । २. अहाव. पृ. १२०। Jain Education Intemational Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १३, सू० ७०८-७१३, टि० १०-१६ सूत्र ७०९ १२. सूत्रालायक निष्यन्न निक्षेप (सुत्तालागनिष्कष्णे निवे सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप का अर्थ है- सूत्रोच्चारण पूर्वक सूत्रगत प्रत्येक पद का नाम यह निक्षेप तभी होता है जब सामने सूत्र का पाठ हो। प्रस्तुत प्रकरण में सूत्र पाठ का अभाव है। नहीं हो सकता । सूत्र का उल्लेख सूत्रानुगम में है। यहां सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप की चर्चा निक्षेप सूत्रालापक एक निक्षेप है। यह निक्षेप द्वार है इसलिए यह चर्चा अस्वाभाविक नहीं है । सूत्र ७१०,७११ १४. ( सूत्र ७१०, ७११ ) अनुगम अनुयोगद्वार के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं १. सूत्रानुगमसूत्र का कथन करना । २. निर्युक्त्यनुगम-निर्युक्ति का अर्थ है -सूत्र के साथ अर्थ का एकात्मभाव से सम्बद्ध होना । इस रूप में सूत्र का सम्बन्ध अर्थ के साथ होता है क्योंकि वह उससे अविच्छिन्न है। निर्युक्त- अर्थ । युक्ति-स्पष्ट रूप से प्रतिपादन । मध्यवर्ती युक्त शब्द कालोप होने से नियुक्ति शब्द निष्पन्न होता है। नियुक्ति का एक अर्थ है निश्चित युक्ति' अनुगम का अर्थ है व्याख्या निर्मुक्त्यनुगम अर्थात् सूप से संपृक्त अर्थ का प्रतिपादन करना। इसके तीन प्रकार है निशेष निकायनुगम, उपोद्घात निर्मुक्त्यनुगम और स्पणिक निर्युमत्यनुगम सूत्र ७१२ १५. निक्षेप निर्युक्ति अनुगम (निक्खेव निज्जुत्तिअणुगमे ) नाम, स्थापना, द्रव्य आदि के भेद से प्रस्तुत विषय को स्पष्ट करने के लिए किया जाने वाला अनुगम ( व्याख्या) । सूत्र ७१३ १६. उपोद्घातनियुक्ति अनुगम (उबन्धायनिज्जुत्तिअणुगमे ) १. उद्देश – सामान्य रूप से नाम कथन करना, जैसे अध्ययन । २. निर्देश - विशेष नाम का निर्देश करना, जैसे-सामायिक । व्याख्येय सूत्र को व्याख्या विधि के निकट लाना, जिस सूत्र की जिस प्रसंग में जो व्याख्या करनी हो उसकी पृष्ठभूमि तैयार करना उपोद्घात कहलाता है । उपोद्घात के अर्थ का कथन उपोद्घात निर्युक्त्यनुगम है। इस नियुक्त्यनुगम के २६ द्वार हैं १.वि.मा. १४०५ की वृति निश्चितोक्तिनिर्मुक्तिः । २. विभा ३३४३ । ३८१ स्थापना आदि के क्रम से न्यास । इसलिए यहां उसका निक्षेप भी मात्र की समानता से की गई है। ३. निर्गम मूल स्रोत की खोज करना, जैसे सामायिक का निर्गमन महावीर से हुआ। ४. क्षेत्र - वर्तमान कालखण्ड में महासेन वन नामक उद्यान में सामायिक की उत्पत्ति हुई । ५. काल - सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक की प्रतिपत्ति सुषम-सुषमा, सुषमा आदि छहों कालखण्डों (अंशों) में होती है । देशविरति सामायिक व सर्वविरति सामायिक की प्रतिपत्ति उत्सर्पिणी के दुःषम-सुषमा और सुषम दुःषमा तथा अवसर्पिणी के सुषम दुःषमा, दुःषम- सुषमा और दुःषमा कालखण्डों में होती है । " ६. पुरुष - व्यवहार दृष्टि में सामायिक का प्रतिपादन तीर्थङ्कर और गणधरों ने किया। निश्चयनय के अनुसार सामायिक काकर्ता है सामायिक का अनुष्ठान करने वाला । ७. कारण - किस कारण से गौतम आदि ने महावीर के समक्ष सामायिक का श्रवण किया ? समता धर्म को सूत्रात्मक शैली में जनता तक पहुंचाने के लिए गौतम आदि गणधरों ने महावीर के समक्ष सामायिक का श्रवण किया । ८. प्रत्यय - किस प्रत्यय ( मूलकारण ) से भगवान ने सामायिक का प्रतिपादन किया ? ३. वही, २७०८ । ४. वही ३३८२, ३३८३ । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ अणुओगदाराई जनता को समता धर्म में दीक्षित करने के लिए भगवान् ने सामायिक धर्म का प्रवचन किया। ९. लक्षण--सामायिक का लक्षण क्या है ? सम्यक्त्व सामायिक का लक्षण-तत्त्वश्रद्धा। श्रुत सामायिक का लक्षण-जीव आदि का परिज्ञान । चारित्र सामायिक का लक्षण-सावद्य योग विरति । १०. नय-विभिन्न नयों के अनुसार सामायिक क्या है ? नैगमनय के अनुसार सामायिक अध्ययन के लिए उद्दिष्ट शिष्य यदि वर्तमान में सामायिक का अध्ययन नहीं कर रहा है तब भी वह सामायिक है। संग्रहनय और व्यवहारनय के अनुसार सामायिक अध्ययन को पढ़ने के लिए गुरु के चरणों में आसीन शिष्य सामायिक है। ऋजुसूत्रनय के अनुसार अनुपयोगपूर्वक सामायिक अध्ययन को पढ़ने वाला शिष्य सामायिक है। तीनों शब्द नयों के अनुसार सामायिक में उपयुक्त शिष्य सामायिक है।' ११. समवतार-किस सामायिक का समवतार किस करण में होता है ? द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से गुणप्रतिपन्न जीव सामायिक है अत: उसका समवतार द्रव्यकरण में होता है। पर्यायाथिक नय की दृष्टि से सम्यक्त्व, श्रुत, देशविरति और सर्वविरति जीव के गुण हैं, अतः उनका समवतरण भावकरण में होता है । भावकरण के दो भेद हैं श्रुतकरण और नोश्रुतकरण। श्रुत सामायिक का समवतार मुख्यतः श्रुतकरण में होता है। शेष तीनों सामायिकों-सम्यक्त्व सामायिक, देशविरति सामायिक और सर्वविरति सामायिक का समवतार नोश्रुतकरण में होता है। १२. अनुमत -किस नय को कौनसा सामायिक अनुमत है ? ज्ञाननय को सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक अनुमत है। ज्ञानात्मक होने के कारण वे मुख्यतः मुक्ति के कारण हैं । क्रियानय को देशविरति सामायिक और सर्वविरति सामायिक अनुमत है। क्रियारूप होने के कारण ये ही मुक्ति के कारण हैं । सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक इनके उपकारी मात्र होने से गौण हैं।' १३. किम् - सामायिक क्या है ? द्रव्याथिक नय की दृष्टि से गुणप्रतिपन्न जीव सामायिक है।' १४. कतिविध-सामायिक के कितने प्रकार हैं ? सामायिक के तीन प्रकार हैं -१. सम्यक्त्व सामायिक २. श्रुत सामायिक ३. चारित्र सामायिक । १५. कस्य-सामायिक किसके होता है ? जिसकी आत्मा समानीत होता है उसके सामायिक होता है । [द्रष्टव्य सू०७०८ पूर्ववर्ती दो श्लोक] १६. क्व-सामायिक कहां होता है ? सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक की प्राप्ति तीनों लोकखण्डों-ऊर्ध्व, अधः और तिर्यग्लोक में होती है। देशविरति सामायिक की प्राप्ति केवल तिर्यग्लोक में होती है। सर्वविरति सामायिक की प्राप्ति तिर्यग्लोक के एक भाग मनुष्य लोक में होती है। १७. केषु-सामायिक किन द्रव्यों में होता है ? नैगमनय के अनुसार सामायिक केवल मनोज्ञ द्रव्यों में ही संभव है। क्योंकि वे मनोज्ञ परिणाम के कारण बनते हैं। शेष नयों के अनुसार सब द्रव्यों में सामायिक संभव है।' १८. कथम् सामायिक की प्राप्ति कैसे होती है ? श्रुत सामायिक की प्राप्ति मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण तथा दर्शनमोह के क्षयोपशम से होती है। सम्यक्त्व सामायिक की प्राप्ति दर्शन सप्तक के क्षयोपशम, उपशम और क्षय से होती है। देशविरति सामायिक की प्राप्ति अप्रत्याख्यानावरण के क्षय, क्षयोपशम व उपशम से होती है। सर्वविरति सामायिक की प्राप्ति प्रत्याख्या नावरण के क्षय, क्षयोपशम व उपशम से होती है। १. विभा. ३३९१ से ३३९४ । ५. वही, २६९५। २. वही, ३३६१,६२। ६. वही, ३३८५,३३८६ । ३. वही, ३५९२ की वृत्ति । ७. वही, ३४१७ । ४. वही, २६४३। Jain Education Intemational Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १३, सू०७१३, टि० १६ ३८३ १९. कियच्चिरम्-सामायिक की स्थिति कितनी है ? सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक की लब्धि की दृष्टि से उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम से कुछ अधिक है । देशविरति सामायिक व सर्वविरति सामायिक की उत्कृष्ट स्थिति देशोनपूर्वकोटि है। सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक तथा देशविरति सामायिक की लब्धि की दृष्टि से जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त तथा सर्वविरति सामायिक की एक समय है। उपयोग की अपेक्षा से सब सामायिकों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।' २०. कति–सामायिक के प्रतिपत्ता कितने होते हैं ? सम्यक्त्व सामायिक व देशविरति सामायिक के प्रतिपत्ता एक काल में उत्कृष्टत: क्षेत्र पल्योपम के असंख्येय भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने होते हैं। देशविरत सामायिक के प्रतिपत्ता से सम्यक्त्व सामायिक के प्रतिपत्ता असंख्येय गुण अधिक होते हैं । जघन्यतः एक अथवा दो प्रतिपत्ता उपलब्ध होते हैं। श्रुत सामायिक के प्रतिपत्ता श्रेणी के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उत्कृष्टतः उतने होते हैं । जघन्यतः एक अथवा दो होते हैं। सर्वविरति के प्रतिपत्ता उत्कृष्टत: सहस्रपृथक् (दो से नौ हजार) तथा जघन्यतः एक अथवा दो होते हैं । विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य विशेषावश्यक भाष्य गाथा २७६४ से २७७४ । २१. अन्तर–सामायिक की पुनः प्राप्ति में कितना काल व्यवधान बनता है ? श्रुत सामायिक के प्रतिपत्ता का अन्तरकाल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अनन्तकाल है। शेष तीन सामायिक के प्रतिपत्ता का अन्तरकाल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टत: देशोन अपार्ध पुद्गलपरावर्तन है।' २२. अविरहित-सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक और देशविरति के प्रतिपत्ता आवलिका के असंख्येय भाग समयों तक निरन्तर एक दो आदि मिलते हैं। तत्पश्चात् उनका विरहकाल प्रारम्भ हो जाता है। चारित्र सामायिक के प्रतिपत्ता का अविरहकाल आठ समय तक होता है। उस अवधि में एक, दो आदि प्रतिपत्ता मिलते हैं। तत्पश्चात् उनका विरहकाल प्रारंभ हो जाता है। जघन्यतः सामायिक चतुष्क का अविरहकाल दो समय का होता है।' २३. भव--सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक के प्रतिपत्ता क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उत्कृष्टतः उतने भव करते हैं तथा जघन्यतः एक भव करते हैं। तत्पश्चात् मुक्त हो जाते हैं। चारित्र सामायिक का प्रतिपत्ता उत्कृष्टतः आठ भव तथा जघन्यतः एक भव करता है। श्रुत सामायिक का प्रतिपत्ता उत्कृष्टतः अनन्त भव तथा जघन्यतः एक भव करता है। २४. आकर्ष-एक या अनेक भवों में सामायिक कितनी बार उपलब्ध हो सकता है ? सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक और देशविरति सामायिक का एक भव में सहस्र पृथक्त्व (२ से ९ हजार) बार तक आकर्ष (उपलब्धि) हो सकता है। सर्वविरति सामायिक का आकर्ष एक भव में शत पृथक्त्व (२०० से ९००) बार तक हो सकता है। यह उत्कृष्ट आकर्ष का उल्लेख है। न्यूनतम आकर्ष एक भव में एक बार होता है। सम्यक्त्व सामायिक और देश विरति सामायिक का नाना भवों में उत्कृष्टतः असंख्येय हजार बार आकर्ष होता है। २५. स्पर्श-सामायिक करने वाला कितने क्षेत्र का स्पर्श करता है ? सम्यक्त्व सामायिक और सर्वविरति सामायिक से सम्पन्न जीव केवली समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करता है। श्रुत सामायिक और सर्वविरति सामायिक से सम्पन्न जीव इलिका गति से अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है तब वह लोक के सप्तचतुर्दश (१२) भाग का स्पर्श करता है। सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक से सम्पन्न जीव छट्ठी नारकी में इलिका गति से उत्पन्न होता है। तब वह लोक के पञ्चचतुर्दश (५५) भाग का स्पर्श करता है। देशविरति सामायिक से सम्पन्न जीव यदि इलिका गति से अच्युत देवलोक में उत्पन्न होता है तो वह पञ्चचतुर्दश (१४) भाग का स्पर्श करता है। इसका दूसरा विकल्प यह है -यदि अन्य देवलोकों में उत्पन्न होता है तो द्विचतुर्दश (२४) आदि भागों का स्पर्श होता है।' २६. निरुक्त सामायिक के निरुक्त कितने होते हैं ? सम्यक्त्व सामायिक के निरुक्त सम्यग् दृष्टि, अमोह, शोधि, सद्भाव दर्शन, बोधि, अविपर्यय, सुदृष्टि आदि हैं । श्रुत १. विभा, २७६१,२७६३ । २. वही, २७७५। ३. वही, २७७७। ४. वही, २७७९ तथा उसको वृत्ति । ५. वही, २७८० । ६. वही, २७८१। ७. वही, २७८२॥ Jain Education Intemational Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ अणुओगदाराई सामायिक के अक्षर, संज्ञि आदि चौदह निरुक्त हैं। देशविरति सामायिक के निरुक्त विरताविरति, संवृतासंवृत, बालपंडित, देशैकदेशविरति, अणुधर्म, अगारधर्म आदि हैं। सर्वविरति सामायिक के निरुक्त सामायिक, सामयिक, सम्यग्वाद, समास, संक्षेप, अनवद्य, परिज्ञा और प्रत्याख्यान ये आठ हैं । विशेष विवरण के लिए देखें वि. भा. गा. २७८४ से २७९८ । सूत्र ७१४ १७. सूत्र (सुत्तं) जिस ग्रन्थ का विस्तार कम और अर्थ अधिक हो, जो बत्तीस प्रकार के दोषों से रहित, लक्षणयुक्त तथा आठ गुणों से उपेत हो, वह सूत्र कहलाता है। सूत्र के आठ गुण हैं-१. निर्दोष २. सारवान् ३. हेतुयुक्त ४. अलंकारयुक्त ५. उपनीत ६. सोपचार ७. मित ८. मधुर।' प्रकारान्तर से सूत्र के छह गुण हैं १. अल्पाक्षर २. असंदिग्ध ३. सारवान् ४. विश्वतोमुख (जिसका प्रत्येक सूत्र अनुयोग-चतुष्टय से व्याख्यात हो) ५. अस्तोभक (च, वा आदि निपातों से वियुक्त) ६. अनवद्य । व्याख्या के लक्षणसंहिता-अस्खलित पदोच्चारण । पद-एक-एक पद का निरूपण । पदार्थ प्रत्येक पद का अर्थ । पद विग्रह--समस्त पदों में समास विग्रह । चालना-सूत्र के अर्थ में प्रश्न उपस्थित करना । प्रसिद्धि-युक्ति पुरस्सर अर्थ की स्थापना । प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'विद्धि' पद द्वयर्थक है। चूणिकार ने इसका अर्थ वृद्धि किया है। हरिभद्र और हेमचन्द्र ने इसका क्रियापरक 'विजानीहि' अर्थ किया है । प्रकरण की दृष्टि से चूर्णिकार का अर्थ समीचीन प्रतीत होता है। सूत्र ७१५ १८. (सूत्र ७१५) सात नय वस्तु के एक धर्म को सापेक्ष दृष्टि से जानने वाले ज्ञाता का अभिप्राय नय कहलाता है। प्रस्तुत सूत्र में नय के सात प्रकार बतलाए गए हैं। भगवती में दो नय निर्दिष्ट हैं -द्रव्याथिकनय और पर्यायाथिकनय। दूसरा वर्गीकरण निश्चयनय, व्यवहारनय का मिलता है। स्थानांग में सात नयों का उल्लेख प्राप्त है। वह संग्रह सूत्र है। इसलिए इस वर्गीकरण का मूल स्थानांग से कहीं अन्यत्र खोजना आवश्यक है । आवश्यक नियुक्ति में भी सात नयों का उल्लेख मिलता है। आवश्यक नियुक्ति से अनुयोगद्वार में यह वर्गीकरण अथवा अनुयोगद्वार से आवश्यकनियुक्ति में आया है, यह विमर्शनीय है। इस वर्गीकरण का मूल आधार यदि अनुयोगद्वार है तो इसके आया है कर्ता आर्यरक्षित सूरि हैं, यदि इसके कर्ता नियुक्तिकार हैं तो यह संभावना की जा सकती है कि आगम संकलन काल में देवधिगणी ने इन गाथाओं का अनुयोगद्वार में प्रक्षेप किया है । इस विषय में अभी निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। उमास्वाति और सिद्धसेन के वर्गीकरण भिन्न हैं। उमास्वाति ने नय के पांच प्रकार बतलाए हैं-नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और साम्प्रत । १. अमवृ. प. २४३ : अष्टाभिश्च गुणरूपपेतं यत्तल्लक्षणयुक्तमिति वर्तते, ते चेमे गुणा:निद्दोसं सारवतं च हेउज्जुत्तमलकियं । उवणीयं सोवयारं च मियं महरमेव य ॥ २. अमवृ. प. २४३ : अप्पक्खरमसंविद्धं सारवं विस्सओमुहं । अत्योभमणवज्जं च, सुत्तं सवण्णुभासियं ।। ३. अचू.पृ. ९० । ४. अंसुभ. ७.