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________________ प्र०४, सू० १३०-१३८, टि० २२-२४ १०५ इस प्रकार आनुपूर्वी द्रव्य होंगेत्रिप्रदेशी द्रव्य-३ अष्टप्रदेशी द्रव्य-१ चतुष्प्रदेशी द्रव्य-५ नवप्रदेशी द्रव्य---१ पंचप्रदेशी द्रव्य-१ दसप्रदेशी द्रव्य-१ षट्प्रदेशी द्रव्य-१ कुल द्रव्य-१४ सप्तप्रदेशी द्रव्य-१ स्पष्ट है कि नैगम और व्यवहार सम्मत द्रव्यानुपूर्वी में अवक्तव्य द्रव्य सबसे कम होते हैं और आनुपूर्वी द्रव्य सबसे अधिक । शब्दविमर्श अप्रदेशार्थता प्रदेशार्थ की विवक्षा में परमाणु का प्रसंग विरोध उत्पन्न करता है। वह स्वयं अप्रदेश है। प्रदेशार्थ की दृष्टि से उसके प्रदेश सबसे कम हैं। यह बात कैसे घटित होगी? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार है-परमाणु एक प्रदेश से अतिरिक्त दूसरा प्रदेश नहीं है, इस अपेक्षा से उसकी अप्रदेशार्थता का निरोध नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा हो तो धर्मी भी नहीं हो सकता इसलिए उक्त प्रश्न विरोध उपस्थित नहीं करता। सूत्र १३१-१३७ २३. (सूत्र १३१-१३७) सू० ११४ से १३० तक नैगम और व्यवहार की दृष्टि से अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का विवेचन किया गया है। प्रस्तुत प्रकरण (सू० १३१ से १४६) में संग्रहनय की दृष्टि से अनौपनिधिकी द्रव्या नुपूर्वी का विवेचन किया गया है। नैगम और व्यवहारनय द्रव्य को अनेक भेद युक्त मानता है। संग्रहनय सामान्य को स्वीकार करता है। इसीलिए संग्रहनय की अनौपनिधिकी द्रव्य आनुपूर्वी में केवल एकवचन का प्रयोग होता है। सू० १३२ इसका उदाहरण है। जितने त्रिप्रदेशी स्कन्ध हैं वे त्रिप्रदेशिकत्व सामान्य का अतिक्रमण नहीं करते इसलिए त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी एक ही होगी। विशुद्धतर संग्रहनय की अपेक्षा आनुपूर्वीत्व का सामान्य होने के कारण आनुपूर्वी एक ही होगी। अनानुपूर्वी और अवक्तव्य के लिए भी यही नियम है। बहुत्व का अभाव होने के कारण बहुवचन का प्रयोग नहीं हो सकता। नैगम और व्यवहार की अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के २६ भंग होते हैं। संग्रहनय की व्याख्या में व्यक्ति का बहुवचन नहीं होता। इसलिए उसकी व्याख्या में बहुवचन के भंगों का प्रयोग नहीं होने से उसमें सात ही भंग होते हैं। सूत्र १३८ २४. अल्पबहुत्व नहीं होता है (अप्पाबहुं नत्थि) नैगम और व्यवहारनय के सन्दर्भ में अनुगम के नौ भेद किए गए हैं। संग्रहनय के सन्दर्भ में उसके आठ भेद हैं। संग्रहनय सामान्य धर्मों का संग्राहक है। सामान्य सदा एक रूप होता है। अतः इसमें अल्पता और अधिकता का विचार घटित नहीं हो सकता। १. अहावू. पृ. ३९ : 'अपदेसट्टयाए' त्ति अप्रदेशार्थत्वेन नास्य प्रवेशा विद्यन्त इत्यप्रदेश: परमाणः उक्तं च --- 'परमाणुप्रदेश' इति तद्भावस्तेन, अणोनिरवयवत्वादित्यर्थः, आह -- प्रदेशार्थतया सर्वस्तोकानोत्यभिप्राये अप्रदेशार्थनेति कारणाभिधानमयुक्त, विरोधात्, स्वभावो हि हेतुर्यदि प्रदेशार्थता कथमप्रदेशार्थता इति, अत्रोच्यते, आत्मीयकप्रदेशव्यतिरिक्तप्रदेशान्तरप्रतिषेधापेक्षा प्रदेशार्थता, न पुननिजकप्रदेशप्रतिषेधापेक्षाऽपि, धम्मिण एवाप्रसंगाद्विचारवैयर्थ्यप्रसंगाद् अलं विस्तरेण । २. अहाव.पृ. ३९ : सामान्यमात्रसंग्रहणशीलः संग्रहः । ३. वही, बहुत्वाभावाद् बहुवचनाभावः । ४. अमव. प. ६६ : संग्रहस्य सामान्यवादित्वात् सामान्यस्य च सर्वत्रकत्वादल्पबहुत्वविचारोऽत्र न संभवतीत्यर्थः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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