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प्र० १, सू० १३, टि०१०
२५ लगती। इसी प्रकार कहीं का सूत्र, अक्षर या मात्रा अन्यत्र बोलने से सूत्र शैली का सौन्दर्य तो नष्ट होता ही है, अर्थबोध में बहत बड़ी उलझन खड़ी हो जाती है। इसलिए जहां जो जैसे है, उसका वैसे ही उच्चारण करना अव्याविद्ध अक्षर है।' अस्खलित
पथरीली भूमि में हल चलाया जाए तो बीच-बीच में स्खलित होता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति ग्रन्थ का उच्चारण भी स्खलित रूप से करता है । अस्खलित उच्चारण में मध्यावरोध नहीं होता। अमीलित
सभी व्याख्याकारों ने इसके दो अर्थ किए हैं१. अनेक सूत्रों को एक साथ मिला कर पढ़ने को मीलित कहते हैं जैसे-भिन्नजातीय अनेक धान्यों को एक साथ मिश्रित कर देने से उनका अच्छा उपयोग नहीं हो सकता, वैसे ही अनेक सूत्रों को मिश्रित कर पढ़ने से सही अर्थ गम्य नहीं होता। २. जिस वाक्य में यति और विराम ठीक हों, उसे भी अमीलित कहते हैं।'
विशेषावश्यक भाष्य की वत्ति में इसकी प्रकारांतर से व्याख्या की गई है-जिसमें पद और वाक्य का विच्छेद समुचित रूप से होता है उसे अमीलित कहते हैं। अव्यत्यानेडित
___ अनेक शास्त्रों के पद, वाक्य और अवयवों से मिश्रित सूत्र के उच्चारण को व्यत्यानंडित कहते हैं। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या दो प्रकार से की है
१. एक ही शास्त्र में अन्य-अन्य स्थानों के एकार्थक सूत्रों को एक स्थान पर लाकर पढ़ने का नाम व्यत्याम्रडित है।
२. नश्यमान सूत्र के स्थान पर अपनी बुद्धि से कल्पित सूत्र का प्रक्षेप कर पढ़ने का नाम व्यत्याने डित है । इस व्याख्या के अनुसार समग्र प्रक्षिप्त अंश व्यत्यानंडित दोष में आ जाता है।"
टीकाकार ने उपर्युक्त पद की व्याख्या तीन प्रकार से की है। दो व्याख्याएं पूर्ववत् हैं। तीसरी व्याख्या का सम्बन्ध उच्चारणगत अशुद्धि से है। शास्त्रोच्चारण के समय जहां विराम लेना चाहिए, वहां विराम न ले, उसे यतिभंग दोष या अस्थानविरतिंक दोष कहते हैं। किन्तु यह व्याख्या समीचीन प्रतीत नहीं होती क्योंकि यति और विराम की चर्चा अमीलित पद में की जा चुकी है अतः यहां अपेक्षित नहीं है।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार अनेक प्रकार के शास्त्रों के पदों और वाक्यों से मिश्रित सूत्र व्यत्यानंडित होता है अथवा अनुपयुक्त रूप से शास्त्र में किसी अंश का पृथक्करण या ग्रन्थन करना व्यत्यानंडित है । वृत्तिकार हेमचन्द्र ने इसको भेरीकथा और कोलिकपायस के उदाहरण से स्पष्ट किया है।" १. (क) अचू. पृ.८: अव्वाइद्ध अविवच्चक्खरं पदं ।
४. विभा. ८५४ को वृत्ति-'अमिलियपयवक्कविच्छेयं ति' (ख) अहाव. पृ.९ : विपर्यस्तरत्नमालागतरत्नानीव
अथवेत्यत्रापि तृतीय व्याख्यान्तसूचकः सम्बध्यते, अमिलिन व्याविद्धानि अक्षराणि यस्मिस्तदव्याविद्धाक्षरम् । तोऽसंसक्तः पदवाक्य-विच्छेदो यत्र, तद् वाऽमिलितमुच्यते । (ग) अमवृ. प. १४ ।
५. अचू. पृ.८ : एगातो चेव सत्यातो जे एकाधिकारिसुत्ता ते (घ) विभा. ८५३ की वत्ति ।
सम्वे वीणोउं एगतो करेति, एवं विच्चामेलितं, अहवा २. (क) अचू. पृ.८ : पादसिलोगादीहि य उवलाकुलभूमीए
समतिविकप्पिते नस्समाणे सुत्ते काउं बुवतो विच्चामेलितं जधा हलं खलते तधा जं परावत्तयतो खलते तं खलितं दिठैते धानं । ण क्खलितं अक्खलितम् ।
६. अमव. प. १४ : अस्थानविरतिकं वा व्यत्यानेडितं न तथा (ख) अहावृ. पृ. ९।
ऽव्यत्यानेडितम् । (ग) अमवृ. प. १४ ।
७. विमा. ८५५ की वृत्ति-विविधानि नानाप्रकाराण्यनेकानि (घ) विभा. ८५४ को वृत्ति ।
शास्त्राणि तेषां पदवाक्यावयवरूपा बहवः पल्लवास्तविमिश्र ३. (क) अचू. पृ.८ : अण्णोन्नसत्थमिस्सं तं मिलितं दिळंतो,
व्यत्यानंडितं अथवा अस्थानविच्छिन्नग्रथितं व्यत्यानेडितं असमाणधण्णमेलोव्व एवं जण्ण मिलितं, उच्चरतो
यथा-'प्राप्त राज्यस्य रामस्य राक्षसां निधनं गताः' वा पदपादसिलोगादीहि वा अमिलितं ।
कोलिकपायसवद भेरीकन्थावद् वा, यथोक्तरूपं यद् न भवति (ख) अहावृ. पृ. ९।
तदव्यत्यानेडितम् । (ग) अमवृ. प. १४॥
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