५९, १४१५० । ५. वही, १८१०७ : एत्य दो नया भवंति,तं जहा-नेच्छइयनए य वावहारियनए य । ६. ठा. ७१३८ । ७. आनि. ७५४ । ८. तसू. ११३४ : नेगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः । Jain Education Intemational Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १३, ०७१४,७१५, ४० १७,१५ ३८५ सिद्धसेन ने नय के छः प्रकार बतलाए हैं-संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ।' उत्तरवर्ती साहित्य में सात नय के वर्गीकरण का ही अनुसरण हुआ है। १. मनहरिभद्र ने इसके दो अर्थ किए हैं ज्ञाननय १. नैकम - सामान्य - विशेष आदि अनेक धर्मों को जानने वाला दृष्टिकोण । २. निगम का अर्थ है पदार्थ परिच्छेद, सामान्य और विशेष धर्मों का परिच्छेद करने वाला दृष्टिकोण | २. संग्रनय सामान्यग्राही दृष्टिकोण | ३. व्यवहारनय - विशेषग्राही दृष्टिकोण | ४. ऋजुसूत्रनय - वर्तमानग्राही दृष्टिकोण | ५. शब्दनय नाम, स्थापना और द्रव्य का अस्वीकार, लिङ्ग भेद और वचन भेद को स्वीकार करने वाला दृष्टिकोण | ६. समभिरूढ़नय -- शब्द की एकार्थता को अस्वीकार करने वाला दृष्टिकोण | ७. एवंभूतनय - शब्द और अर्थ की एकात्मकता को स्वीकार करने वाला दृष्टिकोण । नय के तीन फल हैं हेय का हान (त्याग), उपादेय का उपादान और उपेक्षणीय की उपेक्षा । प्रस्तुत श्लोक में यही तत्त्व निर्दिष्ट है । ज्ञातव्य अर्थ के भलीभांति ज्ञात होने पर ही उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण में प्रयत्न करना चाहिए, यह ज्ञान प्रधान उपदेश ज्ञाननय है । ज्ञाननय प्रत्येक प्रवृत्ति से पहले ज्ञान को प्राधान्य देता है। इसके अनुसार अज्ञात अर्थ में प्रवृत्त होने पर अनुकूल फल प्राप्ति नहीं हो सकती । उत्कृष्ट तपोयोग और चारित्रयोग से युक्त अर्हत् तब तक मुक्त नहीं होते जब तक उन्हें केवलज्ञान उपलब्ध नहीं हो जाता इसलिए पहले ज्ञान करो, यह ज्ञाननय का अभिमत है । क्रियानय क्रियानय क्रिया को प्रधानता देता है । वह ऐहलौकिक और पारलौकिक फल प्राप्ति में क्रिया को ही प्रधान कारण मानता है। इस नय के अनुसार उक्त गाथा की व्याख्या इस प्रकार है । भलीभांति ज्ञात अर्थ में भी उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण का प्रयत्न ही करना चाहिए यह क्रियाप्रधान उपदेश क्रिया नय है । क्रियानय क्रियाहीन ज्ञान को निरर्थक मानता है। अपने पक्ष की सिद्धि में वह युक्ति देता है—अनेक शास्त्रों का अध्ययन करने पर भी चारित्रहीन व्यक्ति उससे लाभान्वित नहीं हो सकता। जिस प्रकार लाख अथवा करोड़ प्रदीप्त दीपक अन्धे व्यक्ति को मार्ग नहीं दिखा सकते वैसे ही क्रियारहित ज्ञान के द्वारा व्यक्ति इष्ट तत्त्व की उपलब्धि नहीं कर सकता । ज्ञाननय ज्ञान का समर्थन करता है और क्रियानय क्रिया का समर्थन करता है इस स्थिति में सामान्य व्यक्ति के मन में सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है वास्तविकता क्या है ? ज्ञान वास्तविक है अथवा क्रिया वास्तविक है इस जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार किया गया प्रत्येक नय की पृथक्-पृथक् वक्तव्यता है। इन नाना प्रकार की वक्तव्यताओं को सुनकर संशय मत करो । कोई भी नय निरपेक्ष नहीं है । प्रत्येक नय की वक्तव्यता सापेक्ष है । इस सापेक्षता का निदर्शन है चरणगुणस्थित साधु । सम्यग् दर्शन और श्रुत के बिना चारित्र नहीं होता। साधु में ज्ञान और चारित्र दोनों सापेक्ष होते हैं इसलिए नयों की वक्तव्यता को सापेक्ष ही समझना चाहिए। १. सप्र. १४५ । २. अहावृ. पृ. १२३ । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : १. विशेषनामानुक्रम २. पदानुक्रम ३. टिप्पण : अनुक्रम ४. शब्दविमर्श : शब्दानुक्रम ५. देशी शब्द ६. प्रयुक्त ग्रन्थ सूची ७. जोड़ : पद्यात्मक व्याख्या Jain Education Intemational Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :१ विशेषनामानुक्रम २० शब्द अउय अउयंग वर्ग समय के प्रकार समय के प्रकार व्याकरण व्याकरण ग्रन्थ ग्रन्थ ग्रन्थ मान के प्रकार प्रमाण २१९,४१७ २१९,४१७ २६४।३ २६४१६ २२७ ३४२।१ २८.१ ३९२ अंकारंत अंग अंगपविट्ठ अंगबाहिर अंगुल गृह ३७६,६१४ २१९,४१७ २१९,४१७ ३८८।१,३८९,३९०, ३९०१२,३९१-३९३, ४००,४०२-४०४, ४०९,४६३,४६७,४८७, ४९०,४९९,५०३,५८६ ४०,४१ ५०,५४९ ५०,५४९ ३४११२ अंडय अंतगडदसा अंतोमुत्त अंब सूत्र (धागा) ग्रन्थ समय के प्रकार वनस्पति अज्जा देव अग्गेय उत्पात अजिय व्यक्ति अज्जम नक्षत्र देव अज्झयणछक्कवरंग ग्रन्थ अट्टालय अट्ठआढगसतिय मान के प्रकार अट्ठभाइया मान के प्रकार अडड समय के प्रकार अडडंग समय के प्रकार अणागत (य) द्धा समय के प्रकार अणुत्तरोववाइयदसा ग्रन्थ अणुराहा नक्षत्र अतीतद्धा समय के प्रकार अत्ताणुसट्ठिकार ग्रन्थकार अत्थनिउर समय के प्रकार अत्थनिउरंग समय के प्रकार अदिति नक्षत्रदेव अद्दा नक्षत्र अद्दाग गृह उपकरण अद्धंगुल मान के प्रकार अद्धकरिस मान के प्रकार अद्धतुला मान के प्रकार अद्धपल मान के प्रकार अद्ध भार मान के प्रकार अद्धमाणी मान के प्रकार अद्धापलिओवम समय के प्रकार अद्धासमय समय के प्रकार २१९,४१७ २१९,४१७ अंबय अंबाडग नाम वनस्पति ३४२।१ ३४१११ अंसुय अक्ख सूत्र मान के प्रकार ४०८ ३७८ ९०,६५४,६५८, ६८०,६८४ ३४७ ९०,६५४,६५८,६८०, ६८४ ४३ ३८०,३८०।१,३९१, ४०० ३९२ ३७९ ३४२।१ ३४२ ३४२ ३४२ ३४२ जलाशय सुगंधित द्रव्य नक्षत्रदेव नाम अगड अगरु अग्गि अग्गिदास अग्गिदिण्ण अग्गिदेव अग्गिदेवया अग्गिधम्म अग्गिय अग्गिरक्खिय अग्गिसम्म अग्गिसेण ३७८ ३७८,३९० ३७६,६१४ ४१९,४२७,४२९-४३३ १४८,१४९,२५४,२५६, २८८,३२५,३४८,४४३ ४२९१,४३१११ ३०९।१,३१२, ३१२११ ३४११३ २२७ ३०५।१ अद्धासागरोवम समय के प्रकार नक्षत्रदेव नाम mmmmmmm अब्भुय अभिइ अभिणंदन अभिरु रस नक्षत्र व्यक्ति स्वर राजपरिकर ३४२ ३४२ अमच्च Jain Education Intemational Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० अणुओगदाराई अमत्त ९२ ५०,५४९ अय अयण अर अरिट्ठणे मि अलिंद अवकरय पात्र नक्षत्रदेव समय के प्रकार व्यक्ति व्यक्ति ३९२ ३४२२ २१९,४१७ २२७ २२७ आयंसग आयार आराम आलिंद आवंती आवण आवरिसण गृह उपकरण ग्रंथ वन गृह उपकरण ग्रंथ परिच्छेद ३२२ ३९२ गृह ३७५ नाम ३४६ ३५८१ अवच्च व्याकरण कुप्रावनिक आवश्यक समय के प्रकार आवलिया २१९,४१०,४१५११, ४१७,४८२,५९०,५९२, ५९३,६१६ ५-१०,७४ ग्रंथ भवच्चनाम अवरह अवरविदेह अवव अववंग अवायाण अविरुद्ध अव्वईभाव अश्व असंखय आवस्सय आवस्सयवतिरित्त ग्रंथ आस प्राणीवर्ग व्याकरण समय के प्रकार जनपद-ग्राम समय के प्रकार समय के प्रकार व्याकरण अन्यतीथिक व्याकरण प्राणी ग्रंथ परिच्छेद मान के प्रकार वन नक्षत्र प्राणी उपकरण समय के प्रकार समय के प्रकार व्याकरण राजपरिकर ३९९,५५६ २१९,४१७ २१९,४१७ ३०८।२,५ २०,२६ ३५००१,३५६ २७०,३५१ ३२२ ३७४ ८९,९२,५२५,६५४, ६५६,६५८,६६०,६८०, ६८२,६८४,६८६ ३४२।२ ३००१ असति आस आसकता आसण आसम आसुरुत्त आहत्तहीय ३२४ असोगवण अस्सिलेसा अहि अहिंगरणि अहोनिस अहोरत्त आ आइक्खग नक्षत्र देव स्वर साधु के उपकरण बसति के प्रकार लौकिक ग्रंथ ग्रंथ परिच्छेद व्याकरण व्याकरण इंकारंत ३२३ ५५६ ४९,५४८ ३२२ २६४।६ २६४।६ २०,३२१ ३४२२ ३२१ ३४३ देव नक्षत्र देव प्राणीवर्ग इंदगोवय इक्खाग इज्जंजलि कुल आइच्च नक्षत्रदेव ३४११ ३५१ ४०८ २८.२ २१९,४१५१,४१७ २६४।२ ८८ ५४० ३४२१२ ६५६,६६०,६८२,६८६ २६४।४,५ २७० २६५,२६६ ५१५,५४७-५५१ ३२३,५५६ ३०७१-३ ३०१२ वाद्य व्याकरण व्याकरण इब्भ इस्सरिय इस्सरियनाम आउ आउज्ज आकारंत आख्यातिक आगम आगम आगर आगार आडंबर आढग आढगसत आणापाण आमंतणी आमलग (य) आयंगुल ३७५ १९,३६५ ३५८।१ २६४२ २६४,४,५ ईकारत कुप्रावनिक आवश्यक गृह उपकरण राजपरिकर व्याकरण व्याकरण व्याकरण व्याकरण राजपरिकर समय के प्रकार व्याकरण व्याकरण कुप्रावचनिक आवश्यक ग्रन्थ व्याकरण ग्रंथ वसति के प्रकार स्वर वाद्य वर्ग मान के प्रकार मान के प्रकार समय के प्रकार व्याकरण वनस्पति मान के प्रकार ईसर उउ ३७४ २१९,६१६ ३०८।२,६ ४३९,५०६ ३८९,३९०,३९२,३९४ २१९,४१७ २६४।३ २६४।६ २६ उंकारंत उंदुरुक्क उक्कालिय Jain Education Intemational Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :१ उक्कुरुडय नाम ३४६ ऊरणी ऊसास प्राणीवर्ग समय के प्रकार उग्ग कुल ३४३ ३२४ १९,३९२ ३४६ नाम सूत्र ३३० ओ एगसेस व्याकरण . एरवय जनपद-ग्राम एलइज्ज ग्रन्थ परिच्छेद व्याकरण ओअंत व्याकरण ओकार व्याकरण ओचार गृह उपकरण ओसप्पि (णी) समय के प्रकार ओसप्पिणी समय के प्रकार ३३० ३०७।१,२,४१७, ४१७।१,३ ३५०११,३५७ ३३३,३९९,५५६ ३२२ २६४।२ २६४।४ २६४।२ ३७५ ४१२१ २१९,४५७,४५८,४६०, ४६३,४६७,४८२,४८७, ४९०,४९५,४९९, ५०३,६१६ २७० ५५६ ३०९।१ ३०५१ ३४११२ ३०५।१ ३०५१ ३०९।१ उच्छवण वन उज्जाण वन उज्झियय उट्टिय उट्टिय नाम उट्टी प्राणीवर्ग उड्ढरेणु मान के प्रकार उण्णिय सूत्र उत्तरकुरू जनपद-ग्राम उत्तरगंधारा स्वर उत्तरड्ढभरह जनपद-ग्राम उत्तरमंदा स्वर उत्तरा (साढा) नक्षत्र उत्तरा स्वर उत्तरायता स्वर उत्तरायता स्वर (कोडिमा) उद्धारपलिओवम समय के प्रकार उद्धारसमय समय के प्रकार उद्धारसागरोवम समय के प्रकार उप्पल वनस्पति उप्पल समय के प्रकार उप्पलंग समय के प्रकार उरग प्राणी-वर्ग उरपरिसप्प प्राणी-वर्ग उलक प्राणी-वर्ग उवलेवण कुप्रावचनिक आवश्यक उवासगदसा ग्रन्थ उसण्हसहिया मान के प्रकार उसभ प्राणी वर्ग उसभ व्यक्ति उस्सप्पिणी समय के प्रकार औपसगिक व्याकरण कंबल साधु के उपकरण कज्जवय नाम कट्टकम्म हस्त-कौशल ३४६ १०,३१,५४,७८, १०३,५६० ४१९,४२०,४२२-४२६ कट्ठकार कड शिल्पी गृह उपकरण ४२२११,४२४।२,४२६ १९,२० २१९,४१७ २१९,४१७ २५३,३३१,३८१,५२३, ५५२ ३३१ ७०८/८ २५४ २५० ३४१ ३४१,३४१११ ३४१ ३४१ ५०,५४९ कडि नाम कडुच्छ्य गृह-उपकरण कणगसत्तरि लौकिक ग्रन्थ कण्णा परिवारिक सदस्य कत्तिय नाम कत्तिया नक्षत्र कत्तियादास नाम कत्तियादिण्ण नाम कत्तियादेव नाम कत्तियाधम्म नाम कत्तियारक्खिय नाम कत्तियासम्म नाम कत्तियासेण नाम: कपि प्राणीवर्ग कपित्थ वनस्पति कप्पासिय लौकिकग्रन्थ कप्पासिय शिल्पी कब्बड वसति के प्रकार कमल प्राणी-वर्ग कमल वनस्पतिः २२७,२२८ २१९,४५७,४५८,४६०, ४६३,४६७,४८२,४८७, ४९०,४९५,४९९,५०३, ३४१ ३४१ ३४१ ३४१ ३६८ उस्सेहंगुल मान के प्रकार ४९,५४० ३५९ ३८९,३९५,३९९,४०१, ४०७,४०८ २६४१२ २६४१४,५ व्याकरण ऊकारंत ऊरणिय व्याकरण नाम ३२३,५५६ १९,२० ३१८२ Jain Education Intemational Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ अणओगदाराई कमलागर कम्म कुंद कम्मधारय कम्मनाम कम्ममासय कुंभ कुक्कुड कुडय व्यक्ति वनस्पति मान के प्रकार प्राणीवर्ग वनस्पति जलाशय २२७ ५४० ३७४ ३००।१, ५२५ ३५२ कयंब कुण्ड २६६ कुतव ४४ ३७४ मास करग करण करिस करिसावण करीरय करुण करोडिया कलसिया कलुण कल्लाल ३०००२ ५२२ ३००२ जलाशय १९,२० व्याकरण ३५८११ व्याकरण ३५०११,३५३,५५७ व्याकरण ३५९ मान के प्रकार ३८४ वनस्पति ३५२ पात्र ३७७ व्याकरण ३०८।१४ मान के प्रकार ३७८ सिक्का ३५७, ५२८, ५२९ नाम रस ३१७, ३१७।१ पात्र ३७७ पात्र ३७७ रस ३०९।१ मदिरा बेचने वाला ३२३ गृह उपकरण ५६९, ५६९।१ राजपरिकर ८८ ग्रन्थ प्राणीवर्ग ३५५, ५४६ धातु और रत्न ४०८ मान के प्रकार ३८४ वन ३९२ कावड वहन करने वाला ग्रन्थ ग्रन्थ ५७०, ५७१ समुद्र-जलाशय १८५११ अन्यतीथिक ३४४ लौकिक ग्रन्थ ४९, ५४८ वनस्पति १९, २० ३६० ४३९, ५५६ ४९, ५४८ १९,३६५ कवाड कहग काउस्सग काग (क) कागणिरयण कागणी काणण ३०४११ ३५९ ५८६ कुलय मान के प्रकार कुलिय कृषि उपकरण कुसुमसंभव केकाइय बोली कोइला प्राणीवर्ग कोंकणय नाम कोट्टकिरिया देव कोट्टिमकार शिल्पी कोट्टय (ग) गृह कोडिल्लय लौकिक ग्रन्थ कोडुंबिय राजपरिकर कोरव्व कुल कोरव्वीया स्वर कोलालिय शिल्पी कोस मान के प्रकार कोसलय नाम कोहंड वनस्पति खंड खाद्य खंद गृह उपकरण प्राणीवर्ग खत्तिय कुल खर प्राणीवर्ग खयर प्राणीवर्ग खाइया सुरक्षा साधन खाय सुरक्षा साधन कृषि भूमि खुड्डिया खेड वसति के प्रकार कृषि भूमि खेत्तपलिओवम समय के प्रकार काय देव ४३९ ९१, ३७९ २० ३९२ ५४० खंभ खज्जोत कालिय कालियसुय कालोय कावालिय काविल xmx २५४ किंसुय कि ट्टिस किण्हमिग किसल खित्त ३९२ ३८०२, ३८१ ३८०२ ३०९।१ ३२३, ५५६ स्वर किसलय कीडय ५६९।४ ५६९१३ ४०,४३ खेत्त प्राणो वर्ग वनस्पति वनस्पति सूत्र सुगंधित द्रव्य प्राणीवर्ग जलाशय पात्र पात्र कुंकुम कुंच ३७९ ३००१२ ५३१, ५३५ ४१९, ४३४, ४३६४३८, ४४०, ५०५ ४३६।१, ४३९।१ ३९८, ४३९ ३२२ खेत्तसागरोवम समय के प्रकार गंगा गंथग्रन्थ परिच्छेद कुंड कुंडिया नदी ३७७ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : १-विशेषनामानुक्रम गंथिम हस्त-कौशल १०, ३१, ५४, ७८, गंध गंधार सुरभि स्वर १९, २०, ३०२।२ २९८।१,२९९.१, ३००।१, ३०१।१. ३०२।३ गोव्वइय गोहिया घट अन्यतीथिक वाद्य पात्र पात्र ४७१,४७२,४७६,४७७, ४८१,४८२,४८७,४९०४९२,४९५,४९७,४९९, ५०२,५०३ २०,२६ ३०१२ २६७ २५३,३३१,५२३,५५२. ६१३ ३७७ घड गंधारगाम गग्गरि गणिपिडग गणिया गब्भघर गय (अ) स्वर पात्र ग्रन्थ राजपरिकर ५०, ५४९ पात्र घडग घडि घणंगुल नाम प्राणीवर्ग मान के प्रकार २१, ६३, ६७, ३००।२, ३५४ गव ५२५ प्राणीवर्ग प्राणीवर्ग प्राणीवर्ग घय घणघणाइय घयकुंभ खाद्य आवाज पात्र गवय गवेलग गह गाउय ३००।१ २५४ ३८८।१, ३९१, ४००, मान के प्रकार गाम २८७,३२३,३५४,५५६ ३०३, ३०७।१४ गाम वसति के प्रकार स्वर नाम जनपद-ग्राम वाहन घर गृह ३३४ ३६२ ३९३,३९४,४०६.४०७, ४११,४१२ २८७११ ५२२ १६,१७,३७,३८,६०, ६१,८४,८५,१०९, ११०,५६६,५६७,६२६, ६२७,६३०,६३९,६५०, ६५१,६७६,६७७,७०३, ७०४ २८७,३२३,३७२,५५६, ६१३ ४९,५४८ ३९२ ८७,८९,२५४,३२७११, ५२५,६५४,६५८, ६८०,६८४ ३७६,६१४ ३९२ २५४,४४५,४५३,४८५ ७४ ३९२ गिम्हय गिरिनगर गिल्लि गिह गिहिधम्म गीय लौकिकग्रन्थ घोडमुह चउक्क चउप्पय पथ प्राणीवर्ग गुंजा २०, २६ ३०७।१-३, ५-७ १९, २० ३८४ ३९२ गुंजा अन्यतीथिक स्वर वनस्पति मान के प्रकार जलाशय खाद्य खाद्य बोली प्राणीवर्ग गुंजालिया चउभाइया मान के प्रकार चउम्मुह पथ चउरिदिय प्राणीवर्ग चउवीसत्थय ग्रन्थ चउसट्ठिया मान के प्रकार गुल गुलगुलाइय चंद ग्रह २५४,५४० २२७ गृह नाम ३२४ गोपुर गोमिय गोमूही गोम्हिय गोयम गोयम वाद्य प्राणीवर्ग अन्यतीथिक व्यक्ति २८७११,३७९ ५५२ ३०२।१,३३०,५४१ ३९२ ३३० ३००११ ५२५ २०,२६ ४०२,४०३,४२६,४३३, ४४१-४४८,४५०,४५५, ४५७-४६४,४६६-४६८, चंदप्पह चंपगवण चच्चर चणग चमरी चम्मखंडिय चम्मेढग चरग व्यक्ति वन पथ वनस्पति प्राणीवर्ग अन्यतीथिक शस्त्र अन्यतीथिक mmx ५२५ २०,२६ ४१६ २०,२६ Jain Education Intemational Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ अणुओगदाराइ ३९२ चरिया पथ चाउरंगिज्ज ग्रन्थ परिच्छेद चित्तकम्म हस्त-कौशल ३२२ ३०७।३ ५०,५४९ १०,३१,५४,७८, १०३, ४३३ झल्लरी ठाण ठिईपय ढिकिय णमि तंतिय वाद्य ग्रन्थ ग्रन्थ परिच्छेद बोली व्यक्ति शिल्पी ५६० ५२२ २२७ ३४११२ तंतु सूत्र चितकार चित्ता चीणंसुय चीरिय चूयवन चुलियंग चूलिया चोयय शिल्पी नक्षत्र सूत्र अन्यतीथिक वन समय के प्रकार समय के प्रकार सुगंधित द्रव्य गह उपकरण शिल्पी नाम ४१६,५२३ ३६० २८७१ १९ २०.२६ ३२४ २१९,४१७ २१९,४१७ ३७९ ३३१ छत्तकार छत्ति जंघाचर ३३१ ३०२७ ४१७११ १८५।१,२,१८६,५५६, जंतु प्राणीवर्ग जनपद-ग्राम जंबुद्दीव जंबू जक्ख जण्णइज्ज जण्णदत्त ३४२१ ३५८। ३४९,३५८,३६६ ३५००१,३५५,५५७ ३६४ ७०८।५ १९,३६५ ३९२,५३१,५३५ ३९४१.३९९ ३०७/१४ २०,२६ ३५४ ३९२ ३५४ जप जम जमईय जलयर जलरुह जल्ल जव तंतुवाय शिल्पी तंदुल खाद्य तंबोल खाद्य तगर सुगंधित द्रव्य तगरा नदी तगरायड जनपद-ग्राम त? नक्षत्रदेव तद्वितनाम व्याकरण तद्धित्तय व्याकरण तप्पुरिस व्याकरण तरंगवतिकार ग्रन्थकार तरु वनस्पति तलवर राजपरिकर तलाग जलाशय तसरेणु मान के प्रकार ताण स्वर तावस अन्यतीथिक तिकड्य वनस्पति तिग पथ तिपह पथ खाद्य या वनस्पति तीतद्धा समय के प्रकार तुंबवीणिय शिल्पी तुडिय समय के प्रकार तुडियंग समय के प्रकार तुण्णागदारय शिल्पी तुन्नाय शिल्पी प्राणीवर्ग तुला मान के प्रकार तूणइल्ल शिल्पी तेइंदिय प्राणीवर्ग तेल्ल खाद्य तोरण थंभ थलयर प्राणीवर्ग थासग आभरण तिमहुर वनस्पति २६४१५ देव २०,२५४ ग्रन्थ परिच्छेद ३२२ नाम २५२ कुप्रावनिक आवश्यक २६ नक्षत्रदेव ३४२।२ ग्रन्थ परिच्छेद ३२२ प्राणीवर्ग २५४ वनस्पति ७०८१५ राजपरिकर ८८ मान के प्रकार ३९५१ मान के प्रकार ३९९ वाहन ३९२ पारिवारिक सदस्य ३६२ समय के प्रकार २१९,४१५१,४१९ मान के प्रकार ३८०,३८०११,३९१, ४०० वाहन मान के प्रकार ३९५२१,३९९ नक्षत्र ३४११२ मान के प्रकार ३८८।