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मेरीकथा का उदाहरण
श्रीकृष्ण द्वारवती नगरी का राज्य करते थे। ओमुतिको कौमुदी उत्सव की सूचना के लिए पहली के लिए तीसरी भेरी बजाई जाती थी ।
श्रीकृष्ण के पास देवप्रदत्त श्रीखण्ड गोशीर्षमयी एक भेरी और थी जो छह महिने से बजाई जाती थी । इस भेरी का शब्द सुनने वालों के छह मास का अशिव उपशांत हो जाता और अनागत छ मास तक अशिव नहीं होता था ।
उनके पास देवपरिगृहीत तीन भेरियां कौमुदी, सांग्रामिकी और संग्राम की सूचना के लिए दूसरी और आकस्मिक प्रयोजन को सूचित करने
एक दिन दाहज्वर से पीड़ित एक व्यक्ति आया और भेरीरक्षक को हजार सुवर्ण मुद्राओं का प्रलोभन देकर भेरी का कुछ अंश मांगा । लोभवश रक्षक ने वैसा कर लिया और भेरी के कटे भाग में दूसरे चन्दन का थिग्गल लगवा दिया। इसी प्रकार कुछ और व्यक्ति भेरीरक्षक के पास आए और उसने धन के लोभ में प्रायः हिस्सा काट कर दे दिया तथा स्थान-स्थान पर दूसरे चन्दन के थिग्गल लगवा दिए ।
अणुओगदराई
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छह महिने बाद नियत समय पर श्रीकृष्ण ने भेरी मंगाई और अशिव की उपशांति के लिए उसे बजाना प्रारम्भ किया । भेरी तो बजी पर अशिव की उपशांति नहीं हुई । श्रीकृष्ण ने इस रहस्य को जानने की कोशिश की तब रक्षक की अप्रामाणिकता स्पष्ट हो गई । थिग्गल लगवाने का इतिहास जानकर श्रीकृष्ण ने उस भेरीरक्षक को दण्डित किया ।
श्रीकृष्ण ने देवाराधन करके दूसरी भेरी प्राप्त की और दूसरा रक्षक नियुक्त किया। वह रक्षक बहुत ईमानदार था अतः प्रयत्नपूर्वक भेरी की रक्षा में सजग रहता ।
तात्पर्य यह है कि जो शिष्य गुरु से प्राप्त श्रुत में अन्यतीर्थिकों से प्राप्त श्रुत के थिग्गल जोड़कर उसे जर्जरित करता है, वह शिष्य अयोग्य होता है और श्रुत की यथावत् सुरक्षा करने वाला शिष्य द्वितीय भेरीरक्षक की भांति योग्य होता है । अव्यत्याम्रेडित का आशय स्वभावस्थित श्रुत है । जो आगम गणधरों के द्वारा जिस रूप में रचित है, उसका उसी रूप में पाठ होना चाहिए ।
कोलिकपास का उदाहरण
कुछ तंतुवाय गोकुल में गए। वहां उन्होंने खीर बनाने का निर्णय लिया । खीर के लिए दूध उबाल कर गाढ़ा किया। इसमें कुछ भी डाला जाए, खीर बन जाएगी - यह सोचकर उन्होंने चावल, चौला, मूंग, तिल, भूसा सब कुछ उसमें डाल दिया । खीर को जगह भूसा बन गया और उसका कोई उपयोग नहीं हुआ, ठीक इसी प्रकार एक आगम में दूसरे आगमों का मिश्रण होने से वह अकिचित्कर हो जाता है ।
प्रतिपूर्ण
लघु गुरु आदि से पूर्ण तथा उदात्त आदि घोषों से युक्त उच्चारण लेते समय उनसे जैसा उच्चारण प्राप्त हुआ, उसे उसी रूप में दोहराना दोहराना प्रतिपूर्णघोष है। इनमें ग्रहण और पुनरावृत्ति का अन्तर है।' १. (क) अ. पृ. ७: बिंदुमत्ताविएहि जं बुवइ अणूणातिरितं पडिपुण्णं भण्णति, जतोवइट्ठ वा छंदेण ।
(ख) अहावृ. पृ. ९ : प्रतिपूर्ण ग्रन्थतोऽर्थतश्च तत्र ग्रन्थतो मात्रादिभिर्यत् प्रतिनियतप्रमाणं, छन्दसा वा नियतमानमिति, अर्थतः परिपूर्ण नाम न साकांक्षमव्यापकं स्वतन्त्रं चेति । (ग) अमवृ. प. १४ ।
२. विभा. ८५६ की वृत्ति ।
३. (क) अचू. पृ. ७ सहगुरुसेहि पुण्गं उदात्ताविहिवा
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जिस सूत्र में बिन्दु, मात्रा आदि की अधिकता या हीनता न हो, जिसके अर्थबोध में अध्याहार, आकांक्षा आदि की अपेक्षा न हो और जो यथोपदिष्ट छन्द से समन्वित हो वह प्रतिपूर्ण है ।"
मधारी हेमचन्द्र ने प्रतिपूर्ण के दो अर्थ बतलाये हैं-सूत्र की दृष्टि से प्रतिपूर्ण और अर्थ की दृष्टि से प्रतिपूर्ण । जिसमें बिन्दु और मात्रा कम या अधिक न हो तथा जो उपयुक्त छन्द वाला पाठ हो, वह सूत्र की अपेक्षा से प्रतिपूर्ण है । जिसमें क्रिया के अध्याहार की अपेक्षा नहीं रहती, अव्यापकता और अस्वतंत्रता नहीं रहती, वह अर्थ की दृष्टि से प्रतिपूर्ण है ।
प्रतिपूर्णघोषयुक्त
को प्रतिपूर्णघोष कहते हैं। गुरु के पास सूत्र की शिक्षा घोषसम है और पुनरावृत्ति करते समय उसे उसी रूप में
घोसेहिं उच्चरतो पुण्णं ।
(ख) अहावृ. पृ. ९ उदात्तादिघोषाविकलं परिपूर्णघोषं, आह्घोषसममित्युक्तं ततोऽस्य को विशेषः ? इति उच्यते, घोषसममिति शिक्षितमधिकृत्योक्तं प्रतिपुर्णपोषं तुच्चार्यमाणं गृह्यत इत्ययं विशेषः ।
(ग) अमवृ. प. १४ ।
(घ) विभा. ८५६ की वृत्ति ।
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