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प्र० १, सू० १३, टि०६ ५. परिचित कर लिया (परिजिय)
परिचित चित की विशिष्ट स्थिति है। चित में जो स्मृति होती है वह क्रमशः होती है। परिचित में क्रम और व्युत्क्रम दोनों प्रकार से स्मृति होती है। परावर्तन करते समय उल्टे सीधे के क्रम से पूरे ग्रन्थ को दोहराना अथवा पूछे जाने पर क्रम या व्युत्क्रम से तत्काल बता देना।'
__शास्त्र को परिचित करने के लिए अपात्र को भी वाचना देने का विधान है। इसका हेतु यह है-जिनके पास शास्त्र का अध्ययन किया जाता वे दिवंगत हो गए। दूसरा कोई पात्र शिष्य प्रतिपृच्छा करने वाला नहीं है। इस स्थिति में शास्त्र की विस्मृति अपरिहार्य है । इसलिए योग्य शिष्य न हो तो अपात्र को भी वाचना दे देनी चाहिए।' ६. नामसम कर लिया (नामसमं)
जैसे अपना नाम स्थिर, स्मृति योग्य, निर्धारित वर्ण वाला और परिचित होता है उसी प्रकार ग्रन्थ या ग्रंथांश को अपने नाम की तरह याद रखना।' ७. घोषसम कर लिया (घोससमं)
गुरु के पास वाचना लेते समय गुरु द्वारा उच्चारित उदात्त आदि घोषों के अनुसार उच्चारण करना।'
घोष के तीन प्रकार होते हैं -उदात्त, अनुदात्त और स्वरित । वैदिक संस्कृत में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित को स्वरवर्णों का धर्म माना गया है । बलदेव उपाध्याय ने वैदिक व्याकरण का विश्लेषण करते हुए लिखा है -अक्षर के उच्चारण में दो प्रकार के स्वर लगाए जाते हैं । एक होता है-स्वर का आरोह और दूसरा होता है स्वर का अवरोह ।।
इसकी एक मिश्रित दशा भी तब होती है जब उच्चारणकर्ता उच्चस्वर से एकदम नीचे स्वर की ओर उतरता है। जहां आरोह से एकदम अवरोह की ओर जाता है वहां एकदम उतरना संभव न होने से बीच में वह टिकता है। इसे ही आधुनिक ध्वनिविद् Rising galling tone कहते हैं। हमारे यहां ये स्वर उदात्त, अनुदत्त और स्वरित के नाम से पुकारे जाते हैं। ८. हीनाक्षर और अत्यक्षर दोष रहित होना (अहीणक्खरं अणच्चक्खरं)
कुछ अक्षरों को छोड़कर पढ़ना होनाक्षर है और जोड़कर पढ़ना अत्यक्षर है । जैसा सुना या पढ़ा उसका वैसा ही उच्चारण करना अहीनाक्षर और अनत्यक्षर है।
अक्षरों को छोड़कर या बढ़ाकर पढ़ने से अनेक दोषों की संभावना रहती है। एक भी अक्षर की विस्मति होने पर मूल अर्थ प्राप्त नहीं हो सकता। इस तथ्य को एक उदाहरण से स्पष्ट किया गया है
१. (क) अचू. पृ. ७ : जं कमेण उक्कमेण उ अणेगधा
आगन्छंति तं परिजियं । (ख) अहाव. पृ. ९ परिजितमित सर्वतो जितं परिजितं । (ग) अमव. प. १४ : परि-समन्तात्सर्वप्रकारजितं
परिजितम् । परावर्तनं कुर्वतो यत्क्रमेणोत्क्रमण वा
समागन्छतीत्यर्थः। २. निचू. ४ पृ. २६१ : जस्स समीवातो गहियं सो मतो,
अण्णओ तस्स पडिपुच्छगं पि णत्थि, अतो परिजयट्ठा अपात्रं पि वाएज्जा। ३. (क) अच. पृ. ६ जधा सणामं सिक्खितं ठितं च तेण समं
जं तं णामसमं । अहाव. पृ. ९: नाम्ना समं नामसम, नाम-अभिधानं एतदुक्तं भवति स्वनामवत् शिक्षितादिगुणो
पेतमिति। (ग) अमवृ.प.१४ । (घ) विभा. ८५२ की वृत्ति : स्वकीयेन नाम्ना समं
नामसमं। ४. (क) अचू. पृ.७ : उदात्तादिता घोसा ते जधा गुरूहि
उच्चारिया तधा गहितंति घोससममिति । (ख) अहावृ. पृ. ९ : घोषा-उदात्तादय तैर्वाचनाचार्या
भिहितघोषः समं घोषसमम् । (ग) अमवृ. प. १४ । (घ) विभा. ८५२ की वृत्ति : यद् वाचनाचार्याभिहितैरु
दात्ताऽनुदात्तस्वरितलक्षणे?षः सदृशमेव गृहीतं
तद्घोषसमम् । ५. वैसासं. पृ. ६७८ । ६. (क) अचू. पृ.८: अणच्चक्खरं ति अहियक्खरंति ण
भवति। (ख) अहावृ. पृ. ९ अक्षरन्यून हीनाक्षरं न हीनाक्षरमहीना
क्षरं, अधिकाक्षरं नाधिकाक्षरमनत्यक्षरमिति । (ग) अमवृ. प. १४ ॥
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