१,३९१,३९२, ४००,४०९,४११,४२२, ४२४,४२९,४३१,४३६, ४३८,४८२,४९५,५८६ २१९ ८८ २१९,४१७ २१९,४१७ जवमझ ४१६ जाण जामाउय जुग जुग तुरग x ३७८ ३९२ जुग्ग जूया २५४,४४५,४५३,४८५ जेट्ठा १९ जोयण ४१० गृह ६१३ २५४ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : १- विशेषनामानुक्रम थिल्लि ླ ླ ཁྭཱ སྠཽརཱྀ ; इंडि दंतकार दंद दक्खवण दण्ड दधि दसना लिया दह दार दास दासो दिट्टिवाय दिट्टिवायसुय दिवस डीडिया दुहि दुध दाहिणड्ढभरह जनपदग्राम दिउ (गु) व्याकरण दुम दुवाल संग दुहण देअड देयर देव देवकुक देवकुल देव देवदत्त दोण वाहन गृह समय के प्रकार पात्र गृह उपकरण मान के प्रकार नाम शिल्पी व्याकरण वन गृह उपकरण खाद्य मान के प्रकार जलाशय गृह कर्मकर कर्मकर ग्रन्थ ग्रन्थ समय के प्रकार जलाशय वाद्य प्राणीवर्ग वनस्पति ग्रन्थ शस्त्र शिल्पी पारिवारिक सदस्य देव जनपदग्राम गृह देव नाम मान के प्रकार ३९२ ३९२ २१९,४१७।२ ३७७ ३३१ ३८०, ३८०११,२,३९१, ४०० ३३१ ३६० ३५०।१,३५१ ३२४ २६९ २६९ ३८०/२ ३९२, ५३१,५३५ ३९२, ४१० ५५७, ६५४,६५६, ६५८, ६६०, ६८०,६८२,६८४, ६८६ ६५४,६५६, ६५८, ६६०, ६८०, ६८२, ६८४, ६८६ ५५६ ३५०।१,३५४ ५०, ४४०, ५४९ ५७०, ५७२ ४१५।१ ३९२ ५६९।१ ८७,८८,३२७/१, ५२५, ६५४,६५८,६५०,६८४ २६४|४ ५०, ५४९ ४१६ ३६० ३१६/२ २०, २५४, २७५, ४०१, ४३२,५६९ ५५६ १९,३९२ २०, २५४, २७५, ४०१, ४३२,५६९ २५२,५५६ ३७४ दोणपाय (ग) दोषमुह दोसिय घपिट्ठा धणु धन्न (पण ) धम्म धम्मचितंग धवलवसह धाउय धायई धूव धेवइय वय (त) नई (दी) नउय नउयंग नंदी नकुल नगर नट्ट नड नलिण नलिणंग नलिणिसंड नाग नागवण नागसुहुम नाडग नात नामिक नावा नाविय निंबय खाद्य वसति के प्रकार शिल्पी नक्षत्र मान के प्रकार खाद्य ग्रन्थ परिच्छेद अन्यतीर्थिक प्राणीवर्ग व्याकरण जनपद-ग्राम सुगंधित द्रव्य स्वर स्वर जलाशय समय के प्रकार समय के प्रकार स्वर प्राणीवर्ग वसति के प्रकार नर्तक और खिलाड़ी नर्तक और खिलाड़ी समय के प्रकार समय के प्रकार कुल व्याकरण नायाधम्मका ग्रन्थ नालिया नालिया वन देव वन लौकिक ग्रन्थ लौकिकग्रन्थ गृह उपकरण मान के प्रकार वाहन नाम नाम ३२७।२.५२५।१ ३२३, ५५६ ३५९ ३४१।३ ३८०, ३८०११,२, ३८८ १,२९१,४००, ४०२, ४०३, ४०९,५८६ २६४।६, ३७३-३७६, ५५७ ३२२ २०, २६ ३५३ ३४९,३६७ १८५१ १९,२० ३०१।२ २९८१, २९९ २ २६९, ३५४,३९२, ५३१, ५३५ २१९,४१७ २१९,४१७ ३०६।१ ३६५ ३५१ २८७, ३२३, ३६३, ५५६ ८८ ८८ २१९,४१७ २१९,४१७ १९,२० २० ३२४ ४९, ५४८ ४९,५४८ ३४३ २७० ५०, ५४९ ] ९४ ३८०, ३८०११,२,३९१, ४०० ३३२ ३३२ ३४७ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदाराइ ५०,५४९ ३७९ निकस निष्फाव निमित्त निरति निरुत्तिय निवसण निहस नीसास नैमित्तिय नेसाय ३७४ ३७४,५५४,५५५ कसौटी मान के प्रकार लौकिकग्रन्थ नक्षत्रदेव व्याकरण वस्त्र कसोटी समय के प्रकार नैमित्तिक स्वर पण्हावागरण ग्रन्थ पत्त सुरभि पत्थ मान के प्रकार पत्थय (ग) मान के प्रकार पद्म वनस्पति पमाणंगुल मान के प्रकार पयरंगुल मान के प्रकार ३८९,४०८,४१०,४१२ ३९३,३९४,४०६,४०७, ४११,४१२ खाद्य ५२४ ३८४ ५७३ ३४२२ ३४९,३६८ ३२७।२,५२५११ २४७११ ४१७,४१७११ ५७३ २९८।१,२९९।२, ३००।२ २७० २१९,४१७ २१९,४१७ २२७ २१९,४१७ २१९,४१७ ३५४ २९८।१,२९९।१, ३००।२,३०१२ नेपातिक पउम पउमंग पउमप्पह पउय पउयंग पंचनद पंचम व्याकरण समय के प्रकार समय के प्रकार व्यक्ति समय के प्रकार समय के प्रकार जनपदग्राम स्वर पायस पयाण पयावइ परम परस्मैभाषा परिष परियट्ट परियर बंध परिवायग परिसप्प परिहा पल पलास पलासय पलिओवम २५४ ३७८ प्राणीवर्ग मान के प्रकार ३७८ पंचिदिय पंचुत्तर पलसइय पंडरंग पंडुपत्त पंडुयपत्त पंडुरंग पंथ अन्यतीथिक वनस्पति वनस्पति अन्यतीथिक पलिय पल्ल व्याकरण ३०८।४ नक्षत्रदेव ३४२।१ शस्त्र ५५५ व्याकरण ३६७ गृह उपकरण ४१६ समय के प्रकार ४१२१ वस्त्र ३२७।२,५२५१ अन्यतीथिक ३४४ प्राणीवर्ग सुरक्षा साधन ३९२ मान के प्रकार वनस्पति ३२१ नाम ३४७ समय के प्रकार २१९,४१८४१९,४७७, ५०५, ५६९ समय के प्रकार ४१५१ समय के प्रकार ४२२, ४२२११, ४२४, ४२४११, ४२९, ४२९।१, ४३१, ४३१११,४३६, ४३६१, ४३८, ४३९, ४२९।१,५८६ नर्तक और खिलाड़ी ८८ १९, ३९२ धातु और रत्न ३८५, ६५५, ६५९, ६८१, ६८५ ३०९।१, ३१८।१, ३१८ मान के प्रकार प्राणी वर्ग ३१३३२ पथ ३५४, ३९२ समय के प्रकार १९, २० नाम सुरक्षा साधन ३९२ जनपदग्राम पक्ख पट ५६९।४ ५६९।३ २०,२६ ३८०१२ २१९,४१५२१,४१७ २६७ ४३ ३६० ३२३,५५६ ४१६ २५३,३३१,३५३,३८१, ५२३,५५२ पथ समय के प्रकार वस्त्र पट्ट पवग पवा पवाल गह पट्टकार शिल्पो वसति के प्रकार पट्टसाडिया वस्त्र पड वस्त्र पसंत पसति पसु ४१६ ३३१ पह पडसाडिया वस्त्र पडि नाम पडिक्कमण ग्रन्थ पडिग्गह साधु के उपकरण पणग वनस्पति पण्णवणा ग्रन्थ पाउ पाउसय पागार पाडलिपुत्त ४२४,४३१,४३८ Jain Education Intemational Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :१-विशेषनामानुक्रम पाणु पाय (द) पायपुंछण पायय पायस पास पासाय पिउ पिति पियामह ३९२ बबुलय बय (द) र बलागा बहस्सइ बहुपय बहुव्वीहि बाहुलेर बिंदुकार बिलपंतिय बिल्ल बीभच्छ बीभत्स बीयवावय बुद्धवयण बेइदिय ३९२ ४३९ पीलु पीलुय पुक्खर पुक्खरिणी पुणव्वसु पुत्त पुत्तिया पुन्नागवण ३२४ पुष्फ पुर पुरवर पुराण पुरिसइज्ज समय के प्रकार ४१७११,२ मान के प्रकार ३९१, ४००, ४०९ साधु के उपकरण ६६३, ६८९ भाषा ३०७।११ खाद्य ४४५ व्यक्ति २२७ गृह पारिवारिक सदस्य ३२६ नक्षत्रदेव ३४२।१ पारिवारिक सदस्य ३२६ खाद्य २६४।६ नाम ३४७ जलाशय ३५४ जलाशय ३९२ नक्षत्र ३४१११ पारिवारिक सदस्य ३०२।१,५२०११ पारिवारिक सदस्य ३९७।२ वन वनस्पति १९, २०, ५२४ वसति के प्रकार ३५४ बसति के प्रकार ५६९, ५६९।१ लौकिक ग्रन्थ ४९, ५४८ ग्रन्थ परिच्छेद ३२२ समय के प्रकार २१९, ४१७, ५६८ समय के प्रकार २१९, ४१७ जनपदग्राम ३९९,५५६ नक्षत्र ३४११२ नक्षत्र ३४१११ नक्षत्रदेव ३४२११ हस्तकौशल १०,३१,५४,७८,१०३, ५६० स्वर ३०९१ समय के प्रकार ३०६१ हस्तकौशल १०,३१,५४,७८,१०३, ५६० शिल्पी ३६० नक्षत्र ३४१२१ गह उपकरण सूत्र ४२ सुरक्षा साधन ५६९।१ नक्षत्रदेव ३४२२२ मान के प्रकार ३७६, ६१४ बोंडय भड भंडवेयालिय भग भगिणीवइ भड भणिति भद्दवय भमर नाम ३४७ वनस्पति ४३९,६१३ प्राणीवर्ग ५२६ नक्षत्रदेव ३४२११ प्राणीवर्ग ३२७।१,५२५ व्याकरण ३५०११,३५२ प्राणीवर्ग ५४५ ग्रंथकार ३६४ जलाशय वनस्पति रस ३०९.१ रस ३१५१,३१५ प्राणीवर्ग ३२१ लौकिकग्रन्थ ४९,५४८ प्राणीवर्ग १५४,४४५,४५३,४८२, ४८५,४८८ ४०,४२ साधु के उपकरण ३९२,६६४,६९० शिल्पी नक्षत्रदेव ३४२११ पारिवारिक सदस्य ३५२ राज परिकर ३२७।२,५२५१ स्वर ३०७।३,११ नक्षत्र ३४११३ प्राणीवर्ग ७०८।५ नक्षत्र ३१११३ जनपदग्राम ३९९,५५६,६१५ २८७,४१० पारिवारिक सदस्य ३६२ विविध व्यवसायी ३०२१७ लौकिक ग्रन्थ २५,४९,५४८ ३३३ अन्यतीथिक ३४४ अन्यतीथिक २०,२६ कर्मकर वृत्ति-रोजगार ३८३ गृह ३८१ प्राणीवर्ग २५४ २०,२५४ वाद्य ५२२ कुल प्राणीवर्ग पुव भरणी पुवंग पुब्वविदेह पुब्वासाढा पुस्स भरह भवण पुस्स भाउय पूरिम नाम पूरिमा पोग्गलपरियट्ट पोत्थकम्म भारवाहग भारह भारह भिक्खु भिक्खोंड भितग भिति भित्ति भृयपरिसप्प भूय भेरी ३८३ पोत्यकार फग्गुणी फणिह फलिह फलिह देव बंभ भोग ३४३ बत्तीसिया भ्रमर Jain Education Intemational Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ अणुओगदाराई मइरा ५२४ महिसी मंख प्राणीवर्ग खाद्य ८८ महु महुकुंभ पात्र ३०४।१ ५८६ खाद्य चित्रपट दिखाने वाला स्वर गृह मान के प्रकार पर्वत पथ ग्रन्थ परिच्छेद नक्षत्र ३३० २६४१६ १६,१७,३७,३८,६०, ६१,८४,८५,१०९, ११०,४६६,५६७,६२६, ३२७,६३८,६३९,६५० ६५१,६६,६७७,७०३, मंगी मंच मंडलय मंदर मग्ग मग्ग ३८४ ५४० २८१ ७०४ देव ६३,६७,२५४ ३२१ खाद्य मघा मच्छंडिया मच्छंडी मज्झिम खाद्य महोरग माइवाय माउलिंग मागह मागहय माडंबिय माढर स्वर ३३३ १९,३६५ मज्झिमगाम स्वर वसति के प्रकार धातु और रत्न मडंब मणि ३४११ ३७९ ९१ २९८,२९९।१,३००।१, ३०१०१, ३०२।४ ३०२,३०५ ३२३,५५३ ३८५,६५५,६५९,६८१, ६८५ ३९२,६६४,६९० २६९ ३००।१,३५५ ३३३ माणी प्राणीवर्ग वनस्पति मङ्गल पाठक नाम राजपरिकर लौकिकग्रन्थ मान के प्रकार पारिवारिक सदस्य नाम माल्य समय के प्रकार उत्पात नाम प्राणीवर्ग नक्षत्र नक्षत्रदेव ३७६,६१४ ३६६,५२०११ ३३३ ३६० २१९,४१५।१,४१७ ३३० ३५३,७०८।५ ३४१५१ ३४२।२ सूत्र ३६४ १९,२० ८८ ३४५ ३४५ ४४ ३६० माया (ता) मालवय माला मास माहिंद माहिसिय मिग (य) मिगसर मित्त मियलोमिय मुंजकार मुगुंद मुग्ग मुच्छणा मुच्छा मुट्ठिय मुणिसुब्वय मुत्तोली मुयंग मुरव मुसल मुसल मत्त साधु के उपकरण मधु खाद्य मयूर प्राणीवर्ग मरहट्टय नाम मलय मलयवतिकार ग्रंथकार मल्ल माल्य मल्ल पहलवान मल्ल नाम मल्लदास नाम मल्लदिण्ण नाम मल्लदेव नाम मल्लधम्म नाम मल्लरक्खिय नाम मल्लसम्म नाम मल्लसेण नाम मल्लि व्यक्ति महानई जलाशय महाभेरी वाद्य महापह पथ महावीर व्यक्ति महिष प्राणीवर्ग प्राणीवर्ग ३४५ ३४५ ३४५ ३४५ शिल्पी देव वनस्पति स्वर ३०४-३०६,३०७।१४ स्वर ३०६१,२ नर्तक और खिलाड़ी ८८,३०२१६,४१६ व्यक्ति २२७ गृह उपकरण ३७५ ३०१२१ गृह उपकरण ३७५ गृह उपकरण ३६८ मान के प्रकार ३८०,३८००१,३९१, ३४५ वाद्य २२७ ४०० ३९८ ३००२ ३९२ ४०८ ३५१,३६८ ३५५,५२५ मुह मुहुत्त मान के प्रकार समय के प्रकार २९१,४१५॥१,४१७४२,३, महिस ४१७ Jain Education Intemational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट:१-विशेषनामानुक्रम ३६६ मूल नक्षत्र मोत्तिय धातु और रत्न ३४१२ ३८५,६५५,६५९,६८१ ६८५ ५२२,५२५ मोर प्राणीवर्ग देव २५४ रोहिणी लंख लच्छी लता लव लवण लवण लाउय लासग लिक्खा रक्खस रजत रज्जु रत्त समुद्र धातु और रत्न मान के प्रकार समय के प्रकार नक्षत्र ३४१,३४१११ नर्तक और खिलाड़ी ८८ देव २६४१५ वनस्पति २५० समय के प्रकार २१९,४१७।२ १८५११ खाद्य पात्र ३२३ राजपरिकर मान के प्रकार ३९५११,३९९ ३९२ १०,३१,५४,७८,१०३, ३८५ ३८०।१ ४२२,४२४,४२९,४३१, ४३६,४३८ ६५५,६५९,६८१,६८५ १९,२० २६७ ५२४ लेण लेप्पकम्म हस्तकौशल रत्तरयण रत्तासोग रथ रम्मगवस्स रम्मगवास रम्मगवासय रयणि धातु और रत्न वनस्पति वाहन जनपदग्राम जनपदग्राम नाम मान के प्रकार ५६० लेप्पकार लेहवाह लोगायत लोव लोहकडाह लोही वइसे सिय वंदणय ३८८।१,३९१,४००, ४०३,४:९ ३०४।१,३०५१ ६५५,६५९,६८१,६८५ २५३,३३२,३९२,५२२, रयणी रयय रह ३९२ स्वर धातु और रत्न वाहन ५५२ वक्कय सूत्र रहरेणु रहिय राइण्ण रामायण राय मान के प्रकार नाम कुल लौकिक ग्रन्थ राजपरिकर ३९५।१,३९९ ३३२ ३४३ २५,४९,५४८ १९,२६४।१,३६२,३६५, ३६६,४०८ ३५५ रायकुल रिसभ वग्घ वज्झकार वण वणमयूर वणमहिस वणराइ वणवराह वणसंड वणहत्थि वत्थिय वत्थु शिल्पी संदेशवाहक ३०२७ लौकिक ग्रन्थ ४९,५४८ व्याकरण २६५,२६७ गृह उपकरण गृह उपकरण ३९२ लौकिक ग्रन्थ ४९,५४८ ग्रन्थ ७४ ४०,४५ प्राणीवर्ग ५८५ शिल्पी ३६० वन ३५५,३९२,५३१,५३५ प्राणीवर्ग प्राणीवर्ग ३५५ वनवर्ग ३९२ प्राणीवर्ग ३५५ वनवर्ग ३९२ प्राणीवर्ग ३५५ शिल्पी खुली भूमि ३८०१२ व्यक्ति २२७,२२८ पारिवारिक सदस्य २६९ व्याकरण ३०८ प्राणीवर्ग ३५५,५२५ शिल्पी ३६० नक्षत्रदेव ३४२।२ आभरण ५२५ नाम ३३४ प्राणीवर्ग ३५३,५५२,५२५ स्वर हद्द देव रुद्द २९८।१,२९९।१,३००।१, ३०१०१,३०२।२ २० ३४२११ ३४१२१ ३०९।१,३१३।१,२,३१३ ३४१ ३४१ ३४१ ३४१ रोह नक्षत्रदेव रेवती नक्षत्र रस रोहिणिदास नाम रोहिणिदिण्ण नाम रोहिणिदेव नाम रोहिणिधम्म नाम रोहिणिय नाम रोहिणिरक्खिय नाम रोहिणिसम्म नाम रोहिणिसेण नाम वद्धमाण वधू वयणविभक्ति वराह वरुड ३४१ ३४१ वरुण वलय वसंतय वसह (भ) ३४१ Jain Education Intemational Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० अणुओगदाराई वेढिम हस्तकौशल १०,३१,५४,७८,१०३, ५६० वेदिस जनपदग्राम वहू वहपोत्ती वाउ वाउरिय वागरण ० mm वेन्ना वेन्नायड वानर प्राणीवर्ग वेय वेलंबग वेलणय वेसमण वायव्व नक्षत्रदेव ३४२२ पारिवारिक सदस्य २६४१५ वस्त्र ३१४।२ नक्षत्रदेव ३४२११ विविध व्यवसायी ३०२।६ लौकिकग्रंथ ४९,५४८ ५२५ उत्पात ५३७ प्राणीवर्ग ५४५ पात्र ३७७ उत्पात मान के प्रकार ३९९,४२२,४२४,४२९, ४३१,४३६,४३८,४३९ ४०,४४ जलाशय ३९२ समय के प्रकार २१९,४१७,४२९,४३१, रस वायस नदी जनपदग्राम ३६३ लौकिक ग्रंथ ४९,५४८ नर्तक और खिलाड़ी ८८ ३०९।१,३१४।१,३१४ देव २० लौकिकग्रंथ ४९,५४८ गृह देव २४९ वाद्य ३०११,५२२ धातु और रत्न ३८५,६५५,६५९,६८१, वेसिय वारग वारुण शाला २६८ वालग्ग श्री संख वालय वावी वास संख संघाइम प्राणीवर्ग हस्तकौशल ६०४ १०,३१,५४,७८,१०३, वासारत्तय वासुपूज्ज वाह ३३४ २२७ ३७४ २६४१४ ३४२२ ३०७।४.१० विण्हु विण्हु वित्त विदिसा विभत्ति नाम व्यक्ति मान के प्रकार देव नक्षत्रदेव स्वर नदी व्याकरण व्यक्ति अन्यतीर्थिक नक्षत्रदेव ग्रन्थ संजूह संजहनाम संजोग संजोगनाम संत संति संदमाणिया संपयावण संबाह संभव संवच्छर सगड सगभद्दिया सज्ज ३०८।३ २२७ २०,२६ ३४२।२ ५०,५४९ विमल व्याकरण ३५८१ व्याकरण व्याकरण ३५८१ व्याकरण ३६२ धातु और रत्न ६५५,६५९,६८१,६८५ व्यक्ति २२७ वाहन ३९२ व्याकरण ३०८।१ वसति के प्रकार ३२३,५५६ व्यक्ति समय के प्रकार २१९,४१५।१,४१७ ३३२,३९२ लौकिकग्रन्थ ४९,५४८ स्वर २९८।१,२९९।१,३००।१, ३०१११,३०२।१ ३०३,३०४ लौकिकग्रंथ ४९,५४८ सूत्र (धागा) ४५ मान के प्रकार नक्षत्र ३४११ वनवर्ग ३२४ शास्त्रों के ज्ञाता ३००३ राजपरिकर १९,३६५ विरुद्ध विवद्धि विवागसुय विवा (आ) हप्पण्णत्ति विसाहा विहत्थि वाहन ग्रन्थ नक्षत्र मान के प्रकार स्वर वाद्य रस वीणा वीर वीरण वीरिय बुड्ढसावग वेज्ज बेज्जय ५०,५४९ ३४१०२ ३८८।१,३९१,४००, ४०९ २५० ३०९।१,३१०।१,३१० ५२३ ३२२ २०,२६ ५७३ ५७३ वनस्पति ग्रन्थ परिच्छेद अन्यतीथिक चिकित्सक चिकित्सा सज्जगाम सद्वितंत सण सण्हसहिया सतभिसय सत्तवण्णवण सत्थपारग सत्थवाह Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : १ विशेषनामानुक्रम ४०१ ! सन्नि (ण्णि) बेस वसति के प्रकार सप्प नक्षत्रदेव सभा गृहवर्ग समण अन्यतीर्थिक समय समय के प्रकार ३२३,५५६ ३४२।१ १९,३९२ ३४४ १२६,१२७,१७०,१७१, २११,२१२,२१९,२२०, ३०७।१,४१५-४१७, ४२२,४२४,४३६,४३८, ४४७,४८१,५६७,६१६ ५०,५४९ ३५०,५५७ ३५८१ सामिसंबंध सार सारकंता सारस सारसी साल सालवण सालि सावएज्ज सिंगार सिंघाडक सिणय सिद्धत्थय व्याकरण ३०८।५ धातु और रत्न ६५५,६५९,६८१,६८५ स्वर ३०४।१ प्राणीवर्ग ३००१२ स्वर ३०४१ पारिवारिक सदस्य ३६२ वन ३२४ वनस्पति ३५७ धातु और रत्न ६५५,६५९,६८१,६८५ रस ३०९।१,३११,३११११ पंथ ३९२ नाम वनस्पति व्याकरण ३५८।१ व्याकरण ३६४१५ धातु और रत्न ३८५,६५५,६५९,६८१, समवाय समास समीव समीवनाम समुद्द ग्रन्थ व्याकरण व्याकरण व्याकरण जलाशय सिप्प ३२१,४१०,४२५,४२६, ५४०,५५६,५८६ ३२२ २० सिप्पनाम सिरी सिला समोसरण सम्मज्जण देव ग्रन्थ परिच्छेद कुप्रावनिक आवश्यक गृह उपकरण जलाशय ३९२ ३५४,३९२,५३१,५३५ देव गृह सयण सर सरण सरदय सरपंतिय सरिसव सलागा सवण सविउ सव्वद्धा ससुरय सस्स सस्सामिवायण साउणिय सागडिय सागर सागर सागरोवम सिलोगनाम व्याकरण सिलोय व्याकरण सिव सिवा प्राणीवर्ग सीतल व्यक्ति सीया वाहन सीसपहेलियंग समय के प्रकार सीसपहेलिया समय के प्रकार सीह प्राणीवर्ग सुठ्ठत्तरमायामा स्वर सुद्धगंधारा सुद्धसज्जा स्वर सुपास व्यक्ति सुप्पय नाम सुरा खाद्य सुवण्ण मान के प्रकार सुवण्ण धातु और रत्न नाम जलाशय वनस्पति ४३९,५४० मान के प्रकार ५८६ नक्षत्र ३४११३ नक्षत्रदेव ३४२११ समय के प्रकार पारिवारिक सदस्य ३६२ खाद्य ५३१,५३५ व्याकरण ३०८।२ विविध व्यवसायी ३०२।६ नाम समय के प्रकार ४१५१ जलाशय ७०८/५ समय के प्रकार २१९,४१८,४२३,४२५, ४३०,४३२,४३३,४३७, ४४०,५६९,६१६ नक्षत्र ३४०२ प्राणीवर्ग ग्रन्थ ७२,७४,७५ व्याकरण ३४९,३५०,३५७ स्वर ३५८।