________________
प्र० १, सू० १४, टि०११
२७ कण्ठोष्ठविप्रमुक्त _ मुक्त कण्ठ और मुक्त होठ से निकला हुआ पाठ कष्ठोष्ठविप्रमुक्त होता है। बच्चे और मूक व्यक्ति भी अपनी भावनाओं को शब्दों द्वारा व्यक्त करते हैं। किन्तु व्याकरण-निर्दिष्ट आठ स्थानों और प्रयत्नों का बोध न होने के कारण वे शब्द का स्पष्ट उच्चारण नहीं कर सकते।
दोनों वृत्तियों में उक्त आशय की व्याख्या है ।' चूणि की व्याख्या इससे भिन्न प्रतीत होती है। उसके गृहित शब्द से लगता है कि 'कंठोट्ठविप्पमुक्कं' यह पाठ गुरूवाचनोपगत से संबद्ध है। चूर्णिकार के अनुसार शिष्य ने गुरु से अव्यक्तभाषित, बालभाषित और मूकभाषित जैसा पाठ ग्रहण नहीं किया किन्तु कण्ठ और होठ से मुक्त प्रयोग से उच्चारित पाठ का ग्रहण किया है। गुरुवाचनोपगत
गुरुवाचनोपगत का अर्थ है गुरु द्वारा प्रदत्त वाचना से प्राप्त । गुरु दूसरों को वाचना दे, उसे छिपकर सुनना कर्णाक्षेप कहलाता है । यह गुरु की साक्षात् वाचना नहीं है। इस प्रकार सुनने से अर्थ का बोध अस्पष्ट और विसंवादी रह सकता है । इसी प्रकार शिष्य स्वयं पढ़े, उसमें भी उक्त दोनों कमियां रह सकती हैं। इस दृष्टि से गुरु के सामने बैठकर जो वाचना ली जाती है, उसका महत्त्व स्वीकार किया गया है।
षट्खण्डागम में स्थित आदि कुछ पद उक्त विवरण के समान हैं और कुछ भिन्न हैं। जो पद समान हैं, उनमें भी अर्थभेद मिलता है। धवला के अनुसार अवधारण किए हुए श्रुत का नाम स्थित है। अस्खलित रूप से संचार करने योग्य श्रुत का नाम जित या चित है । पूछे हुए विषय में तत्काल प्रवृत्ति की जा सके, वैसे श्रुत का नाम परिचित है। नाना रूप से जो जानता है उसे नाम कहते हैं। यहां नाम का अर्थ व्यक्तिवाचक संज्ञा अभिप्रेत नहीं है किन्तु श्रुत का ज्ञाता अथवा द्रव्यश्रुत विवक्षित है। वाचनोपगत का अर्थ है-दूसरों को प्रत्यय कराने में समर्थ । इसके अतिरिक्त वहां सूत्रसम ग्रन्थसम आदि पद भी उपलब्ध होते हैं।' अनुप्रेक्षा
अधिगत या ज्ञात अर्थ का तन्मयता के साथ मन से अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है । जैसे तप्त लोहपिण्ड अग्निमय बन जाता है, वैसे ही अनुप्रेक्षा करने वाला अर्थ के प्रति समर्पित होकर अर्थमय बन जाता है।
वाचना आदि उपयोग शून्य भी हो सकते हैं किन्तु अनुप्रेक्षा उपयोग शून्य नहीं हो सकती । इसलिए शिक्षित पद से लेकर धर्मकथा पर्यन्त पद द्रव्यनिक्षेप की कोटि में आ सकते हैं किन्तु अनुप्रेक्षा द्रव्यनिक्षेप में नहीं आ सकती।
सूत्र १४ ११. (सू० १४)
द्रव्य निक्षेप के आगमतः-ज्ञानात्मक पक्ष पर सात नयों से विचार किया गया है। नैगम नय का विषय सामान्य और विशेष दोनों हैं इसलिए उसके अनुसार द्रव्यावश्यक एक, दो, तीन यावत् लाख, करोड़ कितने ही हो सकते हैं। जितने अनुपयुक्त हैं वे सब द्रव्यावश्यक हैं। व्यवहार नय का विषय है विशेष अथवा भेद । यह लोक व्यवहार को मान्य करता है इसलिए इसमें भी नंगम नय की भांति द्रव्यावश्यक की संख्या का निर्देश किया जा सकता है । संग्रह नय का विषय है-सामान्य । इसलिए उसमें द्रव्यावश्यक का राशिकरण हो सकता है जैसे एक द्रव्यावश्यक और अनेक द्रव्यावश्यकों की एक राशि । ऋजुसूत्र का विषय है-पर्याय । इसलिए उसके अनुसार एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः द्रव्यावश्यक है, बहुवचन इसे मान्य नहीं। तीनों शब्द नयों का विषय है --शब्द । उनके अनुसार कोई व्यक्ति जानता है और उपयुक्त नहीं है - ऐसा हो नहीं सकता । अतः उन्हे आगमतः द्रव्यावश्यक मान्य नहीं है ।
१. (क) अहावृ. पृ. ९ : कंठश्चौष्ठी कण्ठोष्ट, प्राण्यङग्त्वादेकवद्भावस्तेन विप्रमुक्तमिति विग्रहः, नाव्यक्तबालमूकभाषितवत्। (ख) अमवृ. प. १४॥ २. अचू. पृ. ७ : गुरुणा अव्वत्तं णुभासंतं बालमूअभणितं वा,
कहं वा भासतो गहियं ? उच्यते, कंठे वट्टितणे परिफुडउट्ठविप्पमुक्केण भासतो गहियं । ३. (क) अचू. पृ. ७, ८ : एवं गुरुसमीवातो तेणागतं, ण कण्णा
हेडितं, पोत्थयाओ वाअणं ण भवति । (ख) अहावृ. पृ.९। (ग) अमव. प.१४। (घ) विभा. ८५७ की वृत्ति । ४.ध. ९४,१,५४।२५९७ । ५. तवा. ९।२५ : अधिगतपदार्थप्रक्रियस्य तप्तायसपिंडवपित
चेतसो मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा वेदितव्या।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org