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________________ १०६ अणुओगदाराई सूत्र १४० २५. एक राशि (एगो रासी) संग्रहनय सामान्यग्राही है। इसके अनुसार द्रव्यों की संख्या का प्रमाण नहीं होता क्योंकि द्रव्यत्व की अपेक्षा से वे सब एक हैं। आनुपूर्वी द्रव्यों के बहुसंख्यक होने पर भी उनमें आनुपूर्वीत्व एक ही है। बहुत आनुपूर्वियां भी एक आनुपूर्वी में समाविष्ट हैं, अतः पिण्डीभूत राशि की स्वीकृति युक्तिसंगत है, जैसे बहुत परमाणुओं का स्कन्धरूप में परिणमन होने पर एक स्कन्ध बन जाता है वैसे ही बहुत सारे आनुपूर्वी द्रव्यों का आनुपूर्वी भाव में परिणमन होने पर एक आनुपूर्वी बन जाती है। इसी प्रकार संग्रहनय की अपेक्षा से अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी एक ही होंगे। सूत्र १४५ २६. तीसरे भाग में (तिभागे) संग्रह के आनुपूर्वी द्रव्य शेष अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों के एक तिहाई भाग में होते हैं। द्रव्यों की संख्या विषम होने पर भी इनकी अपनी-अपनी राशि है। तीनों राशियां समान हैं। तीनों राशियों की समानता के कारण वे एक तिहाई भाग में ही होते हैं। चूर्णिकार ने इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। जैसे--एक राजा के तीन पुत्र थे। वे तीनों राजा से घोड़े की मांग कर रहे थे। राजा ने एक पुत्र को एक घोड़ा दिया जिसका मूल्य छह हजार रुपए था। दूसरे को दो घोड़े दिए उनका मूल्य तीन-तीन हजार रुपए था और तीसरे को बारह घोड़े दिए उनका मूल्य पांच-पांच सौ रुपए था। संख्या की दृष्टि से विषम होने पर भी प्रत्येक राजकुमार के घोड़े समग्र पूंजी के एक तिहाई भाग में आते हैं। सूत्र १४७ २७. (सूत्र १४७) औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के तीन प्रकार बतलाए गए हैं१. पूर्वानुपूर्वी २. पश्चानुपूर्वी ३. अनानुपूर्वी कषायपाहुड़ में अनानुपूर्वी के स्थान पर यत्रतत्रानुपूर्वी शब्द का प्रयोग मिलता है। १. पूर्वानुपूर्वी-प्रथम से गणना प्रारम्भ करना, यह अनुलोम क्रम है। २. पश्चानुपूर्वी -- अन्तिम से गणना प्रारम्भ करना, यह प्रतिलोम क्रम है। ३. अनानुपूर्वी-अनुलोम क्रम और प्रतिलोम क्रम को छोड़कर कहीं से भी गणना प्रारम्भ करना।' यत्रतत्रानुपूर्वी का भी यही तात्पर्य है। १५१वें सूत्र में भी औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के ये ही तीन प्रकार बतलाए गए हैं। प्रथम विकल्प में अनादि पारिणामिक द्रव्य का उदाहरण दिया गया है। द्वितीय विकल्प में सादि पारिणामिक पुद्गल द्रव्य का उदाहरण दिया गया है। ये दो विकल्प उदाहरण की भिन्नता के आधार पर किए गए हैं। १. अहाव. पृ. ४० : एकरासिग्रहणेण बहुसुवि आणुपुग्विदम्बेसु एक्कं चेव आणुपुब्विभावं सेति, जहा भूतेसु कठीणमुत्तत्तं, अहवा जहा बहवो परमाणवो खंधत्तभावपरिणता एगखधो भण्णति, एवं बहु आणुपुग्विदव्वा आणुपुब्विभावपरिणयत्तणतो एगाणपुश्वित्तं एगतणओ एगो रासीति भणितम् ।। २. अमव.प. ६६ : भागद्वारे 'नियमा तिभागे होज्ज' ति त्रयाणां राशीनामेको राशिस्त्रिभाग एव वर्तत इति भावः । ३. (क) अचू पृ. २८ । (ख) अहावृ. पृ. ४१ । ४. (क) अहावृ. पृ ४१ : प्रथमात्प्रभृति आनुपूर्वी अनुक्रमः परिपाटी पूर्वानपूर्वो, पाश्चात्यात्-चरमादारभ्य व्यत्ययेनैवानपूर्वी पश्चानुपूर्वी, न आनुपूर्वी अनानु पूर्वी यथोक्तप्रकार यातिरिक्तरूपेत्यर्थः । (ख) अमवृ. प. ६७ । ४. कपा. पृ. २८ : जं जेण कमेण सुत्तकारेहि ठइदमुप्पण्णं वा तस्स तेण कमेण गणणा पुवाणु पव्वी णाम । तस्स विलोमेण गणणा पच्छाणपुवी। जत्थ वा तत्थ वा अप्पणो इच्छिदमादि कादूण गणणा जत्थतत्थाणुपुब्वी होदि । For Private & Personal Use Only Jain Education Interational www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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