१ २० ३२३ २२७ ३९२ २१९,४१७ २१९,४१७ ५२५ ३०६१ ३०६१ ३०४१ २२७ ३४६ २८७१ ३८४ ३८५,५२४,५५७,६५५, ६५९,६८१,६८५ २२७ ३९३,४०६ ३९३,३९४,४०६,४०७ ५०,५४९ १९,२०,२५४ २२७ सुविहि साति व्यक्ति मान के प्रकार मान के प्रकार ग्रन्थ सूईअंगुल सूयगड सामलेर सामाइय सामासिय ग्रह सेज्जंस व्यक्ति Jain Education Intemational Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ४०२ अणुओगदाराई सेट्टि ३०४/१ हरि हरियालिया हरिवस्स हरिवास हल हालिय ५५६ हास स्वर वनस्पति जनपदग्राम जनपदग्राम कृषि उपकरण नाम रस घुमक्कड़ धातु और रत्न समय के प्रकार समय के प्रकार नाम सेढीअंगुल सेणावइ सेतिया सोत्तिय सोम सोमदत्त सोयरिय सोरट्ठय सोलसिया सोवण्णिय सोवीरा हंभी हंस हंसगन्भ हत्थ हत्थ राजपरिकर मान के प्रकार ४११,४१२ राजपरिकर १९,३६५ मान के प्रकार ३७४ शिल्पी नक्षत्रदेव ३४२११ नाम २५२ विविध व्यवसायी ३०२१६ नाम मान के प्रकार ३७६,६१४ मान के प्रकार स्वर ३०५१ लौकिकग्रन्थ ४९,५४८ प्राणीवर्ग ३००१ हिंडग ९३,३२२ ३३२ ३०९।१,३१६,३१६।१ ६०२७ ५५७ २१९,४१७ २१९,४१७ ३३४ हिरण हुहुय हुहुयंग हेमंतय हेमवय हेमवय हेरण्णवय हेरण्णवय नाम ३९९,५५६ सूत्र liulito नक्षत्र मान के प्रकार प्राणीवर्ग हेसिय जनपदग्राम नाम जनपदग्राम बोली कुप्रावचनिक आवश्यक देव ३९९,५५६ ५२२ हत्थि ३४१२ ३८०,४१६ ८९,३५५,५२२,५२५, ६५४,६५६,६५८,६६०, ६८०,६८२,६८४,६८६ २१,६३,६७,५२२ होम २४९ प्राणीवर्ग Jain Education Intemational Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकारंत धन्नं अंगुल विहत्व रखती अं तिय इं तिय उं तिय अक्खरसमं पदसमं अग्गि पयावइ सोमे अज्झष्पस्साणयर्ण अम्भस्स निम्मलत्तं अवतरमिह एसो अभिव मिट्ठा अवणय गेह य एत्तो असुइ-कुणव-दुद्दसण असुलभरियनिग्र अह कुसुमसंभवे काले आइमिउ आरभंता आकारंता माला आकारंतो राया आभरण-वत्थ-गंधे आवस्सय अवस्सकरणिज्जं आवस्सयस्स एसो इङ्गिताकार इच्छा मिच्छा तहक्कारो उत्तरमंदा रयणी उसे निय उर-कंठ-सिर-विद्धं उरग-गिरि-जलण- सागर उवसंपया य काले एए नव कव्वरसा एएसि पल्लाणं कत्तिय रोहिणि मिगसर कम्मे सिप्प सिलोए कि कहहिं कस कहि परिशिष्ट २ पदानुक्रम २६४/६ ३८८११ २६४।३ ३०७१८ ३४२।१ ६३१।१ ५३३।१ ३१२।२ ३४१।३ ३०८/५ ३१५।१ ३१५।२ ३००/२ ३०७/२ २६४।५ २६४|४ ४२२।२,४२४/२,४२९।२,४३११२,४३६।२, ४३९.२ गाहियवाहियतेपाहय ४२२११, ४२४०१, ४२९०१, ४३१०१ ४३६१,४३८११ १८५३ २८१ ७४/२ ५२६।१ २३९।१ ३०५।१ ७१३।१ ३०७/७ ७०८५ २३९/२ ३१८३ ३४१।१ ३५८।१ ७१३२ कि सोश्यकरणी कुरु-मंदर आवासा केसी गायइ महुरं ? कोहे माणे माया गंधारे मीणा गण काय निकाए चउचलणपट्ठाणा घोसे अट्टगुणे जंबुद्दीवाओ खलु जंबुद्दीवे लवणे जत्थ य जं जाणेज्जा जहह अहे वह दीवा दीव जह मम न पिये दुक्खं जस्स सामाणिओ अप्पा दुशणलो जो समो सव्वभूएसु तइया करणम्मि कया तं पुण नामं तिविहं तत्थ पढमा विभत्ती तत्थ परिच्चायम्मि य तत्थ पुरिसस्स अन्ता तिष्णि सहस्सा सत्त य तो समो जह सुमो दंडं धणुं जुगं नालियं च देय बहुवीही धेवयसरमंता उ नंदी य खुड्डिया पूरिमा य नव-देवकुले नत्थि य से कोइ वेसो नवि अत्थि न विय होही नामाणि जाणि काणि वि नामिि नासाए पंचमं ब्रूया ३१४/२ १८५/४ ३०७/१२ ६१७।१ ३०२/३ ७३।१ ३०१/२ ३०७ ४ १८५।२ १८५।१ ७/१ ५६९/३ ६४३।१ ७०८३ ७०८११ २८७ १ ७०८२ ३०८|४ २६४।१ ३०८/३ ३१०।१ २६४२ ४१७/३ ७०८/६ ३८०।१ ३५०।१ ३०२/६ ३०६।१ ३४०।१ ७०८४ ५६९/४ २४७/१ ७१५/५ २९९/२ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ निसे पढमा होइ निद्दोसमण- समाहाणसंभवो निद्दोसं सारवतं नेगेहि माहि नेसायसरमंता उ पंचमसरमंता उ पंचमी य अवायाणे पपुष्पनगाही पज्झाय - किलामिययं परमाणू तसरेणू परिजूरिय पेरतं परियरबंधेण भडं पासुत्त-मसी मंडिय-पडिबुद्ध पिप्पिनबंधवह पुष्णं रत्तं च अलंकियं च पुरवर-कवाड वच्छा भयजणणरूव - सद्दंधकार भिडीया भी दुय मंगी कोरव्वीया हरी य मज्झिमसरमंता उ महरं विलास-लियं माता पुत्तं जहा नट्ठ माणुभ्यानप्यमाणयुता मितो दो निरी रिसभेण उ एसज्ज रूव-वय-समासा वत्थुम्मि हत्थमेज्जं वत्थुओ संकमणं विषयवार गुरुवार विम्हकरी अमो वीरो सिंगारो अम्जो ३०८।१ ३१८।१ ३०७/९ ७१५।१ ३०२७ ३०२।५ ३०८।२ ७१५३ ३१७/२ ३९५।१ ५६९/२ ३२७/२,५२५।१ ३१६।२ ३१७।१ ३०७/६ ५६९।१ ३१३।१ ३१३।२ ३०७१५ ३०४/१ ३०२/४ ३११।२ ५२०११ ३९०११ ३४२।२ ३०२।२ ३१६।१ ३८०१२ ७१५/४ ३१४/१ ३१२/१ ३०९।१ संगहिय-पिडित्यं संतपयपरूवणया संहिता पदं देव सक्कया पायया चेव सज्जं च अग्गजीहाए सज्जं रवइ मयूरो सज्जं रवइ मुयंगो सज्जेण लहइ वित्ति सज्जे रिसभे गंधारे सत्त पाषि से धोये सत्त सरा कओ हवंति सत्त सरा तओ गामा सत्त सरा नाभीओ सत्येन सुति वि सम्भाव- निव्विगारं समं अद्धसमं चेव समणेण सावएण य समयालय-ता सव्वेसि पि नयाणं सामा गाइ महुरं सावज्जजोग विरई सिंगारो नाम रसो सिंगी सिही विसाणी सुदुरमायामा सुय सुप्त गंथ सिद्धत सो नाम महावीरो हट्ठस्स अणवगलस्स त्यो चिता साती हवइ पुण सत्तमी तं हीणा वा अहिया वा होतिष महिपुरिया अणुओगवाराई ७१५,२ १२१।१,१३८।१,१६५।१,२०६।१ ७१४/१ ३०७।११ २९९/१ ३००।१ ३०१।१ ३०२।१ २९८१ ४१७२ ३०७।१ २०७।१४ ३०७/२ ३९८।१ ३१८।२ ३०७।१० २८।२ ४१५।१ ७१५।६ ३०७/१३ ७४|१,६१०११ ३११।१ ३२७।१ ३०६।२ ५१।१ ३१०।२ ४१७।१ ३४१।२ ३०८/६ ३९०/३ ३९०१२ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टि. अंगुल अंगोपांगसहित अंशुक, भीमांक अण्डज अध्ययन अनन्त अनानुपूर्वी अनुगम अनुयोगद्वार ५९६-६०३ अनादिपारिणामिक सादिपारिणामिक २८८ १५० अनेकद्रव्यस्कन्ध अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी और नय अपर्याप्त अधिकार अल्पबहुत्व अल्पबहुत्व नहीं होता अवमान प्रमाण अवयव से होने वाला नाम अव्ययीभाव असंख्यात आख्यातिक आगम आगमतः द्रव्य निक्षेप और नय आगमतः द्रव्यावश्यक आगमतः भाव अक्षीण आत्मगुल यू० ३८९ ४९ ४३ १२१,७१०,७११ ४१ ६१९ - कौटिलीय अर्थशास्त्रोक्त मान -चरकोक्तमान -रोमान ७५ ६९ ११३ २५४ ६२० १७४ १३८ ३८० ३२७ ३५६ ५८७-५९५ २७० २६६ १४ १२ ६४२ ३९० वर्तमान मान वर्तमान मान ३६४ आत्मानुशिष्टकार आनुपूर्वी आनुपूर्वी द्रव्य कौनसे भाव में १७३ आनुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग में २०९ १०१ परिशिष्ट : ३ टिप्पण अनुक्रम पृ० २३४ ५७ ५४ ५४ ३७८ ३३२ १८२ १०७ ९९ ३८१ ७१ ५७ ९७ १७६ ३४६ १३२ १०५ २३४ २११ २१४ ३२९ १७७ १७६ २७ २२ ३७८ २३४ २३६ २३६ २३६ २१६ ९६ १३१ १४७ टि० आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कितने भाग में १७२ २१२ १६७ २०८ आनुपूर्वी द्रव्यों का अन्तरकाल आनुपूर्वी द्रव्यों का परिमाण आनुपूर्वी द्रव्यों की कालावधि १७०; २११ अभिप्रायिक नाम ३४७ आमंत्रण में अष्टमी विभक्ति होती है ३०८ ६४४ २८ ७४ आय आवश्यक के एकार्थक नाम आवश्यक के छह अर्थाधिकार आहारक शरीर उत्कीर्तनानुपूर्वी उत्कृष्टतः असंख्येयकाल उत्सेधांगुल की कारण सामग्री उत्सेधांगुल के प्रयोजन उन्मान प्रमाण उपक्रम उपोद्घातनिर्युक्ति अनुगम व २६ द्वार एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होता है एक राशि एक शेष एकाक्षरिक नाम ओरालिय ( औदारिक शरीर ) औपनिधिक द्रव्यानुपूर्वी औपम्य काल औपसर्गिक कनकसप्तति कापिल कालानुपूर्वी कुलनाम कृमिराग कौटिलीय अर्थशास्त्र ཡཱཿ॰ ४५९ २२६ १७१ ३९५ ४०१, ४०२ ३७८ ७६-९९ ७१३ १२७ १४० ३५७ २४९ ४५७ १४७ ४१८-४४० २७० ४९ ४९ १९६ ३४३ ४३ ४९ पृ• १३० १४८ १२८; १४७ १२९; १४८ २१३ २०७ ३७९ ३८ ६९ २८३ १४९ १२९ २४० २४१ २३३ ७२ ३८१ १०२ १०६ २१४ १७६ २८२ १०६ २८० १७७ ५६ ५६ १४७ २१२ ५५ ५६ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ y ३७९ २८५ अणुओगदाराई १४५ १०६ २८३ ४६० ० 5.0.or o a २८६ ११५ १६८ २८६ तीसरे भाग में तेजस शरीर त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वियां त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी देशोन लोक में दो भावों का विकल्प द्रव्य अक्षीण द्रव्य प्रमाण द्रव्यानुपूर्वी द्रव्यानुपूर्वी के भेद द्रव्यावश्यक ६४० ३७०-३७२ १०५ २८५ ४८२ १११ २८५ २१२ १२ ३५१ १५५ २३० १२८ १४९ ३१२ २४०; २४४ mr 9 monorror rap mmmmmm " orrrrox ur orm»uruno Marmy ४९ ५६ क्षपणा क्षेत्र की दृष्टि से....असंख्यातवां भाग ४८७ क्षेत्र की दृष्टि से ...दो सौ छप्पन अंगुलवर्ग रूप प्रतिभाग जितनी होती है ४९९ क्षेत्र की दृष्टि से....प्रमाण जितनी श्रेणियां हैं ५०३ क्षेत्र की दृष्टि से वे अंगुलप्रतर या आवलिका के असंख्यात भाग रूप प्रतिभाग जितने होते हैं ४८२ क्षेत्र की दृष्टि से....श्रेणियों के असंख्येय वर्गमूल जितनी होती है क्षेत्र के संयोग से होने वाला नाम ३३३ क्षेत्रानुपूर्वी गण गणनाम ३४५ घनअंगुल ३९३,४११ घोटमुख चार ज्ञान (प्रतिपादन में अक्षम होने के कारण) स्थाप्य (असंव्यवहार्य) हैं अतएव स्थापनीय हैं चारित्रगुण प्रमाण चूहे के रोमों का सूत जघन्यत: एक समय जघन्य पद में छियानवे बार छिन्न हो सके उतने होते हैं ४९० जिसकी आत्मा समानीत है ७०८ जीवनहेतु नाम जैसे तुम हो वैसे ही हम थे ५६४ ज्ञान के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं ज्ञानगुण प्रमाण -प्रत्यक्ष प्रमाण --अनुमान प्रमाण ---उपमान प्रमाण --आगम प्रमाण तगरातट ३६३ तत्पुरुष ३५५ तद्धितज तद्व्यतिरिक्त द्रव्य शंख —एकभविक ----बद्धायुष्क ---अभिमुखनाम गोत्र तरंगवतीकार ३२० १२९ २८५ . . ३८० 9 २१३ . M ३२६ द्विगु ३५४ द्विनाम २४८ द्विप्रदेशिक अवक्तव्य नक्षत्र से होने वाला नाम ३४०,३४१ नय ५५४-५५७ -प्रदेश दृष्टान्त -प्रस्थक दृष्टान्त -वसति दृष्टान्त नयों के संदर्भ में वक्तव्यता नाटक नाना द्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सर्व लोक में होते हैं नाम २४६,२४७ नाम और स्थापना में अन्तर नामकरण के आधार नाम से होने वाला नाम नामावश्यक नामिक २७० निक्षेप ५,६१८ निक्षेप नियुक्ति अनुगम निश्चित रूप से सादि पारिणामिक १२९ नैगम व्यवहार आनुपूर्वी का अन्तर नंगम व्यवहार आनुपूर्वी का काल १२६ नैगम व्यवहार का भङ्गसमुत्कीर्तन नंगम व्यवहार द्रव्यानुपूर्वी का अल्पबहुत्व १३० नैगम व्यवहार द्रव्यानुपूर्वी का भाग १२८ नंगम व्यवहार नय सम्मत अनोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी ० m our २११ UU MY ~ ~ ~ ~ ~ mmmmmmmmmmmmmmmm ~ ~ ~ ~ . . ३१५ ३१७ ३१७ ३१८ १७७ १५, ३७८ ३८१ " ० Mr mvMov ० ० ३५८ ० ५६८ २१४ ३२५ ३२५ . . ३२६ m . . ३२६ २१५ ११४ Jain Education Intemational Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ३-टिप्पण : अनुक्रम ४०७ २१६ १७७ २३२ २८४ ६३१ ७०८ ३४५ ४९५ २८६ » २४१ ३२६ १७६ الله ३६३ नैगम व्यवहार नय सम्मत आनुपूर्वी का द्रव्यप्रमाण १२३ नेपातिक नैरयिकों के वैक्रिय शरीर का प्रमाण ४६३ नोआगमतः द्रव्यावश्यक १५-२१ नोआगमत: भाव अक्षीण व दीप का दृष्टान्त ६४३ नोआगमत: भाव अध्ययन नोआगमत: भाव सामायिक नोआगमत: भाव स्कन्ध ७२ नोगौण ३२१ पट्टसूत्र परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी ११५ परमाणु सूक्ष्म व व्यवहारिक ३९६-३९८ परिमाण संख्या ५७०-५७२ पर्याप्त पाषण्ड नाम ३४४ पुद्गलपरिवर्त पुराण पुर्वानुपूर्वी १४८ प्रकृतिभाव २६८ प्रतर अंगुल ३९३,४११ प्रतिपक्ष पद से होने वाला नाम प्रधानता से होने वाला नाम प्रमाण प्रमाणांगुल ४००,४११ प्रमाणांगुल के प्रयोजन प्रस्तुत प्रस्थापना की दृष्टि से आवश्यक श्रुत का....अनुयोग प्रवृत्त है बहत्तरकलाएं बहुव्रीहि बुद्धवचन २५४ २१२ rrr xxxv Xxurur १०७ १७७ मलयवतिकार ३६४ माढर मानप्रमाण ३७३-३७७ ----धान्यमान प्रमाण -रसमान प्रमाण मिश्र २७० मिश्र के संयोग से होने वाला नाम ३३२ मिश्रित बालों से बना सूत ४४ मृगरोम का सूत ४४ योजन ३९२ लोकोतर भावश्रुत में निर्दिष्ट ग्रन्थ ५० वक्तव्यता ६०५-६०८ वानमन्तर देवों के वैक्रिय शरीर का प्रमाण वेन्नातट वैदिश ३६३ वैशिक वैशेषिक व्याकरण शरीर ४४६ श्रमण व उपमाएं ७०८ -उरग सम, गिरि सम, ज्वलन सम, सागर सम, नभस्तल सम, तरुगण सम, भ्रमर सम, मृग सम, धरणि सम, जलरुह सम, रवि सम, पवन सम श्रेणी अंगुल ४११ षष्टितन्त्र संख्या ५५८,५७४ संख्याकाल ४१७ संख्यात ५७५-५८६ संग्रहनय की अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी १३१-१३७ संमूच्छिम संयूथ नाम ३६४ संस्थान २३४,२३५ समय २१९,४१६ समवतार ६११-६१४ सम्पूर्ण लोक में हो सकता है सात नय ७१५ -ज्ञाननय -क्रियानय सामाचारी २३८-२४१ २४०,२४४ २१० ०. २११ २३२ २४४ ४१० २४२, २४४ २४३ ३२५, ३२७ २७७ ३२८ २१३ २५४ - १०५ १७६ २१५ १४९ २४३, २७१-२८७ ३४९, ५०६ बोण्डज भंभी और आसुरोक्त भाव भावप्रमाण भावसमवतार भावावश्यक भावोपक्रम (शास्त्रीय) मति १५०,१७७ २१३,३१५ ३५१ १४९, २७७ ३४६ १०१ ३८४ १२४ मलय १५० Jain Education Intemational Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ अणुओगदाराई ३५० २१३ सामासिक सूची अंगुल सूत्र सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप ३९३ ४०,७१४ २४० ५४,३८४ ३८१ स्कन्ध के एकार्थक नाम स्थापनावश्यक स्पर्शना करते हैं स्वर प्रकरण १०२ १२५ २९८-३०७ २०७ Jain Education Intemational Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ४ शब्दविमर्श : शब्दानुक्रम १४९ ३२७ २३८ २८० आन अपान आपण आयाम आराम आवलिका इन्द्र कार्तिकेय...."कोट्टक्रिया २४४ २३८ ३२६ १७९ २३८ २८० ३२७ २४४ १८० १८. १७९ १५,३२७ १५ २७ अंग अकेवली अक्ष या कौडी अक्षर अजीवोदयनिष्पन्न अट्टालक अद्धापल्योपम अध्ययन अध्यवसाय अनावरण अनुज्ञा अनुप्रेक्षा अनुयोग अनुयोगद्वार अन्तर अप्रदेशार्थता अप्रशस्त भावोपक्रम अमत्र अमीलित अमोघा अर्थाधिकार अर्थोपयोग अद्धभार अर्पितकरण अर्हत अल्पबहुत्व अवट अविरुद्ध अवेदन अव्यत्यानेडित असिद्ध असवलित आत्मागम, अनन्तरागम, परम्परागम उंदुरुक्क उच्चत्व उत्पन्नज्ञानदर्शनधर उदयनिष्पन्न उद्देश उद्धारपल्योपम उद्यान उव्वेह ऊरु एकग्रहणगृहीत औपनिधिकी कड़छी कण्ठोष्ठविप्रमुक्त कपिहसित ३२७ १०० १०५ २३९ 000000 ०००RGGG27. १८२ ३४६ कल्प ३७ २३५ काण्ड कानन काल काष्ठाकृति कुप्रावनिक १८० कुशल २७७ २३७ ३४ १८१ २५ १८० २५ ३१९ ० कृत्स्न केवली कौटुम्बिक क्षायोपशमिक आचारधर क्षायोपशमिक गणि ० ० 10. Jain Education Intemational Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० क्षीण क्षीण वेदन क्षीणावरण क्षेत्र क्षेत्रपल्योप खातिका गच्छ गणनाम गणिका गाथा गिल्लि गुञ्जालिका गुरुवाचनोपगत चकर गृहधर्मी गोपुर गोव्रती गोतम घोषसम कर लिया चतुर्मुख चतुष्क चत्वर चरक चरिका चर्मखण्डिक चर्मे टक चित कर लिया चित्त चित्राकृति चीरिक छद्मस्थ छेक जय जवण जिन जीवोदय निष्पन्न जोड़कर जोणिजम्मणनिक्खते टंक तडाग तदुभयागम २८१ १८१ १८१ १०० ३८० २३८ ११४ २१२ ७३ ३२७ ३३९ २३७ २७ २० ३४ २३८ ३४ ३४ २३ २३९ २३९ २३९ ३३ २३८ ३३ २७७ २२ ३७ १९ ३३ १८० २७७ ३७ २७७ १८० १७९ २० २९ २४४ २३७ ३१९ तलवर तीव्राध्यवसान तूणवादक, तम्बूरावादक तोरण त्रिक थिल्लि दक्ष दीर्घिका देवकुल देवपूजा, अंजलि द्रव्यप्रमाण डिरूपम्यून द्रोणिक पुरुष धर्मचिन्तक धूमिका नरक प्रस्तट नामसम कर लिया नालिका निपुण निपुण शिल्पोपगत निरवशेष निरावरण निर्घात निर्मुक्ति निर्लेप निवेदन निषीधिकागत निष्ठित नीरजस् पटशाटिका पट्टाटिका पथ पद परस्पर गुणाकार परिकर्म परिखा परिध परिचित कर लिया परिधि पर्यव पल्य पत्योपम सूक्ष्म व व्यावहारिक अणुओगवाराई ३० ३७ ७२ २४४ २३९ २३९ २७७ २३७ २३८ ३६ १०० ११४ २३५ ३४ १८१ २४४ २३ ७३ २७७ २७७ ३२५ १८१ १८१ ३२७ २८१ १८१ २९ २८१ २८१ २७७ २७७ २३९ ३२७ ११४ ७२ २३८ २७७ २३ २४४ ३२६ २०१ २८० Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ४-शब्दविमर्श: शब्दानुक्रम ४११ २४३ ३२७ यथापाण्डुर युगवान् युग्य २३७ mum २४३ २७७ २६,३२५ २६ ३१७ १८० ७४ १७७ २३९ २४४ له २३९ पाताल पाद पुरानी शराब, पुराना गुड पुष्करिणी पुस्तकम पृथ्वी पृष्ठयन्तर प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्ण घोषयुक्त प्रत्यक्ष प्रमाण प्रयोगपरिणामित द्रव्य प्रशस्त भावोपक्रम प्राकार प्राग्भार प्राप्तार्थ प्राभूत प्राभूतप्राभृतिका प्राभृतिका प्राय:वैधर्म्य प्रासाद प्लवन फुल्लुप्पल-कमल-कोमलुम्मिलियम्मि बालाग्र बाहुलेय बिलपंक्तिका ब्राह्मणी भरकर भवन भवनप्रस्तट २७७ له २३९ ل ل ३२७ ३२७ ل २३८ кл л л ل ل २७७ ३२ २४४ २४४ m यूपक राजा, युवराज लंघन लक्षण लयन लेप्याकृति लेश्या लोकोत्तरिक भावावश्यक लोप लौकिक भावावश्यक लोहकटाह लोही वक्षस्कार वन वनराजि वनषण्ड वर्ष वर्षधर पर्वत वस्तु वस्तु विनाश वापी विजय विपर्यस्त अक्षर न होना विमान विरुद्ध विष्कम्भ वृद्धश्रावक वेला वेष्टक वेष्टितकर व्यंजन व्यपगत च्युत च्यावित त्यक्त देह शय्यागत शरण शाबलेय शिखरी शिला शिविका २० २४४ ३४ भाग २४ भाण्ड २३९ Nm MUsm o Mr or ".orm, r""omorrrrom Mm " ० ० . 