________________
२४
अणुओगदाराई
राजगृह नगर में भगवान महावीर पधारे । उनकी देशना सुनकर परिषद् अपने घर जा रही थी। मार्ग में श्रेणिक राजा ने एक विद्याधर को देखा, जो पंखहीन पक्षी की तरह आकाश में उत्पात-निपात कर रहा था। राजा श्रेणिक वापिस भगवान के पास आया और विद्याधर के बारे में जिज्ञासा की। भगवान ने बताया कि वह अपनी नभोगामिनी विद्या का एक अक्षर भूल गया है अतः आकाश में उड़ने के लिए असमर्थ है ।
राजा श्रेणिक के पास अभयकुमार बैठा था। भगवान् के मुंह से यह बात सुनकर वह विद्याधर के पास गया और बोलायदि तुम मुझे अपनी विद्या सिखाओ तो मैं तुम्हें विस्मृत अक्षर की स्मृति दिला सकता हूं। विद्याधर ने अपनी स्वीकृति दे दी। अभयकुमार ने पदानुसारी लब्धि से विस्मृत अक्षर को प्राप्त कर बता दिया और विद्याधर ने भी अपनी आकाशगामिनी विद्या का रहस्य बता दिया । एक ही अक्षर की विस्मृति से वह अपने कार्य में असफल रहा और स्मृति आते ही अपने गंतव्य-स्थल वैताढ्य गिरि पर पहुंच गया।'
हीनाक्षर की तरह अधिक अक्षर जोड़कर पढ़ने से भी मूल की विकृति हो जाती है। अधिकाक्षर के सम्बन्ध में भी एक उदाहरण दिया गया है
कुमार कुणाल अशोक का पुत्र था। अशोक पाटलिपुत्र में रहता था और कुमार का पालन-पोषण उज्जयिनी में होता था। जब कुमार की अवस्था आठ वर्ष से कुछ अधिक हो गई तो लेखवाहक ने आकर राजा अशोक को निवेदन किया। राजा ने अपने हाथ से एक लेख लिखा-"इदानीमधीयतां कुमारः" और कार्यवश कक्ष से बाहर चला गया ।
इधर कुमार की सौतेली मां ने यह लेख पढ़ा। उसने सोचा-मेरा पुत्र कुणाल से छोटा है। कुणाल में राज्य संचालन की योग्यता रहेगी तो मेरे पुत्र को राज्य नहीं मिल सकेगा। इसलिए कुणाल की योग्यता को समाप्त कर देना चाहिए । यह सोचकर उसने अपनी नयनशलाका को थूक से गीला कर अकार पर बिंदु लगा दिया। 'अधीयता कुमारः' के स्थान पर 'अंधीयतां कुमारः' हो गया । रानी ने पत्र को उसी स्थान पर रख दिया । राजा ने उसका पुनर्वाचन किए बिना ही उसे लेखवाहक के साथ भेज दिया। पत्र कमार के पास पहुंचा । किसी संरक्षक ने उसे पढ़ा। पर कुमार के विरुद्ध समझ कर सबको नहीं सुनाया। कुमार ने आग्रह किया तब उसे पढ़कर सुनाया गया।
कुमार ने लेख का अभिप्राय समझकर कहा-“मौर्यवंशी राजाओं की आज्ञा का लंघन कोई भी नहीं कर सकता, फिर मैं पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन कैसे करूं?"
पारिवारिक जनों के मना करने, रोने चिल्लाने पर भी कुमार ने तप्तशलाकाओं से दोनों आंखों को आंज लिया और अंधा
हो गया।
एक बिंदु की अधिकता ने कुमार कुणाल की आंखों की ज्योति ले ली । इसी प्रकार एक बिन्दु, मात्रा या अक्षर को अधिक करके शास्त्र का पठन करने से दोषों की संभावना रहती है।
हीनाक्षर और अधिकाक्षर से विधेय स्पष्ट नहीं होता है अतः हीन और अधिक अक्षरों का उच्चारण इस प्राप्ति में बाधक बनता है जैसे कोई माता-पिता या वैद्य बच्चे को कटु औषधि कम मात्रा में देता है और मधुर औषधि अधिक मात्रा में, तो बच्चा स्वस्थ नहीं होता। इसी प्रकार हीनाधिक वाचन से अर्थ गम्य नहीं होता।'
मात्रा, बिन्दु आदि को घटाकर या बढ़ाकर पढ़ने से सूत्र का भेद होता है। सूत्रभेद से अर्थ में विसंवाद आता है। अर्थ में विसंवाद होने से क्रियारूप चारित्र में भेद होता है। चारित्रिक भेद मोक्ष में बाधक बनता है। मोक्ष का अभाव दीक्षा को व्यर्थता का सूचक है। इसलिए सूत्र के उच्चारण में बहुत सतर्क रहना चाहिए। ९. विपर्यस्त अक्षर न होना (अम्वाइद्धक्खर)
विपर्यस्त अक्षरों के उच्चारण को व्याविद्ध कहते हैं। जो ऐसा नहीं होता है उसे अव्याविद्ध कहते हैं। टीकाकार ने इसको एक उदाहरण से समझाते हुए लिखा है-किसी रत्नमाला में रत्न पिरोते समय विपर्यास हो जाता है तो वह अच्छी नहीं
१. विभा. ८६४ : बिज्जाहररायगिहे उप्पय पडणं च हीणदोसेण ।
कहणो सरणागमणं पयाणुसारिस्स दाणं च ॥ २. विभा. ८६१ की वृत्ति ।
३. विभा. ८६५ : तित्तकडभेसयाई मा णं पीलेज्ज ऊणए देइ। पडणइ न तेहि अहियेहि मरइ बालो तहाहारे । ४. विभा. ८६६:
अत्थस्स विसंवाओ सुयभेयाओ तओ चरणभेओ। तत्तो मोक्खाभावो मोक्खाभावेऽफला दिक्खा ॥
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org