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________________ २२ अणुओगदाराई जानता है और मंगल शब्द से अनुवासित है किन्तु मंगल शब्द के अर्थ में उपयुक्त (दत्तचित्त) नहीं है, वह आगम अथवा ज्ञान की अपेक्षा द्रव्यमंगल है । ' मंगल शब्द के अर्थ को जानने वाले पुरुष का मृत शरीर मंगल शब्द के अर्थ का ज्ञाता नहीं रहता, इसलिए वह ज्ञान के अभाव की अपेक्षा द्रव्य मंगल है। नो शब्द का प्रयोग सर्वनिषेध और देशनिषेध दोनों में होता है। यहां इसके दोनों अर्थ घटित हो सकते हैं । सूत्र १३ पाठ कंठस्थ करने की आगमकालीन पद्धति के पांच अंग हैं। पहला अंग है- शिक्षण । इसका अर्थ है उच्चारण की शुद्धि । दूसरा अंग है स्थिरीकरण । इसका अर्थ है अधीयमान ग्रन्थ को स्मृति में स्थिर कर लेना । तीसरा अंग है चित चयन। इसका अर्थ है कण्ठस्थ किए हुए पाठ को पुनरावृत्ति के योग्य बना लेना। चौथा अंग है मित-परिमाण । इसका अर्थ है वर्ण, मात्रा, हस्व-दीर्घ आदि के निश्चित परिमाण का ज्ञान करना। पांचवा अंग है - परिचित - परिचयन । इसका अर्थ है कण्ठस्थ किए हुए पाठ की स्मृति को अत्यन्त परिपक्व बना लेना। इसके आधार पर क्रम एवं व्युत्क्रम से पुनरावर्तन किया जा सकता है एवं परिमाण की भी स्मृति बनी रह सकती है। इससे आगे नामसम पद है, जो परिचयन का ही विशिष्टीकरण है। घोषसम आदि पद उच्चारण शुद्धि से सम्बद्ध हैं । शब्द-विमर्श १. सीख लिया ( सिक्खियं) प्रारम्भ से लेकर अन्त तक पढ़ा हुआ ग्रन्थ । " २. स्थिर कर लिया (ठियं ) कुछ व्यक्ति बातें सीखते हैं पर भूल जाते हैं । बहुत जब तक सीखा हुआ ग्रन्थ या ग्रन्थांश स्थिर नहीं होता उससे व्यक्ति लाभ नहीं उठा सकता। शिक्षित तत्त्व को मन में धारण कर लेना, जमा लेना अथवा उसकी अविस्मृति करना स्थिर करना है । * ३. चित कर लिया ( जियं) चित का अर्थ है ज्ञात किया हुआ । परावर्तन करते समय अथवा किसी दूसरे के द्वारा पूछे जाने पर जो तत्काल स्मृति में आ जाता है वह चित कहलाता है।" ४. मित कर लिया (मियं) सीखे हुए ग्रन्थ के श्लोक, पद, वर्ण, मात्रा आदि का निर्धारण करना मित है ।' १. विभा. २९ : आगमओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता । तितो सिहियो विभो २. विभा. ४४ : मंगलपयत्थ जाणयदेहो भव्वस्स वा सजीवोत्ति । नोआगमओ दव्वं आगमरहिओ त्ति जं भणिअं || ४५ : अहवा नो देसम्मि नोआगमओ तदेगदेसाओ : भूयस्स भाविणो वाऽऽगमस्स जं कारणं देहो || ३. (क) अचू. पृ. ७ जं आदितो आरम्भ पढतेणं अंतं गीतं तं सिक्खितं । नीतमधीत (ग) अमवृ. प. १४ : तत्रादित आरभ्य पठनक्रियया यावदन्तं नीतं तदिक्षितमुच्यते। ४. ( क ) अचू. पृ. ७ तं चैव हितए अविस्सरण भावठितं (ख) महा १.९ : शिक्षितमित्यंतं मित्यर्थः । Jain Education International ठितं भन्नति । चेतसि स्थितम्, न (ख) अहावृ. पृ. ९: स्थितमिति प्रयुतमिति यावत् । (ग) अमवृ. प. १४ : तदेवाविस्मरणतश्चेतसि स्थितम् । ५. (क) अचू. पृ. ७ : जं परावत्तयतो परेण वा पुच्छितस्स आदिमज्झते सव्वं वा सिग्धमागच्छति तं जितं । (ख) अहावृ. पृ. ९ । (ग) अमवृ. पृ. १४ । ६. (क) अचू. पृ. ७ जं वणतो तनुश्यमसाहि पर्यासलोगादिहि य संखितं तं मितं भण्णति । (ख) अहावृ. पृ. ९ : मितमिति वर्णादिभिः परिसंख्यातमिति । विज्ञातश्लोकपदवर्णादिसंख्यं (ग) अमवृ. प. १४ : मितं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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