9/rum ३४ भाव भावनाभावित भिक्षाजीवी २४४ ३२७ r . मन or महापथ महिका माडम्बिक मित कर लिया मुखधावन आदि मेधावी यक्षादीप्त २७७ ३७९ १८१ २३९ Jain Education Intemational Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ अणुओगदाराई शृंगाटक २३९ शैल शैव २४४ rom m rror or ३२७ २३६,३७९ ३२७ ३२६ ३७९ सरपंक्तिका सरसरपंक्तिका सर्ववैधर्म्य सर्वसाधर्म्य सार सार्थवाह सिद्धशिलातलगत सीखलिया सुविमलाए सेनापति स्तूप स्थिर कर लिया स्पर्शना स्यन्दमानिका स्वर स्वापतेय हीनाक्षर और अत्यक्षर दोष रहित होना श्रुतस्कन्ध श्रेणी श्रेष्ठी श्लोक संघात संत संसारस्थ सत्त्व सत्पदप्ररूपणा सभा अथवा प्रपा समागम समिति समुदय समुद्देश सम्यग्दर्शन सर १८० २३६ v १०० २३९ २३६ ३७९ १५१ होम २३७ Jain Education Intemational Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. तलवर सूत्र शब्द ६. णं यावचालंकार में प्रयुक्त अव्यय - णमिति वाक्यालंकारे देसीवयणतो वा ( चू. पृ. ५) । ८. से अथ अत्र 'से' शब्दो मागधदेशी प्रसिद्धः अथ शब्दार्थे वर्त्तते (हावृ. पृ. ९) । १६. जाधव गुरु के पास ग्रहण करना गुरुसमीवातो आगमितं आपवितं ( पू. पू. १०) - 1 आपात सामान्यविशेषरूपेण अन्ये तु व्याचक्षते ' आघवियं' ति प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच्च गुरोः सकाशादागृहीतं (हावृ. पृ. १५ मवृ. प. १९) । १७. सेयकाल - भविष्यत् काल मेयाले सिखिस्सति, सत्ति स भव्य आगामिनि काले मनिका ( आगामिनि ) एतेसि चतुण्हं अक्खराणं लोवेणं सेयालेत्ति भणितं (चू. पृ. ११) । 'सेयकाले' त्ति छन्दसत्वादागामिनि काले ( हावू. पृ. ११; मवृ. प. २०) । नगररक्षक, कोतवाल राइणा तुट्ठेण चामीकरपट्टो रयणखइतो सिरसि बद्धो यस्य स तलवरो भण्णति (चू. पृ. ११) । तलवर: परितुष्टनरपतिप्रदत्त पट्टबंधभूषितः (हावृ. पृ १६; मवृ. प. २१) । १९. इन मोहत्थी उपमाकी हिरण्यमुवण्णादिपुंज जस्त अब अधिकतरो वा सो इम्मो (पू. पू. १२) । इभ्य: अर्थवान् स किल यस्य पुञ्जीकृतरत्नराश्यन्तरितो हस्त्यपि नोपलभ्यते इत्येतावतार्थेनेति (हावृ. पृ. १६ मवृ. प. २१) । १९. सेट्ठि –– सेठ - अभिषिच्यमानश्रीवेष्टनकबद्धः सव्ववणियाहिवो सेट्ठी ( चू. पृ. ११) । श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गः पुरज्येष्ठो वणिक् (हावृ. पू. १६; मवृ. प २१) । १९. फुल्ल - प्रफुल्लित फुल्लं - विकशितं (मवृ. प. २१) । 1 १९. कमलु हिरण कमलस्त्वारः पशुविशेष: (हावू. पू. १५) कमलो हरिणविशेषः ( म. प. २१) । १९. हि कंधा फणिह कस्तं मस्तकादी व्यापारयन्ति ( म. प. २१) । १९. हरिपालिया दूब-हरितालिका (म.प. २१) १९. बाग दर्पण - आदर्श तु मुखादि निरीक्षन्ते ( मयु. २१) । परिशिष्ट ५ - देशीशब्द १९. तंबोल --- ताम्बूल ! २०. अज्जा - आर्यादुर्गादेवी का प्रशान्त रूप - दुर्गायाः पूर्वरूपं अत्र कूष्माण्डिवत् तथाठिता अज्जा भन्नति ( चू. पृ. १२) । आर्याप्रशान्तरूपा दुर्गा (हावू. पृ. १७; मवृ. प. २३) । २०. को किरिया कोरिया दुर्गा का अपर नाम दुर्गा व महिषस्वापादनका लाभूतितद्रूपस्थिता कोट्टया भणति ( पू. पू. १२) । कोट्टिक्रिया व महिषाचा (हावु पृ. १७) दुर्गा सँव महिषारुडा, तत् कुट्टनपर कोट्टफिया ( म प. २३) | २०. मिड भिक्षाजीवी भवयं उन्हेंति भिक्षाभोजना इत्पर्य, वृद्धसासणत्या वा सिखंड (पू. पू. १२) भिक्षोण्डा:-- मिला भोजिन युगलमासनस्था इत्यन्ये (हायू पृ १७) भिक्षामेव मुजते न तु स्वपरिगृहीतगोदुग्धादिक से भिण्डा, सुगतशासनत्था इत्यन्ये (मबृ. प. २२) । २०. पंडरंग पंखा सारखा ( भू. पू. १२) पाण्डुरंगा भीता (हावु. पू. १७) पाण्डुराङ्गा–भस्मोद्धूलितगात्रा: (भ. प. २२) । २६. इज्जा - देवपूजा, मां, देवी---इज्जत्ति वज्जा माया मज्जा भणिया देवपूया वा इज्जा तं गायल्या आदिक्रिया उभयस्य करेंति दोवि करा नउलसंठिता तं इट्टदेवताए अंजलि करेंति, अण्णे भणति इज्जा इति माता तीए गन्भस्स णिग्गच्छतो जो करतला आगारो तारिसं देवताए अंजलि करेंति, अहह्वा माउपियं भत्ता देवयमिव मणमाणा अंजलि करेंति सा इज्जंजली देवयाए वा अंजलि इली (भू. पू. १३) पालिर्यागांजलिम्पते स च वागदेवताविषयः Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ अणुओगदाराई मातुर्वाञ्जलिरिज्जाञ्जलिर्मातृनमस्कारविधावितिभावः (हाव. पृ. १९)। अथवा देशीभाषया इज्येति माता तस्या नमस्कारविधौ तद्भक्तः क्रियमाणः करकुड्मलमीलनलक्षणोऽञ्जलिरिज्याञ्जलिः (मवृ. प. २६)। २६. उंदुरुक्क-बैल की तरह रंभाना, मुंह से वृषभ की भांति शब्द करना - देशीवयणतो उंडं मुहं तेण रुक्कंति-सद्दकरणं, तं च वसभढिक्कियाइ (चू. पृ. १३)। उडुरुक्खं (क्कं) ति देशीवचनं वृषभजितकरणाद्यर्थ इति, अन्ये तु व्याचक्षते -- उंदुमुखं तेण रुक्खं (क्क) ति-सद्दकरण तंपि वसभढेक्कियादि चेव घेप्पति (हावृ. पृ. १९)। 'उंदुरुक्क' त्ति देशीवचनं उन्दु-मुखं तेन रुक्कं-वृषभादिशब्दकरणमुन्दुरुक्कं देवतादिपुरतो वृषभादिजितादिकरणमित्यर्थः (मव प. २६)। ४२. बोंडय, फलिह-बोंड न - कपास आदि से उत्पन्न सूत्र-पोण्डात् जातं पोण्डजं, फलिहमादित्ति कर्पासफलादि कारणे कार्योपचारादेवेति भावना (हाव. पृ. २१)। बोंडं वमनीफलं तस्माज्जातं बोण्डजं, फलिही-वमनी तस्या फलमपि फलिहं कर्पासाश्रयं कोशकरूपं, तदिहापि कारणे कार्योपचाराद् बोण्डजं सूत्रमुच्यते इति भावः (मवृ. प. ३१)। ४३. पट्ट-पट्टसूत्र-पदंगकीडा आगच्छंति, तं तं मंसचीडाइयं आमिसं चरंता इतो ततो कीलंतरेसु संचरंता लालं मुयंति एस पट्टो (चू. पृ. १५) । पट्टित्ति-पट्टसूत्रं (हावृ. पृ. २१; मव. प. ३१) । ४४. मियलोमिय-मृगरोम का सूत–मिएहितो लहुतरा मृगाकृतयो बृहत्पिच्छा (चू. पृ. १५; हावृ. पृ. २२; मवृ. प. ३२)। ४४. कुतव-चूहे के रोमों का सूत-कुतवो उडुररोमेसु (चू. पृ. १५; हाय. पृ. २२; मवृ. प. ३२)। ४४. किट्रिस --मिश्रित बालों से बना सूत- उण्णितादीणं अवघाडो किट्टिसमहवा एतेसि दुगादिसंजोगजं किट्टिस, अहवा जे अण्णे साणगा (छगणा) दयो रोमा ते सव्वे किट्टिसं भन्नति (चू. पृ. १५; हावृ. पृ. २२)। ऊर्णादीनां यदुद्धरितं किट्टिसं तनिष्पन्नं सूत्रमपि किट्टिसम्, अथवा एतेषामेवोर्णादीनां द्विकादिसंयोगतो निष्पन्नं सूत्रं किट्टिसं अथवा उक्तशेषाश्वादि लोमनिष्पन्न किट्टिसं (मवृ. प. ३२) । ४९. हमी-भंभी। ५०. चहिय-अभिलषित । ५८. जल्ल-कोड़ी से जूआ खेलने वाला -जल्ला-वरवाखेलकास्तेषां, राजस्तोत्रपाठकानामित्यन्ये (म. प. ४२) । ५८. वेलंबग-विदूषक -'वेलंबगाणं' त्ति विडम्बका-विदूषका नानावेषादिकारिण इत्यर्थः (मवृ. प. ४२)। ८८. लख-बडे बांस पर चढकर खेल करने वाला---'लखाणं' ति ये महावंशाग्रमारोहन्ति ते लङ्काः (मव. प. ४२) । ५५. तूणइल्ल-तूणवादक तूणइल्लाणं ति तूणाभिधानवाद्यविशेषवताम् (मवृ. प. ४२)। ९०. अंबाडग-आम्बेडा । ९२. यासग--बुबुद् के आकार वाला आभूषण-अश्व का आभूषण विशेष-स्थासकादि विभूषिताश्वादिविषयः (हाव. पृ. २८)। स्थासकोश्वाभरणविशेषः (मवृ. प. ४३)। ९२. आयंसग-वृषभ आदि के गले का आभूषण-आदर्शस्तु वृषभादिग्रीवाभरणम् (मवृ. प. ४३) । ९८. डोडिणी-ब्राह्मणी। १६९. नवरं-इसके अतिरिक्त । २१९. तुडियंग, तुड़िय, अडडंग, अडड, अववंग, अवव, हुहुयंग, हुहुय, अत्यनिउरंग, अत्यनिउर, नउयंग, नउय-संख्या विशेष । २६४।६. पीलु-दूध---'पीलु' ति क्षीरं (मवृ. प. १०३) । २७६. ओरालिय-औदारिक -हाड मांस का शरीर -विशिष्टाकारपरिणतं तिर्यङ्मनुष्यदेहरूपमौदारिकं (मवृ. प. १०५)। २८२. पयला - खडे या बैठे हुए जो निद्रा आए ---पयला होइ ठियस्सा (मवृ. प. १०७)। ३८२. पयलापयला-चलते-फिरते जो निद्रा आए - पयलापयला य चंकमओ (मवृ. प. १०७)। २८२. संघयण-अस्थि रचना-कपाटादीनां लोहपट्टादिरिवौदारिकशरीरास्थ्ना परस्परबन्धविशेषनिबन्धनं संहनननाम (मव. प. १०८)। २८२. बोंदि-शरीर-बोन्दिस्तनुः शरीरमिति पर्यायः (म. प. १०८)। २८७. धूमिया -धूमिका, कुहासा-धूमिका-रूक्षप्रविरला धूमाभा (हाव. पृ. ६४; मवृ. प. १११)। २८७. घर-गृह। Jain Education Intemational Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ परिशिष्ट : ५--देशीशब्द ३०७।३. मज्नयार--मध्य में –'मध्यकारे' मध्यमभागे (मव. १. १२०)। जो न विवट्टइ रागे नवि दोसे दोण्ह मज्झयारम्मि । सो होइ उ मज्झत्थो सेसा सव्वे अमज्झत्था विभा. २६९१।। ३०७५. उप्पिच्छ-श्वास युक्त गाना-- उप्पिच्छं- श्वासयुत त्वरितं वा पाठान्तरेण ह्रस्वस्वरं वा भणिय व्वं (चू. पृ. ४६ ; मव. प. १२१)। उत्पित्थं-- श्वासयुतं चरितं वा पाठान्तरेण ह्रस्वस्वरं वा भाणितव्वं (हाव. पृ. ६६)। ३०९. वेलणय-वीडनक- साहित्य प्रसिद्ध रस विशेष—बीडयति-लज्जामुत्पादयतीति लज्जनीयवस्तुदर्शनादिप्रभवो मनोव्यलीक तादिस्वरूपो वीडनक: (मवृ. प. १२४) । ३११।१. विन्बोय-विब्बोक--कामचेष्टा-विब्बोक: देशीपदं अगजविकार्थे (हावृ. पृ. ६९; मवृ. प. १२५)। ३१४।२. वारेज्ज विवाह-वारेज्जो' विवाहः (म. प. १२७)। ३१४१२. बहूपोत्ती-वधू का रक्त-खरंटित वस्त्र-का एसा वधुपुत्ती ? भण्णति-पढमे वासहरे भत्तुणा जोणिभेए कते तच्छोणियेण पोति खरंडिय सुरुदये सयणो से परितुट्ठो पडलकं तं तं पोति घरघरेण गुरुजणपुरतो परिवंदइ देसेति य, णज्जते रुहिरदसणतो अक्खयजोणित्ति (चू. पृ. ४८) । गुरुजनो परिवंदति यद्वधूपोत्ति-वधूनिवसनमिति (हावृ. पृ. ७०; मव. प.१२७)। ३१७११. पब्वाय- म्लानता-प्रम्लाणत्ति निस्तेज: (चू. पृ. ४८)। ३२१. सकुलिया-शकुलिका, चील --कुलिकाभिः सह वर्तमानव प्राकृते सउलियत्ति भण्यते, या तु कुलिकारहितैव पक्षिणी सा कथं सउलियत्ति ? इत्येवमिहापि प्राकृतशैलीमेवाङ्गीकृत्यायथार्थता, संस्कृते तु शकुनिकैब साभिधीयते (मव. प. १२९)। ३२१. माइवाहक-द्वीन्द्रिय जंतुविशेष-मातृवाहकादयो विकलेन्द्रियजीवविशेषाः (मध. प. १३०)। ३२३. आगर-आकर-आकरो-लोहाद्युत्पत्तिस्थानं (म. प. १३०)। खान आदि का समीपवर्ती गांव, मजदूर बस्ती (भ. ११४८-५० का भाष्य) । ३२३. कल्लाल- कलाल। ३२६. उन्नामियय- उन्नामित- उत्क्षिप्त उन्नमित उच्यते (चू. पृ. ४९)। उन्नामित-उत्क्षिप्तः (हाव. पृ. ७२)। उन्नामित _ उत्क्षिप्तः प्रसिद्धि गत इति यावत् (मवृ प. १३१)। ३२७११. सिहि-कुक्कुट, मुर्गा । ३२७१२. महिलिया--महिला। ३३०. ऊरणो-मेष, भेड। ३४२२. आऊ-नक्षत्र देव । ३४४. पंडरग--शिवभक्त संन्यासी । ३४६. कज्जवय-कज्जवक । ३५३. धवल-धवल। ३६०. वेअड-दृतिकार, मणकवहन करने वाला। ३६०. वज्झकार-वर्धकार बाध-चर्म रज्जु बनाने वाला। ३७५. मुत्तोलो -कोठो मुत्तोली-मोट्टा हे वरिसंकडा ईसि मज्झे विसाला (चू. पृ. ५०)। मुत्तोली-मोट्ठा (हाव. पृ.७५) । मुत्तोली-मोट्टा (द्दा) अध उपरि च सङ्कीर्णा मध्ये त्वीष द्विशाला कोष्टिका (मवृ. प. १४०)। ३७५. मुरव-धान्य रखने का पात्र कोट्ठिता मुरवो (चू. पृ. ५०)। मुरवः कुशलः (हावृ. पृ. ७५)। मुरवं गन्च्या उपरि यद्दीयते (मव. प. १४०)।। ३७५. इडर--ढकने का बडा पात्र-सुम्बादिव्यूतं ढञ्चनकादि तदिदूरं (म. प. १४०) । ३७५. अलिब-कुण्डा-आलिन्दक-कुण्डुल्कम् (मवृ. प. १४०) । ३७५. ओचार -बडा कोठा-उपचारि-दीर्घतरधान्यकोष्ठाकारविशेषः (म. प. १४०)। ३७७. वारग-छोटा घड़ा-वारको-घटविशेषः (हाव. पृ. ७५) । ३७७. करोडिया---बडी कुण्डी-करोडागिती विशालमुही जा कुंडी सा करोडी भण्णति (च पृ. ५०)। तत्रातीव विशालमुखा कुण्डिकव करोडिका उच्यते (हाव. पृ. १४१) । Jain Education Intemational Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणुभोगदाराई ३७९. चोयय --सुगन्धित द्रव्य चोयः-अदुलविशेषः (हावृ. पृ. ७६)। चोयओ फलविशेषः (मवृ. प. १४१)। ३८०।२. खाय - खाई का गड्ढा-खानं खातमेव (हावृ. पृ. ७६) । खातं च कूपादि (मवृ. प. १४२) । ३९२. अगड-कूप-- अवट: कूपः (म. प. १४६)। ३९२. खाइया-खाई-- समखाता खाइया (चू. पृ. ५३; हाव. पृ. ७८, मवृ. प. १४६)। ३९२. अट्टालय-परकोटे के ऊपर बने हुए बूर्ज-प्राकारोपरि आश्रयविशेषाः अट्टालकः (मव. प. १४६)। ३९२. चउक्क-चतुष्क -प्रभूतगृहाश्रयश्चतुरस्रो भूभागश्चतुष्कं यथा (द्वा) चतुष्पथ समागमो वा चतुष्क (मव. प. १४६) । ३९२. गिल्लि-दो पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली पालकी, अंबाडी। गिल्लि- हस्तिन उपरि कोल्लरं गिलतीव मानुषं गिली (चू. पृ. ५३; हाव. पृ. ७९; मवृ. प. १४६) । ३९२. थिल्लि-दो घोड़ों या बच्चरों से वाह्य यान-लाडाण जं अडपल्लाणं तं अण्णविसअसु गिल्ली भण्णति (च. पृ. ५३,५४) । लाडाणं जं अणपल्लाणं तं अण्णविसएसु थिल्ली भण्णइ (हावृ. पृ. ७९)। थिल्लित्ति- लाटानां यदडुपल्लाणं रूढं __तदन्यविषएषु थिल्लीत्युच्यते (म. प. १४६) । ३९२. लोही-लोही- लोही मण्डनकादि पचनिका कविल्ली (मवृ. प. १४६) । ३९२. कडुच्छ्य -करछी। ३९५. लिक्खा-लिक्षा-परिमाण विशेष । ३९८. हव्वं— शीघ्र-हव्वं--शीघ्रम् (मवृ. प. १४९)। ४०८. विषखंभ-चौड़ाई। ४१०. टंक-एक दिशा में टूटा हुआ पर्वत--टंका छिन्नटंकानि (हावृ. पृ. ८२; मव. प. १५९) । ४१०. आयाम-लम्बाई। ४१६. पिठंतर-पृष्ठान्तर । ४१६. चम्मेढग-चमड़े से वेष्टित व्यायाम करने का उपकरण । ४१६. पत्त? -प्राप्तार्थ-प्राप्तार्थः-अधिगतकर्मनिष्ठां गतः, प्राज्ञ इत्यन्ये (हावृ.पृ. ८३; म. प. १६३)। ४१६. सयराह-शीघ्र ही-झटिति (मवृ. प. १६२) । ४३६. अप्फन्ना- व्याप्त---अप्फुण्यत्ति व्याप्ता आक्रान्ता इत्यर्थः (चू. पृ. ५९)। 'अप्फुण्ण' त्ति आस्पृष्टा-व्याप्ता आक्रान्ता इति यावत् (मवृ प. १७८)। ४३८. अणप्फुन्ना-अव्याप्त ---अप्फण्णा -स्फुटा आक्रान्ता इति यावद्विपरीतं अणप्फुण्णा (हावृ. पृ.८६)। ४५१. आउ-जल। ४५७. बद्धलया-बद्ध -बद्धं गृहीतमुपात्तमित्यनर्थान्तरं (चू. पृ. ६१; हाव. पृ. ८८)। ४५७. मुक्केल्लया-मुक्त-मुक्तं त्यक्तं क्षिप्तं उज्झितं निरस्तमित्यनर्थातरं (चू, पृ. ६१)। ५२२. ढिकिय - रंभाना। ५२२. गुलगुलाइय-चिंघाड़ना । ५२२. घणघणाइय--झंकार । ५२५. गोम्हिय-कनखजूरा-'गोम्ही' कर्णशृगाली (मवृ. प. १९७)। ५५५. हुत्त-की ओर, अभिमुखः । ६१९. अज्झीण-अध्ययन, विभाग अज्झयणं अज्झीणं आओ झवणा य एगट्ठा (निचू. १ पृ. ५) । ७१४११. चालना-सूत्रार्थ विषयक प्रश्न उपस्थित करना- सुत्तस्स अत्थस्स वा दोसुब्भावणा चालना (च. पृ. ९०)। चोदना चालना (हावृ. पृ. १२३) । सूत्रस्यार्थस्य वा अनुपपत्त्युद्भावनं चालना (म. प. २४४) । Jain Education Intemational Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ६ प्रयुक्त ग्रन्थ सूची प्रन्य नाम ___ संस्करण प्रकाशक वि. ३०३१ लेखक, सम्पादक, अनुवादक, वाचना प्रमुख, प्रवाचक आदि वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल देखें-अंगसुत्ताणि भाग-१ जिनदासगणि महत्तर १. अंगसुत्ताणि भाग-१ (आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ, प्र.स.) २. अंगसुत्ताणि भाग-२ (भगवई) ३. अनुयोगद्वार चूणि जन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) १९२८ ४. अनुयोगद्वार मलधारीय वृत्ति ५. अनुयोगद्वार हारिभद्रीय वृत्ति ६. अभिधान चिन्तामणि (नाममाला) ७. अष्टांग हृदय मलधारीय हेमचन्द्र श्री हरिभद्राचार्य आचार्य हेमचन्द्र सं नेमिचन्द्र शास्त्री वाग्भट्ट १९३९ १९२८ वि. सं. २०२० श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मालवा) श्री केशरबाई ज्ञानमंदिर, पाटण देखें-अनुयोगद्वार चूणि चौखम्भा विद्या भवन, वाराणसी १८९० ८. आगम युग का जैन दर्शन दलसुख भाई मालवणिया ९. आचाराङ्गसूत्रं सूत्रकृताङ्गसूत्रं च सं. मुनि जम्बूविजयजी १९६६ १९७८ जीवानन्द विद्यासागर भट्टाचार्य, कलकत्ता सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलोजिक ट्रस्ट, दिल्ली प्रसाद प्रकाशन, पूना श्री भैरूलाल कन्हैयालाल धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.) १०. आप्टे ११. आवश्यक नियुक्ति बी. एस. आप्टे भद्रबाहु स्वामी १९५७ वि.