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अणुओदारा
प्रकार मानने से प्रदेश के
उसके पच्चीस भेद हो जाएंगे। प्रत्येक प्रदेश के पांच प्रकार पांच द्रव्य प्रदेशों से गुणित होने पर पच्चीस होते हैं । इसलिए यह कहना उचित होगा कि प्रदेश धर्म आदि पांच विभागों से विकल्पनीय है । इस पांच भेद घटित हो जाते हैं । शब्दनय
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प्रदेश की विकल्प - स्वीकृति पर आपत्ति करता हुआ शब्दनय कहता है विकल्प की स्थिति में धर्मास्तिकाय का प्रदेश अधर्मास्तिकाय का हो जाएगा। अधर्मास्तिकाय का प्रदेश धर्मास्तिकाय का हो जाएगा। जैसे कोई व्यक्ति कभी राजा का सेवक हो जाता है और कभी अमात्य हो जाता है । नियत व्यवस्था के अभाव में प्रदेश के साथ भी यही घटित होगा । इसलिए अनवस्था के प्रसंग को टालने के लिए यह मानना उचित है कि जो धर्मात्मक प्रदेश है- धर्मास्तिकाय से अभिन्न प्रदेश है वह प्रदेश धर्म है । इसी प्रकार अधर्म और आकाश का प्रदेश है। जीव और स्कन्ध संख्या में अनन्त हैं । इनका प्रदेश जीवत्व और स्कन्धत्व से अभिन्न न होने के कारण जीवात्मक प्रदेश नोजीव है, स्कन्धात्मक प्रदेश नोस्कन्ध है । यहां 'नो' शब्द देशवाचक है। सकल जीव में व्याप्त नहीं है इसलिए वह उसके एक भाग में है अर्थात् जीव का एक देश है ।
एक जीव का प्रदेश
समभिरूढनय
धर्म-प्रदेश शब्द में दो समास संभावित हैं । 'धर्मे प्रदेश : ' इस विग्रह वाक्य में तत्पुरुष समास होता है जैसे वने - हस्ती, तीर्थेकाक: यह सप्तमी तत्पुरुष समास है। यदि विग्रह वाक्य में प्रथमा विभक्ति की विवक्षा करते हैं जैसे- 'धर्मश्चासौ प्रदेशश्च' तो कर्मधारय समास होता है, जैसे नीलं च तद् उत्पलं च तद् । तत्पुरुष समास भेद और अभेद दोनों में होता है जैसे कुण्डे बदराणि घटे रूपम् राज्ञः पुरुषः, राज्ञः शरीरम् । कुण्डे बदराणि राज्ञः पुरुषः भेदपरक समास है । घटे रूपम् और राज्ञः शरीरम् अभेदपरक है । धर्मे प्रदेश :- इसमें तत्पुरुष समास होने से भेद और अभेद का सन्देह हो सकता है । इसलिए समभिरूढनय विशेषण सहित कर्मधारय को स्वीकार करता है ।
एवंभूतनय
एवंभूतनय का अभिमत है द्रव्य अखण्ड होता है । उसमें देश और प्रदेश की कल्पना करना व्यर्थ है । इसलिए देश भी अवास्तविक है, प्रदेश भी अवास्तविक है।
सातों नय ज्ञानात्मक है। ज्ञान जीव का गुण है। इसलिए इनका अन्तर्भाव गुणप्रमाण में भी हो सकता है। किंतु वहां ज्ञान बहुत अधिक विवेचना के विषय
नय-प्रमाण के रूप में बताया
के भेदों में प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों की चर्चा है। 'नय-प्रमाण इन से भिन्न रूप में प्रसिद्ध हैं', हैं और इनकी जिनागमों में अपनी स्वतंत्र उपयोगिता है। इसलिए इनको जीव-गुण-प्रमाण से पृथ गया है ।
तीनों दृष्टान्तों का तात्पर्यार्थ
द्रव्य और वस्तु की विचारणा के अनेक मार्ग हैं। वह विचारणा कभी स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतर तथा कभी अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर होती है । द्रव्य के अनेक पर्याय हैं । स्थूल विचार के द्वारा स्थूल पर्याय, सूक्ष्म विचार के द्वारा सूक्ष्म पर्याय और सूक्ष्मतर विचार के द्वारा सूक्ष्मतर पर्याय का ग्रहण होता है । स्थूल विचार को सापेक्ष दृष्टि से अशुद्ध, सूक्ष्म विचार को सापेक्ष दृष्टि से शुद्ध और सूक्ष्मतर विचार को सापेक्ष दृष्टि से शुद्धतर कहा जाता है ।
नैगमनय की दृष्टि में प्रस्थक का संकलन भी प्रस्थक है, प्रस्थक का निर्माण भी प्रस्थक है किंतु तीन शब्दनयों की दृष्टि में प्रस्थक कोई काष्ठ पात्र नहीं है, वह प्रस्थक का ज्ञान और उपयोग है । इस दृष्टान्त का तात्पर्य है कि ज्ञेय एक अवस्था में ज्ञाता से भिन्न होता है और एक अवस्था में ज्ञाता से अभिन्न हो जाता है। इस अनेकान्तात्मक दृष्टि से ही वस्तु को समग्र दृष्टिकोणों से जाना जा सकता है । वसति दृष्टान्त ' के द्वारा आधार और आधेय की मीमांसा की गई है। शब्दनयत्रयी के अनुसार सब द्रव्य निरालम्ब अथवा स्वप्रतिष्ठ होते हैं। किसी द्रव्य के लिए आधार आवश्यक नहीं होता । नैगमनय की दृष्टि में आधार और आधेय का संबंध आवश्यक है । इसीलिए आधारभूमि के अनेक विकल्प किए गए हैं।
प्रदेश दृष्टान्त में अवयव और अवयवी के संबंध की मीमांसा की गयी है। एवंभूतनय द्रव्य के अवयवों को अस्वीकार करता है । नैगमनय अवयव और अवयवी के संबंध को मान्य करता है । इस प्रकार नय वस्तु के विभिन्न धर्मों और विभिन्न नियमों को सापेक्ष दृष्टि से जानने की प्रक्रिया है।
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