२०३८ १९९२ १९१७ १२. उत्तरज्झयणाणि भाग-१,२ वा. प्र. आचार्य तुलसी (मूलपाठ, संस्कृत छाया, सं. वि. युवाचार्य महाप्रज्ञ हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण) १३. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, नियुक्ति श्रीमद् शान्त्याचार्य (श्रीउत्तरध्ययनानि) १४. उवंगसुत्ताणि भाग-४, खंड-१ वा. प्र. आचार्य तुलसी (ओवाइयं, रायपसेणइय) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ १५. उवंगसुत्ताणि भाग-४, खण्ड-२ वा. प्र. आचार्य तुलसी (पण्णवणा, जंबुद्दीवपण्णत्ति) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ १६. कर्मग्रन्थ विवे. पं. सुखलाल संघवी सेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड, मुम्बई जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) १९८७ १९८९ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) १९५२ १७. कल्पसूत्र टिप्पनकम् (कल्पसूत्र) १८. कषाय पाहुड १९. काव्यानुशासन आचार्य पृथ्वीचन्द्र सूरि सं. मुनि पुण्यविजयजी सं. पं. महेन्द्रकुमार आदि श्री हेमचन्द्र श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन धार्मिक शिक्षा समिति साराभाई मणिलाल नवाब छीपामावजी नी पोल, अहमदाबाद भारतीय दिगंबर जैन संघ ग्रन्थमाला निर्णय सागर प्रकाशन, बम्बई १९४४ १९३४ Jain Education Intemational Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ अणुओगदाराई प्रकाशक चौखम्भा विद्या भवन, वाराणसी भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन प्रन्थ नाम लेखक, सम्पादक, अनुवादक, संस्करण वाचना प्रमुख, प्रवाचक आदि २०. कौटिलीय अर्थशास्त्र वाचस्पति गैरोला १९९१ २१. गोम्मटसार जीवकाण्ड डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये १९७९ सं. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री २२. जैन आगम साहित्य मां गुजरात डा. भोगीलाल ज. सांडेसरा १९५२ २३. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास बेचरदास दोशी २४. जैन सिद्धांत दीपिका आचार्यश्री तुलसी १९८५ २५. ज्योति टाइम्स अक्टूबर १९७३ २६. ठाणं (मूलपाठ, संस्कृत छाया, वा. प्र. आचार्य तुलसी वि. २०३३ हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण) सं. विवेचक मुनि नथमल २७. तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी श्री सिद्धसेन गणि गुजरात विद्या सभा, अहमदाबाद पार्श्वनाथ विद्याश्रम संस्थान जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) २८. तत्त्वार्थ वार्तिक १९५३ ले. भट्ट अकलंक देव सं. पं. महेन्द्रकुमार जैन सं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री उमास्वाति १९६४ सं. १९८९ २९. तत्त्वार्थ श्लोकवातिक ३०. तत्त्वार्थ सूत्र (सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र) ३१. तिलोयपण्णत्ती ३२. त्रिलोकसार ३३. दशवकालिक चूणि सेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धारक फण्ड, मुम्बई भारतीय ज्ञानपीठ, काशी दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस-४ कल्याण पावन प्रिंटिंग प्रेस, सोलापुर सेठ मणिलाल रेवाशंकर जगजीवन जौहरी, बम्बई-२ भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा श्री महावीरजी, राजस्थान प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद यतिवृषभाचार्य श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ले. अगस्त्यसिंह स्थविर सं. मुनि पुण्यविजयजी जिनदास महत्तर सं. १९८४ सं. २५०१ १९७३ ३४. दशवकालिक चूणि १९३३ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मालवा) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) १९७४ ३५. दसवेआलियं (मूल पाठ, संस्कृत वा. प्र. आचार्य तुलसी छाया अनुवाद तथा टिप्पण) सं. वि. मुनि नथमल ३६. दसरूपकम् धनञ्जय ३७. देशी शब्दकोश वा. प्र. आचार्य तुलसी प्रधान सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ३८. द्रव्यानुयोगतर्कणा श्रीमद् भोज कवि १८७८ १९८८ जीवानंद विद्यासागर भट्टाचार्य, कलकत्ता जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) १९७७ श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् रायचन्द्र आश्रम, अगास (गुजरात) प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली १९७१ १९८७ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) ३९. धर्म प्रकरण ४०. नंदी सुत्तं (चूणि संयुक्त) सं. मुनि पुण्यविजयजी ४१. नय चक्र ले. माइल्लधवल (परिशिष्ट आलाप पद्धति) सं. अनु. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ४२. नवसुत्ताणि भाग-५ (नंदी, वा.प्र. आचार्य तुलसी अणुओगदाराई, निसीहज्झयणं) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ४३. निशीथ सूत्रम् सं. उपाध्याय कवि श्री अमर मुनि (भाष्य व चूणि सहित) मुनिश्री कन्हैयालाल 'कमल' ४४. न्याय कुमुदचन्द्र प्रभाचन्द्राचार्य सं. पं. महेन्द्रकुमार न्यायशास्त्री ४५. न्याय सूत्र गौतम १९८२ सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामण्डी, आगरा १९३८ दिगम्बर ग्रन्थमाला, बम्बई Jain Education Intemational or Private & Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :६-प्रयुक्त ग्रन्थ सूची ४१६ संस्करण प्रकाशक १९७६ १९८० श्री परमश्रुत प्रभावक जनमंडल, बम्बई मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली सं. १९८९ विजयधर्मसुरि ग्रन्थमाला, उज्जैन १९३९ सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदाबाद ग्रन्थ नाम लेखक, सम्पादक, अनुवादक, वाचना प्रमुख, प्रवाचक आदि ४०. न्यायावतार पं. विजयमूर्ति शास्त्राचार्य ४७. पातञ्जल योगदर्शन (भाष्य) रामशंकर भट्टाचार्य ४८ प्रभावकचरित ४९. प्रमाणनय तत्त्वलोकालंकार वादिदेवसुरि सं. हिमांशुविजय ५०. प्रमाणमीमांसा सं.पं. सुखलाल (भाषा टिप्पणानि) ५२. बृहत्कल्पसूत्रम् (स्वोपज्ञनियुक्ति, ले. स्थविर आर्य भद्रबाहु संघदासगणि संकलित भाष्य सं. चतुरविजय पुण्यविजय आदि) ५२. ब्रह्मबिन्दूपनिषद् ५३. भरतनाट्यशास्त्र ५४. भारतीय दर्शन परिचय हरिमोहन झा ५५. मूलाचार आचार्य वट्टकेर ५६. यशस्तिलक का सांस्कृतिक डा० गोकुलचन्द्र जेन अध्ययन ५७. रघुवंशम् कालिदास १९३३ श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगर १९८४ १९६७ पुस्तक भंडार, लहेरिया सराय मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली सोहनलाल जैन धर्म प्रचारक समिति, अमृतसर रामनारायणलाल बेणीमाधव प्रकाशक तथा पुस्तक विक्रेता २, कटरा रोड, इलाहाबाद-२ १९७५ सं. १९९० वी.नि.सं. २४८९ ५८. रत्नकरण्डकश्रावकाचार समन्तभद्र ५९. लोकप्रकाश श्री विनयविजयगणी ६० विशेषावश्यक भाष्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण वृत्ति : श्री मलधारि हेमचन्द्र ६१. विश्वप्रहेलिका ले. मुनि महेन्द्रकुमार ६२. वैदिक साहित्य और संस्कृति बलदेव उपाध्याय ६३. व्यवहार सूत्र (भाष्य एवं सं. मुनि माणेक मलयगिरि विरचित वृत्ति सहित) ६४. शार्ङ्गधर-संहिता शार्ङ्गधराचार्य विरचित ६५. षट्खंडागम ले. श्री वीरसेनाचार्य सं. डा० हीरालाल जैन ६६. सन्मति प्रकरण सिद्धसेन दिवाकर श्री जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, अहमदाबाद दिव्य दर्शन कार्यालय, कालुशी नी पोल, कालुपुर रोड, अहमदाबाद जवेरी प्रकाशन, माटुंगा, बम्बई शारदा संस्थान, वाराणसी केशवलाल भाई प्रेमचन्द, अहमदाबाद १९८० १९२६ १९८४ १९७३ श्री बैद्यनाथ आयुर्वेद भवन लिमिटेड जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर ६७. समयसार कुन्दकुन्दाचार्य ज्ञानोदय ट्रस्ट, अनेकान्त विहार, अहमदाबाद वी.नि.सं. श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, २४९८ सोनगढ़ (सौराष्ट्र) जि० भावनगर १९७१ भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली ६८. सर्वार्थसिद्धि आ. पूज्यपाद सं. पं फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री श्री जिनदासगणिवर्य ६९. सूत्रकृतांग चूणि १९४१ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मालवा) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) १९८४ ७० सूयगडो (मूलपाठ, संस्कृत छाया, वा. प्र. आचार्य तुलसी हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण) सं. वि. युवाचार्य महाप्रज्ञ ७१. सौन्दरनन्द अश्वघोषकृत अनुवाद सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली Jain Education Intemational Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-७ जोड़ : पद्यात्मक व्याख्या -श्रीमज्जयाचार्य दूहा १. अर्हन् सिद्ध साधू नमू, भिक्षू भारीमाल । रायऋषी प्रणमी रचूं, वारू वचन विशाल ।। २. उत्तराज्झयण अज्झयण वर, अष्टवीसमे आम । सुद्ध समक्त्व तणी सही, दश रुचि दाखी स्वाम ।। ३. कुदृष्टि पाखंड नहिं ग्रह्या, निपुण शास्त्र में नाय । ते संक्षेप रुची कही, संक्षेप श्रद्धा पाय ।। ४. द्रव्य तणां सहु भाव जिण, सर्व प्रमाण करेह । सहु नय विधि करि ओलख्या, ते रुचि विस्तार कहेह ।। ५. अनुयोग द्वार सिद्धांत में, कह्या निक्षेपा च्यार । वर्णन सप्त सुनय तणों, आख्यो बहु अधिकार ।। ६. अनघ अथग जे अर्थ तसुं, बुद्धिवंत जाणेह । वारूं न्याय विचार वर, समदृष्टी सद्दहेह ।। ७. ते अनुयोगज द्वार नां, अर्थ अधिक विस्तार । पिण संक्षेप करी इहां, कहिये छै धर प्यार ।। ढाल:१ (लय : सोही सयाणा ! अवसर साध) १.ज्ञान पंच विध आख्या स्वाम, आभिनिबोधिक श्रुत सुखधाम । अवधि अने मनपर्यवज्ञान, केवलज्ञान पंचमों जान ।। श्री जिनवाण सुधारस सारी, सांभलतां अति आनंदकारी ॥ध्रपद। २. तिहां श्रुत बरजी चिहं ज्ञान प्रयोग्य, ए स्थापी म्हेलवा स्थापण जोग्य । ते उद्देशीय समुद्देशिय नाही, अणुजाणीय पिण नहि छै क्यांही ।।श्री.।। १. नाणं पंचविहं पण्णत्तं तं जहा-आभिणिबोहियनाणं सुयनाणं ओहिनाणं मणपज्जवनाणं केवलनाणं । (सू. १) २. तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाइं ठवणिज्जाइं-नो उद्दिस्संति, नो समुद्दिस्संति, नो अणुण्णविज्जति, सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ। सोरठा ३. श्रुत वरजी सुप्रयोग्य, वर च्यारूं ही ज्ञान ते । स्थापी म्हेलवा योग्य, इतलै असंव्यवहारीक ए।। ३. तत्र तस्मिन् ज्ञानपञ्चके आभिनिबोधिकावधि मनःपर्यायकेवलाख्यानि चत्वारि ज्ञानानि 'ठप्पाई' ति स्थाप्यानि-असंव्यवहार्याणि। (व. प. ३) ४. व्यवहारनयो हि यदेव लोकस्योपकारे वर्तते तदेव संव्यवहार्य मन्यते। (व.प. ३) ४. नय व्यवहार कहेह, जेह वस्तु सहु लोक नैं। उपगारे वह, ते संव्यवहारिक मानिये ।। Jain Education Intemational Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ ५६. लोकस्य च हेयोपादेयेष्वर्थेषु निवृत्तिप्रवृत्तिद्वारेण प्राय: श्रुतमेव साक्षादत्यन्तोपकारि। (व. प. ३) ७. यद्यपि के वलादिदृष्टमर्थं श्रुतमभिधत्तं तथापि गौणवृत्त्या तानि लोकोपकारीणीति भावः । (वृ. प ३) परिशिष्ट : ७-जोड़ : पद्यात्मक व्याख्या ५. हेय अनैं उपादेय, अर्थ विषे जे लोक नै । निवृत्ति तजिवू जेह, आदरवं ते प्रवृत्ति ।। ६. ए बिहुं द्वार करेह, बहुलपणे श्रुतज्ञान हिज । छै साक्षातज एह, अत्यंत उपगारी प्रवर ।। ७. यद्यपि केवल आदि, दीलूं अर्थ श्रुत ज्ञान कहै । तथापि ते श्रुत वादि', गौणवृत्त्या उपगारि हवै ।। ८. मुख्य वृत्ति करि जोय, उपगारी श्रतज्ञान छै। __इण न्याये अवलोय, संव्यवहारिक एह श्रुत ।। ९. अथ जे च्यारूं ज्ञान, असंव्यवहारिक तेह भणी। तथाविध पहिछान, उपकार तणां अभाव थी।। १०. असंव्यवहारिक थीज, इमज रहो तिण ज्ञान करि । प्रयोजन इहां नहींज, उद्देशादिक नैं अवसरे ।। ११. वा ठप्पाइं जोय, बोलण असमर्थ ज्ञान चिहं । निज निज स्वरूप सोय, ते पिण कही सकै नहिं ।। १२. केवलादि चिहुं ज्ञान, शब्द बिना आपापणो। स्वरूप पिण पहिछाण, बोली न सकै छै तिके ।। १३. अनै शब्द सुविचार, कारण छै श्रुतज्ञान न । स्व पर स्वरूप सार, कहिवा समर्थ तेह छै ।। १४. ते माटै चिहुं नाण, अमुखर असमर्थ बोलवा । ठवणिज्जाई माण, निःप्रयोजन तसुं अधिकार नहिं ।। ९.१०. यधुक्तन्यायेनासंव्यवहार्याणि तानि ततः किमित्याह---"""तथाविधोपकाराभावतोऽसंव्यवहार्यत्वात्तिष्ठन्तु, न तैरिहोद्देशसमुद्देशाद्यवसरेऽधिकार इत्यर्थः। (बृ. प. ३) ११. अथवा स्थाप्यानि अमुखराणि स्वस्वरूपप्रतिपादनेऽप्यसमर्थानि । (वृ. प. ३) १२. न हि शब्दमन्तरेण स्वस्वरूपमपि केवलादीनि प्रतिपादयितुं समर्थानि । (वृ. प. ३) १३. शब्दश्चानन्तरमेव श्रुतत्वेनोक्त इति स्वपरस्वरूप प्रतिपादने श्रुतमेव समर्थम् । (बृ. प. ३) १४. स्वरूपकथनं चेदमत: स्थाप्यानि, अमुख राणि यानि चत्वारि ज्ञानानि तानीहानुयोगद्वारविचारप्रक्रमे किमित्याह - अनुपयोगित्वात् स्थापनीयानि, अनधिकृतानि । १५. यौव हय द्देशसमुद्देशानुज्ञादयः क्रियन्ते तत्रैवानुयोग: तद्वाराणि चोपक्रमादीनि प्रवर्तन्ते । (व. प. ३) १६,१७ एवंभूतं त्वाचारादि श्रुतज्ञानमेव इत्यत उद्देशाद्य विषयत्वादनुपयो गीनि शेषज्ञानानि। (व. प. ३) १८. इत्यतोऽत्रानधि कृतानि । १५. ते भणी उद्देश समुद्देश, अनुज्ञादिक कहिई जिहां । तिहां अनुयोग विशेष, वलि तसुं द्वारज प्रवत्र्ते ।। १६. एहवो धुर अंगादि, तेह प्रवर श्रुतज्ञान छ । तेहनां हीज संवादि, कहिवा उद्देशादि जे ।। १७. बीजा जे चिउं ज्ञान, जे उद्देशादी विषय । रहितपणां थी जान, निक्षेपा स्थाप्या अछै ।। १८. जे चिहुं ज्ञान उदार, तसुं अनुयोग विषे इहां । नहिं छै को अधिकार, तिणसू स्थापण योग्य ए।। १९. करै प्रेरणा कोय, अनुयोग ते व्याख्यान छ । ज्ञान चिहं अवलोय, तेहने पिण ए प्रवः ।। २०. इहां तेह चिहुं ज्ञान, स्थापण योग्यज किम कह्या ? इम पूछचं पहिछान, उत्तर कहियै छ तसं ।। २१. जेह भणी इहां वाय, कहिणहार चिहुं ज्ञान नों। ___ कहै सूत्र समुदाय, सूत्रपणे जे परिणमे ।। १९,२०. अत्राह-अनुयोगो व्याख्यानं, तच्च शेषज्ञानचतुष्टयस्यापि प्रवर्तत एवेति कथमनुपयोगित्वं ? (वृ. प. ३) २२. कहिये ते श्रुतज्ञान, ते माटै श्रुतज्ञान नैं। वर अनुयोग व्याख्यान, प्रवत्त इण न्याय करि ।। २३. तथा ठप्पाइं हेव, एह पाठ नों अर्थ इम । गुरु बिना स्वयमेव, आवै छै चिहुं ज्ञान ते ।। १. केवलज्ञान आदि २१. ननु समयचर्यान भिज्ञतासूच कमेवेदं वचो, यतो हन्त तत्रापि तद्ज्ञानप्रतिपादकसूत्रसंदर्भ एव व्याख्यायते । (व. प. ३) २२. स च श्रुतमेवेति श्रुतस्यवानुयोगप्रवृत्तिरिति ।। (वृ. प. ३) २३,२४. अथवा स्थाप्यानि गुर्वनधीनत्वेनोद्देशाद्यविषय भूतानि, एतदेव विवृणोति स्थापनीयानीति, एकाथों द्वावपि । (वृ. प. ३) Jain Education Intemational Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ अणुओगदाराई २५. इदमुक्तं भवति, अनेकार्थत्वादतिगम्भीरत्वाद्विविध___ मन्त्राद्यतिशयसम्पन्नत्वाच्च । (वृ. प ३) २६,२७. प्रायो गुरूपदेशापेक्ष श्रुतज्ञानं, तच्च गुरोरन्तिके परमकल्याणकोशत्वादुद्देशादिविधिना गृह्यते। (वृ. प. ३) गृह्यमाणं २४. तिण सं उद्देशादि, विषय रहित चिहं ज्ञान छ । ठवणिज्जाई वादि, ए बिहुं शब्द एकार्थ छै ।। २५. इतलै इम आख्यात, जे अनेकार्थपणां थकी। ___अति गंभीरपणात, बहु मंत्रादि अतिशय सम्पन्न थी ।। २६. गुरु उपदेश सहीत, बहुलपणे श्रुतज्ञान छ । गुरु पे ग्रह्यां पुनीत, परम कल्याण भंडार है ।। २७. ते माटै अवधार, उद्देशादिक विधि करी। गुरू समीप उदार, ग्रहिवा रूडी रीत सूं ।। २८. इण कारण तसुं जान, उद्देशादिक प्रवत्त । ___अने शेष चिहुं ज्ञान, तदावर्ण क्षय क्षयोपशमे ।। २९. ऊपजता स्वयमेव, उद्देशादि वांछै नहीं। तिणसू एम कहेव, तास उद्देशादिक नथी ।। २८. इति तस्योद्देशादयः प्रवर्तन्ते, शेषाणि तु चत्वारि ज्ञानानि तदाबरणकर्मक्षयक्षयोपणमाभ्याम् । २९. स्वत एव जायमानानि नोद्देशादिप्रक्रममपेक्षन्ते । यतश्चैवमत आह–'नो उद्दिसिज्जती' त्यादि नो उद्दिश्यन्ते नो समुद्दिश्यन्ते नो अनुज्ञायन्ते, (वृ. प. ३) (लय : सोही सयाणा) ३०. जे श्रुतज्ञान में वर उद्देश, समुद्देश अनुज्ञा सुविशेष । वलि अनुयोग प्रवः तास, हिव चिहुं पद नो अर्थ विमास ।। ३१. एह अध्ययनादिक भणिवू तोय, एहवं गुरु नुं वचन सुजोय । तेह उद्देशक कहीजै सार, हिव समुद्देश तणुं अर्थ धार ।। ३२. तेहिज अध्ययनादिक भण्ये शीष गुरु ने आय निवेदै जगीस। गुरु कहै तूं स्थिर परिचित कीजै, ए गुरु बच समुद्देश कहीजै ।। ३३.तिम करि वलि गुरु ने निवेदेह, गुरु कहे सम्यक् धारो एह । वलि भणावो अन्य प्रतेह, ए गुरु वचन अनुज्ञा कहेह ।। ३४. जे अनुयोग तिको व्याख्यान, कहिवू ते विधि सेती जान । ए च्यारूं श्रुतज्ञान नैं होय, वलि शिष्य पूछ प्रश्न सुजोय ।। ३५. जो श्रुतज्ञान में वर उद्देश, समुद्देश अनुज्ञा सुविशेष । वलि अनुयोग व्याख्यान विमास, तेह प्रवत्तै छै गुण रास ।। ३६. तो स्यूं अंगप्रविष्ट सिद्धत, द्वादश अंग नै उद्देश कहत । समुद्देश अनुज्ञा अनुयोग, एह प्रवत् छै सुप्रयोग ?।। ३०. जइ सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ । ३१. तत्र इदमध्ययनादि त्वया पठितव्यमिति गुरुवचनविशेष उद्देशः । (वृ. प. ३) ३२. तस्मिन्नेव शिष्येण अहीनादिलक्षणोपेतेऽधीते गुरो निवेदिते स्थिरपरिचितं कुर्विदमिति गुरुवचनविशेष एव समुद्देशः । ३३. तथा कृत्वा गुरोनिवेदिते सम्यगिदं धारयान्यांश्चा ध्यापयेति तद्ववचनविशेष एवानुज्ञा। (वृ. प. ३) ३४. 'सुयणाणस्से' त्यादि श्रुतज्ञानस्योद्देशः समुद्देशोऽनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते। (वृ. प. ३) ३५. जइ सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, ३६ कि अंगपविट्ठस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ? तत्राङ्गेषु प्रविष्टम् -- अन्तर्गतमङ्गप्रविष्टं श्रुतम् - आचारादि, (वृ.प ५) ३७. अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ! तबाह्यं तु उत्तराध्ययनादि, (व. प. ५) ३८. अंगपविट्ठस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, अंगबाहिरस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ। ३९. इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसी अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ । वा.-अत्राङ्गबाह्यस्येति सामान्योक्ती सत्यां संशयानो विनेय आह - ३७. के अंग बाहिर उत्तराध्ययनादि, ते श्रत नै उद्देश संवादि । समुद्देश अनुज्ञा सुविमास, वलि अनुयोग प्रवर्ते तास ।। ३८. गुरु कहै अंग प्रविष्ट नै धार, उद्देशादि प्रवत्र्तं सार । अंगबाहिर नै पिण अवलोय, उद्देशादि प्रवः सोय ।। ३९. ए पुण प्रस्थापन आश्रित्त, अंगप्रविष्ट नं प्रश्न न कथित्त । अंगबाहिर नं प्रश्न करेह, सांभलजो श्रोता चित देह ।। वा० - इम० जे प्रारंभ्यो छ अनुयोग ते आश्री अंगबाह्य नै प्रवर्ते : जे भणी आवश्यक इहां वखाणस्य ते तो अंगबाह्य छ । इहां अंगबाहिरिअस्स इम Jain Education Intemational ducation Intermational Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ७ जोड़: पद्यात्मक व्याख्या कझे ते समुच्चय वचन मा संदेह युक्त विध्य पूर्ण अंगबाहिर त के भेद तेनुं प्रश्न करें छे । ४०. जो अंग बाह्य श्रुत नों अवधार, उद्देशादि प्रवर्त्ते सार । स्यूं कालिक नां प्रवर्त्ती उद्देशादि, के उत्कालिक तणां संवादि ? ॥ सोरठा दिवस अनं वलि रात्रि नं। चरम पहर कीजै वली ॥ द्वादश अंग समय वली । प्रहरे पीये ४१. कालिक जे कहिवाय प्रथम पहर स्वाध्याय, ४२. उत्तराध्ययन सु आदि, ए कालिक संवादि प्रथम चरम ४३. अकाल मात्र' वजह, सर्व काल ते उत्कालिक लेह, दशवैकालिक' पढे ।। जसं । आदि दे || (लय सोही सयाणा) ४४. ए पुण प्रस्थापन आथित्त, कालिक नौ तौ प्रश्न न कथित उत्कालिक नौं प्रश्न करेह, आगल कहिये छे वच जेह ॥ । वा० - इमं पुण पट्टवणं पटुच्च ए वली प्रस्थापन प्रारंभ आश्रयी उत्कालिक औ जाणवूं । आवश्यक हीज इहां कहिस्यै ते उत्कालिक हीज छै इसी हृदय । उत्कालिक नौं इम सामान्य वचने कह्यो । वलि विशेष जाणवा नी इच्छाई शिष्य पूछे। (जय सोही समाना) ४५. जो उत्कालिक नां उद्देशा आदि तो स्यूं आवश्यक नां वादि । आवश्यक व्यतिरिक्त नों जाण, वर व्याख्यान प्रवर्त्ते माण ।। ४६. गुरु कहै आवश्यक नों जान, प्रवर्त्त अनुयोग व्याख्यान । आवश्यक व्यतिरिक्त तूं पिण ही, प्रवर्त्ते अनुयोग सुगुण ही ॥ ४७. ए पुण प्रस्थापन आश्रित्त, आवश्यक व्यतिरिक्त न कथित्त । आवश्यक प्रश्न करेह, सांभलजो श्रोता चित देह || aro -' इमं पुण पट्टवणं पटुच्च आवस्सयस्स अणुओगो' ए पुण प्रस्थापन कहिये प्रारंभण तेह प्रति आश्रयी नै आवश्यक नों अणुओग व्याख्यान छे इम गुरु कये छते शिष्य प्रश्न पूछे छै । ( सय सोही समाचा) 1 ४८. जो आवश्यक नों छै अनुयोग, तो आवश्यक स्यूं इक अंग जोग बहुअंगध एक, कै आवश्यक बहुश्रुत खंध पेख ? १. विकाल बेला । २. वृत्ति में 'आवश्यकादि' है। हो सकता है जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में 'दशवेकालिकादि' रहा हो । ४०. जगाहिरस्स उसो समुद्देशो अणुष्णा अणुओोगो पत्त, कि कालियरस उद्देयो समृद्देसो अनुमा अणुओगी व पवत ? उनकालियरम उद्देगो समु अण्णा अणुओगो य पवत्तइ ? ४२३ ४१, ४२. तत्र दिवस निशा प्रथमचरमपौरुषी लक्षणे कालेऽधीयते नान्यत्रेति कालिक-उत्तराध्ययनादि । (बु.प. ५) ४३. यत्तु कालवेलामत्रवर्ज शेषकालानियमेन पठ्यते तत्कालिक (बु.प. ६) आवश्यकादि ४४. इमं पुण पट्टवणं पडुच्च उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अण्णा अणुओगो य पवत्तइ । (सू. ४) वा० - इदं पुनः प्रस्तुतं प्रस्थापनं प्रारम्भं प्रतीत्य उत्कालिकस्वामी मन्तव्य: आवश्यकमेव ह्यत्र व्याख्यास्यते, तत्कालिनमेवेति हृदयम् उत्कालिक स्येति सामान्यवचने विशेषजिज्ञासुः पृच्छति (बृ. प. ५) ४५ जइ उक्कानियस्स उद्देश समुद्देशो जष्णा अणुओगां पवत्त, कि आवस्यस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगीय पवत आवस्यतिरिक्तस्स उसो समुद्देसो अणुष्णा अणुओय पवत्त ? ४६. आवस्सयस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुष्णा अणुओगो य पाइ आवस्यतिरिक्तस्स वि उसी समृद्देस अण्णा अणुओगो य पवत्तइ । ४७. इमं पुण पट्टवणं पडुच्च आवस्सयस्स अणुओगो । (सु. ५) ४८ जइ आवस्सयस्स अणुओगो, आवस्सयण्णं किं अंगं ? अंगाई ? सुवधी ?? Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ४९. एक अध्येन के घणा अज्झण, अथवा एक उद्देश कहेण । घण उद्देश कही तास ? पूछघा ए अठ प्रश्न विमास ।। ५०. हिव तसुं उत्तर आखे चंगो, आवश्यक ते नहि इक अंगो । बहु अंग नहीं है कोई आवश्यक इक श्रुत खंध सोई ।। ५१. एक अध्येन कहीजं नांय, घणां अध्येन ते पद कहियाय । एक उद्देशो नहिं छे जास, घणां उद्देशा नहिं छै तास ।। ५२. आवश्यक इक बंध सोय, तास अध्येन बहु अवलोय । ए दो ही प्रश्न आदरिया, शेष प्रश्न षद् ही परहरिया || श्रुत सोरठा ५३. अथ शिष्य प्रश्न करेह, भगवन किं अंग अंगाई ? ए बे प्रश्न पूछेह, निःप्रयोजन हीज ते ।। ५४. नंदी सूत्र विषेह, प्रवर अनंगप्रविष्ट में। कह्यं आवश्यक एह, अनें इहां पिण पूर्व ही ॥ ५५. किम करि हिवड़ा ख्यात, अंग बाह्य उत्कालिके । ते माटै अवदात, ए बे प्रश्न घटै नथी । ५६. गुरु कहै शिष्य सुण बात, जे तुम्ह नंदी आदि नुं । हेतु अत्राख्यात, तेह अयुक्तो जे भणी ॥ ५७. अवश्य भाव नहि एह, नंदी प्रथम वखाण नें । अन्य सूत्र प्रति जेह, खाणं ए नियम नहि ॥ ५८. कदाचित अनुयोग द्वार वखाणी ने पर्छ । अन्य सूत्र सुप्रयोग, वखाणवूं जो ह्वं प्रवर ॥ ५९. अनियम जणाविवाज, सूत्र एहिज प्रारंभियो । अनेज नंदी रहाज, अवश्य वखाणं हे प्रथम ।। ६०. अंगबाह्य तिहां इष्ट, आवश्यक नै आखियो । तो वली अंग प्रविष्ट, अनंग प्रविष्ट कहे स्यां भणी ॥ ६१. अनें जो कहिस्यो जेह, मंगलीक ने अर्थ हो । नंदी अध्ययन तेह, प्रथम वखाणं अवश्य ही ॥ ६२. ते पिण अयुक्त जोय, ज्ञान पंच मंगलीक नां । कहिवा थकीज सोय, मंगलीक पिण इहां कह्यो । ६३. फुन शिष्य ते कह्यं जेह, अनंग उत्कालीक क्रम । इहांज आख्यं तेह, ते पिण अयुक्त जाणवूं || ६४. स्वां पण जे समुदाय, तेहने उद्देशादि चि प्रश्न करण विषे ताय, बोल च्यारू ही आखिया ।। ६५. इहां तो केवल हीज, अनुयोग हीज कर कहा । तसुं प्रस्ताव थकीज, एहिज आख्यो छे इहां ॥ ६६. ए पुण प्रस्थापन, आश्रयी ने आवश्यक नो । जे अनुयोग कथन, एहवा वचन हंतीज ए ॥ ६७. भिन्न प्रस्ताव थकीज, आवश्यक स्यूं अंग है । इत्यादिक सलहीन, पृच्छा करवी युक्त है ॥ ६८. तथा विस्मरण शील, मास तुषादि अल्प बुद्धि । मुनि अनुग्रहार्थ संभील, एह प्रश्न नों दोष नहीं ॥ अणुओगबारा ४९. अज्झणं ? अज्झषणाई ? उद्देसो ? उद्देसा ? ५०. आवस्यण्णं नो अंगं नो अंगाई, सुयबंधो नो सूपबंधा ५१. नो अञ्झयणं अज्झयणाई, नो उद्देसो नो उद्देसा । (सू. ६) ५२. तत्र श्रुतस्कन्धः अध्ययनानि चेदमिति प्रतिपत्तव्यं, assययनात्मक - श्रुतस्कन्धरूपत्वादस्य शेषास्तु षट् प्रश्ना अनादेया: । (बु. प.) ५३. नन्वावश्यकं किमङ्गमङ्गानीत्येतत् प्रश्नद्वयमत्रानवकाशमेव । (वृ. प. ८) ५४, ५५. नन्द्यध्ययन एवास्यानङ्गप्रविष्टत्वेन निर्णीतत्वात्, तथाषावात्कालिक कमेणानन्तरमेयोतत्वादिति । (बृ.प.म) =) ५६. अत्रोच्यते एवेत्यादि तदयुक्तं । ( वृ. प. ५७. यतो नावश्यं नन्द्यध्ययनं व्याख्याय तत इदं व्याख्येयमिति नियमोऽस्ति । (बु.प. ८) ५. कदाचिदनुयोगद्वारव्याख्यानस्यैव प्रथमं प्रवृते । (बृ. प. ८) ५९.६०. अनियमज्ञापकश्चायमेव सूत्रोपन्यासः अन्यथा वेतन निश्चिते किमिहाङ्गङ्ग प्रविष्टवन्ता वोपन्यासेनेति । (पु.प.) यत्तावदुक्तं नन्द्यध्ययन ६१,६२. मङ्गलार्थमवश्यं नन्दरादो व्याख्या इति चेन्न, ज्ञानपञ्चकाभिधानमात्रस्यैव मङ्गलत्वात्तस्य चेहापि कृतत्वादिति । (बु.प.) ६३. यच्चतम् अत्राप्यङ्गवात्कालिक कमेणेत्यादि । (बृ. प.) ६४. तत्रापि समुदितानामुद्देशसमुद्देशानुज्ञानुयोगानां प्रश्नप्रकरणे तदुक्तम् । (बृ.प. ९) ६५. अत्र तु केवलोऽनुयोग एवाधिकृतः, तत्प्रस्तावे दिव (बुप. ९) ६६. इ पुनः प्रस्थापनं प्रतीत्यावश्यकस्यानुयोगः । ६७. भिन्नप्रस्तावत्पृष्ाते । (बु.प. ९) (बु.प. ९) ६८. विस्मरणशीलाल्पबुद्धिमाषतुषादिकल्पसाध्वनुग्रहार्थं वेत्यदोषः । (बु. प. ९) Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ परिशिष्ट : ७-जोड़ : पद्यात्मक व्याख्या ६९. जे माट इम ख्यात, प्रारंभण नै आश्रयी। आवश्यक अवदात, तसुं अनुयोगज जाणवू ।। ७०. इण वचने करि जोय, आवश्यक जे एहवू । शास्त्र नाम अवलोय, निर्णय कीधं छै इहां ।। ७१. पूर्वे आख्यूं जेह, अट्ठ प्रश्ने आवश्यक नों। इक श्रुत खंध कहेह, बहु अध्येनपणे कां ।। ७२. तेह भणी अवलोय, स्यूं करिवी कहियै तिको । आवश्यकादिक जोय, निक्षेपीये ते हिव कहै । ६९. तदेवं यस्माद् इदं पुन: प्रस्थापनं प्रतीत्यावश्यकस्यानुयोग। (व. प. ९) ७०. इत्यनेनावश्यकमिति शास्त्रनाम निर्णीतम्। (वृ. प. ९) ७१. यस्माच्चाष्टस्वन्तरोक्तप्रश्नेष्वावश्यकं श्रुतस्कन्ध त्वेनाध्ययनकलापात्मकत्वेन च। (व. प. ९) ७२. निर्णीतं तस्मात्किमित्याह - (वृ. प. ९) ७३. तम्हा आवस्सयं निक्खिविस्सामि, सुयं निक्खि विस्सामि, खंधं निक्खिविस्सामि, अज्झयणं निक्खिविस्सामि। (सू. ७) (लय : सोही सयाणा) ७३. तेह भणी आवश्यक निक्षेपीस, सूत्र तणां निक्षेपा कहीस । खंध भणी निक्षेपसू वारू, वलि अध्ययन निक्षेपसूं चारू ।। सोरठा ७४. आवश्यकादि पद च्यार, नामादिक जे भेद करी । देखाडवू अवधार, तास निक्षेपै कहीजिये ।। ७५. तिहां सहु वस्तु नों जाण, जघन्य थकी चिहुं भेद करि । देखाड़ सुविधान, ए निश्चय करण भणी कहै ।। ७४. तत्र निक्षेपणं निक्षेपो यथासंभवमावश्यकादेर्नामादि भेदनिरूपणम् । ७५. तत्र जघन्यतोऽप्यसौ चतुर्विधो दर्शनीय इति नियमार्थमाह (वृ. प. ९) (लय : सोही सयाणा) ७६. जेह जीवादिक वस्तु विषेह, जे नामादि बहु स्थापन जाणेह । तेह जीवादिक वस्तु विषेह, ते सह भेदे निक्षेपा प्रति स्थापेह ।। ७७. जेह जीवादिक वस्तु विषेह, सह भेदे निक्षेपानां न जाणेह । ते वस्तु विषे नामादि चिहुं भेदै, निक्षेपो अवश्य देखा. संवेदै ।। ७६,७७. जत्थ य जं जाणेज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि य न जाणेज्जा, चउक्कयं निक्खिवे तत्थ ।। (सू. ७) 'यत्र च' जीवादिवस्तुनि यं जानीयात् 'निक्षेप' न्यास यत्तदोनित्याभिसंबन्धात्तत्र वस्तुनि तं निक्षेप 'निक्षिपेत्' निरूपयेत् 'निरवशेष' समग्रं। (वृ. प. ९) यत्रापि च न जानीयान्निरवशेष निक्षेपभेदजालं तत्रापि नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणं चतुष्कं निक्षिपेद् । (वृ. प. ९) वा० - इदमुक्तं भवति यत्र तावन्नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावादिलक्षणा भेदा ज्ञायन्ते तत्र तैः सर्वरपि वस्तु निक्षिप्यते, यत्र तु सर्वभेदा न ज्ञायन्ते तत्रापि नामादिचतुष्टयेन वस्तु चिन्तनीयमेव, सर्वव्यापकत्वात्तस्य, न हि किमपि तद्वस्तु अस्ति यन्नामादिचतुष्टयं व्यभिचरतीति गाथार्थः । वा... एतल ए भाव कह्यो-जे वस्तु नै विषे नाम स्थापना द्रध्य क्षेत्र काल भावादि भेद घणां जाणीइं ते वस्तु नै विषे तेणे सगलै भेदे वस्तु निक्षेपी देखाड़ी इं। अने जे वस्तु नै विषे सर्व भेद न जाणीईतिहां नामादिक चिहुं भेदे वस्तु नों विचार अवश्य करीइं। जे भणी नामादि चिहुं भेद रूप निक्षेपो सर्व वस्तु व्यापी छ। ते काइ वस्तु नथी जिहा नामादि च्यार भेद न लाभ। एतले सर्व वस्तु चिहं भेदमय नियम निश्चय छ। तेणे कारणे सर्व वस्तु नो चिहं भेदे निक्षेपो करिवो इति गाथार्थ : १ ७८. से अथ स्यूं ते आवश्यक जाण, इम शिष्य पूछये गुरु कहे वाण । आवश्यक का च्यार प्रकार, ते जिम छै तिम कहियै सार ।। वा०-से कि तं० तिहां से शब्दमागधी भाषा प्रसिद्ध अथ शब्द ने अर्थ ७८. से किं तं आवस्सयं? आवस्सयं चउब्विहं पपणतं, तं जहावा०--अत्र 'से' शब्दो मागधदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दार्थे Jain Education Intemational Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ प्रवत्त । अथ शब्द ते वाक्य ग्रहबा : अर्थे प्रवत्त । तथा कि ए शब्द प्रश्न नै अर्थे प्रवत्त । अनै तं शब्द जे प्रारंभ्यो छ ते ग्रहवा नै अर्थे प्रवत्त ! इम शब्दार्थ करी नै पछ ए समुदायार्थ करवो। अथ किसो स्वरूप छै ते आवश्यक नों इम पूछये हुंते आचार्य शिष्य नो वचन अणउथापता अति आदर देवा नै अर्थे तेहज वचन उच्चरी नै उत्तर दीई छ७९. नाम आवश्यक पहिलू जेह, द्वितीय आवश्यक स्थापना लेह। द्रव्य आवश्यक ती कहिये, भाव आवश्यक चउथो लहिये ।। अणुओगदाराई वर्त्तते, अथशब्दस्तु वाक्योपन्यासार्थः तथा "किमिति प्रश्ने, तदिति सर्वनाम पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शार्थे, ततश्चायं समुदायार्थ --अथ किस्वरूपं तदावश्यकम् ? एवं प्रपिनते सत्याचार्यः शिष्यवचनानुरोधेन आदरा धानार्थ प्रत्युच्चार्य निदिशति-- (वृ. प. ९) ७९, नामावस्सयं ठवणावस्सयं दवावस्सयं भावावस्सयं । (सू. ८) ८०. अवश्यं कर्त्तव्यमावश्यकम् । (वृ. प. ९) ८१. अथवा गुणानां आ–समन्ताद्वश्यमात्मानं करोतीत्या वश्यकम् । सोरठा ८०. अवश्य करवू जेह, आवश्यक कहिये तसुं। लोकिक लोकोत्तरादेह, आगल कहिस्ये भेद ते॥ ५१. अथवा गुण नैं विषेह, आ कहितां सर्व प्रकार करि । आत्मा ने वश्य करेह, तेह आवश्यक जाणवू ।। गीतक छंद ८२. अथवा जु प्राकृत शेलीइं, आवासकं इम पिण लो । रहवास कहितां तिहां वसवं, आगल क प्रत्यय का । ८३. आ कहितां सर्व प्रकार करि, गुण शून्य आत्म प्रति सही। गुण करी ने ज वसाविय, आवासकं कहिये वही॥ ८२. अथवा-आवस्सयंति प्राकृतशैल्या आवासक, तत्र 'वस निवासे' इति । (व. प. ९) ८३. गुणशून्यमात्मानम् आसमन्तात् वासयति गुणैरित्यावासकं । (वृ. प. ९,१०) (लय : सोही सयाणा) ८४. अनुयोगद्वार सूत्र नीं न्हाल, प्रवर कही ए पहिली ढाल । श्री जिन वच श्रध्यां सुख सार, आनंद 'जय-जश' हरष उदार।। दूहा १. से कि तं नामावस्सयं ? नामावस्सयं--- १. अथ स्यूं ते नामावश्यक ? शिष्य इम पूछचे सार । गुरु भाख नामावश्यक, कहूं तास अधिकार ।। ढाल : २ १. जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा, (लय : सेवो रे साधु सयाणा) १. जे इक जीव वस्तु नुं अथवा, इक अजीव वस्तु नुं जाण वा बहु जीव वस्तु नो अथवा, बहु अजीव वस्तु नों माण। रे भवियण ! जिन वच महा जयकार, प्रभु कह्या निक्षेपा च्यार, रे भवियण ! ए नाम निक्षेपो विचार ॥ध्रुपद।। २. ते एक उभय न वा घणां उभयं नं, आवश्यक इसो नाम करीये । नाम आवश्यक कहिये तेहनें, से तं नाम आवश्यक वरीय, रे ।। २. तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सए ति नाम कज्जइ । से तं न'मावस्सयं । (मू. ९) Jain Education Intemational Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ७ जोड़ पद्यात्मक व्याख्या सोरठा ३. नाम मात्र करिहीज, आवश्यक नामावश्यक । इम व्युत्पत्ति थकीज, वा पक्षांतर सूचका ॥ ४. तिहां जीव जे एक तास नाम ते आवश्यक । किम संभवीय शेष उत्तर तास कहीजिये ॥ ५. जिम जे लोक विषेह, स्व पुत्रादिक जीव नुं । सीहो नाम करेह, देवदत्त इत्यादि फुन ॥ ६. तिम को निज अभिप्राय, निज पुत्रादिक एक नुं । आवश्यक पिण ताय, एहवं नाम करें तिको || हि एक अजीव द्रव्य नुं आवसग नाम ते कहै छं७. इक अजीव नुं किम नाम, आवासक ने आवश्यक । शब्द एकार्थ आम पूर्व आख्यो छे रहो । उभो सूको अचित्त, बहु कोटर आकीर्ण तरु | अथवा अन्य कथित्त, कोई पदार्थ अन्य पिण ।। सप्पादिक जे जीव नूं । छै आवास एह, यद्यपि ते तरु आदि ही ॥ अजीव द्रव्ये नीपनी । ८. ९. तेहने लोक कहेह, १०. अनंत परमाणू जेह, तथापि इक बंध तेह, परिणत तणी अपेक्षया ॥ ११. एक अजीवपणेह, वांछ्यो छे इहां द्रव्य इक । स्वार्थे क प्रत्यवेह, आवासक इम नीपनों ॥ हिव घणां जीव द्रव्य नुं आवसग नाम ते कहै छँ १२. पण जीव नुं नाम, आवाशक दीस अछे । जिम ईंट वाहने आम, आवास अग्निमूष नों ॥ १३. तहां अग्निरे मांहि जेह भूपक ऊपजै । ते असं अग्निजीव ताहि, तसे आवासक नाम जे ॥ १४. जिम जे पंखीनांज, माला ने पंखी तणों । आवास कहिये रहाज, ते बहू तृण करि नीषजे ॥ १५. ते माटे इम थाय बहु अजीव नुं नाम जे । आवासक कहिवाय, भेद कह्यौ ए चतुर्थो । हिवे एक उभय नुं नाम आवासक कहै छेकलश १६. इक उभव नुं आवास गृहि दीर्घका लीजिये । अशोकवनिकादिके शोभित नृप प्रसाद कहीजिये ॥ हिवे बहु उभय नौं नाम आवसग कहै छ १७. बहु उभय नुं आवास नाम, कृत्स्न नगरादिक भणी । राजादि नं आवास कहिये, अन्य इम वस्तू पणी ॥ बा. - इहां पूर्वोक्त प्रासाद ने लहुड़पणां मार्ट एकज जीवाजीव उभय ३. नाम्ना नाममात्रेणावश्यकं व्युत्पत्ते वा शब्दा: समुदायार्थः । नामावश्यकमिति पक्षान्तरसूचका इति (बु.प. १०) ४. तत्र जीवस्य कथमावश्यकमिति नाम सम्भवतीति उच्यते । ( पू. प. १०) ५. यथा लोके जीवस्य स्वपुत्रादेः कश्चित्सीहको देवदत्त इत्यादि नाम करोति । ( वृ. प. १० ) ६. तथा कश्चित् स्वाभिप्रायवशादावश्यकमित्यपि नाम करोति । ( वृ. प. १० ) ४२७ ७. अजीवस्य कथमिति चेद्, उच्यते इहावश्यकावासकशब्दयोरेकार्थता प्रागुक्ता । (पु.प. १०) ततश्चोर्ध्व शुष्कोऽचित्तो बहुकोटराकीर्णो वृक्षोऽन्यो वा तथाविधः कश्चित्पदार्थ विशेषः । ( वृ. प. १० ) ९. सर्पादेशवासोऽयमिति लौकिकैर्व्यपदिश्यत एव स च वृक्षादिः । ( वृ. प. १० ) परमपुलदार जीवद्रव्यनिष्पन्नस् १०.यद्यपि ८. तथाऽप्येकस्कन्धपरिणतिमाश्रित्य | (बृ. प. १०) ११. एका जीवत्वेन विवक्षित इति स्वार्थिककप्रत्ययोपादानादेकाजीवस्यावासकनाम सिद्धं । (बु.प. १०) १२. जीवानामपि बहूनामावासकनाम दृश्यते यथाइष्टकापाकाद्यग्निर्मूषिकावास इत्युच्यते । १२. किस मूषिका: संमूर्च्छन्ति अतस्तेषामसंख्येयानामग्निजीवानां पूर्ववदावासकं नाम सिद्धम् । ( वृ. प. १० ) १४, १५. अजीवानां तु यथा नीडं पक्षिणामावास इत्युच्यते तद्धि बहुभिस्तृपाद्यजीवनपद्यते इति बहूनाम जीवानामावासकनाम भवति । ( वृ. प. ११) १६. इदानीमुभयस्यावासकसंज्ञा भाव्यते तत्र गृहदीधिकाऽशोकवनिकाद्युपशोभितः प्रासादादिप्रदेशो राजादेरावास उच्यते । (पु.प. ११) १७. उभयानां त्वावासकसंज्ञा यथा संपूर्णनगरादिकं राजादीनामावास उच्यते । (पु.प. ११) वा० अत्र च पूर्वोक्तप्रासाद] विमानयोर्लघुत्वादेकमेव Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ अणुओगदाराई विवक्ष्यं । अनै नगरादिक नां मोटापणां माटै घणा जीवाजीव उभय नी विवक्षा कीधी इम विवक्षा इं भेद जाणवी । इम अन्यत्र पिण जीवादिक नुं आवासक नाम जाणवू । जीवाजीवोभयं विवक्षितमत्र तु नगरादीना"....." महत्त्वाद्बहुनि जीवाजीवोभयानि विवक्षितानीति विवक्षया भेदो द्रष्टव्यः एवमन्यत्रापि जीवादीनामावासकसंज्ञा यथासंभवं भावनीया। (व. प. ११) इति नाम आवश्यक १८. से कि तं ठवणावस्सयं ? ठवणावस्सयं (लय । सेवो रे साधु सयाणा) १८. अथ स्यूं तेह स्थापनावश्यक, तब गुरु भाखै एम । स्थापना आवश्यक कहूं तोने, सांभलजो धर प्रेम ।। १९. काष्ट कर्म कहितां काष्ट तणूंजे, कीजिये ते कर्म कहिवाय। तेह विषे अथवा चित्र कर्म जे, चित्र लिखित्त रूपे ताय ।। २०. पोत्थकम्मे ते वस्त्र विषे वा, पुस्तक विषे पहिछाण । वा ताड़पत्रादि तास कर्म जे, तेहने छेदवै नीपन जाण ।। लेपकर्म ते नेप्यरूपक वा गंत्थिम गुंथी कीबूं दड़ा जेम । अथवा वेढिम कहितां बहु फूले करीने, वींटी ने की● तेम ।। १९. जण्णं कट्टकम्मे वा चित्तकम्मे वा । तत्र क्रियत इति कर्म काष्ठे कर्म काष्ठकर्म -काष्ठनिकुट्टितं रूपकमित्यर्थः, चित्रकर्म चित्रलिखितं रूपकं । (व. प. १२) २०. पोत्थकम्मे वा 'पोत्थकम्मे व' त्ति अत्र पोत्थं-पोतं वस्त्रमित्यर्थः.... अथवा पोत्थं--पुस्तकं... ....."अथवा पोत्थंतापत्रादि तत्र कर्म-तच्छेद निष्पन्न रूपकम् । (वृ. प. १२) २१. लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा। 'लेप्यकर्म' लेप्यरूपकं, 'ग्रंथिम' कौशलातिशयाद् ग्रंथिसमुदायनिष्पादितं रूपकं, 'वेष्टिम' पुष्पवेष्टमक्रमेण निष्पन्नमानन्दपुरादिप्रतीतरूपम् । (वृ. प. १२) २२. पूरिमे वा संघाइमे वा 'पूरिमं' भरिमं पित्तलादिमयप्रतिमावत्, 'संघातिमं' बहुवस्त्रादिखण्डसंघातनिष्पन्न कञ्चुकवत् । (व. प. १२) २३. अक्खे वा वराडए वा। 'अक्षः' चन्दनको 'वराटक:' कपर्दकः । (वृ. प. १२) २२. पूरिमे कहितां पीतलादिक नी भरी पूतली नी पर जोय । वा संघातिम ते बहु वस्त्रादि खंडे नीपर्नु कंचुक नी पर सोय । २३. अथवा अक्ष कहितां चंदन को, चंद्राकार पाषाण । अथवा वराटक कउडा कहिये, ए दशमों बोल पहिछांण ।। सोरठा २४. अत्र वाचनांतरेह, अन्य पिण दंतकर्मादि जे । पद दीसै छै जेह, ते पूर्वोक्त अनुसार थी जाणवा ।। २४. अत्र वाचनान्तरे अन्यान्यपि दन्तकर्मादिपदानि दृश्यन्ते तान्यप्युक्तानुसारतो भावनीयानि । (वृ. प. १२) २५. वा शब्दाः पक्षान्तरसूचकाः यथासम्भवमेवमन्यत्रापि । (वृ. प. १२) २५. वा शब्द यथा संभव सह ठांम, पक्षांतर सूचक अछै । ताम, कहिये इम अन्यत्र पिण ।। (लय : सेवो रे साधु सयाणा) २६. एकज अथवा अनेक घणांवा, सदभाव स्थापना जेह। अथवा असद्भाव स्थापना जाणौ, ए आवश्यक इम स्थापेह ।। सोरठा २७. ए काष्टकर्मादि विषेह, आवश्यक क्रिया प्रते। करता छताज जेह, इक वा बहु मुनि आदि नां ।। २६. एगो वा अणेगा वा सम्भावठवणाए वा असब्भाव ठवणाए वा आवस्सए त्ति ठवणा ठविज्जइ । से तं ठवणावस्सयं । २७,२८. एतेषु काष्ठकर्मादिषु आवश्यक क्रियां कुर्वन्तः एकादिसाध्वादयः । (वृ. प. १२) Jain Education Intemational Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :७-जोड़ : पद्यात्मक व्याख्या २८. जे आकारज होय, तेह तणां सद्भाव थी। सद्भाव स्थापना सोय, हिव कहियै असद्भाव स्थापना ।। २९. फुन अक्षादि विषेह, जे आकार विना तसं । ए आवश्यक इम स्थापेह, ते असद्भाव स्थापना ।। ३०. मुनि आदि तणों आकार, तेह विषे नहिं ते भणी। असद्भाव स्थापना धार, से तं स्थापना आवश्यक ।। २९. अक्षादिषु त्वनाकारवती असद्भावस्थापना । (वृ. प. १२) ३०. साध्वाद्याकारस्य तत्रासद्भावादिति, निगमयन्नाह'सेत' मित्यादि तदेतत् स्थापनाऽऽवश्यकमित्यर्थः । (वृ. प. १२) ३१. नाम-ट्ठवणाणं को पइविसेसो ? अत्र नामस्थापनयोरभेदं पश्यन्निदमाह (वृ. प. १२) (लय : सेवो रे साधु सयाणा) ३१. शिष्य पूछ नाम स्थापना केरो, किसो छै प्रति विशेष? इतले विशेष कोई न दीसतुं, एह अभिप्राय लेख ।। सोरठा ३२. जे भणी आवश्यक आदि, भाव अर्थ करि शून्य जे । गोपाल दारकादि वादि, जेह द्रव्य मात्र नै विषे ।। ३३. जेम आवश्यक आदि, नाम कोजीइं तेह नों। तास थापना वादि, ते पिण तिम हिज जाणवी ।। ३४. अर्थशून्य काष्ट कर्मादि, द्रव्य मात्र विषे कीजीई। इण हे भाव शून्य वादि, द्रव्य मात्र विषे करते छते ।। ३५. इन नाम स्थापना मांहि, विशेषतणां अभाव थी। भेद दीसतूं नाहि, इम शिष्य पूछय गुरु कहै ।। (लय : सेवो रे साधु सयाणा) ३६. नाम ते यावत्कथिक हुवै छै, स्थापना इत्तरि होय । अथवा यावत्कथिक पिण है छ, स्थापना आवश्यक जोय ।। गीतक छंद ३७. हिव नाम ते यावत्कथिक, जे आपणा आश्रय वही । जे द्रव्य नां अस्तिपणां नी, कथा ज्यां लग है सही ।। ३२. तथाहि आवश्यकादिभावार्थशून्ये गोपालदारकादी द्रव्यमाने। (वृ. प. १२) ३३. यथा आवश्यकादि नाम क्रियते, तत्स्थापनाऽपि तथैव । (वृ. प. १२) ३४,३५. तच्छून्ये काष्ठकर्मादौ द्रव्यमात्रे क्रियते, अतो भावशून्ये द्रव्यमात्रे क्रियमाणत्वाविशेषान्नानयोः कश्चिद्विशेषः अत्रोत्तरमाह- (वृ. प. १२) ३६. नामं आवकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा (सू. ११) ३८. त्यां लगै ते संघात वत्त, पिण अंतरे निवर्ते नहीं। पुन स्थापना अल्प काल नी है, तथा यावत्कथिक ही ।। ३९. जे आपणो आश्रय द्रव्य, ते ज्यां लगै छतो हुई। __त्यां लगै कोइक स्थापना रहै कोई स्थापना रहै नहीं। ३७. 'नामं आवकहिय' मित्यादि, नाम यावत्कथिक - स्वाश्रयद्रव्यस्यास्तित्वकथां यावदनुवर्तते । (वृ. प. १२) ३८. न पुनरन्तराऽप्युपरमते, स्थापना पुनरित्वरा --- स्वल्पकालभाविनी वा स्याद्यावत्कथिका वा । (वृ. प. १२) ३९. स्वाश्रयद्रव्ये अवतिष्ठमानेऽपि काचिदन्तराऽपि निवर्त्तते काचित्तु तत्सत्तां यावदवतिष्ठत इति भावः । (वृ. प. १२) ४०. तथाहि नाम आवश्यकादिक मेरुजम्बूद्वीपकलिङ्ग मगधसुराष्ट्रादिकं वा यावत् स्वाश्रयः । (वृ. प. १२) ४१ गोपालदारकदेहादिः शिलासमुच्चयादिर्वा समस्ति तावदवतिष्ठत इति तद्यावत्कथिकमेव । (व. प. १२) ४२,४३. स्थापना त्वावश्यकत्वेन योऽक्षः स्थापित: स क्षणान्तरे पुनरपि तथाविधप्रयोजनसम्भवे इन्द्रत्वेन स्थाप्यो पुनरपि च राजादित्वेनेत्यल्पकालवतिनी। ४०. अथवाज मेरु द्वीप जंबू, कलिंग फून मागध वही । सौराष्ट्र आदि ज्यां लगै छै, आपणो आश्रय सही।। ४१. गोपाल दारक आदि वा, सिल समुच्चयादिक जे रहे। त्यां लग नाम पिण रहे तिण सू, नाम यावत्कथिक हे ।। ४२. फुन स्थापना अल्पकाल नी पिण, हुवै ते माटं वही । स्थापनावश्यकपणे करि, अक्षादि जे स्थाप्यं हई ।। ४३. वलि ते तथा विधि प्रयोजन थी, इंद्रादिक पिण स्थापीई । फुन ते नृपादिक स्थापीई इम स्थापना इत्वरकीई।। Jain Education Intemational Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ४४. यावत्कथिक शाश्वती प्रतिमा, अर्हतादिक रूपे करी। सहु काल तिष्ठ ते भणी, इम स्थापना तसुं उच्चरी ।। वा० ...ठा गतिनिवृत्ती इण धातु नी व्युत्पत्ति हुती जे शाश्वती प्रतिमा । अर्हतादिक रूपे सदाकाल तिष्ठ ते भणी तेह नी स्थापना कहीइं। परं स्थापीये ते स्थापना ए अर्थ इहां न संभवै ते जे भणी तेहनां शाश्वतपणां माटै मनुष्य लोक नै विषे अशाश्वतोपण करी किण ही पिण स्थापी प्रतिष्ठी नथी। ते भणी काल की अपेक्षाय ईत्वर अनैं यावत्कथिक एबे भेद हुई। अणुओगदाराई ४४. शाश्वतप्रतिमादिरूपा तु यावत्कथिका वर्तते । (वृ. प. १२) वा० तस्याश्चाहदादिरूपेण सर्वदा तिष्ठतीति स्थापनेति व्युत्पत्ते, स्थापनात्वमवसेयं, न तु स्थाप्यत इति स्थापना, शाश्वतत्वेन केनापि स्थाप्यमानत्वाभावादिति, तस्माद्भावशून्यद्रव्याधारसाम्येऽप्यस्स्यनयो: कालकृतो विशेषः । (वृ. प. १२) गीतक छंद ४५. अथ शिष्य पूछ स्थापना जिम, अल्प काल तणी कही। तिम नाम पिण को एक थोड़ा, काल नूंज हवै सही ।। ४६. गोपाल दारक आदि जेह, छते कदाचित जाणियै । बहु नाम फिरता देखवा थी, काल इत्वर आणिय ।। ४७. गुरु कहै ए सत्य किंतु, प्राये नाम यावत्कथिक ही। जो कदाचित अन्यथा ते, अल्पता माटै वही ।। ४८. वंछय नहीं छै इहां, तिण कारण थकी दोषण नहीं । ए काल भेदे उभय भेदज, ते उपलक्षण मात्र ही ॥ ४९. फुन अन्य पिण बहु विधितणां जे, भेद नां संभव थकी। जे नाम नै स्थापना मांहे, भेद कहियै छै नकी ।। ५०. जिम इंद्र आदिक तणी प्रतिमा, स्थापना में देखियै ।। कुंडल अने अंगद प्रमुख करि, विभूषित सुविशेखियै ।। ५१. फुन सची वज्रादिकतणां, आकार तास समीप ही। तिम नाम इंद्रादिक विषे नहि, भेद एह प्रत्यक्ष ही' ।। ४५. अत्राह-ननु यथा स्थापना काचिदल्पकालीना तथा नामापि किञ्चिदल्पकालीनमेव। (व.प. १२) ४६. गोपालदारकादौ विद्यमानेऽपि कदाचिदनेकनामपरावृत्तिदर्शनाद् । (वृ. प. १२) ४७,४८. सत्यं, किन्तु प्रायो नाम यावत्कथितमेव, यस्तु क्वचिदन्यथोपलम्भः सोऽल्पत्वात् नेह विवक्षित इत्यदोषः । उपलक्षणमात्रं चेदं कालभेदेनैतयोर्भेदकथनम् । (वृ. प. १२) ४९. अपरस्यापि बहुप्रकारभेदस्य सम्भवात् । (वृ. प. १२) ५०. तथाहि --यथेन्द्रादिप्रतिमास्थापनायां कुण्डलाङ्गदादिभूषितः। (वृ. प. १२) ५१. सन्निहितशचीवज़ादिराकार उपलभ्यते न तथा नामेन्द्रादी। (वृ. प. १२) १. श्रीमज्जयाचार्य ने अनुयोगद्वार की जोड़ को प्रारम्भ किया। प्रारंभ को देखते हुए लगता है वे इसे बहुत विस्तार से करना चाहते थे। पूरी जोड़ बन पाती तो बहुत उपयोगी होती, पर किसी कारणवश जयाचार्य ने दो ढालें बनाकर ही इसे छोड़ दिया। दूसरी ढाल भी पूरी नहीं है। इनमें मात्र निक्षेप की प्रारम्भिक चर्चा हुई है। इसे सुरक्षित रखने की दृष्टि से हमने इसे सम्पादित कर अनुयोगद्वार के प्रकाशन के समय उसके परिशिष्ट में जोड़ दिया है। Jain Education Intemational tior Intermational Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्रक अशुद्ध वृभा मुखधावने-दन्तप्रक्षालने-तैलं बृभा मुखधावन-दन्तप्रक्षालन-तैल पादटिप्पण १ ३६ छाया २२ टिप्पण संख्या पादटिप्पण १ १८ २४ २१ मूल टिप्पणांक टिप्पणांक पाद टिप्पण ३ ४ मूल छाया शीर्षक उवृवृनि अनुदत्त कोमलुम्मिलियामि काय गौव्रती गथ २२.२३.२४ २५.२६.२७. क्षेत्रखडा नपुंसग्गस्स पारिणामिकनिष्पन्न. सातव ण आयुर्वेद अजीवोदयनिष्यन्न पर्याय मुक्त अविहिंसा वाला उबृवृनि अनुदात्त कोमलुम्मिलयम्मि कार्य गोव्रती गंथ २३.२४.२५. २६.२७.२८. सु. १५० में २९ क्षेत्रखंडा नपुंसगस्स पारिणामिकनिष्पन्न : सातवां प्रकरण : आयुर्वेद अजीवोदयनिष्पन्न पर्याय युक्त विहिंसा वाले १७५ १७९ १७९ २९ ५ अनुवाद ३० अनुवाद २९ अनुवाद "rm ० wwrrrrrrrm m mmmmmmmm ३११ पाद टिप्पण ३ (क) पृ. २: पाद टिप्पण १ (क) ३६ अनुवाद शरीक तात्पर्य हैं ३४ छाया सामान्यदृष्टम। ३० छाया सख्येयकम् ५ अनुवाद सताईस १६ अनुवाद श्लाका जगन्य जण्णय महाशला का २० अनुवाद आगमत ३२ छाया निशितम गंथ ग्रन्थ पृ. ७२ : (ख) शरीर तात्पर्य है सामान्यदृष्टम् । संख्येयकम् सत्ताईस शलाका जघन्य जहण्णयं महाशलाका आगमतः निदशितम् गथ ग्रन्थ ३११ ३५८ ३९२ Jain Education Intemational Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________